स्त्री; आश्रित या आश्रयदात्री|जिज्ञासा मिश्रा

हमारे भारतीय कानून में सबको एक समान माना गया है। क्या स्त्री ? क्या पुरुष ? क्या हिंदू और क्या मुस्लिम ? लेकिन क्या व्यवहार में भी ऐसा होता है ? बहुत ही कम!

आज हम बात कर रहे हैं गांव में रहने वाली लड़कियों ,बहुओं, कामकाजी महिलाओं की। हर क्षेत्र में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है , सिर्फ इसलिए क्योंकी वह एक स्त्री है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां अपनी गुलामी की जंजीर तोड़ने के लिए संघर्षरत हैं। जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है वह भी उन्हें संघर्ष करके ही प्राप्त होता है। स्त्री – पुरुष का यह भेदभाव जन्म से ही शुरू हो जाता है। लडकों के पैदा होने पर उत्सव मनाया जाता है दावतें होती हैं और लड़कियों के पैदा होने पर कोई उत्सव नहीं होता। तब ” शादा जीवन उच्च विचार ” का ढोंग होने लगता है। शुरू से ही लडकों और लड़कियों को भिन्न – भिन्न संस्कार दिये जाते हैं

“तुम इतनी तेज नहीं बोल सकती , क्योंकी तुम लड़की हो।तुम्हें घरेलु काम करने हैं क्योंकी तुम लड़की हो। अरे! तुम ऐसे ठहाके मार के कैसे हंस सकती हो? तुम तो लड़की हो। कुछ तो शर्म करो। बचपन से ही लड़कियों को ” तुम लड़की हो ” का टैग मिल जाता है यही चीजें अगर लड़का करे तो पुरुषत्व की निशानी और अगर लड़की करें तो बेशरम। अरे वाह ! क्या दोगली रीत है ?

गांव में जब भी स्कूल में कोई वर्षिक उत्सव या आज़ादी का उत्सव मनाया जता है और उसमें नृत्य आदि के प्रतियोगितायें रखी जाति हैं तो उनमें भाग लेने के लिए लडकों को इजाजत की जरूरत नहीं होती लेकिन लड़कियों को ना जाने कितनी मेहनत करके घर वालों की इजाजत लेनी पड़ती है।” अरे तुम लड़की हो वहां इतने सारे लोगों के सामने स्टेज पर नाचोगी। तुम्हें हमारी मर्यादा का ख्याल तो है तुम्हें ? नृत्य जो एक कला है ,आत्म विकास का मध्यम है उसको भी मर्यादा से जोड़ कर उसका अर्थ ही बदल दिया जता है। वह भी सिर्फ लड़कियों के लिए। ” लड़का नाचे तो शान लड़की नाचे तो अपमान। ” हमारे गांव में लडकों का जब जी चाहता है तो घर से निकल पड़ते हैं घूमने के लिए। जब जी चाहता है तब घर आते हैं। लेकिन लड़कियां जब तक कोई जरूरी काम ना हो घर से बाहर नहीं निकल सकती और अगर कहीं जाते भी हैं तो कई सवालों के जवाब देने के बाद।

