अवध की सांस्कृतिक लोक चेतना

कहते हैं कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है। शहरों के साथ ही बदलते हुए ग्रामीण परिवेश में आपसी प्रेम, सामंजस्य और लोक परम्परा, लोक संस्कृति लुप्त हो रही हैं। लोक संस्कृतियों के प्रति हमारी अबोधता उसके अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। आकाश, सूर्य, चाँद, पानी, हवा, पृथ्वी आदि का हमारे जीवन का मूल आधार है। इनके महत्व को हम भूलते जा रहे हैं। और तो और, इन सब बातों में हम वक्त बर्बाद नहीं करना चाहते हैं। ईश्वर प्रदत्त हर अमूल्य निधियाँ निःशुल्क मुझे मिल रही है, फिर भी हम इन प्राकृतिक निधियों की रक्षा करने के बजाय, निरंतर दोहन कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि बिन सांस्कृतिक लोक के हमारा जीवन अधूरा है और इसके अभाव में हम सुखमय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

अन्य लेख : डिजिटल भारत – बदलाव की पहल: उभरते मुद्दे और चुनौतियां


प्रत्येक क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। जिसके कारण वह क्षेत्र पहचाना जाता है। इस दृष्टि से अवध की संस्कृति और उसकी परम्पराएँ एक समृद्ध विरासत को संजोए हुए हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है अवध। यह एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं, अपितु त्रेतायुग से ही एक अनूठी संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण है, जो भारत में शायद ही कहीं देखने को मिले। जहाँ खिलते, महकते फूल, फल, मुस्कुराते मौसम, आती-जाती ऋतुएँ हैं। तीज त्यौहार, लोक कंठ से फूटे ताने धुने, धर्म-कर्म हैं। पाश्चात्य सभ्यता और वहाँ की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से भले ही हमारी संस्कृति क्षीण हुई हो, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पूरी दमखम के साथ विद्यमान है।

अन्य लेख पढ़े : बैसवारा का सरेनी विकास खण्ड : इतिहास, भूगोल और संस्कृति


अवध क्षेत्र लगभग 12 जनपदों में विस्तारित है। यहाँ के लोक संस्कृति विविधताओं से भरी है और उनका स्वरूप आज भी गाँवों में देखने को मिलता है। जब हम त्योहारों की बात करते हैं तो अवध क्षेत्र में पूरे वर्ष भर विभिन्न प्रकार के पर्व मनाया जाते हैं। होली, दीपावाली, दशहरा, रामनवमी, दुर्गा पूजा, रक्षाबंधन आदि के अतिरिक्त इस्लाम धर्मावलंबी ईद, बकरीद, मुहर्रम, ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस, ईस्टर, गुड फ्राइडे, धूमधाम से मनाते हैं। यहाँ के त्योहारों की विशेषता है कि सब त्यौहार एक साथ बिन भेदभाव के मनाए जाते हैं। दशहरे में रामलीला का मंचन तो होली में झूमकर फाग होता है। व्रतों की बात करें तो, करवाचौथ हलछठ, गणेश चतुर्थी, हरितालिका तीज, रोजा (रमजान) आदि व्रत रखे जाते हैं। जो कहीं पति की लंबी उम्र के लिए, तो कहीं बालकों की लंबी उम्र के लिए महिलाओं द्वारा बड़ी आस्था के साथ रखे जाते हैं। यहाँ लोकगीतों की बहुलता है। शादी विवाह में अलग लोकगीत, ऋतुओं के अलग लोकगीत, श्रम के अलग लोकगीत और अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। विवाह गीत गुनगुनाते हैं-
जउने अंगनवा खेली हो बिटिया, वह सुना करि जई हो।
कुछ बेरिया के बाद हो बिटिया, अपने घर का जई हो।।
सास-ससुर से मिल कर रहि हो,
वई माई बाबू तुम्हार हो।
ननद के साथै हँसीहो खेलि हो,
वई बहिनी अब तुम्हार हो।।

पुत्र जन्म पर सोहर गाने की परंपरा है, तो शादी में बन्ना विदाई गीत, भोजन करते समय गारी (गाली) आदि गाने की परंपरा है। अवध क्षेत्र में वैवाहिक रस्मों में आत्मिक प्रेम कूट-कूट कर भरा था, बराती भोजन ग्रहण करते समय गलियाँ (गारी) भी खाते थे, और ऊपर से उन गारी के बदले कुछ धनराशि भी महिलाओं को नेग रूप में देते थे। ये प्रेम डोर की प्रथा अब अतिथि ग्रहों (गेस्ट हाउस) और बफर सिस्टम ने सुरसा की भाँति निगल लिया है। शादी के गीतों में इतनी विविधता है कि तिलकोत्सव, द्वारचार के अलग गीत, सप्तपदी (सात फेरे) के अलग गीत, विदाई के अलग गीत हैं। कोई भी गीत गाने से पहले महिलाएं देवी गीत गाना नहीं भूलती हैं। जिसमें गौरी, गणेश, शीतला माँ के गीत सम्मिलित हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर देवी गीत और जागरण के गीत गाए जाते हैं जिन्हें भजन कहते हैं-
देवी आँगन मोरे आई,निहुरि कै मैं पईयाँ लागू।
काऊ देखि देवी मगन भइहैं, काऊ देखि मुस्कानी।
रानी देखि देवी मगन भई हैं, बालक देखि मुस्कानी,
देवी आँगन मोरे आई, निहुरि कै मैं पइयाँ लागू।

इन्हीं लोकगीतों के सहारे जनमानस अपने दुखों को भूल कर अपना सामंजस्य बैठाते हैं। खेती-किसानी करते समय, श्रम गीतों के गाने की प्रथा है। खेतों में धान लगाते समय गीत गाये जाते थे, जिससे सर्वधर्म समभाव के साथ किसानों में एकता, ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहे-

रिमझिम बरसे पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।
लहरत बा तलवा में पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।।
सोने की थारी मां ज्योना परोसे,
पिया का जेवाई आई धनियाँ।
नाच्यो गायो खुसी मनायो, भरि जइहैं कोठिला ए धनियाँ।

पहले घर की महिलाएँ मिल-जुलकर प्रातःकाल उठकर चकिया (जात) में गेहूँ पीसती थी, उसके बाद दैनिक कार्यों में लग जाती थी। जब भी कोई मेहमान आता था तो बड़े सम्मान से उन्हें भोजन कराती थी। घर की महिलाएँ चकिया में गेहूं पीसते हुए लोकगीत के माध्यम से ही मेहमानों से हालचाल पूँछती और अपनी उन्हें बताती थी। ससुराल में जात पीस रही एक स्त्री अपने भाई से बात करते हुए गाती है-
बैठहुँ न मोरे भैया रतनी पलंगिया हो न,

बहिनी कहीं जाऊ आपन हवालिया हो न।
नौ मन कूटयो भइया, नौ मन पीस्यो हो न,
भइया पहिली टिकरिया, मोर भोजनवा हो न।

इस तरह से महिलाएं अपने भाई को गीत के माध्यम से हाल-चाल बताती थी। कुछ जातियां बिरहा गाती हैं। जातीय नृत्यों में यादव गडरिया का नृत्य, धोबियों पासियों का नृत्य प्रसिद्ध है। खेद का विषय यह है कि अब यह नृत्य विलुप्तप्राय हो चुके हैं। इस प्रकार के नृत्य करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। अब इन नृत्यकारों को संरक्षित और इन पर शोध करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति इन नृत्य-गीतों को न सीखना चाहता है और न ही अपने बच्चों को सिखाना चाहते हैं। कारण समाज अब नृत्य करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगा है, समाज को ऐसी कुत्सित विचारधारा बदलनी होगी। डीजे के युग में दिल पर सीधा कुप्रहार करने वाले गीतों की भीड़ में लोकनृत्यों का अस्तित्व समाप्त की ओर है।
फाल्गुन हिन्दू कैलेंडर का अंतिम महीना है। रंगों का त्योहार होली के मौसम में एक महीना तक अर्थात वसंत पंचमी से शीतलाष्टमी तक फ़ाग की धूम रहती है। बड़े-बड़े ढोल-नगाड़ों की थाप पर फाग गाए जाते हैं और किसी प्रतिष्ठित स्थान पर फाग की प्रतियोगिता भी आयोजित होती है। चौताल, डेढ़ताल, ढाईताल फाग ढोलक की थाप पर सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। कवि दुलारे ने तो अमर शहीद राणा बेनीमाधव सिंह पर डेढ़ताल का फाग ही लिख डाला। जिसको न गाया जाय तो फाग अधूरा माना जाता है-

अवध मां राना भैयो मरदाना।
पहिल लड़ाई भई बकसर मां, सेमरी के मैदाना।
हुवाँ से जाय पुरवा मां जीत्यो, तबै लाट घबराना।
नक्की मिले, मान सिंह मिलिगै, जानै सुदर्शन काना।।
अवध मां राना भयो मरदाना।।

अवध की संस्कृति सामूहिकता पर आधारित है जो समूह को महत्व देती है। नौटंकी यहाँ की प्रमुख लोककला है। शादी के दिन जब सभी पुरुष बारात चले जाते हैं तब रात्रि में घर की सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए महिलाएँ रातिजगा करती हैं। जिसके लिए रात्रि में स्त्रियाँ अपना रूप बदलते हुए चोर, पुलिस, किसान, पुरुष आदि का भेष बनाकर खेलती थी, जिसे नकटा कहा जाता था। ये परम्परा भी अंतिम साँसे गिन रही है। स्त्रियाँ स्वांग प्रहसन् करके रात भर जागती हैं, जिससे घर में किसी प्रकार का कोई खतरा उत्पन्न न हो।
वर्षा ऋतु में ढोलक, हारमोनियम, बीन की थाप और धुन पर पर अल्हैत लोग हिंदी साहित्य का वीर रस से ओतप्रोत आल्हा गाते हैं और जनमानस में वीरता व ओज का संचार करते हैं। आल्हा यद्यपि बुंदेलखंड की पावन धरती, विशेषकर महोबा, उरई, जालौन क्षेत्र की विधा है, क्योंकि आल्हा यादव और उदल यादव बुंदेलखंड के महोबा में पैदा हुए थे लेकिन उनकी वीरता की कहानियाँ पूरे उत्तर भारत में आल्हा गायन के रूप में गाई जाती हैं। उन्नाव जनपद के नारायणदास खेड़ा निवासी श्री लल्लू बाजपेई को आल्हा सम्राट कहा जाता है। रामरथ पांडेय (लालगंज) आल्हा गायन में मशहूर हैं। लल्लू बाजपेई के आल्हा की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

बड़े लड़ाईया महोबे वाले इनकी मार सही ना जाए।
एक को मारे दो मर जाएँ, मरै तीसरा दहशत खाए।।

ये तो परमसत्य है कि लोकगीतों के स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। लोग जीवन में जैसे-जैसे आपसी सहयोग और सद्भाव विलुप्त हो रहा है, उसी तरह हमारी प्राचीन संस्कृति भी विलुप्त होने के कगार पर है। हम तो उस देश के वासी हैं, जहाँ हर कदम, हर पर्व पर खुशी मिल-जुलकर बाँटते हैं। हर त्योहार का कोई न कोई गीत भी सामूहिक गान के रूप में गया जाता है। जैसे गीतों में सावन कजरी गाई जाती है। यद्यपि कजरी गीत का मूल स्रोत मिर्जापुर माना गया है, लेकिन अवध के विभिन्न जनपदों में कजरी बहुतायत गाई जाती है। पूरा श्रावण मास ही भगवान शिव को समर्पित है। सावन के महीने में पेड़ो की शाखाओं पर झूले पड़ जाते हैं। महिलाएँ झूले पर झूलते हुए गाती हैं। इस प्रकार के गीतों से परिवार व पड़ोसियों से बिगड़े हुए मधुर सम्बन्ध भी बन जाते हैं-

कहाँ से आये श्याम बनवारी, कहाँ से आई राधिका रानी।
गोकुल से आए बनवारी ,
मथुरा आई राधिका प्यारी।।
कि झोंका धीरे से देओ, हमें डर लगता भारी।
डरो मत राधिका प्यारी, हमें तो तुम जान से प्यारी।।

