सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
(बालकांड, रामचरित मानस – गोस्वामी तुलसीदास)
महिमा मंडित भारत वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी, सम्राट अशोक जैसे महापुरुषों की जमीं है, जिन्होंने हमेशा शांति व सद्भाव का संदेश दिया है। इसलिए भारत शांतिप्रिय राष्ट्र था और यही मर्यादित परंपरा आज भी संपूर्ण राष्ट्र में विद्यमान है। जिसका फायदा कहीं न कहीं विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। जब–जब भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों ने व्यापार का बहाना बनाकर आक्रमण करके शासन करना चाहा, तब हमारे राष्ट्र के निडर, शूरवीर, अमर शहीदों ने मानो ईश्वरीय शक्ति के साथ जन्म लिया। फिर इन योद्धाओं ने फिरंगियों के अहंकार व उनके साम्राज्य का समूल विनाश करते हुए, उनके हलक में हांथ डालकर वापस सिंहासन छीना था। ऐसे अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आजीवन ऋणी रहेंगे।

थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?
सुंदरियों ने जहाँ देश-हित, जौहर-व्रत करना सीखा।
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा।।
वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा। वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥

कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ’हल्दीघाटी’ में उक्त कविता को लिखकर स्वतंत्रता, संघर्ष और त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। इतना ही नहीं, कवि श्याम नारायण ने महाराणा प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों और भारत माता के रखवालों को ’सन्यासी’ की संज्ञा दी है, स्त्रियों को आत्म सम्मान व अपने संतानों की रक्षा करना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ स्वीकार किया है।
संन्यासी रूपी अमर शहीदों के श्री चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज हम गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों के आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलती रही हैं। यह ठीक है कि सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया है। तत्पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने क्रांतिकारियों तरह तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखकर मारा गया। तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।
पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्युलर जेल की दर्द भरी दास्तां रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। सन 1857 से 1947 के मध्य की दिल दहला देने वाली सत्य कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसुओं के साथ ज्वाला भी निकलेगी, कि क्रूर अंग्रेजों इतना जुल्म–ओ–सितम भारतीयों पर किया है। क्रांतिकारियों को ’देश निकाला’ की सज़ा देकर कैदी बनाकर सेल्युलर जेल रखा जाता था। एक कैदी से दूसरे से बिलकुल मिल नहीं सकता था। जेल में हर क्रांतिकारी के लिए एक अलग छोटा सा ऐसा कमरा होता था, जिसमें न ठीक से पैर पसार सकते थे , न ही ठीक से खड़े हो सकते थे। जो क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बोलते थे, अंग्रेज सिपाही उनके कमर में भारी पत्थर बांधकर समुद्र में जिंदा ही फेंक देते थे। एक कमरा में एक ही क्रांतिकारी को रखा जाता था। हांथ पैर में बेड़ियां और अकेलापन भी कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। शायद इसीलिए सेल्युलर जेल को ’काला पानी’ की संज्ञा दी गई थी।
स्वातन्त्र्य वीरों की यातनाओं को सुनकर दिल दहल जाता है। हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। इनकी यातनाओं की अत्यन्त करुण गाथा है। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया। हमारी आज की स्वतंत्रता का भव्य भवन अर्थात राष्ट्र मंदिर ऐसे ही क्रांतिकारी और बलिदानों की नींव पर टिका है। भारत के ये वीर सपूत हमारे प्रेरणापुंज हैं।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी। यदि हम प्रत्येक महापुरुष की अलग–अलग सम्पूर्ण जीवनी लिखने बैठेंगे तो, कागज, कलम और स्याही भले ही कम पड़ जायेगी, किंतु उनके त्याग व तपस्या की वीरगाथा की सत्यवाणी छोटी नहीं पड़ेगी। वैसे तो सत्तावनी क्रान्ति में अमरता को प्राप्त हुए भारत माता के लालों की शौर्य गाथा शब्दों में बयां करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
अंग्रेजों के सामने नतमस्तक न होने पर जेल यात्रा करने वाले क्रान्तिकारी और ओजस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने राष्ट्र के शहीदों के लिए समर्पित कविता में ‘पुष्प की अभिलाषा’ व उसके अंतर्भावों का मार्मिकतापूर्ण वर्णन करते हुए लिखा है—
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।”