कहाँ जा रही हो ? वहां क्या काम हैं ? घंटे भर के अंदर वापस आ जाना। अकेले नहीं ,भाई को साथ लेकर जाओ, अच्छा उस सहेली के यहां जा रही हो, क्या जरूरत है जाने की? यह दोस्ती बस स्कूल तक सीमित रखो घर पर लाने की कोई जरूरत नहीं है। वगैरह – वगैरह इतने सवालों के जवाब देने के बाद भी इजाजत मिलेगी या नहीं , कोई पता नहीं होता। लड़कियों को बचपन से ही सीख दी जाती है की जब तक मायके में हो तब तक पिता और भाई के आश्रय में रहना है। ससुराल में पति के आश्रय में और बुढ़ापे में बेटों के। उनकी पुरी जिंदगी को आश्रित बना दिया जता है। अगर वो सक्षम भी हो तो बिना किसी पुरुष का साथ लिए उन्हें घर से बाहर कदम नहीं रखने दिया जाता है। लड़कियों की जिंदगी किराएदार की तरह होती है, उनका हिस्सा न मायके में होता है और ना ही ससुराल में। मायके वाले कहते हैं पराई अमानत है ,एक दिन चली जायेगी और ससुराल वाले कहते हैं पराय घर की है। हम सबके अपने होकर भी पराए रह जाते हैं। और तो और गांव में आज भी शादी सिर्फ़ समझौता होती है। अपनी पसंद चुनने का आपके पास कोई हक नहीं होता है। विवाह के क्षेत्र जाति – उपजाति में अत्यंत ही सीमित होते हैं और अगर गलती से किसी को दूसरी जाति या दुसरे उपजाति के ही लड़के या लड़की से प्रेम – प्रसंग हो जाए तो उसका अधिकार ,उसकी स्वतंत्रता सब छीन लिया जता है और अन्ततः समझौते की शादी करा दी जाति है। प्रेम जो खुद में ही पवित्र है ,शास्वत है अनंत और असिम है, जो हर जाति – पाति, ऊंच – नीच से परे है , उसको भी यहां एक कलंक के रूप में देखा जता है और प्रेम करने वालों को चरित्रहीन समझा जता है। मतलब अगर यहां किसी को प्यार करना हो तो कैसे करें? प्यार तो कोई सोच समझकर नहीं करते वो तो बस हो जाता है। या फिर हाथ में एक बोर्ड लेकर घूमें की “हिंदू ब्राह्मण कान्यकुब्ज प्रेमिका को उच्च व मान्य ब्राह्मण कुल का सजातीय प्रेमी चाहिए। तब जाकर कोई मिले और फिर उससे प्रेम करें।

“वाह ! सोच के भी कितना दुःख होता है की अनंत और असीम प्रेम को भी एक सीमा और क्षेत्र विशेष में बंध दिया गया है और इस बंधन को कुछ गिने – चुने लोग ही तोड़ पाते हैं। वह भी एक लंबे संघर्ष के बाद। लंबे अरसे के बाद। बहुओं की दशा तो और भी दयनीय होती है, उनका अस्तित्व बस पति की सेवा करने का, कामकाज करने और घर की चारदीवारी के अंदर ही होता है। और अगर औरत घर से बाहर निकलकर काम भी करना चहती है तो उस पर हजार पाबंदीयां लगाई जाती हैं।

” आदमियों से ज्यादा बोल – चाल मत रखना, अपने काम से काम रखना ,घर से कार्यालय और कार्यालय से घर। इसके आगे कदम मत बढ़ाना “नौकरी शुरू करते ही उसमें ऐसी कई पाबंदियां लगा दी जाती हैं ।अगर एक औरत भले ही काम के सिलसिले में ही किसी आदमी से बोल दे , दो – चार बातें कर ले तो उसको चरित्रहीन कह दिया जाता है। अगर किसी कामकाजी महिला के घर पर उस घर के मुखिया के बजाय उस महिला के नाम से निमंत्रण पत्र आ जाता है तब तो पूछो ही मत । तुरंत औरत को सवालों के कटखरे में खड़ा कर दिया जाता है। ” यह तुम्हारे नाम से क्यों आया है? तुम ठेकेदार हो ? घर के पुरुष मर गए हैं क्या ? “अरे भाई ! जब उस महिला की सह – कर्मचारी उसे ही जानती है तो उसी के नाम से निमंत्रण पत्र भेजेगी ना। जैसे किसी पुरुष का दोस्त पुरुष के नाम का निमंत्रण पत्र भेजेगा ना की उसकी पत्नी या मां के नाम का। सीधी सी बात है लेकिन इससे पुरुषों के ताथकथित आत्मसम्मान को ठेस पहुंच जाति है ,की कोई हमारी जगह कैसे ले सकता है ?

