उदैया चमार : अंग्रेजों को धूल चटाने वाले वीर योद्धा

उदैया चमार : अंग्रेजों को धूल चटाने वाले वीर योद्धा

अक्सर उच्च कुलीन लोगों द्वारा कहा जाता है कि दलितों ने समाज और देश के लिए क्या किया? सिर्फ वो सेवा ही तो करते थे। ऐसे प्रश्न करने वाले लोगों ने शायद इतिहास को गंभीरता से नहीं पढ़ा, या उन पुस्तकों तक पहुँच नहीं पाये हैं। ये भी विडंबना रही है कि दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था, इसलिए उनका ओजस्वी इतिहास के स्वर्णिम पन्नों से गुम हो गया था।
वैसे तो स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश तिलका मांझी के द्वारा सन 1771 में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध से माना जाना चाहिए।
उसके बाद दूसरी बार सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ चिंगारी भड़की थी। दुबले- पतले छहररे बदन वाले फुर्तीले उदैया चमार छतारी में चमड़े का व्यापार करते थे। उदैया अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण व दुश्मनों को चकमा देने में माहिर थे।
छतारी जिला अलीगढ़ के नवाब नाहर खान व उनके पुत्र ने सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण युद्ध लड़ा। इस लड़ाई में उदैया चमार ने 100 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। अन्ततः नवाब नाहर खान की जीत हुई।
पुनः सन 1807 में नवाब नाहर खान और उदैया चमार ने साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी, जिसमें फिरंगी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें छतारी छोड़ कर भागना पड़ा।
दूसरी बार अपनी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने कुछ दिन बाद नई कूटनीति से पूरी तैयारी के साथ आकर घेरा बनाकर उदैया चमार को गिरफ्तार कर लिया और सन 1807 में ही अंग्रेजों ने कुछ दिन ही मुकदमा चलाकर उदैया चमार को सरेआम छतारी गाँव के चौराहे पर फांसी दे दी थी।
अलीगढ़ के आसपास आज भी उदैया चमार के चर्चे होते हैं। कुछ जगह तो उदैया की पूजा भी होती है। वीर सपूत उदैया मातृभूमि के लिए शहीद हो गए, किंतु शूद्र होने के कारण उनका नाम गुम हो गया।

डॉ अशोक कुमार
रायबरेली UP
मो 9415951459

कुमारी सुनीति चौधरी : नाबालिग उम्र में ही अंग्रेज जिला कलेक्टर की गोली मारकर की हत्या

कुमारी सुनीति चौधरी : नाबालिग उम्र में ही अंग्रेज जिला कलेक्टर की गोली मारकर की हत्या

भारत में स्त्री और पुरुष को एक गाड़ी के दो पहिए कहा जाता है। वैसे कहने को तो भारत पुरुष सत्तात्मक देश है, फिर भी स्त्री का त्याग, तपस्या, ममता, स्नेह, बलिदान, संघर्ष सर्वोपरि है। स्त्री के बिना कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। कहा जाता है– *यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता।* अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। भारत में एक ओर नारियों की पूजा होती है, तो दूसरी ओर जब परिवार, समाज या देश पर संकट आता है, तब कोमल हृदय वाली नारी रणचंडी बन तलवार उठाकर रणभूमि की ओर निकल पड़ती है। ऐसी ही असंख्य वीर नारियों ने सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे, इतना ही नहीं, अपने प्राण न्योछावर कर दिए। हम ऐसी ही क्रांतिकारी वीरांगना कुमारी सुनीति चौधरी की अमर शौर्यगाथा की बात कर रहे हैं। जिस उम्र में नाबालिक बच्चे खेलते कूदते हैं, उस उम्र में कुमारी सुनीति ने अंग्रेज अफसर को गोली से उड़ा दिया था। कुमारी सुनीति चौधरी का जन्म बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत कोमिला जिला (तत्कालीन बांग्लादेश) में 22 मई सन 1917 को हुआ था। पिता उमाचरण चौधरी अंग्रेजी सरकार में सरकारी मुलाजिम और माता सुर सुंदरी कुशल ग्रहणी थी। मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली कायस्थ समाज की होनहार बेटी सुनीति चौधरी लिखने पढ़ने में होशियार थी। तत्कालीन परिस्थितियों में बालिकाओं को पढ़ने का अधिकार न के बराबर था। किंतु माता-पिता ने पुत्री स्नेह और उसकी हठधर्मिता के कारण स्कूल में दाखिला करा दिया था। वह बांग्लादेश के ही पैतृक गांव कोमिला में पढ़ने लगी थी। सुनीति तीरंदाजी, तलवारबाजी, लाठी चलाना, बंदूक चलाना, खेलकूद आदि में भी अव्वल थी। हाजिर–जवाबी उसकी विशेषता थी। कुमारी सुनीति चौधरी कोमिला के ही फैजिन्निशा गवर्नमेंट हाई स्कूल में कक्षा 8 की छात्रा थी। उनका मन पढ़ाई से ज्यादा क्रांतिकारी गतिविधियों में लगता था। इसलिए सर उल्लासकर दत्त को अपना क्रांतिकारी गुरु मानने लगी थी, क्योंकि उल्लासकर दत्त पहले ही फिरंगियों के खिलाफ बहुत मोर्चा खोल चुके थे। उनकी रणनीति व कूटनीति से अंग्रेज परेशान और भयभीत होने लगे थे। कुमारी सुनीति चौधरी बाद में त्रिपुरा जाकर पढ़ने लगी थी। वहां भी स्कूली गतिविधियों में अव्वल रहती थी। सन 1931 में वरिष्ठ सहपाठी प्रीतिलता ब्रम्हा की सलाह और प्रेरणा से कुमारी सुनीति चौधरी, शांति घोष क्रांतिकारी युगांतर समूह में शामिल हो गईं। प्रीतिलता ने लड़कियों का संघ बनाया। उस कमेटी में सुनीति चौधरी कप्तान, शांति घोष सचिव और प्रीतिलता अध्यक्ष चुनी गई। क्रांतिकारी बरुण भट्टाचार्य से सुनीति चौधरी और शांति घोष ने पिस्तौल शूटिंग और अन्य मार्शल आर्ट में प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया। गर्म खून वाली सुनीति ने फिरंगियों का विरोध करते हुए कहा– “हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?”