प्रत्येक जीवनी बलिदानियों की देश के प्रति अटूट निष्ठा, जीवन संघर्ष और उनके कर्म पथ को चित्रित करती है। स्वाधीनता आन्दोलन में महिला और पुरुष दोनों ने त्याग और बलिदान दिया है, इसलिए दोनों को सम्मिलित किया गया है। हर जाति—धर्म के नामों को इसमें समाविष्ट किया गया है।
तिलका मांझी, बांके चमार, मातादीन भंगी, राजा राव राम बख्श सिंह, वीरा पासी, राणा बेनी माधव सिंह, ऊदा देवी पासी, बहादुर शाह ज़फ़र, माधौ सिंह, जोधा सिंह अटैया, उय्यलवाड़ा नरसिम्हा रेड्डी, टंट्या भील, रानी गिडालू, झलकारी बाई, बसावन सिंह, गंगू मेहतर, कुंवर सिंह, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, रणवीरी वाल्मीकि, जैसे अनेक क्रांतिकारी वीर सपूत, जिनका नाम तक इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है, इन सब के विषय में सम्यक जानकारी देने का मेरा प्रयास है।
आज की परिस्थितियों और भौतिकवादी युग में जब महान राष्ट्रीय मूल्य और इतिहास में महापुरुषों के प्रति हमारी आस्था दरकने लगी है, तो ऐसे समय में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के स्वर्णिम नाम वर्तमान और भविष्य की युवा पीढ़ी में सौम्य उत्तेजना पैदा करके उन्हें राष्ट्रभाव से ऊर्जस्वित करने का कार्य करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।
पुनः राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इन पंक्तियों को याद करना मुझे समीचीन मालूम पड़ रहा है–
जला अस्थियां बारी-बारी,
फैलाई जिसने चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन की मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।।

सत्तावनी क्रांति के ज्ञात–अज्ञात अमर शहीदों, क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के श्री चरणों में पुनः श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आने वाली पीढ़ी को महापुरुषों की शौर्य, पराक्रम, त्याग, वैभव आदि पढ़ने और उन वीरों को स्मरण करने के लिए बारंबार निवेदन करता हूं।
जय हिन्द वंदे मातरम्

डॉ अशोक कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ.प्र.)
मो० 9415951459