क्या स्त्रियों का मन नहीं होता ? उनकी प्रतिभा, प्रतिभा नहीं होती ? फिर क्यों उनकी प्रतिभाओं को दबा दिया जाता है ? क्यों उन्हें वो करने की आज़ादी नहीं मिलती जो वे करना चहती हैं ? क्या उनको हक नहीं की वह अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिएं न की किसी और के निरंकुश नियमों का पालन करके।

हमेशा से कह दिया जाता है कि लड़कियां कमजोर होती हैं। इनके पास दिमाग नहीं होता है।अरे इस पुरूष प्रधान समाज में क्या लड़कियों को उतने अवसर उतनी सुविधाएं दिये गए जितने के लडकों को ? फिर बिना अवसर दिए ही आप यह कैसे कह सकते हैं की लड़कियां कमजोर होती हैं ? ये तो कुछ यूं बात हो गई जैसे कि किसी को लड़ाई के मैदान में उतारे बिना ही उसे पराजित घोषित कर दिया जाए। अगर लड़कियों को अवसर मिलता है और तब वह कुछ ना कर पाती तब आप उन्हें असक्षम कहें ,तब हमें कोई शिकायत ना होंगी। लेकिन मुझे यकीन है की जितने अवसर व सुविधाएं लडकों को दिये जाते हैं उसका आधा भी अगर लड़कियों को मिले तो निश्चित ही वह प्रगति करेंगी क्योंकि स्त्रियां इतनी भी कमजोर नहीं होती हैं। उनमें तो सहनशीलता का गुण हो होता है। वो अपनी जान पर खेलकर, तमाम चोट सहकर , तमाम मुसीबतों को सहकर, तमाम तकलीफों को झेलने के बाद भी, वह दूसरों की रक्षा करती हैं। अपना संपूर्ण जीवन अपनी इच्छायें सब कुछ अपनों के लिए समर्पण कर देती हैं।

एक औरत के कई रूप होते हैं एक बेटी माता-पिता के लिए उनके मान – सम्मान के लिए अपनी इच्छाओं को त्याग देती है। एक बहु अपने मायके को त्याग देती है और ससुराल में ही सर्वस्व ढूंढती है। एक पत्नी स्वयं की पहचान को त्याग देती है और पति के पहचान में ही ढल जाती है। एक मां अपने बच्चों के लिए अपने सपने त्याग देती है। खुद भूखी रह कर भी अपने हिस्से से बच्चों का पेट भरती है ।पर इतना त्याग करने के बाद भी उसको मिलता क्या है अपमान , कलंक, रोक – टोक इत्यादि।

क्या पुरुषों का कोई फर्ज नहीं है? क्या उनका फर्ज बस इतना ही है कि वो पैसे कमाएं और परिवार का पेट भरें। क्या पुरुष उन स्त्रियों लिए, उन सब के लिए जो इतना त्याग करती हैं थोड़ा सम्मान, थोड़ी स्वतंत्रता और बिना रोक – टोक किए उनको उनकी जिंदगी जीने अधिकार नहीं दे सकते ? जोकि उनका जन्मसिद्ध अधिकार है? क्या स्त्रियों की प्रतिभाओं की ऊंगली पकड़ कर उनको प्रोत्साहन नहीं दे सकते? उनकी इच्छाओं को पुरा करने का अवसर उन्हें नहीं दे सकते ?

मुझे नहीं लगता है कि स्त्रियां सिर्फ़ पिता, पति या बेटों पर आश्रित होती हैं। वह तो स्वयं हम सबको आश्रय देती हैं। अपने आंचल के छांव में सबको समेटे रहती है। खुद अत्याचार सह कर भी सबको प्यार देती हैं। अपनी इच्छाओं को मार कर सबकी छोटी-छोटी इच्छाओं का भी सम्मान करती हैं ।

