कहानी | ठंडा पड़ गया शरीर | सम्पूर्णानंद मिश्र

कहानी | ठंडा पड़ गया शरीर | सम्पूर्णानंद मिश्र

चाय का कप लेकर बेडरूम में जैसे ही दीप्ति पहुंचती है वैसे ही सुमित के मोबाइल की घंटी घनघना उठती है।‌ सुमित हड़बड़ाकर बिस्तर से उठता है उस समय घड़ी सुबह के नौ बजा रही थी उसे लगा कि आज फिर दफ़्तर के लिए लेट हो जाऊंगा। उसने अपनी पत्नी को डांटते हुए कहा कि तुमने मुझे जगाया क्यों नहीं आज बास फिर डांटेंगे हो सकता है कि अंकित का फ़ोन हो! आज हम दोनों को दफ़्तर में जल्दी बुलाया गया था हे भगवान ! अब क्या होगा। इसी उधेड़बुन में मोबाइल के घण्टी की घनघनाहट बंद हो गई। लेकिन जैसे ही मिस्ड काल को सुमित ने देखा तो वह थोड़ा सकपका गया उसे लगा कि चाचा तो कभी मुझे याद नहीं करते थे आज क्या बात है।‌ उसने अनमने भाव से चाचा को काल किया तो चाचा ने कहा कि बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में भर्ती हैं उन्हें रक्त की बहुत ज़रूरत है उनका प्लेटलेट्स बन नहीं रहा है।‌

स्वास्थ्य उनका गिरता जा रहा है तुम दो चार दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ। उसने कहा कि चाचा उन्होंने मेरे लिए किया ही क्या है! बिजनेस के लिए उस समय पचास हजार रुपए मांगा था तो उन्होंने किस तरह से मुझे फटकारा था और कहा कि तुम्हें देने के लिए मेरे पास एक पाई नहीं है और किस तरह से उस घर में मेरे साथ भेदभाव किया गया था मैं नहीं भूल सकता हूं बड़े भैया के बेटे सिब्बू को एक लाख रुपए देकर बड़े शहर में पढ़ाने के लिए भेजे थे। कलक्टरी की पढ़ाई के लिए तो फिर मुझसे क्यों उम्मीद करते हैं वे जिएं या मरें मुझसे मतलब नहीं है। चाचा ने कहा बेटा वो तुम्हारे पिता हैं अगर तुम्हें कुछ कड़वी बात कह दी हो तो दिल पर मत लगाओ। इस समय पुत्र के दायित्व का निर्वहन करो। यह कठिन समय है अतीत की बातों को घोट जाओ। एक बार आ जाओ ! शायद तुम्हें और तुम्हारे बेटे अर्थ को देखने की उनकी बहुत इच्छा है।‌ उसने कहा कि चाचा मेरे और मेरी पत्नी के साथ उन्होंने बहुत दुर्व्यवहार किया है मुझसे किसी चीज की उम्मीद न करें ।

मेरा उनसे किसी तरह का कोई रिश्ता नहीं रह गया है।‌ मां जब मेरी पत्नी दीप्ति के बालों को घसीट कर धक्का देकर घर से निकाल रही थी, तब वो कहां थे‌ उस समय तो वो भीष्म पितामह बने हुए थे। मैं नहीं आऊंगा! चाचा ने कहा बेटा समझाना मेरा काम था, बाकी तुम्हारी इच्छा। दरअसल कामता प्रसाद सिंचाई विभाग के आफिस सुपरिटेंडेंट पद से 2000 में सेवानिवृत्त हो गए थे। घर में खुशियां ही खुशियां थीं। दो बेटे और दो बेटियां थीं। भरा पूरा परिवार था किसी चीज की कमी नहीं थी बड़ी बिटिया सुरेखा का हाथ उन्होंने आज के तीस साल पहले ही पीला कर दिया था।‌ अच्छे घर में वह चली गई थी खाता पीता परिवार था। किसी चीज की कोई दिक्कत नहीं थी। उनके जीवन के आंगन में खुशियों का हरा भरा बगीचा बहुत दिनों तक लहकता रहा। लेकिन न जाने किसकी नज़र उस परिवार पर पड़ी कि पूरा परिवार बिखर गया। दूसरी बिटिया की असामयिक मौत पीलिया से हो गई । कामता प्रसाद और उनकी पत्नी सुशीला पूरी तरह से टूट गए ।

आज भी रह रहकर वह दर्द उभर आता है। धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य हो ही रही थीं कि उनका बड़ा बेटा सुशील जो धीर गंभीर था। माता- पिता की सेवा में हमेशा लगा रहता था। सारे रिश्तेदार उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। एक दिन अपने दोनों बच्चों और पत्नी को छोड़कर किसी आश्रम में चला गया। बाद में पता चला कि वह साधु बन गया। न जाने कौन सी आंधी आई कि कामता प्रसाद की खुशियों की मंड़ई को उड़ाक चली गई। सुशीला के ऊपर विपत्तियों ने ऐसा बज्र गिराया कि जहां से निकलना पूरी तरह से असंभव था। इधर अस्पताल में कामता प्रसाद जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे। एक दिन उनका साधु बेटा उन्हें देखने आया तो लोगों ने घर चलने का आग्रह किया लेकिन उसने कहा कि साधु और घर में छत्तीस का आंकड़ा है। पिता के स्नेह ने उसे यहां तक खींचकर तो लाया लेकिन भावनाओं की बेड़ियों को वह तुड़ाकर दूसरे ही दिन चला गया। उसी साधु का बेटा सिब्बू दिन -रात दादा की सेवा करता रहा।‌अस्पताल से एक मिनट के लिए नहीं हटता था। साथ में उसकी बुआ भी थी जो अपनी गृहस्थी को छोड़कर पिता की सेवा लगी रही।‌


कामता प्रसाद अपने नौकरी पीरियड में बहुतों का उद्धार किया। किसी की नौकरी लगवाई तो किसी की बेटी की शादी के लिए बहुत दूर तक चले जाते थे अपने कष्ट की परवाह किए।‌ जहां तक होता था सबकी मदद करते थे लेकिन आज जब उन्हें ज़रूरत है तो उनके संबंधी और उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने वालों ने उन्हें मझधार में छोड़ दिया। कामता प्रसाद का शरीर आज कुछ ठंडा पड़ गया। कल ही उन्हें जनरल वार्ड से आई०सी० यू० में स्थानांतरित किया गया था।‌ चिकित्सकों ने अथक प्रयास किया लेकिन उन्हें नहीं बचा सके।
मृत्यु का समाचार सुनकर भी उनके दोनों बेटे नहीं आए।
उनके पौत्र सिब्बू ने ही मुखाग्नि दी और मृत्यु के बाद की सारी क्रियाएं, लोकाचार और लोकरीतियों का उसने ही निर्वहन किया। सिब्बू आज सदमे में है क्योंकि दादा के पेंशन से ही घर चल रहा था।

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

आपाधापी जिंदगी (कहानी) / रत्ना भदौरिया

घर की खूब धड़ल्ले से चल रही साफ -सफाई बयां कर रही थी कि कोई त्यौहार आने वाला है लेकिन इस बात से मैं कोसों दूर थी कि आखिर कौन सा त्योहार आयेगा ? रोज सोचती तो मां से या घर में अन्य किसी सदस्य से पूछूं तो सही कि कौन सा त्यौहार आयेगा लेकिन सुबह छः बजे घर से निकल जाता तो रात को ग्यारह बजे वापस आता।

अब आप ये सोच रहे होंगे कि इतनी सी बात पूंछने के लिए आखिर समय ही कितना लगेगा। बिल्कुल सही बात है मगर सुबह याद रहता तो शाम को भूल जाता और शाम को अभी पूछेंगे तभी पूछेंगे के चक्कर में कब खाकर सो जाता पता ही नहीं चलता। समय का पहिया अपने आप सबकुछ पता करवा ही देता है। वो दिन भी आ गया था जिस दिन के लिए घर की एक एक चीजें साफ की जा रही थी।

सुबह उठा तो देखा मां रसोई में लगी हुई हैं पास जाकर मां को बोला- क्या बात है मां ? तुमने बताया नहीं कि त्यौहार आने वाला है वो तो कल जब आफिस में छुट्टी के लिए बोला गया तो पता चला कि कल राखी का त्यौहार है। मां आप ऐसा क्यों करती हैं आजकल ?पहले तो ऐसा कभी नहीं करती थी। मां फीकी सी हंसी हंसते हुए बेटा आज त्यौहार के दिन मैं कुछ नहीं कहना चाहती इसलिए कल बात करेंगे इस बारे में आज ———–।

जा फ्रेश होकर नहा धो ले तेरी बहन ससुराल से आती होंगी और हां राखी बंधवाने के बाद ही कहीं जाना , साल में एक बार तो ऐसा मौका आता है। बेटा सुन बहू भी तो जायेगी अपने मायके सड़क तक मुझे भी छोड़ देना उसी गाड़ी में आगे टैक्सी करके मैं अपने यहां चली जाऊंगी इतना कहकर मां फिर कामों में लग गयी। बेटा -मां अगर वो बात बता देती तो मैं निश्चिंत होकर सब काम करता । नहीं बेटा आज कुछ नहीं कहना है कल बताऊंगी तुम निश्चिन्त रहो। ठीक है जैसी आपकी मर्जी कहते हुए बेटा चला गया। अभी एक घंटा भी नहीं बीता था कि खटपट की आवाज सुनाई पड़ी जैसे ही मां ने पीछे देखा तो बेटा और बहू तैयार खड़े थे।

मां कुछ कहती कि उसके पहले ही बेटे ने कहा -मां बहन पता नहीं कब आयेगी समिता अपने घर पहुंचने में लेट हो जायेगी इसलिए हम लोग निकल रहें हैं। बहन को कह देना रात को राखी बांध देगी या फिर रखकर चली जायेगी मैं खुद से बांध लूंगा और हां मां आपके लिए टैक्सी बुक कर दूंगा आप उसी से मामा के यहां चली जाना। अच्छा अब ——–।

मां की आवाज बेटा बस तेरी बहन पहुंचने ही वाली होगी पन्द्रह मिनट और रुक जा फिर —। मां बता तो दिया हमें देर हो रही है कहते हुए दोनों बाहर निकल गये। महज पन्द्रह मिनट के बाद मां —मा के मुलायम स्वर से मां ने दुबारा पीछे देखा तो बेटी आ खड़ी थी । अरे !बेटी तुम आ गयी तुम्हारे भाई भाभी को लेकर उनके घर गये हैं शाम तक आ जायेंगे। मां आपने रोंका क्यों नहीं ? क्या भाई के पास इतना भी समय नहीं है? की वो थोड़ी देर रुक जाता। बेटी भाभी के भाई तो इंतजार कर रहे होंगे, कोई बात नहीं शाम को राखी बांध देना। चलो गरमा गरम कचौड़ी खाओ, मैं भी तैयार होने जा रही हूं कहते हुए मां ने कचौड़ी की प्लेट बेटी के हाथ में थमा दी और खुद अपने मायके जाने की तैयारी करने लगी।

कुछ ही छड़ में तैयार होकर मां भी अपने मायके की तरफ चली तो बेटी ने कहा मां आप भी जा रही हैं,भाई- भाभी भी चले गये पापा बचे हैं तो वे घर देख लेंगे मैं भी अपने घर जाऊंगी अब ये राखी रखी है भाई आयें तो कह देना कि खुद ही राखी बांध लें और जब यहां किसी के पास समय नहीं तो मेरे पास भी कहां —-? कहते हुए बेटी चल पड़ी।तभी मां ने बेटी को पैसे पकड़ाते हुए कहा बेटी ये राखी बांधने का तुम्हारा उपहार है भाई को समय नहीं मिला इसलिए कोई चीज नहीं ला पाया,तुम खुद से खरीद लेना। मां की बात पर बेटी का जवाब -मां भाई से कहना कि तेरी बहन को कुछ नहीं चाहिए बस तेरी इस आपाधापी की जिंदगी में से कम से कम साल में एक बार समय चाहिए वो जब हो तो बता देना —–।

