जीवन परिचय सीताराम चौहान पथिक

जीवन – परिचय ।

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सीताराम चौहान पथिक
  • नामसीताराम चौहान पथिक
  • जीवन संगिनीस्व रंजना चौहान
  • जन्म तिथि: 5 जुलाई, 1940
  • जन्म स्थान- बठिंडा, पंजाब
  • योग्यता-एम ए हिंदी, बी-एड, साहित्य रत्न, प्रभाकर ,अनुवाद में डिप्लोमा ।

प्रकाशित पुस्तकें:


  • घूंट-कुछ कड़वे कुछ मीठे ।
    (कहानी- संग्रह)
  • नारी तुम केवल श्रद्धा हो (नारी-प्रधान नाटक संग्रह )
  • दर्पण — कविता संग्रह
  • वेदनाओ के ज्वाला- मुखी(कविता- संग्रह )
  • लावा ( कविता – संग्रह )
  • पीड़ा- घटते मूल्यों की( कविता – संग्रह )
  • कृष्ण- सुदामा मैत्री (खण्ड- काव्य )
  • स्वाभिमानी महाराणा प्रताप (खण्ड- काव्य)
  • गुरुकुल शिक्षा- एक स्वर्णिम अध्याय( खण्ड- काव्य )
  • बचपन और पचपन (बाल- गीत संग्रह)

साहित्यिक-उपलब्धियां


अब तक 100 सम्मान, जिनमे प्रमुख हैं

  1. राष्ट्रीय महा – महोपाध्याय विदश्री,
  2. जीवनोपलब्धि सम्मान,
  3. विद्या- वाचस्पति सम्मान,
  4. लाइफ- टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड ,
  5. अभिनन्दन -पत्र,
  6. भाषा – भूषण सम्मान आदि।

अन्यान्य —


  1. यूनेस्को के अन्तर्गत पुस्तक- एच आई वी काउन्सलिंग गाइड का हिन्दी अनुवाद,
  2. फ्रैंक माॆॅरिस की अंग्रेजी पुस्तक– जवाहरलाल नेहरू का हिन्दी अनुवाद,
  3. दिल्ली सरकार के वरिष्ठ विद्यालयों में हिंदी अध्यापन का 40 वर्षीय अनुभव ।

सम्प्रति —


  • सेवा- निवॄत हिन्दी शिक्षक , स्वतन्त्र साहित्य सॄजन , अध्ययन -मनन ।।

सम्पर्क —


  • सी-8 , 234ए , केशव पुरम, नयी दिल्ली — 110035
  • मोबाइल – 09650621606
  • दूरभाष-011-27106239
  • ई-मेल ChauhanSr40@gmail.com 
  • राष्ट्र-हित में नेत्रदान संकल्प

सीताराम  चौहान पथिक की रचना हिंदीरचनाकर पर 


hindi diwas speech/के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली

हर घर की नाम पट्टिका हो हिंदी में : डॉ चंपा श्रीवास्तव

hindi diwas speech:के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली की तरफ से विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में डॉ चंपा श्रीवास्तव पूर्व अध्यक्ष कला संकाय अधिष्ठाता छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर ने अपने उद्बोधन में कहा के हिंदी आज न कि भारतवर्ष में बल्कि संपूर्ण विश्व में अपना एक बृहद रूप स्थापित कर चुकी है उन्होंने यह भी कहा आइए हम सब विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर यह संकल्प लें के हम अपने घरों की नाम पट्टिका को हिंदी में लगवाने का काम करें। डॉ0 आर बी श्रीवास्तव प्राचार्य ने हिंदी दिवस के अवसर पर विश्व में हिंदी के बढ़ते हुए प्रभाव को जो उन्होंने विदेश यात्राओं में व्यावहारिक रूप से देखा उसको सभी के समक्ष रखते हुए कहा कि विश्व में ऐसे भी राष्ट्र हैं जहां पर हिंदी को पढ़ने पढ़ाने और हिंदी के क्षेत्र में वहां की सरकारें रोजगार देने में वचनबद्ध हैं। विदेशों की सरकारें यह सदैव प्रयासरत रहती हैं कि हिंदी सिर्फ व्यावहारिक भाषा ही नहीं कार्यालयों की भाषा एवं पत्र व्यवहार की भाषा बने।

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hindi diwas speech:असि0 प्रोफेसर अशोक कुमार ने हिंदी के वैश्विक स्तर की महत्वपूर्ण जानकारियां देते हुए कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह ने नागपुर में 10 जनवरी 2006 ने कहा कि आज से प्रतिवर्ष ‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाएंगे। भारत ही नहीं मारीशस बाली जकार्ता जैसे राष्ट्र हिंदी को अपनी कार्यालयों की भाषा, पत्र व्यवहार की भाषा एवं पठन-पाठन की भाषा के रूप में स्थापित कर रहे हैं। आज हिंदी अपना एक बृहद रूप स्थापित कर रही है हम सब सौभाग्यशाली हैं के ऐसे राष्ट्र में मेरा जन्म हुआ जहां की भाषा बहुधा हिंदी है।अशोक कुमार ने आगे कहा कि अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो हिंदी मन से मन को जोड़ने वाली भाषा है।

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hindi diwas speech:दयाशंकर राष्ट्रपति पुरस्कृत असिस्टेंट प्रोफेसर ने सभी को हिंदी दिवस की बधाई देते हुए कहा के हम और हमारी हिंदी हमारी पहचान है हमें अपनी पहचान को विश्व पटल पर अपने लेखन से स्थापित करना इसके लिए हमें हिंदी को और सबल एवं समृद्ध बनाना चाहिए। भारत के वर्तमान महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सभी न्यायालयों के ये सुक्षाव दिया है कि क्यूं न न्यायालयों में चल रहे मुकदमों के फैसले हिंदी में सुनाएं जाएं ताकि हमारे देश की गांव में निवास करने वाली कम पढ़ी लिखी जनता भी उसे पढ़ सकें और समझ सके “हिंदी पढ़ें-हिंदी बढ़े” ऐसी धारणा के साथ हम सब हिंदी को उत्तरोत्तर विश्व की अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखना चाहते हैं। यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है। के0डी0 शोध संस्थान के सचिव एवं चिकित्साधिकारी डॉ0 प्रभात श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदी हम सभी विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आज से यह संकल्प लें के कार्यालय में या बैंक खातों में जहां भी हम हस्ताक्षर करें, हिंदी में करें।कार्यक्रम का संचालन डॉ0 पूर्ति श्रीवास्तव असिस्टेंट प्रोफेसर मनोविज्ञान ने किया।

swami vivekananda  ideas/आधुनिक भारत के निर्माण में

आधुनिक भारत के निर्माण में

स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता

swami vivekananda  ideas:लेख का प्रारम्भ दो घटनाओं से करना चाहूँगा | बालक नरेन्द्र नाथ के पिता के निधन के उपरांत उनके घर की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई। खाने के लिए भी अन्न नहीं था। नौकरी भी नहीं मिल रही थी। तब माँ भुवनेश्वरी देवी ने नरेन्द्र से कहा, – जा अपने गुरु के पास और उनसे घर-परिवार के दुखों को दूर करने की प्रार्थना कर। जैसे ही नरेन्द्र ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के भीतर प्रवेश किया, उनको महाकाली का साक्षात्कार हुआ। तब नरेन्द्र ने देवी से प्रार्थना की, कि मुझे “ज्ञान दे, भक्ति दे, विवेक दे, वैराग्य दे।”
ऐसा तीन बार हुआ। वह गये थे नौकरी और घर की समृद्धि मांगने, पर मांग आये ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य।

