तुम जरूर लौटकर आओगी | डॉ0 सम्पूर्णानंद मिश्र

तुम जरूर लौटकर आओगी!

शर्मिला आज पाँच साल बाद हरदोई रेलवे स्टेशन पहुँची। मन में जहाँ नई नौकरी के प्रति आकर्षण था, वहीं जिला कलेक्टर बनने की खुशी हृदय की नदी को तोड़कर बह जाना चाहती थी। एक अलग उल्लास अलग उमंग। मन में नाना प्रकार की तरंगें तरंगित हो रही थीं ।आज के पाँच साल पहले जब ससुराल आई थी, तो उसके अरमान को विवेक ने चकनाचूर कर दिया था। दरअसल शर्मिला स्नातक के बाद सिविल सर्विसेज की तैयारी करना चाहती थी, उसके मन में बचपन से ही देश सेवा का जुनून सवार था। शादी के एक साल तक सब कुछ ठीक – ठाक चला। उसकी सेवा परायणता ने ससुराल वालों का मन मोह लिया। सभी उससे प्रेम करते थे। लेकिन जब भी वह सिविल सर्विसेज की तैयारी की बात अपने पति से कहती थी तो उसका पति विवेक हर बार नजरअंदाज कर देता था। एक बार शर्मिला ने दिल्ली जाकर तैयारी करने की बात अपने ससुर से जब कहा तो उसे जैसे काठ मार दिया। कुछ देर के बाद बुझे स्वर से उसके ससुर रामप्रसाद ने कहा जैसा विवेक चाहे वैसा करो। इधर विवेक अपने पिता के ऊपर तैयारी करने की बात टाल देता था। द्वंद्व की चक्की में बेचारी शर्मिला की इच्छा पीसी जा रही थी। उसने अपने पति विवेक की विवेकहीनता की तलवार से अपने भविष्य के पंख को कटने नहीं देना चाहती थी। इस बात को लेकर आए दिन घर में कलह होने लगा। शर्मिला ने मजबूरन कोर्ट जाकर तलाक की अर्जी दाखिल कर दी। कुछ दिन बाद जब वह शाम को बैठकर पढ़ रही थी,तभी एक चपरासी कोर्ट से तलाकनामा लेकर विवेक के घर पहुँचा। विवेक उस समय घर पर नहीं था। यह पत्र उसके पिता रामप्रसाद ने प्राप्त किया। पत्र पढ़ते ही जैसी उसके पिता के नीचे की जमीन किसी ने खींच ली हो। रात के नौ बजे रहे थे। पौष का महीना था। लोग घरों में दुबक गए थे। बाहर कुत्तों के भौंकने की आवाज इस शीत के सन्नाटे को क्षण भर के लिए जरूर चीर दे रही थी, लेकिन शायद वह अपर्याप्त था। विवेक अपने मित्र के घर से लौट रहा था। पता नहीं क्यों आज उसका मन अशांत था। उसके मोटरसाइकिल की स्पीड आज बढ़ाए नहीं बढ़ रही थी। कुछ अनहोनी की आशंका उसके मन को दबोच रही थी। जब वह घर पहुँचा, तब उसके पिता ने कहा बेटा अब हम लोगों के बुरे दिन आ गए है शर्मिला ने तुमको तलाक दे दिया है। यह सुनते ही विवेक की आँखों से आँसू की अनवरत धारा बहने लगी। विवेक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। पत्नी के प्रति उसके मन में अनुरक्ति थी। प्रेम का जो बीजारोपण दोनों ने किया था। आज छतनार वृक्ष बन गया था। शर्मिला भी उस छतनार वृक्ष की छाया से दूर नहीं जाना चाहती थी, लेकिन हर लड़की की तरह उसके मन की भी कल्पनाएँ आसमान छूना चाहती थीं ।
इधर शर्मिला का हरदोई स्टेशन पर भव्य स्वागत हुआ। कलेक्ट्रेट कार्यालय के बड़े बाबू कामताप्रसाद और कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने पुष्प गुच्छ देकर शर्मिला का स्वागत किया। कार्यालय में कार्यभार ग्रहण करने के उपरांत शर्मिला ने सारे कर्मचारियों का परिचय प्राप्त किया। बड़े बाबू ने सभी का परिचय कराया। एक व्यक्ति जो सबसे कोने में बैठा था, जब उसके परिचय की बात आई तो शर्मिला ने बड़े बाबू से कहा कि ये खुद अपना परिचय देंगे। वह व्यक्ति शर्मिला को देखकर अवाक हो गया जैसे वह निस्तेज हो गया था। आज पाँच साल बाद अपनी पत्नी को जिलाधिकारी के रूप में देखकर वह हतप्रभ हो गया। उसके मुँह से एक शब्द नहीं निकल पा रहा था। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वह किसी तरह से अपना परिचय दिया। इसके ठीक बाद वह बिना किसी को बताए कार्यालय से घर चला गया और चार दिन तक कार्यालय नहीं आया। कार्यालय के सभी कर्मचारी समझ ही नहीं पा रहे थे कि आखिर बात क्या है! उसके इस व्यवहार को उसके सहकर्मी समझ नहीं पा रहे थे। आपस में कानाफुसी होने लगी कि विवेक को आखिर ऐसा क्या हुआ कि जबसे मैडम यहाँ आयीं हैं तब से वह कुछ असंतुलित हो गया है।
चार दिन के बाद जब पाँचवें दिन भी वह नहीं लौटा, तो मैडम को उसकी चिंता होने लगी।
उसने बड़े बाबू को बुलाकर कहा कि विवेक कार्यालय क्यों नहीं आ रहा है? क्या बात है आप पता करके कल बताइए!
अगले दिन बड़े बाबू ने आकर मैडम से कहा कि विवेक के घर मैं गया था। वह बीमार है अब ठीक हो रहा है ऐसा उसने बताया। कल से संभवत: वह कार्यालय आयेगा।
अगले दिन विवेक साढ़े दस बजे कार्यालय पहुँचा। मैडम समय की पाबंद थी। ठीक दस बजे ही कार्यालय पहुँच गईं थीं। कुछ पुरानी फाइल का उन्हें निस्तारण करना था।
अपने कार्य में मैडम व्यस्त हो
गईं। ठीक ग्यारह बजे उन्होंने एक चपरासी को भेजा कि जाकर देखो कि विवेक आया है कि नहीं! यदि आया है तो बुला लाओ!
विवेक ने जैसे ही मैडम के कार्यालय में प्रवेश किया। उसे देखते ही मैडम ने कहा कि मिस्टर विवेक बिना अवकाश के आप घर क्यों बैठ गए! ऐसे नहीं चलेगा! आइंदा ऐसा होगा तो आपके खिलाफ मुझे सख्त कार्रवाई करनी पड़ेगी।
उसने कहा मैडम अगली बार ऐसा नहीं होगा। इस शब्द को मुँह से निकालने में जितनी पीड़ा आज हुई थी, उतनी पहले कभी नहीं हुई थी। आज उसके पुरुषार्थ को जैसे किसी ने हठात चुनौती दे दी हो।
आज से पाँच साल पहले जिस चाँदनी रात में उसने अपने भावी जीवन को सुंदर बनाने कि एकसाथ कसमें खाई थीं एक दूसरे की बाँहों से लिपटकर। कल्पना की कितनी उड़ान भरी थीं दोनों ने। कितनी मधुर रातें इस बात की साक्षी रही हैं।
आज उसी का यह आदेशात्मक स्वर! जैसे पूरा शरीर करेण्ट से झनझना गया हो।
आज पत्नी शर्मीला का यह सख्त आदेशात्मक स्वर जैसे उसके शरीर को छेद कर पार कर गया हो।
लेकिन वह कुछ कर भी नहीं सकता था। सिर्फ! आदेश को मानने के सिवा।
दूसरे दिन कार्यालय में हंगामा हो गया।
मैडम ने पूर्व के टेण्डर जो मानक के अनुरूप नहीं थे को निरस्त कर दिया। नए टेण्डर की प्रक्रिया फिर से शुरु करने की आज्ञा संबंधित अधिकारियों एवं क्लर्कों को दे दी।
मिस्टर वर्मा जो उस कार्यालय के उच्च अधिकारी थे उनको जैसे ही पता चला कि उनके द्वारा संस्तुत टेंण्डर निरस्त कर दिया गया। वे झल्ला गए। अपना आपा उन्होंने खो दिया। कार्यालय में जोर- जोर से शर्मिला मैडम को भला- बुरा कहने लगे।
यह बात विवेक को बड़ा ही नागवार लगा। उसने भी आवेश में आकर अपने सीनियर अधिकारी वर्मा का कालर पकड़ लिया और कहा
मिस्टर वर्मा होश में रहिए। जिहृवा बाहर खींच लूँगा। मैडम को यदि एक शब्द और कहा।
मिस्टर वर्मा ने कहा कि तुम मैडम के क्या लगते हो! तुम्हें इतनी मिर्ची क्यों लग रही है ?
दफ्तर के अन्य कर्मचारी बीच बचाव नहीं करते तो शायद हंगामा और भी बढ़ जाता।
रात के छह बज रहे थे विवेक सीधे मोस्टरसाइकिल से घर के लिए चल चुका था, जैसे ही बाजार क्रास करने वाला था। दो तीन बदमाश अँधेरे का लाभ उठाते हुए पीछे से आए और विवेक के सिर पर लाठी डंडे से प्रहार करने लगे। विवेक वहीं लहूलुहान होकर गिर पड़ा। मोहन वहीं पास में सब्जी खरीद रहा था, दौड़कर आया तो देखा कि यह तो मेरा पड़ोसी विवेक है। उसने फौरन उसे अस्पताल पहुँचाया। और इमर्जेंसी वार्ड में एडमिट कराया। सिर पर गहरा जख्म था। डाक्टरों की टीम ने आई0 सी0 यूo में शिफ्ट करने का आदेश दिया।
कुल बत्तीस टाँकें लगाए गए। रात के बारह बज रहे थे। अस्पताल में नर्स वार्ड में अपने मरीजों को देखकर सोने की तैयारी कर रही थीं। तभी विवेक के पिता को कहीं से सूचना मिली। वे वेचारे रोते बिलखते अस्पताल पहुंँचे, और नर्स से अपने बेटे के विषय में पूछने लगे। नर्स ने कहा कि आप का बेटा खतरे से बाहर हैं उन्हें नींद का इंजेक्शन दे दिया गया। सोये हैं आप सुबह ही मिल पायेंगे। वे बेचारे आईo सीo यूo के बाहर ही सुबह का इंतजार करने लगे।
अगले दिन जब विवेक कार्यालय नहीं पहुँचा, तो शर्मिला मैडम को चिंता होने लगी कि क्या बात है आज विवेक नहीं आया।
इसी बीच एक चपरासी ने कल की घटना का पूरा वृतांत मैडम को बताया।
मैडम समझ गई कि यह सब वर्मा का ही किया कराया है।
इधर शहर में उस दिन एक बड़ा कार्यक्रम था। राज्य के मंत्री को आना था। विभागीय तैयारी लगभग हो चुकी थी। कलेक्टर साहिबा को वहाँ एक घण्टे पहले पहुंँचना था। उन्होंने कार्यालय के बड़े बाबू को बुलाया और कहा कि विवेक अस्पताल में है वहाँ मेरा जाना बहुत जरूरी है। उसने कहा कि मैडम! लेकिन मंत्री जी आ रहे हैं! आपको वहाँ रहना चाहिए। मंत्री जी बुरा मान जायेंगे।
मैडम ने कहा! मंत्री जी अपना काम करेंगे और मैं अपना।
यही कहकर अपने ड्राइबर और एक कांस्टेबिल के साथ मैडम अस्पताल के लिए निकल गयी।
अस्पताल में मैडम ने जब विवेक को देखा तो मैडम की आँखों से आँसू छलक पड़े। अपने पति को इस हालत में देखकर।
तब तक विवेक को होश आ गया था। मैडम ने कहा कि क्या जरूरत थी वर्मा से उलझने की। वह मुझे अपशब्द कह रहा तुम्हें तो नहीं!
शर्मिला मैम की इन बातों से उसके जख्म पर जैसे मलहम लग गया हो। उसने औपचारिकता व प्रोटोकॉल की दीवार को क्षण भर में भहराते हुए कहा कि तुम्हें कोई अपशब्द कहे यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। दोनों की नजरों की नदी में जैसे अतीत की सुनहली नावें चलने लगी। दोनों अपने- अपने आँसू छुपाने लगे।
शर्मिला ने कहा कि तुम्हारी पत्नी कहाँ हैं?
उसने कहा कि मैंने शादी नहीं की।
और तुम!
मैंने भी नहीं!
तुमने क्यों नहीं की?
मेरी जिंदगी में पहले भी तुम थे और आज भी तुम्हीं हो!
विवेक ने कहा मुझे उम्मीद थी कि तुम जरूर लौटकर आओगी!
यह कहते ही दोनों फफककर रोने लगे और एक दूसरे से गले लिपट गए।

