स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

भारत की अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति संपूर्ण विश्व में अग्रसर थी। समय-समय पर फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भारत में लूटपाट करने में कोई-कसर नहीं छोड़ी। लगभग 300 वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत पर शासन करके अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। भारत में अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक शासन किया। जिसमें 1857 का विद्रोह ‘भारतीयों की मुक्त का युद्ध’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। किंतु अंग्रेजों के खिलाफ महासंग्राम की नींव तो तिलका मांझी ने सन 1771 में ही डाल दी थी। स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अखंड भारत के सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी वर्गों के स्त्रियों-पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और प्राण न्योछावर कर दिया। दुर्भाग्य है कि इतिहास में अनेक वीर सपूतों, रणबांकुरों को समुचित स्थान नहीं मिल सका। भारत के कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ही याद किया जाता है। परंतु ऐसे अनगिनत नाम हैं, जिनके बलिदान व त्याग की गाथाएँ आम आदमी तक अभी नहीं पहुँच पाई हैं। ऐसे महापुरुष अंतिम सांस तक ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए शहीद हो गए। प्रस्तुत हैं प्रमुख स्वाधीनता संग्राम सेनानी, वीर योद्धा और उनका संक्षिप्त परिचय–


तिलका मांझी


तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी सन 1750 को तिलकपुर बिहार में हुआ था। वैसे तो भारत का स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन सन 1857 को माना जाता है, लेकिन अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह सन 1771 मे ही बिहार के संथाल संभाग में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हो चुका था। तिलका मांझी ने संथाल के आदिवासियों का नेतृत्व करते हुए लगभग 13 वर्ष तक अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी। इसलिए हम भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी तिलका मांझी को कह सकते हैं। तिलका मांझी ने सन 1778 में पहाड़ी सरदारों का नेतृत्व करते हुए रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से छीन लिया और इतना ही नहीं, सन 1784 में रामगढ़ स्थित राज महल के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट को मार डाला था। इसके बाद संपूर्ण भारत में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने धोखे से तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया और घोड़े से बांधकर भागलपुर-बिहार तक घसीटते हुए ले गए। उसके बाद भी वीर योद्धा तिलका मांझी जीवित था। अंत में 13 जनवरी सन 1785 को भागलपुर स्थित वट वृक्ष पर फांसी दे दी गई।


मातादीन भंगी-


10 मई 1857 को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है। भारतीय इतिहासकारों ने इसका श्रेय मंगल पांडेय को दिया है, किंतु वास्तविक सूत्रधार मेरठ निवासी मातादीन भंगी थे। मातादीन पश्चिम बंगाल के बैरकपुर छावनी में चपरासी खलासी की नौकरी करते थे। वह अनपढ़ थे, क्योंकि दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। मातादीन भंगी को पहलवानी का बहुत शौक था। इसलिए अखाड़े में मल्ल युद्ध सीखना चाहते थे, किंतु अछूत होने के कारण कोई गुरु ना मिला। तब बैंड बजाने वाले मुसलमान इस्लालाउद्दीन ने मातादीन भंगी को विधिवत मल्लयुद्ध सिखाया था। एक दिन मातादीन ने भीषण गर्मी में प्यास से व्याकुल होकर मंगल पांडेय से पीने के लिए पानी मांगा, तो आक्रोशित मंगल पांडेय ने कहा कि- “अरे भंगी मेरा लोटा छूकर अपवित्र करेगा क्या?” जानलेवा गर्मी में गुस्से से तमतमाए मातादीन ने मंगल पाण्डेय को जवाब दिया कि- “पंडत, तुम्हारी पंडिताई तब कहाँ चली जाती है? जब तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सुअर की चर्बी से बनी कारतूस मुंह से खींचते हैं?” यह बात मंगल पांडेय के सीने में आग का गोला की तरह लगी। मातादीन भंगी और मंगल पांडेय की बात भारत की विभिन्न छावनियों में आग की तरह फैल गई। मातादीन भंगी के इन्हीं शब्दों से विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी और 1 मार्च सन 1857 को मंगल पांडेय ने परेड मैदान में एक अधिकारी को गोली मार दी। इसके बाद विद्रोह की चिंगारी भारत में और उठने लगी। अंग्रेज अफसरों ने पहले मंगल पांडेय और बाद में मातादीन भंगी को प्राण निकलने तक फांसी पर लटकाए रखा।