दूसरी घटना 1893 ई. की है

एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था।

(swami vivekananda  ideas)

दूसरी घटना 1893 ई. की है एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था। उसमें सैकड़ो लोग बैठे थे लेकिन दो भारतीय थे भारतीय होनें के नाते आपसी बातचीत प्रारम्भ हुई । पहले ने पूछा आप कहाँ जा रहे हैं? जवाब मिला- अमेरिका। प्रतिप्रश्न में उत्तर मिला- हम भी अमेरिका जा रहे हैं। पहले वाले व्यक्ति ने पूछा आप अमेरिका क्यों जा रहे हैं जवाब मिला हिन्दुस्तान के अंदर स्टील बने इसलिए जा रहा हूँ। इग्लैंड वालों ने मना कर दिया अगर हिन्दुस्तानी स्टील बनाने लगेंगे तो पापड़ कौन बनाएगा ? दूसरे से पूछा आप क्या लेने जा रहे हो ? जवाब मिला कुछ लेने नहीं बल्कि देने जा रहा हूँ । आश्चर्य चकित व्यक्ति नें पूछा क्या देने जा रहे हो ? विश्व को भारत का सन्देश देने जा रहा हूँ । पहले व्यक्ति का नाम जमशेद जी टाटा और दूसरे व्यक्ति का नाम स्वामी विवेकानंद था|
नरेन्द्र नाथ दत्त से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक की यात्रा से ही आधुनिक भारत के निर्माण का पाथेय प्रस्फुटित होता है। ऐसा पाथेय जिसमें धर्म,ज्ञान,विज्ञान का हिंदुत्व की सामासिकता,सात्मीकरण, इस्लाम के भाईचारे और पश्चिम के तर्कवाद एवं मानवता वाद का अद्भुत समन्वय है । स्वामी विवेकानंद को राष्ट्रीय पुनरोत्थान का जनक माना जाता है कठोपनिषद से ग्राह्य उनका पाथेय “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” राष्ट्रीय पुनर्जागरण का वाहक बना तो भारतीय समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों पर भी उन्होंने प्रहार किया। विवेकानन्द ने भारत की भयंकर गरीबी और पतन के लिए अंग्रेजी उपनिवेशवाद से ज्यादा जाति-व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया। अमेरिका और यूरोप की बहुत सफल यात्रा के बाद भारत लौटने पर फरवरी 1897 ई. में मद्रास से 160 मील दूर ब्राह्मण अतिवादियों के वर्चस्व वाले एक गाँव कुम्बकोनम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा:-
दोस्तों, मैं तुम लोगों को कुछ कठोर सत्यों से अवगत कराना चाहता हूँ . . . हमारी दुरावस्था और अधोगति के लिए अंग्रेज़ नहीं, हम खुद जिम्मेदार हैं . . . हमारे अभिजात पूर्वजों ने आम लोगों को पैरों तले इतना कुचला कि वे पूरी तरह से असहाय हो गए, इतने जुल्म ढाए कि बेचारे लोग यह भी भूल गए कि वे इन्सान हैं। सदियों तक उन्हें केवल लकड़ी काटने और पानी भरने के लिए मजबूर किया गया। और तो और, उनकी यह धारणा बना दी गई कि उन्होंने गुलाम के रूप में ही जन्म लिया है . . . यही नहीं, मैं यह भी पाता हूँ कि अनुवांशिक संक्रमणवाद जैसे फालतू विचारों के आधार पर ऐसी दानवीय और निर्दयी युक्तियों . . . को प्रस्तुत किया जाता है ताकि इन पददलित लोगों का और अधिक उत्पीड़न और दमन या जा सके।” वस्तुतः उन्होंने भारतीय समाज के उत्थान का पाथेय राष्ट्रीय पुनरोत्थान को माना । ऐसा मार्ग जिसका प्रारम्भ तो प्राचीन संस्कृति की गौरव शाली परम्पराओं से होता है किन्तु उसमें अंतर्निहित कमियों को त्याग कर आधुनिकता के मार्ग पर बढनें का पथ-प्रदर्शन है।

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आज 21 वीं सदी में भारत राष्ट्र और भारतीय समाज का स्वरुप परिवर्तित हुआ है कुछ नवीन चुनौतिया उत्पन्न हुई हैं तो कमोबेश समस्याओं का स्वरुप जस का तस है। किन्तु आज भी स्वामी विवेकानन्द का दर्शन हमारी चुनौतियों से निपटने में हमें सहायता प्रदान करने में यथावत सक्षम है। आज भी भारत में एक बड़ा वर्ग है जो अतीत में केवल कमियाँ ढूंढता है अंग्रेजों के प्रचलित सिद्धांत का “White Man’s Burden” अन्धानुकरण करता है। निहित स्वार्थों से युक्त ये वर्ग भारतीय राष्ट्र के सशक्तीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। स्वामी विवेकानंद का वेदान्त दर्शन आज भी राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और नव निर्माण का पाथेय है।

आज निर्धनता,बेरोजगारी,अशिक्षा,कुपोषण,अति-जनसँख्या,सांप्रदायिक-उन्माद,क्षेत्रवाद उग्रवाद,नक्सलवाद,आतंकवाद पर्यावरणक्षरण,मानव-प्रकृति संघर्ष में वृद्धि आदि समस्याएं हैं जिन पर विजय प्राप्त कर ही आधुनिक व् सशक्त भारत को सशक्त किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका से भारत लौटे तो देशभर भ्रमण कर युवाओं को कहते- ‘निर्भय बनों। बलवान बनों। समस्त दायित्व अपने कन्धों पर ले लो और जान लो कि तुम ही अपने भाग्य के विधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता चाहिए वह सब तुम्हारे भीतर है।’क्या सचमुच सारी शक्ति हमारे भीतर है ? यह सवाल भी कई बार मन में आया। पर उत्तर तो स्वामीजी ने ही दे दिया। वे कहते थे- ‘अनंत शक्ति, अदम्य साहस तुम्हारे भीतर है क्योंकि तुम अमृत के पुत्र हो। ईश्वर स्वरूप हो।’ कहीं न कहीं 21 वीं सदी में भारत के युवा के मन में स्वयम में निहित ऊर्जा का बोध समाप्त हुआ है तभी वह शक्ति को बाहर ढूंढ रहा है आज आवश्यकता है कि युवाओं को उनमें निहित सार तत्व और ऊर्जा का बोध कराया जाए।