त्रिपुरा के कॉलेज में प्रति वर्ष 6 मई को वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जाता था। जिसमें आदिवासी समुदाय के लोगों की भी बढ़-चढ़कर भागीदारी होती थी। इसी क्रम में 6 मई सन 1931 को आयोजित वार्षिकोत्सव में कुमारी सुनीति चौधरी को महिला स्वयंसेवी संस्था का लीडर, अस्त्र–शस्त्र व गोला बारूद का संरक्षक बनाया गया। साथ ही ‘मीरा देवी’ उपनाम दिया गया था। सुनीति की काबिलियत के कारण कई पद मिल चुके थे, इसलिए उनके अंदर अब उत्साह दोगुना हो गया था।
कु. सुनीति चौधरी अपने परिवार और अन्य लोगों से अंग्रेजों के काले कारनामों के विषय में सुना करती थी कि अंग्रेजों के जुल्म की दास्तां सुनकर हर भारतीय की आंखों में आंसू आ जाते हैं। फिरंगियों ने भारत के महिलाओं, बच्चों, पुरुषों, विकलांगो तक नहीं छोड़ा था। गरीबों के कारण जो व्यक्ति अंग्रेजों का टैक्स नहीं अदा कर पाता था, उन्हें अंग्रेज लोहे की कील लगे चमड़े के पट्टा से मारते थे। अंग्रेज सिपाही तो बेकसूर लोगों पर कोड़ा बरसाना और बंदूक चलाना अपना शौक समझते थे। जिस गांव से अंग्रेज दरोगा घोड़ा पर बैठकर निकल जाता था, उस गांव के घरों में सारे दरवाजे–खिड़की बंद हो जाते थे। अंग्रेज अपनी हवस मिटाने के लिए भारत की महिलाओं लड़कियों को घरों से उठा लेते थे और उनके साथ छावनी में बारी-बारी से दुष्कर्म और अप्राकृतिक संबंध बनाते थे। जो महिलाएं विरोध करती थी, उनके गुप्तांगों में बंदूक की नाल रखकर फायर कर देते थे, जिससे महिलाओं का शरीर के चीथड़े उड़ जाते थे और तुरंत ही उनकी मृत्यु हो जाती थी। ऐसे क्रूर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों ने बिगुल छेड़ रखा था। अंग्रेज अफसर और सिपाही, क्रांतिकारियों के घर वालों को तो और अधिक परेशान करते थे। हाथ पैरों में नुकीली कील ठोक देते थे। अंग्रेज शोषण, दमनकारी नीति, अधिक टैक्स वसूली आदि लगातार थोंप रहे थे। इस प्रकार के अमानवीय कृत्य करने में एक अफसर नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत के लगभगअंग्रेज अफसर शामिल रहते थे। कु. सुनीति चौधरी ये सब जुल्म–ओ–सितम अपनी आंखों से देख–सुन रही थी। इसलिए वीरांगना सुनीति चौधरी के मन में दिन–प्रतिदिन अंग्रेजों के खिलाफ क्रूरता भरी बाते सुन कर आक्रोश बढ़ता ही जा रहा और उनका खून उबाल मार रहा था।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा था, जिसे चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस ने दबाने की हरसंभव कोशिश की। जिसके कारण सुनीति चौधरी बहुत खफा थी।
लगभग 14 वर्षीय कुमारी सुनीति चौधरी और लगभग 15 वर्ष की कुमारी शांति (सेंटी) घोष ने त्रिपुरा के स्कूल में पढ़ाई कर रही थीं, इसलिए वहीं प्लान बनाया कि त्रिपुरा के अंग्रेज कलेक्टर के दफ्तर में जाकर अपने स्कूल में तैराकी प्रतियोगिता आयोजित करने की अनुमति के लिए प्रार्थना पत्र देंगे। उसी क्षण गोली मारकर उसकी हत्या भी कर दी जाएगी। इस प्लान की किसी को कानों–कान खबर नहीं हुई।
14 दिसंबर सन 1931 को दोपहर का समय, त्रिपुरा के मैजिस्ट्रेट के बंगले के बाहर एक गाड़ी से दो किशोरियाँ हँसते हुए उतरीं। दिसंबर में भीषण ठंड होने के कारण दोनों ने साड़ी के ऊपर से गर्म ऊनी शॉल ओढ़ रखा था, जिससे किसी को शक न हो। उन लड़कियों ने दफ्तर के अंदर अपने छद्म नाम (मीरा देवी और इला सेन) से पर्ची भेजा, जिसके बाद एसडीओ नेपाल सेन के साथ मैजिस्ट्रेट बाहर निकले। मैजिस्ट्रेट को स्विमिंग क्लब में आमंत्रित किया गया था, कलक्टर वहां जाने की जल्दबाजी में थे। दोनों वीरांगनाओं ने अंग्रेज सिपाहियों को प्रसन्न करने के लिए वार्तालाप में बड़ी मासूमियत से चापलूसी से भरे शब्दों का प्रयोग कर रही थीं, जिससे अंग्रेजों को अपनी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं होने दिया। लड़कियाँ स्वीकृति मिलने के लिए बेचैन हो रही थीं। मजिस्ट्रेट अपने चेंबर में गया और फाइल में रखे कुछ कागज पढ़ते हुए दोनों किशोरियों को कार्यालय के अंदर बुलवाया था।
दो सहेलियों कुमारी सुनीति चौधरी और कुमारी शांति (सेंटी) घोष पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अपने स्कूल में तैराकी प्रतियोगिता कराने का प्रार्थना पत्र और शॉल के अंदर ऑटोमेटिक पिस्तौल छिपाकर त्रिपुरा के अंग्रेज कलेक्टर चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवेंस के दफ्तर में पहुंच गई। मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री फाइल रखे कुछ पेपर्स पढ़ ही रहे थे। तभी मौका पाकर दोनों कुमारी वीरांगनाओं ने अपने–अपने कपड़ों में छिपी पिस्तौल निकालकर एक साथ ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर उसकी हत्या कर दी। मजिस्ट्रेट को संभलने तथा अंग्रेज सिपाहियों को पोजीशन लेने तक का मौका नहीं मिला। बाद में ब्रिटिश सिपाहियों ने दोनों लड़कियों को गिरफ्तार कर लिया। त्रिपुरा क्षेत्र बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था, इसलिए कोलकाता न्यायालय में लगभग 8 माह मुकदमा चला। चूंकि दोनों किशोरियां नाबालिक थी, इसलिए न्यायाधीश ने उन्हें फांसी देने के बजाय, 10 वर्ष का सश्रम कारावास की सजा सुनाई।
क्रूर अंग्रेजों ने उम्मीद के मुताबिक कु. सुनीति चौधरी की दुश्मनी उनके परिवार के साथ निकालना शुरू किया। पिता जी को मिलने वाली सरकारी पेंशन बंद करा दी। दो निर्दोष अग्रजों को जेल में डाल दिया गया और अनुज की भूख से असमय मृत्यु हो गई।
गांधीवादी युग की शुरुआत हो चुकी थी। राष्ट्रपिता अहिंसावादी महात्मा गांधी अपने दबाव से कुछ निर्णय भारतीयों के हित में कर लिया करते थे। ऐसे समय में महात्मा गांधी और अंग्रेज अफसर के मध्य कुमारी सुनीति चौधरी को लेकर सफल वार्ता हुई। सुनीति और सेंटी घोष की सजा 10 वर्ष से घटाकर 7 साल करके सन 1939 में रिहा कर दिया गया। एक बार एक पत्रकार ने कुमारी सुनीति से जेल मैनुअल के विषय में पूछा, तो उन्होंने उत्तर देते हुए बताया कि– “घोड़े के अस्तबल में रहने से, मरना बेहतर है।” फिर भी भारत के वीर सपूतों ने हार नहीं मानी और लगभग 90 वर्ष का संघर्ष करने के बाद आजाद भारत में हमें जीने का अवसर मिला है। भारत में सबसे कम उम्र में क्रांतिकारी बनने वाली वीरांगना कुमारी सुनीति चौधरी और शांति घोष थी।
जेल से रिहा होने के बाद कुमारी सुनीति ने अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने पर जोर दिया। कोलकाता स्थित कैम्पबेल मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. (तत्कालीन एम.बी. डिग्री) की पढ़ाई करके कुशल चिकित्सक बन गई। तत्पश्चात गरीब, किसान, मजदूर वर्ग की चिकित्सीय उपचार व सेवा करती रहीं। लोग उन्हें लेडी मां कहकर बुलाते थे। भारत स्वतंत्र होने पर, अर्थात् सन् 1947 में कुमारी सुनीति चौधरी ने बंगाल के प्रसिद्ध व्यापारी और व्यापार संघ के अध्यक्ष प्रद्योत कुमार घोष के साथ सात फेरे लेकर परिणय सूत्र में बंध गई थी। उनके दोनों भाई जेल से रिहा हो गए। परिवार पटरी पर दौड़ने लगा था। दुर्भाग्य से यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही, 71 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी सन 1988 को श्रीमती सुनीति चौधरी घोष का स्वर्गवास हो गया था।

