आंखें लघुकथा | प्रदीप सिंह | Hindi Short Story

आंखें ( लघुकथा )

एक लड़की थी , बचपन से ही अंधी थी। उसके बॉयफ्रैंड को छोड़कर , शायद सभी उससे नफरत करते थे। वह हमेशा कहा करती कि अगर मैं देख सकती तो तुमसे जरूर शादी कर लेती।

एक दिन अचानक किसी ने उसे अपनी आंखें दान कर दीं। उसने अपने बॉयफ्रैंड को देखना चाहा। वह उसे देखकर काफी हैरान हुई कि उसने जिसे चाहा वह भी अंधा ही है। लड़के ने पूछा कि अब तो तुम्हें आंखें मिल गई है , अब मुझसे शादी करोगी न ?

लड़की ने अपने पुराने रिश्ते को भुलाकर इस शादी से साफ-साफ इन्कार कर दिया। लड़का ये कहकर वहां से हमेशा के लिए चला गला कि मेरी आंखों का ख़्याल रखना।

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सजा | रत्ना भदौरिया | लघुकथा

कल के दृश्य ने वो गाना सार्थक कर दिया ‘मेरा गम तेरे ग़म से कितना कम है ‘। अभी तक गाना खूब सुना ,गुनगुनाया लेकिन हमेशा लगता रहा कि नहीं दुनिया में मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं है। कल के दृश्य ने सबकुछ बदल दिया और लगने लगा अरे ! मुझसे कम दुखी कोई नहीं है। मेरी और नंदिनी की बात अभी ज्यादा पहले नहीं शुरू हुई थी महज एक महीना हुआ था लेकिन दोनों को एक दूसरे पर विश्वास ऐसा जम गया मानो बचपन की सहेलियां हों। काम की व्यस्तता की वजह से फोन पर कम ही बातें होती मैसेज से हाल खबर रोज ही हो जाती। इन एक महीने में तीन से चार बार फोन पर बात हुई। लेकिन ज़्यादातर दो से तीन मिनट ही बात सम्भव हो पायी।कल हम दोनों फ्री थे मेरा कुछ स्वास्थ्य ठीक नहीं था और नंदिनी की कालेज की छुट्टी थी। बातों का दौर लम्बा चला तो उसने उस दृश्य का जिक्र किया जो मेरे लिए दृश्य लेकिन उसकी कहानी थी। नंदिनी ने बात मेरी शादी से शुरू की । तो मैंने कहा नहीं यार अभी नहीं वैसे सच बताऊं करना नहीं चाहती कोई रुचि नहीं है। भाई ,बहन , मां- बाप सब लोग हैं नौकरी भी है फिर क्या जरूरत आज कल वैसे भी लड़कों का कोई भरोसा नहीं। वैसे नंदिनी आपकी शादी हो गयी क्या? नहीं मैं तो चालीस से ऊपर की हो गयी अब क्या करूंगी शादी करके ? क्या ?आप तो बहुत बड़ी हैं मुझसे माफ़ी चाहूंगी हमेशा आपका नाम या यार कहकर बुलाती रही मैं इतनी बेवकूफ कभी पूछा भी नहीं।

अरे नहीं कोई बात नहीं बिट्ट सब चलता है। शादी नहीं की इसके पीछे बहुत बड़ी कहानी है। बताइये ना दीदी आज मैं बिल्कुल व्यस्त नहीं हूं मैंने कहा। नहीं बिट्टू फिर कभी बताऊंगी। नहीं दीदी मैं जिद्द करने लगी । चलो अच्छा इतनी जिद्द कर रही हो तो बता ही देती हूं। आज के बीस साल पहले पापा सरकारी मास्टर के पद से रिटायर हुए और घर पर रहने लगे। एक साल व्यतीत भी नहीं हुआ था कि पापा को कैंसर हो गया उनके रिटायरमेंट के जितने पैसे थे सब उनकी दवाई में लग गये और दुर्भाग्य देखो उसी दौरान कोरोना आ गया मैं प्राइवेट स्कूल अध्यापिका थी कालेज की नौकरी तो बाद में मिली, नौकरी छूट गयी पापा को कैंसर के साथ -साथ कोरोना भी हो गया।

