स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों का भारत आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलने लगी थी। तत्पश्चात सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया था। बहुत संघर्ष के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों पर तरह–तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखते हुए तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।


पोर्ट ब्लेयर स्थित सेल्यूलर जेल में बंद निर्दोष क्रांतिकारियों, स्वातन्त्र्य वीरों पर किया गया जुल्म–ओ–सितम और यातनाओं की दर्द भरी दास्तां सुनकर दिल दहल जाता है, जिसके कारण उस स्थान को ‘काला पानी’ की संज्ञा दी गई है। वहां की घटनाओं और जुल्म को पढ़कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।


क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी।

स्वाधीनता संग्राम में अवध का बैसवाड़ा क्षेत्र कहीं से भी पीछे न रहा, अपितु रायबरेली में ही शंकरपुर, भीरा गोविंदपुर, मुंशीगंज, फुरसतगंज, सेहंगो, करहिया बाजार, सरेनी आदि क्षेत्रों में फिरंगियों के खिलाफ बिगुल बजाया गया। सरेनी में 18 अगस्त सन 1942 को गोलीकांड हुआ था, जिसका संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत है–
रायबरेली के बैसवारा क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र अथवा राजधानी भले ही लालगंज रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सरेनी ही प्रसिद्ध है। गुप्त काल के पूर्व से इस क्षेत्र का अस्तित्व माना जाता है। प्रमाण स्वरूप सरेनी गांव के उत्तर पूर्व में प्रसिद्ध सिद्धेश्वर मंदिर में गुप्तकालीन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। सरेनी की बाजार रायबरेली के पुराने बाजारों में गिनी जाती है। यहाँ पर उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली के व्यापारी खरीद-फरोख्त करने आते हैं।
ब्रिटिश शासनकाल में ही सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी।
ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त सन 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास प्रतिबिंबित करता है। देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को हजारों की संख्या में सरेनी विकासखंड निवासी देशभक्त तिरंगा फहराने के लिए थाने की ओर बढ़ने लगे। ब्रिटिश सिपाहियों की गोलियां इन वीरों के कदमों को रोक न सकी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सरेनी क्षेत्र के चौकीदारों ने रामपुर कला निवासी ठाकुर गुप्तार सिंह के नेतृत्व में 11 अगस्त सन 1942 को सरेनी बाजार में बैठक किया जिसमें निर्णय हुआ कि शीघ्र ही सरेनी थाना में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त 1942 को हैबतपुर में विशाल जनसभा में गुप्तार सिंह ने आंदोलन को अंतिम रूप देते हुए तिरंगा फहराने की तिथि 30 अगस्त सन 1942 निर्धारित की। कुछ वसंती चोले वाले वीर युवकों ने 30 अगस्त के बजाय 18 अगस्त को ही थाना में तिरंगा फहराने की ठान ली। युवाओं के आह्वाहन पर हजारों की संख्या में भीड़ सरेनी बाजार में एकत्रित हुई। तत्कालीन थानेदार बहादुर सिंह ने भीड़ को आतंकित करने के लिए नवयुवक सूरज प्रसाद त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया। यह खबर आग की तरह फैलते ही आजादी के दीवानों ने थाने पर हमला कर दिया। हमले में कई ब्रिटिश सिपाहियों को चोटें भी आई। आक्रोशित थानेदार और सिपाहियों ने थाने की छत पर चढ़कर निहत्थे जनता पर अंधाधुंध गोलियां चलाना शुरू कर दिया। इस अप्रत्याशित गोलीकांड में भारत माँ के 5 वीर सपूत– टिर्री सिंह (सुरजी पुर), सुक्खू सिंह (सरेनी), औदान सिंह (गौतमन खेड़ा), राम शंकर त्रिवेदी (मानपुर), चौधरी महादेव (हमीर गांव) शहीद हो गए।
रणबाकुरों ने अपनी शहादत स्वीकार की, लेकिन वो ब्रिटिश हुकूमत के आगे न डरे, न झुके। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले पाँच शहीदों की याद में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। इसके ठीक बगल में शहीद जूनियर हाई स्कूल परिसर में छोटा शहीद स्मारक का भी निर्माण कराया गया। दोनों स्मारक गर्व से सीना ताने गोलीकांड और अमरत्व को प्राप्त हुए वीर सपूतों की स्वर्णिम गाथा का मूक गवाह बन कर खड़े हैं।
सरेनी स्थित शहीद स्मारक पर सन 1997 से प्रतिवर्ष 18 अगस्त को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

डॉ अशोक कुमार गौतम
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

साहित्य के क्षेत्र में युवा साहित्यकार समीक्षक दया शंकर को अवधी गौरव रजत सम्मान 2024 से सम्मानित

नेपाल : मित्र राष्ट्र नेपाल में अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान केंद्रीय कार्य समिति द्वारा चौथा अंतरदेशीय अवधी महोत्सव, रजत जयंती दिवस तथा 527वां गोस्वामी तुलसीदास जयंती समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में जनपद के युवा साहित्यकार दयाशंकर को बतौर मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।कार्यक्रम के मुख्य अतिथि नेपाल राष्ट्र के वन तथा वातावरण मंत्री माननीय बादशाह कुर्मी विशिष्ट अतिथि डॉक्टर पंकज गुप्ता रहे। कार्यक्रम की शुरुआत गणेश स्तुति तथा ज्ञान की देवी मां सरस्वती वंदना से की गई।

देश-विदेश से आए साहित्यकारों ने अपनी- अपनी विधा की रचनाएं पढ़ कर खूब तालियां बटोरी। बताते चलें कि अंतर्देशीय अवधी महोत्सव में शिक्षा, स्वास्थ्य,कला,साहित्य, संस्कृति,समाज सेवा के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करने वाले विशिष्ट जनों को अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान हर वर्ष सम्मान प्रदान करता है।