अमर शहीद वीर पांड्या कट्टाबोम्मन : दक्षिण भारत के रोबिन हुड

भारत को फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालीयों व अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए देश के कोने-कोने से वीर पुरुषों और वीरांगनाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हुए प्राण न्योछावर कर दिया। तब सन 1857 से प्रारम्भ हुई स्वाधीनता के संघर्ष की यात्रा लगभग 90 वर्ष बाद 15 अगस्त सन 1947 को स्वतंत्रत भारत के रूप मे दिखाई दी। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से अरुणाचल प्रदेश तक के असंख्य वीरों ने अपने लहू के एक एक बूँद से फिरांगियों के खिलाफ जंग-ए-आजादी की लड़ाई लड़ी है।
    दक्षिण भारत के रोबिन हुड कहे जाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीरपाड्या कट्टाबोम्मन का जन्म 03 जनवरी सन 1760 को मद्रास प्रेजिडेंसी के तहत तमिलनाडु के पंचलकुरिचि नामक ग्राम के तमिल समुदाय में हुआ था।
     पिता जगवीरा कट्टाबोम्मन व माता श्रीमती अरुमुगाथमल राजसी परिवार से संबंधित थे। अंग्रेजों को उनकी रियासत पर नजर लग चुकी थी। किसी भी हाल में अंग्रेज जगवीरा का साम्राज्य समाप्त कर उन्हें अपना गुलाम बानाना चाहते थे, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
वीरपांडिया कट्टाबोम्मन को तमिलनाडु के पंचलकुरिचि और पलायकर (तमिलनाडु, आँध्रप्रदेश, कर्नाटक ) का शासक नियुक्त किये जा चुका था। पॉलिकर वो अधिकारी होते थे, जो विजय नगर साम्राज्य के तहत कर Tax वसूलते थे।
     ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वीरपाण्डेया को अपना साम्राज्य देने का सन्धि प्रस्ताव भेजा किन्तु, शासक वीरपांडीया ने ब्रिटिश प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। कुछ दिन बाद षड़यंत्र के तहत फिरंगियों ने पदुकोट्टई और टोंडाईमन रियासत के राजाओं के साथ मिलकर वीरपंड्या कट्टाबोम्मन को पराजित कर दिया। पॉलिगर का यह प्रथम युद्ध कहा जाता है। पॉलिगर या पालियाक़र का युद्ध तमिलनाडु में तिरुनेवल्ली के शासक और ब्रिटिश हुकूमत के मध्य लड़ा गया। अंततः ब्रिटिश सेना की जीत के साथ ही दक्षिण भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारकर अपनी पैठ मजबूत कर ली। अब धीरे धीरे अंग्रेज दक्षिण भारत में अपनी शासन-सत्ता चलाने लगे थे।
     अंग्रेजों ने दक्षिण भारत के मद्रास प्रेजिडेंसी परिक्षेत्र में अब तेजी से अपना साम्राज्य विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया, साथ ही कर Tax वसूली की गोपनीय योजना पर कार्य करना शुरू कर दिया।
     हम स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत सन 1857 से मानते हैं, किन्तु इससे भी कई दशक पूर्व तिलका मांझी, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन आदि क्रन्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का आगाज कर चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्रांति की शुरुआत सन 1857 से लगभग 60 वर्ष पूर्व सन 1787 में अंग्रेजों के खिलाफ शंखनाद कर दिया था।
     पॉलिगार का युद्ध के समय वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों से कहा कि- ‘हम इस भूमि के बेटे बेटियाँ हैं। हम प्रतिष्ठा और सम्मान कि दुनिया में रहते हैं। हम विदेशियों के सामने सर नहीं झुकाते। हम मरते दम तक लड़ेंगे।’ इस प्रकार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने फिरंगियों को अपने पूर्वजों का शासन और अपना संघर्षशील मंतव्य प्रकट कर दिया था।
     ईस्ट इण्डिया कंपनी ने सर्वप्रथम कर Tax संग्रह की आपस में योजना बनाई। तत्पश्चात कर्नाटक में अर्कोट के नवाब से कर संग्रह की एक प्रकार से नौकरी रूप में अनुमति माँगी। अनुमति मिलते ही जनता पर अधिक कर Tax थोपना शुरू कर दिया। धीरे धीरे ब्रिटिश कम्पनी ने अपनी आय और प्रभुसत्ता बढ़ाने के साथ ही स्थानीय रियासतों के राजाओं की शक्तियाँ क्षीण कर दी। ठेकेदारी भी स्वयं करवाने लगे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब पूरी तरह से अंग्रेजी हुकूमत की कूटरचित चालें समझ चुके थे।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन अब अंग्रेजी हुकूमत और अंग्रेजों के खिलाफ दक्षिण भारतीय लोगों को एकत्रित करके छोटी-छोटी बैठकें करने लगे, तो कभी-कभी रैलियाँ भी निकालते थे। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन ने क्षेत्रीय रियासत के राजाओं से जन-बल व धन की मदद मांगी। राजा शिवकाँगा और राजा रामनाद आदि साथ खड़े हो गए, क्योंकि भविष्य में उन पर भी खतरा का बादल मंडरा सकता था।
     वीरापांड्या कट्टाबोम्मन ने अंग्रेजों को कर Tax देने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों के मन में तो विश्वासघात की कूटनीति चल ही रही थी। पंचालकुरिचि में एक मीटिंग के दौरान वीरपांड्या कट्टाबोम्मन और अंग्रेज अफसर क्लार्क के मध्य वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि कट्टाबोम्मन ने अंग्रेज अफसर की मीटिंग के दसरान ही हत्या कर दी। इससे ब्रिटिश अधिकारीयों के अंदर खौफ़ भर गया, किन्तु अंदर ही अंदर षड़यंत्र करने लगे।
     कुछ समय बाद अंग्रेजों ने उचित अवसर देखकर पंचालकुरिचि पर जोरदार धावा बोलकर वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के 17 सैनिक साथियों को गिरफ्तार कर लिया। फिरंगियों ने वीरपांड्या के सबसे विश्वासपात्र थानापति पिल्लई का सिर काटकर पेड़ से लटका दिया। उसके बाद निर्दयी फिरंगियों एक-एक कर शेष सभी साथियों को मार डाला। इस हमले में वीरपांड्या कट्टाबोम्मन बचकर निकल गए थे, किन्तु अपने 17 साथियों की दर्दनाक मृत्यु पर बहुत रोये थे।
     अंग्रेज हुक्मरान लगातार वीरपांड्या कट्टाबोम्मन को खोजने में लगे थे। जल, जंगल गाँव सब जगह की खाख छान रहे थे। अंत में 24 सितंबर सन 1799 को वीरपांड्या को धोखे से गिरफ्तार कर लिया। वीर सपूत पर फर्जी मुकदमें चलाकर एक माह के अंदर ही निर्णय सुनाकर कायाथारू (तमिलनाडु) में 16अक्टूबर सन 1799 को फाँसी पर लटका दिया। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के ख़ास विश्वासपात्र साथी सुब्रमण्यम पिल्लई  को भी फाँसी दे दी थी।
     वीरपांड्या कट्टाबोम्मन की फाँसी के बाद भी दक्षिण भारत में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की लौ धीमी नहीं पड़ी। वीरपांड्या कट्टाबोम्मन के भाई ओम मदुरई मोर्चा सँभालते हुई अंग्रेजों से लड़ते रहे, किन्तु ब्रिटिश हुक़ूमत के आगे उनकी भी न चली। जल्द ही गिरफ्तार करके आजीवन कारावास कि सजा देकर जेल में कैद कर दिए गए।
    वीरपांड्या कट्टाबोम्मन  की स्मृतियों को ताज़ा रखने के लिए वहाँ का किला का नाम, डाक टिकट, शहीद स्मारक, नौसेना का कट्टाबोम्मन जहाज आदि के नाम दिए गए हैं।