मां भी पापा की देखभाल करते -करते कोरोना की शिकार हो गयी। और एक एक करके दोनों चलते बने। घर ,पैसा जो भी बचा था दोनों भाईयों ने ले लिया मैं अकेले रह गयी। फिर पता है बिट्टू सब लोग कहते इसका भी कहीं रिश्ता कर दो । दोनों भाइयों ने योजना बनाई और जितने भी रिश्ते आते वे तोड़वा देते एक भाई एक कमी निकालता तो दूसरा दूसरी कमी , कोई रिश्ता ही नहीं हो पा रहा था। पास पड़ोस के लोग और भी बोलने लगे थे लेकिन भाइयों को कोई फर्क नहीं पड़ा, एक सबसे दुर्भाग्य का दिन तब आया जब पता चला कि मुझे पागल होने के लिए दवाईयां दी जा रही थी वो भी भाइयों के द्वारा इसका कारण जानने कि कोशिश कि तो पता चला कि महज यह कारण था ,अब इसे संभाले कौन और शादी में तनिक रकम नहीं खर्च होती कौन करे इतने पैसे खर्च —-।

फिर पता है बिट्टू मैंने कहा दिया ना किसी को किसी के सामने गिड़गिड़ाने की जरूरत है और ना ही मेरे बारे में चिंता करने की आप सब अपना अपना देखो। उस दिन से चौकन्नी और सतर्कता के साथ काम करने लगी भगवान का शुक्र रहा कि जल्द ही गांव के एक स्कूल में नौकरी मिल गयी। बिट्टू आज मैं पैंतालीस साल की हो गयी हूं और खुश हूं अपनी दुनिया में लेकिन दोनों भाईयों को जब कभी कभी दुखी देखती हूं तो समझ नहीं पाती की उनको क्या कहूं उनके किये की सजा है या कुछ और ——।

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श्मशान लघुकथा | रत्ना भदौरिया

थरथर कांपता हुआ इधर उधर भटकने के बावजूद कहीं गर्माहट वाली जगह नहीं मिली ,तो एक जगह पेड़ की आड़ में बैठ गया ।जितनी तेजी से रात का समय बढ़ रहा था उतनी ही तेजी से कंपकंपाहट बढ़ रही थी। सिर ,कान ,नाक और हाथ पर एक भी कपड़ा ना होने की वजह से ऐसा लग रहा था मानो जम गया हो। शरीर पर तो फिर भी फटे पुराने कपड़े थे‌। पेड़ से दो चार बूंदें सिर पर टपक जाती और मैं अंदर तक और थर्रा जाता। गाड़ियों की आवा जाही ठप सी हो गई थी, आसमान की तरफ देखेकर ऐसा लगा कि अभी एक या दो ही बजे होंगे। तभी पेड़ों से टपक रही बूंदें शुरू हुई ये क्या लगता है बारिश तेज हो गई। अगर नहीं उठा तो राम नाम सत्य हो जायेगी, उठा और चल पड़ा कंपकंपी कम नहीं बढ़ रही थी ,बल्कि अब लथपथ भीग भी चुका था।तभी सामने आग की रोशनी सी प्रतीत हुई पास जाकर देखा तो पता चला ये श्मशान घाट है और ये जल रही लाशों की लपटें हैं।

पहले ठिठुका और पुराने दृश्य आंखों के सामने कौंध गये ,कैसे ? बचपन में ना अंधेरे में निकल पाता और ना ही घर के किसी कोने में जाता यहां तक बिस्तर या सोफे पर पैर नीचे करके नहीं हमेशा ऊपर करके बैठता। घर में अकेले रहना क्या होता है इससे कोशों दूर रहा , हमेशा यही बात का डर रहता कि भूत ना आ जाए।लेकिन एक महामारी आयी और घर का सबकुछ लेकर चली गयी,सब झटके में खत्म हुआ। जिसकी वजह से वो घर काटने को दौड़ता है। घर की प्रत्येक चीज से डर लगता है खुद नहीं समझ पाता कि अपने आप को पागल कहूं या बीमार या फिर कुछ और——।

ऐसा लगने लगा जैसे हड्डियां बोल रही हों इस कंपकंपी से इसलिए पुराने दृश्य को छोड़ श्मशान की तरफ बढ़ चला और वहीं आग के पास लेट गया,सुबह की आवाजों ने नींद तोडा आंखें खोली तो सामने देखा एक सज्जन कह रहें हैं कि ये रे पागल तू श्मशान में लाश की आग के पास लेट गया डर नहीं लगा। कैसा आदमी है तू? अरे भाई साहब ठंड की कंपकंपी से कम ही डर लगा और सबसे अच्छा तो यह लगा कि चैन की नींद आ गयी इस गरमाहट से—। वो सज्जन बुदबुदाया और वहां से चलता बना , मैं भी अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा लिया —-।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

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फैसला | रत्ना भदौरिया | Hindi Short Story