डॉ0 सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

नहीं आ पाऊँगा घर इस होली पर | डॉ0 सम्पूर्णानंद मिश्र

नहीं आ पाऊँगा घर इस होली पर

( कहानी)

सारा देश जिस दिन होलिका दहन की तैयारी में जुटा था, उस दिन श्रवण के मोबाइल पर एक अज्ञात नंबर से काल आया। काल करने वाले ने कहा कि मैं रायपुर छत्तीसगढ़ से डाक्टर सुशांत बोल रहा हूँ, तुम्हारे पिताजी की हालत बेहद गंभीर है उन्हें ए प्लास्टिक एनीमिया हो गया है। उनको तुरंत रक्त चढ़ाना होगा। मेरे खाते में तुरंत पच्चीस हजार रुपए भेज दो नहीं तो, तुम्हारे पिताजी नहीं बच पाएंगे!
श्रवण ने कहा कि नहीं डाक्डर बाबू! ऐसा न कहिए। लेकिन यह कैसे हुआ! अभी तो बाबू ठीक- ठाक थे। बीस दिन पहले ही तो घर से शहर आया हूँ। क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ! अपने भाई मुरारी से बात करो। एo आईo के जमाने में किसी की आवाज में बात करना कितना आसान होता है।ठीक उसके भाई मुरारी की आवाज में एक व्यक्ति जो उस गिरोह का हिस्सा था, वैसी ही आवाज में कहा। हाँ भैया बापू ठीक नहीं हैं इनका खून नहीं बढ़ रहा है। आँखों से कुछ देख नहीं पा रहे हैं। आप तुरंत डाक्डर बाबू को पच्चीस हजार रुपए भेज दीजिए! नहीं तो बापू मर जायेंगे। श्रवण आश्वस्त हो गया था कि बापू बीमार हैं। इस समय पैसा न भेजना मौत को दावत देना है।
श्रवण का परिवार रायपुर छत्तीसगढ़ के एक छोटे से गाँव चित्रसेनपुर में रहता है। चित्रसेनपुर रायपुर से पश्चिम की ओर लगभग चालीस किलोमीटर दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव है। बीस घर का एक पूरा है। उस गाँव के अधिकांश लोग एक भट्ठे पर ईंटा पाथने का काम करते हैं। उसी से उनके घर का खर्च चल जाया करता था। इधर कोरोना में काम बंद हो जाने से मुफलिसी आ गई थी। गाँव की औरतें रोज शहर जाकर सेठ साहूकारों के यहाँ छोटा- मोटा काम करके अपना और अपने कुटुंबियों का पेट किसी तरह भर पाती थी। श्रवण के घर में माँ पिता छोटा भाई मुरारी और उसके तीन बच्चे व श्रवण की पत्नी धनपत्ती और एक बेटा जो दस साल का है सब मिलजुल कर रहते थे। श्रवण की भयहू अलका अपने ससुर का बहुत ध्यान रखती थी। पत्नी के चल बसने से उसके ससुर टूट गए थे। आए दिन बीमार रहते थे। श्रवण के घर को देखकर लगता है कि घर के हर कोने से गरीबी झाँक रही है, लेकिन इतना जरूर था कि दो वक्त की रोटी परिवार को किसी तरह मिल जाती थी। लेकिन कुनबा बढ़ने से कभी- कभी यह परिवार फाँका भी कर जाता था। महँगाई ने परिवार की कमर तोड़ दी थी। इन्हीं हालातों को देखकर श्रवण अपनी पत्नी धनपत्ती और दस साल के बेटे मोनू को लेकर बनारस कमाने के लिए आ गया था। कुछ दिन तक तो काम की तलाश में भटकता रहा। बनारस आध्यात्मिक नगरी है। यहाँ महादेव की कृपा से कोई भूखा नहीं सोने पाता है! सबके मुँह में महादेव कुछ न कुछ डलवा ही देते हैं। इसी बनारस का एक छोटा सा क्षेत्र है, अर्दली बाजार। वहाँ रोजई पर काम के लिए शहर के आस पास के गाँव से लेबर अपने श्रम बेचने प्रतिदिन आते हैं, और यदि काम मिल गया तो वे मालिक के खूँटें में बँध जाते हैं । काम की कुशलता को देखकर मालिक उन मजदूरों से दो- चार दिन और काम करा उन्हें उनका पारिश्रमिक देकर विदा कर देता था।
एक दिन श्रवण की मुलाकात पाचू लेबर से अर्दली बाजार मे ही हो गई। जिस मालिक के यहाँ ठेकेदार काम करवाता था।
उस ठेकेदार से पाचू ने श्रवण को मिलवा दिया। ठेकेदार की आँखों में चमक आ गई, क्योंकि रोजई पर काम करने वालों को रोज पैसा देना पड़ता था। वह ऐसे मजदूर की तलाश कर रहा था, जिससे काम अधिक लेकर थोड़े थोड़े पैसे उसे दे। शहर में लगभग हर ठेकेदारों की यही मनोवृत्ति है। श्रवण उस दिन से राजेश ठेकेदार के अंडर में काम करने लगा। बहुत मेहनत करके एक- एक पैसा बचाने लगा। जब भी ठेकेदार सारे लेबरों का हिसाब करता था, वह यही कहता था कि बाद में ले लेंगे। होली पर घर जाना है। उसी समय जरूरत पड़ेगी। भाई उसकी पत्नी और उसके बच्चों के लिए कपड़े लेना है। बनारस की मिठाई ले जायेंगे। बापू को आँखों से कम दिखता हैं उनके लिए नया चश्मा ले जायेंगे इस बार होली पर।
श्रवण ने हाड़- तोड़ मेहनत करके एक एक पैसा जुटाया था। उसके घर जाने की आशाएँ आसमान छू रही थी। यदि उसके पास पंख होता तो शायद उड़कर चला जाता, लेकिन विधाता को कुछ और मंजूर था।! साइबर अपराधियों ने पुख्ता जानकारी उसके घर से जुटाकर पैसा ऐंठने का एक अनोखा जाल बिछाया और भोला- भाला श्रवण उस नकली ठग डाक्टर के जाल में फँस गया। पच्चीस हजार रुपए ठेकेदार से उसने बापू के इलाज के लिए ट्रांसफर करवा दिया।
श्रवण को पैसे भेजकर लगा कि चलो बापू का इलाज हो जाएगा। वे ठीक हो जायेंगे। होली अगली साल मना लेंगे। उसने डाक्टर को दस मिनट बाद फोन लगाया तो स्विच आफ बताने लगा। लगातार बीसों काल किया, लेकिन उधर से कोई आवाज नहीं आयी। ठेकेदार पढ़ा लिखा होशियार व्यक्ति था। वह सारा माजरा समझ गया। उसने श्रवण से कहा कि तुम्हारे साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ। तुम्हारे पैसे साइबर अपराधियों ने लूट लिया है। यह सुनकर श्रवण जमीन पर कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वास्तव में विपत्ति कमजोरों को ही तोड़ती है। तीन घण्टे बाद होश आया तो श्रवण के आसपास काफी भीड़ थी। श्रवण और उसकी पत्नी का रो रोकर बुरा हाल था। एक निवाला मुँह में नहीं गया। रात में ग्यारह बजे उसके छोटे भाई का फोन आया कि भैया कल आप आ रहे है न! यह सुनकर श्रवण फफक- फफक रोने लगा। धीमी आवाज में उसने कहा भाई मेरे साथ बहुत बड़ा छल हुआ है। मेरे मेहनत को अपराधियों ने लूट लिया है। इस होली को घर नहीं आ पाऊँगा। ठेकेदार ने श्रवण के भाई मुरारी के एकाउंट में दयालुता का परिचय देते हुए पाँच हजार रुपये ट्रांसफर कर दिया।