डॉ. अशोक कुमार गौतम

असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

वीरांगना झलकारी बाई : वीरता का पर्याय

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा
दुर्गा दल की सेनापति,वीरांगना झलकारी बाई कोली (कोरी) का जन्म 22 नवबंर सन 1830 को उत्तर प्रदेश(तत्कालीन नाम पश्चिमोत्तर प्रान्त) राज्य में झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पिता का नाम स्व० सदोवर सिंह और मां का नाम स्वर्गीया जमुना देवी था। झलकारी बाई का जन्म के कुछ दिन में ही मां असमय स्वर्ग सिधार गई, अब बेटी की सेवा करने की जिम्मेदारी पिता पर आ गई। पिता जी ने लड़के की भांति ही झलकारी बाई का पालन–पोषण किया।


तत्कालीन सामाजिक विपरीत परिस्थितियों के कारण पिता स्व० सदोवर सिंह अपनी सपुत्री को स्कूली शिक्षा नहीं दिला सके, किंतु घुड़सवारी, अस्त्र–शस्त्र चलाना, युद्ध करना आदि संघर्षी कार्य जरूर बखूबी सिखाया था। वह स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़, किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। अक्सर झलकारी बाई जंगल में लकड़ी लेने जाया करती थी।एक बार झांसी के जंगलों में झलकारी बाई का आमना–सामना तेंदुआ से हो गया, झलकारी बाई ने डरकर भागने के बजाय, कुल्हाड़ी से काटकर वन्यजीव को मार डाला था। यह बात रानी लक्ष्मी बाई को पता चली तो झलकारी बाई को अपनी सेना में सेनापति बनाया था।


पति का नाम अमर शहीद पूरन सिहं कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी थे। पूरन सिंह कोली बहुत ही स्वामिभक्त, मेहनतकश व कर्तव्यनिष्ठ थे,जिनकी ईमानदारी पर रंच मात्र भी संदेह नहीं किया जाता था। इसलिए महारानीलक्ष्मीबाई ने पूरन सिंह कोली को अपने तोपखाना की जिम्मेदारी दी थी।


झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराहकरके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी, उसी समय रानी लक्ष्मीबाई स्वयं अगली रणनीति तैयार करने में लग जाती थी। अन्तिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई का प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया। तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। युद्ध के मैदान में भी दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी फिरंगियों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक
लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी।


जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर अभेद्य टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से फिरंगियों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। किला की रक्षा करते हुए पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए थे। झलकारी बाई अपने पति का शोक में डूबने, तेरहवीं संस्कार आदि करने के बजाय, दूसरी रणनीति बनाकर फिरंगियों पर ज्वाला बनकर टूट पड़ी थी।

कई अंग्रेजों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया था। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी।
कवि बिहारी लाल हरित ने “वीरांगना झलकारी बाई काव्य” नमक पुस्तक लिखा, जिसका एक दोहा दृष्टव्य है—
लक्ष्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड्ग सवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली।।

सरयू–भगवती कुंज
डॉ अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
(बालकांड, रामचरित मानस – गोस्वामी तुलसीदास)
महिमा मंडित भारत वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी, सम्राट अशोक जैसे महापुरुषों की जमीं है, जिन्होंने हमेशा शांति व सद्भाव का संदेश दिया है। इसलिए भारत शांतिप्रिय राष्ट्र था और यही मर्यादित परंपरा आज भी संपूर्ण राष्ट्र में विद्यमान है। जिसका फायदा कहीं न कहीं विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। जब–जब भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों ने व्यापार का बहाना बनाकर आक्रमण करके शासन करना चाहा, तब हमारे राष्ट्र के निडर, शूरवीर, अमर शहीदों ने मानो ईश्वरीय शक्ति के साथ जन्म लिया। फिर इन योद्धाओं ने फिरंगियों के अहंकार व उनके साम्राज्य का समूल विनाश करते हुए, उनके हलक में हांथ डालकर वापस सिंहासन छीना था। ऐसे अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आजीवन ऋणी रहेंगे।

थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?
सुंदरियों ने जहाँ देश-हित, जौहर-व्रत करना सीखा।
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा।।
वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा। वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥

कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ’हल्दीघाटी’ में उक्त कविता को लिखकर स्वतंत्रता, संघर्ष और त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। इतना ही नहीं, कवि श्याम नारायण ने महाराणा प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों और भारत माता के रखवालों को ’सन्यासी’ की संज्ञा दी है, स्त्रियों को आत्म सम्मान व अपने संतानों की रक्षा करना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ स्वीकार किया है।
संन्यासी रूपी अमर शहीदों के श्री चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज हम गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों के आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलती रही हैं। यह ठीक है कि सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया है। तत्पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने क्रांतिकारियों तरह तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखकर मारा गया। तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।
पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्युलर जेल की दर्द भरी दास्तां रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। सन 1857 से 1947 के मध्य की दिल दहला देने वाली सत्य कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसुओं के साथ ज्वाला भी निकलेगी, कि क्रूर अंग्रेजों इतना जुल्म–ओ–सितम भारतीयों पर किया है। क्रांतिकारियों को ’देश निकाला’ की सज़ा देकर कैदी बनाकर सेल्युलर जेल रखा जाता था। एक कैदी से दूसरे से बिलकुल मिल नहीं सकता था। जेल में हर क्रांतिकारी के लिए एक अलग छोटा सा ऐसा कमरा होता था, जिसमें न ठीक से पैर पसार सकते थे , न ही ठीक से खड़े हो सकते थे। जो क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बोलते थे, अंग्रेज सिपाही उनके कमर में भारी पत्थर बांधकर समुद्र में जिंदा ही फेंक देते थे। एक कमरा में एक ही क्रांतिकारी को रखा जाता था। हांथ पैर में बेड़ियां और अकेलापन भी कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। शायद इसीलिए सेल्युलर जेल को ’काला पानी’ की संज्ञा दी गई थी।
स्वातन्त्र्य वीरों की यातनाओं को सुनकर दिल दहल जाता है। हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। इनकी यातनाओं की अत्यन्त करुण गाथा है। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया। हमारी आज की स्वतंत्रता का भव्य भवन अर्थात राष्ट्र मंदिर ऐसे ही क्रांतिकारी और बलिदानों की नींव पर टिका है। भारत के ये वीर सपूत हमारे प्रेरणापुंज हैं।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी। यदि हम प्रत्येक महापुरुष की अलग–अलग सम्पूर्ण जीवनी लिखने बैठेंगे तो, कागज, कलम और स्याही भले ही कम पड़ जायेगी, किंतु उनके त्याग व तपस्या की वीरगाथा की सत्यवाणी छोटी नहीं पड़ेगी। वैसे तो सत्तावनी क्रान्ति में अमरता को प्राप्त हुए भारत माता के लालों की शौर्य गाथा शब्दों में बयां करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
अंग्रेजों के सामने नतमस्तक न होने पर जेल यात्रा करने वाले क्रान्तिकारी और ओजस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने राष्ट्र के शहीदों के लिए समर्पित कविता में ‘पुष्प की अभिलाषा’ व उसके अंतर्भावों का मार्मिकतापूर्ण वर्णन करते हुए लिखा है—
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।”

प्रत्येक जीवनी बलिदानियों की देश के प्रति अटूट निष्ठा, जीवन संघर्ष और उनके कर्म पथ को चित्रित करती है। स्वाधीनता आन्दोलन में महिला और पुरुष दोनों ने त्याग और बलिदान दिया है, इसलिए दोनों को सम्मिलित किया गया है। हर जाति—धर्म के नामों को इसमें समाविष्ट किया गया है।
तिलका मांझी, बांके चमार, मातादीन भंगी, राजा राव राम बख्श सिंह, वीरा पासी, राणा बेनी माधव सिंह, ऊदा देवी पासी, बहादुर शाह ज़फ़र, माधौ सिंह, जोधा सिंह अटैया, उय्यलवाड़ा नरसिम्हा रेड्डी, टंट्या भील, रानी गिडालू, झलकारी बाई, बसावन सिंह, गंगू मेहतर, कुंवर सिंह, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, रणवीरी वाल्मीकि, जैसे अनेक क्रांतिकारी वीर सपूत, जिनका नाम तक इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है, इन सब के विषय में सम्यक जानकारी देने का मेरा प्रयास है।
आज की परिस्थितियों और भौतिकवादी युग में जब महान राष्ट्रीय मूल्य और इतिहास में महापुरुषों के प्रति हमारी आस्था दरकने लगी है, तो ऐसे समय में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के स्वर्णिम नाम वर्तमान और भविष्य की युवा पीढ़ी में सौम्य उत्तेजना पैदा करके उन्हें राष्ट्रभाव से ऊर्जस्वित करने का कार्य करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।
पुनः राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इन पंक्तियों को याद करना मुझे समीचीन मालूम पड़ रहा है–
जला अस्थियां बारी-बारी,
फैलाई जिसने चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन की मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।।

सत्तावनी क्रांति के ज्ञात–अज्ञात अमर शहीदों, क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के श्री चरणों में पुनः श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आने वाली पीढ़ी को महापुरुषों की शौर्य, पराक्रम, त्याग, वैभव आदि पढ़ने और उन वीरों को स्मरण करने के लिए बारंबार निवेदन करता हूं।
जय हिन्द वंदे मातरम्

डॉ अशोक कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ.प्र.)
मो० 9415951459