फैसला | रत्ना भदौरिया | Hindi Short Story

इंतजार की हद होती है ये बात खूब सुनी थी और हर दिन सोचता भी की मेरे इंतजार का ——-?हर दिन वो यही कहती की आज नहीं कल बता दूंगी और उसका कल आता ही नहीं बस हर दिन आज होता। मैं उसके कल वाला वो दिन जब मेरे दिल की बात समझकर मुझसे कुछ कहेगी इसी इंतजार में घर से हर दिन उसके स्कूल जाने के समय पर आकर सड़क पर खड़ा हो जाता। इसी वजह से कभी -कभी मैं स्कूल देर से पहुंचता तब प्रिंसिपल कहते अगर अध्यापक ही समय से स्कूल नहीं आयेंगे तो बच्चों का क्या होगा? सर कल से ध्यान रखूंगा कहकर कक्षा में चला जाता।समय व्यतीत हो रहा था लेकिन उसका कल नहीं आया। इसी बीच नया साल आया मैंने उस दिन लम्बी चौड़ी चिट्ठी लिखी -मै जानता हूं प्रिय की तुम मुझे जवाब क्यों नहीं दे रही हो ।शायद और लड़कों की तरह तुम भी मुझे आवारा आशिक समझती हो पर सच मेरे दिल में सिर्फ़ तुम्हीं हो।

वैसे तो मैं भी कह दूं की चांद से तारे तोड़ लाऊंगा लेकिन मैं वहीं कहूंगा जो कर सकता हूं क्योंकि कहने पर विश्वास नहीं करता,कहने पर विश्वास करता हूं। तो प्रिय दिल से मेरी इस बात को सुनना और दिमाग से सोचकर जवाब जरूर दें देना । पुनः कह रहा हूं आप ही मेरे दिल में हो आप ही हमेशा रहोगी। एक बात और वादा -इस दिल में तेरे शिवाय कोई और नहीं आयेगा। मैं आई —यू लिखकर छोड़ रहा हूं पूरा करने का फैसला तुम्हारे हाथ में—-। ये चिट्ठी लेकर नयी साल की सुबह नये उम्मीद के साथ सड़क पर जैसे ही निकला वो स्कूल जा रही थी मैं भी पीछे-पीछे चल पडा दो सौ मीटर की दूरी पर जाकर मैंने उनकी साइकिल के सामने गाड़ी रोक दी और चिट्ठी पकड़ाते हुए कहा- ये ले लो एक बार पढ़कर ज़वाब दे दो प्लीज़। इस चिट्ठी में भी वही लिखा होगा जो तुम रोज कहते हो। उसने कहा!

फिर तुम जवाब क्यों नहीं देती । देखो आज तो नया साल है और हम ——। मैं अभी पूरी बात कह भी नहीं पाया कि वो बोल पड़ी इससे क्या हुआ अगले साल फिर आयेगा और कोई फिर आकर कह दे देखो नया साल है ——। अब मेरा जवाब सुनों तुम बिना मतलब पीछे मत पड़ो। उसका नकारना मन को कचोट तो रहा था लेकिन दूसरी तरफ़ ख़ुशी भी की उसका कल तो आया। मैंने वहीं से गाड़ी मोड़ी और घर वापस आ गया इस सवाल के साथ की कभी ना कभी वापस आयेगीं। उसी दिन से इसी सवाल को लेकर जीने लगा। समय व्यतीत होता गया मेरी शादी हुई और कुछ साल के बाद उसकी भी शादी हो गई। दोनों गृहस्थ जीवन में व्यस्त हो गए मैं भी जिंदगी की गाड़ी को गुडकाने के लिए स्कूल की नौकरी छोड़कर दिल्ली चला आया क्योंकि प्राइवेट स्कूल में मिलने वाली तनख्वाह से पेट भर भरना दूभर हो गया था। बच्चे भी हो गये थे सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था।

आज जब पन्द्रह साल बाद उसकी फ्रेंड रिक्वेस्ट देखी तो आश्चर्यचकित हो गया लेकिन दूसरी तरफ सवार ने धक्का मारा और मैं आश्चर्यता को दरकिनार कर उसी फ्रेंड रिक्वेस्ट स्वीकार कर ली। हाल चाल के बाद हमारी बातें शुरू हुई। लेकिन आज मैं नहीं वो ज्यादा बोल रही थी। उसने कहा कि मैं माफी चाहूंगी की उस समय के आज को नहीं समझ पायी हमेशा कल में बदलती रही । क्या अब हम बात कर सकते हैं? उसकी बात करने की बात सुन मैं फिर प्रश्नवाचक हो गया क्या? कैसी बातें कर रही हो आप ? अब तो शायद बहुत देर कर दी काश ! तब समझ जाती तो मैं यहां वीरान सा सिर्फ जिंदगी की गाड़ी को गुडकाने में नहीं बल्कि दोनों साथ मिलकर दौड़ाने में लगे होते। ऐसा क्यों आपकी शादी हो गई आप अपनी बीबी के साथ भी ——-। उसकी इस बात से मैं मुस्कुराया और बोला- तुम्हारी भी तो शादी हो गयी है फिर‌ तुमने इस बात को अब क्यों समझा ?