इसी क्रम में साहित्य के क्षेत्र में युवा साहित्यकार समीक्षक दया शंकर को अवधी गौरव रजत सम्मान 2024 से सम्मानित किया गया। दयाशंकर एक प्रखर वक्ता और निष्पक्ष लेखक के रूप में जाने जाते हैं इनकी कहानी आलेख देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

इनकी उपलब्धि पर डॉ संत लाल, डा मनोज त्रिपाठी,डा बी.डी.मिश्र, डॉ संजय सिंह, डा आजेन्द्र सिंह,डा अजय सिंह चौहान डा किरन श्रीवास्तव,डा संतोष, डा अशोक कुमार, रवीन्द्र सिंह,कुंवर सिंह, अभिलाषा,सहित बहुत से लोगों ने बधाई दी।

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
(बालकांड, रामचरित मानस – गोस्वामी तुलसीदास)
महिमा मंडित भारत वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी, सम्राट अशोक जैसे महापुरुषों की जमीं है, जिन्होंने हमेशा शांति व सद्भाव का संदेश दिया है। इसलिए भारत शांतिप्रिय राष्ट्र था और यही मर्यादित परंपरा आज भी संपूर्ण राष्ट्र में विद्यमान है। जिसका फायदा कहीं न कहीं विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। जब–जब भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों ने व्यापार का बहाना बनाकर आक्रमण करके शासन करना चाहा, तब हमारे राष्ट्र के निडर, शूरवीर, अमर शहीदों ने मानो ईश्वरीय शक्ति के साथ जन्म लिया। फिर इन योद्धाओं ने फिरंगियों के अहंकार व उनके साम्राज्य का समूल विनाश करते हुए, उनके हलक में हांथ डालकर वापस सिंहासन छीना था। ऐसे अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आजीवन ऋणी रहेंगे।

थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?
सुंदरियों ने जहाँ देश-हित, जौहर-व्रत करना सीखा।
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा।।
वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा। वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥

कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ’हल्दीघाटी’ में उक्त कविता को लिखकर स्वतंत्रता, संघर्ष और त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। इतना ही नहीं, कवि श्याम नारायण ने महाराणा प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों और भारत माता के रखवालों को ’सन्यासी’ की संज्ञा दी है, स्त्रियों को आत्म सम्मान व अपने संतानों की रक्षा करना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ स्वीकार किया है।
संन्यासी रूपी अमर शहीदों के श्री चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज हम गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों के आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलती रही हैं। यह ठीक है कि सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया है। तत्पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने क्रांतिकारियों तरह तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखकर मारा गया। तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।
पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्युलर जेल की दर्द भरी दास्तां रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। सन 1857 से 1947 के मध्य की दिल दहला देने वाली सत्य कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसुओं के साथ ज्वाला भी निकलेगी, कि क्रूर अंग्रेजों इतना जुल्म–ओ–सितम भारतीयों पर किया है। क्रांतिकारियों को ’देश निकाला’ की सज़ा देकर कैदी बनाकर सेल्युलर जेल रखा जाता था। एक कैदी से दूसरे से बिलकुल मिल नहीं सकता था। जेल में हर क्रांतिकारी के लिए एक अलग छोटा सा ऐसा कमरा होता था, जिसमें न ठीक से पैर पसार सकते थे , न ही ठीक से खड़े हो सकते थे। जो क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बोलते थे, अंग्रेज सिपाही उनके कमर में भारी पत्थर बांधकर समुद्र में जिंदा ही फेंक देते थे। एक कमरा में एक ही क्रांतिकारी को रखा जाता था। हांथ पैर में बेड़ियां और अकेलापन भी कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। शायद इसीलिए सेल्युलर जेल को ’काला पानी’ की संज्ञा दी गई थी।
स्वातन्त्र्य वीरों की यातनाओं को सुनकर दिल दहल जाता है। हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। इनकी यातनाओं की अत्यन्त करुण गाथा है। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया। हमारी आज की स्वतंत्रता का भव्य भवन अर्थात राष्ट्र मंदिर ऐसे ही क्रांतिकारी और बलिदानों की नींव पर टिका है। भारत के ये वीर सपूत हमारे प्रेरणापुंज हैं।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी। यदि हम प्रत्येक महापुरुष की अलग–अलग सम्पूर्ण जीवनी लिखने बैठेंगे तो, कागज, कलम और स्याही भले ही कम पड़ जायेगी, किंतु उनके त्याग व तपस्या की वीरगाथा की सत्यवाणी छोटी नहीं पड़ेगी। वैसे तो सत्तावनी क्रान्ति में अमरता को प्राप्त हुए भारत माता के लालों की शौर्य गाथा शब्दों में बयां करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
अंग्रेजों के सामने नतमस्तक न होने पर जेल यात्रा करने वाले क्रान्तिकारी और ओजस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने राष्ट्र के शहीदों के लिए समर्पित कविता में ‘पुष्प की अभिलाषा’ व उसके अंतर्भावों का मार्मिकतापूर्ण वर्णन करते हुए लिखा है—
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।”

प्रत्येक जीवनी बलिदानियों की देश के प्रति अटूट निष्ठा, जीवन संघर्ष और उनके कर्म पथ को चित्रित करती है। स्वाधीनता आन्दोलन में महिला और पुरुष दोनों ने त्याग और बलिदान दिया है, इसलिए दोनों को सम्मिलित किया गया है। हर जाति—धर्म के नामों को इसमें समाविष्ट किया गया है।
तिलका मांझी, बांके चमार, मातादीन भंगी, राजा राव राम बख्श सिंह, वीरा पासी, राणा बेनी माधव सिंह, ऊदा देवी पासी, बहादुर शाह ज़फ़र, माधौ सिंह, जोधा सिंह अटैया, उय्यलवाड़ा नरसिम्हा रेड्डी, टंट्या भील, रानी गिडालू, झलकारी बाई, बसावन सिंह, गंगू मेहतर, कुंवर सिंह, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, रणवीरी वाल्मीकि, जैसे अनेक क्रांतिकारी वीर सपूत, जिनका नाम तक इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है, इन सब के विषय में सम्यक जानकारी देने का मेरा प्रयास है।
आज की परिस्थितियों और भौतिकवादी युग में जब महान राष्ट्रीय मूल्य और इतिहास में महापुरुषों के प्रति हमारी आस्था दरकने लगी है, तो ऐसे समय में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के स्वर्णिम नाम वर्तमान और भविष्य की युवा पीढ़ी में सौम्य उत्तेजना पैदा करके उन्हें राष्ट्रभाव से ऊर्जस्वित करने का कार्य करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।
पुनः राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इन पंक्तियों को याद करना मुझे समीचीन मालूम पड़ रहा है–
जला अस्थियां बारी-बारी,
फैलाई जिसने चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन की मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।।

