swami vivekananda  ideas/आधुनिक भारत के निर्माण में

आधुनिक भारत के निर्माण में

स्वामी विवेकानन्द के विचारों की प्रासंगिकता

swami vivekananda  ideas:लेख का प्रारम्भ दो घटनाओं से करना चाहूँगा | बालक नरेन्द्र नाथ के पिता के निधन के उपरांत उनके घर की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई। खाने के लिए भी अन्न नहीं था। नौकरी भी नहीं मिल रही थी। तब माँ भुवनेश्वरी देवी ने नरेन्द्र से कहा, – जा अपने गुरु के पास और उनसे घर-परिवार के दुखों को दूर करने की प्रार्थना कर। जैसे ही नरेन्द्र ने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के भीतर प्रवेश किया, उनको महाकाली का साक्षात्कार हुआ। तब नरेन्द्र ने देवी से प्रार्थना की, कि मुझे “ज्ञान दे, भक्ति दे, विवेक दे, वैराग्य दे।”
ऐसा तीन बार हुआ। वह गये थे नौकरी और घर की समृद्धि मांगने, पर मांग आये ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य।

दूसरी घटना 1893 ई. की है

एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था।

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दूसरी घटना 1893 ई. की है एक जहाज जापान से शिकागो जा रहा था। उसमें सैकड़ो लोग बैठे थे लेकिन दो भारतीय थे भारतीय होनें के नाते आपसी बातचीत प्रारम्भ हुई । पहले ने पूछा आप कहाँ जा रहे हैं? जवाब मिला- अमेरिका। प्रतिप्रश्न में उत्तर मिला- हम भी अमेरिका जा रहे हैं। पहले वाले व्यक्ति ने पूछा आप अमेरिका क्यों जा रहे हैं जवाब मिला हिन्दुस्तान के अंदर स्टील बने इसलिए जा रहा हूँ। इग्लैंड वालों ने मना कर दिया अगर हिन्दुस्तानी स्टील बनाने लगेंगे तो पापड़ कौन बनाएगा ? दूसरे से पूछा आप क्या लेने जा रहे हो ? जवाब मिला कुछ लेने नहीं बल्कि देने जा रहा हूँ । आश्चर्य चकित व्यक्ति नें पूछा क्या देने जा रहे हो ? विश्व को भारत का सन्देश देने जा रहा हूँ । पहले व्यक्ति का नाम जमशेद जी टाटा और दूसरे व्यक्ति का नाम स्वामी विवेकानंद था|
नरेन्द्र नाथ दत्त से लेकर स्वामी विवेकानन्द तक की यात्रा से ही आधुनिक भारत के निर्माण का पाथेय प्रस्फुटित होता है। ऐसा पाथेय जिसमें धर्म,ज्ञान,विज्ञान का हिंदुत्व की सामासिकता,सात्मीकरण, इस्लाम के भाईचारे और पश्चिम के तर्कवाद एवं मानवता वाद का अद्भुत समन्वय है । स्वामी विवेकानंद को राष्ट्रीय पुनरोत्थान का जनक माना जाता है कठोपनिषद से ग्राह्य उनका पाथेय “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” राष्ट्रीय पुनर्जागरण का वाहक बना तो भारतीय समाज में प्रचलित सामाजिक बुराइयों पर भी उन्होंने प्रहार किया। विवेकानन्द ने भारत की भयंकर गरीबी और पतन के लिए अंग्रेजी उपनिवेशवाद से ज्यादा जाति-व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया। अमेरिका और यूरोप की बहुत सफल यात्रा के बाद भारत लौटने पर फरवरी 1897 ई. में मद्रास से 160 मील दूर ब्राह्मण अतिवादियों के वर्चस्व वाले एक गाँव कुम्बकोनम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा:-
दोस्तों, मैं तुम लोगों को कुछ कठोर सत्यों से अवगत कराना चाहता हूँ . . . हमारी दुरावस्था और अधोगति के लिए अंग्रेज़ नहीं, हम खुद जिम्मेदार हैं . . . हमारे अभिजात पूर्वजों ने आम लोगों को पैरों तले इतना कुचला कि वे पूरी तरह से असहाय हो गए, इतने जुल्म ढाए कि बेचारे लोग यह भी भूल गए कि वे इन्सान हैं। सदियों तक उन्हें केवल लकड़ी काटने और पानी भरने के लिए मजबूर किया गया। और तो और, उनकी यह धारणा बना दी गई कि उन्होंने गुलाम के रूप में ही जन्म लिया है . . . यही नहीं, मैं यह भी पाता हूँ कि अनुवांशिक संक्रमणवाद जैसे फालतू विचारों के आधार पर ऐसी दानवीय और निर्दयी युक्तियों . . . को प्रस्तुत किया जाता है ताकि इन पददलित लोगों का और अधिक उत्पीड़न और दमन या जा सके।” वस्तुतः उन्होंने भारतीय समाज के उत्थान का पाथेय राष्ट्रीय पुनरोत्थान को माना । ऐसा मार्ग जिसका प्रारम्भ तो प्राचीन संस्कृति की गौरव शाली परम्पराओं से होता है किन्तु उसमें अंतर्निहित कमियों को त्याग कर आधुनिकता के मार्ग पर बढनें का पथ-प्रदर्शन है।