अमर शहीद वीर पांड्या कट्टाबोम्मन : दक्षिण भारत के रोबिन हुड

भारत को फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालीयों व अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए देश के कोने-कोने से वीर पुरुषों और वीरांगनाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए प्राण न्योछावर कर दिया। तब सन 1857 से प्रारम्भ हुई स्वाधीनता के संघर्ष की यात्रा लगभग 90 वर्ष बाद 15 अगस्त सन 1947 को स्वतंत्रत भारत के रूप मे दिखाई दी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक के असंख्य वीरों ने अपने लहू के एक एक बूँद से फिरांगियों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ी है।
    दक्षिण भारत के रोबिन हुड कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरपाड्या कट्टाबोम्मन का जन्म 03 जनवरी सन 1760 को मद्रास प्रेजिडेंसी के तहत तमिलनाडु के पंचलकुरिचि नामक ग्राम के तमिल समुदाय में हुआ था।
     पिता जगवीरा कट्टाबोम्मन व माता श्रीमती अरुमुगाथमल राजसी परिवार से संबंधित थे। अंग्रेजों को उनकी रियासत पर नजर लग चुकी थी। किसी भी हाल में अंग्रेज जगवीरा का साम्राज्य समाप्त कर उन्हें अपना गुलाम बानाना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
वीरपांडिया कट्टाबोम्मन को तमिलनाडु के पंचलकुरिचि और पलायकर (तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक ) का शासक नियुक्त किये जा चुका था। पॉलिकर वो अधिकारी होते थे, जो विजय नगर साम्राज्य के तहत कर Tax वसूलते थे।
     ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वीरपाण्डेया को अपना साम्राज्य देने का सन्धि प्रस्ताव भेजा किन्तु, शासक वीरपांडीया ने ब्रिटिश प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। कुछ दिन बाद षड़यंत्र के तहत फिरंगियों ने पदुकोट्टई और टोंडाईमन रियासत के राजाओं के साथ मिलकर वीरपंड्या कट्टाबोम्मन को पराजित कर दिया। पॉलिगर का यह प्रथम युद्ध कहा जाता है। पॉलिगर या पालियाक़र का युद्ध तमिलनाडु में तिरुनेवल्ली के शासक और ब्रिटिश हुकूमत के मध्य लड़ा गया। अंततः ब्रिटिश सेना की जीत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारकर अपनी पैठ मजबूत कर ली। अब धीरे धीरे अंग्रेज दक्षिण भारत में अपनी शासन-सत्ता चलाने लगे थे।
     अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के मद्रास प्रेजिडेंसी परिक्षेत्र में अब तेजी से अपना साम्राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया, साथ ही कर Tax वसूली की गोपनीय योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
     हम स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत सन 1857 से मानते हैं, किन्तु इससे भी कई दशक पूर्व तिलका मांझी, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन आदि क्रन्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का आगाज कर चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्रांति की शुरुआत सन 1857 से लगभग 60 वर्ष पूर्व सन 1787 में अंग्रेजों के खिलाफ शंखनाद कर दिया था।
     पॉलिगार का युद्ध के समय वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों से कहा कि- ‘हम इस भूमि के बेटे बेटियाँ हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान कि दुनिया में रहते हैं। हम विदेशियों के सामने सर नहीं झुकाते। हम मरते दम तक लड़ेंगे।’ इस प्रकार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने फिरंगियों को अपने पूर्वजों का शासन और अपना संघर्षशील मंतव्य प्रकट कर दिया था।
     ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सर्वप्रथम कर Tax संग्रह की आपस में योजना बनाई। तत्पश्चात कर्नाटक में अर्कोट के नवाब से कर संग्रह की एक प्रकार से नौकरी रूप में अनुमति माँगी। अनुमति मिलते ही जनता पर अधिक कर Tax थोपना शुरू कर दिया। धीरे धीरे ब्रिटिश कम्पनी ने अपनी आय और प्रभुसत्ता बढ़ाने के साथ ही स्थानीय रियासतों के राजाओं की शक्तियाँ क्षीण कर दी। ठेकेदारी भी स्वयं करवाने लगे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की कूटरचित चालें समझ चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब अंग्रेजी हुकूमत और अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारतीय लोगों को एकत्रित करके छोटी-छोटी बैठकें करने लगे, तो कभी-कभी रैलियाँ भी निकालते थे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्षेत्रीय रियासत के राजाओं से जन-बल व धन की मदद मांगी। राजा शिवकाँगा और राजा रामनाद आदि साथ खड़े हो गए, क्योंकि भविष्य में उन पर भी खतरा का बादल मंडरा सकता था।
     वीरापांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों को कर Tax देने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के मन में तो विश्वासघात की कूटनीति चल ही रही थी। पंचालकुरिचि में एक मीटिंग के दौरान वीरपांड्या कट्टाबोम्मन और अंग्रेज अफसर क्लार्क के मध्य वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि कट्टाबोम्मन ने अंग्रेज अफसर की मीटिंग के दसरान ही हत्या कर दी। इससे ब्रिटिश अधिकारीयों के अंदर खौफ़ भर गया, किन्तु अंदर ही अंदर षड़यंत्र करने लगे।
     कुछ समय बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर देखकर पंचालकुरिचि पर जोरदार धावा बोलकर वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के 17 सैनिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया। फिरंगियों ने वीरपांड्या के सबसे विश्वासपात्र थानापति पिल्लई का सिर काटकर पेड़ से लटका दिया। उसके बाद निर्दयी फिरंगियों एक-एक कर शेष सभी साथियों को मार डाला। इस हमले में वीरपांड्या कट्टाबोम्मन बचकर निकल गए थे, किन्तु अपने 17 साथियों की दर्दनाक मृत्यु पर बहुत रोये थे।
     अंग्रेज हुक्मरान लगातार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन को खोजने में लगे थे। जल, जंगल गाँव सब जगह की खाख छान रहे थे। अंत में 24 सितंबर सन 1799 को वीरपांड्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया। वीर सपूत पर फर्जी मुकदमें चलाकर एक माह के अंदर ही निर्णय सुनाकर कायाथारू (तमिलनाडु) में 16अक्टूबर सन 1799 को फाँसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के ख़ास विश्वासपात्र साथी सुब्रमण्यम पिल्लई  को भी फाँसी दे दी थी।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन की फाँसी के बाद भी दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की लौ धीमी नहीं पड़ी। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के भाई ओम मदुरई मोर्चा सँभालते हुई अंग्रेजों से लड़ते रहे, किन्तु ब्रिटिश हुक़ूमत के आगे उनकी भी न चली। जल्द ही गिरफ्तार करके आजीवन कारावास कि सजा देकर जेल में कैद कर दिए गए।
    वीरपांड्या कट्टाबोम्मन  की स्मृतियों को ताज़ा रखने के लिए वहाँ का किला का नाम, डाक टिकट, शहीद स्मारक, नौसेना का कट्टाबोम्मन जहाज आदि के नाम दिए गए हैं।

डॉ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
(अध्यक्ष हिंदी विभाग)
रायबरेली  उ•प्र
मो.  09415951459

प्यासा कलश | नरेन्द्र सिंह बघेल | लघुकथा

यह जरूरी नहीं कि जो कलश भरा दिखाई देता हो प्यासा न हो । इस पीड़ा को कलश बनाने वाला सिर्फ कुम्हार ही समझ सकता है , इसीलिए वह ग्राहक को कलश बेचते समय कलश को ठोंक बजा कर इस आश्वासन से देता है कि इसका पानी ठंडा रहेगा ।सच बात यह है कि जब तक वह अपनी बाह्य परत से जलकण आँसू के रूप में निकालता है तब तक कलश का जल शीतल रहता है , यदि कलश से आंसू निकलने बंद हो जाएं तो फिर जल की शीतलता भी गायब हो जाती है । इसलिए तन को शीतल रखने के लिए आँसू निकलना भी जरूरी रहता है जो मानसिक विकार को तन से निकाल देते हैं ।कलश से आँसू निकलने का फार्मूला सिर्फ कुम्हार को ही पता है , वो कुम्हार जो सृष्टि का नियंता है । जो आँसू निकलते हैं उन्हें निकल जाने दें ये निकल कर तन को शीतल ही करेंगे । प्यासा कलश दूसरों की प्यास शीतल जल से जरूर बुझाता है पर खुद प्यासा रहकर लगातार आँसू ही बहाता रहता है । बेचारा प्यासा कलश ।
*** नरेन्द्र ****