इतिहास गवाह है कि जब – जब स्त्रियों की सहनशीलता टूटी है तब – तब उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया है। और तब जाकर समाज में क्रांति व परिवर्तन हुए हैं। स्त्री तो एक शांत नदी की तरह है जो सबको शीतलता प्रदान करती है। सबकी प्यास बुझाती है। लेकिन अगर उस पर अत्याचार होगा ,अपमान होगा तो वही स्त्री नदी की भयानक बाढ़ की तरह सब कुछ तहस – नहस कर सकती है। जिस दिन स्त्रियों को सम्मान ,उनके प्रतिभाओं को अवसर और उन्हें उनके हिस्से की स्वतंत्रता मिलने लगेगी तभी यह देश प्रगति की सीढ़ी पर चढ़ते हुए और आगे बढ़ सकेगा। क्योंकि भारत की आधी आबादी महिलाऐं ही हैं। आज विश्व में किसी भी ऐसे देश का उदाहरण नहीं है जो अपनी महिलाओं को सम्मान और बराबरी का दर्जा दिए बिना केवल पुरुषों के बल पर विकसित हुआ हो। स्वामी विवेकानंद जी ने भी महिलाओं के प्रति कहा है कि – “जैसे किसी पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना आसन नहीं है उसी प्रकार बिना महिलाओं की स्थिति में सुधार किए इस समाज का कल्याण संभव नहीं है।”

वीरांगना झलकारी बाई : वीरता का पर्याय

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा
दुर्गा दल की सेनापति,वीरांगना झलकारी बाई कोली (कोरी) का जन्म 22 नवबंर सन 1830 को उत्तर प्रदेश(तत्कालीन नाम पश्चिमोत्तर प्रान्त) राज्य में झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पिता का नाम स्व० सदोवर सिंह और मां का नाम स्वर्गीया जमुना देवी था। झलकारी बाई का जन्म के कुछ दिन में ही मां असमय स्वर्ग सिधार गई, अब बेटी की सेवा करने की जिम्मेदारी पिता पर आ गई। पिता जी ने लड़के की भांति ही झलकारी बाई का पालन–पोषण किया।


तत्कालीन सामाजिक विपरीत परिस्थितियों के कारण पिता स्व० सदोवर सिंह अपनी सपुत्री को स्कूली शिक्षा नहीं दिला सके, किंतु घुड़सवारी, अस्त्र–शस्त्र चलाना, युद्ध करना आदि संघर्षी कार्य जरूर बखूबी सिखाया था। वह स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़, किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। अक्सर झलकारी बाई जंगल में लकड़ी लेने जाया करती थी।एक बार झांसी के जंगलों में झलकारी बाई का आमना–सामना तेंदुआ से हो गया, झलकारी बाई ने डरकर भागने के बजाय, कुल्हाड़ी से काटकर वन्यजीव को मार डाला था। यह बात रानी लक्ष्मी बाई को पता चली तो झलकारी बाई को अपनी सेना में सेनापति बनाया था।


पति का नाम अमर शहीद पूरन सिहं कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी थे। पूरन सिंह कोली बहुत ही स्वामिभक्त, मेहनतकश व कर्तव्यनिष्ठ थे,जिनकी ईमानदारी पर रंच मात्र भी संदेह नहीं किया जाता था। इसलिए महारानीलक्ष्मीबाई ने पूरन सिंह कोली को अपने तोपखाना की जिम्मेदारी दी थी।


झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराहकरके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी, उसी समय रानी लक्ष्मीबाई स्वयं अगली रणनीति तैयार करने में लग जाती थी। अन्तिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई का प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया। तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। युद्ध के मैदान में भी दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी फिरंगियों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक
लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी।


जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर अभेद्य टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से फिरंगियों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। किला की रक्षा करते हुए पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए थे। झलकारी बाई अपने पति का शोक में डूबने, तेरहवीं संस्कार आदि करने के बजाय, दूसरी रणनीति बनाकर फिरंगियों पर ज्वाला बनकर टूट पड़ी थी।

कई अंग्रेजों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया था। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी।
कवि बिहारी लाल हरित ने “वीरांगना झलकारी बाई काव्य” नमक पुस्तक लिखा, जिसका एक दोहा दृष्टव्य है—
लक्ष्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड्ग सवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली।।

सरयू–भगवती कुंज
डॉ अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

Poet Pushpa Srivastava
उस साल चांँद निहार कर उतरते हुए जीने से गिर गई थी मैं। अफरा- तफरी मच गई थी पूरे घर में | संस्मरण | पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली

उस साल चांँद निहार कर उतरते हुए जीने से गिर गई थी मैं। अफरा- तफरी मच गई थी पूरे घर में।

“कौन गिरा?”