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आज 21 वीं सदी में भारत राष्ट्र और भारतीय समाज का स्वरुप परिवर्तित हुआ है कुछ नवीन चुनौतिया उत्पन्न हुई हैं तो कमोबेश समस्याओं का स्वरुप जस का तस है। किन्तु आज भी स्वामी विवेकानन्द का दर्शन हमारी चुनौतियों से निपटने में हमें सहायता प्रदान करने में यथावत सक्षम है। आज भी भारत में एक बड़ा वर्ग है जो अतीत में केवल कमियाँ ढूंढता है अंग्रेजों के प्रचलित सिद्धांत का “White Man’s Burden” अन्धानुकरण करता है। निहित स्वार्थों से युक्त ये वर्ग भारतीय राष्ट्र के सशक्तीकरण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। स्वामी विवेकानंद का वेदान्त दर्शन आज भी राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और नव निर्माण का पाथेय है।

आज निर्धनता,बेरोजगारी,अशिक्षा,कुपोषण,अति-जनसँख्या,सांप्रदायिक-उन्माद,क्षेत्रवाद उग्रवाद,नक्सलवाद,आतंकवाद पर्यावरणक्षरण,मानव-प्रकृति संघर्ष में वृद्धि आदि समस्याएं हैं जिन पर विजय प्राप्त कर ही आधुनिक व् सशक्त भारत को सशक्त किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका से भारत लौटे तो देशभर भ्रमण कर युवाओं को कहते- ‘निर्भय बनों। बलवान बनों। समस्त दायित्व अपने कन्धों पर ले लो और जान लो कि तुम ही अपने भाग्य के विधाता हो। जितनी शक्ति और सहायता चाहिए वह सब तुम्हारे भीतर है।’क्या सचमुच सारी शक्ति हमारे भीतर है ? यह सवाल भी कई बार मन में आया। पर उत्तर तो स्वामीजी ने ही दे दिया। वे कहते थे- ‘अनंत शक्ति, अदम्य साहस तुम्हारे भीतर है क्योंकि तुम अमृत के पुत्र हो। ईश्वर स्वरूप हो।’ कहीं न कहीं 21 वीं सदी में भारत के युवा के मन में स्वयम में निहित ऊर्जा का बोध समाप्त हुआ है तभी वह शक्ति को बाहर ढूंढ रहा है आज आवश्यकता है कि युवाओं को उनमें निहित सार तत्व और ऊर्जा का बोध कराया जाए।

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स्वामी जी धर्म और ज्ञान को अलग अलग नहीं मानते थे उनका मानना था कि “जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह तथा विकास वश में लाया जाता है और फलदायी होता है ,उसे शिक्षा कहते हैं” वर्तमान शिक्षा की सीमा यही है कि वह तथ्यों के अन्धाधुन्ध अनुकरण पर बल देती है चरित्र निर्माण और नवाचारों से उसका सरोकार नहीं रह गया है। स्वामी जी कहते हैं
“हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है,जिससे चरित्र निर्माण हो ,मानसिक शक्ति बढे,बुद्धि विकसित हो और देश के युवक अपने पैरों पर खड़े होना सीखें।”उचित शिक्षा से ही तमाम समस्याओं का हल स्वयमेव हो जाएगा।