कृष्ण जन्माष्टमी के समय सोहर, भजन, धार्मिक गीत गाए जाते हैं। नृत्य की बात करें तो धोबियों (निर्मल) के लोकनृत्य में अब माइक का प्रयोग होने लगा है। पहले कमर में घंटी बाँधकर लहंगा पहनकर और बांसुरी लेकर नाचने वाला व्यक्ति जब बाँसुरी की तान छेड़ता था तो, दर्शक व श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इस नृत्य में मुख्य रूप से मृदंग और कसावत वाद्य यंत्र होता था। एक आदमी प्रकाश के लिए मशाल जलाकर आगे-आगे चलता था।
यादवों (अहीरों) के लोकनृत्य में घुँघरू वाले जाँघिया को धोती के ऊपर पहनते और 7 मीटर का पटुका बाँधते थे। इनके वाद्य यंत्रों में नगाड़ा और नगरची होते थे। इनमें नाचने वालों को गॉंव के लोग नचनिया समझते थे।
इन्हीं लोकनृत्य में एक प्रमुख लिल्ली घोड़ी का नृत्य बहुत प्रसिद्ध था। शुभ अवसर पर एक व्यक्ति काठ के घोड़े को सजा कर अपनी कमर में रस्सी के सहारे पहन लेता है, तत्पश्चात सुंदर मनमोहक नृत्य करता था। इसे देखकर बच्चे और स्त्रियाँ अति प्रसन्न होते थे।
प्राचीन काल से ही अवध की संस्कृति में खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा की विशेषता रही है। अनेक अवसरों पर नाना प्रकार के पकवान बनाए जाने की परंपरा रही है। जैसे होली में गुझिया पापड़, बरगदाही में बरगद गुलगुले, गुरुपूर्णिमा असाड़ी को बेसन की बेढ़ई, नागपंचमी में गेहूं चने की घुघरी, दीपावली को लाई चूरा रेवड़ी चीनी के खिलौने, गणेश चतुर्थी को तिलवा लड्डू धूंधा, मकर संक्रांति में घी खिचड़ी नीम्बू आदि बनाए जाने की परंपरा रही है। मशीनीकरण और अर्थ के युग मे अब ये सब समाप्ति की ओर है। लोग अनपढ़ थे, परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान उनके अंदर कूट-कूट कर भरा था। शायद इसीलिए मौसम अनुसार खाद्य पदार्थ बनते थे, जो शरीर के लिए लाभदायक है। किंतु आज हम भोजन के साथ मिलावटी पदार्थ अर्थात मीठा जहर खा रहे हैं।
अवध की संस्कृति गाँव की संस्कृति है। सद्भाव और सहकार इसके मूल में बसा है। आधुनिकता की चकाचौंध में अवध की संस्कृति अभी भी जीवित है। हाँ, संकट भी मंडरा रहा है। गाँव की विभिन्न कथाएँ-प्रथाएँ दम तोड़ने लगी है, जो पहले दिलों को जोड़ने वाली होती थी। विवाह के समय दुल्हन के यहाँ बारात 3 दिन रुकती थी और अब 3 घंटे में बरात हो जाती है। क्योंकि अब बारात दिल जोड़ने वाली नहीं, अपितु अर्थ जोड़ने वाली हो गयी है। बारात की तैयारियों में पूरा गाँव लग जाता था। ग्रामीणों की चारपाई आ जाती थी। बर्तन, ड्रम आदि सब मिल जाते थे। इन सबसे अर्थ बचत और एकता बढ़ती थी। आज इंसान ये सब करने में खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। हम डीजे की कानफोड़ू आवाज और जगमगाती रोशनी के द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं बचा सकते हैं। आज सगे संबंधियों का नाता भी पकवानों तक सीमित हो गया है। मेहमान, मित्र आदि भोजन का अंदाजा लगा कर ही घरों से निकलते हैं, जिसके कारण दूरियाँ बढ़ गयी हैं-
बफर सिस्टम सबसे महान।
न कोउ भूखा, न अघान।।
हुआँ तो धक्का मुक्की की बहार है।
कहते हैं कि समरसता की फुहार है।।
कोउ गुस्से मा लाल पीला,
तो कोहू का कपड़ा लाल पीला।
यह सब अवगुण कहीं नहीं अखिल भारत और अवध के लिए घातक सिद्ध होंगे। धर्म, वंश, जाति, लिंग भेद से बहुत ऊपर उठकर हमें अपनी विलुप्त होती जा रही जड़ों पर विचार करना होगा, अन्यथा हमारी लोक संस्कृति किस्सा-कहानी तक सीमित और सपना बनकर रह जायेगी।

डॉ० अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

भारत की अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति संपूर्ण विश्व में अग्रसर थी। समय-समय पर फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भारत में लूटपाट करने में कोई-कसर नहीं छोड़ी। लगभग 300 वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत पर शासन करके अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। भारत में अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक शासन किया। जिसमें 1857 का विद्रोह ‘भारतीयों की मुक्त का युद्ध’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। किंतु अंग्रेजों के खिलाफ महासंग्राम की नींव तो तिलका मांझी ने सन 1771 में ही डाल दी थी। स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अखंड भारत के सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी वर्गों के स्त्रियों-पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और प्राण न्योछावर कर दिया। दुर्भाग्य है कि इतिहास में अनेक वीर सपूतों, रणबांकुरों को समुचित स्थान नहीं मिल सका। भारत के कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ही याद किया जाता है। परंतु ऐसे अनगिनत नाम हैं, जिनके बलिदान व त्याग की गाथाएँ आम आदमी तक अभी नहीं पहुँच पाई हैं। ऐसे महापुरुष अंतिम सांस तक ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए शहीद हो गए। प्रस्तुत हैं प्रमुख स्वाधीनता संग्राम सेनानी, वीर योद्धा और उनका संक्षिप्त परिचय–


तिलका मांझी


तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी सन 1750 को तिलकपुर बिहार में हुआ था। वैसे तो भारत का स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन सन 1857 को माना जाता है, लेकिन अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह सन 1771 मे ही बिहार के संथाल संभाग में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हो चुका था। तिलका मांझी ने संथाल के आदिवासियों का नेतृत्व करते हुए लगभग 13 वर्ष तक अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी। इसलिए हम भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी तिलका मांझी को कह सकते हैं। तिलका मांझी ने सन 1778 में पहाड़ी सरदारों का नेतृत्व करते हुए रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से छीन लिया और इतना ही नहीं, सन 1784 में रामगढ़ स्थित राज महल के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट को मार डाला था। इसके बाद संपूर्ण भारत में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने धोखे से तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया और घोड़े से बांधकर भागलपुर-बिहार तक घसीटते हुए ले गए। उसके बाद भी वीर योद्धा तिलका मांझी जीवित था। अंत में 13 जनवरी सन 1785 को भागलपुर स्थित वट वृक्ष पर फांसी दे दी गई।


मातादीन भंगी-


10 मई 1857 को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है। भारतीय इतिहासकारों ने इसका श्रेय मंगल पांडेय को दिया है, किंतु वास्तविक सूत्रधार मेरठ निवासी मातादीन भंगी थे। मातादीन पश्चिम बंगाल के बैरकपुर छावनी में चपरासी खलासी की नौकरी करते थे। वह अनपढ़ थे, क्योंकि दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। मातादीन भंगी को पहलवानी का बहुत शौक था। इसलिए अखाड़े में मल्ल युद्ध सीखना चाहते थे, किंतु अछूत होने के कारण कोई गुरु ना मिला। तब बैंड बजाने वाले मुसलमान इस्लालाउद्दीन ने मातादीन भंगी को विधिवत मल्लयुद्ध सिखाया था। एक दिन मातादीन ने भीषण गर्मी में प्यास से व्याकुल होकर मंगल पांडेय से पीने के लिए पानी मांगा, तो आक्रोशित मंगल पांडेय ने कहा कि- “अरे भंगी मेरा लोटा छूकर अपवित्र करेगा क्या?” जानलेवा गर्मी में गुस्से से तमतमाए मातादीन ने मंगल पाण्डेय को जवाब दिया कि- “पंडत, तुम्हारी पंडिताई तब कहाँ चली जाती है? जब तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सुअर की चर्बी से बनी कारतूस मुंह से खींचते हैं?” यह बात मंगल पांडेय के सीने में आग का गोला की तरह लगी। मातादीन भंगी और मंगल पांडेय की बात भारत की विभिन्न छावनियों में आग की तरह फैल गई। मातादीन भंगी के इन्हीं शब्दों से विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी और 1 मार्च सन 1857 को मंगल पांडेय ने परेड मैदान में एक अधिकारी को गोली मार दी। इसके बाद विद्रोह की चिंगारी भारत में और उठने लगी। अंग्रेज अफसरों ने पहले मंगल पांडेय और बाद में मातादीन भंगी को प्राण निकलने तक फांसी पर लटकाए रखा।


उदैया चमार-


वैसे तो स्वाधीनता संग्राम का श्री गणेश तिलका मांझी के द्वारा सन 1771 में अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध से माना जाना चाहिए। उसके बाद दूसरी बार सन 1804 में अंग्रेजो के खिलाफ चिंगारी भड़की थी। छतरी जिला अलीगढ़ के नवाब नाहर खान व उनके पुत्र के द्वारा सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण युद्ध लड़ा गया। इस लड़ाई में उदैया चमार ने 100 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। पुनः सन 1807 में नवाब नाहर खान और उदैया चमार ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग छेड़ दी। इस बार अपनी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने घेरा बनाकर उदैया चमार को गिरफ्तार कर लिया और सन 1807 में ही अंग्रेजों ने कुछ दिन ही मुकदमा चलाकर उदैया चमार को सरेआम छतरी गाँव के चौराहे पर फांसी दे दी थी।


ऊदा देवी पासी-


ऊदा देवी का जन्म लखनऊ जनपद के उजिरावाँ गाँव में 30 जून सन 1830 को हुआ था। पति का नाम मक्का पासी था। ऊदा देवी का दूसरा नाम जगरानी था। ऊदा देवी अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला सुरक्षा दस्ते की सदस्य थी। मक्का पासी वाजिद अली शाह की सेना में सिपाही थे। उनकी शहादत के बाद ऊदा देवी ने अदम्य साहस के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ जंग के मैदान में कूद पड़ी। ऊदा देवी हमेशा पुरुष वेशभूषा वाले कपड़े पहनकर युद्ध करती थी। एक बार लखनऊ स्थित सिकंदर बाग में बंदूक, गोला बारूद लेकर पीपल के पेड़ पर चढ़ गई और लगभग 32 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। अफसोस इस लड़ाई में 16 नवंबर सन 1857 को ऊदा देवी भी शहीद हो गई। स्त्री की वीरता देखकर अंग्रेज अधिकारी काल्विन ने हैट (ब्रिटिश टोपी) उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी। दलित वीरांगना ऊदा देवी को अंग्रेजों ने “ब्लैक टाइग्रेस” कहा था। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हार्वर्ड रसेल ने अपने समाचार पत्र में पुरुष वेशभूषा में स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से गोलियां चलाने और अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाने का उल्लेख किया था। वाजिद अली शाह ने अपनी रानियों की सुरक्षा के लिए 30 स्त्रियों का सुरक्षा दस्ता बनाया था। जिन्हें फौजी प्रशिक्षण भी दिया जाता था। इसी सुरक्षा दस्ता की सदस्या ऊदा देवी थी। बाद में इस सुरक्षा दस्ते को स्त्री पलटन बना दिया गया था, जिसकी वर्दी का रंग काला था।


वीर वीरा पासी-


वीर योद्धा वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को रायबरेली जिले के लोधवारी में हुआ था। इनका मूल नाम शिवदीन पासी था। वीरा के बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था तो वीरा अपनी बहन बतसिया के यहाँ पर रहने लगे थे। कालांतर में बहन के यहाँ रहने वाले भाई को ‘वीरना’ कहा जाता था। इसलिए वीरना से वीरा नाम पड़ गया था।


