बरसात का मौसम , उस पर रिमझिम फुहारे , जंगल से गुजरती मेरी प्राइवेट रोडवेज बस, उबड़ खाबड़ रास्ते और बस का अपना ही खतरनाक शोर (My writing journey) इन सबके बावजूद बाहर का दृश्य लुभावना, पेड़ों की हरी पत्तियों पर बूंदों का टपकना और जो सूर्य को अर्घ्य देते उस तरह बूंदों का फिसलना बड़ा भला लग रहा था , आपस में झूमते एक दूसरे को ठेलते, पेड़ों की टहनियाँ मनो हंसी ठिठोली करते वर्षा का आनंद ले रही थी.
खिड़की से आती वर्षा की बौछार को मैं अपने आंचल से रोकने का प्रयास कर रही थी, कितना फर्क था मुझ में और उन वनस्पतियों में, फिर सोचा उन्हें सर्दी जुखाम जो नहीं होता……
ठंडी हवा सिरहन पैदा करती जा रही थी लेकिन बाहर का मनभावन दृश्य मन में अनेकों अनेक उपमायें उगाने लगा और एक कविता ने जन्म लिया ….मेरे पास कागज नहीं था मैने रास्ते से खरीदी सरिता पत्रिका के पीछे ही अपनी पहली मासूम कुछ पंक्तियाँ लिखी….. भावनाओं के साथ कागज कलम का रिश्ता शुरू……
बस में मेरे पीछे की सीट पर परिचित सखी के पतिदेव विराजमान थे , जिन्होंने घर जाकर मेरी सखी को बताया कि वह कुछ लिखती हैं , बस फिर क्या था सखी ने वह पत्रिका मांगी और मेरी कविता यह जा वह जा हो गई…. और वह मुझे वापस नहीं मिली , लेकिन उस कविता का गुमना, मेरे अंदर भावनाओं का अंकुरण होना , एक साथ हुआ और मैं लिखने के लिए कटिबद्ध होती चली गई….
उस समय लेखन को घरों में निकृष्ट कार्य समझा जाता था सो लिखने के लिए एकांत की तलाश होती और अपनी कॉपी छुपा कर रखनी पड़ती थी, जाने कितने वर्षों हमारी कॉपी हमारी अंतरंग सखी रही…..
चोरी छुपे लिफाफा लाना , पोस्ट ऑफिस जाना, टिकट लगा कर भेज देना, किसी युद्ध से कम नहीं था . कई बार जो पत्रिकाएँ टिकट लगा लिफाफा भी मंगवाती थी तब तो हरदम वापस लौट आने का डर बना रहता था , उस पर ख़त उस समय आये जब घर में कोई न हो कि ईश्वर से प्रार्थना ….. हाय राम कितने अनोखे दिन थे…..।
कई रचना प्रकृति पर रची गई फिर श्रृंगार रस और कुछ तो बाल रचनाएँ आई , वीर रस का पदार्पण हुआ इसके चलते कई वर्षों तक इन्हीं के बीच मेरी कलम घुमने लगी. कभी -कभी ही लिख पाती , फिर लगातार तीन वर्ष प्रतिदिन एक कविता, गीत ग़ज़ल लिखती थी ….अब ये रचनाएँ 1200 हो गई हैं…
समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू हुआ
(my writing journey)
उस समय न्यूज़ पेपर में विषयों पर कालम के लिए पाठकों से सामग्री मंगाई जाती थी, हम दैनिक भास्कर व अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं में भी विषयों के अनुसार लेख भेजते रहें और लेख लिखने का सिलसिला वहीं से शुरू हुआ …समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू हुआ , खूब छपे, अस्विकृत भी खूब हुए…तो सम्मान भी पाया …पाठकों के पत्रों ने जहाँ सराहा वही कई नये विषय भी दिये…जिनसे हम रूबरू हुये…..