छोड़ो ना जो बीत गया सो बात गया अब हम बात करते हैं और हां सभी तो कहते हैं जब जागो तभी सवेरा वाली बात से नयी शुरुआत करते हैं।

नयी शुरुआत शब्द सुनकर कुछ छड़ के लिए मैं चुप हो गया और सोचने लगा नयी शुरुआत ——। नहीं नहीं बिल्कुल नहीं मेरे दिल में तो पन्द्रह साल पहले की पुरानी शुरुआत अभी भी है जो कभी शुरू ही नहीं हुई थी तो नयी शुरुआत कैसी ? क्या ?तुम आज भी —-!उसने कहा। और तुम ——-वो कुछ नहीं बोली थोड़ी देर तक सन्नाटा पसरा रहा फिर ——।

अनुतरित / रत्ना भदोरिया

दिल्ली से जयपुर जा रही बस अक्सर मेरे अस्पताल के सामने से निकलकर मेरे घर की तरफ जा रहे रास्ते से जाती। मैं हमेंशा उसी बस में चढ़ जाया करती सिटी बसों का इंतजार नहीं करती। अक्सर मेरी छुट्टी के समय वो आ ही जाती । आज भी वही हुआ ज्यों ही अस्पताल से निकली की लाल बत्ती के उस पार बस खड़ी थी मैं दौड़कर बस स्टैंड पर पहुंच गयी‌। बस चालक लगभग पहचाननें लगा था। बस रूकी और मैं ज्यों ही चढ़ी तो बस चालक ने मुस्कुराते हुए कहा -नमस्ते सिस्टर। क्योंकि सफ़ेद कपड़ों से साफ पता चलता था कि मैं पेशे से नर्स हूं।

मैंने भी हल्की सी मुस्कान के साथ – जी भइया नमस्ते बोल कन्डेक्टर से टिकट लेकर बैठ गई। सारी सीटें भरी हुई थी। अधिकतर सब अपने अपने फोन में लगे थे जो नहीं लगे थे वे या तो इधर उधर देख रहे थे या फिर उनके साथ कोई न कोई था तो उससे बातें कर रहे थे। मैं अकेली तो थी लेकिन फोन में बैट्री न होने की वजह से इधर उधर देख रही थी। तभी एक नवजवान युवक आकर सामने खड़े हो गए।

वेशभूषा से पढ़ा- लिखा और अच्छे घराने से लग रहा था। लेकिन नजरें काफी छोटी और लगता था कि इंसानियत भी बहुत ही छोटी थी। ऐसा मैं इसलिए कह रही हूं कि उसकी नजर बार -बार बस में बैठी लड़कियों की तरफ जा रही थी।हर लड़की की तरफ एक ही नज़र से घूर रहा था। मेरे सामने बैठी उस लड़की की तरफ देखने की तो हद ही हो गयी। हम सब पच्चीस के ऊपर के थे लेकिन वो तो अभी अट्ठारह -बीस की रही होगी। वो डर के मारे सीट में चिपकी जा रही थी। दुर्भाग्य की बात तो यह हैं कि वहां पर मौजूद सभी पुरुषों में कोई मुस्कुरा रहा था तो कोई बुदबुदा रहा था तो कोई आपस में कह रहा था कि इसका आशिक होगा तभी तो यूं देख रहा है।

एक बात और थी जिसको लेकर आजकल खूब धड़ल्ले से सुनाया जाता है कि छोटे कपड़े पहन रखे हैं इसलिए तो घूर रहा है। दुर्भाग्य की बात तो ये है कि जो औरतें अभी उसकी क्रुर नजरों का शिकार हुई थी वो भी उन्हीं पुरुषों में शामिल हो गयीं जैसे ही उस नवयुवक ने अपनी क्रुर नजर इस लड़की पर जमाई। मैंने पीछे से उसका कंधा दबाया तो एकदम से चौंक गयी। कुछ नहीं कुछ नहीं परेशान मत हो कहां तक जाओगी। उसने पीछे मुडकर कहा -बहुत दूर तक जाना है ‘,जयपुर ‘। अच्छा कहकर चुप हो गयी। मेरा भी स्टैंड आने वाला था समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं?लग नहीं रहा था कि ये घर तक सुरक्षित पहुंच जायेगी।