मां ने भी नम आंखों से ठीक है बेटी कह दिया था। दूसरे दिन जब बेटा- बहू वापस आये तब तक मां आ चुकी थी। दोनों अन्दर घुसते ही मां sorry कल नहीं आ पाये बहन की राखी रखी होगी ,अभी बांध लेंगे और तुम मामा के यहां गयी थी एक बार फोन कर देती टैक्सी कर देता ध्यान से उतर गया और मामा के यहां सब ठीक है।

अच्छा मां थोड़ा आराम कर लें बहुत थक गये हैं फिर आते हैं कहकर अंदर चले गये। मां ने कुछ नहीं कहा वो भी चुपचाप चाप बैठी रहीं। आराम करते करते दोपहर के एक बज गए तब बेटा -बहू बाहर निकल कर आये,बहू मां वो मां हम लोग बहुत थक गये थे और आंख लग गयी न आपने उठाया और न ही खाने में कुछ बनाया चलो रहने दो कुछ बाहर से मंगवा लेते हैं कहते हुए बहू फोन लेकर आर्डर करने लगी‌। तभी मां ने बेटे को पास बुलाकर बिठाया और बोली कल तू पूंछ रहा था न कि मैं कितना बदल गयी हूं तो सुन बेटा मैं नहीं तू बदल गया है। मां की बात पर बेटे का स्वर -कैसे मां क्या आपको कोई चीज की कमी है हर चीज तो लाकर देता हूं फिर भी आप —–और उदाहरण देने के लहजे से सामने देखो रमेश को उसके मां- बाप न तो इतना अच्छा पहनते हैं और न खा पाते हैं और उन्हें कुछ चाहिए होता है तो जिस दिन कहते हैं उसके चार दिन बाद रमेश लाकर दे पाता है और मैं आपके मुंह से निकला लाकर देता हूं बताओ न मां —–।

बेटा बात ठीक है लेकिन एक बार अपने बचपन के दिन याद कर जब तू सोकर उठता तो मैं तुझे दूध की बोतल , बिस्किट का पैकेट, चिप्स और जो भी खाने के लिए चाहिए सब देने के बावजूद तू जिद्द करता कि मैं तेरे पास बैठूं। रात को तू नहीं सोता तो मुझे भी नहीं सोने देता इसलिए कि तू बोर होगा। ये बातें कहते हुए मां की आंखें भर आयीं थीं और हां बेटा तू रमेश की बात कर रहा था न कि भले ही चीजें देर से लाता है लेकिन बैठता हर दिन है कभी- कभी तो पूरा पूरा दिन बैठे देखा है उसे अपने मां -बाप के साथ —-। पहले से तुम्हें मैंने नहीं तुमने खुद नहीं जाना कि ये साफ -सफाई आखिर क्यों—-? बेटा सब सुनकर मुंह नीचे लटकाये बैठा रहा, मां बोलती रही —–।

दूसरा भगवान | सम्पूर्णानंद मिश्र | हिंदी कहानी

दूसरा भगवान | सम्पूर्णानंद मिश्र | हिंदी कहानी

प्रोफ़ेसर ब्रजनंदन प्रसाद को सेवानिवृत्त हुए अभी तीन महीने ही नहीं हुए थे कि उनकी ज़िंदगी में उथल-पुथल मच गया। तीन महीने पहले से ही मां वैष्णो देवी के धाम जाने का उन्होंने निश्चय किया।‌ दरअसल जब तक कालेज में थे, एक मिनट की फ़ुरसत नहीं थी। कालेज में पढ़ाने लिखाने में उनकी कोई सानी नहीं थी। मध्यकालीन इतिहास हो या प्राचीन सब पर उनकी गहरी पकड़ थी। छात्रों के बीच में बेहद लोकप्रिय थे। इतिहास से इतर विद्यार्थी भी उनकी कक्षा में आकर चुपचाप बैठकर विषय का रसपान किया करते थे। प्रोफ़ेसर साहब घर से ही तांबूल खाकर कालेज आते थे, और खूब रस लेकर पढ़ाते थे। शेरो शायरी पर भी ज़बरदस्त पकड़ थी। बिहारी के शृंगार के कुछ दोहों को भी उन्होंने कंठस्थ कर लिया था।

अरी दहेड़ी जिन धर जिन तू लेहि उतारि
नीके है छींकें छुअत ऐसी ही रहत नारि

छात्रों को इतिहास के साथ-साथ हिंदी साहित्य की गंगा में भी डुबो देते थे। इसलिए छात्र सबसे ज्यादा इतिहास ही पढ़ना पसंद करते थे। उनकी इस मांग की वजह से जहां प्राचार्य उनसे खुश रहते थे वहीं उनके वे सहकर्मी जो हिंदी पढ़ाते थे स्टाफ रूम में उन्हें कोसते हुए पाए जाते थे। घर पर भी शोध छात्रों का जमावड़ा लगा रहता था। पत्नी जयलक्ष्मी कभी-कभी झल्ला कर कहती थी कि आपको खाने- पीने का भी वक़्त नहीं है। आप ही एक प्रोफ़ेसर हैं या और दूसरे भी। प्रोफ़ेसर अवस्थी को देखिए कालेज से भी पहले आ जाते हैं, आराम करके शाम को पार्क भी टहलने परिवार के साथ जाते हैं, और बच्चों को माल भी घुमाने ले जाते हैं और एक आप हैं कि पूरे कालेज को सिर पर उठा लिया है।

प्रोफ़ेसर साहब पत्नी से ज्यादा तर्क़ वितर्क नहीं करते थे। वे जानते थे कि बात बिल्कुल सही है। आज से पच्चीस साल पहले जब जयलक्ष्मी डॉक्टर साहब के घर आयी थी; तो उसके भी अपने कुछ स्वप्न थे। न जाने कौन- कौन सी ख़्वाहिश उसके मन में पल रही थी। भीतर ही भीतर वह खुश रहती थी। उसकी मंद- मंद मुस्कान पर डाक्टर साहब फ़िदा थे। पारिजात का फूल भी तोड़कर लाने के लिए तैयार थे। पति-पत्नी का दाम्पत्य जीवन सुखमय था, लेकिन समय के डायनामाइट ने अरमानों के पर्वत को चकनाचूर कर दिया था। विवाह के पंद्रह साल बीत जाने पर भी प्रोफ़ेसर साहब के आंगन में बाल किलकारी नहीं गूंज सकी। तमाम दवा झाड़ फूंक करवाया गया लेकिन उसका कोई लाभ नहीं। कछ लोगों ने राय दी कि भाई के बच्चे को प्रोफेसर साहब गोद ले लीजिए। आपके भाई साहब के पांच बच्चे हैं इस महंगाई में उनका भी बोझ हल्का हो जाएगा और आपको अपत्य सुख भी मिलेगा। लेकिन डॉक्टर साहब जानते थे कि अपना अपना ही होता है।

कुछ लोगों ने किराए की कोख की भी चर्चा की, लेकिन जयलक्ष्मी इसके लिए तैयार नहीं हुई। वक्त के थपेड़े और संतान की चिंता ने जयलक्ष्मी को ऐसी मार मारी कि वह असमय बूढ़ी हो गई। डॉक्टर साहब को भी चिंता रूपी सर्पिणी रह- रहकर डंक मार ही दिया करती थी; इसलिए वह ज़रूरत से ज़्यादा व्यस्त रहने लगे।अध्ययन व अध्यापन को ही जीवन जीने का आधार बना लिया। इसीलिए जयलक्ष्मी के क्रोध की लपट जब आकाश छूती थी तो डाक्टर साहब उसे बहस के घी से नहीं बल्कि प्रेम- जल के छीटें से उसे बुझा देते थे। उन्होंने कहा लक्ष्मी बस जनवरी में सेवानिवृत्त हो रहा हूं। कालेज के काम से भी मुक्त हो जाऊंगा। कोई और जिम्मेदारियां कन्धों पर नहीं होगी तो हम लोग आराम से मार्च के महीने में मां के धाम में मत्था टेकने जायेंगे। समय बड़ा बलवान होता है। ईश्वर की व्यवस्था अपने ही तरह से संचालित होती है। उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं हो सकता। भगवान राम के राज्याभिषेक को एक ही दिन रह गया था लेकिन पूरा नहीं हो सका। विधि की लेखनी को कोई मिटा नहीं सकता। मार्च का महीना था। होली बीत चुकी थी। दो दिन बाद प्रोफ़ेसर साहब की ट्रेन जम्मू की थी। टिकट उन्होंने पहले ही बुक करा ली थी। तैयारियां जाने की ज़ोरों से चल रही थी। डाक्टर साहब ने कहा कि जयलक्ष्मी दस दिन का कार्यक्रम है बाहर का। कुछ सूखी चीज भी बना लेना। सफ़र में यही सब काम आता है।

जयलक्ष्मी ने तंज़ कसते हुए कहा कि आप घर गृहस्थी की चिंता कब से करने लगे। आप बस अपना सामान जो ले जाना है उसे पैक कर लीजिए; यही मेरे लिए बहुत है।
आज सुबह से ही घर में उत्साह का माहौल है जयलक्ष्मी कभी सामान को इस बैग में तो कभी उस बैग में रख रही है। डाक्टर साहब ने मजाकिया अंदाज में कहा कि माना कि मैं बूढ़ा हो गया हूं लेकिन कभी- कभी हमको देख लिया करो। दिल से अभी भी जवान हूं। जयलक्ष्मी ने कहा धत्त!

जयलक्ष्मी हड़बड़ाकर उठी और वाशरूम की तरफ़ जैसे ही आगे बढ़ी उसका पैर स्लिप हो गया और हड्डी के चटकने की तेज़ आवाज़ आयी। वह वहीं बैठ गई। ज़ोर- ज़ोर से चिल्लाने लगी। असहनीय दर्द से वह छटपटा रही थी। डाक्टर साहब किंकर्तव्यविमूढ़ थे। इसी बीच एक दो पड़ोसी भी चिल्लाने की आवाज़ सुनकर आ गए। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए पड़ोसियों ने कहा कि प्रोफ़ेसर साहब पहले इनको हड्डी के अच्छे डाक्टर के पास ले चलिए। क्योंकि मैम को असहनीय दर्द है एकाक इंजेक्शन दर्द‌ का लग जाएगा तो इनको कुछ राहत मिल जायेगी। शहर के नामचीन डाक्टर के पास प्रोफेसर साहब अपनी पत्नी को ले गए। डाक्टर साहब ने पैर देखा और कहा कि इनकी हड्डियां काफ़ी कमजोर हो गईं हैं। पैर बुरी तरह से फ्रैक्चर हो गया है। अभी एक इंजेक्शन दे रहा हूं; दर्द से कुछ राहत मिल जायेगी। कल आपरेशन करेंगे।

अगले दिन आपरेशन- कक्ष में जयलक्ष्मी को ले जाया गया। आपरेशन सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया; लेकिन जैसे ही डॉक्टर साहब आपरेशन थियेटर से बाहर जाने लगे; उनकी नजऱ‌ पेशेंट के गले पर पड़ गईं। बायीं तरफ़ एक गांठ दिखलाई पड़ी। डाक्टर साहब ने प्रोफेसर साहब से अंदेशा जताया कि आप एक बार वायोप्सी टेस्ट करा लीजिए। शायद मेरा अंदेशा गलत ही हो।
दस दिन बाद वायोप्सी टेस्ट की रिपोर्ट आ गई। डाक्टर साहब का अंदेशा सच निकला। रिपोर्ट प्रोफ़ेसर साहब ने कैंसर के बड़े डाक्टर को दिखाया तो उन्होंने थ्रोट कैंसर बताया।

एक महीने बाद जब जयलक्ष्मी को पैर से आराम मिला। तब प्रोफेसर साहब मुंबई शहर के एक प्रसिद्ध कैंसर अस्पताल में जयलक्ष्मी को कीमोथेरेपी और अन्य इलाज के लिए ले गए। उसके गले में डाक्टरों ने एक नली लगा दी, जिससे वह कुछ तरल पदार्थ ले सके। इस समय वह जीवन और मृत्यु से वह संघर्ष कर रही है। डाक्टर दूसरा भगवान होता है। प्रोफ़ेसर साहब को इस दूसरे भगवान से ही अब कुछ उम्मीद है।