अवध क्षेत्र में रायबरेली जनपद के शंकरपुर रियासत के राजा राणा बेनीमाधव सिंह थे। जिनका साम्राज्य बहराइच, गोंडा तक फैला हुआ था। राणा बेनी माधव सिंह की सेना में भर्ती होने के कठोर नियम थे। सेना में भर्ती होने आए युवकों को एक सेर (950 ग्राम) घी खिलाकर राणा साहब उनके सीना में मुट्ठी बंद करके एक घूसा मारते थे। जो युवक मूर्छित नहीं होता था, वह सेना में भर्ती हो जाता था। वीरा पासी एक घूसा खाकर भी टस से मस नहीं हुआ। तब वीरा को राणा बेनी माधव सिंह ने अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लिया। राना बेनी माधव सिंह अपने ननिहाल (नाइन-प्रतापगढ़) में पिता स्व० राम नारायण सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अनियोजित युद्ध में पिता श्री वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ समय बाद राणा साहब खलीलाबाद में गिरफ्तार कर लिए गए। अब राजमाता की आँखों से आँसुओं की धार लगातार बह रही थी, जो वीरा पासी से देखी न गई। वीरा पासी ने राणा बेनी माधव सिंह को जेल से छुड़वाने की गुप्त योजना बनाई। वीरा ने विश्वासपात्र लोहार से 12 नुकीली मजबूत लोहे की कील बनवाया। जेल मैनुअल के अनुसार मध्यरात्रि 12:00 बजे जैसे ही 12 बार घंटा बजना शुरू हुआ। उसी धुन के साथ ही वीरा पासी भी दीवाल में गुरु हथौड़े से एक-एक कील ठोकते हुए छत पर चढ़ गए और रोशनदान के रास्ते रस्सा डालकर राना बेनी माधव सिंह को जेल से आजाद करा लिया। तब राणा साहब ने विश्वासपात्र स्वामिभक्त वीरा पासी को अपना सेनापति नियुक्त किया।


वीरा पासी ने 50 से अधिक अंग्रेजों को जान से मार दिया था। जिसके कारण अंग्रेज थरथर कांपते थे। अंग्रेजों ने वीरा से भयभीत होकर उन्हें पकड़ने या पता बताने वाले को 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम की घोषणा किया था। फिर भी अंग्रेज सिपाही वीरा पासी को पकड़ न सके। भीरा की लड़ाई में कुछ देशीय गद्दारों की सहायता से अंग्रेजों ने गोरिल्ला युद्ध में माहिर राना बेनी माधव सिंह को घेर लिया था। वीरा पासी भी गोरिल्ला युद्ध कला में निपुण होने के कारण राणा साहब के प्राणों की रक्षा करते हुए देश के लिए स्वयं को बलिदान करके अमर शहीद हो गए।


गंगू मेहतर-


गंगू मेहतर अकबरपुर जनपद कानपुर के रहने वाले थे। तत्कालीन सामंती व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के कारण उच्च वर्ग से परेशान होकर गंगू मेहतर कानपुर शहर के चुन्नीगंज में आकर रहने लगे थे। एक बार बिठूर में गंगू मेहतर मरा हुआ बाघ कंधे पर रखकर ले जा रहे थे। तभी उधर से निकल रहे नाना साहब की दृष्टि गंगू पर पड़ी। नाना साहब ने अनजान गंगू से परिचय पूँछकर अपनी सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे गंगू ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। गंगू मेहतर बिठूर के शासक नाना साहब की सेना में नगाड़ा बजाने का कार्य करने लगे थे। गंगू कई नामों से जाने जाते हैं। धानुक जाति होने के कारण- गंगू मेहतर। पहलवानी का बचपन से शौक होने के कारण- गंगू पहलवान और देवी माँ का सती चौरा में रहने के कारण इन्हें- गंगू बाबा कहा जाता था। अंग्रेज सिपाही विदेशी असलहों से लैस होने के कारण नाना साहब की सेना पर भारी पड़ रहे थे। तब गंगू मेहतर ने बड़ी चालाकी से अपनी तलवार द्वारा 200 से अधिक अंग्रेजों को मार डाला था। तब ब्रिटिश हुक़ूमत और उनकी सेना सहम गई थी। कुछ समय बाद गंगू मेहतर को गिरफ्तार कर लिया गया और अंग्रेजों का कत्लेआम के जुर्म में तत्काल फांसी की सजा सुनाई गई। कानपुर के सिविल सर्जन अधिकारी जान निकोलस ने फांसी से पहले चुन्नी गंज चौराहे पर गंगू मेहतर के मूर्ति लगवाने का आदेश दिया था। मूर्ति लगने के बाद 8 सितंबर 1859 को गंगू को फांसी दे दी गई थी। फांसी का फंदा चुनने से पहले गंगू मेहतर ने कहा था- “भारत की माटी में हमारे पूर्वजों का खून और गंध है। एक दिन यह मुल्क आजाद होकर रहेगा।”


वीरांगना झलकारी बाई-


झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई कोली का जन्म 22 नवंबर सन 1830 को झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पति का नाम अमर शहीद पूरन सिंह कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी था। झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराह करके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी उसी समय रानी लक्ष्मीबाई दूसरी रणनीति तैयार करने लगती थी। अंतिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़ , किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। उनका प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया, तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी अंग्रेजों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबिरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी। जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर मजबूत टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से अंग्रेजों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। पहले पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हुई।


रणबीरी बाल्मीकि-


रणबीरी बाल्मीकि मुजफ्फर नगर के शामली की रहने वाली थी। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार में शामली स्वतंत्र जिला बन चुका है। महाभारत काल में शामली ‘कुरुक्षेत्र’ का हिस्सा हुआ करता था। 13 मई सन 1857 को संपूर्ण मुजफ्फर नगर या यूँ कहें, संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्वाधीनता पाने के लिए क्रांतिमय हो चुका था। तत्कालीन शामली तहसील का नेतृत्व चौधरी मोहर सिंह और कैराना क्षेत्र का नेतृत्व सैयद पठान कर रहे थे। दोनों रणबांकुरों का आपसी सामंजस्य देखकर अंग्रेज हैरान थे। चौधरी मोहर सिंह की मजबूत सैन्य पलटन थी, जिसका अहम हिस्सा शीघ्र ही रणबीरी वाल्मीकि बन गई। रणबीरी कुशल तलवारबाज और दुश्मनों को चकमा देने में महारत हासिल कर चुकी थी। अंग्रेज अफसर ग्रांट ज्वाइंट मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में ब्रिटिश टुकड़ी ने शामली पर हमला कर दिया। इस युद्ध में मोहर सिंह और रणबीरी वाल्मीकि ने अनगिनत अंग्रेजों के सर कलम कर दिया। बौखलाए अंग्रेजों ने महिला क्रांतिकारियों पर गोलियाँ बरसानी शुरू की। इस गोलीकांड में रणबीरी वाल्मीकि भी वीरगति को प्राप्त हुई।


बांके चमार-


बांके चमार कुअरपुर जनपद जौनपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सन 1857 में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूँका था। बांके चमार जौनपुर क्षेत्र का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज कई बार बांके चमार से पराजित हो चुके थे। तब उन्होंने बांके पर 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम रखा था। फिर भी अंग्रेज सिपाही कुशाग्र बुद्धि वाले, देश भक्त बांके चमार को पकड़ न सके। कुछ समय बाद ब्रिटिश सेना का सेवानिवृत्त सैनिक रमा शंकर तिवारी ने मुखबिरी करते हुए अंग्रेजों को बांके चमार के गुप्त ठिकाने के बारे में सूचित किया। वहाँ अचानक अंग्रेज पहुँच गए और लंबे संघर्ष में कई अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंत में 18 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ बांके चमार गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बांके चमार सहित 18 क्रांतिकारियों को चौराहा पर पेड़ से लटकाकर एक साथ फांसी दे दी गई थी।


बिरसा मुंडा-


मुंडा आदिवासी जनजाति में बिरसा का जन्म 15 नवंबर सन 1875 को उलीहातू रांची में हुआ था। बिरसा मुंडा कुशल योद्धा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। सर्वविदित है कि आदिवासी समाज जंगली फलफूल, कंदमूल खाकर जीवन यापन करता है, फिर भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूलता। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों का कई बार नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों से युद्ध करके विजय श्री प्राप्त की।
1 अक्टूबर सन 1884 को बिरसा ने सभी मुंडा जनजाति के लोगों को एकत्रित करके लगान माफी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। सन 1885 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके 2 वर्ष का कठोर सश्रम कारावास की सजा दी। उसके बाद जनता में चेतना जागृत हुई और वहाँ की जनता ने ही बिरसा मुंडा को “धरती बाबा” उपनाम दिया। सन 1897 से सन 1900 के बीच बिरसा मुंडा ने कई युद्ध अंग्रेज सिपाहियों से लड़े। एकबार तो बिरसा मुंडा ने लग्भग 400 सिपाहियों को तीर कमान के बल पर खदेड़ दिया था। उसके बाद आक्रोशित अंग्रेजों ने बहुत से आदिवासी स्त्री, पुरुष, बच्चों को गिरफ्तार किया। एक जनसभा को संबोधित करते हुए 3 फरवरी सन 1900 को बिरसा मुंडा भी गिरफ्तार कर लिए गए। रांची कारागार में 9 जून सन 1900 को बिरसा मुंडा की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। आज बिरसा मुंडा को आदिवासी समुदाय में ईश्वर की तरह पूजा जाता हैं।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अनेक गुमनाम और पन्नों से ओझल हो चुके वीर सपूतों, रणबांकुरों से भरा पड़ा है, परंतु भारत माता के उन वीरों को इतिहास के पन्नों में उचित न्याय नहीं मिल सका। इतिहासकारों, राजनेताओं या जनता में इच्छाशक्ति की कमी या जातिवाद का दंश अथवा अन्य कोई जो भी कारण रहा हो, तमाम शहीद आज भी गुमनाम हैं।


राजा डल पासी, राजा बल पासी, बिजली पासी, सुहेलदेव पासी, ताना जी मालुसरे कोरी, चौरी चौरा के नायक रमापति चमार, संपत चमार, कल्लू चमार, देश का दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड कहा जाने वाला मुंशीगंज, रायबरेली में 7 जनवरी सन 1921 को अंग्रेजों की पहली गोली खाने वाले बदरू बेड़िया जैसे असंख्य वीर सपूत भारत में भरे पड़े हैं, जिनके रक्त से भारत माता की जमीन लाल हो गई थी। तब सन 1947 में देश आजाद हुआ और आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। आवश्यकता है ऐसे अनगिनत वीर सपूतों की जयंती और पुण्यतिथि मनाई जाए। केंद्र व राज्य सरकारें, स्वयंसेवी संगठन, सर्व समाज, सर्व धर्म के लोग दलगत विचारधारा से ऊपर उठकर भारत के वीर सपूतों के पावन कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लें। उन महापुरुषों वीरों पर विस्तृत परिचर्चा हो। तभी पुण्यात्माओं को सच्चे अर्थों में हमारी श्रद्धांजलि अर्पित होगी, अन्यथा आने वाली नई पीढ़ी उन रणबांकुरों को भूल जाएगी।
तब देशप्रेमी कवि जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की कविता सार्थक होगी–
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥

वंदे मातरम जय हिंद

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

contribution-of-veeravar-veera-pasi-in-the-ruling-revolution
बैसवारा के प्रमुख साहित्यकार और उनकी रचनाएँ

बैसवारा की स्थापना महाराजा अभमचन्द्र बैस ने सन् 1230 ई. में किया था। बैसवारा क्षेत्र रायबरेली, उन्नाव लखनऊ के कुछ हिस्सों में फैला हुआ है। बैसवारा का केंद्रबिंदु लालगंज है। बैसवारा को कलम, कृपाण और कौपीन से समृद्ध क्षेत्र कहा जाता है, जिसने अनेक क्रान्तिकारियों और साहित्यकारों को जन्म दिया है।
प्रस्तुत हैं प्रमुख साहित्यकारों के नाम, जन्मस्थान, जीवनकाल (सन में) और उनकी रचनाओं का संक्षिप्त विवरण-

अन्य पढ़े : बैसवारा का सरेनी विकास खण्ड : इतिहास, भूगोल और संस्कृति

01- मुल्ला दाऊद

  • जन्मस्थान – डलमऊ (रायबरेली )
  • जीवनकाल – 1323 – 1418
  • रचनाएँ– चंद्रायन (फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में )

02- मलिक मोहम्मद जायसी

  • जन्मस्थान -जायस
  • जीवनकाल : 1467 – 1542
  • रचनाएँ- प‌द्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्ररेखा, कहरनामा

03- प्रताप नारायण मिश्र

  • जन्मस्थान -बैजेगाँव अचलगंज
  • जीवनकाल : 24/09/1856 – 06/07/1894
  • रचनाएँ– मन की लहर, पंचामृत, जुआरी खुआरी