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स्वामी जी धर्म और ज्ञान को अलग अलग नहीं मानते थे उनका मानना था कि “जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह तथा विकास वश में लाया जाता है और फलदायी होता है ,उसे शिक्षा कहते हैं” वर्तमान शिक्षा की सीमा यही है कि वह तथ्यों के अन्धाधुन्ध अनुकरण पर बल देती है चरित्र निर्माण और नवाचारों से उसका सरोकार नहीं रह गया है। स्वामी जी कहते हैं
“हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है,जिससे चरित्र निर्माण हो ,मानसिक शक्ति बढे,बुद्धि विकसित हो और देश के युवक अपने पैरों पर खड़े होना सीखें।”उचित शिक्षा से ही तमाम समस्याओं का हल स्वयमेव हो जाएगा।

स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे

(swami vivekananda  ideas)

भारतीय सन्दर्भ में धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जो कि धारण करने वाली धृ धातु से बना है “धार्यते इति धर्मः” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। विज्ञान और धर्म के मध्य कोई भी विभेद नहीं है विज्ञान भी सिद्ध किया ज्ञान है अतः विज्ञानं एवं धर्म अलग-अलग नहीं वरन साध्य एवं साधन हैं। स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे यदि उनके विचारों का अनुपालन किया जाए तो पर्यावरणीय समस्याओं के वैज्ञानिक व् मानवीय समाधान का माडल तैयार किया जा सकता है जो कि पर्यावरण अनुकूल तकनीक के अनुप्रयोग में सहयोगी होगा।
उग्रवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याओं के मूल में संसाधनों का अनियमित एवं असमान वितरण है वह सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्ष में थे। रूढिवादिता,अंधविश्वास, निर्धनता और अशिक्षा की उन्होंने कटु आलोचना की। उन्होंने यह भी कहा कि,जब तक करोङों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है, किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता है। इस प्रकार समाज सेवा स्वामी जी का प्रथम धर्म था। उनकी मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। विवेकानंद राष्ट्रवादी थे परंतु उनका राष्ट्रवाद, समावेशी और करूणामय था। जब भी वे देश के भ्रमण पर निकलते, वे घोर गरीबी, अज्ञानता और सामाजिक असमानताओं को देखकर दुःखी हो जाते थे। वे भारत के लोगों को एक नई ऊर्जा से भर देना चाहते थे। वे चाहते थे कि आध्यात्म, त्याग और सेवाभाव को राष्ट्रवाद का हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने भारत के लिए एक आध्यात्मिक लक्ष्य निर्धारित किया था। विवेकानंद का राष्ट्रवाद, मानवतावादी और सार्वभौमिक था। वह संकीर्ण या आक्रामक नहीं था। वह राष्ट्र को सौहार्द और शांति की ओर ले जाना चाहता था। वे मानते थे कि केवल ब्रिटिश संसद द्वारा प्रस्ताव पारित कर देने से भारत स्वाधीन नहीं हो जाएगा। यह स्वाधीनता अर्थहीन होगी, अगर भारतीय उसकी कीमत नहीं समझेंगे और उसके लिए तैयार नहीं होंगे। भारत के लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार रहना होगा। विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना। ये मूल्य एक मजबूत चरित्र वाले नागरिक और एक अच्छे मनुष्य की नींव बनते। ऐसा व्यक्ति अपनी और अपने देश की मुक्ति के लिए संघर्ष करता। विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।

सांप्रदायिक कटुता संबंधी विषय पर भी स्वामी जी के विचार आधुनिक भारत के निर्माण का पथ प्रशस्त करते हैं तथा ग्राह्य उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया।

उन्होंने धार्मिक झगङों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना बताया है। सिद्धांत, धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें,मस्जिद, गिर्जे आदि जिनके विषय में मतभेद हैं, केवल साधन मात्र हैं। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिये। उन्होंने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा,धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है, धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है, किन्तु देश-2 में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियां अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-2 में उसके भी अनेक रूप हैं। इससे यह स्पष्ट है कि सभी धर्मों में मूलभूत एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न हैं। उन्होंने अन्य धर्म-प्रचारकों को बताया कि भारत ही ऐसा देश है, जहाँ कभी धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म-परिवर्तन से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य समान है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। भारत पर विजय राजनीतिक हो सकती है, सांस्कृतिक नहीं। 21 वी सदी में सर्वधर्म समभाव का उनका पाथेय भारत के सभी धर्मानुयायियों के लिये आपसी सद्भाव का सन्देश है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द के विचार राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए भी समान रूप से प्रासंगिक हैं शायद यही कारण था कि 1985 ई. से भारत सरकार नें 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। आज उनके जन्म दिवस पर सभी नागरिक राष्ट्र के नवजागरण के महान नायक को आभार ज्ञापित करते हैं तथा उनके पदचिह्नों पर चलने को संकल्पित होते हैं।

 

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अनिल साहू
विभागाध्यक्ष भूगोल विभाग दयानंद सुभाष नेशनल कॉलेज उन्नाव.
mob-8299345226

लाल बहादुर शास्त्री स्मृति दिवस पर कविता

lal bahadur shastri  smriti divas  :सीताराम चौहान पथिक  की लाल बहादुर शास्त्री स्मृति दिवस पर कविता ,श्री लाल बहादुर शास्त्री का जंन्म २ अक्टूबर १९०४ को उत्तरप्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शिक्षक थे । जब शास्त्री जी डेढ वर्ष के थे उनके पिता का देहांत  हो गया उनकी माँ अपने तीनो बच्चों के साथ अपने पिता के यहाँ बस गयी । शास्त्री जी जब ११ वर्ष के थे तभी उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था । १९२७ में उनकी शादी हो गयी दहेज के नाम पर एक चरखा मिला और हाथ के बनाये हुए कुछ कपडे थे वास्तव में इस दहेज से बहुत खुश थे कुल ७ वर्ष तक ब्रिटिश जेलों में रहें एक रेल दुर्घटना जिसमे कई लोग मारे गए थे , के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। लाल बहादुर शास्त्री जी के जन्मदिवस पर 2 अक्टूबर को शास्त्री जयंती व उनके देहावसान वाले दिन 11 जनवरी को लालबहादुर शास्त्री स्मृति दिवस के रूप में मनाया जाता है।

लाल बहादुर शास्त्री जी
पुण्यतिथि पर कविता 

(lal bahadur shastri  smriti divas)


श्री लाल बहादुर शास्त्री ,
शत्-शत नमन तुम्हे ।
राष्ट्र- प्रेम और सादगी ,
नैनन भरा स्नेह ।

हे सौम्य- मूर्ति है युग – पुरुष ,
नैतिकता के दूत ।
देखो , भारत वर्ष में ,
नेता की करतूत ।