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

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सुकून | लघुकथा | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया

सुकून | लघुकथा | हिंदी कहानी | रत्ना भदौरिया

जगवन्ती ने सुबह ही डलिये में दियाली रख बच्चों से गांव की गलियों में बेचने कह दिया और ये भी कहा कि वह काम पर जा रही है वापस आकर शहर दियाली बेचने जायेगी, वहां बेचने से जल्दी और ज्यादा दिये बिकेंगे। बच्चे अपनी -अपनी डलिया सिर पर रखकर निकल पड़े।दियाली ले लो दियाली—-‌ जगवन्ती भी काम पर निकल गई। घर से करीब दस‌ किलोमीटर की दूरी पर बसे लालगंज शहर में बर्तन चौका का काम करती। जाते समय जगवन्ती आज काफी खुश थी। दिवाली जो है सभी को बड़ा- बड़ा उपहार मिला वो बग में भाई दफ्तर में काम करता है कितना बड़ा उपहार मिला है उसकी मालकिन भी कुछ उपहार देंगी बड़ा न सही छोटा ही । वैसे भी एक मालकिन के यहां अभी आठ महीने हुए हैं। हां श्वेता मैडम जरूर बड़ा गिफ्ट दे सकती हैं उनके यहां पिछले दो साल से काम कर रही हूं। पिछले साल उनकी मां की तबीयत खराब होने की वजह से वे परेशान थी उन्होंने कहा भी था कि इस बार वे कुछ नहीं ला पायी अगले साल दोनों का देंगी। रास्ते भर यही सोचते -सोचते उसने दस किलोमीटर की दूरी कब तक कर ली पता ही नहीं चला । फटाफट टेंम्पो से उतर गेट की तरफ बढ़ी नहीं -नहीं श्वेता मैडम के यहां बाद में वे बड़ा उपहार देंगी उसे लेकर कहां घूमूगी। पहले अन्नू मैडम के यहां जाते हैं। अन्नू मैडम के दरवाजे की घंटी बजाई चेहरे पर ढेर सारी खुशी, दरवाजा खुलते ही दिवाली मुबारक मैडम। हां ठीक है !आओ जगवन्ती देखो सफाई खूब अच्छे से कर देना ,घर को अच्छे से सजा देना ।शाम को पूजा के बाद लोग खाने पर आएंगे। जी मैडम! जगवन्ती सोचने लगी मैडम ने दिवाली मुबारक भी नहीं बोला! बस हां ठीक है कहकर काम निपटा दिया। कहीं काम खत्म होते ही दिवाली उपहार ना देकर धन्यवाद से काम निपटा ना दें। नहीं- नहीं उसे ऐसी बात नहीं सोचनी चाहिए।

रत्ना भदौरिया की अन्य कहानी पढ़े : लघुकथा स्वेटर 

अगर घर को अच्छे से सजायेगी मैडम के मेहमान खुश हो जायेंगे तो मैडम बड़ा उपहार भी दे सकती हैं। वैसे रुपए पैसे कुछ भी नहीं चाहिए बस छोटा बेटा रामू को स्कूल में दाखिला कराने बोल दें, क्योंकि अभी पिछले हफ्ते ही उसने घर की दशा बतायी थी। जगवन्ती दनादन काम में लग गयी ,पूरे घर की सफाई करते -करते दोपहर के एक बज गए।अब उसके पेट में चूहे कूदने लगे, अभी से इतनी भूख अभी श्वेता मैडम का काम बाकी है।एक हाथ से पेट दबाती कभी पानी पी लेती।अभी घर को सजाना भी है और हां रंगोली भी बनानी है। घर को सजाते -सजाते तीन बज गए।मैडम साहब घर के सभी सदस्य टेबल पर बैठे हैं कई तरह के पकवान बने हैं, साथ में कई तरह की मिठाई भी।साहब मैडम से कहते हुए यार आज खाना बहुत खा लिया,मेरा खाना भी ज्यादा हो गया कहकर मैडम टेबल समेटने लगी। जगवन्ती ने रंगोली बनाई,घर का सारा काम खत्म कर शाम के साढ़े चार बजे मैडम को दुबारा दिवाली मुबारक बोल चलने लगी।मैडम भी ठाठ के साथ हां ठीक जगवन्ती बहुत बहुत धन्यवाद कहते हुए गेट बंद कर लिया। ये क्या वही हुआ? कोई बात नहीं मैडम भी क्या करें इतनी मंहगाई में।

श्वेता मैडम के यहां जाती हूं महज पांच मिनट की दूरी पर श्वेता मैडम का घर। श्वेता मैडम बाहर ही बच्चों के साथ पटाखें फोड़ रही थी। देखते ही भड़क गयी ये कोई समय है आने का ।जब देखो मुंह उठाकर चली आती हो आज का काम कर लिया है अब कल आ जाना। ठीक है मैडम दिवाली मुबारक हो आप सबको । क्या दिवाली मुबारक हो? सुबह से दिमाक खराब कर दिया। सारे रास्ते जगवन्ती ने उपहार पाने की खुशी छोड़ ये सोचने में बिता दिया कि पूरा दिन निकल गया उसने दिये नहीं बेचे अगर बच्चों के दिये नहीं बिके होंगे तो आज खाने में क्या बनायेगी?दस किलोमीटर की दूरी तय‌ करने में घंटा लग गया, क्योंकि सारे टैम्पो वाले घर दिवाली पूजा के लिए जा चुके होंगे,उसे पैदल ही दस किलोमीटर की दूरी तय‌ करनी पड़ी। घर पहुंच कर देखा धुंधले प्रकाश में दोनों बच्चे एक दूसरे से लिपटे हुए सिसक रहे हैं । दौड़ कर जगवन्ती बच्चों को पुचकारते हुए पूछने लगी क्या हुआ दोनों ऐसे क्यों रो रहे हो?मां -मां दिये नहीं बिके ।

छोटा बेटा सिसकते हुए भईया के सिर्फ पच्चास रुपए के ही दिये बिके हैं , और पता है मां सब कह रहे थे कि आज कल इनको कौन लेगा दो चार ले लो । तरह -तरह की लाइट आ गयी हैं, जो चमक और रौनक उनमें इन दियों में कहां? जगवन्ती मुस्कुराते हुए पता है जब मैं छोटी थी तो मेरी मां बहुत स्वादिष्ट खीर बनाती थी आज वही बनाती हूं देखना खाकर मजा आ जायेगा।चलो चलो‌ तुम लोग दियाली जलाओ। मैं अभी आती हूं। पच्चास रुपए लेकर जगवन्ती दुकान गयी वहां से दूध चीनी ले आयी घर के मटके से चावल निकाल खीर बनाने लगी दोनों बच्चे दियाली जलाने में मग्न हो गये । रात के करीब नौ बजे खीर खाने बैठे बच्चे जोर जोर से हंसते और मां को धन्यवाद करते हुए कहते वाह मां आज तो सच में मज़ा आ गया । खाकर तीनों कब सो गए पता ही नहीं चला सुबह जब फोन की घंटी बाजी देखा अरे! ये श्वेता मैडम का फोन है इतनी सुबह। इन्हें क्या हुआ । हेलो मैडम क्या हुआ? जगवन्ती तुम जल्दी से घर आ जाओ और सुनो घर से कुछ खाने का ले आना। यहां पर—–आगे श्वेता मैडम बोल नहीं पाती

जगवन्ती फटाफट बच्चों के लिए नमकीन चावल बना दिये और श्वेता मैडम के लिए खीर ले लेती हूं पसंद आयेगी। श्वेता मैडम के घर पहुंच कर श्वेता मैडम को देख स्तब्ध रह गई। ये सब कैसे हुआ मैडम? इससे पहले आपने कभी ——? कल साहब ने ——और खाना भी खाने नहीं दिया जिसकी वजह से ब्लड प्रेशर की दवाई‌ नहीं ली‌ सिर में बेतहाशा दर्द है । ला पहले जो लेकर आयी खाने का दे बाकी बातें बाद में। जगवन्ती ने मैडम को कटोरी में खीर डालकर दे दी मैडम बड़े आराम से खीर खाकर जोर की डकार ली जगवन्ती सच मजा आ गया,दवाई भी दे दे । जगवन्ती ने दवाई और पानी का गिलास उठा दिया। मैडम ने खीर और दवाई खाकर —-अब जाकर सुकून मिला। जगवन्ती हल्के से मुस्कुरा कर बाहर आ गयी मैडम चैन की सांस ——।

कलम – ए – दर्द ” कहानी | हिंदी कहानी | अभय प्रताप सिंह फियरलेस

कलम – ए – दर्द ” कहानी | हिंदी कहानी | अभय प्रताप सिंह फियरलेस

मैं लिखना चाहता हूं , लेखक बनना चाहता हूं , और अब मैं लिखना शुरू कर दिया हूं , धीरे – धीरे ही सही पर अब लिखने लगा हूं क्योंकि मैं बहुत दिनों से कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूं ,ये होती है एक कलमकार की शुरुआत एक रचनाकार की शुरुआत ।

एक कलमकार या रचनाकार जब अपनी लेखनी की शुरुआत करता है तो उसे कुछ मालूम नहीं होता है शिवाय उस सपने के, जो वो कुछ नींद में और कुछ जागते हुए देखा होता है, वो प्रयास करता है , शुरुआत करता है, गलती करता है लेकिन अपने शब्दों का चयन कर, हर रोज़ मेहनत कर आगे बढ़ता है ।

वो दुःख – सुख , धूप – छांव , रात – दिन नहीं देखता है, वो हर पल सोचता रहता है और जब भी कोई शब्द उसके मन में किसी दृश्य , किसी पल , किसी चित्र या किसी व्यक्ति विशेष को देखकर आता है तो, वो अपने शब्दकोश में इस उम्मीद से उस शब्द को उतार लेता है मानो आज वो उसी शब्द पर लिखने वाला हो, या फिर उसी शब्द का सहारा लेकर लिखने वाला हो , एक रचनाकार , साहित्यकार ,कलमकार , सृजनकार , ग्रंथकर्ता , ग्रंथकार , कातिब अपना सबकुछ लिख देता है , बस पढ़ने वालों को, वो महज़ कुछ पंक्तियां या कुछ शब्दों की श्रृंखलाएं लगती हैं , शायद यही कारण है की सैकड़ों की भीड़ में कोई एक ” कातिब ” निकलता है।

आज़ कातिब अपनी लेखन जगह पर बैठा , सामने रखे मेज पर एक डायरी और कलम रखे कुछ सोच ही रहा था तभी कलम बोली …

क्या कर रहे हो कातिब ?
कातिब – थोड़ा मुस्कराते हुए …. कलम कर तो कुछ नहीं रहा हूं बस आज कुछ लिखने की सोच रहा हूं।
कलम – अच्छा
कातिब – हां
कलम – तुम लोगों को तो लिखना बहुत आसान लगता होगा न ( असमंजस में )
कातिब – हां आसान तो लगता है बस ये मानो की शब्दों के कुवें में कूदना पड़ता है जहां लाखों – करोड़ों शब्दों का भंडार होता है और उस भंडार से कुछ चुनिंदा शब्दों को निकाल कर उन्हें एक रूप – रेखा देकर लिखना होता है , इसलिए आसान तो है ख़ैर।

कलम – अच्छा ये बताओ तुम इतने ज्यादा शब्दों को कुछ मिनटों में कैसे लिख लेते हो ?
कातिब – अगर इस सवाल का मैं जवाब दूं तो मुझे तुमको कुछ साल पीछे ले जाना पड़ेगा ।
कलम – अच्छा
कातिब – हां
कलम – बताओ फिर
कातिब – बात सालों पहले की है जब मुझे क्या लिखना है , कैसे लिखना है और क्यों लिखना है ?
इन सब सवालों में से किसी एक का भी जवाब नहीं पता था लेकिन मैं सवालों के जवाब ढूंढना शुरू किया तो महज़ कुछ महीनों में मुझे उन सारे सवालों के ज़वाब मिल गए।
कलम – उसके बाद ?
कातिब – उसके बाद फिर मैं बहुत सारे लोगों को पढ़ा ,फिर उनको समझा और जब वो लोग मुझे समझ में आ गए तब जाकर मै कुछ शब्दों को अपनी डायरी में उतारना शुरू किया , फिर देखा तो मुझे लगा की मैं अभी भी कुछ गलतियां कर रहा हूं।
कलम – उसके बाद ?
कातिब – उसके बाद, फिर से मैं लोगों को पढ़ा और उनके साथ – साथ इस बार साहित्य को भी पढ़ा ,पढ़ा ही नहीं बल्कि उसे समझा भी, तब जाकर मुझे पता लगा की मैं गलतियां कहां कर रहा था।
कलम – अच्छा
कातिब – हां
कलम – फिर ?
कातिब – फिर मैं जो पढ़ा था उन्हीं शब्दों को एक – एक करके लिखना शुरू किया पहले तो लगा की मैं अभी भी नहीं लिख पाऊंगा लेकिन हिम्मत नहीं हारा और कुछ पंक्तियां लिख दी। कुछ दिन थोड़ा – थोड़ा लिखने के बाद मुझे ये अहसास हुआ की मैं लिख सकता हूं और उसके बाद मैं धीरे – धीरे पंक्तियों की संख्या बढ़ाता गया और अपनी लेखनी को निखारता गया।
कलम – अच्छा
कातिब -हां

कलम थोड़ी देर सोची फिर बोली ….