04- महावीर प्रसाद द्विवेदी

  • जन्मस्थान– दौलतपुर, सरेनी
  • जीवनकाल- 15/05/1864 – 21/12/1938
  • रचनाएँ– हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, नाट्यशास्त्र, सरस्वती पत्रिका का संपादन

05- गयाप्रसाद शुक्ल

  • जन्मस्थान– सनेही हड़हा, अचलगंज
  • जीवनकाल-16/08/1883 – 20/05/1972
  • रचनाएँ- प्रेम पच्चीसी, कुसुमांजलि, राष्ट्रीय वीणा, राष्ट्रीय क्रंदन

06- सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

  • जन्मस्थान : मेदिनापुर बंगाल, (मूल निवास – गढ़ाकोला बीघापुर उन्नाव)
  • मृत्यु : प्रयागराज
  • जीवनकाल : 21/02/1896 – 15/10/1961
  • रचनाएँ- अनामिका, अपरा, आराधना, कुकुरमुत्ता, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, तोड़ती पत्थर, परिमल, राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, बंगभाषा का उच्चारण

07- तोरन देवी शुक्ल ‘लली’

  • जन्मस्थान : दिपवल उन्नाव , ससुराल हमीरगांव सरेनी
  • जीवनकाल : 12/08/1896 – 1960
  • रचनाएँ- रसिक मित्र, साहित्य सरोवर, स्त्री दर्पण, जागृति

08- रघुनन्दन शर्मा

  • जन्मस्थान : छोटी खेड़ा, सरेनी
  • जीवनकाल : (02/11/1898 – 08/06/1973)
  • रचनाएँ- अक्षर विज्ञान, वैदिक सम्प्रप्ति

09- द्वारिका प्रसाद मिश्र (MP के मुख्यमंत्री)

  • जन्मस्थान : पड़री उन्नाव
  • जीवनकाल : 05/08/1901 – 05/05/1988
  • रचनाएँ- कृष्णायन, शारदा, सारथी, लिविंग एण्ड एरा (आत्मकथा)

10- भगवती चरण वर्मा

  • जन्मस्थान : सफीपुर, उन्नाव
  • जीवनकाल : 30/08/1903 – 05/10/1998
  • रचनाएँ- चित्रलेखा, पतन, टेढ़े मेढे रास्ते, भैसा गाड़ी

11- प्रो. नन्द दुलारे वाजपेयी

  • जन्मस्थान : मागरायर बीघापुर
  • जीवनकाल : 04/09/1906 – 21/08/1967
  • रचनाएँ- भुलक्कड़ों का देश, छायावाद (निबन्ध), नया साहित्य नए प्रश्न,

12- प्रो. राम विलास शर्मा

  • जन्मस्थान : ऊँचगाँव सानी
  • जीवनकाल : 10/10/1912 – 03/05/2000
  • रचनाएँ : गाँधी, अग्बेडकर, निराला की साहित्य साधना, पश्चिम एशिया और ऋग्वेद।अज्ञेय के प्रथम तार सप्तक में शामिल

13- चन्द्रभूषण त्रिवेदी “रमई काका”

  • जन्मस्थान : रावतपुर टिकौली
  • जीवनकाल : 02/02/1915 – 18/04/1986
  • रचनाएँ- बौछार, गुलछरै, फुहार, नेता जी

14- शिवमंगल सिंह ”सिंह”

  • जन्मस्थान : झगरपुर, बारा
  • जीवनकाल : 05/08/1915 – 27/11/2002
  • रचनाएँ- हिल्लोल, जीवन के राग, प्रलय सृजन

15- श्रीलाल शुक्ल

  • जन्मस्थान : अतरौली मोहनलाल गंज
  • जीवनकाल : 31/12/1925 – 28/10/2011
  • रचनाएँ- राग दरबारी, विश्रामपुर का संत, अज्ञातवास

16- प्रो. शिव वहादुर सिंह भदौरिया

  • जन्मस्थान : धन्नीपुर, लालगंज
  • जीवनकाल : 15/07/1927 – 07/08/2013
  • रचनाएँ- पुरवा डोल गई, सुजन और प्रक्रिया, मानस चंदन

17- अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश”

  • जन्मस्थान : कदरावाँ, ऊँचाहार
  • जीवनकाल : 01/03/1929 – 02/06/1979
  • रचनाएँ- राज कलश, देवता मेरे देश का

18- रघुवीर सहाय

  • जन्मस्थान : लखनऊ
  • जीवनकाल : 09/12/1929 – 30/12/1990
  • रचनाएँ- हँसो हँसो जल्दी हँसो, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध।अज्ञेय के द्वितीय तार सप्तक में शामिल

19- देवीशंकर अवस्थी

  • जन्मस्थान : सथनी बाला, टेढ़ा
  • जीवनकाल : 05/03/1930 – 13/01/1966
  • रचनाएँ- ऋगुवेद, सामवेद और अथर्ववेद का हिन्दी अनुवाद, बैसवारी लोकरीति, कालिदास के सभी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद

20- मधुकर खरे

  • जन्मस्थान : ऊसरू, भोजपुर
  • जीवनकाल : 11/1935 – 10/01/1990
  • रचनाएँ- ये मेरा बैसवारा, सामने बैठ तुम हार गूथा करो

21- श्री स्वयम्बर सिंह गुरु जी

  • जन्मस्थान : रायपुर मझिगवां
  • जन्मतिथि : 01/07/1936
  • रचनाएँ- तृष्णा, तृप्ति, तेरह तरंग, तुष्टि

22 प्रो. श्री सूर्य प्रसाद दीक्षित

  • जन्मस्थान : बन्नावा, बछरावां
  • जन्मतिथि : 05/07/1938
  • रचनाएँ- उत्कर्ष, ज्ञानशिक्षा, कुल संदेश, प्रभास

23- श्री हरेन्द्र बहादुर सिंह

  • जन्मस्थान : चाँदा लालगंज
  • जन्मतिथि : 25.12.1939
  • रचनाएँ- पथ के गीत, कादम्बरी, गोशाला, गलियारा गाँव

24- श्री अशोक बाजपेयी

  • जन्मस्थान : रायबरेली
  • जन्मतिथि : 16/01/1941
  • रचनाएँ- सीढ़िया शुरू हो रही हैं, कविता का गल्प, अभी कुछ और

25- श्रीमती चित्रा मुद्‌गल

  • जन्मस्थान : निहाली खेड़ा धनीखेड़ा
  • जन्मतिथि : 10/12/1944
  • रचनाएँ- एक जमीन, बेईमान, अढ़ाई गज की ओढ़नी, आवां, द हाइना एण्ड अदर स्टोरी

26- दिनेश सिंह

  • जन्मस्थान : गौरा रुपई, लालगंज
  • जीवनकाल : 14/09/1947 – 02/07/2012
  • रचनाएँ- नये पुराने, नवनीत दशक

27 प्रो. श्री ओम प्रकाश सिंह

  • जन्मस्थान : उतरागौरी, लालगंज
  • जन्मतिथि : 08.12.1950
  • रचनाएँ- राना बेनी माधव (नाटक), सर्जना के पंख, इतिहास के पन्ने, ये समय के गीत हैं, एक चिंगारी और, नवगीत (8 खण्ड)

28- प्रो. श्रीमती चम्पा श्रीवास्तव

  • जन्मस्थान : आनंद नगर सदर, रायबरेली
  • जन्मतिथि : 13/07/1951
  • रचनाएँ : अंजुरी भर अभिव्यक्ति, विन्यास, इन्द्रधनुषी धड़कन
  • निष्कम्प दीपशिखा : डॉ० चंपा श्रीवास्तव (आस्थाग्रंथ) संपादक- प्रो० अशोक कुमार रायबरेली

29- आचार्य श्री सूर्यप्रसाद शर्मा ‘निशिहर’

  • जन्मस्थान : मानपुर, खीरों
  • जन्मतिथि : 12/09/1954
  • रचनाएँ- टुकवा, राना बेनी माधव, हार न माने, लाल पतंग पहिला खुद का सुधारौ, समय के शब्द, हाइकू

30- रामसनेही विनय

  • जन्मस्थान : पूरे भैरोमिश्र, लालगंज
  • जन्मतिथि : 10/01/1958
  • रचनाएँ- लोक सेवक, हजारिका, आग का दरिया, टुकड़े टुकड़े दुख, ठहरे हुए पानी में

31- डॉ० प्रो० संजय कुमार सिंह

  • जन्मस्थान : डीह
  • जन्मतिथि : 01/01/1968
  • रचना- आओ मन की बीन बजाएँ

32- डॉ० अशोक कुमार अज्ञानी

  • जन्मस्थान : रामपाल खेड़ा, कुर्री सुदौली
  • जन्मतिथि : 01/08/1967
  • रचनाएं : खुनखुनिया, माहे-परसू, धिरवा, विखर जाने दो, चिरइया कहाँ रहैं

33- श्री अवधेश सिंह (अध्यक्ष जिला पंचायत रायबरेली)

  • वर्तमान पता : पंचवटी नेबाज गंज
  • जन्मतिथि : 30/08/1970
  • रचना- स्मृति कलश

34- डॉ० आजेन्द्र प्रताप सिंह

  • जन्मतिथि : 01/03/1978
  • वर्तमान पता : कृष्णा नगर रायबरेली
  • रचनाएँ- बैसवाड़े का समृद्ध कथा साहित्य, शौर्य की सरजमीं बैसवारा, जायस और मलिक मोहम्मद जायसी समग्र, बैसवारा और पं० सूर्यकांत त्रिपाठी निराला समग्र

अन्य लेख पढ़े : राजा रावराम बख़्श सिंह (डौडियाखेड़ा) : सत्तावनी क्रांति के अमर नायक

लेखक/संकलनकर्ता –

सरयू-भगवती कुंज,
अशोक कुमार गौतम,
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ०प्र०)
मो० 9415951459

राजा रावराम बख़्श सिंह (डौडियाखेड़ा) : सत्तावनी क्रांति के अमर नायक

राजा रावराम बख़्श सिंह (डौडियाखेड़ा) : सत्तावनी क्रांति के अमर नायक

जला अस्थियां बारी-बारी, फैलाई जिसने चिंगारी’
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर, लिए बिन गर्दन की मोल।
कलम आज उनकी जय बोल..।

(रामधारी सिंह दिनकर)

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भारत के अनेक राजा, महाराजा, ताल्लुकेदारों ने खुलकर हिस्सा लिया और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इसी श्रंखला में अवध के राजाओं और ताल्लुकेदारों के नाम अत्यंत आदरणीय हैं। अवध क्षेत्र के अंतर्गत बैसवारा स्थित डौडिया खेड़ा जनपद उन्नाव के राजा राव रामबख्श सिंह का नाम सर्वोपरि है। अंग्रेजों के विरोध में लड़ते हुए इन्होंने अपनी वीरता से अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाई थी। कुछ देशीय गद्दारों की निशानदेही पर रावराम बख़्श सिंह को बनारस में अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और इन्हें अंग्रेज सिपाहियों, अंग्रेजों की महिलाओं तथा उनके बच्चों के कत्ल के अपराध में बक्सर स्थित बरगद के पेड़ पर सरेआम फांसी दे दी गई। राजा राव राम बख़्श सिंह हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से एक हैं, जिन्होंने फांसी का फंदा स्वयं अपने गले में पहना। इस नर नाहर की शौर्य गाथाएं स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं जिससे आने वाली पीढ़ी अमर सपूत पर सदैव गर्व करेगी। इनकी वीरता की कहानियां युगों-युगों तक सुनी जाएंगी।

अन्य पढ़े : Baisavaara Ka Sarenee Vikaas Khand | बैसवारा का सरेनी विकास खण्ड : इतिहास, भूगोल और संस्कृति

राजा राव राम बख़्श सिंह बैसवारा के ऐसे रणबांकुरे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए खागा-फतेहपुर रियासत के राजा दरियाव सिंह और शंकरपुर-रायबरेली रियासत के राजा राणा बेनीमाधव सिंह से हाँथ मिलाया था। कहा जाता है कि राव राम बख्श सिंह का जो वर्तमान किला गंगा नदी किनारे स्थित है, उसको छठी शताब्दी में चंद्रगुप्त ने बनवाया था। बाद में इस किले पर बाहुबली “भरों’ का शासन हो गया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद पर हमला किया