मैंने उस लड़की से पूछा कि सुनों रात काफी हो गयी है और अकेले ऐसे में जाना ठीक नहीं है,आज तुम हमारे घर रुक जाओ सुबह पांच बजे मैं तुमको बस पर बिठा दूंगी तब चली जाना। ठीक है दीदी शुक्रिया लेकिन मेरे घर पर एक बार आप बात कर लो वरना मेरे पापा -मम्मी ————-।

ठीक है घर चलकर बात करते हैं मैंने कहा। कुछ ही छड़ में हमारा घर आ गया हम दोनों उतर गये। उतरते -उतरते उस नवयुवक ने दो -चार फब्तियां कस ही दिया था लेकिन अब हम निडर थे। बातें करते हुए घर की तरफ बढ़ने लगे। स्टाप से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर था आटो के पच्चास रुपये लगते थे इसलिए पैदल ही आया जाया करती। आज भी पैदल ही चल पड़े।तनिक दूर चलने के बाद ऐसा लगा कि कोई पीछा कर रहा है फिर मैंने सोचा रोज ही तो आती हूं मेरा ही भ्रम होगा, आगे बढती गयी ।

कुछ छड़ बाद फिर लगा और ज्यों ही पीछे मुड़ी तो देखा वही नवयुवक दो लोगों के साथ चला आ रहा है,जब तक हम दोनों अपनी चाल तेज करते -करते तब तक वो सबके सब हमारे ऊपर कुत्ते की तरह झपट पड़े और फिर ——।जब होश आया तो जो देखा उसने मेरे शरीर को शून्य कर दिया था । मेरे साथ की वो लड़की मृत पड़ी थी और मैं खून से लथपथ। थोड़ी देर में पुलिस आ गयी थी उसके सवालों के जवाब भी दे दिया था। लेकिन उस लड़की के सवालों से अनुत्तरित थी और मन में बार बार यही आ रहा था कि ——-काश!

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सवाल | लघुकथा | रत्ना सिंह

सवाल | लघुकथा | रत्ना सिंह

सामने दो पेड़ बेहद शोभायमान थे।उस पर चढ़ रही लगभग दस साल की लड़की भी पेड़ों से कम शोभायमान नहीं थी‌। लेकिन मेरे दिमाग में एक सवाल बार बार आ रहा था कि आखिर वो लड़की एक ही पेड़ पर क्यों चढ़ रही है?आखिर दूसरे पेड़ पर भी तो चढ़ सकती है। अभी बुलाकर पूछती हूं और मैंने आवाज़ लगाई ज्ञानवती —-वो ज्ञानवती इधर आओ बेटा। वो दौड़कर पास आयी और बोली -हां दीदी का आये बताव ?

कुछ नहीं पहले तो तुम ये बताओ स्कूल नहीं जाती हो क्या ?अब तो छुट्टी खत्म हो गई, स्कूल खुल गये हैं। मेरी बात सुनकर वो बोली -जाईत हवै दीदी मुला आज काल्हि अम्मा बाप्पा हारै जात हंवै धान लगावै। तव बोकरीन कईहां चरावै वाला कऊ नहिन हवै यही बरे हम स्कूलै नहिन जाईत हवै।

अच्छा लेकिन आजकल तो स्कूल दोपहर तक ही रहता है चली जाया करो ,शाम को आकर बकरियों को चराया करो मैंने कहा।

नहीं दीदी घर केर खानव तव बनावये कईहां रहत हवै अम्मा -बाप्पा सुबेरेन निकरि जात हंवै उनका हार मईहां खाना दईके आईत हवै तव बोकरीन कईहां चरावै आईत हवै। ज्ञानवती की बातें सुनकर मज़बूरी साफ झलक रही थी। मैंने कहा सुबह अम्मा से कह दो खाना तो ले जाया करें।

नहीं दीदी येतना अम्मा से कहै केर बूत नहिंन हवै। अच्छा पढ़ाई के लिए कैसा डर ?मेरी बात पर ज्ञानवती फीकी सी मुस्कुराहट के साथ बोली नहीं दीदी बप्पा तव अबकिन बियाहे के बरे कहत रहें मुला अम्मा मना करि दाहिनी कि अबै ख्यात पात लगावै मईहां बरी मदद करत हवै परी रहै दियव अबै, अऊर बहस करबै तव पांचव तक्का न पढई हैं। अच्छा दीदी जाईत हवै सांझ होई गयीं रोटी बनावै कईहां हवै।