उदैया चमार-


वैसे तो स्वाधीनता संग्राम का श्री गणेश तिलका मांझी के द्वारा सन 1771 में अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध से माना जाना चाहिए। उसके बाद दूसरी बार सन 1804 में अंग्रेजो के खिलाफ चिंगारी भड़की थी। छतरी जिला अलीगढ़ के नवाब नाहर खान व उनके पुत्र के द्वारा सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण युद्ध लड़ा गया। इस लड़ाई में उदैया चमार ने 100 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। पुनः सन 1807 में नवाब नाहर खान और उदैया चमार ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग छेड़ दी। इस बार अपनी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने घेरा बनाकर उदैया चमार को गिरफ्तार कर लिया और सन 1807 में ही अंग्रेजों ने कुछ दिन ही मुकदमा चलाकर उदैया चमार को सरेआम छतरी गाँव के चौराहे पर फांसी दे दी थी।


ऊदा देवी पासी-


ऊदा देवी का जन्म लखनऊ जनपद के उजिरावाँ गाँव में 30 जून सन 1830 को हुआ था। पति का नाम मक्का पासी था। ऊदा देवी का दूसरा नाम जगरानी था। ऊदा देवी अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला सुरक्षा दस्ते की सदस्य थी। मक्का पासी वाजिद अली शाह की सेना में सिपाही थे। उनकी शहादत के बाद ऊदा देवी ने अदम्य साहस के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ जंग के मैदान में कूद पड़ी। ऊदा देवी हमेशा पुरुष वेशभूषा वाले कपड़े पहनकर युद्ध करती थी। एक बार लखनऊ स्थित सिकंदर बाग में बंदूक, गोला बारूद लेकर पीपल के पेड़ पर चढ़ गई और लगभग 32 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। अफसोस इस लड़ाई में 16 नवंबर सन 1857 को ऊदा देवी भी शहीद हो गई। स्त्री की वीरता देखकर अंग्रेज अधिकारी काल्विन ने हैट (ब्रिटिश टोपी) उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी। दलित वीरांगना ऊदा देवी को अंग्रेजों ने “ब्लैक टाइग्रेस” कहा था। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हार्वर्ड रसेल ने अपने समाचार पत्र में पुरुष वेशभूषा में स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से गोलियां चलाने और अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाने का उल्लेख किया था। वाजिद अली शाह ने अपनी रानियों की सुरक्षा के लिए 30 स्त्रियों का सुरक्षा दस्ता बनाया था। जिन्हें फौजी प्रशिक्षण भी दिया जाता था। इसी सुरक्षा दस्ता की सदस्या ऊदा देवी थी। बाद में इस सुरक्षा दस्ते को स्त्री पलटन बना दिया गया था, जिसकी वर्दी का रंग काला था।


वीर वीरा पासी-


वीर योद्धा वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को रायबरेली जिले के लोधवारी में हुआ था। इनका मूल नाम शिवदीन पासी था। वीरा के बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था तो वीरा अपनी बहन बतसिया के यहाँ पर रहने लगे थे। कालांतर में बहन के यहाँ रहने वाले भाई को ‘वीरना’ कहा जाता था। इसलिए वीरना से वीरा नाम पड़ गया था।


अवध क्षेत्र में रायबरेली जनपद के शंकरपुर रियासत के राजा राणा बेनीमाधव सिंह थे। जिनका साम्राज्य बहराइच, गोंडा तक फैला हुआ था। राणा बेनी माधव सिंह की सेना में भर्ती होने के कठोर नियम थे। सेना में भर्ती होने आए युवकों को एक सेर (950 ग्राम) घी खिलाकर राणा साहब उनके सीना में मुट्ठी बंद करके एक घूसा मारते थे। जो युवक मूर्छित नहीं होता था, वह सेना में भर्ती हो जाता था। वीरा पासी एक घूसा खाकर भी टस से मस नहीं हुआ। तब वीरा को राणा बेनी माधव सिंह ने अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लिया। राना बेनी माधव सिंह अपने ननिहाल (नाइन-प्रतापगढ़) में पिता स्व० राम नारायण सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अनियोजित युद्ध में पिता श्री वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ समय बाद राणा साहब खलीलाबाद में गिरफ्तार कर लिए गए। अब राजमाता की आँखों से आँसुओं की धार लगातार बह रही थी, जो वीरा पासी से देखी न गई। वीरा पासी ने राणा बेनी माधव सिंह को जेल से छुड़वाने की गुप्त योजना बनाई। वीरा ने विश्वासपात्र लोहार से 12 नुकीली मजबूत लोहे की कील बनवाया। जेल मैनुअल के अनुसार मध्यरात्रि 12:00 बजे जैसे ही 12 बार घंटा बजना शुरू हुआ। उसी धुन के साथ ही वीरा पासी भी दीवाल में गुरु हथौड़े से एक-एक कील ठोकते हुए छत पर चढ़ गए और रोशनदान के रास्ते रस्सा डालकर राना बेनी माधव सिंह को जेल से आजाद करा लिया। तब राणा साहब ने विश्वासपात्र स्वामिभक्त वीरा पासी को अपना सेनापति नियुक्त किया।