डॉ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
(अध्यक्ष हिंदी विभाग)
रायबरेली  उ•प्र
मो.  09415951459

प्यासा कलश | नरेन्द्र सिंह बघेल | लघुकथा

यह जरूरी नहीं कि जो कलश भरा दिखाई देता हो प्यासा न हो । इस पीड़ा को कलश बनाने वाला सिर्फ कुम्हार ही समझ सकता है , इसीलिए वह ग्राहक को कलश बेचते समय कलश को ठोंक बजा कर इस आश्वासन से देता है कि इसका पानी ठंडा रहेगा ।सच बात यह है कि जब तक वह अपनी बाह्य परत से जलकण आँसू के रूप में निकालता है तब तक कलश का जल शीतल रहता है , यदि कलश से आंसू निकलने बंद हो जाएं तो फिर जल की शीतलता भी गायब हो जाती है । इसलिए तन को शीतल रखने के लिए आँसू निकलना भी जरूरी रहता है जो मानसिक विकार को तन से निकाल देते हैं ।कलश से आँसू निकलने का फार्मूला सिर्फ कुम्हार को ही पता है , वो कुम्हार जो सृष्टि का नियंता है । जो आँसू निकलते हैं उन्हें निकल जाने दें ये निकल कर तन को शीतल ही करेंगे । प्यासा कलश दूसरों की प्यास शीतल जल से जरूर बुझाता है पर खुद प्यासा रहकर लगातार आँसू ही बहाता रहता है । बेचारा प्यासा कलश ।
*** नरेन्द्र ****

अंतिम मुगल सम्राट : बहादुर शाह जफर, जिनको भोजन में फिरंगियों ने बेटों के सिर परोसा