कलम – अच्छा जब तुम लोग कुछ लिखकर उसे प्रकाशित करते होगे खुद से, या प्रकाशित करवाते होगे कहीं से या फिर जब तुम लोगों की लिखी लेखनी किसी पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होती होगी तब तो तुम्हारा लोगों का नाम खूब रौशन होता होगा ।
कातिब – हां होता तो है, पर
कलम – पर, क्या ?
कातिब – दरअसल जब हम जैसे लोग कुछ लिखकर खुद से प्रकाशित करते हैं किसी न किसी माध्यम से या फिर कहीं से प्रकाशित होती है तो, बहुत सारे लोगों की प्रतिक्रियाएं आती हैं ।
कलम – तो , प्रतिक्रियाएं आनी तो अच्छी बात हैं
कातिब – हां, अच्छी बात तो है लेकिन उन प्रतिक्रियाओं में कुछ प्रतिक्रियाएं तो सकारात्मक होती हैं परंतु कुछ प्रतिक्रियाएं नकारात्मक भी होती हैं।
कलम – अच्छा
कातिब – हां
कलम – अच्छा नकारात्मक प्रतिक्रियाओं का क्या मतलब होता है ?
कातिब – ज्यादा तो कुछ नहीं होता है बस उसमें हम जैसे लोगों के लिए कुछ लोगों द्वारा कुछ अपशब्द बोले जाते हैं , कुछ अपशब्द भाषाओं का प्रयोग किया जाता है जिन्हें सुनकर थोड़ी देर के लिए मन उदास होता है और फिर से जब अपनी दिल की बात या अपने मन की बात पुनः शब्दो में उतार लेते हैं तो मन खुश हो जाता है और थोड़ी देर बाद हम पुनः मुस्कुराने लगते हैं या अपने कामों में लीन हो जाते हैं।
कलम – ओह!
कातिब – हां
कलम – और क्या होता है ?
कातिब – ज्यादा तो कुछ नहीं होता पर कभी – कभी हम लोगों की बेइज्जती भी कुछ लोग परिवार के सदस्यों से करते रहते हैं कि –

” ये क्या करता रहता है या करती रहती है। “

कलम – तुम लोग तो उनकी भलाई के लिए , उनके लिए और उनकी हित में ही लिखते हो, फिर वो लोग ऐसा क्यों बोलते हैं ?
कातिब – हां, लिखता तो उनकी हित में ही हूं , उनकी भलाई के लिए ही, परन्तु वो लोग इस बात को समझने के लिए तैयार ही नहीं होते , उनको लगता है की हम जैसे लोग पागल हैं जो इधर – उधर की बातें लिख कर अपने समय के साथ – साथ उनका समय भी ज़ाया करते हैं।

थोड़ी बात आगे बढ़ी फिर कलम बोली ….

अच्छा ये बताओ तुम लोग तो लोगों की भावनाओं को लिखते हो , उनकी समस्याओं का निवारण करने के लिए लिखते हो , उनको थोड़ा सा आगे बढ़ने में ताकत देने के लिए लिखते हो उनको उनकी रास्तों में सक्षम बनाने के लिए लिखते हो जिनसे वो लड़ सकें और एक नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़ सकें या यूं कहूं की उन्हें एक नए रास्ते से परिचय कराते हो ?

कातिब – कलम तुम बोल तो सही रही हो लेकिन वो लोग उस बात को समझने के लिए तैयार ही नही होते हैं उनको लगता है की हम जैसे लोग बिलकुल बेकार बैठे हैं इसलिए लिखते रहते हैं उल्टा – सीधा। जबकि उनको ये नहीं पता होता है की हम बिना देखे , बिना सुने , बिना किसी के बारे में कुछ विशेष जाने , बस अपनी भावनाओं की मदद से , अपने दिमाग की मदद से , अपनी अंतरात्मा की मदद से किसी भी विषय पर या किसी के विषय में लिखने के लिए सक्षम होते हैं।

कलम थोड़ी देर सोचती रही , फिर बोली ….

अच्छा मुझे एक बात नहीं समझ आ रही है की जब तुम लोगों को कुछ ही लोग समझते हैं बाकी के लोग समझने को तैयार ही नहीं हैं तो लिखते ही क्यों हो ?

इस बार कातिब धीरे से मुस्कुराया और बोला ….

हमें पता होता है कि हमें कुछ ही लोग समझ पाते हैं बाकी लोग समझने के लिए तैयार नहीं होते हैं फिर भी हम सिर्फ़ इसलिए या इस उम्मीद से लिख देते हैं की जो ज्ञान हमारे पास है उससे उन्हें कुछ सीख मिले, हमारे पास जो अनुभव होता है उसे हम इसलिए लिख देते हैं की जिन परेशानियों से , समस्याओं से ,चुनौतियों से हम पीछे रह गए हैं , जिस मार्गदर्शन बिना हम आगे नहीं बढ़ पाए हैं, वो न रहें बल्कि वो दिन – रात मेहनत करके अपने कर्तव्य को पहचानते हुए एक नई रौशनी , नई उम्मीद , नई उमंग या यूं कहें की एक नई ऊर्जा के साथ सदैव आगे बढ़ते रहें।

थोड़ी देर बाद …..

कलम – तो क्या इसे अब मुझे ” दर्द – ए – कलम ” मान लेना चाहिए ?
कातिब – बिलकुल
कलम – पर क्यों ?
कातिब – क्योंकि हम जैसे लोग अपने दिलों में उन तमाम मुसीबतों को , परेशानियों को , चुनौतियों को , दर्द एवं तकलीफों को दबाए हुए रहते हैं जिन्हें हम शब्दों में उतार कर लोगों के पास पहुंचाने का प्रयास करते हैं , हम ये उम्मीद करते हैं की शायद इसे कोई पढ़ेगा और अपनी गलतियों को सुधार कर आगे बढ़ेगा । हम जैसे लोग तो उनकी समस्याओं को , परेशानियों को भावनाओं को , चुनौतियों को , दर्द एवं तकलीफों को देखकर समझ जाते हैं , भांप लेते हैं जिन्हें शब्दों में उतार कर एक ” रचना ” का नाम दे देते हैं लेकिन हम लोगों की परेशानी , चुनौती , समस्याएं , दुःख – दर्द , तकलीफें तो छोड़ो कोई हमारी भावनाएं तक नहीं समझता है और न ही समझने की कोशिश करता है इसलिए सैकड़ों की भीड़ में कोई एक ही रचनाकार , साहित्यकार, कलमकार, ग्रंथकर्ता , ग्रंथकार , सृजनकार निकलता है इसलिए हम जैसे लोगों की भावनाओं को ” दर्द – ए – कलम ” समझने में या यूं कहें की कहने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।

हिंदी कहानी मुट्ठी भर जिंदगी | अभय प्रताप सिंह

मुट्ठी भर जिंदगी “

शहर से दूर गंगा नदी के किनारे बसा एक ऐसा गांव और उस गांव में बसा महतो काका का परिवार मानों ” सोने पर सुहागा ” वाले कहावत से मिलता जुलता हो , जितना सुंदर वो गांव उससे कई गुना ज्यादा सुंदर महतो काका का परिवार भी था। महतो काका अपने छोटे से घर को गांव से हटकर चौराहे से करीब 500 मीटर मीटर दूर बनवाए थे, ईंट गारा से बना घर और उसके पास लगे तमाम प्रकार के पेड़ पौधे घर की सुन्दरता को और बढ़ा रहे थे , घर के एक तरफ़ फ़ल देने वाले पौधे तो दूसरी तरफ़ प्यारी सी खुशबू देने वाले कुछ फूलों के पौधे भी लगे हुए थे। इन सबके साथ – साथ महतो काका के घर को सुंदर बनाने में उनके पांचों बेटे और दोनों बेटियों का भी बहुत बड़ा हांथ था। घर के सभी सदस्य संस्कारो और गांव, घर के रीति रिवाजों से बंधे हुए थे , सभी सदस्यों का शिक्षण कार्य भी खत्म हो गया था और अब महतो जी के पांचों बेटे विद्यालय में पढ़ाने लगे थे इन सभी के अंदर ज्ञान तो इतना भरा था मानो ज्ञान रूपी गंगा बह रही हो। खुशहाली का दूसरा नाम कहा जाने वाला महतो जी का घर रोज़ एक नए अंदाज़ में अपनी जिंदगी को जिया करते थे और सभी सदस्यों के बीच एक समझदारी वाला भाव हमेशा साफ़ – साफ़ देखा जा सकता था। महतो जी का परिवार गांव के लोगों से थोड़ा अलग इसलिए दिखता था क्योंकि यहां जलन, लालच , छल , कपट से सभी सदस्य कोषों दूर या यूं कहें कि कोसों अंजान थे।

महतो जी के पांचों बेटों में उनका बड़ा बेटा जगमोहन विवाह योग्य हो गया था जिसके लिए रिश्तों का आवागम भी होने लगा था लेकिन मन न मिलने की वजह से बहुत सारे रिश्तों को जगमोहन के द्वारा ठुकरा दिया गया था। लेकिन मानो वो दिन दूर नहीं था आज फिर से जगमोहन के लिए एक रिश्ता उनके मामा जी के द्वारा लाया गया था और परिवार के सभी सदस्यों से बात करने के बाद, उनके मत लेने के बाद आज उस रिश्तों को महतो काका के द्वारा हां करके रिश्ते को तय कर दिया गया , रिश्ता तय होने के कुछ महीने बाद जगमोहन का विवाह गीतारानी से कर दिया गया । आज महतो काका का देखा हुआ वर्षों का सपना साकार होते दिख रहा था और दोनों दंपती सबका आशीर्वाद लेने के बाद शादी के जोड़े में मानो हमेशा हमेशा के लिए बंध गए हों ।

जगमोहन की शादी के बाद परिवार के सभी सदस्य अथाह खुश थे क्योंकि उस परिवार में किसी के अंदर किसी भी प्रकार की कोई बुराई नही थी जिसकी वजह से गीतरानी महज़ कुछ दिनों में उस परिवार को अपना परिवार मान ली थी। घर में इतनी खुशियां थी जिसकी कोई मोल नहीं थी और गीतारानी भी परिवार के सभी सदस्यों को खुश देखकर अपने आप को महफूज़ समझ रही थी। ये खुशियां उस दिन और दोगुनी हो गई थी जब गीतारानी एक नन्ही सी बच्ची को जन्म दी थी लेकिन मानो ऊपर वाले को कुछ और मंजूर ही था जिस घर में खुशहाली थी या जिस घर में बच्ची के आगमन से गाने बजाने होने वाले थे उसी घर में अचानक दुखों का पहाड़ टूट गया ।