लूट – लूट कर खा रहे ,
फिर भी नहीं अघाए ।
इनके काले कर्म सब ,
खादी मैं छिप जाए ।

भ्रष्ट – आचरण स्वार्थी ,
पद – लोलुप मंत्री सभी ।
सीधी- सादी प्रजा अब ,
दुःख किस्से कहें कभी ।

नैतिकता दम तोड़ती ,
नेता रंगे  सियार ।
कुर्सी प्राणों से बंधी ,
आत्मा करें पुकार ।

जय जवान और जय किसान
दोनों हुए हताश ।
आ जाओ बहादुर शास्त्री ,
आँखे  हुई उदास ।

तुम जैसा निस्वार्थी ,
राजनीति आदर्श ।
लाएं कहां से खोज कर ,
स्वाभिमान उत्कर्ष ।

रोज बट  रही रेवड़ी ,
अपनों – अपनों के बीच ।
प्रतिभा पिसती है यहां ,
आरक्षण के बीच ।

कोई भी ऐसा नहीं ,
सुनें प्रजा की पीर ।
बगुलों में जो हंस हो ,
करें नीर और क्षीर ।

ऐसे संकट के समय ,
मुख से वचन कहै ।
धूर्त पडौसी देश से ,
कैसे मुक्त रहै ॽ

लाल बहादुर शास्त्री ,
फिर आओ इक बार ।
आकर फिर लाहौर तक ,
खींचो इक दीवार ।

भारत – मां के हे सपूत ,
तुम पर है अभिमान ।
पथिक उज्ज्वल नक्षत्र तुम ,
भारत की पहचान ।

सीताराम चौहान पथिक

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new year resolution in hindi/संकल्प- बाबा कल्पनेश

संकल्प

(new year resolution  in hindi)


new year resolution  in hindi: नूतन वर्ष अभी आया नहीं। किसी तरह का अच्छा संकल्प लेने में कोई एतराज नहीं।यह मेरा संकल्प ही है कि निज संस्कृति के दायरे में ही रह कर अपना जीवन जीना है।अब एक नया संकल्प और लेता हूँ कि जब तक तन में प्राण रहेगा स्वयं निज संस्कृति-संस्कार को वरीयता दूँगा अपने और इष्ट-मित्रों और नई पीढी को भी प्रेरित करता रहूँगा।
अपनी पहचान खोकर जीवन जीना तो अपने पूर्वजों की गरिमा पर पानी उड़ेलना होगा।जिसने अपनी पहचान को गिरवी रख दिया। युग युगांतर तक उसे धिक्कार ही मिलता रहेगा।हम अपनी स्वजातीय भावना को हेय दृष्टि से देखने लगे थे आज कोरोना काल में दूर से ही नमस्ते करने की परंपरा को पुनः वरीयता प्राप्त हुई। कुछ दूरी बनाकर साथ उठने-बैठने की परंपरा श्रेष्ठ साबित हुई।

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हमको अपने पास -पड़ोस से भी कुछ सीखना चाहिए। केवल दूसरे की मुखापेक्षिता किसी तरह श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती।होली पर रंग- अबीर-गुलाल आदि खेलने की परंपरा कब शुरू हुई, यह तो ठीक-ठीक मैं नहीं कह सकता।पर कविताओं और होली के गीतों में भी यह गाया  जाता रहा है।पर आज जो गैर नहीं हैं,अपने ही हैं।जिनके पूर्वज और इष्ट राम और कृष्ण ही हैं। होली के दिनों में वे कहते हैं हमारे ऊपर रंग न पड़े ऐसे हिंदू से मुसलमान बने लोगों की बातें सुनकर हमारे घर-परिवार के कुछ लोग भी कहने लगे हैं कि हमारे ऊपर रंग न पड़े। हम अपने सारे रीति-रिवाज को त्याग कर किस प्रगति की ओर बढ़ रहे हैं, समझ पाना मुश्किल हो रहा है।

कई भाषाओं का ज्ञान हो यह तो गौरव की बात है।

पर अपनी भाषा को त्याग देने के मूल्य पर नहीं ?

यह कदापि श्रेष्ठ कदम नहीं है।

हमारे पुरखे कठिन तपस्या करके जिस सात्विक जीवन पद्धति को अपनाये वही हम में आज हीन बोध जागृत करने लगा है।कोई भी मुसलमान या इसाई कभी प्रणाम सूचक हमारे क्रिया पद्धति को नहीं अपनाता और एक हम हैं कि गुडमार्निंग सर या सलामआलेकुम कहकर ही अपने को प्रगतिशील साबित करने पर तुले हुए हैं।कई भाषाओं का ज्ञान हो यह तो गौरव की बात है।पर अपनी भाषा को त्याग देने के मूल्य पर नहीं ? यह कदापि श्रेष्ठ कदम नहीं है। मुझे बहुत ठाँव देखने को मिला कि छोटे बच्चे अंग्रेजी का वन-टू तो धड़ल्ले से पढ़ते-जानते हैं पर हिंदी की गिनती उन्हें नहीं आती।जनवरी-फरवरी तो वे जानते हैं, पर अगहन-पूस वे नहीं जानते।वे इतना आगे निकल गए हैं कि असंभव लगता है इस राजमार्ग पर चल पाना।

संकल्प करें अपने पुरखों के मूल्यों का गहन अध्ययन की

(new year resolution  in hindi)

शाम के समय यदि वे लौटना भी चाहेंगे तो नहीं लौट पाएँगे।तब तक में दृष्टि इतनी कमजोर हो चुकी होगी कि एक कहावत हासिल होगा बस–अब पछताए होत क्या जब चिडिया चुग गइ खेत।
गाँधी जी के भजन का अर्थ मैं भी जानता हूँ। मैं ही क्या सारे धरती के लोग जानते हैं। पर सारे धरती का मुसलमान इसे नहीं मानता। वह केवल अल्ला को मानता है और अल्ला को मनवाने पर जबरन उतारू है,उतारू था और उतारू रहेगा।उसके इसी कार्य की फल श्रुति है भारत में 33 करोड़ की हिंदू आबादी मुसलमान बनकर रहने को अभिशप्त है।अभिशप्त मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जीवन स्तर में कोई परिवर्तन नहीं आया है।केवल मांसाहार अपनाना और मंदिर को ध्वस्त करने की मानसिकता के सिवा कोई परिवर्तन नहीं देखने को मिल रहा है।

