आश्वस्त | लघुकथा | रत्ना भदौरिया

आश्वस्त | लघुकथा | रत्ना भदौरिया

मैं उसके घर एक साल‌ में करीब तीन से चार बार गया। कभी आफिस के काम से तो कभी पार्टी में जाता। लेकिन मैंने कभी उसके मम्मी पापा को घर में नहीं देखा । अक्सर उसके घर युवाओं का या तो साठ साल से ऊपर के लोगों का ही जमावड़ा देखा। कई बार सोचा पूछूं लेकिन काम में व्यस्त हो जाते तो याद नही रहता। आज जब मैं उसके घर गया तो देखा कि वो एक सोफे पर बैठा फोन में कुछ टक टक कर रहा है । थोड़ी देर बैठने के बाद मैंने कहा यार तरुण तू उतनी देर से क्या लिख रहा है ? कुछ नहीं यार बस यूं ही अभी तू फोन पर खुद ही पढ़ लेना।

नहीं मैं तेरे ही फोन पर पढूंगा कहते हुए मैंने उसके हाथ से फोन घसीट लिया अपनी तरफ और पढ़ने लगा -पापा आप जब हमें कंधे पर बैठाकर घुमाते थे बड़ा अच्छा लगता था आज याद कर रहा हूं और पता है पापा जब आप घोड़ा बनकर पीठ पर बिठाकर वो कविता सुनाते थे काठी की लकड़ी लकड़ी का घोड़ा दौड़ा दौड़ा दुम उठाकर दौड़ा देखो न पापा कविता भूलने लगा हूं आप फिर से सुना दो न । सबसे ज्यादा तो जब मम्मी मामा के यहां चली जाती तो आपकी गर्म गर्म रोटी दूध में डालकर चम्मच से खिलाना याद आ रहा है पापा प्लीज —–इसके आगे वो नहीं लिख पाया था तब तक मैंने फोन ले लिया था। मैंने आज बाद में न पूछने की छोड़ तुरन्त ही पूंछा -यआर तरुण क्या तुम्हारे पापा अब—–।

नहीं यार कैसी बात कर रहा है पापा अभी फिटफाट मजे से वृद्धाश्रम में मस्ती कर रहे हैं तू भी यार —–। तरुण की ये बात सुन मेरे मुंह से निकला क्या यार —?

तरुण मुस्कुराया और बोला ये सब फेसबुक के लिए लिख रहा था आज फादर्स डे है इसलिए चल ज्यादा मत सोच आफिस के लिए लेट हो रहें हैं और फिर आश्वस्त होकर फेसबुक पर शेयर किया और आफिस के लिए चल पड़े। मेरा क्या यार शब्द अभी भी बरकरार है ?लेकिन तरुण आश्वस्त है—-।