लघु कथा ने ही मुझे कहानी की छोटी दुनिया में प्रवेश कराया. उस समय जुनून हुआ करता था कि दोस्तों के साथ परिचित, अपरिचित कहीं भी कोई विषय मिला की लघुकथा का ताना-बाना बुनना शुरू …छोटी-छोटी घटनाएँ, वार्ताएँ हमें लघु कहानी लिखने की प्रेरणा देती रही , वहीं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी हम छपते रहे और साथ ही रेडियो में रिकॉर्डिंग भी होती रही , काफी समय तक यह दौर चला, जब संग्रह के लिए एकत्रित किया तो 97 लघुकथाएँ निकली …जो बाद मैं सौ से ज्यादा हो गई ओर बुक प्रकाशित हो गई।
लघु कथा से निकलकर थोड़ी लंबी कहानियाँ लिखी जाने लगी, अब जब लिखने बैठी तो कहानी बढ़ती चली जाती, समझ नहीं आता कि यह छोटी कहानियाँ कैसे लिखती चली जा रही हैं और एक ही बैठक में पूरी करने की प्रबल इच्छा रहती थी, लगता था की छूट गई तो कल फिर आगे का नहीं सोच पाएंगे तो ……ऐसी कहानियां 250 हो गई.
अब मन छोटी कहानियों से उचटने लगा , कहानियाँ विस्तार लेने लगी और छूटने पर आगे लिख पाने की क्षमता बढ़ने लगी, कभी चार दिनों में तो कभी आठ से पन्दरह दिनों में, तो कभी-कभी महीना, दो महीने में कहानी पूरी होने लगी अब धैर्य से सोचकर कहानी आगे बढ़ती रहती, लिखकर पढती तो स्वयं आश्चर्य होता , हर दिन की सोच अलग-अलग होती थी ..
अब मैंने व्यवसायिक व साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भेजना शुरू कर दिया. स्विकृत होने व छपने से हौसला बढ़ने लगा और कहानी दर कहानी लिखी जाने लगी….गृहशोभा, सरिता, मनोरमा व साहित्यिक पत्रिकाओं में छपना अच्छा लगने लगा, हौसला बढ़ा तो कहानियों ने रफ्तार पकड़ी …उस दौर में 300 कहानियाँ लिखी गई…
सन् 2006 से उपन्यास का जुनून आया
(My writing journey)
सन् 2006 से उपन्यास का जुनून आया , यह ऐसी महिलाओं पर केंद्रित कहानी हैं जिसमें वे अपने जीवन संघर्ष को बखूबी जीते हुए आगे बढ़ती हैं और अपने होने को प्रमाणित कर रही हैं . जब – जब लिखने का समय मिला, लिखती गई. जैसे – जैसे उपन्यास लंबा हुआ, हर बार शुरू से पढ़ने की प्रक्रिया में कई बार आगे लिखने का कुछ सुझता ही नहीं था.. अभी भी कभी-कभी लिख लिया जाता है …
2010 से समीक्षा का क्षेत्र संभाला इससे दो फायदे हुए, पढ़ना तो होता ही था , साथ ही रचना का मूल तत्व समझ आने लगा. कहानियों की किताबों के साथ- साथ. समरलोक पत्रिका जो मेहरून्निसा परवेज भोपाल से निकालती हैं उसकी समीक्षा करने लगी, जो लगातार जारी है ..जिससे मेरी लेखनी की पकड़ और मजबूत हुई…..
पत्रिका न्यूज़ पेपर से साक्षात्कार के लिए मुझसे कहा गया
(My writing journey)
इसी बीच पत्रिका न्यूज़ पेपर से साक्षात्कार के लिए मुझसे कहा गया और मैंने साक्षात्कार करने के लिए चुन्नीदा साहित्यकारों की सूची बनाकर, प्रश्नावली बना ली, रोचक जानकारियों के साथ मेरे लिए हुए साक्षात्कार रविवार को जयपुर से छपने लगे. यह नया विषय, उस पर वरिष्ठ साहित्यकारों से मिलना , उनके अनुभव जानना और उनके साहित्य सफर से परिचित होना , मेरे लिए रोमांच से कम नहीं था . बहुत सी ऐसी बातें भी पता चली जिसे मैं साक्षात्कार में नहीं दे सकती थी… मेरे साथ उनकी बाटी हुई अत्यंत गोपनीय बातें हुआ करती , एक अलग व्यक्तित्व , अलग अनुभव, उनका सानिध्य मिलना वाकई अदभूत संसार में विचर रही थी मैं …..
हमारे पूज्य आदरणीय कवि हुकुम पाल सिंह विकल जी ने मेरी रचनाओं की टोह ली और संग्रह छपवाने पर जोर दिया ……प्रकाशित पुस्तकें…