डॉ0 सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी 7458994874

प्रेम की रेत में मौत भी नहाती है | भारमल गर्ग “विलक्षण”

प्रेम की रेत में मौत भी नहाती है | भारमल गर्ग “विलक्षण”

प्रेम की रेत में मौत भी नहाती है

सत्यपुर की सीमा पर फैला मरुस्थल अनंत की तरह था। रेत के टीलों पर सूरज की किरणें ऐसे नाचतीं, मानो अग्निदेव यज्ञ की लपटें बिखेर रहे हों। इसी रेगिस्तान के किनारे बसा था सत्यपुर—एक ऐसा नगर जहाँ के लोग प्रेम को भोग समझते थे, और मृत्यु को अंत।

नगर की संकरी गलियों में एक युवक भटकता रहता। नाम था सुदर्शन। उसकी आँखों में तपस्वियों-सी गहराई थी, पर चेहरे पर एक अद्भुत कोमलता। वह मंदिरों की सीढ़ियों पर बैठकर लोगों के चेहरे पढ़ता—उनकी आँखों में छिपे लालच, प्रेम और पीड़ा को समझने की कोशिश करता। लेकिन भिक्षा नहीं माँगता था वह… शायद इसलिए कि उसकी भूख रोटी से नहीं, सत्य से थी।

नगर के बाहर एक उजड़ा उपवन था। उसमें एक प्राचीन बावड़ी थी, जिसके बारे में कहा जाता “इसका जल पीने वाला प्रेम में कभी अपवित्र नहीं होता।” उसी बावड़ी के पास रहती थी राजलक्ष्मी। उसका नाम ही उसके अस्तित्व का सार था—वह राजसी ठाठ से दूर, पर हृदय से रानी थी। उसकी आँखों में निर्मलता थी, और चेहरे पर वह तेज जो केवल सच्चे प्रेम में ही जागता है।

एक संध्या, जब आकाश लालिमा में नहा रहा था, सुदर्शन ने पहली बार राजलक्ष्मी को बावड़ी के किनारे देखा। वह पानी में पैर डुबोए आकाश की तरफ देख रही थी। उसके पैरों के पास जल में कमल-सी छवि बन रही थी। सुदर्शन की नज़रें उस पर टिक गईं। तभी राजलक्ष्मी ने मुड़कर देखा। उसकी साँसें एक क्षण के लिए रुक गईं—ऐसा लगा जैसे उसके भीतर का कोई सुप्त सुर जाग उठा हो।

“आप कौन हैं?” उसने पूछा, आवाज़ में एक अजीब कंपन।
सुदर्शन मुस्कुराया। उसकी मुस्कान में रेत की गर्मी और ओस की ठंडक दोनों समाई थीं।
“मैं वह हूँ जो तुम्हारे भीतर हमेशा से था… बस तुमने अभी तक पहचाना नहीं।”

उस दिन के बाद से राजलक्ष्मी और सुदर्शन का मिलना नियमित हो गया। वह उसे उपवन में राग सिखाती, और वह उसे जीवन के मर्म समझाता। धीरे-धीरे, उनके बीच शब्दों की जगह मौन ने ले ली। एक दिन जब राजलक्ष्मी ने सुदर्शन का हाथ थामा, तो उसकी उँगलियों में स्पर्श नहीं, एक प्रार्थना थी।

“तुम जानते हो, मेरा विवाह राजकुमार चंद्रकेतु से तय है?” उसने एक दिन कहा।
सुदर्शन ने आकाश की ओर देखते हुए कहा, “जो प्रेम को युद्ध समझता है, वह कभी तुम्हारा नहीं हो सकता।”
“पर पिता की आज्ञा…”
“प्रेम आज्ञा नहीं, आत्मा की भाषा माँगता है।”

किंतु समय ने करवट ली। विवाह की तैयारियाँ शुरू हो गईं। राजलक्ष्मी के कक्ष में लाल चुनरी और गहनों के डिब्बे आने लगे। एक रात, जब चंद्रकेतु की सेना के घोड़ों की टापों की आहट नज़दीक आई, राजलक्ष्मी ने निर्णय लिया। वह भागी—उस उपवन की ओर, जहाँ सुदर्शन प्रतीक्षा कर रहा था।

“ले चलो मुझे उस रेत तक, जहाँ प्रेम और मृत्यु एक हों,” उसने कहा।

वे दोनों मरुस्थल के गर्भ में एक टूटी हवेली में रुके। उसकी दीवारें जर्जर थीं, पर उन पर उकेरी गई प्रेम कथाएँ अभी भी साँस ले रही थीं। सुदर्शन ने बावड़ी का जल राजलक्ष्मी को पिलाया। “यह जल हमें उस प्रेम तक ले जाएगा, जहाँ कोई विछोह नहीं,” उसने कहा।

पर चंद्रकेतु के सैनिक उनके पीछे थे। एक सुबह, जब सूरज ने रेत को सोने जैसा चमकाया, सैनिकों ने हवेली को घेर लिया। सुदर्शन ने राजलक्ष्मी की ओर देखा। उसकी आँखों में डर नहीं, विश्वास था।