भारत में सत्तावनी स्वाधीनता संग्राम की क्रांति में किसी क्षेत्र या धर्म विशेष के लोगों ने अपनी कुर्बानियां नहीं दी, अपितु संपूर्ण भारत के सभी धर्म व सभी जातियों के लोगों ने खुशी-खुशी अपने प्राणों को निछावर कर दिया था। तत्कालीन परिस्थितियों में न हिंदू, न मुसलमान, न सिक्ख। स्वाधीनता संग्राम में जो भी शामिल था, वह सिर्फ सच्चा हिन्दुस्तानी, देश प्रेमी और भारत माता का रखवाला था। फिरंगियों ने भारतीयों पर जबरन अत्याचार, शोषण शुरू कर दिया। बच्चे औरतें भी अंग्रेजों के शोषण से बच नहीं सकी। फिर भी भारतीय वीर सपूत लड़ते रहे, तब अंत में भारत स्वतंत्र हुआ।
ऐसे ही वीर सपूत बहादुर शाह ज़फ़र थे।
बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्टूबर सन 1775 में पुरानी दिल्ली में हुआ था। पिता का नाम मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय और माता का नाम लालबाई था। जिन्होंने दिल्ली में कुशल शासक की भूमिका निभाते हुए होनहार बालक को जन्म दिया था। आप मशहूर शायर और मुगलकालीन शासन के अंतिम सम्राट थे। मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद 29 सितंबर सन 1837 को बहादुर शाह जफर ने दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान होकर भारत पर शासन करना प्रारंभ किया। जिसके साथ ही भारत से फिरंगियों को खदेड़ना आपका मुख्य उद्देश्य बन चुका था। आपने अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए -आजादी का ऐलान कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में मुगल मुगल शासक जफर ने भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए 1857 का विद्रोह शुरू कर दिया और स्वयं भी जंग के मैदान में कूद पड़े। इस महासंग्राम को सिपाही विद्रोह, भारतीय विद्रोह आदि की संज्ञा दी गई थी। बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में सशस्त्र सिपाहियों का अंग्रेजों के विरुद्ध 2 वर्ष युद्ध चला। विद्रोह का श्रीगणेश ब्रिटिश सरकार की छोटी-छोटी छावनियों से प्रारंभ हुआ था। बहादुर शाह जफर की सेना छावनियों में गोलाबारी करके ब्रिटिश हुकूमत को तहस नहस करने में लगी थी। ऐसे समय में मंगल पांडेय ने शूद्र सफाईकर्मी गंगू मेहतर द्वारा की गई यथार्थवादी तल्ख टिप्पणी सुनकर मेरठ छावनी के विद्रोह की लौ जलाई थी, जो संपूर्ण भारत में धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। ब्रिटिश सरकार में मंगल पांडेय सिपाही और गंगू मेहतर जमादार के पद पर कार्यरत थे।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, मशहूर सूफी विद्वान फजले हक खैराबादी ने दिल्ली स्थित भारत की सबसे बड़ी जामा मस्जिद से अंग्रेजों के विरुद्ध फतवा जारी कर दिया और इस फतवे को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का रूप दे दिया था। अब फिरंगियों में भय का माहौल था। अपनी कुर्सी डगमाती देख अंग्रेजों ने हजारों भारतीय उलेमाओं को सरेआम पेड़ों से लटका कर फांसी दे दी। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने अनेक वीर सपूतों को तोपों से भी उड़वा दिया, तो हजारों भारतीयों को काला पानी की आजीवन सजा भी दी। इस प्रकार अंग्रेजों का जुल्म और सितम बढ़ता गया है। फजले हक खैराबादी से अंग्रेज बहुत घबराते थे, इसलिए उन्हें रंगून (म्यांमार) में काला पानी की सजा देने के बावजूद भी मृत्युदंड दिया था।
यह क्रूरता अंग्रेजों पर ही भारी पड़ती जा रही थी। सम्राट बहादुर शाह जफर किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार न थे। अंग्रेजो ने कई संधि प्रस्ताव जफर के पास भेजा, किंतु सच्चे हिंदुस्तानी राष्ट्र प्रेमी जफर ने अंग्रेजों के सामने नतमस्तक होना कबूल नहीं किया, बल्कि फिरंगियों के खिलाफ और अधिक मुखर हो गए। तब फिरंगियों ने हजारों मुसलमानों को दिल्ली के लाल किला गेट पर गोली मार दी, सैकड़ो लोगों को वहीं पर फांसी भी दे दी। हजारों भारतीयों के बहते लहू का गवाह दिल्ली स्थित लाल किला के एक विशाल दरवाजे को आज भी ‘खूनी दरवाजा’ नाम से जाना जाता है। कुछ समय बाद लखनऊ में भी बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया था।
डरे सहमे अंग्रेजों ने भारत में हर ‘तरफ फूट डालो, राज करो’ एवं छल-कपट की कूटनीति भी जारी रखी। ब्रिटिश सरकार का मेजर हडसन दिल्ली में ही उर्दू भाषा भी सीख रहा था। एक दिन मेजर हडसन को मुन्शी जब अली और मिर्जा इलाही बख्श से खुफिया जानकारी प्राप्त हुई कि बहादुर शाह जफर अपने दो पुत्रों मिर्जा मुगल व खिजर एवं पोता अबूबकर सुल्तान के साथ पुरानी दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा में छिपे हैं। वहां मेजर हडसन ने पहुंचकर जफर को गिरफ्तार कर लिया था | क्योंकि बहादुर शाह जफर के दोनों पुत्रों और पोते ने अंग्रेजो के बीवी बच्चों का कत्ल करने मे हिस्सा लिया था| बहादुर शाह जफर और अन्य टीमों को गिरफ्तार करने के बाद मेजर हडसन ने शायराना अंदाज में कहा कि-
“दमदम में दम नहीं है, खैर मांगो जान की। ऐ जफर ठंडी हुई अब, तेग हिंदुस्तान की।।”
सम्राट, शायर बहादुर शाह ज़फ़र ने मेजर हडसन की इस बात पर क्रोधित होकर बुलंद आवाज में फिरंगियों को उत्तर देते हुए कहा–
“गाजियो में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लंदन तक, चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।”
बाद में स्वाधीनता संग्राम के युद्ध में अंग्रेजों से बहादुर शाह जफर को पराजय का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर व उनके पुत्रों को गिरफ्तार कर लिया। पुत्रों को दिल्ली में फांसी दे दी गई और जफर को म्यांमार स्थित रंगून में काला पानी की आजीवन सजा दी और वहीं 7 नवंबर सन 1862 में बहादुर शाह जफर की मृत्यु हो गई।
कहा जाता है अंग्रेज कितने कितने निर्दयी थे, इसका अंदाजा लगाने मात्र से ही भारतीयों की रूह कांप उठेगी। जब बहादुर शाह जफर और उनके दोनों पुत्रों को दिल्ली हुमायूं का मकबरा में गिरफ्तार किया गया, तो पुत्रों को पहले फांसी दे दी गई। बहादुर शाह जफर कई दिनों से भूखे प्यासे थे, उन्होंने भोजन मांगा तब क्रूर अंग्रेजों ने जफर के सामने थाली में उनके पुत्रों का सिर परोस कर दिया। सोचों उस पिता के दिल पर क्या बीती होगी। उसके बाद भी बहादुर शाह जफर ने पराधीनता स्वीकार नहीं की। सच्चे हिंदुस्तानी का धर्म निभाते हुए भारत माता की रक्षा के लिए शहीद हो गए।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार,
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