अंतिम मुगल सम्राट : बहादुर शाह जफर, जिनको भोजन में फिरंगियों ने बेटों के सिर परोसा

भारत में सत्तावनी स्वाधीनता संग्राम की क्रांति में किसी क्षेत्र या धर्म विशेष के लोगों ने अपनी कुर्बानियां नहीं दी, अपितु संपूर्ण भारत के सभी धर्म व सभी जातियों के लोगों ने खुशी-खुशी अपने प्राणों को निछावर कर दिया था। तत्कालीन परिस्थितियों में न हिंदू, न मुसलमान, न सिक्ख। स्वाधीनता संग्राम में जो भी शामिल था, वह सिर्फ सच्चा हिन्दुस्तानी, देश प्रेमी और भारत माता का रखवाला था। फिरंगियों ने भारतीयों पर जबरन अत्याचार, शोषण शुरू कर दिया। बच्चे औरतें भी अंग्रेजों के शोषण से बच नहीं सकी। फिर भी भारतीय वीर सपूत लड़ते रहे, तब अंत में भारत स्वतंत्र हुआ।
ऐसे ही वीर सपूत बहादुर शाह ज़फ़र थे।
बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्टूबर सन 1775 में पुरानी दिल्ली में हुआ था। पिता का नाम मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय और माता का नाम लालबाई था। जिन्होंने दिल्ली में कुशल शासक की भूमिका निभाते हुए होनहार बालक को जन्म दिया था। आप मशहूर शायर और मुगलकालीन शासन के अंतिम सम्राट थे। मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद 29 सितंबर सन 1837 को बहादुर शाह जफर ने दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान होकर भारत पर शासन करना प्रारंभ किया। जिसके साथ ही भारत से फिरंगियों को खदेड़ना आपका मुख्य उद्देश्य बन चुका था। आपने अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए -आजादी का ऐलान कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में मुगल मुगल शासक जफर ने भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए 1857 का विद्रोह शुरू कर दिया और स्वयं भी जंग के मैदान में कूद पड़े। इस महासंग्राम को सिपाही विद्रोह, भारतीय विद्रोह आदि की संज्ञा दी गई थी। बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में सशस्त्र सिपाहियों का अंग्रेजों के विरुद्ध 2 वर्ष युद्ध चला। विद्रोह का श्रीगणेश ब्रिटिश सरकार की छोटी-छोटी छावनियों से प्रारंभ हुआ था। बहादुर शाह जफर की सेना छावनियों में गोलाबारी करके ब्रिटिश हुकूमत को तहस नहस करने में लगी थी। ऐसे समय में मंगल पांडेय ने शूद्र सफाईकर्मी गंगू मेहतर द्वारा की गई यथार्थवादी तल्ख टिप्पणी सुनकर मेरठ छावनी के विद्रोह की लौ जलाई थी, जो संपूर्ण भारत में धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। ब्रिटिश सरकार में मंगल पांडेय सिपाही और गंगू मेहतर जमादार के पद पर कार्यरत थे।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, मशहूर सूफी विद्वान फजले हक खैराबादी ने दिल्ली स्थित भारत की सबसे बड़ी जामा मस्जिद से अंग्रेजों के विरुद्ध फतवा जारी कर दिया और इस फतवे को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का रूप दे दिया था। अब फिरंगियों में भय का माहौल था। अपनी कुर्सी डगमाती देख अंग्रेजों ने हजारों भारतीय उलेमाओं को सरेआम पेड़ों से लटका कर फांसी दे दी। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने अनेक वीर सपूतों को तोपों से भी उड़वा दिया, तो हजारों भारतीयों को काला पानी की आजीवन सजा भी दी। इस प्रकार अंग्रेजों का जुल्म और सितम बढ़ता गया है। फजले हक खैराबादी से अंग्रेज बहुत घबराते थे, इसलिए उन्हें रंगून (म्यांमार) में काला पानी की सजा देने के बावजूद भी मृत्युदंड दिया था।
यह क्रूरता अंग्रेजों पर ही भारी पड़ती जा रही थी। सम्राट बहादुर शाह जफर किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार न थे। अंग्रेजो ने कई संधि प्रस्ताव जफर के पास भेजा, किंतु सच्चे हिंदुस्तानी राष्ट्र प्रेमी जफर ने अंग्रेजों के सामने नतमस्तक होना कबूल नहीं किया, बल्कि फिरंगियों के खिलाफ और अधिक मुखर हो गए। तब फिरंगियों ने हजारों मुसलमानों को दिल्ली के लाल किला गेट पर गोली मार दी, सैकड़ो लोगों को वहीं पर फांसी भी दे दी। हजारों भारतीयों के बहते लहू का गवाह दिल्ली स्थित लाल किला के एक विशाल दरवाजे को आज भी ‘खूनी दरवाजा’ नाम से जाना जाता है। कुछ समय बाद लखनऊ में भी बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया था।
डरे सहमे अंग्रेजों ने भारत में हर ‘तरफ फूट डालो, राज करो’ एवं छल-कपट की कूटनीति भी जारी रखी। ब्रिटिश सरकार का मेजर हडसन दिल्ली में ही उर्दू भाषा भी सीख रहा था। एक दिन मेजर हडसन को मुन्शी जब अली और मिर्जा इलाही बख्श से खुफिया जानकारी प्राप्त हुई कि बहादुर शाह जफर अपने दो पुत्रों मिर्जा मुगल व खिजर एवं पोता अबूबकर सुल्तान के साथ पुरानी दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा में छिपे हैं। वहां मेजर हडसन ने पहुंचकर जफर को गिरफ्तार कर लिया था | क्योंकि बहादुर शाह जफर के दोनों पुत्रों और पोते ने अंग्रेजो के बीवी बच्चों का कत्ल करने मे हिस्सा लिया था| बहादुर शाह जफर और अन्य टीमों को गिरफ्तार करने के बाद मेजर हडसन ने शायराना अंदाज में कहा कि-
“दमदम में दम नहीं है, खैर मांगो जान की। ऐ जफर ठंडी हुई अब, तेग हिंदुस्तान की।।”
सम्राट, शायर बहादुर शाह ज़फ़र ने मेजर हडसन की इस बात पर क्रोधित होकर बुलंद आवाज में फिरंगियों को उत्तर देते हुए कहा–
“गाजियो में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लंदन तक, चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।”
बाद में स्वाधीनता संग्राम के युद्ध में अंग्रेजों से बहादुर शाह जफर को पराजय का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर व उनके पुत्रों को गिरफ्तार कर लिया। पुत्रों को दिल्ली में फांसी दे दी गई और जफर को म्यांमार स्थित रंगून में काला पानी की आजीवन सजा दी और वहीं 7 नवंबर सन 1862 में बहादुर शाह जफर की मृत्यु हो गई।
कहा जाता है अंग्रेज कितने कितने निर्दयी थे, इसका अंदाजा लगाने मात्र से ही भारतीयों की रूह कांप उठेगी। जब बहादुर शाह जफर और उनके दोनों पुत्रों को दिल्ली हुमायूं का मकबरा में गिरफ्तार किया गया, तो पुत्रों को पहले फांसी दे दी गई। बहादुर शाह जफर कई दिनों से भूखे प्यासे थे, उन्होंने भोजन मांगा तब क्रूर अंग्रेजों ने जफर के सामने थाली में उनके पुत्रों का सिर परोस कर दिया। सोचों उस पिता के दिल पर क्या बीती होगी। उसके बाद भी बहादुर शाह जफर ने पराधीनता स्वीकार नहीं की। सच्चे हिंदुस्तानी का धर्म निभाते हुए भारत माता की रक्षा के लिए शहीद हो गए।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार,
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