स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे

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भारतीय सन्दर्भ में धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जो कि धारण करने वाली धृ धातु से बना है “धार्यते इति धर्मः” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। विज्ञान और धर्म के मध्य कोई भी विभेद नहीं है विज्ञान भी सिद्ध किया ज्ञान है अतः विज्ञानं एवं धर्म अलग-अलग नहीं वरन साध्य एवं साधन हैं। स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माण के लिए धर्म एवं विज्ञान के समन्वय पर बल देते थे यदि उनके विचारों का अनुपालन किया जाए तो पर्यावरणीय समस्याओं के वैज्ञानिक व् मानवीय समाधान का माडल तैयार किया जा सकता है जो कि पर्यावरण अनुकूल तकनीक के अनुप्रयोग में सहयोगी होगा।
उग्रवाद, नक्सलवाद जैसी समस्याओं के मूल में संसाधनों का अनियमित एवं असमान वितरण है वह सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के पुनरुद्धार तथा आर्थिक प्रगति के पक्ष में थे। रूढिवादिता,अंधविश्वास, निर्धनता और अशिक्षा की उन्होंने कटु आलोचना की। उन्होंने यह भी कहा कि,जब तक करोङों व्यक्ति भूखे और अज्ञानी हैं, तब तक मैं उस प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही मानता हूँ, जो उन्हीं के खर्च पर शिक्षा प्राप्त करता है, किन्तु उनकी परवाह बिल्कुल नहीं करता है। इस प्रकार समाज सेवा स्वामी जी का प्रथम धर्म था। उनकी मान्यता थी कि देश की गरीबी को दूर करना आवश्यक है। विवेकानंद राष्ट्रवादी थे परंतु उनका राष्ट्रवाद, समावेशी और करूणामय था। जब भी वे देश के भ्रमण पर निकलते, वे घोर गरीबी, अज्ञानता और सामाजिक असमानताओं को देखकर दुःखी हो जाते थे। वे भारत के लोगों को एक नई ऊर्जा से भर देना चाहते थे। वे चाहते थे कि आध्यात्म, त्याग और सेवाभाव को राष्ट्रवाद का हिस्सा बनाया जाए। उन्होंने भारत के लिए एक आध्यात्मिक लक्ष्य निर्धारित किया था। विवेकानंद का राष्ट्रवाद, मानवतावादी और सार्वभौमिक था। वह संकीर्ण या आक्रामक नहीं था। वह राष्ट्र को सौहार्द और शांति की ओर ले जाना चाहता था। वे मानते थे कि केवल ब्रिटिश संसद द्वारा प्रस्ताव पारित कर देने से भारत स्वाधीन नहीं हो जाएगा। यह स्वाधीनता अर्थहीन होगी, अगर भारतीय उसकी कीमत नहीं समझेंगे और उसके लिए तैयार नहीं होंगे। भारत के लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार रहना होगा। विवेकानंद ‘मनुष्यों के निर्माण में विश्वास‘ रखते थे। इससे उनका आशय था शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों में सनातन मूल्यों के प्रति आस्था पैदा करना। ये मूल्य एक मजबूत चरित्र वाले नागरिक और एक अच्छे मनुष्य की नींव बनते। ऐसा व्यक्ति अपनी और अपने देश की मुक्ति के लिए संघर्ष करता। विवेकानंद की मान्यता थी कि शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक बंधुत्व को बढ़ावा देने का जरिया होनी चाहिए।

सांप्रदायिक कटुता संबंधी विषय पर भी स्वामी जी के विचार आधुनिक भारत के निर्माण का पथ प्रशस्त करते हैं तथा ग्राह्य उन्होंने धार्मिक उदारता, समानता और सहयोग पर बल दिया।

उन्होंने धार्मिक झगङों का मूल कारण बाहरी चीजों पर अधिक बल देना बताया है। सिद्धांत, धार्मिक क्रियाएँ, पुस्तकें,मस्जिद, गिर्जे आदि जिनके विषय में मतभेद हैं, केवल साधन मात्र हैं। इस कारण इन पर अधिक बल नहीं देना चाहिये। उन्होंने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा,धर्म मनुष्य के भीतर निहित देवत्व का विकास है, धर्म न तो पुस्तकों में है, न धार्मिक सिद्धांतों में। यह केवल अनुभूति में निवास करता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य सर्वत्र अन्न ही खाता है, किन्तु देश-2 में अन्न से भोजन तैयार करने की विधियां अनेक हैं। इसी प्रकार धर्म मनुष्य की आत्मा का भोजन है और देश-2 में उसके भी अनेक रूप हैं। इससे यह स्पष्ट है कि सभी धर्मों में मूलभूत एकता है, यद्यपि उसके स्वरूप भिन्न हैं। उन्होंने अन्य धर्म-प्रचारकों को बताया कि भारत ही ऐसा देश है, जहाँ कभी धार्मिक भेदभाव नहीं हुआ। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म-परिवर्तन से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक धर्म का लक्ष्य समान है। उन्होंने ईसाई धर्म के अनुयायियों को स्पष्ट किया कि भारत में ईसाई धर्म के प्रचार से उतना लाभ नहीं हो सकता जितना पश्चिमी औद्योगिक तकनीकी तथा आर्थिक ज्ञान से हो सकता है। भारत पर विजय राजनीतिक हो सकती है, सांस्कृतिक नहीं। 21 वी सदी में सर्वधर्म समभाव का उनका पाथेय भारत के सभी धर्मानुयायियों के लिये आपसी सद्भाव का सन्देश है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द के विचार राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए भी समान रूप से प्रासंगिक हैं शायद यही कारण था कि 1985 ई. से भारत सरकार नें 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। आज उनके जन्म दिवस पर सभी नागरिक राष्ट्र के नवजागरण के महान नायक को आभार ज्ञापित करते हैं तथा उनके पदचिह्नों पर चलने को संकल्पित होते हैं।

 

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अनिल साहू
विभागाध्यक्ष भूगोल विभाग दयानंद सुभाष नेशनल कॉलेज उन्नाव.
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