कवि ब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी” का जीवन परिचय

कवि ब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी” का जीवन परिचय

 जन्म3 जून 1941,अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
परिचय नामब्रजकिशोर वर्मा ” शैदी”
 उपनाम” शैदी”
शिक्षाबी. लिब. एस सी., एम.एससी.,एम.फिल
 कुछ प्रमुख कृतियाँ
प्रकाशित पुस्तकें: विभिन्न विधाओं में 25 पुस्तकें प्रकाशित जिनमें “मधुशाला” के छंद में “मयखाना” व उर्दू में लगभग लुप्तप्राय विधा “मसनवी” सम्मिलित. पांच पुस्तकें प्रकाशनाधीन. अनेक संपादित संग्रहों में सहभागिता.
 विविध
विदेश यात्राएं: 26 देशों में
सम्मान:
1.अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित.
“खुशदिलाने-जोधपुर” साहित्यिक संस्था द्वारा प्रदत्त “लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड”_ 2019.
80 वें वर्ष में प्रवेश पर प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ “शैदी “
परत-दर-परत.
रेडियो व दूरदर्शन पर अनेक बार प्रस्तुति.
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय से एसोसिएट प्रोफेसर के समकक्ष पद से सेवानिवृत्ति के उपरांत समाज सेवा व काव्य सृजन में व्यस्त.
पता: 11/ 108,राजेंद्र नगर, साहिबाबाद-201005, ज़िला गाजियाबाद.
दूरभाष: 98714 37552
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उपरोक्त सभी भाषाओं में मौलिक लेखन व अनुवाद.
भाषा ज्ञान
हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, ब्रजभाषा, सर्बियाई व क्रोशियाई
शतक संगति समारोह में सविता चडढा जन सेवा समिति सम्मानित”