बच्ची की वजन कम होने से महतो काका के परिवार के सदस्यों को 15 दिन के लिए बच्ची को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ गया था और इधर गीतारानी की भी तबियत थोड़ी बहुत ख़राब होने लगी थी , घर के सभी सदस्य गीतारानी को अच्छे से अच्छे अस्पताल में दिखाते थे और दिखाने के बाद जब गीतारानी घर वापस आती थी तो सभी सदस्य एक बच्चे की भांति उनकी सेवा में लग जाते थे । डॉक्टर्स भी महंगे से महंगे दवाईयां गीतारानी को खाने को देते थे लेकिन गीतारानी उन दवाओं को खाने की जगह छिपा कर रख देती थी और घर के सदस्यों को लग रहा था की वो दवाएं खा रही हैं।


ये सिलसिला कई महीनों से चल रहा था , गीतारानी को दवाईयां लाकर दी जाएं और वो न खाएं। इसलिए एक समय घर के सदस्यों को लगने लगा की शायद ये झूठ बोल रही हैं इनको कोई बिमारी नहीं है जबकि यकीनन गीतारानी को तकलीफें थी बस दवाओं और डॉक्टरों के डर के कारण वो किसी से बताती नहीं थी बस यही कारण था की गीतारानी को उसका खामियाजा भुगतना पड़ गया था, गीतरानी के आखरी वक्त में महतो काका के परिवार के सभी सदस्य लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी उन्हें बचाने में असमर्थ रहे और गीतारानी विवाह वक्त से महज एक साल और मां बनने के बाद महज़ एक माह में ही घर के सभी सदस्यों के साथ – साथ उस नन्हीं सी जान को भी हमेशा के लिए छोड़कर उन सबसे बहुत दूर चली गई।

नोट – इस कहानी से हमें यही सीख मिलती है की कैसे छोटी सी गलतफहमी और छोटा सा डर हमें परिवार के सदस्यों से दूर करा देता है। इसलिए अगर आप लोगों के बीच भी कोई ” गीतारानी ” हों तो उन्हें ” मुट्ठी भर जिंदगी ” न बनने दें और एक हंसते खेलते परिवार को हमेशा के लिए उजड़ने से बचाएं।

हिंदी कहानी मातम / सम्पूर्णानंद मिश्र

एन०टी०पी०सी० में अभियंता पद पर पदस्थ शर्मा जी की अवस्था छप्पन की थी। बेहद चुस्त-दुरुस्त, सघन मूंछें, वाणी में मिठास, कार्य के प्रति लगन आदि गुणों ने शेष कर्मचारियों से उन्हें अलग खड़ा कर दिया था। अपने कार्य- कौशल के कारण अधिकारियों के चहेते हो गए थे। उसी पद पर पदस्थ और कर्मचारी उनकी इस कार्य- क्षमता को पचा नहीं पाते थे, कभी- कभी उनसे बहस भी कर लिया करते थे , लेकिन शर्मा जी कभी किसी की बात की गाड़ी को अपने दिल की पटरी पर नहीं चलाते थे। और नहीं प्रत्युत्तर देना उचित समझते थे। आज घर से आफिस आकर शर्मा जी ने जैसे ही अपना काम करना प्रारंभ किया कि उनके मोबाइल की घंटी घनघना उठी। बड़े बेटे प्रमोद ने कहा पापा आप जल्दी घर आ जाइए। मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है, वह बेहोश हो गई हैं। शर्मा जी की पत्नी इधर तीन- चार महीनों से बीमार थी। बिटिया कामिनी की असामयिक मृत्यु ने उन्हें पूरी तरह से झकझोर दिया था। कोविड की महामारी में वे कामिनी को नहीं बचा सके।

पच्चीस साल की थी कामिनी जब उसकी मृत्यु हुई थी। पांच फीट चार इंच लंबी, गेहुंआ रंग, देह में कसावट, नीली गहरी आंखें,उभरे हुए उरोज इस तरह की बनावट थी, जैसे लगता था कि विधाता ने फुर्सत में बनाया हो। व्याह के लिए शर्मा जी वर ढूंढ़ रहे थे, लेकिन कोई अच्छा लड़का नहीं मिल रहा था। एकाध जगह लड़का पसंद आया तो मांग इतनी थी कि शर्मा जी उस मांग के एवरेस्ट पर चढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। कामिनी एम० ए० बी० एड० थी। शहर के एक पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थी। पच्चीस हजार रुपए की तनख्वाह थी। घर में कुछ आर्थिक सहयोग भी कर देती थी, जिससे गृहस्थी की गाड़ी चलाने में जयप्रकाश शर्मा को कभी किसी प्रकार की दिक्कत नहीं हुई। घर पहुंचकर शर्मा जी ने शहर से एंबुलेंस बुलाया और पत्नी को शहर के एक अच्छे निजी अस्पताल में भर्ती कराया। डाक्टर श्रीवास्तव ने कई आवश्यक जांच लिख दी। और कहा कि जांच की रिपोर्ट के बाद ही हम कुछ कह बता पाएंगे, वैसे इन्हें गहरा सदमा लगा है, कोई बात ऐसी जरूर है जिसकी पीड़ा इनके मस्तिष्क पर बार- बार प्रहार कर रही है। प्रमोद ने कहा कि मम्मी ठीक हो जायेंगी न सर। डाक्टर ने सिर हिलाया।

धैर्य रखिए और ईश्वर पर विश्वास कीजिए। शाम को रिपोर्ट आई। रिपोर्ट अच्छी नहीं थी। डाक्टर ने शर्मा जी को अपने केबिन में बुलाकर कहा कि मिस्टर शर्मा दस प्रतिशत उम्मीद है इनका ब्लड शुगर बहुत हाई है और ब्लड प्रेशर भी लगातार घट बढ़ रहा है किडनी भी प्रभावित हो चुका है। आप उम्मीद रखिए। आप दो लाख रुपए रिशेप्सन कांउटर पर जमा करा दीजिए, जिससे इनको शीघ्र ही आवश्यक दवाएं दी जा सकें। शर्मा जी जीवन में इतने निराश कभी नहीं हुए थे आज वह लाचार थे। मुंह सूख रहा था। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।पौष के महीने में रात लंबी होती है दिन छोटा होता है। पत्नी चंद्रावती आई० सी० यू० में थी। शर्मा जी कभी निराश आंखों से आई० सी० यू० के बाहर से पत्नी को बीच- बीच में देखने का असफल प्रयास कर लेते थे।जब मन नहीं माना तो दरवाजा खोलकर जैसे ही अंदर जाने लगे तैसे ही असिस्टेंट डाक्टर ने कहा कि आप बाहर चलिए यहां किसी को इजाजत नहीं है आप की जरूरत होगी तो हम बुला लेंगे। रात के दस बज चुके थे अस्पताल से घर की दूरी कुल चालीस किलोमीटर थी। यह चिंता भी उन्हें सता रही थी कि छोटी बिटिया कुमुद और बेटा विनोद कैसे होंगे कुछ खाए होंगे कि नहीं। घर का दरवाजा बंद किया होगा या नहीं। विनोद में अभी अल्हड़ता है कुमुद भी बहुत सयानी नहीं है।

इसी उधेड़बुन में शर्मा जी की आंखें कब लग गईं, उन्हें पता ही नहीं चला। रात के एक बज रहे थे, कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से शर्मा जी जग गए थे उसी में से एक कुत्ता लगातार रो रहा था। बड़ा भयावह दृश्य था। कुत्तों का रोना अपशकुन माना जाता है।किसी अनिष्ट की आशंका से शर्मा जी बिल्कुल सहम गए थे प्रमोद को बुलाकर कहा बेटा तुम कुछ खाए कि नहीं! बेटे ने कहा पापा बस मम्मी ठीक हो जांय। यह कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगा। शर्मा जी की आंखें भी भर आईं थीं। आपस में कुछ नर्स आई० सी० यू० के बाहर बातें कर रही थीं। तभी डाक्टर श्रीवास्तव आ गए और बड़ी धीमी आवाज़ में एक नर्स के कान में कुछ कहते हुए आगे बढ़ गए। नर्स डाक्टर साहब के मंतव्य को समझ गई थी ।

वह शर्मा जी के नजदीक आ गई और कहा कि हम लोगों ने पूरी शिद्दत से प्रयास किया, बट शी इज नो मोर। शर्मा जी की आंखें भरभरा आयी। आज से चालीस साल पहले का वह दृश्य उनकी आंखों में नाचने लगा जब पत्नी चंद्रावती को व्याह कर घर लाए थे कितना उल्लास था। जीवन में कितना रस था। बहनें बिना अपना नेक लिए ड्योढ़ी के अंदर नहीं जाने दिया था। एक तबका दिन और एक आज का दिन। शर्मा जी का यह सुखद अतीत आज उन्हें घोर संकट के दरिया में डुबो दिया था। प्रमोद फूट पड़ा। रो रो कर उसका बुरा हाल हो गया था। तभी एक वार्ड ब्वाय आकर कहने लगा इतना शोर मत मचाइए दूसरे और पेशेंट पर इसका बुरा प्रभाव पड़ेगा। रात के तीन बज चुके थे। सन्नाटा पसरा हुआ था। शर्मा जी के इशारों को समझते हुए प्रमोद ने गाड़ी का प्रबंध किया। चंद्रावती की डेड बाडी रखी गई शर्मा जी और प्रमोद घर आ गए थे । कुछ मुहल्ले के लोग भी इकट्ठा हो गए थे। छोटी बिटिया कुमुद के सर पर हाथ रखकर शर्मा जी ने कहा कि तुम्हारी मम्मी हम लोगों को छोड़कर किसी और लोक में चली गई बेटा! विनोद ग़श खाकर गिर गया। घर में मातम छा गया था।

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

उपकेश राज की रीट (सत्य कहानी) | “शिक्षक भर्ती परीक्षा”

उपकेश राज की रीट (सत्य कहानी) | “शिक्षक भर्ती परीक्षा”