अच्छा चली जाना लेकिन जो पूंछने के लिए बुलाया वो तो पूंछा नहीं। ये बताओ तुम उतनी देर से एक ही पेड़ पर क्यों चढ़ रही थी?दूसरे पर क्यों नहीं चढ़ी ?जबकि दूसरा वाला बड़ा है। ज्ञानवती बोली दीदी वो पेड़ ज्यादा लदा है वहिमा ज्यादा फल लागी हंवै कबो टूटी सकत हवै मुला यहिमा फल बहुत कम है तव हमै चढै से वजन कम परी तव देर मईहां टूटी। मतलब ज्ञानवती मैं समझी नहीं।

दीदी अम्मा वहि दिन प्रधान के हियां गयीं रहै पइसन कईहां तव कहिन नहिन हवै अउर जब वोट मांगै आयें रहै तव कहिन की सब मदद करबै अउर जब ज्यादा ——। यही बरे अम्मा या बात कहिनि। अब तो आप समझि गईव होई हव नहीं तो ——–। कहते हुए ज्ञानवती भाग गयी। मैं कुछ समझी कुछ न समझी सी ज्ञानवती को देखती रह गयी ——-।

आश्वस्त | लघुकथा | रत्ना भदौरिया

आश्वस्त | लघुकथा | रत्ना भदौरिया

मैं उसके घर एक साल‌ में करीब तीन से चार बार गया। कभी आफिस के काम से तो कभी पार्टी में जाता। लेकिन मैंने कभी उसके मम्मी पापा को घर में नहीं देखा । अक्सर उसके घर युवाओं का या तो साठ साल से ऊपर के लोगों का ही जमावड़ा देखा। कई बार सोचा पूछूं लेकिन काम में व्यस्त हो जाते तो याद नही रहता। आज जब मैं उसके घर गया तो देखा कि वो एक सोफे पर बैठा फोन में कुछ टक टक कर रहा है । थोड़ी देर बैठने के बाद मैंने कहा यार तरुण तू उतनी देर से क्या लिख रहा है ? कुछ नहीं यार बस यूं ही अभी तू फोन पर खुद ही पढ़ लेना।

नहीं मैं तेरे ही फोन पर पढूंगा कहते हुए मैंने उसके हाथ से फोन घसीट लिया अपनी तरफ और पढ़ने लगा -पापा आप जब हमें कंधे पर बैठाकर घुमाते थे बड़ा अच्छा लगता था आज याद कर रहा हूं और पता है पापा जब आप घोड़ा बनकर पीठ पर बिठाकर वो कविता सुनाते थे काठी की लकड़ी लकड़ी का घोड़ा दौड़ा दौड़ा दुम उठाकर दौड़ा देखो न पापा कविता भूलने लगा हूं आप फिर से सुना दो न । सबसे ज्यादा तो जब मम्मी मामा के यहां चली जाती तो आपकी गर्म गर्म रोटी दूध में डालकर चम्मच से खिलाना याद आ रहा है पापा प्लीज —–इसके आगे वो नहीं लिख पाया था तब तक मैंने फोन ले लिया था। मैंने आज बाद में न पूछने की छोड़ तुरन्त ही पूंछा -यआर तरुण क्या तुम्हारे पापा अब—–।

नहीं यार कैसी बात कर रहा है पापा अभी फिटफाट मजे से वृद्धाश्रम में मस्ती कर रहे हैं तू भी यार —–। तरुण की ये बात सुन मेरे मुंह से निकला क्या यार —?

तरुण मुस्कुराया और बोला ये सब फेसबुक के लिए लिख रहा था आज फादर्स डे है इसलिए चल ज्यादा मत सोच आफिस के लिए लेट हो रहें हैं और फिर आश्वस्त होकर फेसबुक पर शेयर किया और आफिस के लिए चल पड़े। मेरा क्या यार शब्द अभी भी बरकरार है ?लेकिन तरुण आश्वस्त है—-।

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बंद आंखें | रत्ना सिंह | लघुकथा

बंद आंखें | रत्ना सिंह | लघुकथा

सारे समय झगड़ा,सारे समय झगड़ा उसके सिवाय तुम लोगों को कुछ नहीं सूझता। तंग आ गया हूं किसी दिन सब छोड़कर चला जाऊंगा,तब तुम दोनों को शान्ति मिल जायेगी अभिनव ने अपनी पत्नी करिश्मा और मां से कहा।