सत्तावनी क्रांति के ज्ञात–अज्ञात अमर शहीदों, क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के श्री चरणों में पुनः श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आने वाली पीढ़ी को महापुरुषों की शौर्य, पराक्रम, त्याग, वैभव आदि पढ़ने और उन वीरों को स्मरण करने के लिए बारंबार निवेदन करता हूं।
जय हिन्द वंदे मातरम्

डॉ अशोक कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ.प्र.)
मो० 9415951459

पुस्तक समीक्षा | अठारह पग चिन्ह | रश्मि लहर | पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

एक समीक्षा
पुस्तक अठारह पग चिन्ह
लेखिका-रश्मि लहर
पृष्ठ*95 मूल्य₹150/
प्रकाशन * बोधि प्रकाशन
Isbn:9789355367945

‘अठारह पग चिन्ह’

“तुम्हे देखा नहींं लेकिन नज़र में बस गए हो तुम,
ये सच है हॅंसी की सुरमई सी लालिमा हो तुम।”

बड़ी रोचक बात है कि हमने एक-दूसरे को अभी तक देखा नहीं है ,लेकिन विश्वास की नदी का प्रवाह गति के साथ अविरल है।
पंक्तियाॅं उकेरते हुए मन आह्लादित हो उठा।

मेरी प्रिय सखी रश्मि ‘लहर’ जी का कहानी संग्रह ‘अठारह पग चिन्ह’ हाथ में आते ही अथाह प्रसन्नता हुई।

जीवन-लहरों से अंजुरी भर अनुभवों को बटोरते हुए, शब्दों के माध्यम से कागज पर उकेरते हुए, हृदय पर अंकित कर देने का अद्भुत प्रयास कहानीकार की लेखनी को शीर्ष पर विराजमान कर देता है।

‘अठारह पग चिन्ह’ नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए हर पग पर जीवन का एक चित्र मिलता है। इस यात्रा में कहानीकार और पाठक के बीच का अन्तर समाप्त होता महसूस किया हमने।

आदरणीय माया मृग जी का ये वक्तव्य कि
“ये आपकी कहानियाॅं हैं, सिर्फ कहानीकार की नही” अक्षरशः सत्य सिद्ध होता है।

यात्रा प्रारंभ करते ही ‘लव यू नानी’
पत्र के माध्यम से बड़ा ही मजबूत संदेश देती हुई कहानी मन को भाव विभोर कर जाती है।

‘करवा चौथ’ जैसी कहानी मानवता के दायित्व का निर्वहन दर्शाती है।आगे बढ़ते हुए पुनः जीवन के बीच से उभर कर मन को आह्लादित कर देती है।

कहानी ‘प्रेम के रिश्ते’ में पर शोएब चचा कोरोना जैसी महामारी को भी अपने दायित्व के बीच नहीं आने देते। मानवता की मशाल जलाते हुए यह कहानी समाज को एक सीख दे जाती है।

‘बावरी’ को पढ़ते हुए ऑंख भर आती है, स्वतः एक चित्र मस्तिष्क पर खिंच जाता है।हृदय चीख उठता है।

अनुत्तरित प्रेम के दीप के रूप में ‘अनमोल’
कहानी निरंतर मद्धम लौ की तरह प्रकाशित होते रहने का पर्याय है।

ममता का सिंधु समेटे समाधान के साथ खड़ी हो जाती हैं ‘अम्मा’।

‘अचानक’ कहानी को पढ़ते वक्त मन तीन स्थान पर ठहरता है।

पहला कि नकारात्मकता गुंडो के रूप में समाज में अवसर मिलते ही हावी हो जाती है।
दूसरा दादी के रूप में दूसरे की पीड़ा को न समझने वाले लोग। और तीसरा संकल्प और संकल्प की माॅं ,जो रूढ़ियों को तोड़ते हुए सुलभा की पीड़ा में दुखी हैं, और सुलभा से विवाह करने के लिए अड़े हुए हैं। यह कहानी समाज के बीच पथ प्रदर्शिका का कार्य करती है। कहानीकार और लेखनी दोनो को
साधुवाद।

‘असली उत्सव’, ‘अद्भुत डॉक्टर’, ‘तेरी बिंदिया रे’ सभी कहानियाॅं पाठक को बाॅंधें रखने में समर्थ हैं।

धीरे-धीरे कदम रखते हुए ‘लव यू गौरव’ और ‘गुलगुले’ पर ठहरना पड़ जाता है।

मां की ममता और संवेदना की लहर थामे नहीं थमती है। कहानी समाप्त होते-होते नेत्रों का बाॅंध टूट जाता है, और ऑंसू रूपी गुलगुले बिखर जाते हैं।

प्रणाम करती हूॅं कहानीकार की अंजुरी को जिसमें भावनाओं के पुष्प एक गुच्छ के रूप में एक साथ समाहित हैं।

‘अतीत के दस्तावेज’ में आज के स्वार्थी संतानों की लालची और विकृत मानसिकता को उधेड़ने का सार्थक प्रयास करते हुए नज़र आती है लेखनी।

‘शिरीष’, ‘संयोग’ और ‘कैसे-कैसे दु:ख’ के माध्यम से जीवन के बड़े नाज़ुक पहलुओं को छूने का प्रयास किया है कहानीकार ने।