राजस्थान में “शिक्षक भर्ती परीक्षा” को लेकर हुए घोटाले से संबंधित कहानी।

मरुकांतर एक विशाल राष्ट्र जिसमें २९ प्रदेश, सबसे बड़ा साम्राज्य उपकेश ! वहां का राजा अगेंद्रा जैसे हेमपुष्पक अपितु अशोक नहीं था, अपने प्रांत में सैकड़ों समुदाय रहते थे अपितु अगेंद्रा ने सदैव परिवार, मित्रों की बातों पर ही ध्यान देता अगेंद्रा का आमलोगों से उसका नाता धीरे-धीरे टूटना आरंभ हो गया, अगेंद्रा को एक चिंता खाए जा रही थी मेरे जाने के बाद इस साम्राज्य का क्या होगा ? समय अनुसार मरुकांतर के नियम और कानून परिवर्तन होना प्रारंभ हो चुका था, आम लोगों को अधिकार मिल गया वह अपना राजा स्वयं चुन सकते हैं। अगेंद्रा ने अपने विपक्षी सदस्यों से दूरी और साम्राज्य पर अपना वर्चस्व रखने के लिए पुनः लोगों के बीच में आना प्रारंभ का दिया किंतु पुरानी चूक उसे सिंहासन से दूर कर रही थी । पुरानी भूल उसे मन को व्याकुल कर रही थी जैसे थाली से चम्मच कहे, ज्यादा मेरा मान, सभी कटोरी चूमता,अधर जीभ रसपान इस प्रकार मन चंचल होने लगा । उपकेश में युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही थी पूर्णत शिक्षित होने के उपरांत भी उनके पास रोजगार नहीं! अगेंद्रा ने मंत्रिमंडल की बैठक आयोजित कर “अंकुश” को निर्देश दिए शिक्षा शास्त्र में विद्वान/विदुषी के रिक्त पद योग्यता के अनुसार भर दिए जाए । मंत्री अंकुश ने पदाधिकारियों शीघ्र बुलाकर प्रक्रिया प्रारंभ कर दी किंतु “अगेंद्रा” नहीं चाहता कि साम्राज्य में शिक्षा प्रणाली विकसित हो, अंकुश ने रीट नाम प्रक्रिया प्रारंभ कर दी। जिनका कार्य बालक/बालिका को किशोर अवस्था तक ज्ञान विद्या देना । नेतृत्व हेतु “अंकुश” ने “मुरली कार्तिक” को बुलाया और चर्चाएं।
अंकुश – महाराज का आदेश हैं जब तक सिंहासन पर हूं ।सभी को बातों में उलझा कर रखना हैं ।
मुरली कार्तिक – कैसी बातें ? और क्यों ?
अंकुश – अरे ! तुम समझो अभी तक सिंहासन पे कोई दृष्टि नहीं है और लोग साम्राज्य से बाहर जाना चाहते हैं, तुम समझ रहे हो, जैसे लाठी नहीं टूटे और सांप मर जाएं ।
मुरली कार्तिक – मंत्री जी समझ गया अपना लाभ “हाहाहाहाहा” (हंसते हुए) चलो अच्छा है ।
उपकेश साम्राज्य हर्ष और उल्लास उमंग छा गई, लोग हर्षोत्फुल्ल हो रहे थे “अंकुश” ने अब पूर्ण कार्य उपकेश राज के सैनिकों को सौप दिया, प्रक्रिया प्रारंभ होने से पूर्व सैनिक, अर्जुन, सोमराज, विजल देव, विक्रम मिलकर स्वार्थ के बंधक हो गए उपकेश’राज के साथ मिलकर योजना बनाई तक तक “अंकुश” ने मंत्री पद त्यागपत्र अगेंद्रा को दे दिया । अब साम्राज्य तथा खजाना दोनों को अपने हाथों में रहे और रणनीति बनाई की लोग बैठे रहेगें हम सभी को मूर्ख बना देंगे । पांच सैनिकों ने परिवार एवम् पूंजी पतियों को आचार्य पद के लिए चयन कर लिया अब राज्य और मंत्रिमंडल से मिलकर योजना को गोपनीय रखा, किंतु महक को राह की आवशकता नहीं होती असत्य और झूठ कितने दिन छिपेंगा ? कभी तो बाहर आना ही पड़ेगा हैं। आचार्यों की सूची जारी हो गई अपितु राज्य के निर्धन व असहाय लोग उसमें एक भी नहीं। साम्राज्य में क्षणिक- क्षणिक चर्चाएं होने लगीं अगेंद्रा को राज्य की पुनः चिंता होनी प्रारम्भ हो गई । अगेंद्रा किसी को बता नहीं सकता मैने ऐसा कार्य किया लोग निशारा के पन्ने बिखरने लगा । तीन बार अत्यंत व्याधि (बीमारी) के कारण ठलुआ “बेरोजगार” को पद से दूर रखा। उपकेश’राज अधिकारियों ने न्याय के लोगों की बातें सुनकर मन में सोच दुख-पीड़ाओं के उत्पादक, हमने ही तो पाले सारे कहते हुए कारवाई आरंभ कर दी। लोग – झूठों के घर पानी भरते, सत्य बोलने वाले सारे । अगेंद्रा- गंगा पर उँगलियाँ उठाते, छोटे-छोटे नाले सारे । लोग-उज्ज्वल धुले दूध के बनते, मन के काले-काले सारे । अगेंद्रा स्वयं इस चक्रव्यूह में फंस गया अन्य सैनिकों और दोषी ठहराया, किंतु लोग उसे क्षमा नहीं करने वाले थे, राजा होकर लोगों के साथ धोखा किया उपकेश साम्राज्य के लोगों ने नया राजा खोजना प्रारंभ कर दिया । अगेंद्रा ने अपना साम्राज्य छोड़ प्रदेश जाना पड़ा। याथार्थ -किसी का शोषण करना या उसे पीड़ा देना, स्वयं का विनाश हैं।

साहित्यचार्य – कहानीकार
भारमल गर्ग “साहित्य पंडित”
पुलिस लाईन जालोर (राजस्थान)
bhamugarg@gmail.com
+91-8890370911

मुकेश कुमार सिन्हा की हिंदी कहानी | Hindi Story of Mukesh Kumar Sinha

मुकेश कुमार सिन्हा की हिंदी कहानी | Hindi Story of Mukesh Kumar Sinha

‘हिन्दी रचनाकार’ और ‘कविता घर’ के समामेलन और एकीकरण में करायी गयी ‘रेलवे स्टेशन की कुर्सी लेखन प्रतियोगिता’ में आपका भाग लेना सराहनीय है और दोनों साहित्यिक परिवार की तरफ से आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.

बात 26 वाले जनवरी के पूर्व संध्या की थी,

लड़के ने बिहार जाने वाली ट्रेन में स्लीपर क्लास में टिकट लिया और फिर हेड क्वार्टर कोटे से टिकट कन्फर्म करवा कर नई दिल्ली स्टेशन की एक कुर्सी पर आराम से पसर कर अम्मा को अकड़ कर बताया कि टिकट कन्फर्म करवा लिए हैं, उपरका सीट मिला है, खूब सुतते हुए आवेंगे, तब जाकर उसको लगा कि आह सरकारी बाबू बनना कितना सुकून वाली बात है । और कुछ नहीं तो दिल्ली में रहने वाले बिहारियों के लिए रेलवे टिकट का कन्फर्म हो जाना, कुछ ऐसा होता है जैसे धर्मशाला में ठहरने गए पर कमरा मिला 2-3 स्टार टाइप होटल का। और कभी अपने भाई बन्धु का रेलवे टिकट कन्फर्म करवा पाए तो कॉलर इतना खड़ा हो जाता है कि चेहरा भी छिप जाए ।तो लड़के ने कम्पार्टमेंट में दाखिल होते हुए, लाइफ का सारा टेंशन निचोड़ते हुए धपाक से बैग रखा और आंख तरेरते हुए दु-ठो अम्मा और तीन बच्चों को बताया सीट छोड़िए जल्दी से, हमरा कन्फर्म्ड सीट है।

समझे न।वो सभी भी तो बिहार से ही थे, बिहार ही जा भी रहे थे, अंखियों से गुर्राते हुए जबाब मिला ऊपरका सीट है आपका, शाम हो गया है, उपरे जाकर बैठिए, ज्यादा बकबकाइये मत । बेचारा लड़का दौड़ते हुए ट्रेन पकड़ने के दर्द से जो हलकान हो रहा था उपरका सांस ऊपर ही रखते हुए , तुरंत चिल्ल होके धीरे से बोला – चच्ची, अभी तो बैठने दो थोड़ी देर बाद, अपने बर्थ पर चला जाऊंगा । फिर कुछ खिसकते-खिसकाते हुए लड़के का प्लेटफॉर्म सीट पर अटक ही गया।बड़ा शांति जैसा माहौल था, 3-4 लोगो को मोबाइल पर टिपटिपाते देखते लग गया कि फेसबुक अपडेट शुरू हो गया है । लड़के ने भी ट्रेन/स्टेशन के वाईफाई के इस्तेमाल से जल्दी में अपडेट मारा- “सेफली रिचड अपटु ट्रेन कंपार्टमेंट”, विथ सेवेंटी वन अदर्स।अंग्रेजी भी ‘रिंकिया के पप्पा’ गाने लगी, ताबड़तोड़ लाइक कमेंट्स देख कर।एक गांव के दोस्त ने झटपट कमेंट मारा – अबे भुसकोल, उड़ो मत, आ कर दारू का इंतजाम करना है तुमको, याद रखना ।कुछ गांव वाली दोस्त जो बियाह गयी थी, पर थी मायके में ही, उसमें से, कोई एक चहक कर गुलाबी दिल दे बैठी, पर फिर ग्रामीण लोक लिहाज में उसको नीला कर गयी, ताकि बस लड़के तक लाइक का रंग-परिवर्तन पहुँच जाये । प्रेम तो बस ठहर ठहर कर अपना रंग दिखाना ही चाहता है, है न |

दुठो महिलाओं में से एक ठो, जिनको सिर्फ थोड़ा सा रेस्पेक्ट से बोलने भर से चलता, मने उन्हें चाची-आंटी कहना गुस्ताखी थी, वो कनखी से लड़के को ही देख रही हैं। ऐसे भी समय के साथ, महिलाएं सुंदर लगने लगती हैं, तिस पर जब वो सहयात्री हों जो अगले पूरे चौबीस घंटे साथ रहने वाली हैं, तो वाजिब भी है। ऊपर से अकेले सफर करते समय तो तनी ज्यादा ही खूबसूरत दिखना सम्भव भी था । पहली वाली मने बड़की चाची शुद्ध भोजपुरी में 19 मिनट से लगातार अपने पटना वाले दीदी को बता रही कि केतना दिक्कत से तुमसे मिलने आ रहे हैं। खैर ! तुम थोड़ी बुझोगी !बेचारा लड़का जैसे ही सीट पर टिका, ऊपर वाले बर्थ से 5 टाँगे माथे पर लटकी अनुभव होने लगी, मने दो लोगो ने अपनी दोनो टाँगे पसार रखी थी जबकि तीसरा एक मोड़ कर शायद अपने टखने को आराम दे रहा था | भारतीय रेल के कम्पार्टमेंट की यही खूबसूरती दिल जीत लेती है, कितना सामाजिक सा होता है सब-सब, माथे पर टंगी टाँगे भी कभी कभी बुरी नहीं लगती, अद्भुत सा नजारा | अगर लटके टांग से जूता माथे पर गिरे, तो चुपचाप जूता उठाकर देने का काम भी उसी का होता है, जिसके माथे पर जूता टन से गिरा था। खैर, ट्रेन सिर्फ 7-8 मिनट विलंब से चली तो लड़के के अंदर के गुलाबी अलिंद-निलय से हुर्रे की आवाज आई, फिर बेचारे लड़के ने दस रुपये में खरीदी हुई सिर्फ चीनी वाली चाय की सिप ही ली थी कि ट्रेन के खुलते ही सामने भुंजिया परांठा वाला टिपिन खोल दी बगल वाली आंटी। लेकिन पूछ नहीं रही कि एक परांठा लीजियेगा क्या ? कितना दर्द अनुभव हुआ, ये उसी को पता था।हां, कुछ पल ठहर कर खूबसूरत सी दिखने वाली महिला, जो लड़के को नवयुवती सी दिखने लगी थी, ने एक नमकीन परांठा बिना देखे बढाया तो लड़के को सुर्ख लाल जोड़े में ‘लाल फ़्रॉक वाली लड़की’ का अक्स नजर आया। फैंटेसी की दुनिया, कभी भी किसी भी पल जीवंत हो जाती है, नजरों का गुलाबीपन पल भर मे उतर आता है |