33 करोड़ अपने मूल हिंदुस्तानी के नेता के रूप में स्थापित मुश्किल से 5-10 प्रतिशत बाहर मूल के कट्टर और गैरकट्टर दो विभक्तियों में शासन कर हैं हजारों वर्षों से अब जो बलवे आदि हो रहे हैं सब इन्हीं के इशारे पर हो रहा है।
इस समय हमें प्रतिज्ञा लेनी होगी चाहिए स्वदेशी गौरव के उत्थान की।अंग्रेज यहाँ से चले गए पर कुछ ऐसे सूत्र यहाँ छोड़ गए कि जिसे त्यागने में भी हमें पीड़ा होने लगी है।हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले न तो यहाँ अंग्रेजी थी और न ही यहाँ अंग्रेज़ियत थी।आज हिंदी प्रदेश के बच्चे भी हिंदी गिनती और हिंदी महीनों के नाम भूले जा रहे हैं। क्या कारण है।हम सब को विचार करने का अभी अवसर है।संकल्प करें अपने पुरखों के मूल्यों का गहन अध्ययन की।

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बाबा कल्पनेश

bhandara hospital fire-क्या कसूर था|डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र की रचना क्या कसूर था /bhandara hospital fire घटना से आहत  होकर उन नवजातों को  समर्पित  अपनी कविता   के माध्यम से उन  नवजातों  के लिए  श्रद्धाँजलि  अपनी प्रकट की  ये  घटना  शुक्रवार  की  रात  रात्रि  २ बजे लगभग हुई  जब  महाराष्ट्र  के भंडारा  के  जिला  अस्पताल  में  शार्ट  सर्किट  लगने  से  १० नवजात बच्चों की  दर्दनाक  मृत्यु  हो  गयी  उस समय  वार्ड  में  १७  बच्चे  थे  रेस्क्यू  के  माध्यम  से  ७  बच्चे  ही  बचा  पाई  टीम  प्रस्तुत  है  रचना 

क्या कसूर था


उठता धुंआ

पुष्ट करता है

भ्रम और संदेह को

कि दाल में कुछ काला है

बात जैसी भी हो

दर्द कम नहीं हो सकता

फोड़ा नासूर हो गया

नहीं भुलाया जा सकता है

इस हरे ज़ख़्म को

अपना अंगूठा तक

नहीं चूसा था

नवजातों में से किसी ने

न निहार सके थे

अपने- अपने पाल्यों को

एक भी उनमें से

गर्भ के हिंडोले में ही नौ महीने तक

झूलाया था उन्हें अभी

बाहरी दुनिया में एक कदम भी

चलना नहीं सिखाया था

क्या मालूम जिन हाथों में

वे बालपोथी और कुछ खिलौने

थमाना चाहती हैं

वे ममता के हाथ को

थामने के लिए नहीं हुए थे प्रसूत

यही उनकी नियति थी

क्रूर काल की ही संगति थी

वैसे भी मंदिर, गिरिजाघर, अस्पताल

प्रतिबद्ध हैं

देश की जनसंख्या

कम करने के लिए

खूब अध्ययन किया है

माल्थस के जनसंख्या सिद्धांत का

इन संस्थाओं ने

लेकिन क्या कसूर था

उन नवजातों का

जिनका नहीं हो पाया था संपर्क

ठीक- ठीक अपने

जनक और जननी से

अभी तक

क्या शॉर्ट सर्किट से हुई

यह मौत भी

जांच की बलि चढ़ जायेगी ?

 

bhandara -hospital- fire
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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हिंदीरचनाकार (डिसक्लेमर) : लेखक या सम्पादक की लिखित अनुमति के बिना पूर्ण या आंशिक रचनाओं का पुर्नप्रकाशन वर्जित है। लेखक के विचारों के साथ सम्पादक का सहमत या असहमत होना आवश्यक नहीं। सर्वाधिकार सुरक्षित। हिंदी रचनाकार में प्रकाशित रचनाओं में विचार लेखक के अपने हैं और हिंदीरचनाकार टीम का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।|आपकी रचनात्मकता को हिंदीरचनाकार देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है| whatsapp के माद्यम से रचना भेजने के लिए 91 94540 02444, ९६२१३१३६०९ संपर्क कर कर सकते है।

Hindi diwas poem/हिंदी साहित्य-संसार|शैलेन्द्र कुमार

Hindi diwas poem : भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस के रूप मनाये जाने की घोषणा की थी। उसके बाद से भारतीय विदेश मंत्रालय ने विदेश में 10 जनवरी 2006 को पहली बार विश्व हिन्दी दिवस मनाया था।
विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना, हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना, हिन्दी के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी में व्याख्यान आयोजित किये जाते हैं। विश्व में हिन्दी का विकास करने और इसे प्रचारित-प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शुरुआत की गई और प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था इसीलिए इस दिन को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

हिंदी साहित्य-संसार

Hindi diwas poem


विविध विधाओं के खिल रहे

कुसुम यहांँ हिंदी साहित्य-संसार

बहुत सुहाना है ।

शिल्प ताजमहल से भी सुंदर है इसका,

हर गीत कंचन हर शब्द नगीना है।

अनंत अलंकारों का आगार है यहांँ पर,

तीन गुणों की खान नौ रसों का खजाना है।

बिम्बों से साकार हो उठती है काव्य सुषमा,

प्रत्येक भाव लगता जाना पहचाना है ।

कल्पना की उड़ान पंछियों से ऊंची है यहांँ,

यथार्थ चित्रण में सब ने लोहा माना है।

Hindi-diwas-poem
शैलेंद्र कुमार

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hindi diwas 2021 -हिन्दी का सफर कहाँ तक/आशा शैली

हिन्दी का सफर कहाँ तक

(hindi diwas 2021)


hindi diwas 2021: कभी-कभी हम भयभीत से हो जाते हैं यह सोचकर कि बदलते हुए समाज के परिवेश में हमारी हिन्दी कहीं पिछड़ तो नहीं रही? सम्भवतया इसमें आंग्ल भाषा का प्रभाव भी शामिल हो, किसी हद तक हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ने का दायित्व आम बोल-चाल में इंग्लिश का दखल भी है जिसे हम आज हिंग्लिश कहने लगे हैं। हिन्दी को रोमन में लिखना भी एक तरह की निराशा पैदा करता है  परन्तु वह मात्र मोबाइल तक सीमित है, इसलिए अधिक परेशान नहीं करता। हाँ बोलने में आंग्ल भाषा का अधिक प्रयोग किसी तरह से भी हितकर नहीं कहा जा सकता।

मैकाले का षडयंत्र सफल हुआ।

(hindi diwas 2021)

वर्तमान परिपेक्ष में नयी पीढ़ी को जब हम अंग्रेज़ी पर आश्रित और निर्भर देखते हैं तो मन में एक टीस-सी उठती है। यहाँ हम निरुपाय से बस देखते रहने के लिए विवश हैं। मैकाले का षडयंत्र  सफल हुआ। आज उसकी नीति सफल होकर कहीं बहुत गहरे पैठ गई है और इस षडयंत्र  का शिकार हुए हम भारतवासी चाहकर भी अपनी भावी पीढ़ियों को हिन्दी की ओर उन्मुख नहीं कर पा रहे। लगता है आज हिन्दी लिखना-पढ़ना लोगों से छूट रहा है। हाँ यह आवश्य है कि घर में यदि हिन्दी बोली जाती है तो भावी पीढ़ी हिन्दी सीखेगी ही परन्तु अधिक संभ्रांत कहे जाने वाले घरों में बात-चीत का माध्यम भी अंग्रेजी ही हो गई है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में भी हिन्दी किसी हद तक मौखिक होकर रह गई है।