“याद रखना, प्रेम की रेत में मृत्यु भी पवित्र होती है,” उसने कहा।
दोनों ने हाथ मिलाया और मरुस्थल की ओर चल पड़े। पीछे से तलवारों की खनखनाहट थी, आगे केवल अनंत रेत।

जब सैनिकों ने उन्हें ढूँढ़ा, तो वहाँ कोई नहीं था—केवल रेत पर दो छायाएँ बिखरी थीं, जो धीरे-धीरे हवा में विलीन हो रही थीं। कहते हैं, उस रात से आज तक, जहाँ वे लुप्त हुए, वहाँ की रेत चाँदनी में स्वयं प्रकाशित होती है। गाँव वाले कहते हैं। “प्रेम की रेत मृत्यु को नहला देती है, और मृत्यु प्रेम को अमर कर जाती है।”

श्री भारमल गर्ग “विलक्षण”

सांचौर राजस्थान (३४३०४१)

एक कप दूध | Hindi Story | डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

आज रामसिंगार बाबू के घर सुबह से ही ज़ोर ज़ोर से चीखने की आवाज़ आ रही थी। दरअसल कल उनका अपनी पत्नी से किसी बात पर बहस हो गई थी। बहस लंबी चली। मानों दोनों बहस के युद्ध में पूरी तैयारी से उतरे हों। रामसिंगार बाबू की पत्नी शहर के एक प्रतिष्ठित बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत हैं। कल रात सात बजे थकी मांदी घर पहुंची। अमूमन वे छ: बजे तक घर पहुंच जाया करती थी, लेकिन आज कैश काउंटर पर बड़ी भीड़ थी। जिस काउंटर पर कैश जमा होता था, वे साहब आज अवकाश पर थे।‌ एक ही काउंटर पर लेन- देन दोनों हो रहा था।‌ शाम को साढ़े चार बजे काउंटर क्लोज होने पर उनकी पत्नी दीक्षा ने हिसाब मिलाया तो दस हजार रुपए कम था। वे घबरा गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि उनके पैर‌ से जमीन खिसक गई हो।‌ पसीना उनके माथे से निकलकर उनकी पूरी साड़ी को भिगोने लगा। इस महंगाई में दस हजार रुपए का नुक़सान एक बड़ा नुक़सान था। वे सोचने लगी कि अभी मकान मालिक का किराया भी देना है। बच्चों की फीस भी बाकी है। घर के चूल्हे की मद्धिम और तेज लौ दीक्षा की सैलरी के लाइटर पर ही निर्भर रहती थी।‌ शहर के एक निजी कंपनी में उनके पति एक मामूली सा काम करते थे, वे अपना खर्च निकाल लें यही दीक्षा के लिए बहुत था। इसी बात को लेकर आए दिन‌ दीक्षा के अहंकार की तलवार राम सिंगार के ऊपर चल जाया करती थी। राम सिंगार अपनी इन कमज़ोरियों से पूरी तरह वाकिफ थे। इसलिए पत्नी के क्रोध के तेज़ाब से वे हमेशा अपने को बचाते थे लेकिन कभी-कभी उसके छींटें से वे बच नहीं पाते थे।
उधर दीक्षा रुआंसा चेहरा लेकर मैनेजर के पास गयी। बोली सर आज मेरा हिसाब नहीं मिल रहा है। मैंने पूरा बाउचर चेक कर लिया है सर दस हजार रुपए कम आ रहे हैं, अगर बंटी को मेरे कैश मिलान के लिए कह दें तो मुझे सर सुविधा हो जायेगी।
मैनेजर ने कहा, देखिए मैम यह आपका रोज़ रोज़ का है। कभी हिसाब नहीं मिलता है कभी बाउचर पर मुहर लगाना भूल जाती हैं और आए दिन कुछ न कुछ गलतियां!
आए दिन लेट आती हैं यह सब नहीं चलेगा।‌ दरअसल मैनेजर मैम को ऊपरी तौर पर तो डांट रहा था, लेकिन उसकी वासनात्मक आंखों की कड़ाही में मैम के सौंदर्य की मछली नृत्य रही थी। वह इस मछली को किसी भी तरह से पाने के लिए अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए हुए था। आज मछली फंस गई थी।
मैनेजर शंभूसिंह जब से इस बैंक में आएं हैं उनकी इस हरकत से बैंक में कार्यरत तमाम महिलाएं अपना ट्रांसफर करवाकर दूसरे अन्य बैंक में चली जाती थीं। दीक्षा को आए इस बैंक में चार महीने ही हुए थे वह अपने काम में निपुण थी। बैंक मैनेजर को शिकायत का कभी मौका भी नहीं देती थी लेकिन जब संयोग खराब हो तो सावधान जानवर भी विदग्ध आखेटक के जाल में फंस जाता है और असहाय महसूस करते हुए दया की भीख मांगता है। आज दीक्षा की भी यही स्थिति है। बेचारी आज जाल में फंस चुकी थी। उसने कहा सर आज मुझे बहुत जल्दी है। बंटी से कह दीजिए कि वह मेरा सहयोग कर दे। मैनेजर ने संकेत संकेत में बंटी को मना कर दिया था।
बेचारी अपने केबिन में आकर रोने लगी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी। तभी मैनेजर ने मैम को चैंबर में बुलाकर कहा कि ठीक है मैम आप घर जाइए! मैं हिसाब मिलवा लूंगा। दीक्षा को एक पल की खुशी तो मिली लेकिन वह मैनेजर की गिद्ध दृष्टि की आंखों में वासना की बनती बिगड़ती रेखाओं को पढ़ चुकी थी।‌
वहां से घर आने में सात बज चुके थे। उसे भूख और प्यास लगी थी। आते ही वह कटे वृक्ष की तरह विस्तर पर गिर चुकी थी।
अपने पति राम सिंगार को आवाज देते हुए चाय बनाने के लिए कही।राम सिंगार भी दिन भर का भूखा था,उसने कहा तुम खुद बना लो!
इतना सुनते ही वह बिगड़ैल बैल की तरह भड़क उठी और उसने अपनी ज्वलनशील वाणी के तेज़ाब में पति को इस तरह नहलाया कि अगल बगल की बिल्डिंग भी इस छींटें से नहीं बच सकी। रामसिंगार अपने क्रोध को अपने विवेक के जल से
नहीं शांत करते,तो आज कुछ भी हो सकता था। रात के ग्यारह बजे रहे थे। अंधेरी रात थी। झमाझम बारिश हो रही थी। दीक्षा कोपभवन में जा चुकी थी। राम सिंगार को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी दोपहर में भी उसने कुछ नहीं खाया था। जाकर रसोईघर में देखा तो सारे बर्तन जूठे पड़े थे। फ्रिज में एक कप दूध रखा था‌। रात को कुछ बनाने की स्थिति में नहीं था। रामसिंगार ने दूध गरम होने के लिए रख दिया। रसोईं में कुछ ढूँढ़ रहे थे कि दूध के साथ खाकर सो जाया जाए कि अचानक पत्नी की सुध आई और पता नहीं क्या हुआ कि बड़ी ख़ामोशी से उन्होंने जूठे बर्तन साफ़ किए और भगोने में दाल चावल डाल कर खिचड़ी चढ़ा दी।
अपनी ज़िंदगी को कोसती दीक्षा भूख अपमान और क्रोध से करवटें बदल रही थी। सिर फटा जा रहा था। अचानक उठी कि किचन में जाकर कुछ खा लूँ और क्रोसीन ले कर सो जाऊँ कि अचानक बत्ती जली और देखा कि रामसिंगार एक हाथ में खिचड़ी की थाली और दूजे में पानी का गिलास लिए सामने खड़े हैं और खिचड़ी से देशी घी की सुगंध नथुनों में ज़बरदस्ती घुसी जा रही थी।

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

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किराये का रिश्ता | रत्ना भदौरिया

दो दिन पहले फेसबुक पर एक लाईन पढ़ी ‘उसके साथ रिश्ता मेरा किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ। अभी पढ़ ही रही थी कि दिमाग ने चलना शुरू कर दिया और चार साल पहले इन्हीं पंक्तियों में जुड़ी मेरी एक सहेली जो आज भी यही सोच के साथ जिंदगी काट रही है। जब तब मैं अपने गांव जाती हूं तो उससे जरुर मिलती हूं फिर वो घंटों बैठकर अपनी कहानी सुनाती है मुझे।