एक के बाद एक सभी कहानियाॅं भावनात्मकता का सजीव निर्वाह करती हैं।प्रवाहमयता के साथ-साथ पाठक को अपने में डुबा लेने का अद्भुत सामर्थ्य है इन कहानियों में।

ये समाज के बीच ज्वलंत प्रश्नों को उठाती हैं, और समाधान भी प्रस्तुत करती हैं तथा अंत में उद्देश्य परक संदेश प्रेषित करते हुए सार्थकता को पोषित करती हैं।

मैं ‘अठारह पग चिन्ह’ कहानी संग्रह की सफलता की कामना करती हुई प्रिय मित्र रश्मि ‘लहर’ जी की लेखनी और भावों की सरिता का आचमन करते हुए प्रणाम करती हूॅं।

पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’
रायबरेली

अमर शहीद वीर पांड्या कट्टाबोम्मन : दक्षिण भारत के रोबिन हुड

भारत को फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालीयों व अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए देश के कोने-कोने से वीर पुरुषों और वीरांगनाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए प्राण न्योछावर कर दिया। तब सन 1857 से प्रारम्भ हुई स्वाधीनता के संघर्ष की यात्रा लगभग 90 वर्ष बाद 15 अगस्त सन 1947 को स्वतंत्रत भारत के रूप मे दिखाई दी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक के असंख्य वीरों ने अपने लहू के एक एक बूँद से फिरांगियों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ी है।
    दक्षिण भारत के रोबिन हुड कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरपाड्या कट्टाबोम्मन का जन्म 03 जनवरी सन 1760 को मद्रास प्रेजिडेंसी के तहत तमिलनाडु के पंचलकुरिचि नामक ग्राम के तमिल समुदाय में हुआ था।
     पिता जगवीरा कट्टाबोम्मन व माता श्रीमती अरुमुगाथमल राजसी परिवार से संबंधित थे। अंग्रेजों को उनकी रियासत पर नजर लग चुकी थी। किसी भी हाल में अंग्रेज जगवीरा का साम्राज्य समाप्त कर उन्हें अपना गुलाम बानाना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
वीरपांडिया कट्टाबोम्मन को तमिलनाडु के पंचलकुरिचि और पलायकर (तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक ) का शासक नियुक्त किये जा चुका था। पॉलिकर वो अधिकारी होते थे, जो विजय नगर साम्राज्य के तहत कर Tax वसूलते थे।
     ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वीरपाण्डेया को अपना साम्राज्य देने का सन्धि प्रस्ताव भेजा किन्तु, शासक वीरपांडीया ने ब्रिटिश प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। कुछ दिन बाद षड़यंत्र के तहत फिरंगियों ने पदुकोट्टई और टोंडाईमन रियासत के राजाओं के साथ मिलकर वीरपंड्या कट्टाबोम्मन को पराजित कर दिया। पॉलिगर का यह प्रथम युद्ध कहा जाता है। पॉलिगर या पालियाक़र का युद्ध तमिलनाडु में तिरुनेवल्ली के शासक और ब्रिटिश हुकूमत के मध्य लड़ा गया। अंततः ब्रिटिश सेना की जीत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारकर अपनी पैठ मजबूत कर ली। अब धीरे धीरे अंग्रेज दक्षिण भारत में अपनी शासन-सत्ता चलाने लगे थे।
     अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के मद्रास प्रेजिडेंसी परिक्षेत्र में अब तेजी से अपना साम्राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया, साथ ही कर Tax वसूली की गोपनीय योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
     हम स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत सन 1857 से मानते हैं, किन्तु इससे भी कई दशक पूर्व तिलका मांझी, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन आदि क्रन्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का आगाज कर चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्रांति की शुरुआत सन 1857 से लगभग 60 वर्ष पूर्व सन 1787 में अंग्रेजों के खिलाफ शंखनाद कर दिया था।
     पॉलिगार का युद्ध के समय वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों से कहा कि- ‘हम इस भूमि के बेटे बेटियाँ हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान कि दुनिया में रहते हैं। हम विदेशियों के सामने सर नहीं झुकाते। हम मरते दम तक लड़ेंगे।’ इस प्रकार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने फिरंगियों को अपने पूर्वजों का शासन और अपना संघर्षशील मंतव्य प्रकट कर दिया था।
     ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सर्वप्रथम कर Tax संग्रह की आपस में योजना बनाई। तत्पश्चात कर्नाटक में अर्कोट के नवाब से कर संग्रह की एक प्रकार से नौकरी रूप में अनुमति माँगी। अनुमति मिलते ही जनता पर अधिक कर Tax थोपना शुरू कर दिया। धीरे धीरे ब्रिटिश कम्पनी ने अपनी आय और प्रभुसत्ता बढ़ाने के साथ ही स्थानीय रियासतों के राजाओं की शक्तियाँ क्षीण कर दी। ठेकेदारी भी स्वयं करवाने लगे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की कूटरचित चालें समझ चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब अंग्रेजी हुकूमत और अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारतीय लोगों को एकत्रित करके छोटी-छोटी बैठकें करने लगे, तो कभी-कभी रैलियाँ भी निकालते थे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्षेत्रीय रियासत के राजाओं से जन-बल व धन की मदद मांगी। राजा शिवकाँगा और राजा रामनाद आदि साथ खड़े हो गए, क्योंकि भविष्य में उन पर भी खतरा का बादल मंडरा सकता था।
     वीरापांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों को कर Tax देने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के मन में तो विश्वासघात की कूटनीति चल ही रही थी। पंचालकुरिचि में एक मीटिंग के दौरान वीरपांड्या कट्टाबोम्मन और अंग्रेज अफसर क्लार्क के मध्य वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि कट्टाबोम्मन ने अंग्रेज अफसर की मीटिंग के दसरान ही हत्या कर दी। इससे ब्रिटिश अधिकारीयों के अंदर खौफ़ भर गया, किन्तु अंदर ही अंदर षड़यंत्र करने लगे।
     कुछ समय बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर देखकर पंचालकुरिचि पर जोरदार धावा बोलकर वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के 17 सैनिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया। फिरंगियों ने वीरपांड्या के सबसे विश्वासपात्र थानापति पिल्लई का सिर काटकर पेड़ से लटका दिया। उसके बाद निर्दयी फिरंगियों एक-एक कर शेष सभी साथियों को मार डाला। इस हमले में वीरपांड्या कट्टाबोम्मन बचकर निकल गए थे, किन्तु अपने 17 साथियों की दर्दनाक मृत्यु पर बहुत रोये थे।
     अंग्रेज हुक्मरान लगातार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन को खोजने में लगे थे। जल, जंगल गाँव सब जगह की खाख छान रहे थे। अंत में 24 सितंबर सन 1799 को वीरपांड्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया। वीर सपूत पर फर्जी मुकदमें चलाकर एक माह के अंदर ही निर्णय सुनाकर कायाथारू (तमिलनाडु) में 16अक्टूबर सन 1799 को फाँसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के ख़ास विश्वासपात्र साथी सुब्रमण्यम पिल्लई  को भी फाँसी दे दी थी।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन की फाँसी के बाद भी दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की लौ धीमी नहीं पड़ी। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के भाई ओम मदुरई मोर्चा सँभालते हुई अंग्रेजों से लड़ते रहे, किन्तु ब्रिटिश हुक़ूमत के आगे उनकी भी न चली। जल्द ही गिरफ्तार करके आजीवन कारावास कि सजा देकर जेल में कैद कर दिए गए।
    वीरपांड्या कट्टाबोम्मन  की स्मृतियों को ताज़ा रखने के लिए वहाँ का किला का नाम, डाक टिकट, शहीद स्मारक, नौसेना का कट्टाबोम्मन जहाज आदि के नाम दिए गए हैं।