वीरा पासी ने 50 से अधिक अंग्रेजों को जान से मार दिया था। जिसके कारण अंग्रेज थरथर कांपते थे। अंग्रेजों ने वीरा से भयभीत होकर उन्हें पकड़ने या पता बताने वाले को 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम की घोषणा किया था। फिर भी अंग्रेज सिपाही वीरा पासी को पकड़ न सके। भीरा की लड़ाई में कुछ देशीय गद्दारों की सहायता से अंग्रेजों ने गोरिल्ला युद्ध में माहिर राना बेनी माधव सिंह को घेर लिया था। वीरा पासी भी गोरिल्ला युद्ध कला में निपुण होने के कारण राणा साहब के प्राणों की रक्षा करते हुए देश के लिए स्वयं को बलिदान करके अमर शहीद हो गए।


गंगू मेहतर-


गंगू मेहतर अकबरपुर जनपद कानपुर के रहने वाले थे। तत्कालीन सामंती व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के कारण उच्च वर्ग से परेशान होकर गंगू मेहतर कानपुर शहर के चुन्नीगंज में आकर रहने लगे थे। एक बार बिठूर में गंगू मेहतर मरा हुआ बाघ कंधे पर रखकर ले जा रहे थे। तभी उधर से निकल रहे नाना साहब की दृष्टि गंगू पर पड़ी। नाना साहब ने अनजान गंगू से परिचय पूँछकर अपनी सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे गंगू ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। गंगू मेहतर बिठूर के शासक नाना साहब की सेना में नगाड़ा बजाने का कार्य करने लगे थे। गंगू कई नामों से जाने जाते हैं। धानुक जाति होने के कारण- गंगू मेहतर। पहलवानी का बचपन से शौक होने के कारण- गंगू पहलवान और देवी माँ का सती चौरा में रहने के कारण इन्हें- गंगू बाबा कहा जाता था। अंग्रेज सिपाही विदेशी असलहों से लैस होने के कारण नाना साहब की सेना पर भारी पड़ रहे थे। तब गंगू मेहतर ने बड़ी चालाकी से अपनी तलवार द्वारा 200 से अधिक अंग्रेजों को मार डाला था। तब ब्रिटिश हुक़ूमत और उनकी सेना सहम गई थी। कुछ समय बाद गंगू मेहतर को गिरफ्तार कर लिया गया और अंग्रेजों का कत्लेआम के जुर्म में तत्काल फांसी की सजा सुनाई गई। कानपुर के सिविल सर्जन अधिकारी जान निकोलस ने फांसी से पहले चुन्नी गंज चौराहे पर गंगू मेहतर के मूर्ति लगवाने का आदेश दिया था। मूर्ति लगने के बाद 8 सितंबर 1859 को गंगू को फांसी दे दी गई थी। फांसी का फंदा चुनने से पहले गंगू मेहतर ने कहा था- “भारत की माटी में हमारे पूर्वजों का खून और गंध है। एक दिन यह मुल्क आजाद होकर रहेगा।”


वीरांगना झलकारी बाई-


झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई कोली का जन्म 22 नवंबर सन 1830 को झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पति का नाम अमर शहीद पूरन सिंह कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी था। झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराह करके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी उसी समय रानी लक्ष्मीबाई दूसरी रणनीति तैयार करने लगती थी। अंतिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़ , किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। उनका प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया, तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी अंग्रेजों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबिरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी। जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर मजबूत टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से अंग्रेजों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। पहले पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हुई।


रणबीरी बाल्मीकि-


रणबीरी बाल्मीकि मुजफ्फर नगर के शामली की रहने वाली थी। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार में शामली स्वतंत्र जिला बन चुका है। महाभारत काल में शामली ‘कुरुक्षेत्र’ का हिस्सा हुआ करता था। 13 मई सन 1857 को संपूर्ण मुजफ्फर नगर या यूँ कहें, संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्वाधीनता पाने के लिए क्रांतिमय हो चुका था। तत्कालीन शामली तहसील का नेतृत्व चौधरी मोहर सिंह और कैराना क्षेत्र का नेतृत्व सैयद पठान कर रहे थे। दोनों रणबांकुरों का आपसी सामंजस्य देखकर अंग्रेज हैरान थे। चौधरी मोहर सिंह की मजबूत सैन्य पलटन थी, जिसका अहम हिस्सा शीघ्र ही रणबीरी वाल्मीकि बन गई। रणबीरी कुशल तलवारबाज और दुश्मनों को चकमा देने में महारत हासिल कर चुकी थी। अंग्रेज अफसर ग्रांट ज्वाइंट मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में ब्रिटिश टुकड़ी ने शामली पर हमला कर दिया। इस युद्ध में मोहर सिंह और रणबीरी वाल्मीकि ने अनगिनत अंग्रेजों के सर कलम कर दिया। बौखलाए अंग्रेजों ने महिला क्रांतिकारियों पर गोलियाँ बरसानी शुरू की। इस गोलीकांड में रणबीरी वाल्मीकि भी वीरगति को प्राप्त हुई।