सन 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद पर हमला किया था। उस हमले में जयचंद के सेनापति केशव राय मारे गए थे। केशव राय के दो बेटे अभय चंद और निर्भय चंद थे। सन 1215 ईस्वी में यह दोनों भाई डौडिया खेड़ा उन्नाव आ गए थे। इससे पहले डौडिया खेड़ा को संग्रामपुर के नाम से रिकॉर्ड में जाना जाता था। अभय चंद और निर्भय चंद ने वंशज के रूप में अपने वंश की वीरता का मान सदैव बनाए रखा था।

अन्य पढ़े : भारत में आपातकाल के सिंघम : लोकबंधु राजनारायण

अभय चंद के पोते सेढू राय ने भरों का किला जीता

यहां पर “भर” जाति के लोग राज्य कर रहे थे। अभय चंद के पोते सेढू राय ने भरों का किला जीता। अभयचन्द बैस ने सन 1230 ई० में अपना साम्राज्य “बैसवारा” नाम से बसाया था। इसका उल्लेख अंग्रेज कलेक्टर इलियट की पुस्तक CRONICALS OF UNNAO में मिलता है। अभय चंद के वंशज महाराजा त्रिलोकचंद प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने ही बैसवारा का विस्तार किया। त्रिलोकचंद मैनपुरी के राजा सुमेरशाह चौहान और बहलोल लोदी से जुड़े हुए थे।

सेढूराय ने किले के अंदर भी दो अभेद किलों का निर्माण कराया था। त्रिलोक चंद के 24वें वंशज राजा राव राम बख्श सिंह थे, जिन्होंने मात्र 8 वर्ष तक शासन किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

डौड़िया खेड़ा का पूर्व नाम द्रोणमुख है

राजा रावराम बख़्श सिंह ने किले के अंदर ऐतिहासिक शिव मंदिर बनवाया साथ ही एक कुएं का निर्माण कराया था। आज भी यह मंदिर माँ सुरसरि के उत्तरी तट पर सुशोभित हो रहा है। वास्तव में डौड़िया खेड़ा का पूर्व नाम द्रोणमुख है। चंद्रगुप्त के शासन काल में 500 गांव का क्षेत्र होता था। जिसे द्रोणमुख कहते थे और उस क्षेत्र को द्रोण क्षेत्र कहते थे। डौडिया खेड़ा इसी का बिगड़ा हुआ रूप है। शाब्दिक दृष्टि से डौडिया खेड़ा का अर्थ होता है- डौड़ी (डुग्गी) पीटने वालों का गांव।

राजा रावराम बक्श सिंह के अभेद किले की भौगोलिक स्थिति की बात करें तो किला जिला मुख्यालय उन्नाव से 38 किलोमीटर दूर बक्सर के समीप डौडिया खेड़ा स्थित है। यह किला 50 फीट ऊँचे टीले पर बना हुआ है। किले के दक्षिण-पश्चिम दिशा को स्पर्श करते हुए अविरल गंगा नदी बहती रहती है। इस किले का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की तरफ था। किले का संपूर्ण क्षेत्रफल 192500 वर्गफीट तक फैला है। किले के ठीक सामने 500 मीटर दूर पूर्व दिशा की ओर रानी महल बना हुआ था, जिसका मुख्य द्वार आज भी अपने शौर्य गाथा लिए हुए खंडहर के रूप में खड़ा हुआ बदहाली के ऑंसू बहा रहा है।

सन 1857 में हर तरफ क्रांति की मशालें जल रही थी। अंग्रेजों के अत्याचार के कारण हर तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई थी। पेशवा के राजा नाना साहब (घोघू पंत) गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे। फिर भी परेशान रहते थे, क्योंकि उनका खजाना अंग्रेज लूटना चाहते थे। नाना साहब ने इस खबर की भनक लगते ही रातों-रात अपने खजाने को गंगा नदी के रास्ते डौडिया खेड़ा भेजवा दिया था। इससे राव राम बक्श सिंह की रियासत और अधिक समृद्ध तथा शक्तिशाली हो गई थी।

उन्नाव गजेटियर के अनुसार यह क्षेत्र हमेशा से सर्वाधिक लगान देने वाला रहा है 18 वीं शताब्दी में डौडिया खेड़ा अपने रियासत से 200 पाउंड लगा देता था, जो भारत के लिए एक मिसाल था। नाना साहब स्वयं राजा राव राम बक्श सिंह को अपना दाहिना हाथ और राजा दरियाव सिंह को बायाँ हाथ मानते थे।

सन 1857 की ग़दर के बाद राजा राव राम बक्श सिंह बनारस चले गए थे। इसी दौरान अवसर पाकर अंग्रेजों ने पहली बार जून 1857, दूसरी बार नवंबर 1857 में किला पर आक्रमण कर तहस-नहस कर दिया था, फिर भी अंग्रेज खजाना नहीं पा सके।

राजा रावराम बक्श सिंह की दो रानियां थी और दोनों के कोई पुत्र नहीं था। बड़ी रानी कालाकांकर प्रतापगढ़ रियासत की और छोटी रानी रायबरेली-प्रतापगढ़ के मध्य में स्थित नायन रियासत की रहने वाली थी। गदर की शुरुआत के बाद दोनों अपने-अपने मायके चली गई थी। वहीं दोनों रानियों की मृत्यु हो गई।

राव रामबख्श सिंह बनारस में सन्यासी हो गए थे। अंग्रेजों ने अवसर का लाभ उठाते हुए रियासत के दो टुकड़े कर दिया था। पहला हिस्सा मुरारमऊ के राजा दिग्विजय सिंह को और दूसरा हिस्सा मौरावां के खत्रियों को दे दिया था। इसी लालच में आकर इन दोनों राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया और राजा राव साहब के साथ कुछ गद्दारी की थी।

सन 1857 की क्रांति के तहत 2 जून को डिलेश्वर मंदिर में 12 अंग्रेजों को राजा रावराम बख़्श सिंह ने जिंदा जला दिया था। इसमें अंग्रेज अधिकारी डीलाफौस भी जलकर मर गए थे। राजा राव राम बक्श सिंह गंगा की गोद में विराजमान शक्तिपीठ माँ चंद्रिका देवी के अनन्य भक्त थे। राव साहब चंद्रिका देवी के दर्शन के पश्चात गले में गेंदा की माला पहनते थे और उसके बाद ही सिंहासन पर बैठते थे। अंग्रेजों को जिंदा जलाने के जुर्म में राव साहब को फांसी की सजा सुनाई गई थी तत्पश्चात उन्हें पुराने बक्सर में गंगा तट पर स्थित वटवृक्ष पर 3 बार लटकाया गया, किंतु राजा राव साहब के प्राण नहीं निकले। राव साहब ने अपने गले में पड़ी माला को पवित्र गंगा की गोद में विसर्जित करके माँ गंगा से अपने को आगोश में लेने की प्रार्थना की, उसके बाद अंग्रेजों ने पुनः बरगद के पेड़ पर लटकाकर मृत्यु दंड दिया। राव साहब 28 दिसंबर 1859 को मृत्युदंड पाते हुए फांसी पर लटक कर शहीद हो गए थे। 28 दिसंबर 1859 बैसवारा का यह सूर्य हमेशा हमेशा के लिए अस्त हो गया।

जनश्रुतियों में यह भी प्रचलित है कि राव साहब शालिग्राम की सिद्ध गुटिका मुँह में रख लेते थे। इससे फांसी ठीक प्रकार से न लगने के कारण उनके प्राण बच जाते थे। ऐसा दो बार हुआ किंतु मुरारमऊ के राजा दिग्विजय सिंह को यह रहस्य मालूम था। उन्होंने अंग्रेजों को गुटिका के बारे में बताया तो, राव साहब ने गुटिका को गंगा नदी में सम्मान पूर्वक फेंक दिया। जिसे अंग्रेजों ने बहुत खोजा को गुटिका नहीं मिली। तत्पश्चात अंग्रेजों ने राव साहब को फांसी दी थी। क्षेत्रीय जनता में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था, इसलिए जनमानस ने वट वृक्ष में आस्था प्रकट करते हुए उस पेड़ की पूजा करनी शुरू कर दी थी। तब अंग्रेजों ने डरकर उस पेड़ को ही कटवा दिया था कि कहीं जनता में बदले की आग भड़क उठे। पेड़ की पहचान बनाए रखने के लिए दूसरा बरगद का पेड़ लगाया गया है। उसी गंगा तट पर सुंदर पार्क बनवाया गया, जिसका नाम अमर शहीद राजा राव राम बक्श सिंह पार्क रखा गया है पार्क में राव साहब की विशाल मूर्ति लगाई गई है। पार्क में गुलाब वाटिका बहुत सुंदर और मनोहारी है।

राव साहब को फांसी देने के बाद अंग्रेज कोई भी निशानी डौडिया खेड़ा में नहीं छोड़ना चाहते थे, इसलिए डौडिया खेड़ा का किला गिरवाना शुरू किया, किंतु किले की छोटी सी दीवार तक मजदूर न गिरा सके, तत्पश्चात अंग्रेजों ने तोप के गोलों से किले को धराशाई कर दिया था। आज सिर्फ किला के अवशेष मात्र ही दिखाई पड़ते हैं। किले के बगल में भव्य शिव मंदिर विराजमान है, जिसको राव साहब ने बनवाया था। आक्रोश में अंग्रेजों ने अपनी बंदूक की गोलियों से मंदिर की बाहरी दीवारों पर नक्काशीदार प्रत्येक मूर्ति को कुछ न कुछ पहुंचाई थी। मंदिर के बाहर बने विशाल नंदी बैल के कान और मुँह भी अंग्रेजों ने तोड़ दिया था। यह सब आज भी जीवंत देखा जा सकता है। बैसवारा के महानायक अमर शहीद राजा राव राम बक्श सिंह का नाम सम्मान पूर्व सदियों तक सभी लोगों द्वारा लिया जाता रहेगा। राव साहब की वीरता और उनके स्मृतियों को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 28 दिसंबर को डौडिया खेड़ा में विशाल मेला और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
तब जगदंबिका पाल मिश्र ‘हितैषी‘ द्वारा सन 1916 में लिखी गयी काव्य-पंक्तियां सार्थक हो जाती है –

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।।

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार)
शिवा जी नगर (वार्ड नं 10) – रायबरेली (उ०प्र०)
मो० 9415951459

वरिष्ठ साहित्यकार रंगनाथ मिश्र का आकस्मिक निधन | अखिल भारतीय अगीत परिषद

लखनऊ : वरिष्ठ साहित्यकार रंगनाथ मिश्र का आकस्मिक निधन दिनांक 1.2.2022 को उनके निजी आवास राजाजीपुरम लखनऊ में हो गया है । उनके निधन पर सभी साहित्कार बंधु उनके परिचित मित्रगण सूचना से अवगत होकर बहुत बड़े दुख का अनुभव कर रहे हैं।

डॉ.सत्य के निधन पर सृजन संस्थान के तत्वावधान में शत्रुघ्न सिंह चौहान की अध्यक्षता में आज शाम एक शोक सभा का आयोजन भी किया गया जिसमें जनपद के अनेक कवियों ने विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश भी डाला ।

डॉ.सत्य का परिचय

डॉ.सत्य का परिचय देते हुए संस्था के पदाधिकारी डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज ने बताया कि उन्होंने 1966 में अखिल भारतीय अगीत परिषद की स्थापना करके हिंदी साहित्य के काव्य क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। तथा अगीत विधा सन 1975 से गद्य क्षेत्र में संतुलित कहानी विधा का तथा 1998 में हिंदी समीक्षा के क्षेत्र में संघात्मक समीक्षा पद्धति को प्रारंभ किया । जिसके वह जनक कहे जाते हैं ।

आपके द्वारा चलाई गई अगीत विधा पर कई विश्वविद्यालयों की स्नातकोत्तर परीक्षाओं में प्रश्न पूछे गए हैं । तथा उन्होंने अगीत त्रैमासिक पत्रिका को भी सन 1967 से अनवरत संपादित किया ।
विभिन्न बाधाओं से जूझते हुए डॉ. सत्य ने अभी तक निरंतर संपादन में संलग्न रहे । तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए अनेक गोष्ठियों , तथा कवि सम्मेलनों का आयोजन अखिल भारतीय स्तर पर बराबर करते रहे हैं। उन्हें हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्य भूषण सम्मान से भी अलंकृत किया गया है ।
इसके साथ ही वह एक ऐसे राज्य कर्मचारी थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में एक ही स्थान में पूरी जीवन की सेवाएं अर्पित करते हुए सम्मान पूर्वक वर्ष 2000 में केंद्र प्रभारी के पद से सेवानिवृत्त हुए ।
डॉ. नीरज ने लगभग 40 वर्षों का उनका सानिध्य मिलने की बात बताते हुए कहा कि डॉ. सत्य हमेशा साहित्य की सेवा के लिए तत्पर रहे हैं और हमारी संस्था के भी बड़े बड़े आयोजनों से लेकर छोटे-छोटे आयोजनों तक अपनी गरिमामई उपस्थिति प्रदान कर गौरव बढ़ाते रहें हैं। तथा उनके निधन से साहित्य जगत में अपूर्णनीय क्षति बताया।