डॉ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
(अध्यक्ष हिंदी विभाग)
रायबरेली  उ•प्र
मो.  09415951459

हजारी लाल तिवारी काव्य भूषण सम्मान’ से लखनऊ में सम्मानित हुए वरिष्ठ कविगण

Lucknow: कल दिनाॅंक 14.07.24 को वरिष्ठ कवि श्री सत्येन्द्र तिवारी जी के लखनऊ स्थित आवास पर आदरणीय भूपेन्द्र सिंह ‘होश’, शैलेन्द्र शर्मा, उपेन्द्र वाजपेई तथा कमल किशोर ‘भावुक’ जी को पं . हजारी लाल तिवारी काव्य भूषण सम्मान ‘ से सम्मानित किया गया।

आत्मीय साहित्यिक समागम के विशेष आयोजन में देश के सुप्रसिद्ध पर्वतारोही/फोटोग्राफर उपेन्द्र वाजपेई जी के साथ कानपुर के वरिष्ठ कवि आदरणीय शैलेन्द्र शर्मा जी की रचनाओं को सुनकर लोग वाह-वाह कर उठे। आदरणीय भूपेन्द्र सिंह ‘होश’, कमल किशोर ‘भावुक’, कुलदीप ‘कलश’ के साथ सत्येन्द्र तिवारी के गीतों ने कार्यक्रम को अद्भुत ऊॅचाइयाॅं प्रदान कीं। संजय ‘सागर’, रश्मि ‘लहर’, आदर्श सिंह ‘निखिल ‘ जी सहित कई रचनाकारों की उपस्थिति से समारोह ने एक भव्य स्वरूप ले लिया। कार्यक्रम का प्रारंभ सत्येन्द्र तिवारी के नातियों क्रमशः दिव्यांश एवं अर्णव द्वारा संस्कृत की वाणी वन्दना से किया गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर सत्येन्द्र तिवारी ने सभी का आत्मीयता से आभार व्यक्त किया।