मां अभिनव से लिपटते हुए कहने लगी बेटा तुझे तो पता है कि तेरे बिना मैं कैसे रह सकती हूं तू आंखों का तारा है,तू एक मात्र सहारा है। कोई झगड़ा नहीं कर रही थी बस बहू को कहा कि घुटने में जोरों का दर्द है, थोड़ा तेल मल दे उतने में ही —–। बात पूरी भी नहीं होने दी कि करिश्मा बोल पड़ी, आखिर आप भी तो लगा सकती हैं अपने घुटनों में तेल घर का काम,बाहर का काम घर में घुसो नहीं कि दुनिया भर की बीमारी शुरू हो जाती हैं।जो अभिनव थोड़ी देर पहले मां और पत्नी दोनों को छोड़कर जाने की बात कह रहा था,वही पत्नी की तरफदारी करते हुए बोला -मां यार ठीक ही तो कह रही है करिश्मा अपने हाथ से तेल लगा लो हाथ पैर चलेंगे तो अच्छा होगा वरना जम जायेंगी हड्डियां। कोई बात नहीं बेटा आज के बाद नहीं कहूंगी लेकिन छोड़कर मत जाना कहते हुए मां की ममता भरे हाथों से बेटे और बहू को दुलराने लगीं। बहू झिड़कते हुए नौटंकी शुरू कर दी हटो उधर अभी घर में मरु चलकर इनसे तो बाहर का खाना भी नहीं खाया जाता । हर दिन वही दाल रोटी की फरमाइश रहती है पता नहीं कब छुटकारा मिलेगा और धप्प- धप्प करती हुई करिश्मा अंदर चली गई पीछे- पीछे अभिनव भी चला गया। मां भी जाकर कमरे में बैठ गयी ।

एक घंटा बीता दो घंटा बीता लेकिन कमरे का दरवाजा नहीं खुला तो मां ने कमरा खटखटाते हुए कहा बेटा बहू चाय बना रही हूं ले लेना। अंदर से बहू की आवाज अपने लिए बना लो हम लोग डिनर पर बाहर जा रहे हैं।

बेटा वो तो ठीक है लेकिन डिनर करने जायेगी देर रात लौटेगी नींद पूरी नहीं होगी कल आफिस भी है, रविवार को चली जाना । मां की बात सुनकर बहू ने भड़ाक से दरवाजा खोला,’अब आप बतायेंगी कब जाना है बस नहीं। बेटी होती तो कभी नहीं कहती बहू हूं इसलिए। जा रही हूं चलो अभिनव दोनों चलने लगे तो फिर मां ने टोका लेकिन बेटा ढेरों दवाई खानी है क्या खाऊंगी ये तो बतायें जा ? सब्जियां खत्म हो गई है फ्रिज में ब्रेड और मक्खन रखा है चाय बना ही रही हो खा लेना जितना मर्जी हो। चलो दरवाजा बंद करो और दोनों चले गए। मां ने चाय बनाई और ब्रेड गर्म किया साथ में दवाईयां भी गटक ली। दवाई रोज खटकती थी तो चैन की नींद नहीं ले पाती लेकिन आज की दवाई ने चैन की नींद दे दी। बहू बेटे कब घर में दाखिल हुए कितनी ?घंटियां बजाईं? सारी बातों से अनजान मां बस चैन की नींद सो रही थीं। एक बात उन्हें बराबर याद थी और बहू को पास बुलाकर कहा बहू तुम्हारी आंखें —-। अच्छा– अच्छा बहू हो इसलिए बेटी होती तो आंखें जरुर नम होती ऊपर जाकर भगवान से दुआ करूंगी कि तुम हमेशा बहू ही बनो मेरी‌। मां ने आंखें बंद कर ली बहू पथरायीं आंखों से उन्हें अभी भी देख रही है।

रत्ना भदौरिया

पहाड़पुर कासों गंगागंज रायबरेली उत्तर प्रदेश

पूरी गिनती |रत्ना सिंह | लघुकथा

पूरी गिनती | रत्ना सिंह | लघुकथा

वर्षों पहले अलग होने के बावजूद हम दोनों एक ही जगह पर पहुंचे और दोनों का स्वागत सत्कार बड़ी धूमधाम से ज़िले के मंत्री महोदय ने किया।हम वही लोग थे जिनके रास्ते कुछ सालों पहले एक थे लेकिन आज दोनों के रास्ते बेमेल खाते हुए बिल्कुल अलग थे। वषों पहले जब हम एक‌ ही रास्ते पर चलते तो चाहे प्रेम की बात हो ,चाहे वस्तु की या फिर कारोबार करने की। समय गुजरा और वह राजनीति की दुनिया में चला गया और मैं कलम की दुनिया में चला गया।