सभी साहित्यकारो ने दिवंगत आत्मा को शांति तथा उनके परिवार को धैर्य धारण करने की क्षमता प्रदान करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना किया ।शोक सभा में सर्वश्री नवल किशोर तिवारी एडवोकेट ,हरीश चंद्र त्रिपाठी हरीश, दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश ,प्रदीप त्रिवेदी दीप, सुमित तिवारी सुमित ,अंगद त्रिवेदी ,दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश, सूर्य प्रसाद शर्मा निशिहर ,इंद्र बहादुर सिंह भदौरिया इंद्रेश, शिव बहादुर सिंह दिलबर, डा. राधारमण रमणेश, आदि जनपद के अनेक साहित्यकारों ने उन्हें अपनी विनम्र भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित किया।

contribution-of-veeravar-veera-pasi-in-the-ruling-revolution
हिंदी के प्रमुख साहित्यकारों के लोकप्रिय नाम

हिंदी के साहित्यकारों को सीमित दायरे में बांधा नहीं जा सकता है। साहित्यकारों के लिए खुला आकाश है तो स्वच्छंद जमीं। कवि या लेखक अपनी कल्पनाओं से किसी वस्तु, स्थान, व्यक्ति आदि का मानो सजीव चित्रण प्रस्तुत करता है, तो कभी यथार्थ लिखता है। उन कवियों/लेखकों की अपरिमित योग्यता देखते हुए प्रस्तुत हैं –

हिंदी के प्रमुख साहित्यकारों के लोकप्रिय नाम

  • वाल्मीकि – आदिकवि, महर्षि
  • स्वयंभू – अपभ्रंश का वाल्मीकि
  • आचार्य कालिदास – भारत का शेक्सपियर
  • सियारामशरण गुप्त – हिंदी का गोल्ड स्मिथ
  • बाबू जगन्नाथ दास – हिंदी का टेनिसन
  • आचार्य शिवपूजन सहाय – बिहार का महावीर प्रसाद द्विवेदी
  • शिवपूजन सहाय – भाषा का जादूगर
  • सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन – अज्ञेय, हिंदी का इलियट, कठिन गद्य के प्रेत
  • कबीर दास – कबीर साहब, वाणी का डिक्टेटर, विद्रोहीकवि
  • आचार्य केशव दास – कठिन काव्य का प्रेत, हिंदी का मिल्टन, क्लासिक पंडित
  • अब्दुल रशीद – आधुनिक रसखान
  • मिर्जा नासिर हसन – आधुनिक रहीम
  • बाबू श्याम सुंदर दास – शब्द सम्राट कोश
  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल – साहित्य का महारथी
  • बिहारी – हिंदी का गालिब, शब्दों के चतुर, ध्वनिवादी कवि
  • जगदीश चंद्र माथुर – हिंदी का लघु प्रसाद
  • हरिश्चंद्र – भारतेंदु, रसा, युग का वैतालिक, हिंदी नवजागरण का अग्रदूत
  • कुंभन दास – अष्टछाप का ऋषि
  • गद्दाधर भट्ट – ऊँची योग्यता का कवि
  • सूर्यकांत त्रिपाठी निराला – मतवाला, निराला, साहित्यशार्दुल, महाप्राण
  • गोस्वामी तुलसीदास – लोकनायक, कवि शिरोमणि, कलिकाल का वाल्मीकि, नारी निंदक
  • सूरदास – वात्सल्य रस के सम्राट, अष्टछाप का जहाज, उद्धव का अवतार, पुष्टिमार्ग का जहाज
  • जयशंकर प्रसाद – नाटक सम्राट, आधुनिक कविता के सुमेरु
  • विद्यानिवास मिश्र – परंपरा जीवी
  • प्रताप नारायण मिश्र – हिंदी का लैम्ब
  • पंडित राम दीन मिश्र – हिंदी का मम्मट
  • आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी – अवतारी पुरुष, सुकवि किंकर
  • जानकी वल्लभ शास्त्री – छोटे निराला
  • राजा लक्ष्मण सिंह – हिंदी का मल्लिनाथ
  • बाबू जयशंकर प्रसाद – आधुनिक काल का पद्माकर
  • मैथिलीशरण गुप्त – हिंदी का राष्ट्र कवि
  • रामधारी सिंह दिनकर – आधुनिक काल का राष्ट्रकवि
  • महादेवी वर्मा – आधुनिक मीरा, विरह की कवयित्री, विरह की देवी
  • मुंशी प्रेमचंद – उपन्यास सम्राट
  • उपेन्द्रनाथ – अश्क, माध्यम वर्ग का चितेरा
  • विद्यापति – मैथिल कोकिल
  • सुमित्रानंदन पंत – गोसाइदत्त, पंत, प्रकृति का सुकुमार कवि, अप्सरालोक का कवि, स्वरसिद्ध,
  • हरिवंश राय – बच्चन, जनता के बीच के कवि , आत्मानुभूति के कवि
  • माखनलाल चतुर्वेदी – एक भारतीय आत्मा
  • नागार्जुन – वैद्यनाथ मिश्र, यात्री, ढक्कन, बाबा, राजनीतिक कवि
  • वृंदावन लाल वर्मा – बुंदेलखंड का चंदबरदाई
  • घनानंद – प्रेम की पीर का कवि
  • दुष्यंत कुमार – हिंदी गजलों का राजकुमार
  • भवानी प्रसाद मिश्र – कविता का गाँधी
  • गजानन माधव मुक्तिबोध – भयानक खबरों का कवि
  • रामविलास शर्मा – अगिया बेताल
  • मतिराम – पुराने पंथ के पथिक
  • वियोगी हरि – गद्य काव्य का लेखक
  • राजा शिव प्रसाद – सितारे हिन्द
  • मिश्र बंधु – गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र, शुक्र देव मिश्र
  • भूषण – भारतीय जनजीवन का कवि
  • त्रिलोचन – अवध का किसान कवि, धरती का कवि
  • मीराबाई – भक्ति के तपोवन की शकुंतला, राजस्थान का मरुस्थल की मन्दाकिनी
  • धर्मवीर भारती – प्रेम के कवि
  • रघुवीर सहाय – कुशल शिल्पी, आत्मचेतना कलाकार
  • वियोगी हरि – आध्यात्म चिंतन सर्वेश्वरवादी कवि, बज्रपति के उपासक
  • आचार्य सूर्य प्रसाद शर्मा – निशिहर
  • पुष्पदंत – हिंदी का भवभूति, भाखा की जड़, अभिमान मेरु, काव्य रत्नाकर, कविकुल तिलक
  • अमीर खुसरो – अब्दुल हसन
  • नंददास – गढ़िया और जड़िया कवि
  • हेमचंद्र – प्राकृत का पाणिनि, कलिकाल
  • बद्रीनाथ नारायण- चौधरी, प्रेमधन,
  • अयोध्या सिंह उपाध्याय – हरिऔध
  • राय देवी प्रसाद – पूर्ण
  • गया प्रसाद शुक्ल – स्नेही, त्रिशूल
  • गिरधर शर्मा – नवरत्न
  • सत्यनारायण – कविरत्न, ब्रज कोकिल, श्रीश
  • बाल मुकुंद गुप्त – शिवशंभू
  • चंद्रधर शर्मा – गुलेरी
  • जगन्नाथ प्रसाद – भानु
  • मोहनलाल महतो – वियोगी
  • जनार्दन प्रसाद झा- द्विज
  • रामेश्वर शुक्ल – अंचल
  • शिवरत्न शुक्ल – बलई
  • कांतानाथ पांडेय – चोंच
  • जगदंबा प्रसाद मिश्र – हितैषी
  • हरिकिशन – प्रेमी
  • जे.पी. श्रीवास्तव – गंगा प्रसाद श्रीवास्तव
  • पांडेय बेचन शर्मा – उग्र, अष्टावक्र
  • बद्रीनाथ भट्ट – सुदर्शन
  • राजेंद्र बाला घोष – बंग महिला
  • कृष्णदेव प्रसाद गौड़ – बेढब बनारसी
  • बालकृष्ण शर्मा – नवीन
  • केदारनाथ मिश्र – प्रभात
  • रमाशंकर शुक्ल – रसाल
  • लक्ष्मी नारायण – सुधांशु
  • रामकृष्ण शुक्ल – शिलीमुख
  • भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र – माधव
  • गिरजा दत्त शुक्ल – गिरीश
  • शिवमंगल सिंह – सुमन, विभ्राट वासना के कवि,
  • मुंशी सदा सुखलाल – नियाज
  • फणीश्वर नाथ – रेणु, धरती का धन
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी – बीसवीं सदी का बाणभट्ट, वैद्यनाथ द्विवेदी, व्योमकेश
  • बाबू गोपाल चंद्र – गिरिधर दास
  • विश्वंभर नाथ शर्मा – कौशिक, विजयानन्द दुबे
  • अभिमन्यु – अनत, शबनम
  • वासुदेव सिंह – त्रिलोचन, किवदंती पुरुष, अवध का किसान कवि
  • शमशेर बहादुर सिंह – कवियों के कवि, मूड्स के कवि, बात के कवि, कुलदीप सिंह
  • त्रयम्बक वीर राघवाचार्य – रंगेय राघव
  • कैलाश सक्सेना – काका, कमलेश्वर
  • नारायण प्रसाद – बेताब
  • चंडी प्रसाद – हृदयेश
  • शिव प्रसाद मिश्र – रूद्र, काशिकेय
  • गुलशेर खान – शानी
  • प्रभु लाल गर्ग – काका हाथरसी
  • मनोहर श्याम जोशी – कल के वैज्ञानिक
  • कृष्णदत्त शर्मा के०डी०, हाहाकारी
  • आचार्य सूर्य प्रसाद शर्मा – निशिहर

अशोक कुमार गौतम (असिस्टेंट प्रोफेसर)

श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय
हरचंदपुर – रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459

सुमित्रानंदन पंत के काव्य में सुंदरम का दर्शन

सुमित्रानंदन पंत के काव्य में सुंदरम का दर्शन

प्रकृति के चितेरे और छायावाद के कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई सन 1900 ई० को कौसानी जिला अल्मोड़ा उत्तराखंड में हुआ था। पिता का नाम गंगा दत्त और माता का नाम सरस्वती था। सुमित्रानंदन पंत का जन्म के 8 घंटा बाद माता सरस्वती की असमय मृत्यु हो गई थी। आपका पालन-पोषण आपकी दादी ने किया था। पंत का बचपन का नाम गोसाई दत्त था।

रचनाएँ
सुमित्रानंदन पंत जी की प्रमुख रचनाएँ पल्लव, वीड़ा, नौका विहार, गुंजन, बादल, लोकायतन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, ताज आदि हैं। पंत ने प्रगतिवाद में भी कुछ रचनाएँ की हैं, जिनमें प्रमुख युगवाणी, ग्राम्या हैं। पंत के जीवन की अंतिम काव्यकृति ‘सत्य काम’ है। सुमित्रानंदन पंत जी महर्षि अरविंद घोष के दर्शन से प्रभावित थे। जिसको आधार मानकर नौका विहार की रचना सन 1932 में किया। जिसमें प्रतापगढ़ के काला कांकर के राजा दिनेश सिंह का राजमहल और सदानीरा माँ गंगा का वर्णन है। पंत जी सामाजिक संबंधों को भी निभाने मे आगे रहते थे। पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की सपुत्री ‘सरोज’ बीमारी की हालत में राना बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली में भर्ती थी और बाद में असमय मृत्यु हो गई थी, तब पंत जी इसी अस्पताल में सरोज को देखने आए थे।
पुरस्कार
सुमित्रानंदन पंत को सन 1961 में पद्म विभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। सन 1977 में चिदंबरा कृति पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला।