एक कप दूध | Hindi Story | डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

आज रामसिंगार बाबू के घर सुबह से ही ज़ोर ज़ोर से चीखने की आवाज़ आ रही थी। दरअसल कल उनका अपनी पत्नी से किसी बात पर बहस हो गई थी। बहस लंबी चली। मानों दोनों बहस के युद्ध में पूरी तैयारी से उतरे हों। रामसिंगार बाबू की पत्नी शहर के एक प्रतिष्ठित बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत हैं। कल रात सात बजे थकी मांदी घर पहुंची। अमूमन वे छ: बजे तक घर पहुंच जाया करती थी, लेकिन आज कैश काउंटर पर बड़ी भीड़ थी। जिस काउंटर पर कैश जमा होता था, वे साहब आज अवकाश पर थे।‌ एक ही काउंटर पर लेन- देन दोनों हो रहा था।‌ शाम को साढ़े चार बजे काउंटर क्लोज होने पर उनकी पत्नी दीक्षा ने हिसाब मिलाया तो दस हजार रुपए कम था। वे घबरा गई। ऐसा प्रतीत हुआ कि उनके पैर‌ से जमीन खिसक गई हो।‌ पसीना उनके माथे से निकलकर उनकी पूरी साड़ी को भिगोने लगा। इस महंगाई में दस हजार रुपए का नुक़सान एक बड़ा नुक़सान था। वे सोचने लगी कि अभी मकान मालिक का किराया भी देना है। बच्चों की फीस भी बाकी है। घर के चूल्हे की मद्धिम और तेज लौ दीक्षा की सैलरी के लाइटर पर ही निर्भर रहती थी।‌ शहर के एक निजी कंपनी में उनके पति एक मामूली सा काम करते थे, वे अपना खर्च निकाल लें यही दीक्षा के लिए बहुत था। इसी बात को लेकर आए दिन‌ दीक्षा के अहंकार की तलवार राम सिंगार के ऊपर चल जाया करती थी। राम सिंगार अपनी इन कमज़ोरियों से पूरी तरह वाकिफ थे। इसलिए पत्नी के क्रोध के तेज़ाब से वे हमेशा अपने को बचाते थे लेकिन कभी-कभी उसके छींटें से वे बच नहीं पाते थे।
उधर दीक्षा रुआंसा चेहरा लेकर मैनेजर के पास गयी। बोली सर आज मेरा हिसाब नहीं मिल रहा है। मैंने पूरा बाउचर चेक कर लिया है सर दस हजार रुपए कम आ रहे हैं, अगर बंटी को मेरे कैश मिलान के लिए कह दें तो मुझे सर सुविधा हो जायेगी।
मैनेजर ने कहा, देखिए मैम यह आपका रोज़ रोज़ का है। कभी हिसाब नहीं मिलता है कभी बाउचर पर मुहर लगाना भूल जाती हैं और आए दिन कुछ न कुछ गलतियां!
आए दिन लेट आती हैं यह सब नहीं चलेगा।‌ दरअसल मैनेजर मैम को ऊपरी तौर पर तो डांट रहा था, लेकिन उसकी वासनात्मक आंखों की कड़ाही में मैम के सौंदर्य की मछली नृत्य रही थी। वह इस मछली को किसी भी तरह से पाने के लिए अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए हुए था। आज मछली फंस गई थी।
मैनेजर शंभूसिंह जब से इस बैंक में आएं हैं उनकी इस हरकत से बैंक में कार्यरत तमाम महिलाएं अपना ट्रांसफर करवाकर दूसरे अन्य बैंक में चली जाती थीं। दीक्षा को आए इस बैंक में चार महीने ही हुए थे वह अपने काम में निपुण थी। बैंक मैनेजर को शिकायत का कभी मौका भी नहीं देती थी लेकिन जब संयोग खराब हो तो सावधान जानवर भी विदग्ध आखेटक के जाल में फंस जाता है और असहाय महसूस करते हुए दया की भीख मांगता है। आज दीक्षा की भी यही स्थिति है। बेचारी आज जाल में फंस चुकी थी। उसने कहा सर आज मुझे बहुत जल्दी है। बंटी से कह दीजिए कि वह मेरा सहयोग कर दे। मैनेजर ने संकेत संकेत में बंटी को मना कर दिया था।
बेचारी अपने केबिन में आकर रोने लगी। वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी। तभी मैनेजर ने मैम को चैंबर में बुलाकर कहा कि ठीक है मैम आप घर जाइए! मैं हिसाब मिलवा लूंगा। दीक्षा को एक पल की खुशी तो मिली लेकिन वह मैनेजर की गिद्ध दृष्टि की आंखों में वासना की बनती बिगड़ती रेखाओं को पढ़ चुकी थी।‌
वहां से घर आने में सात बज चुके थे। उसे भूख और प्यास लगी थी। आते ही वह कटे वृक्ष की तरह विस्तर पर गिर चुकी थी।
अपने पति राम सिंगार को आवाज देते हुए चाय बनाने के लिए कही।राम सिंगार भी दिन भर का भूखा था,उसने कहा तुम खुद बना लो!
इतना सुनते ही वह बिगड़ैल बैल की तरह भड़क उठी और उसने अपनी ज्वलनशील वाणी के तेज़ाब में पति को इस तरह नहलाया कि अगल बगल की बिल्डिंग भी इस छींटें से नहीं बच सकी। रामसिंगार अपने क्रोध को अपने विवेक के जल से
नहीं शांत करते,तो आज कुछ भी हो सकता था। रात के ग्यारह बजे रहे थे। अंधेरी रात थी। झमाझम बारिश हो रही थी। दीक्षा कोपभवन में जा चुकी थी। राम सिंगार को बहुत ज़ोर से भूख लगी थी दोपहर में भी उसने कुछ नहीं खाया था। जाकर रसोईघर में देखा तो सारे बर्तन जूठे पड़े थे। फ्रिज में एक कप दूध रखा था‌। रात को कुछ बनाने की स्थिति में नहीं था। रामसिंगार ने दूध गरम होने के लिए रख दिया। रसोईं में कुछ ढूँढ़ रहे थे कि दूध के साथ खाकर सो जाया जाए कि अचानक पत्नी की सुध आई और पता नहीं क्या हुआ कि बड़ी ख़ामोशी से उन्होंने जूठे बर्तन साफ़ किए और भगोने में दाल चावल डाल कर खिचड़ी चढ़ा दी।
अपनी ज़िंदगी को कोसती दीक्षा भूख अपमान और क्रोध से करवटें बदल रही थी। सिर फटा जा रहा था। अचानक उठी कि किचन में जाकर कुछ खा लूँ और क्रोसीन ले कर सो जाऊँ कि अचानक बत्ती जली और देखा कि रामसिंगार एक हाथ में खिचड़ी की थाली और दूजे में पानी का गिलास लिए सामने खड़े हैं और खिचड़ी से देशी घी की सुगंध नथुनों में ज़बरदस्ती घुसी जा रही थी।

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

प्यासा कलश | नरेन्द्र सिंह बघेल | लघुकथा

यह जरूरी नहीं कि जो कलश भरा दिखाई देता हो प्यासा न हो । इस पीड़ा को कलश बनाने वाला सिर्फ कुम्हार ही समझ सकता है , इसीलिए वह ग्राहक को कलश बेचते समय कलश को ठोंक बजा कर इस आश्वासन से देता है कि इसका पानी ठंडा रहेगा ।सच बात यह है कि जब तक वह अपनी बाह्य परत से जलकण आँसू के रूप में निकालता है तब तक कलश का जल शीतल रहता है , यदि कलश से आंसू निकलने बंद हो जाएं तो फिर जल की शीतलता भी गायब हो जाती है । इसलिए तन को शीतल रखने के लिए आँसू निकलना भी जरूरी रहता है जो मानसिक विकार को तन से निकाल देते हैं ।कलश से आँसू निकलने का फार्मूला सिर्फ कुम्हार को ही पता है , वो कुम्हार जो सृष्टि का नियंता है । जो आँसू निकलते हैं उन्हें निकल जाने दें ये निकल कर तन को शीतल ही करेंगे । प्यासा कलश दूसरों की प्यास शीतल जल से जरूर बुझाता है पर खुद प्यासा रहकर लगातार आँसू ही बहाता रहता है । बेचारा प्यासा कलश ।
*** नरेन्द्र ****