कवि ब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी” का जीवन परिचय

कवि ब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी” का जीवन परिचय

 जन्म3 जून 1941,अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
परिचय नामब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी”
 उपनाम” शैदी”
शिक्षाबी. लिब. एस सी., एम.एससी.,एम.फिल
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
प्रकाशित पुस्तकें: विभिन्न विधाओं में 25 पुस्तकें प्रकाशित जिनमें “मधुशाला” के छंद में “मयखाना” व उर्दू में लगभग लुप्तप्राय विधा “मसनवी” सम्मिलित. पांच पुस्तकें प्रकाशनाधीन. अनेक संपादित संग्रहों में सहभागिता.
 विविध
विदेश यात्राएं: 26 देशों में
सम्मान:
1.अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित.
“खुशदिलाने-जोधपुर” साहित्यिक संस्था द्वारा प्रदत्त “लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड”_ 2019.
80 वें वर्ष में प्रवेश पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ “शैदी “
परत-दर-परत.
रेडियो व दूरदर्शन पर अनेक बार प्रस्तुति.
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय से एसोसिएट प्रोफेसर के समकक्ष पद से सेवानिवृत्ति के उपरांत समाज सेवा व काव्य सृजन में व्यस्त.
पता: 11/ 108,राजेंद्र नगर, साहिबाबाद-201005, ज़िला गाजियाबाद.
दूरभाष: 98714 37552
 लेखकीय भाषा
उपरोक्त सभी भाषाओं में मौलिक लेखन व अनुवाद.
भाषा ज्ञान
हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, ब्रजभाषा, सर्बियाई व क्रोशियाई
शतक संगति समारोह में सविता चडढा जन सेवा समिति सम्मानित”

नई दिल्ली : काकासाहेब कालेलकर एवं विष्णु प्रभाकर की स्मृति में आयोजित सन्निधि की सौ संगोष्ठी पूर्ण होने पर शतक संगति समारोह का आयोजन गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा नई दिल्ली में आयोजित किया गया।इस अवसर पर विभिन्न साहित्यकारों एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाली समिति और संस्थाओं को भी सम्मानित किया। साहित्य ,कला,संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों को समर्पित सविता चडढा जन सेवा समिति को भी उनके साहित्य अनुराग, विशिष्ट साहित्य सेवा एवं समाज सेवा तथा नव युवाओं को प्रोत्साहन द्वारा समाज को जागरुक एवं समर्थ करने के उत्कृष्ट एवं निष्ठा पूर्ण प्रयासों के लिए विशिष्ट सेवा सम्मान 2024 प्रदान किया गया ।इस अवसर पर देशभर से पधारे साहित्यकारों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।


कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध हास्य कवि श्री सुरेंद्र शर्मा जी रहे जिन्होंने हिंदी भाषा एवं अन्य भाषाओं पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये। इस अवसर पर जनसत्ता के संपादक और लेखक मुकेश भारद्वाज और वरिष्ठ आलोचक डॉ गोपेश्वर सिंह की उपस्थिति उल्लेखनीय रही ।कार्यक्रम में सभी अतिथियों का स्वागत अतुल प्रभाकर ने किया । कार्यक्रम का उत्कृष्ट संचालन प्रसून लतांत ने किया ।

डिजिटल भारत – बदलाव की पहल: उभरते मुद्दे और चुनौतियां | डाॅ अशोक कुमार गौतम

डिजिटल भारत – बदलाव की पहल: उभरते मुद्दे और चुनौतियां

‘डिजिटल भारत‘ की बात जब भी मन में आती है, ‘सूचना प्रौद्योगिकी‘ शब्द मन में कौंधने लगता है। आँखों के सामने सम्पूर्ण विश्व की तस्वीर उभर कर आ जाती है। ऐसा लगता है सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड मुट्ठी में आ गया है। डिजिटल इण्डिया के विषय में जब भी चिंतन करते हैं तो मन में चैटिंग, साइबर कैफै, आनलाइन व्यापारिक कारोबार, विद्यार्थियों के लिये आनलाइन पाठ्य सामग्री, सभी कार्यालयों की जानकारी उभरकर सामने आ जाती है। एक पल में कोई भी प्रोग्राम या आवश्यकताओं का हल खोज लेते हैं। डिजिटल क्षेत्र में टेलीफोन, मोबाइल, पेजर, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि की अहम भूमिका होती है।

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’’डिजिटल युग की देन है आज हम घर बैठे अमेरिका, फ्रांस, जापान, ब्रिटेन आदि देशों के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से घर बैठे पढ़ाई करके डिग्री प्राप्त कर सकते हैं, वह भी नाम मात्र की फीस में। सम्भावना है कि भविष्य में कम्प्यूटर स्वयं ही किताबों को पढ़कर सूचना देने लगे। सरकार ने विद्यावाहिनी योजना के माध्यम से इस दिशा में कदम भी उठाया है।’’

डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट (Digital India Project) का विमोचन 1 जुलाई सन् 2015 ई0 को इन्दिरा गांधी स्टेडियम नई दिल्ली में हुआ था। डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट के उद्घाटन अवसर पर रिलायंस, विप्रो, टाटा, भारती ग्रुप आदि के सी0ई0ओ0 ने भाग लिया था। इसके तहत सभी क्षेत्रों को इलेक्ट्रानिक मीडिया से जोड़ा जायेगा। डिजिटल इण्डिया सरकार का अहम प्रोजेक्ट है। इसके माध्यम से भारत की सभी 2,20,000 ग्राम पंचायतों को एक साथ जोड़ा जायेगा। शहरी क्षेत्र के लोग इन्टरनेट को अच्छी तरह से समझ चुके हैं, फिर भी ई-स्टडी, ई बुक्स, ई-टिकट, ई- बैंकिग, ई- शापिंग आदि का सर्वाधिक प्रयोग महानगरों के लोग करते हैं। भारत की 35% आबादी आज भी इण्टरनेट की पहुंच से दूर है।