“अरे देखो!”

जेठानी जी तेज आवाज में- “अरे! देखो गुड्डी गिर गई!”

“अरे ! छोटी दीदी गिर गईं!” सब दौड़ कर आए गये।

“अरे मुझे चोट नहीं आई, मैं बिल्कुल ठीक हूॅं!” कहते हुए मैं भाव-विह्वल हो गई।

त्वरित निर्णय लिया गया कि अब अगली बार से पूजा नीचे  आंँगन में ही  होगी।

“अम्मा भी छत पर नहीं जा पातीं, वो भी आंँगन में बैठ पाएंँगी ।”

“हाँ -हाँ बिल्कुल।” सभी ने एक स्वर से सहमति जतायी।

बहुओं को सज -धज कर करवा चौथ की पूजा करते देख अम्मा बहुत खुश होती थीं ।

‘ठुक -ठुक’  डंडे की आवाज़ के साथ कभी मुझे निहारती कभी देवरानी को और कभी जेठानी को। वे पूरी तरह हमारे बीच शामिल हो जाना चाहतीं थीं।  

फोटो खिंचवाते समय आंँगन के चाॅंद की तरह घूम -घूम हम सब को निहारतीं और खुश होकर कुछ गुनगुनाती।

“मेरी नथुनी उलझ गई देखो पिया” 

आगे के बोल भूल जातीं, फिर कहतीं- ” राम राम बिसरि गयेन” और बिना दांँत के मुंँह से आह्लादित होकर हंँसती।

आज घर में पहले की तरह ही सब कुछ हुआ, हम सब घर की बहुएंँ सजीं , फोटो भी खींची गई। आंँगन में पूजा भी हुई, नीम के झुरमुट से आंँख-मिचौली करते हुए चाँद से भी मुलाकात हुई। पर मन! वो तो अम्मा की स्मृतियों में खोया रहा! अम्मा के घर पर न होने से उपजा खालीपन खुशियों पर भारी रहा! 

आज अपनी खिलखिलाती हँसी से घर के कोने कोने में

सितारे टांँकने वाली अम्मा की लाडली पारियांँ भी नहीं आईं।

कहाॅं चली गई थीं अम्मा! कहाॅं गया वह आंँगन में ठुक- ठुक की आवाज़ करने वाला चांँद? आज नहीं मिला पूजा के बाद पांँव छूने पर पीठ पर देर तक फिरने वाला वह थरथराता सा हाथ!  वह सदियों तक गूॅंजने वाला आशीर्वाद –

“बनीं रहौ बच्ची,अहिवात बना रहे”!

मेरे मुॅंह से सहसा निकला-“अम्मा तुम्हारा यह आशीष इस घर पर अक्षत रहे!” और तभी  मेरी भरी-भरी ऑंखों ने भी सिसकते हुए धीरे से कहा -“प्रणाम माँ!”

पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’ संस्मरण 

संस्मरण 

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’

नई-नई बहू मैं निर्जला व्रत पहली बार रखे थी! पूजा करने के लिए तैयार हुई तो अम्मा बार-बार मुझे देख कर बताती रहीं..” नथ पहनना ज़रूरी होता है। देखो बेंदी तिरछी है, ठीक कर लो। कान वाले झाले काहे नहीं पहिने?” उजबक ढंग से तैयार हुई मैं लॅंहगे की चुन्नी नहीं सॅंभाल पा रही थी। अम्मा ने मुस्करा कर कहा था- “धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी” सुनकर मुझे चैन मिला। पहला हर काम बड़ा कठिन लगता था। 