आज इस लाइन को पढ़ते ही एक बार फिर वो और उसकी कहानी याद आ गयी स्नातक की पढ़ाई के बाद उसने बी टी सी के लिए दाखिला लिया और मैं आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चली गई। बी टी सी करते करते उसे एक लड़के से प्यार हो गया। प्यार सिर्फ प्यार तक सीमित नहीं रहा बात शादी तक पहुंची। दोनों तैयार थे लेकिन जिंदगी ने ऐसा मोड़ लिया कि मेरी सहेली उमा के पापा की मृत्यु हो गई ‌। मृत्यु के अभी पन्द्रह दिन भी व्यतीत नहीं हुए कि उसके प्रेमी ने उससे शादी के लिए घर में बात करने कहा उसने कहा देखो प्यार जितना आपका जरुरी है उतना मेरा भी लेकिन अभी पापा को गये हुए पंद्रह दिन भी नहीं हुए और घर में कोई नहीं है मां को संभालने वाला उसने कहा ठीक है संभालो मां को अपनी उसी दिन से उसने राश्ता बदला और दूसरी लड़की से शादी कर ली। कई महीने बाद पता चला।ये तो आजकल शोसल मीडिया का शुक्र जो बात आयी गयी पता चल ही जाती है।

तब उसने पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया ?प्रेमी का जवाब तो क्या करता उधर लड़की भी तुमसे सुंदर,पैसे भी अच्छे मिल रहे थे और तो और शादी भी जल्दी हो गयी ।इधर क्या ? पता नहीं कितने साल तुम अपनी मां को संभालती और बाप तो था नहीं मिलता भी क्या ?अच्छा जब प्रेम किया था तब ये चीजें नहीं देखी थी कि ये उमा खूबसूरत नहीं है और फिर शादी की बात की ही क्यों थी ?तब तुम्हारा बाप नौकरी करता था और न तुम्हारे ऊपर मां का बोझ ढोने की जिम्मेदारी थी। खूबसूरती में नौकरी का क्या लेना- देना उमा ने पूछा ?हो -हो कर हंसते हुए बोला तुम भी उमा कितनी भोली हो अरे नौकरी करता तो मोटी रकम तो देता कमसे कम तेरा बाप ?अच्छा !छोटा सा उत्तर देकर कुछ क्षण उमा चुप रही और फिर एक जोरदार थप्पड़ मारते हुए कहा आज बहुत खुश हूं इसलिए कि मुझे समझ आ गयी।

पापा के जाने से भी आज दुखी नहीं खुश हूं कि शायद वो नहीं जाते तो मैं प्यार में अंधी होकर क्या कर बैठती। अनुतरित, आश्चर्यचकित ज़रुर हूं लेकिन खुश हूं।कहते हुए वहीं लाईन गुनगुने लगी’उसके साथ मेरा रिश्ता किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ।।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

पराजित प्रतीक्षा | अनिल पाराशर ‘मासूम’

“अच्छा हुआ तूने किसी का तो फ़ोन उठाया। शायद अपने किसी दोस्त का ही उठाया होगा, नहीं तो अब तक सब कुछ राख हो गया होता। ये तुझे देखना चाहती थी, तुझे दिखना चाहती थी, पर तू हर फ़ोन काट रहा था। अफ़सोस! अब तू तो इसे देख सकता है, पर यह तुझे देख नहीं सकती। अगर तू फ़ोन उठा लेता, तो शायद ये नहीं जाती, रुक जाती।” महेंद्र नाथ जी ने अपने बेटे श्रीकांत के कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा।

श्रीकांत यह भी नहीं कह सका कि मुझे बुलाया क्यों नहीं, क्योंकि रात को पार्टी में जाने के बाद उसने सभी घर वालों के फ़ोन उठाने बंद कर दिए थे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, यह उसकी आदत थी। अब रात को जितनी पी हुई थी, सब उतर चुकी थी। मन में एक दुःख भी था, पर अब कुछ हो नहीं सकता था।

महेंद्र नाथ जी ने कविता के चेहरे से कपड़ा हटाते हुए कहा “कांत, एक बार देख ले और बता पहचानता है इसे?”

“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्यों नहीं पहचानूँगा अपनी माँ को?” श्रीकांत ने आँसू पोंछते हुए कहा।

मैंने तो इस बात पर ध्यान नहीं दिया था, परंतु जाने से पहले कविता बोल रही थी “कांत को तीन दिन से नहीं देखा, तीन दिन से उसकी पार्टी चल ही रही है। एक बात सोचती हूँ कि जब वह यहाँ होता है तब उसके कमरे में जाकर उसे सोते हुए जरूर देखती हूँ और देखकर संतोष कर लेती हूँ। उसका चेहरा मुझे पूरा याद रहता है, हमेशा ही याद रहेगा। पर क्या वह मुझे देखकर पहचान लेगा? कई महीनों से उसने घर में रहते हुए भी नज़र भरके मुझे नहीं देखा है; जबकि पिछले कुछ महीनों में मैं उसकी चिंता में बहुत बदल गई हूँ। अगर मुझे कुछ हो जाए, तो मेरे चेहरे से कपड़ा हटाकर उसे बता ज़रूर देना कि ये तुम्हारी माँ थी, तब शायद वह पहचान जाए।”

श्रीकांत फूट-फूटकर रोने लगा। काँपती आवाज़ में कहने लगा- “पापा संस्कार कब करना है?”

“तूने दर्शन कर लिए और पहचान लिया माँ को, यही बहुत है। बहुत ख़ुश होगी वह, जहाँ भी होगी। रही बात संस्कार की, तो उसे तो तू रहने ही दे। तेरी शराब और तेरे दोस्त तेरा इंतिज़ार कर रहे होंगे, अब तू जा सकता है। संस्कार का काम मैं स्वयं देख लूँगा। तूने अक्सर अपनी माँ से कहा था “आपने मेरे लिए किया ही क्या है?”, तो आज तू भी बदला ले ले, आख़िरी ज़िम्मेदारी पूरी न करके।”

एक बात और कही थी कविता ने कि “कांत से कहना उसने मेरे घर पैदा होकर मुझे ज़िंदगी की सबसे बड़ी ख़ुशी दी थी। वही ख़ुशी मैं कांत को दूँगी उसके घर जन्म लेकर। मगर वह दुःख उसे कभी नहीं दूँगी, जो उसने जवान होकर मुझे दिए; बल्कि उसके सारे दुःख माँग लूँगी।” कहते-कहते महेंद्र नाथ जी की आँखें भीग गईं।

वे धीरे से बोले “बेटा अपने सफ़र पर निकल जा ताकि मैं भी कविता को उसके आख़िरी सफ़र पर ले चलूँ। अपना ख़याल रखना। एक बात और, मुझे लगता था कि जो शराब पीता है, शराब उसकी जान ले लेती है; मगर तेरी शराब ने कविता की जान ले ली। हो सके तो शराब छोड़ देना, तेरी माँ यही चाहती थी।”

आख़िरी बार श्रीकांत की तरफ पीठ करके महेंद्र नाथ बोले “जब मैं जाऊँगा तो कोशिश करूँगा तेरे किसी दोस्त को भी इस बात का पता ना चले। मैं आराम से जाना चाहूँगा और तेरे आराम में कभी खलल नहीं डालना चाहूँगा। हाँ! मगर मैं भूल नहीं सकूँगा कि तूने मेरी कविता को मुझसे छीन लिया। मैं तो ग़ुस्सा भी नहीं हो सकता तुझ पर; क्योंकि कविता ने कहा था “आप उसे कुछ कहना नहीं, आप के ग़ुस्सा करते ही वह अपना आपा खो देता है और उसकी तबियत ख़राब हो जाती है।”

तभी आवाजें गूँजने लगीं- “राम नाम सत्य है।”

श्रीकांत को लगा उसके दोनों पैरों में जैसे कीलें गड़ी हुईं थीं। न वो माँ के साथ चल सकता था, न ही अपनी दुनिया में लौट सकता था।

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साबुन की बट्टी | रत्ना भदौरिया | Hindi Short Story

इन दिनों अक्सर कमरे के सामने माल और वहां पर जीनों पर काफी बैठने की जगह होने की वजह से मैं भी जाकर बैठ जाती हूं। जिस दिन काम कम होता है उस दिन चार बजे से लेकर रात आठ नौ तक बैठी रहती हूं,जिस दिन काम ज्यादा होता है उस दिन थोड़ी देर ही बैठ पाती हूं लेकिन बैठती जरुर हूं। एक व्यक्ति रोज हाथ फैलाये इसी वक्त मिल ही जाता है मैं भी ज्यादा नहीं लेकिन पांच रुपए वाला बिस्किट का पैकेट जरूर थमा देती हूं। वो खुशी -खुशी ले भी लेता है।