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किराये का रिश्ता | रत्ना भदौरिया

दो दिन पहले फेसबुक पर एक लाईन पढ़ी ‘उसके साथ रिश्ता मेरा किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ। अभी पढ़ ही रही थी कि दिमाग ने चलना शुरू कर दिया और चार साल पहले इन्हीं पंक्तियों में जुड़ी मेरी एक सहेली जो आज भी यही सोच के साथ जिंदगी काट रही है। जब तब मैं अपने गांव जाती हूं तो उससे जरुर मिलती हूं फिर वो घंटों बैठकर अपनी कहानी सुनाती है मुझे।

आज इस लाइन को पढ़ते ही एक बार फिर वो और उसकी कहानी याद आ गयी स्नातक की पढ़ाई के बाद उसने बी टी सी के लिए दाखिला लिया और मैं आगे की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद चली गई। बी टी सी करते करते उसे एक लड़के से प्यार हो गया। प्यार सिर्फ प्यार तक सीमित नहीं रहा बात शादी तक पहुंची। दोनों तैयार थे लेकिन जिंदगी ने ऐसा मोड़ लिया कि मेरी सहेली उमा के पापा की मृत्यु हो गई ‌। मृत्यु के अभी पन्द्रह दिन भी व्यतीत नहीं हुए कि उसके प्रेमी ने उससे शादी के लिए घर में बात करने कहा उसने कहा देखो प्यार जितना आपका जरुरी है उतना मेरा भी लेकिन अभी पापा को गये हुए पंद्रह दिन भी नहीं हुए और घर में कोई नहीं है मां को संभालने वाला उसने कहा ठीक है संभालो मां को अपनी उसी दिन से उसने राश्ता बदला और दूसरी लड़की से शादी कर ली। कई महीने बाद पता चला।ये तो आजकल शोसल मीडिया का शुक्र जो बात आयी गयी पता चल ही जाती है।

तब उसने पूछा कि आपने ऐसा क्यों किया ?प्रेमी का जवाब तो क्या करता उधर लड़की भी तुमसे सुंदर,पैसे भी अच्छे मिल रहे थे और तो और शादी भी जल्दी हो गयी ।इधर क्या ? पता नहीं कितने साल तुम अपनी मां को संभालती और बाप तो था नहीं मिलता भी क्या ?अच्छा जब प्रेम किया था तब ये चीजें नहीं देखी थी कि ये उमा खूबसूरत नहीं है और फिर शादी की बात की ही क्यों थी ?तब तुम्हारा बाप नौकरी करता था और न तुम्हारे ऊपर मां का बोझ ढोने की जिम्मेदारी थी। खूबसूरती में नौकरी का क्या लेना- देना उमा ने पूछा ?हो -हो कर हंसते हुए बोला तुम भी उमा कितनी भोली हो अरे नौकरी करता तो मोटी रकम तो देता कमसे कम तेरा बाप ?अच्छा !छोटा सा उत्तर देकर कुछ क्षण उमा चुप रही और फिर एक जोरदार थप्पड़ मारते हुए कहा आज बहुत खुश हूं इसलिए कि मुझे समझ आ गयी।

पापा के जाने से भी आज दुखी नहीं खुश हूं कि शायद वो नहीं जाते तो मैं प्यार में अंधी होकर क्या कर बैठती। अनुतरित, आश्चर्यचकित ज़रुर हूं लेकिन खुश हूं।कहते हुए वहीं लाईन गुनगुने लगी’उसके साथ मेरा रिश्ता किराये के घर जैसा रहा, मैंने उससे सजाया तो बहुत लेकिन वो कभी मेरा न हुआ।।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

लगभग एक वर्ष पहले मुझे एक अविस्मरणीय पुस्तक मिली-‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी | लेखक -अवधेश सिंह जी की | रश्मि ‘लहर’

पुस्तक -‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी’, लेखक -अवधेश सिंह
प्रथम संस्करण -२०२३
मूल्य -रूपये-२९५
प्रकाशक -ए.आर.पब्लिशिंग कंपनी
ISBN: 978-93-94165-02-1
पृष्ठ संख्या -112

लगभग एक वर्ष पहले मुझे एक अविस्मरणीय पुस्तक मिली-‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी’, लेखक -अवधेश सिंह जी की। पुस्तक पढ़ने के मध्य कई बार अश्रुपूरित नेत्रों ने व्यवधान डाला। मैं कई बार फूट-फूट कर रोई भी। बहुत सोचा कि इस पुस्तक पर अपने विचार लिखूॅं, पर, खोये हुए अपनों की स्मृतियों के कारण मन सदैव हिम्मत हारता रहा। आज अपने को संयत कर अपने विचार व्यक्त कर रही हूॅं।

यदि हम ‘सदी की सबसे बड़ी तालाबंदी ‘ की बात करें तो यह पुस्तक कई मायनों में विशिष्ट है। इसमें प्रयुक्त आंकड़ें, उस समय की पारिवारिक स्थितियाॅं, समाज में फैलते स्वार्थ की कटुताऍं तथा व्यक्तिगत हित के भाव की सटीक अभिव्यक्ति इस पुस्तक को अन्य पुस्तकों से एकदम अलग कर देती है। मजे की बात यह है कि लेखक की शैली इतनी रोचक, तथ्यात्मक रूप से परिपक्व तथा सहज है कि पाठक पूरी पुस्तक तन्मयता से पढ़ता चला जाता है। देखा गया है कि कई बार आंकड़ों से जुड़ी पुस्तकें ऊब से भर देती हैं।