अम्मा “देखो बबलू दुलहिन! लहंगा लंबा है सॅंभल कर चलो।  भूख लगे तो पहले साल ही कुछ खा लो” आदि बातें बता कर सारी तैयारी करने लगतीं। 

घर पकवानों की सोंधी महक से भर जाता।ढेर सारा पुजापा बनता, साथ में तरह-तरह के व्यंजन भी बनते। अम्मा सुबह से भजन गुनगुनाते हुए काम में लग जाती थीं। अम्मा कमाल की कलाकार भी थीं। दीवार पर माता जी का चित्र बनातीं तो जैसे माॅं साक्षात मुस्करा पड़ती थीं। सूरज-चंन्द्रमा बनाने के साथ अम्मा का चेहरा भी चमक उठता था। 

दशहरे वाले दिन से घर की दीवार का एक कोना अम्मा की उंगलियों से सजने लगता। पापा कहते..”देखो टेढ़ी न हो जाए लाइन!”  वे दोनों दीवार पर अपने भावों के साथ परिवार की सुखद कामना रचाते रहते। पापा मुग्ध होकर अम्मा की कलाकारी देखते थे। उनके चेहरे के प्रशंसित भाव देखकर हम लोग भी बहुत खुश होते थे। मेरी आर्ट तो इतनी खराब थी कि.. क्या कहें। अम्मा के पास बैठ जाएं तो वे कहें, “माता जी की चुनरी तुम भी रंग दो।”  मैं झिझक जाऊॅं तो वे कहें-“भगवान भावना देखते हैं बहू!” 

इतने वर्षों बाद भी पहले साल की वे अनमोल स्मृतियाॅं मन में जस की तस  सिमटी हैं। समय बीतता रहा..पापा के जाने से जो धक्का लगा वो अम्मा की बीमारी से और बढ़ गया। कल अम्मा बोल भी नहीं सकीं। जीवन का यह बदलाव अंतर्मन को अनदेखी पीड़ा से भरता जा रहा है। बार-बार मन करता है भगवान से कहें -” अम्मा को स्वस्थ कर दीजिए भगवन्!” 

रश्मि ‘लहर’

”समय की लीला” | लघुकथा | रश्मि लहर

”समय की लीला”

छोटे साहब ने बड़े साहब को खुश करने के लिए जेल में रामलीला करवाने का मन बना लिया था। चार दिन की तैयारी के बाद आज फाइनल कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मंत्री जी ने दोनों साहब लोगों को इनाम स्वरूप ‘आशीर्वाद’ दिया। बड़े साहब मंत्री जी के साथ चले गए। सब लोग सफ़ल आयोजन की ख़ुमारी में थे कि छोटे साहब की चीख सुनकर सब चौंक पड़े। 

छोटे साहब की प्रेयसी ‘सीता’ बनी कैदी को तो ढूॅंढ लिया गया था.. फिर? सब चिंतित कि.. “क्या हुआ?” 

जेल में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया था।  सब स्तब्ध! जितने मुॅंह उतनी बातें! छोटे साहब कमरे में बंद हो चुके थे। अचानक सिक्योरिटी गार्ड ने जो बताया उसको सुनकर सबके मुंह से चीख निकल पड़ी! उसने कहा –

“पता चला है कि सीता जी को ढूॅंढकर लाने वाले दो बंदर बने कैदी-नंबर 402 तथा 404 रामलीला समाप्त होने से पहले ही फरार हो गए!”

रश्मि ‘लहर’

जिन्दगी को हमने जूम किया – अभय प्रताप सिंह | पुस्तक समीक्षा

पहली बार कोई पुस्तक पढ़ते हुए ऐसा लगा कि जैसे कविताओं की गहराइयां तभी समझ आएंगी जब साहित्य में रुचि ही नहीं बल्कि उच्च स्तर का ज्ञान भी होना ज़रूरी है।

पल्लवी मंडल और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पढ़ने के बाद ये अहसास हुआ की कोई इतनी कम उम्र में इतनी अच्छी कविताएं … ?