आज उसने मुझसे कहा -मैडम बिस्किट नहीं आज साबुन की एक बट्टी दे दीजिए या फिर दस रुपए। आज साबुन क्यों ? गर्मी हो‌ रही है न मैडम बदबू आने पर लोग भीख भी नहीं देंगे। अरे आजकल तो इलेक्शन चल रहे हैं आजकल महकने की नहीं वोट की जरूरत है। वोट देने पर पेंट भर राशन मिल जायेगा। क्या बात करती है मैडम आप भी ? पेट भर राशन मिल जाता तो धक्के क्यों खाता और पांच किलो में भला महीना कैसे पूरा होगा ?आप ही बताओ न मैडम ! अच्छा ये बताओ तुम्हें देखती हूं तुम हर दिन सुबह शाम भीख क्यों मांगते हो ?पूरा दिन क्यों नहीं मांगते ? और यदि नहीं तो कोई काम क्यों नहीं करते ?अभी तो तुम्हारी उम्र काम लायक अच्छी खासी है ।

मैंने उससे यह सवाल इसलिए पूछा क्योंकि अक्सर आते जाते बाकी समय उसे सड़क किनारे सोते देखा है। मैडम काम मुझे कैसे मिलेगा ?मेरे से ज्यादा पढ़े लिखे मुझसे ज्यादा जवान लड़के लड़कियां बेरोजगार सड़कों पर घूम रहे हैं उन्हें ही भला काम मिल जाये ,उनके पास रोजगार होगा तो पेट मेरा भर ही जायेगा। ये कहते हुए व्यक्ति मुस्कुराते हुए वहां से चल पड़ा —-! अरे -अरे साबुन की बट्टी तो लेते जाइये मैं कहती रही वो वहां से चला गया —–?

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

कहानी | ठंडा पड़ गया शरीर | सम्पूर्णानंद मिश्र

कहानी | ठंडा पड़ गया शरीर | सम्पूर्णानंद मिश्र

चाय का कप लेकर बेडरूम में जैसे ही दीप्ति पहुंचती है वैसे ही सुमित के मोबाइल की घंटी घनघना उठती है।‌ सुमित हड़बड़ाकर बिस्तर से उठता है उस समय घड़ी सुबह के नौ बजा रही थी उसे लगा कि आज फिर दफ़्तर के लिए लेट हो जाऊंगा। उसने अपनी पत्नी को डांटते हुए कहा कि तुमने मुझे जगाया क्यों नहीं आज बास फिर डांटेंगे हो सकता है कि अंकित का फ़ोन हो! आज हम दोनों को दफ़्तर में जल्दी बुलाया गया था हे भगवान ! अब क्या होगा। इसी उधेड़बुन में मोबाइल के घण्टी की घनघनाहट बंद हो गई। लेकिन जैसे ही मिस्ड काल को सुमित ने देखा तो वह थोड़ा सकपका गया उसे लगा कि चाचा तो कभी मुझे याद नहीं करते थे आज क्या बात है।‌ उसने अनमने भाव से चाचा को काल किया तो चाचा ने कहा कि बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में भर्ती हैं उन्हें रक्त की बहुत ज़रूरत है उनका प्लेटलेट्स बन नहीं रहा है।‌

स्वास्थ्य उनका गिरता जा रहा है तुम दो चार दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ। उसने कहा कि चाचा उन्होंने मेरे लिए किया ही क्या है! बिजनेस के लिए उस समय पचास हजार रुपए मांगा था तो उन्होंने किस तरह से मुझे फटकारा था और कहा कि तुम्हें देने के लिए मेरे पास एक पाई नहीं है और किस तरह से उस घर में मेरे साथ भेदभाव किया गया था मैं नहीं भूल सकता हूं बड़े भैया के बेटे सिब्बू को एक लाख रुपए देकर बड़े शहर में पढ़ाने के लिए भेजे थे। कलक्टरी की पढ़ाई के लिए तो फिर मुझसे क्यों उम्मीद करते हैं वे जिएं या मरें मुझसे मतलब नहीं है। चाचा ने कहा बेटा वो तुम्हारे पिता हैं अगर तुम्हें कुछ कड़वी बात कह दी हो तो दिल पर मत लगाओ। इस समय पुत्र के दायित्व का निर्वहन करो। यह कठिन समय है अतीत की बातों को घोट जाओ। एक बार आ जाओ ! शायद तुम्हें और तुम्हारे बेटे अर्थ को देखने की उनकी बहुत इच्छा है।‌ उसने कहा कि चाचा मेरे और मेरी पत्नी के साथ उन्होंने बहुत दुर्व्यवहार किया है मुझसे किसी चीज की उम्मीद न करें ।

मेरा उनसे किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रह गया है।‌ मां जब मेरी पत्नी दीप्ति के बालों को घसीट कर धक्का देकर घर से निकाल रही थी, तब वो कहां थे‌ उस समय तो वो भीष्म पितामह बने हुए थे। मैं नहीं आऊंगा! चाचा ने कहा बेटा समझाना मेरा काम था, बाकी तुम्हारी इच्छा। दरअसल कामता प्रसाद सिंचाई विभाग के आफिस सुपरिटेंडेंट पद से 2000 में सेवानिवृत्त हो गए थे। घर में खुशियां ही खुशियां थीं। दो बेटे और दो बेटियां थीं। भरा पूरा परिवार था किसी चीज की कमी नहीं थी बड़ी बिटिया सुरेखा का हाथ उन्होंने आज के तीस साल पहले ही पीला कर दिया था।‌ अच्छे घर में वह चली गई थी खाता पीता परिवार था। किसी चीज की कोई दिक्कत नहीं थी। उनके जीवन के आंगन में खुशियों का हरा भरा बगीचा बहुत दिनों तक लहकता रहा। लेकिन न जाने किसकी नज़र उस परिवार पर पड़ी कि पूरा परिवार बिखर गया। दूसरी बिटिया की असामयिक मौत पीलिया से हो गई । कामता प्रसाद और उनकी पत्नी सुशीला पूरी तरह से टूट गए ।

आज भी रह रहकर वह दर्द उभर आता है। धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य हो ही रही थीं कि उनका बड़ा बेटा सुशील जो धीर गंभीर था। माता- पिता की सेवा में हमेशा लगा रहता था। सारे रिश्तेदार उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। एक दिन अपने दोनों बच्चों और पत्नी को छोड़कर किसी आश्रम में चला गया। बाद में पता चला कि वह साधु बन गया। न जाने कौन सी आंधी आई कि कामता प्रसाद की खुशियों की मंड़ई को उड़ाक चली गई। सुशीला के ऊपर विपत्तियों ने ऐसा बज्र गिराया कि जहां से निकलना पूरी तरह से असंभव था। इधर अस्पताल में कामता प्रसाद जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे। एक दिन उनका साधु बेटा उन्हें देखने आया तो लोगों ने घर चलने का आग्रह किया लेकिन उसने कहा कि साधु और घर में छत्तीस का आंकड़ा है। पिता के स्नेह ने उसे यहां तक खींचकर तो लाया लेकिन भावनाओं की बेड़ियों को वह तुड़ाकर दूसरे ही दिन चला गया। उसी साधु का बेटा सिब्बू दिन -रात दादा की सेवा करता रहा।‌अस्पताल से एक मिनट के लिए नहीं हटता था। साथ में उसकी बुआ भी थी जो अपनी गृहस्थी को छोड़कर पिता की सेवा लगी रही।‌


कामता प्रसाद अपने नौकरी पीरियड में बहुतों का उद्धार किया। किसी की नौकरी लगवाई तो किसी की बेटी की शादी के लिए बहुत दूर तक चले जाते थे अपने कष्ट की परवाह किए।‌ जहां तक होता था सबकी मदद करते थे लेकिन आज जब उन्हें ज़रूरत है तो उनके संबंधी और उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों ने उन्हें मझधार में छोड़ दिया। कामता प्रसाद का शरीर आज कुछ ठंडा पड़ गया। कल ही उन्हें जनरल वार्ड से आई०सी० यू० में स्थानांतरित किया गया था।‌ चिकित्सकों ने अथक प्रयास किया लेकिन उन्हें नहीं बचा सके।
मृत्यु का समाचार सुनकर भी उनके दोनों बेटे नहीं आए।
उनके पौत्र सिब्बू ने ही मुखाग्नि दी और मृत्यु के बाद की सारी क्रियाएं, लोकाचार और लोकरीतियों का उसने ही निर्वहन किया। सिब्बू आज सदमे में है क्योंकि दादा के पेंशन से ही घर चल रहा था।