परांठे का पहला कौर ही लिया था कि ट्रेन नई दिल्ली से खुल कर अब शिवाजी ब्रिज पर धचके के साथ रुक कर शायद ये बताना चाह रही कि कइसन बेवकूफ बाबू हो कल हैप्पी रिपब्लिक डे वाला नरेंद्र मोदी का परेड बिन देखले बिहार जाओगे तो खाक बताओगे इहाँ का लेफ्ट राइट | धुत्त बुरबक !फिर जैसे-जैसे ट्रेन का सफर कुछ घंटों मे बीतता है, माहौल एकदम फेसबुक के दोस्त से क्लोज्ड या स्टार वाले दोस्त जइसन होने लगता है | आप कहाँ से हैं, क्या करते हैं से लेकर गलबहिया तक का ख्याल होने लगता है | सामान ऊपर रख दीजिये, जरा वो वाला बैग दीजिएगा या कौन सा मैगजीन पढ़ रहे हैं जैसे सँवाद या ऑर्डर दिए जाने लगे थे। सीमित जगह में जब पता हो कि साथ का समय भी सीमित है, तो अंदर से उठने वाले उद्वेग का संवेग भी ज्यादा ही रहता है, सब कुछ जल्दी, परिचय से नैन मटक्का तक। दौड़ती भागती ट्रेन में लाइट बुझने के बाद भी नाइट बल्ब वाले छाए में दो नजरें कब गुलाबी होने लगी, इसका कानोकान खबर नहीं था | मौन में ही करवट बदलने का अर्थ लड़के ने गुड नाइट समझा |जो मैडम कल सिर्फ एक परांठा बढ़ा कर, घी से तर परांठों को कनखियाते हुए हमें देख कर उदरस्थ कर रही थीं, आज पूरे दस रुपए की चाय अपने भैया के सामने खरीद कर लड़के को परोसी – लीजिये न । लड़के ने बदले में क्रेकजेक बिस्किट का डब्बा ये सोच कर बढ़ाया कि कोई कहे मीठा, कोई कहे नमकीन, क्रेकजेक के स्वाद में खो जाये सब लेकिन | कुछ घंटों के सफर का गुलाबी चश्मा शायद दोनों ने पहन ही लिया था, तभी तो नजरों मे गुलाबीपन सहेजे किसी ने किसी वजह से आदान-प्रदान कभी किताब तो कभी खान-पान का ज्यादा ही होने लगा था |अइसन में काहे नहीं ट्रेन लेट होने की कामना में लड़का भी हनुमान चालीसा मनो-मन पढ़ रहा था शायद । अगले स्टेशन पर लड़के ने इलाहाबादी अमरूद जो अंदर से दिल जैसा ही गुलाबी था, पूरे आधा किलो खरीद कर बढ़ा दिया। आखिर गिव एन्ड टेक का जमाना है बन्धु, साथ ही कुछ बातें तो समझनी होती है | दिल दा मामला था |

परांठे, मिक्सचर, तिल के लड्डू, अंगूर, अमरूद का भोग लग चुका था, चाय तो बस बहे ही जा रही थी, पर ट्रेन सिर्फ भागिए रही थी या थमी हुई थी, इस ओर ध्यान ही नहीं था । लड़का सीधे कुछ कह तो नहीं पा रहा था, पर कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाने के तरह सोचते हुए “लाल फ्रॉक वाली लड़की” प्रेम कहानी, लड़की के ओर बढ़ा दिया| लड़की ने आंखो से पूछा – ऐसी हूँ क्या ?लड़का बेशक लड़की के तरफ आकर्षित था, पर एक और साहित्यकार टैप के दोस्त से दोस्ती गांठते हुए उनसे कथादेश की प्रति मांग बैठा | ट्रेन यात्रा अखबारों-किताबों के अदला बदली के लिए बेहद मुफीद जगह होती है, बेशक उसके बाद किताब सरकते सरकते कुछ ज्यादा दूर ही पहुँच जाये । फिर ट्रेन के स्लीपर क्लास में यात्रा करने वाले यात्रियों के लिए किताबों के साथ वाला व्यक्ति थोड़ा एरिस्टोक्रेट टाइप तो लगता ही है | लड़का भी इसी बहाने बिना ये समझे कि कुछ घंटे बाद ‘हम यहाँ, तुम यहाँ’ होंगे, पर उसका धड़कता दिल चाहते न चाहते लड़की को इम्प्रेस करने के बहाने ढूंढ रहा था |ट्रेन बस 8 घंटे ही विलंब हो चुकी थी, मुगलसराय नहीं पंडित दिन दयाल उपाध्याय नगर स्टेशन आने वाला था, पूरे ट्रेन से 3600 फेसबुक स्टैट्स डल चुके थे – “फीलिंग अनोएड, ट्रेन लेट” विथ थाउजेंड अदर्स, टाइप के फूल अंग्रेजी में ।तीन चार लोगो ने तो रेल मंत्री को टैग कर के ट्वीट भी किया, काहे की लैटरीन में डब्बा नहीं था । वैसे ये बुझाता नही है कि एयर कंडिशनड डब्बे में चेन लगा डब्बा अगर प्रोवाइडेड है तो स्लीपर क्लास में काहे यूज्ड बिसलरी बोतल यूज करना पड़ता है।

खैर, इन सबसे इतर लड़का तो बस रियल वाले गुलाबी आबोहवा में व्यस्त था | बेशक उस ट्रेन वाली सह-यात्रिणी की अम्मा को भी खटकने लगा था ये एकदम वाली नजदीकी। पर कभी कभी अम्मा भी विलेन न बन कर ये महसूसना चाहती हैं कि गर कुछ 20-25 वर्ष पहले की घटना होती तो कैसे उनके चेहरे पर चमक दौड़ती। आश्वस्ति का आलम ये था कि जैसे परमिशन हो, खींच लो सफर भर गुलाबी रेखाएँ। आखिर लड़का उनके लिए भी सुविधाओं से लैस होकर कभी बिसलरी तो कभी चाय आदि ला ही रह था।ट्रेन शायद 10 बजे रात तक पटना पहुंच जाएगी, दोपहर के तीन बज चुके थे, बात सिर्फ नजरों के सफर तक ही जारी था | लड़का रुके हुए ट्रेन से बाहर घुघनी खाने की कोशिश में था, थोड़ा ज्यादा प्याज नहीं मूली डलवा कर, काहे कि पियाज बहुत महंगा है साहब । लड़के को एक ज्ञान और मिला कि ये घुघनी इसलिए काला है क्योंकि इसमें चाय की पत्ती डाली गई है । लड़के ने खिड़की से दिखा कर बस आंखो से पूछा चाहिए, लड़की ने नजरों से घूमा कर पूरे अपनेपन से कहा – चाय भेज दो | उफ्फ्फ पर बड़की आंटी को लेमन टी चाहिए। लड़के ने मुसकियाते हुए लड़की को कह ही दिया, काश चाय की केतली के साथ तुमरे साथ सफर करता | प्यार मे तो हर झूठ इतना पावन होता है जैसे सीप के लिए हो स्वाति बूंद, है न | लड़के ने चाय बाहर से अंदर की ओर बढ़ाई तो लड़की ने स्नेह से कहा, अंदर आ जाओ, ज्यादा हीरो मत बनो |

बेवजह का ऑर्डर कितना दिल पर मुक्का मारता है, ये लड़के के चेहरे की मुस्कुराहट बता रही थी।सफर कब हमसफर बना देता है, पता भी नहीं चलता | असहजता का दायरा सिकुड़ कर सहज हो चुका था |समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंताक्षरी लेकर हरी का नाम, – विलंबित ट्रेन ने एक और वजह दिया तो बच्चो के साथ कुछ बड़े जैसे बच्चे यानि उस कम्पार्टमेंट के मुख्य पात्र लड़का – लड़की भी गाने में हिस्सेदारी लेने लगे, और तो और दोनों और से लगातार प्रेम संगीत के धुन, बेसुरा ही सही, लगातार सवाल-जवाब के तरह बजने लगे | बातों और जज़्बातों को जैसे समय के पंख लग गए, घंटे यूं बीतने लगे जैसे वो पल दो पल की बात हो | “दिल का रस्ता, दौड़ने लगा सफर के रास्ते, बिन कहे लगा ऐसा की तू मेरे वास्ते, मैं तेरे वास्ते”| कब गाने के बोल के माध्यम के बीच दो अनजानी हथेली चिपकी ये भी कहाँ किसी को दिखा। सांझ का समय दो अंजाने आशिक गाते हुए – कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया !ट्रेन दानापुर पहुँचने वाली है, ऐसा सुनते ही, एकदम से लड़के ने लड़की की ओर निहारा तो लड्की ने भी लड़के को प्रेम के चाशनी में डूबे नजरों से बस देखते हुए, अंततः जोर से हथेली पकड़ते हए जतला ही दिया, काश ये सफर लगातार जारी रहे |

ट्रेन बिहटा से भी खुल चुकी थी, लड़की को अनुभव हुआ जैसे कोई मुड़ातुड़ा कागज पकड़ाया गया हो। दम साधे उसने जोर से भींच लिया। लड़का, लड़की के सारे समान का रखवाला बनकर लाइन लगाकर रख रहा था। रखते हुए धीरे से कहा भी नम्बर दिए हैं, फोन करोगी न ….।हर प्रश्न का जबाब नहीं होता, लड़की ने बस फिर से उसकी हथेली पकड़ ली । लेट ट्रेन सचिवालय हाल्ट पर थमते हुए बताई, सिग्नल नहीं मिला है, कुछ क्षण और दोनो निहार सकते हैं । जिंदगी का सफर है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं के तर्ज पर दोनो ट्रेन के सफर को यादगार बनाये स्टेशन पर ट्रेन के लगने का इंतजार कर रहे थे। दोनो की एक एक हथेली बिना डर के जुड़ी थी। लड़की के दूसरे हथेली में लड़के का पता/मोबाइल नम्बर सांसे ले रहा था। लड़के ने लड़की के हथेली को होंठों तक लाकर, चुपके से बोसा लिया। ट्रेन फिर एक धचके से रुकी, ऐसा लड़की ने अनुभव किया ।ट्रेन एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर लग चुकी थी, लड़की के परिवार को लिवाने कुछ मुस्टंडे जैसे रिश्तेदार आ चुके थे। प्रेम पर डर का मक्खन ऐसा चढ़ा कि लड़के ने थोड़ी सी दूरी बनाई।

पर सोच ये थी कि फोन तो आएगा ही …ऑटो पर बैठते हुए पता नहीं कब लड़की का मुट्ठी खुल गया और …… और लड़का 26 जनवरी से आजतक मोबाइल फूल चार्ज करके इस इंतजार में रहता है कि बस फोन आने ही वाला है।एक यादगार सफर ने बस इतना बताया, हर सफर को मुकाम बेशक न मिले, पर सफर सफरिंग नहीं होता है। गुलाबी यादों में लाल फ्रॉक वाली लड़की का चेहरा जो बदल चुका था ।।।।।लॉक डाउन पीरियड में समय काटने के लिए एक बेहद गुलाबी स्मृति लड़के के पास थी। शायद लड़की के पास भी होगी…. है न!.वैसे भी किसी भी कथानक में नाटक और हीरोइस्म रोजमर्रा की परेशानियों से गुथा होता है, सुखद अंत, अरे भाई हैप्पी एंडिंग की बात करें तो वह इतने दबे पाँव आती है कि हो सकता है आप उसके परदे पर आने से पहले ही सिनेमा हॉल से निकल चुके हों……., या फिर अंतिम मिनट में निर्देशक मनमानी कर जाए, तो ऐसे समझें कि हर कहानी को अंत तक खींचने के लिए नहीं लिखा जाता है, समझे न बुरबक 😊~मुकेश~

मुकेश कुमार सिन्हा मोबाइल. +91-9971379996लोधी कॉलोनी, नई दिल्ली ब्लॉग : www.jindagikeerahen.blogspot.comमेल : mukeshk.sinha@nic.in

कालजयी तस्वीर / सत्यम शर्मा

‘हिन्दी रचनाकार’ और ‘कविता घर’ के समामेलन और एकीकरण में करायी गयी ‘रेलवे स्टेशन की कुर्सी लेखन प्रतियोगिता’ में आपका भाग लेना सराहनीय है और दोनों साहित्यिक परिवार की तरफ से आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.