ये पुस्तक सिर्फ़ लिखी ही नहीं गई है। बल्कि इन कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक , सांस्कृतिक, स्त्री विमर्श, नया समाज निर्माण, प्रेम, संघर्ष, सबक, सीख उम्मीद, खालीपन, अकेलापन आदि काफ़ी मात्रा में देखने को मिलती हैं।

” तुम जो कागज के टुकड़ों में बसा
कभी चुपके से हाथों में सिमटा
कभी सपना बन, आंखों में छलका
तुम्हारा मोल क्या, कभी सम्पूर्ण तो कभी अधूरा। “

” जब कुछ नहीं होता
तो सिर्फ़ उम्मीद ही होती है
उस सुबह की
जो शायद मेरी भी हो। “
इसी पुस्तक से ….

मैं सालों पहले करीब 150 से अधिक कविताएं लिखा था पर बाद में लगा कि मैं कविताएं लिखने के लायक नहीं हूं जो कि मित्र आशुतोष शुक्ल के शब्दों का मुहर लगने के बाद ये साबित हो गया था कि मेरे द्वारा कविताएं लिखना देश के ऊपर अहसान करना हो जाएगा इसलिए मैं उन सभी कविताओं को चुन – चुन कर डिलीट किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरी कविताओं का एक भी अभिलेख इतिहास का पाठ्यक्रम बढ़ाए।

कहते हैं कि –

” किसी उदास चेहरे पर खुशियां लाने का मूल्य,
किसी खुश चेहरे की तारीफों से कई गुना अधिक होता है।”

भगवंत अनमोल द्वारा लिखित पुस्तक ” ज़िंदगी 50 – 50 ” की ये पंक्तियां पल्लवी जी और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पर एकदम सटीक बैठती है।

आप दोनों की इस उपलब्धि के लिए बहुत सारी बधाइयां और मुझे इस पुस्तक को सम्प्रेम भेंट के लिए बहुत – बहुत आभार।

आख़िर में आप दोनों की तारीफ़ में कुछ कहने के लिए हेक्टर गर्सिया और फ्रांसिस मिरेलस द्वारा लिखित व प्रसाद ढापरे द्वारा अनुवादित पुस्तक ” इकिगाई ‘ में जापानी कहावत सबकुछ बयां कर देती है जो कि –

” सौ वर्ष जीने की चाहत आप में तभी होगी
जब आपका हर पल सक्रियता से भरा हो।”

– अभय प्रताप सिंह
(संस्थापक – लेखनशाला)

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459

सार्थक वेलफेयर सोसायटी ने कवि राम लखन वर्मा को किया सम्मानित

“भारत गौरव रत्न 2K24” का मिला सम्मान

रायबरेली-उ. प्र. AN ISO-9001:2015 प्रमाण पत्र प्राप्त एवं वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर संस्था सार्थक वेलफेयर सोसायटी लखनऊ द्वारा 29 सितम्बर 2024 को इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आईटीआई) रायबरेली में स. इंजीनियर पद पर कार्यरत श्री राम लखन वर्मा को “भारत गौरव रत्न 2024 सम्मान” से राजधानी लखनऊ के अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्थान में उ.प्र. सरकार में मंत्री माननीय श्री विश्वनाथ जी, एमएलसी पवन कुमार, महान कमेडियन श्री अन्नू अवस्थी एवं सार्थक वेलफेयर सोसाइटी के संस्थापक/अध्यक्ष श्री अश्विनी जायसवाल द्वारा सम्मानित किया गया। यह विशिष्ट सम्मान उनके उत्कृष्ट लेखन और सामाजिक कार्य के लिए प्रदान किया गया।
आपको बताते चले रायबरेली जनपद के हरीपुर-निहस्था इनकी जन्मभूमि रही है यह कवि, साहित्यकार के अलावा कई समिति के मीडिया प्रभारी भी रहे। इससे पहले आईटीआई लिमिटेड मनकापुर गोंडा में सेवा करते हुए इन्होंने “मुख्य योग शिक्षक” रहते हुए पूरे गोंडा जनपद में योग का प्रशिक्षण देकर लोगों को स्वस्थ एवं निरोगी बनाया। इसके अलावा बहुत सारे सामाजिक कार्यो में अपनी भूमिका निभाई है और इनका सफर अभी भी जारी है। इससे पहले भी बहुत सारे सम्मान प्राप्त कर चुके हैं।

उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है| हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

उर-ऑगन की तुलसी ,तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।

अधरों पर मृदु हास तुम्हारा मुखरित है,
लोल कपोल खिले सुमनों सा मुकुलित है।
कजरारी पलकों के चौखट में कैद आज,
बन स्नेह सुधा की निर्झरिणी प्रवहित है।
अनुपल भाव सुमंगल उर भरने वाली,
पुण्य-प्रदा तू जीवन की पहचान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है,
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।1।

झील सरीखी गहरी तेरी सुधियों में,
मस्त भ्रमर-मन लिपट न जाए कलियों में।
पूछेंगे सब लोग तुम्हारा नाता मुझसे,
और मनायेंगे खुशियॉ फिर गलियों में।
स्नेह-गंग की चपल तरंगों सी बल खाकर,
मिल जाऊॅगा सागर में अब ठान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।2।

छली चॉद सा रूप बदलना मुझे तनिक ना भाया,
मुखर चॉदनी ने चुपके से तन-मन आग लगाया।
नव प्रभात की किरण सुनहरी सन्ध्या दीपक-बाती,
धड़कन की हर सॉस तुम्हारी,कैसा रूप सजाया।
सपनों की अमराई में जब-जब कोयल कूके,
मधुरिम स्वर की मलिका तुम हो जान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010

सांस्कृतिक संस्थान एवं संवेदना साहित्य परिषद रायबरेली के तत्वावधान में कलेक्ट्रेट परिसर में एक गोष्ठी आयोजित

सांस्कृतिक संस्थान एवं संवेदना साहित्य परिषद रायबरेली के तत्वावधान में कलेक्ट्रेट परिसर में एक गोष्ठी आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार शत्रुघ्न सिंह चौहान ने तथा संचालन हरिश्चंद्र त्रिपाठी हरीश एवं धन्यवाद प्रकाश आनंद स्वरूप श्रीवास्तव द्वारा किया गया।

कार्यक्रम में सर्वप्रथम गोवा में आयोजित हिंदी दिवस पर लेखक मिलन समारोह पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग द्वारा रायबरेली के डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज को “आर्मंड डी सूजा साहित्यिक यायावर सम्मान ” से सम्मानित किए जाने पर जनपद के कवियों द्वारा स्वागत एवं उनका अभिनंदन किया गया । जिसमें रायबरेली जनपद के दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश , सुरेश चंद्र शुक्ला, कृष्णानंद त्रिपाठी, अश्विनी कुमार श्रीवास्तव, अंगद प्रसाद त्रिवेदी, गंगा सहाय द्विवेदी, अशोक मिश्रा साथी , अभिमन्यु सिंह , गंगा प्रसाद चौधरी, अजय मिश्र , शैलेंद्र सिंह, रमेश कुमार सिंह आदि प्रबुद्ध लोग उपस्थित रहे ।

गोष्ठी के अंत में विगत दिनों रायबरेली जनपद के यशस्वी वरिष्ठ साहित्यकार डॉ .राधे रमण त्रिपाठी रमणेश, एवं पुलिस विभाग में कार्यरत प्रसिद्ध गीतकार, गज़लकार दिनेश कुमार मिश्र स्नेही तथा दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश की पत्नी के आकस्मिक निधन पर 2 मिनट का मौन रखकर ईश्वर से उनकी आत्मा को शांति देने की तथा उनके परिवार को असहनीय दुख सहने की क्षमता प्रदान करने की कामना की गई ।उपस्थित साहित्यकारों ने उनके निधन को अपूर्णीय छति बताया।