‘ताज’ कविता सन 1935 में लिखी गई, जो कार्ल मार्क्स का मूल आधार- शोषित और शोषक पर आधारित थी। ताज के माध्यम से पंत ने लिखा है कि कब्र दफन व्यक्तियों पर चादर चढ़ाया जाता है और जीवित लोग भूखे-नंगे सो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत सबसे अधिक चमकीला शुक्रतारा को अपना मानते थे और दुर्भाग्य से प्रयागराज में 28 दिसंबर सन 1977 को पंत नामक ‘शुक्र’ हमेशा-हमेशा के लिए अस्त हो गया।

सुमित्रानंदन पंत के प्रकृति संबंधी विचार
संसार में जहाँ पुरुष है वहाँ प्रकृति है। जहाँ प्रकृति है वहाँ पुरूष है। दोनों एक-दूसरे के सहचर रहे हैं। पुरुष प्रकृति की गोद में हर सुख सुविधा रूपी अमूल्य निधि निःशुल्क प्राप्त करता है। नारी सौंदर्य या प्रकृति सौंदर्य को कवि अपना प्रमुख विषय मानते हैं, परन्तु सुमित्रा नंदन पंत ने प्रकृति को ही सौंदर्य का विषय माना है। ग्रामीणांचल हो या शहरी क्षेत्र, हर स्थान पर प्रकृति का विशेष महत्व रहता है। आपका गांव प्रकृति की गोद में ही बसा हुआ है, इसलिए छायावादी कवि पंत प्रकृति कुशल चितेरे कवि हैं। पंत ने मानवीय चेतना के समान प्रकृति को भी हंसते-रोते दिखाया है-
अचिरता देख जगत की आप,
शून्य भरता समीर निश्वास।
डालता पातों पर चुपचाप,
ओस के आँसू नीलाकाश।।

प्रकृति ने मानव को सौंदर्य तथा कल्पनाजीवी बनाया है। जिसमें ज्ञान आध्यात्म रहस्य छिपा हुआ है। प्रकृति के द्वारा रहस्यवाद का दर्शन का गौरव पंत को प्राप्त हुआ है। मौन निमंत्रण कविता में पंत ने लिखा है-
स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार,
चकित रहता शिशु सा नादान।
विश्व के पलकों पर सुकुमार,
विचरते हैं जब स्वप्न अजान।
न जाने नक्षत्रों से कौन?
निमंत्रण देता मुझको मौन।

सुमित्रानंदन पंत ने कविता नौका विहार के माध्यम से दार्शनिक के रूप में स्वयं को स्थापित किया है, क्योंकि पंत का दार्शनिक दृष्टिकोण परमसत्य अर्थात मोक्ष की और ले जाता है। नौकाविहार कविता सृजन के बाद पंत जी भक्तिकालीन कवियों की उच्चकोटि की श्रेणी में समाहित किये जा सकते हैं। महर्षि अरविंद से प्रभावित हैं। प्रकृति की ही तरह मनुष्य का जीवन और जन्म-मरण को परिभाषित किया है-
इस धारा का सा ही जग का क्रम,
शास्वत इस जीवन का उद्गम।
शास्वत है गति, शाश्वत है संगम।
हे जगजीवन के कर्णधार,
चिर जन्म मरण के आर पार,
शास्वत जीवन नौका विहार।

पंत जी ने प्रकृति के माध्यम से सौन्दर्यानुभूति की कल्पना करते हुए नायिका के कोमल अंगों की तुलना सोनजुही की बेल से किया है। ‘सोनजूही की कली’ कविता में यदि नायिका सोनजूही है, तो नायक भी पवन है। कहने का आशय है- पंत जी ने अपनी कविताओं में पात्रों का नामकरण में भी मानवीकरण किया है-
दुबली पतली देह लतर लोनी लंबाई,
प्रेम डोर सी सहज सुहाई। फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई,
निखरे रंगों की गोराई।
(सोनजुही – अंतिमा सन 1954)

अपने जीवन का सर्वत्र त्यागने को तैयार थे, लेकिन प्रकृति की गोद नहीं छोड़ सकते थे। तभी तो उन्होंने नदी, तालाब, झरना, बर्फ, ओस, नौका, लताएं, पवन आदि में प्राकृतिक सौंदर्य देखा जो मानव जीवन को ज्ञान का प्रकाश देने वाला है। इन्हीं सब में कविता के अंकुर प्रस्फुटित हैं-
वियोगी होगा पहला कवि,
आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आँखों से चुपचाप,
बही होगी कविता अनजान।

कहा जाता है साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्यिक-काव्य सत्यम-शिवम-सुंदरम पर आधारित है। पंत की रचनाओं में यत्र तत्र ‘सत्य और शिव’ के दर्शन होते हैं, लेकिन मूलतः सुंदरम के कवि हैं। कवि की कल्पना गत सुंदरम के क्रोड़ (गोद) में ही नहीं खेलता। ‘बादल’ कविता में अनेक रंग बिरंगे सजीव सत्य को आकार देता काव्यांश का चित्रण-
धूम धुंआरे काजल कारे,
हम ही हैं बिकरारे बादल।
मदन राज के वीर बहादुर,
पावस के उड़ते फणिधर।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत का समस्त काव्य प्रकृति को समर्पित है। प्रकृति के माध्यम से जीवन के हर पहलू को छुआ है। ऐसा काव्यसृजन अन्यत्र कहीं मिल पाना असंभव तो नहीं, किंतु दुर्लभ है।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

bio-Maithili_Sharan_Gupt_1974_stamp_of_India-min
मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना चित्रण | maithili sharan gupt ki nari bhavna

मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना चित्रण | maithili sharan gupt ki nari bhavna

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त सन 1886 को चिरगांव जिला झांसी में हुआ था। आप खड़ी बोली के रचनाकार और द्विवेदी युग के कवि हैं। मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि की संज्ञा महात्मा गांधी ने दिया था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सन 1952 में गुप्त जी को राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया था।
साकेत, यशोधरा, द्वापर, पंचवटी, सैरन्ध्री, नहुष, भारत भारती जैसे प्रमुख रचनाएं हैं। साकेत महाकाव्य में सीता जी को, यशोधरा महाकाव्य में यशोधरा जी को संघर्ष, त्याग, बलिदान की प्रतिमूर्ति दिखाया गया है। मैथिलीशरण गुप्त की मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हुई थी।

अन्य पढ़े : मैथिलीशरण गुप्त का जीवनवृत्त

नारी भावना का चित्रण


आदिकाल से ही समाज में नारी का स्थान सम्माननीय और पूज्यनीय रहा है। नारी मानव की जननी एवं सृष्टि निर्माणी है। नारी को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है। नारी और नर के संयोग से ही समाज का निर्माण हुआ है। नारी की प्रेरणा से मानव के अंदर महानता का संचार हुआ है। नारी मानव के जीवन में सौंदर्य और आनंद की अनुभूति के सुखद क्षणों का हिस्सा है, किंतु आज समाज में नारी का महत्व बदल गया है। इस बदलते हुए महत्व को देखते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।।


गुप्त ने अपने काव्य में नारी की परिणीता (विवाहिता) रूप को स्वीकारा है। राष्ट्रकवि गुप्त जी ने सीता, यशोधरा, उर्मिला, कौशल्या, द्रौपदी आदि के माध्यम से नारी के उज्ज्वल और संघर्षशील वैवाहिक रूप को निरूपित किया है। उनकी दृष्टि में नारी पुरुषों के समान समस्त कार्य कर सकती है, कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है-

निज स्वामियों के कार्य में समभाग जो लेती न वे,
अनुराग पूर्वक योग जो उसमें सदा देती न वे।
तो फिर कहाती किस तरह अर्धांगिनी सुकुमारियाँ,
तात्पर्य यह अनुरूप ही थी नर वरों के नारियाँ।


यशोधरा आदर्श पत्नी है वह अपने पति को प्राणों से भी ज्यादा चाहती है। एक दिन भगवान गौतम बुद्ध रात्रि में यशोधरा को छोड़कर वन को चले जाते हैं। तभी उनके हृदय में आघात लगता है और कहती हैं-


नाथ कहाँ जाते हो, अब भी अंधकार छाया है,
हा! जाग कर क्या पाया, मैंने वह स्वप्न भी गवाया है।


“पूत कपूत हो सकता, पर माता कुमाता नहीं हो सकती”, की भावना को मन में रखते हुए पति वियोग को भूल कर अपने शेष जीवन का आधार पुत्र राहुल को ही मानती हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने माँ का पुत्र के प्रति स्नेह को सहज और मार्मिकता से परिपूर्ण वर्णन किया है-


तुझको क्षीर पिला कर लूँगी।
नयन नीर उनको ही दूँगी।


गुप्त जी की कविता में नारी की निर्बलता में सफलता, कठोरता में कोमलता का संधान और आत्म समर्पण में आत्म अभिमान का विधान दिखता है। गुप्त जी ने यशोधरा का संघर्षपूर्ण चरित्र चित्रण बड़े मार्मिक ढंग से किया है-


कठोर हो वज्रादपि ओ कुसुमादि सुकुमारी,
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेरी बारी।।


गुप्त जी ने माँ सीता के माध्यम से स्त्री को स्वाभिमानी, परिश्रमी तथा पुरुषों को नानादि व्यंजन और स्नेह देकर खुश करने वाली, पति के सुख-दुःख में बराबर की सहभागिनी बताया है-


औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।
श्रमवारि बिंदुफल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ,
अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ।


गुप्त जी ने लक्ष्मण-उर्मिला के माध्यम से स्त्री को संघर्षशील बनने के साथ-साथ सुंदर सुकुमारी प्रेमिका एवं पत्नी के रूप में चित्रित किया है। लक्ष्मण की जीवनसंगिनी उर्मिला के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि पत्नी को भी साथ चलने और जीवन के संघर्षों में साथ खड़े होने का अवसर दीजिये-


वन में तनिक तपस्या करके,
बनने दो मुझको निज योग्य,
भाभी की भगिनी, तुम मेरे,
अर्थ नहीं केवल उपभोग्य।


गुप्त ने साकेत महाकाव्य के माध्यम से लिखा है की स्त्री रामराज्य छोड़कर वन गमन को जाती है। वहाँ भी गुरुजनों, परिजनों का सम्मान करना नहीं भूलती है। सभी को अतिथि मानती है। यहाँ तक जड़ी बूटियों का ज्ञान रखकर वैद्य की भाँति इलाज भी कर सकती है। विपरीत परिस्थितियों में स्त्री सब सीख जाती है और पुरुष को हर मुश्किल से उबार सकती है-


गुरुजन परिजन सब धन्य धन्य ध्येय हैं मेरे,
औषधियों के गुण-विगुण ज्ञेय हैं मेरे।
वन-देव-देवियाँ अतिथेय हैं मेरे,
प्रिय संग यहाँ सब प्रेय श्रेय हैं मेरे।

अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य सृजन में राष्ट्रप्रेम और नारी भावना कूट-कूट कर भरी गयी है। सन 1900 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति उत्कर्ष पर थी। गुप्त जी को जितनी चिंता नारी सम्मान की थी, उससे कहीं ज्यादा चिंता देश के हालातों पर थी। आप प्रखर वक्ता और निडर साहित्यकार थे, अपनी भारतीय जनता को जगाने का प्रयास करते थे ।

अन्य पढ़े : तंबाकू की हैवानियत
1912 ई० गुप्त की रचना भारत भारती अंग्रेजों ने जब्त कर ली थी। भारत की परतंत्रता देखकर भी सोई जनता की जगाती हुई रचना दृष्टव्य है-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं,
और क्या होंगे अभी?
आओ विचारे आज मिलकर,
ये समस्याएँ सभी।

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
शिवा जी नगर
रायबरेली (उ.प्र.)
9415951459
Shilpi- chaddha- smriti- award
शिल्पी चड्डा स्मृति सम्मान 2021- परिणामों की घोषणा

शिल्पी चड्डा स्मृति सम्मान, 2021-  परिणामों की घोषणा

सविता चड्डा जन सेवा समिति द्वारा प्रत्येक वर्ष 12 दिसंबर को दिए जाने वाले चार पुरस्कारों की घोषणा कर दी गई है।