बांके चमार-


बांके चमार कुअरपुर जनपद जौनपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सन 1857 में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूँका था। बांके चमार जौनपुर क्षेत्र का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज कई बार बांके चमार से पराजित हो चुके थे। तब उन्होंने बांके पर 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम रखा था। फिर भी अंग्रेज सिपाही कुशाग्र बुद्धि वाले, देश भक्त बांके चमार को पकड़ न सके। कुछ समय बाद ब्रिटिश सेना का सेवानिवृत्त सैनिक रमा शंकर तिवारी ने मुखबिरी करते हुए अंग्रेजों को बांके चमार के गुप्त ठिकाने के बारे में सूचित किया। वहाँ अचानक अंग्रेज पहुँच गए और लंबे संघर्ष में कई अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंत में 18 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ बांके चमार गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बांके चमार सहित 18 क्रांतिकारियों को चौराहा पर पेड़ से लटकाकर एक साथ फांसी दे दी गई थी।


बिरसा मुंडा-


मुंडा आदिवासी जनजाति में बिरसा का जन्म 15 नवंबर सन 1875 को उलीहातू रांची में हुआ था। बिरसा मुंडा कुशल योद्धा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। सर्वविदित है कि आदिवासी समाज जंगली फलफूल, कंदमूल खाकर जीवन यापन करता है, फिर भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूलता। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों का कई बार नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों से युद्ध करके विजय श्री प्राप्त की।
1 अक्टूबर सन 1884 को बिरसा ने सभी मुंडा जनजाति के लोगों को एकत्रित करके लगान माफी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। सन 1885 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके 2 वर्ष का कठोर सश्रम कारावास की सजा दी। उसके बाद जनता में चेतना जागृत हुई और वहाँ की जनता ने ही बिरसा मुंडा को “धरती बाबा” उपनाम दिया। सन 1897 से सन 1900 के बीच बिरसा मुंडा ने कई युद्ध अंग्रेज सिपाहियों से लड़े। एकबार तो बिरसा मुंडा ने लग्भग 400 सिपाहियों को तीर कमान के बल पर खदेड़ दिया था। उसके बाद आक्रोशित अंग्रेजों ने बहुत से आदिवासी स्त्री, पुरुष, बच्चों को गिरफ्तार किया। एक जनसभा को संबोधित करते हुए 3 फरवरी सन 1900 को बिरसा मुंडा भी गिरफ्तार कर लिए गए। रांची कारागार में 9 जून सन 1900 को बिरसा मुंडा की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। आज बिरसा मुंडा को आदिवासी समुदाय में ईश्वर की तरह पूजा जाता हैं।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अनेक गुमनाम और पन्नों से ओझल हो चुके वीर सपूतों, रणबांकुरों से भरा पड़ा है, परंतु भारत माता के उन वीरों को इतिहास के पन्नों में उचित न्याय नहीं मिल सका। इतिहासकारों, राजनेताओं या जनता में इच्छाशक्ति की कमी या जातिवाद का दंश अथवा अन्य कोई जो भी कारण रहा हो, तमाम शहीद आज भी गुमनाम हैं।


राजा डल पासी, राजा बल पासी, बिजली पासी, सुहेलदेव पासी, ताना जी मालुसरे कोरी, चौरी चौरा के नायक रमापति चमार, संपत चमार, कल्लू चमार, देश का दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड कहा जाने वाला मुंशीगंज, रायबरेली में 7 जनवरी सन 1921 को अंग्रेजों की पहली गोली खाने वाले बदरू बेड़िया जैसे असंख्य वीर सपूत भारत में भरे पड़े हैं, जिनके रक्त से भारत माता की जमीन लाल हो गई थी। तब सन 1947 में देश आजाद हुआ और आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। आवश्यकता है ऐसे अनगिनत वीर सपूतों की जयंती और पुण्यतिथि मनाई जाए। केंद्र व राज्य सरकारें, स्वयंसेवी संगठन, सर्व समाज, सर्व धर्म के लोग दलगत विचारधारा से ऊपर उठकर भारत के वीर सपूतों के पावन कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लें। उन महापुरुषों वीरों पर विस्तृत परिचर्चा हो। तभी पुण्यात्माओं को सच्चे अर्थों में हमारी श्रद्धांजलि अर्पित होगी, अन्यथा आने वाली नई पीढ़ी उन रणबांकुरों को भूल जाएगी।
तब देशप्रेमी कवि जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की कविता सार्थक होगी–
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥

वंदे मातरम जय हिंद

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर, रायबरेली
मो० 9415951459