मैं उत्तराखण्ड के जिस भाग में रहती हूँ वहाँ राष्ट्रीय सेवक संघ का प्रभाव अधिक है, बहुत सारे घरों के बच्चे शाखा में जाते हैं। उस पर भी बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के कारण हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। मैं स्वयं पंजाबी भाषी क्षेत्र से हूँ। मेरा जन्म अविभाजित पंजाब में हुआ और अभी तक हमारे घरों में पंजाबी बोली भी जाती है फिर भी हिन्दी का प्रभुत्व बना हुआ है। इस पर भी नई पीढ़ी हिन्दी की गिनती तक नहीं जानती। हालांकि आज की नई पीढ़ी के बच्चे हिन्दी बोलते अवश्य हैं यह किसी हद तक हमारी पीढ़ी का दबाव भी हो सकता है क्योंकि साधारणतया घरों और गली बाजारों में हिन्दी बोली जाती है परन्तु लिखने-पढ़ने के नाम पर नई पीढ़ी के बच्चे वही अंग्रेज़ी ही जानते समझते हैं।

एक समय था जब अक्सर सुना जाता था कि दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध बहुत मुखर है। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। इसका कारण सम्भवतया रोजगार भी है। बहुत सी सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत में नौकरी के लिए आ रहे हैं, इसी प्रकार उत्तरी भारत के लोग दक्षिण में नौकरी कर रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक पैंतरे बाजी के बाद भी भाषा के विस्तार पर अंकुश रखना कठिन हो जाता है और इसका लाभ हिन्दी को भरपूर मिल रहा है।

दक्षिण के हर राज्य में हिन्दी प्रचार के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी बहुत-सी संस्थाएँ हैं और वे अपना काम भी कर रही हैं, फिर भी यह कोई बहुत उत्साहवर्धक स्थिति नहीं है तो निराशाजनक भी नहीं। काम तो हो ही रहा है, भले ही गति धीमी है। कुछ न होने से कुछ होना बेहतर हैं। हाँ यह अवश्य है कि हमें और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई माने या न माने हिन्दी का फलक बहुत विस्तृत है। हिन्दी धीरे-धीरे जाग रही है।

हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा।

(hindi diwas 2021)

यहाँ केवल मैकाले को कोसने से काम नहीं चलने वाला। हमारी इस दुखद स्थिति के उत्तरदायी हमारे नेतागण भी रहे हैं, जिन्होंने सब कुछ जानते-बूझते हुए भी हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा। स्थिति दुखद तो है परन्तु एकदम निराशाजनक भी नहीं है, क्योंकि तनिक-सी समझ विकसित होते ही हमारे बच्चे हिन्दी की ओर उन्मुख होने लगते हैं। पर ये सारी परिस्थितियाँ मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए ही हैं। उच्च और उच्चमध्यम वर्ग तेज़ी से न केवल आंग्ल भाषा का अनुसरण कर रहा है अपितु पाश्चात्य संस्कृति  की ओर भी भाग रहा है यही सबसे बड़ी समस्या है। क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के अनुसार मध्यम और निम्न वर्ग इसी उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानकर इनके पीछे चलता है। ऐसे में जो लोग या संस्थाएँ हिन्दी के लिए काम कर रहे हैं उन्हें साधुवाद और प्रोत्साहन देना आवश्यक है।

हमारे समाज की तेजी से बदलती दशा और दिशा जहाँ अंग्रेज़ी भाषा पर निर्भर होती देखी जा रही है वहीं एक सुखद बयार के झोंके-सा सीमापार के देशों में बढ़ता हिन्दी क्षेत्र मन को आश्वस्त भी करता है। कहीं कानों में कोई कहता है कि ‘अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।’ ऐसा ही एक झोंका मैंने कुछ वर्ष पूर्व महसूस किया था जब उत्तराखंड के  वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ के आयोजन में हिन्दी के लगभग 70 ब्लॉगर खटीमा ,उत्तराखंड में एकत्र हुए। उस समय मुझे पता चला कि हज़ारों की संख्या में हिन्दी ब्लॉगर काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं नए बच्चे जब हिन्दी साहित्य में उतर रहे हैं तो हिन्दी साहित्य की गहराई तक जाने के लिए उन्हें हिन्दी सीखनी भी पड़ती है।

इस दिशा में व्हाट्सएप्प और फेसबुक भी सहायक हो रहे हैं। नेट को कोसने वालों की भी कमी नहीं है पर सच तो यह है कि जिसे जो सीखना है वह सीख ही लेगा। यानि जिसे जिस चीज़ की तलाश है वह मिल ही जाएगी। आज यदि पुस्तकें नहीं पढ़ी जा रहीं तो उससे भी अधिक नेट पर साहित्य को पढ़ा जा रहा है। अर्थात पढ़ने की प्रवृति बढ़ी है। ऐसे में मोबाइल के कारण आँखों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के कारण पुस्तकों का महत्व भी लोगों की समझ में आता जा रहा है।

भाषाओं के विस्तार और आदान-प्रदान के लिए पर्यटन भी बहुत सहयोगी होता है। इतिहास गवाह है कि हर बड़ा लेखक पर्यटन से जुड़ा रहा है, अर्थात् घुमक्कड़ रहा ही है। भारत विविधताओं को देश है और पर्यटन की अपार संभावनाएँ यहाँ विद्यमान हैं। बहुत से विदशी छात्र यहाँ अध्ययन के लिए भी आते हैं और भारत में रहकर वे हिन्दी न सीखें यह हो ही नहीं सकता। इतना ही नहीं आज हिन्दी के महत्व को समझते हुए विदेशों की सरकारें भी अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने लगी हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के गुजराती कविता संग्रह का हिन्दी अनुवाद सुप्रसिद्ध ( लेखिका श्रीमती अंजना संधीर) ने किया तो बहुत से अन्य अनुवाद दूसरी भाषाओं से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओं में हो रहे हैं। इसका प्रमाण मैं इस आधार पर दे सकती हूँ कि शैलसूत्र में प्रकाशनार्थ कई भाषाओं से अनुवादित रचनायें मेरे पास आ चुकी हैं। इससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी का विस्तार तो हो ही रहा है, हिन्दी साहित्य के भण्डार की  भी निरंतर वृद्धि  हो रही है।

भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

श्रीमती अंजना संधीर जहाँ पाँच वर्ष तक अमेरिका में हिन्दी पढ़ाती रही हैं तो वहीं डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी जैसे विद्वान जापान में अपने वर्षों के कार्यकाल में हिन्दी के सैकड़ों विद्यार्थियों को पारांगत करके आए हैं और आज भी कर रहे हैं। वर्तमान में बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश तुपर्ण भी जापान में हिन्दी पढ़ा चुके हैं। कहना न होगा कि प्रत्येक देश में आज हिन्दी पढ़ाई जा रही है। कारण चाहे जो भी हो हमें परन्तु हमारी भाषा को इसका सीधा लाभ मिल रहा है। हालांकि भारतीय सभ्यता की जड़ें जहाँ बहुत गहरी हैं, वहीं हिन्दी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, फिर भी भारतीय सभ्यता के दीवाने बहुत लोग हैं। उन्हें भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

यहाँ हमारे लिए हिन्दी में निकलने वाली ई पत्रिकाओं का भी संज्ञान लेना बहुत आवश्यक है। वर्तमान समय में बहुत-सी ई पत्रिकाएँ निकल रही हैं जो निःसंदेह हिंदी के लिए संजीवनी का काम कर रही हैं। आजकल सभी अखबारों ने भी अपने ई संस्करण निकालने शुरू कर दिए हैं। हिन्दी ई पत्रकाओं में जय-विजय, हस्ताक्षर वेव पत्रिका, उच्चारण व अन्य ऐसी बहुत-सी पत्रिकाएँ निकल रही हैं परन्तु मैं यहाँ जिस पत्रिका की चर्चा कर रही हूँ उसका नाम है ‘अनहद ड्डति’।

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका मेरे संज्ञान में तब आई जब अचानक ही मुझे अम्बाला से निमन्त्रण मिला। यह बात शायद सात-आठ वर्ष पुरानी है, क्योंकि इस पत्रिका को निकलते हुए तब भी समय हो चुका था। तब तक मैं केवल प्रिंट मीडिया से ही परिचित थी। अनहद ड्डति का वार्षिक समारोह था। अम्बाला जाकर मुझे पता चला कि इस पत्रिका के सम्पादक चसवाल दम्पति हैं। प्रेम पुष्प चसवाल जी की कई पीढ़ियाँ हिन्दी साहित्य से जुड़ी हुई हैं और उनकी पत्नी प्रेमलता चसवाल जी भी अच्छी साहित्यकार हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इनकी संतानें भी हिन्दी साहित्य की सेवा कर रही हैं।

अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है

यह एक कार्यशाला थी। प्रेमलता चसवाल जी ने पत्रिका का परिचय कराया और कार्यशाला में सिखाया कि हम ई-पत्रिका में भागीदारी कैसे करें। वर्तमान में यह पत्रिका आठ वर्ष की हो चुकी है। भारत से पत्रिका को चसवाल दम्पति और अमेरिका से आपकी बेटी देख रही है। कहना न होगा कि इन आठ वर्षों में पत्रिका ने बहुत से नये आयामों को छुआ है। पिछले वर्ष धर्मशाला ,हिमाचलप्रदेश  में अनहद ड्डति के बैनर के तले आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम में आपकी बेटी विभा ने धर्मशाला में उपस्थित सभी साहित्यकारों से उनकी पुस्तकों की एक-एक प्रति लेकर अमेरिका के एक पुस्तकालय में पहुँचाई। आज जहाँ हवाई यात्रा में हम सीमित सामान ही ले जा सकते हैं वहाँ मोटी-मोटी चालीस से अधिक पुस्तकें अमेरिका के पुस्कालय में पहुँचाना आसान काम नहीं और यह हिन्दी और हिन्दी साहित्यकारों के लिए किसी सम्मान से कम नहीं है। इसे हम हिन्दी के लिए उपलब्धि क्यों न मानें। अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है, अतः इसका प्रसार भी व्यापक है। यह हिन्दी के लिए शुभ है।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इण्डोनेशिया, कम्बोडिया ही नहीं सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारतीय सभ्यता के अवशेष देखे जा रहे हैं और वहाँ के अध्ययनशील छात्र अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं। यह सच है कि विदेशों में हिन्दी भाषा का प्रभाव बढ़ रहा है।

अकेले कम्बोडिया में ही अगणित ऐसे छात्र-छात्राएँ है जिन्हें भारत और हिन्दी से असीम प्यार है। पर बिडंम्बना यह है कि हम तो  अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से अंग्रेजी सिखाने में लगे हुए हैं।

 विद्वानों का कहना है कि यदि भारत की सरकारें संवेदनशील होतीं तो सांस्कृतिक  एकता के कारण सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देश भारत के साथ एकजुट होते। जैसे यूरोपीय देश एकजुट हैं। हमारे पूर्वज हमें यह विरासत देकर गये हैं। पर हमारा देश तो सैक्युलर था उसने इन देशों के प्रति उदासीनता दिखाई।

इन देशों में भारत के प्रति असीम अनुराग है। यहाँ का जनसामान्य अपनी संस्कृति  की जड़ें भारत में देखता है। कम्बोडिया, थाईलैंड, लाओस, इन्डोनेशिया, वियतनाम, बर्मा, फिलिपीन्स आदि भारतीयता के रंग में रंगे हुए देश हैं। चूंकि यहाँ के लोगों को संस्कृत भाषा से गहन अनुराग है। इन लोगों की भारत के सांस्कृतिक  प्रतीकों की जानकारी अद्भुत है। यह विष्णु, शिव, गंगा, गरुड़ आदि सभी से गहराई से परिचित हैं पर भारत में तो धर्मनिरपेक्षता का अर्थ संस्कृति  विहीनता समझा गया। परिणाम सामने है।

बूंद-बूंद से ही घट भरता है। अतः यहाँ हर इकाई का योगदान महत्वपूर्ण है। हमारे आस-पास बहुत से विद्वान हिन्दी में ब्लॉग पर काम कर रहे हैं इन विद्वानों में डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ शिखर पर हैं। इनका हिन्दी ब्लॉग उच्चारण आज भी यथावत काम कर रहा है। डॉ. सि(ेश्वर का कर्मनाशा ब्लॉग काम कर रहा है। शेफाली पाण्डे और ऐसे बहुत से नाम हैं।

मैंने अभी तक ब्लॉग पर काम नहीं किया परन्तु इसके महत्व से इनकार भी नहीं कर सकती। मूलतः पंजाबी भाषी होते हुए मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा है। हालांकि मैंने उर्दू, डोगरी महासवी बोलियों में भी लिखा है। परन्तु मेरा अधिक काम हिन्दी में ही है। यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगी कि यदि हमें हिन्दी के बारे में सोचना है और उसे विश्व-व्यापी बनाने की इच्छा है तो अन्य भाषा भाषियों से अपेक्षा न रखकर स्वयं पहल करनी होगी। मैंने ओड़िया सीखकर ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद किया है। इसी तरह यदि हम भारत की दूसरी भाषाओं में रुचि लेते हैं तो निश्चय ही हम हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं।

हमारे लिए प्रसन्नता की बात यह भी है कि वर्तमान में सरकारी कार्यालयों में भी हिन्दी में काम होने लगा है।