आज मेरे बैठने के बावजूद उसकी नजर मेरी तरफ नहीं सभा में बैठे स्रोताओं की तरफ थी। मैं उसकी तरफ देख रहा था वो अपनी कुर्सी को कसकर पकड़े एक‌ , दो ,पढ़ने जैसे हल्के हल्के होंठ हिल रहे थे। मैं भी नहीं समझ पाया कि आखिर गिन क्या रहा है समझ तो तब आया जब उसने मेरे पास आके सौ बोला और हंसकर कहने लगा मतलब सौ में से नब्बे तो पक्के। तब तक मंच से आवाज आई राम सिंह आयें और दो शब्द आशीर्वाद स्वरूप कहें राम सिंह। लेकिन वो तो अपनी सौ की गिनती पूरी होने की खुशी में मस्त हैं।

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जिम्मेदारी | रत्ना सिंह

जिम्मेदारी | रत्ना सिंह

अभी कुछ दिनों पहले ही मैं अपनी मरीज डॉक्टर सुरभि अग्रवाल के घर अपनी मां को मिलवाने ले गयी। डाक्टर सुरभि मुम्बई के एक मल्टीनेशनल अस्पताल में सर्जन थी। दिल्ली अक्सर आया करती। उन्होंने बताया कि दिल्ली से उनकी बहुत सी यादें जुड़ी हुई हैं। आखिर उनका पालन- पोषण दिल्ली में ही हुआ यही से उन्होंने अपनी बारहवीं तक पढ़ाई पूरी की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने दिल्ली छोड़ा।

हाल ही के दिनों में वे दिल्ली आयीं और दुर्भाग्यवश एक काली रात ने उन्हें हार्ट अटैक की बीमारी के मुंह में झोंका और फिर क्या अस्पताल के आई सी यू में पहुंच गयी। वहां पर सर्जरी हुई और ठीक होने लगी। आई सी यू से जब उन्हें कमरे में सिफ्ट किया गया तो उनकी देखभाल की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। जितने डाक्टर सुरभि अस्पताल में रहीं उतने दिन मैने पूरी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाई।

जब वे घर जाने लगी तो भी मुझे जिम्मेदारी सौंपते हुए अस्पताल में बात की कि कामिनी घर पर भी मेरी देखभाल करेगी।अगले दिन मैं डाक्टर सुरभि के घर जाने लगी। कई दिनों के बाद मैंने उनसे पूछा कि आपके घर में कोई और नहीं है। हैं बेटा जो अस्पताल में एक लड़का आता रहता था वो बेटा है पति दो साल पहले छोड़कर चले गए। बहू और पोते पोतियों को देखें बरसों गुजर गये।

अच्छा छोटा सा उत्तर देकर मैं भी चुप हो गई।तभी डाक्टर सुरभि ने दुबारा पूछा कामिनी बेटा आप यहां अकेले रहती हैं। जी मैडम मैंने जवाब दिया। लेकिन कल मेरी मम्मी यहां घूमने आ रही हैं। अच्छा यहां भी लाना उनको डाक्टर सुरभि ने कहा। अगले दिन जब मैं मम्मी आयी तो मैं उन्हें लेकर गयी। मम्मी और डाक्टर सुरभि आपस में बात कर रही थी उनकी बातों को ज्यादा नहीं सुन पायी क्योंकि मेरा ध्यान डाक्टर सुरभि की दवाई और डाइट पर टिका था ।

एक बात ने जरुर अपनी ओर ध्यान खींचा,जब डाक्टर सुरभि ने मम्मी से कहा कि कामिनी को अपने पास रखना चाहती हैं क्योंकि उनकी पोती की झलक इसमें दिखायी देती है और इसलिए कामिनी को देखकर उनको खुशी और सुकून मिलता है। मम्मी ने कहा कि इसी हालत में वो भी गुजर रही हैं बेटा विदेशी बाबू हो गया कभी नहीं आता , ये बेटी ही हमारी खुशी है ।

मैं कुछ क्षण के लिए आश्चर्यचकित हुई लेकिन इस आश्चर्य को दूर करती हुई एक संतोष देने वाली बात सुनाती पड़ी,जब डाक्टर सुरभि ने मम्मी से कहा कि हम दोनों ऐसा करते हैं कि दिल्ली को अपना बना लेते हैं। और फिर कुछ दिनों के बाद दिल्ली में दोनों और दोनों के बीच में मैं पूरे सुकून और शान्ति के साथ