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

आपाधापी जिंदगी (कहानी) / रत्ना भदौरिया

घर की खूब धड़ल्ले से चल रही साफ -सफाई बयां कर रही थी कि कोई त्यौहार आने वाला है लेकिन इस बात से मैं कोसों दूर थी कि आखिर कौन सा त्योहार आयेगा ? रोज सोचती तो मां से या घर में अन्य किसी सदस्य से पूछूं तो सही कि कौन सा त्यौहार आयेगा लेकिन सुबह छः बजे घर से निकल जाता तो रात को ग्यारह बजे वापस आता।

अब आप ये सोच रहे होंगे कि इतनी सी बात पूंछने के लिए आखिर समय ही कितना लगेगा। बिल्कुल सही बात है मगर सुबह याद रहता तो शाम को भूल जाता और शाम को अभी पूछेंगे तभी पूछेंगे के चक्कर में कब खाकर सो जाता पता ही नहीं चलता। समय का पहिया अपने आप सबकुछ पता करवा ही देता है। वो दिन भी आ गया था जिस दिन के लिए घर की एक एक चीजें साफ की जा रही थी।

सुबह उठा तो देखा मां रसोई में लगी हुई हैं पास जाकर मां को बोला- क्या बात है मां ? तुमने बताया नहीं कि त्यौहार आने वाला है वो तो कल जब आफिस में छुट्टी के लिए बोला गया तो पता चला कि कल राखी का त्यौहार है। मां आप ऐसा क्यों करती हैं आजकल ?पहले तो ऐसा कभी नहीं करती थी। मां फीकी सी हंसी हंसते हुए बेटा आज त्यौहार के दिन मैं कुछ नहीं कहना चाहती इसलिए कल बात करेंगे इस बारे में आज ———–।

जा फ्रेश होकर नहा धो ले तेरी बहन ससुराल से आती होंगी और हां राखी बंधवाने के बाद ही कहीं जाना , साल में एक बार तो ऐसा मौका आता है। बेटा सुन बहू भी तो जायेगी अपने मायके सड़क तक मुझे भी छोड़ देना उसी गाड़ी में आगे टैक्सी करके मैं अपने यहां चली जाऊंगी इतना कहकर मां फिर कामों में लग गयी। बेटा -मां अगर वो बात बता देती तो मैं निश्चिंत होकर सब काम करता । नहीं बेटा आज कुछ नहीं कहना है कल बताऊंगी तुम निश्चिन्त रहो। ठीक है जैसी आपकी मर्जी कहते हुए बेटा चला गया। अभी एक घंटा भी नहीं बीता था कि खटपट की आवाज सुनाई पड़ी जैसे ही मां ने पीछे देखा तो बेटा और बहू तैयार खड़े थे।

मां कुछ कहती कि उसके पहले ही बेटे ने कहा -मां बहन पता नहीं कब आयेगी समिता अपने घर पहुंचने में लेट हो जायेगी इसलिए हम लोग निकल रहें हैं। बहन को कह देना रात को राखी बांध देगी या फिर रखकर चली जायेगी मैं खुद से बांध लूंगा और हां मां आपके लिए टैक्सी बुक कर दूंगा आप उसी से मामा के यहां चली जाना। अच्छा अब ——–।

मां की आवाज बेटा बस तेरी बहन पहुंचने ही वाली होगी पन्द्रह मिनट और रुक जा फिर —। मां बता तो दिया हमें देर हो रही है कहते हुए दोनों बाहर निकल गये। महज पन्द्रह मिनट के बाद मां —मा के मुलायम स्वर से मां ने दुबारा पीछे देखा तो बेटी आ खड़ी थी । अरे !बेटी तुम आ गयी तुम्हारे भाई भाभी को लेकर उनके घर गये हैं शाम तक आ जायेंगे। मां आपने रोंका क्यों नहीं ? क्या भाई के पास इतना भी समय नहीं है? की वो थोड़ी देर रुक जाता। बेटी भाभी के भाई तो इंतजार कर रहे होंगे, कोई बात नहीं शाम को राखी बांध देना। चलो गरमा गरम कचौड़ी खाओ, मैं भी तैयार होने जा रही हूं कहते हुए मां ने कचौड़ी की प्लेट बेटी के हाथ में थमा दी और खुद अपने मायके जाने की तैयारी करने लगी।

कुछ ही छड़ में तैयार होकर मां भी अपने मायके की तरफ चली तो बेटी ने कहा मां आप भी जा रही हैं,भाई- भाभी भी चले गये पापा बचे हैं तो वे घर देख लेंगे मैं भी अपने घर जाऊंगी अब ये राखी रखी है भाई आयें तो कह देना कि खुद ही राखी बांध लें और जब यहां किसी के पास समय नहीं तो मेरे पास भी कहां —-? कहते हुए बेटी चल पड़ी।तभी मां ने बेटी को पैसे पकड़ाते हुए कहा बेटी ये राखी बांधने का तुम्हारा उपहार है भाई को समय नहीं मिला इसलिए कोई चीज नहीं ला पाया,तुम खुद से खरीद लेना। मां की बात पर बेटी का जवाब -मां भाई से कहना कि तेरी बहन को कुछ नहीं चाहिए बस तेरी इस आपाधापी की जिंदगी में से कम से कम साल में एक बार समय चाहिए वो जब हो तो बता देना —–।

मां ने भी नम आंखों से ठीक है बेटी कह दिया था। दूसरे दिन जब बेटा- बहू वापस आये तब तक मां आ चुकी थी। दोनों अन्दर घुसते ही मां sorry कल नहीं आ पाये बहन की राखी रखी होगी ,अभी बांध लेंगे और तुम मामा के यहां गयी थी एक बार फोन कर देती टैक्सी कर देता ध्यान से उतर गया और मामा के यहां सब ठीक है।

अच्छा मां थोड़ा आराम कर लें बहुत थक गये हैं फिर आते हैं कहकर अंदर चले गये। मां ने कुछ नहीं कहा वो भी चुपचाप चाप बैठी रहीं। आराम करते करते दोपहर के एक बज गए तब बेटा -बहू बाहर निकल कर आये,बहू मां वो मां हम लोग बहुत थक गये थे और आंख लग गयी न आपने उठाया और न ही खाने में कुछ बनाया चलो रहने दो कुछ बाहर से मंगवा लेते हैं कहते हुए बहू फोन लेकर आर्डर करने लगी‌। तभी मां ने बेटे को पास बुलाकर बिठाया और बोली कल तू पूंछ रहा था न कि मैं कितना बदल गयी हूं तो सुन बेटा मैं नहीं तू बदल गया है। मां की बात पर बेटे का स्वर -कैसे मां क्या आपको कोई चीज की कमी है हर चीज तो लाकर देता हूं फिर भी आप —–और उदाहरण देने के लहजे से सामने देखो रमेश को उसके मां- बाप न तो इतना अच्छा पहनते हैं और न खा पाते हैं और उन्हें कुछ चाहिए होता है तो जिस दिन कहते हैं उसके चार दिन बाद रमेश लाकर दे पाता है और मैं आपके मुंह से निकला लाकर देता हूं बताओ न मां —–।

बेटा बात ठीक है लेकिन एक बार अपने बचपन के दिन याद कर जब तू सोकर उठता तो मैं तुझे दूध की बोतल , बिस्किट का पैकेट, चिप्स और जो भी खाने के लिए चाहिए सब देने के बावजूद तू जिद्द करता कि मैं तेरे पास बैठूं। रात को तू नहीं सोता तो मुझे भी नहीं सोने देता इसलिए कि तू बोर होगा। ये बातें कहते हुए मां की आंखें भर आयीं थीं और हां बेटा तू रमेश की बात कर रहा था न कि भले ही चीजें देर से लाता है लेकिन बैठता हर दिन है कभी- कभी तो पूरा पूरा दिन बैठे देखा है उसे अपने मां -बाप के साथ —-। पहले से तुम्हें मैंने नहीं तुमने खुद नहीं जाना कि ये साफ -सफाई आखिर क्यों—-? बेटा सब सुनकर मुंह नीचे लटकाये बैठा रहा, मां बोलती रही —–।

दूसरा भगवान | सम्पूर्णानंद मिश्र | हिंदी कहानी

दूसरा भगवान | सम्पूर्णानंद मिश्र | हिंदी कहानी

प्रोफ़ेसर ब्रजनंदन प्रसाद को सेवानिवृत्त हुए अभी तीन महीने ही नहीं हुए थे कि उनकी ज़िंदगी में उथल-पुथल मच गया। तीन महीने पहले से ही मां वैष्णो देवी के धाम जाने का उन्होंने निश्चय किया।‌ दरअसल जब तक कालेज में थे, एक मिनट की फ़ुरसत नहीं थी। कालेज में पढ़ाने लिखाने में उनकी कोई सानी नहीं थी। मध्यकालीन इतिहास हो या प्राचीन सब पर उनकी गहरी पकड़ थी। छात्रों के बीच में बेहद लोकप्रिय थे। इतिहास से इतर विद्यार्थी भी उनकी कक्षा में आकर चुपचाप बैठकर विषय का रसपान किया करते थे। प्रोफ़ेसर साहब घर से ही तांबूल खाकर कालेज आते थे, और खूब रस लेकर पढ़ाते थे। शेरो शायरी पर भी ज़बरदस्त पकड़ थी। बिहारी के शृंगार के कुछ दोहों को भी उन्होंने कंठस्थ कर लिया था।