 कोई चाहे तो वह सारा काम हिन्दी में कर सकता है और यदि कोई कार्यालय इसमें लापरवाही बरतता है तो उसकी शिकायत भी की जा सकती है।

हिन्दी को विशाल फलक दिलाने में जहाँ सिनेमा के योगदान को जाना जाता है वहीं इस दिशा में प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का योगदान भी कम नहीं है। विदेशों में बसे हमारे रचनाकार अपने-अपने तरीके से हिन्दी को आगे बढ़ा रहे हैं। वे जहाँ भी रह रहे हैं, वहाँ की भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में भी निरंतर लिख रहे हैं। इससे हिन्दी का फलक विस्तार पा रहा है। वरिष्ठ साहित्यकारों के ऐसे बहुत से नाम हैं जो विदेश में भी हिन्दी भाषा में लिख रहे हैं।

सुखद आश्चर्य का विषय है कि नई पीढ़ी जो साहित्य में उतर रही है वह बहुत अच्छे स्तर का साहित्य दे रही है। यह हिन्दी के लिए उपलब्धि कही जाएगी। यदि कोई भाषा साहित्य में अपना स्थान बना लेती है तो उसका अस्तित्व खतरे में नहीं हो सकता। अतः हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए और हिन्दी के उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।

hindi -diwas- 2021
आशा शैली

सम्पादक शैलसूत्र ;त्रै.द्ध

इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ, जिला  नैनीताल

उत्तराखण्ड-262402

international hindi day poem/प्रेमलता शर्मा

आज विश्व हिंदी दिवस पर प्रेमलता शर्मा की रचना international hindi day poem सभी हिंदी भाषियों को समर्पित है जो विश्व के हर कोने में बसे है हिंदी का प्रचार -प्रसार कर रहे है
१० जनवरी २००६ से विश्व हिंदी दिवस की शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल से हुई तभी से अंतराष्ट्रीय हिंदी दिवस विदेश मंत्रालय में मनाया जाने लगा |

विश्व हिंदी दिवस पर कविता


हिंदी हमारी आन है हिंदी हमारी शान है
हम हिंद के बाशिंदे हैं हिंदी हमारी जान हैं
बात आजकल की ही नहीं है
बरसों पुरानी बात है
कल भी थी आज भी है

हिंदी हिंद का ताज है
कौन भुला सकता है

बाल्मीकि और वेद व्यास को
कौन अनजान है

रामायण और महाभारत से
जीवन को आलोकित करते
दोहे कबीर सूरदास के
तुलसीदास की रामचरितमानस ने
आदर्श जीवन जीने का संदेश दिया
बुद्ध के उपदेशों ने

सही गलत का मार्ग प्रशस्त किया
प्रेमचंद की गोदान और कफन ने
एक निर्धन किसान की पीड़ा को बयां किया
कितनों के मैं   नाम गिनाऊं
अनगिनत हिंदी साहित्य के

यह वह सितारे हैं
हिंदी आज भी इन्हीं सितारों से

पश्चिम में भी सम्मानित है
हिंदी सिर्फ हिंद में ही नहीं

सात समुंदर पार भी अपनी छटा  बिखेरती हैं

international- hindi -day- poem
प्रेमलता शर्मा

आपको हिंदी कविता international hindi day poem /विश्व हिंदी दिवस पर कविता /प्रेमलता शर्मा की रचना कैसी लगी अपने सुझाव कमेन्ट बॉक्स मे अवश्य बताए अच्छी लगे तो फ़ेसबुक, ट्विटर, आदि सामाजिक मंचो पर शेयर करें इससे हमारी टीम का उत्साह बढ़ता है।

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vivashata ek kavita/कल्पना अवस्थी

हिंदीरचनाकर की प्रतिभाशाली लेखिका कल्पना अवस्थी की रचना vivashata ek kavita /विवशता ये कविता उन्होंने अपने भाई को समर्पित की है जो अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी यादें और उनके उत्कृष्ट कार्य सभी की यादों में रहेंगे | हिंदीरचनाकर परिवार की तरफ से उनके भाई के लिए विन्रम श्रद्दांजलि और ईश्वर उनको शक्ति दे कि वह भाई के अधूरे कार्यो को पूरा करे |

विवशता एक कविता /कल्पना अवस्थी

vivashata ek kavita /विवशता 


तुझे भुलाना ये  जिंदगी आसान नहीं है

मैं जिंदा तो हूं, पर मुझ में जान नहीं है

कभी सोचा भी ना था कि

जिंदगी का यह फैसला होगा

जिंदा रहूंगी मैं

तेरी मौत का सिलसिला होगा

भूलने की कोशिश इसलिए की थी,

कि सब खुश रहें  तेरे साथ

कभी सोचा इक  भी बार कि

क्या होगा तेरे बाद?

माना कि तेरा दिल तोड़ा था मैंने

अधूरे रास्ते में तुझे छोड़ा था मैंने

पर इतना कौन रूठ जाता है

अधूरे सफर में साथ छूट जाता है

जिंदगी दांव पर लग गई

कोई इम्तिहान नहीं है

मैं जिंदा तो हूं पर मुझ में जान नहीं है

 

जहां तुम हो वही बुला लो मुझे

मैं जी ना पाऊं ऐसी ना सजा दो मुझे

 ऐसे नाराज होकर जाता कौन है?

अपनी जिंदगी को भुलाता कौन है?

मां- पापा कैसे जिएंगे सोचा होता,

तुम बिन भैया अकेले हो गए,

खुद को रोका होता

वह रोते हैं, कि वह मेरा सहारा था

मैं नहीं वो बहुत प्यारा था

मुझे तो इतना प्यार दिया तुमने कि

कोई नहीं दे सकता

तुम्हें ले गया वह तो

मेरी जान क्यों नहीं ले सकता

तुम्हें ले गया वो  तो

मेरी जान क्यों नहीं ले सकता

गए थे तो यादें भी ले जाते

यह मुझे मार देंगी

ना तुम्हारी तरह गले लगाएंगे

न तुम जैसा प्यार देंगी

अब मेरी भी जिंदगी, वीरान नजर आती है

कुछ बचा नहीं इसमें, शमशान नजर आती है

अब  कुछ कर गुजरने का अरमान नहीं है

 मैं  ज़िंदा  तो हूं पर मुझमें जान नहीं है

 

अब मेरी भी ज्यादा दिन की कहानी नहीं है

क्योंकि तेरे सिवा कोई चीज

याद अपनी नहीं है

लौट आओ ना किसी बहाने से

अच्छा नहीं लगता कुछ तुम्हारे दूर जाने से

इंतजार रहेगा कि किसी रूप में

मेरे पास आओगे

अपनी लाडो को ऐसे ना भूल जाओगे

तेरे बिना कल्पना का

ये  सफर आसान नहीं है

मैं जिंदा तो हूं पर मुझमें जान नहीं है|

vivashata-kalpana-awasthi
कल्पना अवस्थी

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