शिल्पी चड्डा स्मृति सम्मान :  डॉ. मंजु रूस्तगी, चेन्नई

हीरो में हीरा सम्मान: ओम प्रकाश प्रजापति, ट्रू मीडिया, दिल्ली

गीतकारश्री सम्मान :  डॉ. मधु चतुर्वेदी,गजरौला 

साहित्यकार सम्मान : राजेंद्र नटखट , दिल्ली

डॉ मंजु रूस्तगी, चेन्नई द्वारा भेजे गए लेख को इस बार चुना गया है  शिल्पी चड्डा स्मृति सम्मान 2021 के लिए। उल्लेखनीय है कि इस सम्मान के अंतर्गत  ₹5100 की नगद राशि के साथ प्रतीक चिन्ह, प्रमाण पत्र, अंगवस्त्रम, पुष्प माला आदि से सम्मानित किया जाएगा। यह सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार सविता चड्डा द्वारा अपनी बेटी की स्मृति  शुरू किया  है।

इस अवसर पर  शिल्पी चड्डा स्मृति सम्मान  के अलावा उपरोक्त  तीन महत्वपूर्ण  सम्मान भी प्रदान किए जाने हैं जिन्हें प्रतीक चिन्ह, प्रमाण पत्र, अंगवस्त्रम और माल्यार्पण द्वारा एक गरिमा पूर्ण आयोजन  में इस समारोह में सम्मानित  किया जाना है।

देशभर से प्राप्त प्राप्त लेखों में से 20 अन्य ऐसे साहित्यकारों के लेखों को भी चुना गया है जिन्हें इस समारोह में प्रतीक चिन्ह प्रधान कर सम्मानित किया जाएगा:

1.डॉक्टर घमंडी लाल अग्रवाल, गुरुग्राम

 2. डॉक्टर दर्शनी प्रिया, दिल्ली 

3. डॉक्टर कल्पना पांडेय, नोएडा 

4. डॉ अंजू गहलोत, दिल्ली 

5. निहाल च॔द शिवहरे,झांसी

6. सुरेखा शर्मा, गुरुग्राम 

7. डा. दुर्गा सिन्हा,फरीदाबाद 

8. सरला मेहता, इंदौर

9. अभिमन्यु सिंह, रायबरेली

10. मुकेश कुमार ऋषि वर्मा,आगरा

11. डा. अलका शर्मा,दिल्ली

12. रश्मि संजय श्रीवास्तव, लखनऊ

13. सविता स्याल, गुरुग्राम

14. डॉ शकुंतला मित्तल,

15. सविता मिश्रा, बेंगलुरु

16. सरिता गुप्ता ,दिल्ली 

17. डॉक्टर पुष्प लता ,मुजफ्फरपुर

18. सोनिया सोनम, पानीपत 

19. शशि कोछर, रोहतक

20. यति शर्मा, दिल्ली

21. अंजु भारती, दिल्ली

उपरोक्त के अलावा प्राप्त सभी लेखों को समिति द्वारा  एक पुस्तक में भी समायोजित करने की योजना है। समिति के अध्यक्ष सुभाष चडढा ने देश भर से इस सम्मान के लिए लेख भेजने के लिए सभी लेखकों, कवियों और साहित्यकारों का आभार प्रकट भी किया और उन्हें शुभकामनाएं और बधाई दी।

जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व

जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व

कवि जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक परिचय

मूलतः कवि, कहानी, नाटक, निबंध, उपन्यास जैसी विधाओं को अपनी प्रतिभा से विभूषित करने वाले कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ। साहित्य और राष्ट्र की सेवा करते हुए 15 नवंबर सन 1937 को चिर निंद्रा में लीन हो गए। जयशंकर प्रसाद ने अपनी काव्य यात्रा वाराणसी में ब्रजभाषा से शुरू की, किंतु समय की माँग को देखते हुए खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। बाद में छायावादी युग के प्रवर्तक के रूप में स्थापित हुए, जिसे आपके ही नाम पर ‘प्रसाद युग’ की संज्ञा दी गई है। इस अवधि में भारत में स्वतंत्रता की क्रांति चरम पर थी। ऐसे कठिन समय में प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय जनमानस में ऊर्जा का संचार किया है। छायावादी युगीन नाटकों की प्रमुख विशेषताएं ‘ध्रुवस्वामिनी’ एवं ‘चंद्रगुप्त’ में विद्यमान हैं-

  1. नाटकों के गीतों में कवि की कोमल भावनाओं की मधुर अभिव्यक्ति है।
  2. नाटकों के समस्त गीत सामाजिकों के अंतःकरण को अनुरंजित करने में पूर्ण समर्थ हैं।
  3. नाटकों के गीतों में गेयता और माधुर्य की प्रधानता है।
  4. नाटकों में गीत प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर बड़े ही सुंदर ढंग से समाहित किए गए हैं।
  5. दोनों नाटकों के गीत राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत हैं।
  6. नाटकों के गीत सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं।

नाटक चंद्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी का मूल उद्देश्य

भारत में पितृसत्तात्मक समाज है। इस पितृ सत्तात्मक समाज में धर्म, वर्ग, जाति, लिंग के आधार पर स्त्री को दोयम दर्जे की प्राणी समझा जाता रहा है। वर्तमान में भी स्त्री स्थिति कुछ हद तक वही है। स्त्री अपनी शिक्षा, इच्छा, अधिकारों और सम्मान के प्रति सजग होने के बावजूद सदैव समझौता वादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर थी। इन समस्याओं को जयशंकर प्रसाद ने अपने हृदय में महसूस किया और नाटक चंद्रगुप्त (1931) तथा ध्रुवस्वामिनी (1933) लिखकर प्रकाशित किया। इन नाटकों का मूल उद्देश्य नारी स्वातंत्रय की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान कराना है। जयशंकर प्रसाद ने रंगमंच पर अभिनय के समय प्रगीतों का विशेष ध्यान आकर्षण किया है। प्रसाद जी ने नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ को 3 अंकों में विभक्त किया है। लेखक ने अपनी बात को राष्ट्र प्रेमी की तरह ही स्त्री वेदना को मंदाकिनी के माध्यम से मुखरित किया है। मंदाकिनी कहती है कि जो राजा राष्ट्र रक्षा करने में असमर्थ है, उस राजा की भी रक्षा नहीं करनी चाहिए। चंद्रगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी राष्ट्र तथा स्त्री की रक्षा के लिए शकराज के दुर्ग जाते हैं, तब मंदाकिनी की करुणा छलक पड़ती है-

"यह कसक अरे आँसू सह जा,
बनकर विनम्र अभिमान मुझे,
मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छल कोने-कोने,
अपनी नीरव गाथा कह जा।"(1)

नाटक दृश्य काव्य है। अतः नाटक प्रेमियों की मनोभावनाओं को दृष्टि में रखते हुए नाटककार ने यत्र-तत्र प्रगीतों का प्रयोग किया है। ध्रुवस्वामिनी आत्मसम्मान और कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त और सामंतों के साथ शकराज के शिविर में जा रही है। मंदाकिनी अग्र लिखित गीत को प्रयाण गीत (Marching Song) के रूप में गाते हुए आगे-आगे चल रही है। यह गीत कर्म और विजय रथ पर विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है-

"पैरों के नीचे जल धर हों, बिजली से उनका खेल चले।
संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें।
विचलित हो अंचल न मौन रहे, निष्ठुर श्रृंगार उतरता हो,
क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो।।"(2)

शकराज को ध्रुवस्वामिनी के आने का संकेत मिल चुका है। इस पर मानो वह विजय उत्सव मना रहा है। मदिरा का दौर चल रहा है। सांध्यकालीन प्रकृति मादकतापूर्ण बिंब की उपस्थिति का एहसास करा रही है। जय शंकर प्रसाद के गीतों का साहित्यिक महत्व तो है ही, साथ ही संक्षिप्तता, परिस्थिति की अनुकूलता और हृदय की अभिव्यक्ति की छटा दिखाई देती है। शकराज के महल में यह अंतिम गीत नर्तकियों द्वारा गाया गया है-

"अस्तांचल पर युवती संध्या की, खुली अलक घुँघराली है।
लो मानिक मदिरा की धारा, अब बहने लगी निराली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर, आकाश लगा देखा झुकने,
सब झूम रहे अपने सुख में, तूने क्यों बाधा डाली है।"(3)

जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है। चंद्रगुप्त नाटक का आरंभ तक्षशिला के गुरुकुल से होता है। इस नाटक में मुख्य पात्र चंद्रगुप्त और चाणक्य महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। ग्रीक दार्शनिक सेल्यूलस की पुत्री कार्नेलिया सिंध नदी के तट पर प्राकृतिक मनोहारी वातावरण में डूब सी जाती है। वह भारतीय संगीत में गीत गाती है-

"अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरु सिखा मनोहर।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।"(4)

गुप्त काल में युद्ध प्रायः साम्राज्य विस्तार के लिए होते थे। इसलिए युद्ध में प्रस्थान से पहले सैनिकों का मनोबल और उत्साह बढ़ाने के लिए तक्षशिला की राजकुमारी ‘अलका’ अपने देशवासियों से विजय उत्सव मनाने आह्वान करती है। आज संपूर्ण देश में जातिवाद, प्रांतीयवाद आदि अनेकानेक समस्याएं पनप रही हैं। इस संदर्भ में नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में जय शंकर प्रसाद ने नारी पात्रों के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को आर्य संस्कृति की ठोस जमीन प्रस्तुत की है। नारी अलका समवेत स्वर में गायन करती है-

"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती-
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती-
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है- बढ़े चलो, बढ़े चलो।"(5)

भाषा को सुसज्जित एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए छायावादी कवि, लेखक जयशंकर प्रसाद ने यत्र-तत्र समुचित अलंकारों का प्रयोग किया है। ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के गीतों में उपमा, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का समावेश मिलता है। अलंकारों के प्रयोग से गीतों का सौंदर्य बढ़ जाता है क्योंकि अलंकार काव्य का वाह्य सौंदर्य होता है-

"सुधा सीकर से नहला दो।
रूप शशि इस व्यथित हृदय-सागर को बहला दो।
अंधकार उजला हो जाए,
हँसी हंसमाला मंडराये।"(6)

छायावादी काव्य की एक अनुपम विशेषता है- उसकी चित्रमयता अथवा चित्रात्मक भाषा। छायावादी काव्य हिंदी वांग्मय में अपना सर्वस्व समाहित कर देता है। चंद्रगुप्त नाटक के गीतों में भी कुछ ऐसे ही गीत हैं जिन्हें पढ़ने से पहले ही नया चित्र मन में उभर आता है-

"पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार,
जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर।
सँभाले चल रही है कितनी दूर,
प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर।"(7)

छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषता प्रतीकात्मकता होती है। प्रतीकों के माध्यम से कवि बहुत कुछ कह जाता है। जिसका संबंध सीधा-सीधा मानव जीवन से जुड़ा होता है। ऐसे ही प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने चंद्रगुप्त नाटक में किया है। नाटक में नारी मल्लिका, सरोजिनी, अलि (चंद्रगुप्त) प्रतीकों के माध्यम से प्रकृति से जोड़ा गया है, जिसमें मानवीकरण भी परिलक्षित होता है-

"हो मल्लिका, सरोजिनी
या यूथी का पुंज।
अलि को केवल चाहिए,
सुखमय क्रीड़ा कुंज।
मधुप कब एक कली का है।"(8)

जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ तथा ‘चंद्रगुप्त’ के गीत सरल सरस और रंगमंच के अनुकूल हैं। सम्पूर्ण नाटक में गद्य की अविरल धारा परिस्थिति के अनुकूल संगीत सरसता उत्पन्न करती है। नाटककार जयशंकर प्रसाद जी प्रस्तुत नाटक के पात्रों को मनोदशा तथा उनके हृदय की गतिविधि को गीतों के माध्यम से प्रकट करते हैं। इससे स्पष्टतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद जी कविता लिखते-लिखते नाटक तथा नाटक लिखते-लिखते कविता लिख देते हैं। यही उनकी साहित्य साधना का सार है।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ0प्र)
मो0 9415951459

संदर्भ ग्रंथ सूची-

  1. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 13, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  2. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 22, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  3. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 25, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  4. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 67, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  5. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 126, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  6. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 114, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  7. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 44, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  8. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 120, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014

अन्य पढ़े :

Ans-1 नाटक चंद्रगुप्त (1931) में कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है।

Ans .2 ध्रुवस्वामिनी (1933) नाटक साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचना है।

Ans.3 जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है।

Ans .4 कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