अरी दहेड़ी जिन धर जिन तू लेहि उतारि
नीके है छींकें छुअत ऐसी ही रहत नारि

छात्रों को इतिहास के साथ-साथ हिंदी साहित्य की गंगा में भी डुबो देते थे। इसलिए छात्र सबसे ज्यादा इतिहास ही पढ़ना पसंद करते थे। उनकी इस मांग की वजह से जहां प्राचार्य उनसे खुश रहते थे वहीं उनके वे सहकर्मी जो हिंदी पढ़ाते थे स्टाफ रूम में उन्हें कोसते हुए पाए जाते थे। घर पर भी शोध छात्रों का जमावड़ा लगा रहता था। पत्नी जयलक्ष्मी कभी-कभी झल्ला कर कहती थी कि आपको खाने- पीने का भी वक़्त नहीं है। आप ही एक प्रोफ़ेसर हैं या और दूसरे भी। प्रोफ़ेसर अवस्थी को देखिए कालेज से भी पहले आ जाते हैं, आराम करके शाम को पार्क भी टहलने परिवार के साथ जाते हैं, और बच्चों को माल भी घुमाने ले जाते हैं और एक आप हैं कि पूरे कालेज को सिर पर उठा लिया है।

प्रोफ़ेसर साहब पत्नी से ज्यादा तर्क़ वितर्क नहीं करते थे। वे जानते थे कि बात बिल्कुल सही है। आज से पच्चीस साल पहले जब जयलक्ष्मी डॉक्टर साहब के घर आयी थी; तो उसके भी अपने कुछ स्वप्न थे। न जाने कौन- कौन सी ख़्वाहिश उसके मन में पल रही थी। भीतर ही भीतर वह खुश रहती थी। उसकी मंद- मंद मुस्कान पर डाक्टर साहब फ़िदा थे। पारिजात का फूल भी तोड़कर लाने के लिए तैयार थे। पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन सुखमय था, लेकिन समय के डायनामाइट ने अरमानों के पर्वत को चकनाचूर कर दिया था। विवाह के पंद्रह साल बीत जाने पर भी प्रोफ़ेसर साहब के आंगन में बाल किलकारी नहीं गूंज सकी। तमाम दवा झाड़ फूंक करवाया गया लेकिन उसका कोई लाभ नहीं। कछ लोगों ने राय दी कि भाई के बच्चे को प्रोफेसर साहब गोद ले लीजिए। आपके भाई साहब के पांच बच्चे हैं इस महंगाई में उनका भी बोझ हल्का हो जाएगा और आपको अपत्य सुख भी मिलेगा। लेकिन डॉक्टर साहब जानते थे कि अपना अपना ही होता है।

कुछ लोगों ने किराए की कोख की भी चर्चा की, लेकिन जयलक्ष्मी इसके लिए तैयार नहीं हुई। वक्त के थपेड़े और संतान की चिंता ने जयलक्ष्मी को ऐसी मार मारी कि वह असमय बूढ़ी हो गई। डॉक्टर साहब को भी चिंता रूपी सर्पिणी रह- रहकर डंक मार ही दिया करती थी; इसलिए वह ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रहने लगे।अध्ययन व अध्यापन को ही जीवन जीने का आधार बना लिया। इसीलिए जयलक्ष्मी के क्रोध की लपट जब आकाश छूती थी तो डाक्टर साहब उसे बहस के घी से नहीं बल्कि प्रेम- जल के छीटें से उसे बुझा देते थे। उन्होंने कहा लक्ष्मी बस जनवरी में सेवानिवृत्त हो रहा हूं। कालेज के काम से भी मुक्त हो जाऊंगा। कोई और जिम्मेदारियां कन्धों पर नहीं होगी तो हम लोग आराम से मार्च के महीने में मां के धाम में मत्था टेकने जायेंगे। समय बड़ा बलवान होता है। ईश्वर की व्यवस्था अपने ही तरह से संचालित होती है। उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं हो सकता। भगवान राम के राज्याभिषेक को एक ही दिन रह गया था लेकिन पूरा नहीं हो सका। विधि की लेखनी को कोई मिटा नहीं सकता। मार्च का महीना था। होली बीत चुकी थी। दो दिन बाद प्रोफ़ेसर साहब की ट्रेन जम्मू की थी। टिकट उन्होंने पहले ही बुक करा ली थी। तैयारियां जाने की ज़ोरों से चल रही थी। डाक्टर साहब ने कहा कि जयलक्ष्मी दस दिन का कार्यक्रम है बाहर का। कुछ सूखी चीज भी बना लेना। सफ़र में यही सब काम आता है।

जयलक्ष्मी ने तंज़ कसते हुए कहा कि आप घर गृहस्थी की चिंता कब से करने लगे। आप बस अपना सामान जो ले जाना है उसे पैक कर लीजिए; यही मेरे लिए बहुत है।
आज सुबह से ही घर में उत्साह का माहौल है जयलक्ष्मी कभी सामान को इस बैग में तो कभी उस बैग में रख रही है। डाक्टर साहब ने मजाकिया अंदाज में कहा कि माना कि मैं बूढ़ा हो गया हूं लेकिन कभी- कभी हमको देख लिया करो। दिल से अभी भी जवान हूं। जयलक्ष्मी ने कहा धत्त!

जयलक्ष्मी हड़बड़ाकर उठी और वाशरूम की तरफ़ जैसे ही आगे बढ़ी उसका पैर स्लिप हो गया और हड्डी के चटकने की तेज़ आवाज़ आयी। वह वहीं बैठ गई। ज़ोर- ज़ोर से चिल्लाने लगी। असहनीय दर्द से वह छटपटा रही थी। डाक्टर साहब किंकर्तव्यविमूढ़ थे। इसी बीच एक दो पड़ोसी भी चिल्लाने की आवाज़ सुनकर आ गए। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए पड़ोसियों ने कहा कि प्रोफ़ेसर साहब पहले इनको हड्डी के अच्छे डाक्टर के पास ले चलिए। क्योंकि मैम को असहनीय दर्द है एकाक इंजेक्शन दर्द‌ का लग जाएगा तो इनको कुछ राहत मिल जायेगी। शहर के नामचीन डाक्टर के पास प्रोफेसर साहब अपनी पत्नी को ले गए। डाक्टर साहब ने पैर देखा और कहा कि इनकी हड्डियां काफ़ी कमजोर हो गईं हैं। पैर बुरी तरह से फ्रैक्चर हो गया है। अभी एक इंजेक्शन दे रहा हूं; दर्द से कुछ राहत मिल जायेगी। कल आपरेशन करेंगे।

अगले दिन आपरेशन- कक्ष में जयलक्ष्मी को ले जाया गया। आपरेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया; लेकिन जैसे ही डॉक्टर साहब आपरेशन थियेटर से बाहर जाने लगे; उनकी नजऱ‌ पेशेंट के गले पर पड़ गईं। बायीं तरफ़ एक गांठ दिखलाई पड़ी। डाक्टर साहब ने प्रोफेसर साहब से अंदेशा जताया कि आप एक बार वायोप्सी टेस्ट करा लीजिए। शायद मेरा अंदेशा गलत ही हो।
दस दिन बाद वायोप्सी टेस्ट की रिपोर्ट आ गई। डाक्टर साहब का अंदेशा सच निकला। रिपोर्ट प्रोफ़ेसर साहब ने कैंसर के बड़े डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने थ्रोट कैंसर बताया।

एक महीने बाद जब जयलक्ष्मी को पैर से आराम मिला। तब प्रोफेसर साहब मुंबई शहर के एक प्रसिद्ध कैंसर अस्पताल में जयलक्ष्मी को कीमोथेरेपी और अन्य इलाज के लिए ले गए। उसके गले में डाक्टरों ने एक नली लगा दी, जिससे वह कुछ तरल पदार्थ ले सके। इस समय वह जीवन और मृत्यु से वह संघर्ष कर रही है। डाक्टर दूसरा भगवान होता है। प्रोफ़ेसर साहब को इस दूसरे भगवान से ही अब कुछ उम्मीद है।

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
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