लेखक ने संपूर्ण विषय को अट्ठारह भागों में बाॅंट कर लिखा है। महामारी के दौर का आरंभ, चरम सीमा तथा भविष्य में उपजने वाले विभिन्न दुष्परिणामों से निपटने के प्रयासों की सार्थक पहल का भली प्रकार वर्णन किया है। यह पुस्तक अपने विषय-विभाजन के कारण बहुत व्यवस्थित ढंग से पाठकों के मन-मस्तिष्क को छू पाने में तथा प्रभावित कर पाने में पूर्णतया समर्थ रही है। एक उदाहरण देखिए –

९. कोरोना के असली योद्धा विषय के अंतर्गत जब पाठक यह पढ़ता है कि –

“तमाम सुरक्षा कवच से लैस एम्स में अभी तक 489 से अधिक स्वास्थ्यकर्मी कोरोना वायरस की चपेट मे आ गये हैं, जिनमें तीन की मौत डराने वाली है.. कमोबेश यही स्थिति पूरे देश की है, न तो कोरोना वायरस का कहर थमता दिख रहा है, और न कोरोना योद्धाओं का साहस।” यह पढ़कर मन उस विचित्र समय की याद करके चिंतित हो जाता है। लेखक ने जीवन के तथा समाज के हर रूप को शब्दों के माध्यम से चित्रित करने का सफल प्रयास किया है।

यहाॅं पर मैं बनार्ड शों के इस कथन को उद्धृत करना चाहूॅंगी-“विचारों के युद्ध में किताबें ही अस्त्र होती हैं।” इस पुस्तक को पढ़ते समय मुझे यह पंक्तियां एकदम सही प्रतीत हुईं। मुझे लगा कि दहशत भरे उस समय को जब भविष्य में कोई पढ़ना चाहेगा तो मददगारों के विभिन्न रूपों से भी रूबरू होगा तथा मानवीय सरोकारों के नकारात्मक एवं सकारात्मक पक्षों को भी समझेगा तथा उनसे भविष्य को सुरक्षित करने का विलक्षण ढंग सीखेगा।

किताब भले ही महामारी से जुड़ी है, परन्तु उसमें सिमटे मनोभाव पीढ़ियों को प्रभावित करने की अक्षुण्ण क्षमता रखते हैं। पुस्तक पढ़ते समय मुझे अब्राहिम लिंकन जी की यह पंक्तियाॅं याद आ गईं-“मैं यही कहूॅंगा कि, वही मेरा सबसे अच्छा दोस्त है, जो मुझे ऐसी किताब दे जो आज तक मैंने न पढ़ी हो।”
ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक सदियों तक अपनी महत्ता बनाए रखेगी ऐसा मेरा विश्वास है।

इसमें महामारी के समय संपूर्ण विश्व के क्रमानुसार आंकड़ों का यथार्थवादी आकलन किया गया है। मानवीय चेतना को झकझोरने वाले अनुभवों के साथ संदेश देने वाले कुछ वाक्य मन से विलग नहीं होते हैं।

पुस्तक में पृष्ठ संख्या 48 पर कोविड हाहाकार..में लिखित पंक्तियाॅं पढ़कर मन उद्वेलन से भर गया – राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कोविड-19 महामारी के दौरान एक लाख से अधिक बच्चों ने अपने माता-पिता में से एक या दोनों को खो दिया है। न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने राज्यों से सक्रिय कदम उठाने को कहा । अदालत ने कहा, “उन बच्चों की पहचान करें जिन्होंने दोनों या एक माता या पिता को खो दिया है, संकटग्रस्त बच्चों की जरूरतों का पता लगाने के लिए यह एक जरूरी प्रारंभिक बिंदु है।”

ऐसी तमाम बातें आम आदमी को पता ही नहीं हैं। पुस्तक पढ़कर यह भी स्पष्ट होता है कि सरकार किसी भी समस्या से निपटने की तैयारी भी करती है तथा हर ओर अपनी पैनी नज़र रखती है। भविष्य में आम जनता/छात्र-छात्राओं के लिए यह पुस्तक बहुत उपयोगी सिद्ध होगी। क्योंकि लेखक की खोजी दृष्टि से सरकार द्वारा किए कोई कार्य बच नहीं पाए हैं। अमूमन लोगों को इतनी जानकारी होती ही नहीं है कि सरकार या अदालत भी कुछ सहयोग करती है। पुस्तक के अंत में सिख गुरुद्वारा कमेटी, अरदास केन्द्रों तथा छोटी बड़ी व्यक्तिगत संस्थाओं द्वारा की गई मदद की चर्चा समाज के लिए बहुत उपयोगी है। मन यह सोचकर शांत हुआ कि इंसानियत अभी जिंदा है और आगे भी ज़िदा रहेगी। समाज इतना बुरा नहीं हुआ है जितनी बुराई होती है। मानव मानव की पीड़ा समझे तथा बाॅंटे यह किसी भी समाज के उत्थान का संकेत है।

अंत में मैं लेखक को धन्यवाद देना चाहूॅंगी कि उनके सफल तथा सजग प्रयासों के कारण एक सार्थक पुस्तक हम सबके समक्ष है। यदि बात त्रुटियों की करें तो मुझे पुस्तक में न तो कुछ अतिरिक्त लगा, न फर्जी लगा। वर्तनी का भी पूरा ध्यान रखा गया है। बहुत कम ऐसा होता है जबकि कोई पुस्तक इतने गंभीर विषय को समेटने के बावजूद रोचक बनी रहे। भविष्य में भी ऐसी पुस्तकें पढ़ने को मिलेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

मैं सफदर हाशमी साहब की इन पंक्तियों के साथ अपने विचारों को विराम देती हूॅं-
सफदर हाशमी कहते हैं-

किताबें करती हैं बातें
बीते ज़मानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की, कल की
एक-एक पल की
ख़ुशियों की, ग़मों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की
क्या तुम नहीं सुनोगे
इन किताबों की बातें?
किताबें कुछ कहना चाहती हैं।
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं॥

रश्मि ‘लहर’
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
मोबाइल -9794473806