प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान (PMGDISHA) महत्वपूर्ण अभियान है, इसके तहत देश के 6 करोड़ घरों को 2019 तक डिजिटल रूप से साक्षर बनाने का उद्देश्य है। कौशल विकास प्रोजेक्ट (Skill Devlopment Project) 2017 से प्रारम्भ हो चुका है। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य शहरी, ग्रामीण, पिछड़े लोगों को सैद्धान्तिक और व्यवहारिक रूप से प्रशिक्षण प्रदान करके स्वावलम्बी बनाना है, जिसके लिये तकनीकी, डिजिटल जानकारी दी जाती है।

C.S.C. (Common service Centre) अर्थात् आम सेवा केन्द्र, यह प्रोग्राम राष्ट्रीय ई-गवर्नेन्स योजना का रणनीतिक आधार है। इसे मई 2006 में भारत सरकार के इलेक्ट्राॅनिक एवं आईटी मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया था। जिसका उद्देश्य शिक्षा, स्वास्थ्य, टिकट, विभिन्न प्रमाणपत्र बनवाना, बिल भुगतान और अन्य जानकारी उपलब्ध कराना था। आज यह सेवा भारत में बृहद् स्तर पर कार्य कर रही है। इस डिजिटल युग में कम्प्यूटर बनाम मानव (Computer v/s Human) में श्रेष्ठ कौन है।इस सम्बन्ध में आम जनता में भी अक्सर चर्चाएं हुआ करती हैं।

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’’कम्प्यूटर के सम्बन्ध में यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि कम्प्यूटर की अपनी कोई बुद्धिमत्ता नहीं होती, न ही इसमें सोचने बिचारने की समझ या निर्णय लेने या तर्क करने की शक्ति होती है। यह शक्ति उसे मानव द्वारा प्रदान की जाती है। अतः कम्प्यूटर मानव की ही कृति है, इसलिये वह मानव से श्रेष्ठ नहीं हो सकता है, लेकिन किसी मानव से श्रेष्ठ कार्य करने में सक्षम अवश्य हो सकता है।’’

’डिजिटल भारत’ सरकार की एक पहल है, जिसके तहत सभी सरकारी विभागों को देश की जनता से जोड़ना है। इसका प्रमुख उद्देश्य बिना कागज (paperless) के इस्तेमाल के सरकारी सेवाएं जनता तक आसानी से इलेक्ट्राॅनिक रूप से पहुंचाना है। इस परियोजना को ग्रामीण क्षेत्रों की जनता तक पहुंचाने के लिए त्रिस्तरीय प्रोग्राम बनाया गया है- (1) डिजिटल आधारभूत ढ़ांचे का निमार्ण करना, (2) इलेक्ट्राॅनिक रूप से सेवाओं को जनता तक पहुंचाना, (3) डिजिटल साक्षरता। इस योजना को वर्ष 2019 तक पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया है, इससे सेवा प्रदाता और उपभोक्ता दोनों को प्रत्यक्ष लाभ होगा।
भारत निरन्तर प्रगति के पथ पर चल रहा है। डिजिटल भारत का सपना 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी ने देखा था जो पूर्णरूपेण आज चरितार्थ हो रहा है। भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी उज्ज्वल भारत के भविष्य का सपना साकार कर रहे हैं।

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सरकार ने डिजिटल इण्डिया के माध्यम से अमीर-गरीब के खाई पाट दी है। फिर भी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यह खाई आज भी बनी है, जिसे ’ 4जी बनाम 2जी ’ कहा जा सकता है, अब तो 5G की पीढ़ी आ गयी है। जरूरत है हम इन सम्भावनाओं और सुरक्षा के सवालों के बारे में सजग रहें। ई-टेन्डर, ई-टिकट, ई-बिल आदि को जितना प्रयोग में लाया जायेगा उतना ही भष्टाचार में लगाम लगेगी। हमारे देश में नेटवर्क की बहुत समस्या थी, जिसका उदाहरण दूरदर्शन है। पहले हम छत पर चढ़कर एन्टीना घुमाया करते थे, अब सेटटाॅप बाक्स के माध्यम से साफ चित्र देख सकते हैं। ’आज भारत का नेटवर्क इतना स्लो है कि भारत का दुनिया में 115वां स्थान है। जाहिर है सरकार इन उद्देश्यों को आसानी से हांसिल नहीं कर सकती।’ (source NDTV)


भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी ने 8 नबम्बर 2016 को नोटबन्दी का आदेश पारित किया था। जिसके बाद से निरन्तर कैशलेस ट्रांजेक्शन पर जोर दिया जा रहा है। इस डिजिटल युग में मोबाइल यकीनन बटुआ के समान हो गया है। इसे ई-वाॅलेट नाम भी दिया गया है, पर इसका उपयोग आसान नहीं है। साइबर अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अब सवाल उठता है क्या वाकई मौजूदा हालातों में देश की अर्थ व्यवस्था पूर्णरूपेण डिजिटल हो सकती हैघ् क्या लो-इण्टरनेट कनेक्टीविटी, साइवर क्राइम, तकनीकी जानकारी का अभाव, डिजिटल इण्डिया प्रोग्राम की प्रगति में बाधक हैघ् क्या भारत जैसे देश में कैशलेस इण्डिया का सपना पूरा करना आसान हैघ् इसके लिये अनेक चुनौतियों का सामना भारत को करना पड़ेगा।


डिजिटल इण्डिया का लाभ जनता को परोक्ष रूप से मिल रहा है, वहीं कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। जिससे निपटने में कुछ वक्त लगेगा। 90 करोड़ गरीब, अशिक्षित लोगों के पास इन्ड्रायड मोबाइल नही है, वे लोग BHIM Apps का लाभ कैसे उठायेंगेघ? ऊपर से साइबर अपराधियों की नजरें Apps पर निरन्तर रहती। इन्ड्रायड मोबाइल के माध्यम से सोशल मीडिया पर झूठी अफवाहें फैलती रहती हैं, जिसे रोक पाना प्रशासन के लिये भी चुनौती है। इस मोबाइल से अँाख, कान खराब हो रहे हैं, वहीं कम निन्द्रा ले पाने के कारण पेट सम्बन्धी समस्याएं बढ़ रही हैं। फिर भी डिजिटल इण्डिया के सपने को आइए हम सब मिलकर सफल बनायंें, जिससे सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सके।

डाॅ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
रायबरेली (उ0प्र0)
मो0 9415951459