 कालजयी तस्वीर

आज भगतराम को एक प्रतिष्ठित अखबार का दफ्तर जॉइन किये 3 ही दिन हुए थे कि विश्व में फैली महामारी की वजह से उसे अपने आदर्श फ़ोटो जर्नलिस्ट के साथ शहर छोड़ रहे मज़दूरों पर रिपोर्टिंग करने भेज दिया गया था। उन्हें बताया गया कि वो मज़दूर राज्य छोड़कर जा रहे थे पर दूसरे राज्य की तरफ से अभी अनुमति नहीं मिली। अतः पर्याप्त चैकअप किये बिना कहीं भेजना सरकार के लिए खतरे से खाली नही था। भगतराम बहुत खुश था क्योंकि उसे ढेर सारी चीजें सीखने को मिलनी जो थीं। आज वो फ़ोटोग्राफी का हर एक फ़न सीखने की कोशिश करने वाला था, जो उसे साथी जर्नलिस्ट प्रकाश की तरह पुरस्कार और पहचान दिला दे। गाड़ी सड़क पर अपनी रफ्तार में थी और उससे भी तेज़ थी भगत के रोमांच की रफ्तार। गाड़ी में बैठे-बैठे प्रकाश ने कहा,”आज तुम देखना और सीखना, कैमरे पर फ़ोटो उतारने की बारीकियां।”

दोनों वहां पहुंच कर देखते हैं उस जगह का माहौल एक शरणार्थी शिविर की तरह लग रहा है। चारों ओर छोटे बच्चे बिलख रहे हैं। पर उनकी मरियल सी आवाज़ें कुत्तों के क्रंदन के नीचे दब जा रही हैं। 

“देख रहे हो, ये नज़ारे वरदान साबित हो सकते हैं तुम्हारे कैरियर के लिए,बस देखने भर की नजर चाहिए”, प्रकाश ने गर्व भरी मुस्कान बिखेरते हुए कहा। 

“किसी से बात मत करना वरना हाथ कांपने लगेंगे, ये कैमरे को होल्ड करने में दिक्कत करेगा। फ़ोटो धुंधला जाएगी।” 

प्रकाश आगे चलता हुआ इधर उधर कुछ तलाश रहा था। उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी मानो जो चाहता था वो मिल गया हो।

“इधर आओ जल्दी, अभी इस बूढ़े के घरवालों के जो आंसू गिर रहे हैं, जैसे ही ये पलकों की कोर से छलकें, इनका एक क्लोज़ शॉट ले लेना। वरना इन्हें फिर रुलाना कठिन काम है। भूखे हैं तो आंसूओं का भरोसा नही कब सूख जाएं।”

भगतराम का कलेजा कांप गया,पास ही एक बूढ़े आदमी की लाश पड़ी थी। जिसके आस पास कुछ अधनंगी स्त्रियां थी, चीथड़ों में लिपटे कुछ बच्चे और एक दो आदमी। बच्चे सहमे सहमे देख रहे थे। स्त्रियों की हिचकियाँ बंध रही थी। अब उनकी आवाज़ भी नही निकल रही थी। 

“माइक थोड़ा पास रखो उनके ताकि सिसकियों की आवाज सुनाई दे, साउंड इफ़ेक्ट होना कितना जरूरी है। इससे वीडियो में जान आ जाती है। कोशिश करो कि नेचुरल साउंड आये वरना कंप्यूटर से इफ़ेक्ट डालने पर उतना असर नहीं रहता।” प्रकाश, भगतराम को समझाते हुए बोला।

भगतराम ने उसके कई एंगल से शॉट लिए और एक शॉर्ट वीडियो क्लिप बनाई।

अब तक उनके हाथों में कैमरा और साथ में एक बड़ा सा बैग देखकर उनके आस पास एक भीड़ सी लग गयी। 

“देखो भगत! जब भी कोई इफेक्टिव फ़ोटो लेनी हो तो बच्चों से बेहतर कोई ऑब्जेक्ट नहीं हो सकता। इन्हें समझ आये कि हम खाना बांटने नहीं आये, उससे पहले ही 7-8 शॉट ले लो। इस गोद मे बच्चे वाली औरत की फ़ोटो पोर्ट्रेट मोड सेट कर के लेना। बस फोकस इसी पर रहे, समझे!” 

वहाँ के कुछ फ़ोटो और क्लिक करने के बाद दोनों आगे बढ़ते हैं। “भगतराम तुम कहते थे ना कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नही हो सकती, वो कुत्ता देखो, कितनी सीधी पूंछ है उसकी!”

“पर वो इतना मरियल क्यों है? किसी अच्छे घर के कुत्ते की पूंछ मैंने अब तक सीधी नहीं देखी है सर”। भगत बोला।

“अबे यार तुम दो चार ऐसी वैसी जगह घूम लोगे न फिर देखकर ही समझ जाओगे। भगत जी भूख अच्छे अच्छे कुत्तों की पूंछ सीधी कर देती है। वैसे ये कुत्ता थोड़ा हृष्ट पुष्ट सा होता तो कितना क्यूट लगता ना…हाहाहा।” प्रकाश ने भगत के भोलेपन पर ठहाके मारते हुए कहा। 

“अच्छा अब ऐसा करो इस क्यूट कुत्ते और इस बच्चे की एक फ्रेम में फ़ोटो लो। एक बच्चा और होता तो बेहतर था। ये फोटोग्राफी का ऑड रूल है। धीरे धीरे सब सीख जाओगे।”

तभी एक औरत थके मांदे कदमों से उनकी ओर आयी। “साहब!इसकी फ़ोटो ले लो,बदले में बस कुछ खाने को दे देना। कल से मैं भी भूखी ही हूँ । पैदल चलते चलते तक गए हैं। आज तो स्तनों में दूध भी नहीं उतर रहा। इसकी फ़ोटो खेंच लो साब”! महिला गिड़गिड़ाई।

“इसे मेरे टिफ़िन में से एक रोटी लाकर दे दो” प्रकाश ने भगत से कहा।

“और तुम इसे यहां कुत्ते के बगल में खड़ा कर दो ताकि हम अपना काम कर सकें” प्रकाश ने उस औरत से कहा ,”और भगत राम कैमरा मुझे दो। ये फोटो अबकी बार मैं किसी इंटरनेशनल फोटोग्राफी कॉन्टेस्ट के लिए भेजूंगा। पिछली बार वो हरामी श्रीवास्तव सड़क पे धूप से बेहोश हुए एक मजदूर की फ़ोटो खींचकर इनाम छीन ले गया मुझसे। पर ये बच्चा तो ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा है,कितना लड़खड़ा रहा है। इसके तो पैरों में भी सूजन है। ऐसा करो वहीं लिटा दो इसे और अब देखना क्या कमाल का शॉट लेता हूँ।”

 फ़ोटो ली जाती है और प्रकाश के मनमाफिक ही आती है। तभी भगत रोटी ले आता है और उस औरत को देने लगता है।

“ये लो तुम्हारा इनाम!”प्रकाश अपने पीले पड़ चुके दांत चिरयाते हुए बोला। 

“अरे वापस दो ये रोटी, एक आईडिया आया है। कितना भुलक्कड़ हूँ यार। इतने अच्छे अच्छे आईडिया हमेशा देर से ही क्यों आते हैं मुझे,” प्रकाश खुद पर अफसोस जताते हुए बोला। 

फिर प्रकाश ने उस औरत से कहा, “देखो!अगर ये बच्चा थोड़ा सा मुस्कुरा दे तुम्हारी गोदी में तो समझो दुनिया में छा जाएगी ये फोटो। दुख में भी मुस्कान की एक अलग ही कहानी कहेगी। लोगों को सकारात्मकता सिखाएगी, देखना तुम। अब इसे गोद मे लो और ये मुस्कुरा क्यों नहीं रहा।” 

ऐसा करो गाड़ी में एक चॉकलेट रखी है वो लेकर आओ।” चॉकलेट आती है । बच्चा उसे देखकर हल्की सी कूंक देता है। 

“सर पता ही नहीं चल रहा ये हंस रहा है या रो रहा है, आंसू बहते तो पहचानना थोड़ा आसान हो जाता।”भगत आश्चर्य से बोला। 

“बिना आंसुओं के रोना भी हंसने जैसे ही लगता है यार फिर फ़ोटो में इतना पता ही कहाँ चलता है। ‘मोनालिसा’ पेंटिंग देखी तुमने। रहस्य में भी सुंदरता होती है। यही तो मेरी सफलता का राज है भगत बाबू।” प्रकाश ने गर्वोन्मत्त मुस्कुराहट बिखेरी। 

फ़ोटो ली गयी। प्रकाश फ़ोटो देखकर लगभग उछल ही पड़ा। चोकलेट वापस गाड़ी में रखी गयी आखिर वो उसके साले ने फ्रांस से उसके बच्चों के लिए भेजी थी। रोटी मां को दे दी गयी। बच्चा रोटी पर टूट पड़ा। शायद उसकी भूख, रोटी के आकार से कहीं ज्यादा बड़ी थी। 

अब वो निकल पड़े। औरत, बच्चे ,कुत्ते, बूढ़े की लाश सब कुछ तो क्लिक कर लिया गया था। 

आगे चलने पर देखा कुछ मजदूर और औरतें सुस्ता रहीं थीं। पैरों में पड़े छाले उनके द्वारा नापी गयी दूरियों की खबर दे रहे थे। 

“यहां कुछ खास नहीं दिखाने को। भगत मियां हर एक प्रोफेशन आज एक मार्केटिंग स्किल्स का ही जोड़ है। कोई अपने प्रोडक्ट बेच रहा है। नेता लोग सहानुभूति बेच रहे हैं, कवि कविता के जरिये गम्भीर सामाजिक मुद्दे, न्यूज़ वाले नफरत और हम गरीबी,लाचारी। धंधे का उसूल है भाई क्या करें, बेचना पड़ता है।” 

तभी उनकी नज़र एक पेड़ के नीचे बड़ी सी पोटली पर पड़ी।   पास में ही कुछ मजदूर स्टोव पर शायद खाना बना रहे थे। बदबू की एक लहर सी दौड़ रही थी। प्रकाश और भगतराम ने नाक जोर से भींच ली। पूछने पर पता चला कि रास्ते में सड़क पर एक ट्रक उनके ही गांव के एक साथी को कुचल गया था। पोटली में उसी की लाश के टुकड़े हैं। जिसे बड़ी मुश्किल से  दाह संस्कार के लिए अपने औजारों से कुरेदकर ले आये हैं। ताकि उसका ढाई साल का बेटा उसे गांव में मुखाग्नि दे सके।

प्रकाश बोला,”उफ़्फ़!ये तो बहुत बुरा हुआ। अभी दुनिया मे जितनी भी फ़ोटो ली गयी हैं उनमें आदमी या तो जिंदा है या मुर्दा। कभी देखी है जीवन से मौत की और यात्रा करते किसी आदमी की कोई फ़ोटो। काश! हम अगर वहां होते तो कंटीन्यूअस शॉट क्लिक करके फ़ोटो को अमर बना देते। बिफोर एंड आफ्टर वाला हैशटैग लगाते।

ख़ैर! अब चलने का वक़्त भी हो गया है, एडिटर को रिपोर्ट देकर घर जल्दी जाना है। आज बीवी ने कोई इटालियन डिश बनाने की ख्वाईश जाहिर की है भई। हाहाहा! “

दोनों वापस लौटने लगते हैं। रास्ते में एक दृश्य देखकर ठिठककर खड़े हो जाते हैं। वो औरत जिसके बच्चे की,कुत्ते के साथ वाली फ़ोटो ली गयी थी, वो औरत अब जमीन पर बेजान पड़ी थी। उसके कमर के ऊपरी हिस्से से साड़ी हटी हुई पड़ी है। वो बच्चा उसके ब्लाउज के बाहर से ही स्तन निचोड़कर दूध पीने की नाकाम कोशिश कर रहा है। कुत्ता हल्की आवाज में कभी भौकता है , कभी मुँह ऊपर कर कूंकता है तो बीच बीच में कभी बच्चे का पैर चाट लेता है। अब वहां कुल 5 लाशें हैं, एक पड़ी है बाकी 4 खड़ी हैं। एक भगत की सूरत में मानवता की लाश, एक प्रकाश की सूरत लिए उम्मीद की लाश,एक अदृश्य लाश जो जिंदा होने की अनुभूति देती है, सरकार की है और एक तगड़ी सी लाश जो अब सड़ने से गन्धा रही है,वो हमारे समाज की है। संवेदनशीलता ऊपर से इन सबको देखकर टेंसुए बहा रही है।

कहानी मर जाने तक जारी है…

       – सत्यम शर्मा