नई दिल्ली : काकासाहेब कालेलकर एवं विष्णु प्रभाकर की स्मृति में आयोजित सन्निधि की सौ संगोष्ठी पूर्ण होने पर शतक संगति समारोह का आयोजन गांधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा नई दिल्ली में आयोजित किया गया।इस अवसर पर विभिन्न साहित्यकारों एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाली समिति और संस्थाओं को भी सम्मानित किया। साहित्य ,कला,संस्कृति एवं सामाजिक सरोकारों को समर्पित सविता चडढा जन सेवा समिति को भी उनके साहित्य अनुराग, विशिष्ट साहित्य सेवा एवं समाज सेवा तथा नव युवाओं को प्रोत्साहन द्वारा समाज को जागरुक एवं समर्थ करने के उत्कृष्ट एवं निष्ठा पूर्ण प्रयासों के लिए विशिष्ट सेवा सम्मान 2024 प्रदान किया गया ।इस अवसर पर देशभर से पधारे साहित्यकारों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।


कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में सुप्रसिद्ध हास्य कवि श्री सुरेंद्र शर्मा जी रहे जिन्होंने हिंदी भाषा एवं अन्य भाषाओं पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किये। इस अवसर पर जनसत्ता के संपादक और लेखक मुकेश भारद्वाज और वरिष्ठ आलोचक डॉ गोपेश्वर सिंह की उपस्थिति उल्लेखनीय रही ।कार्यक्रम में सभी अतिथियों का स्वागत अतुल प्रभाकर ने किया । कार्यक्रम का उत्कृष्ट संचालन प्रसून लतांत ने किया ।

डिजिटल भारत – बदलाव की पहल: उभरते मुद्दे और चुनौतियां | डाॅ अशोक कुमार गौतम

डिजिटल भारत – बदलाव की पहल: उभरते मुद्दे और चुनौतियां

‘डिजिटल भारत‘ की बात जब भी मन में आती है, ‘सूचना प्रौद्योगिकी‘ शब्द मन में कौंधने लगता है। आँखों के सामने सम्पूर्ण विश्व की तस्वीर उभर कर आ जाती है। ऐसा लगता है सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड मुट्ठी में आ गया है। डिजिटल इण्डिया के विषय में जब भी चिंतन करते हैं तो मन में चैटिंग, साइबर कैफै, आनलाइन व्यापारिक कारोबार, विद्यार्थियों के लिये आनलाइन पाठ्य सामग्री, सभी कार्यालयों की जानकारी उभरकर सामने आ जाती है। एक पल में कोई भी प्रोग्राम या आवश्यकताओं का हल खोज लेते हैं। डिजिटल क्षेत्र में टेलीफोन, मोबाइल, पेजर, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि की अहम भूमिका होती है।

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’’डिजिटल युग की देन है आज हम घर बैठे अमेरिका, फ्रांस, जापान, ब्रिटेन आदि देशों के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों से घर बैठे पढ़ाई करके डिग्री प्राप्त कर सकते हैं, वह भी नाम मात्र की फीस में। सम्भावना है कि भविष्य में कम्प्यूटर स्वयं ही किताबों को पढ़कर सूचना देने लगे। सरकार ने विद्यावाहिनी योजना के माध्यम से इस दिशा में कदम भी उठाया है।’’

डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट (Digital India Project) का विमोचन 1 जुलाई सन् 2015 ई0 को इन्दिरा गांधी स्टेडियम नई दिल्ली में हुआ था। डिजिटल इण्डिया प्रोजेक्ट के उद्घाटन अवसर पर रिलायंस, विप्रो, टाटा, भारती ग्रुप आदि के सी0ई0ओ0 ने भाग लिया था। इसके तहत सभी क्षेत्रों को इलेक्ट्रानिक मीडिया से जोड़ा जायेगा। डिजिटल इण्डिया सरकार का अहम प्रोजेक्ट है। इसके माध्यम से भारत की सभी 2,20,000 ग्राम पंचायतों को एक साथ जोड़ा जायेगा। शहरी क्षेत्र के लोग इन्टरनेट को अच्छी तरह से समझ चुके हैं, फिर भी ई-स्टडी, ई बुक्स, ई-टिकट, ई- बैंकिग, ई- शापिंग आदि का सर्वाधिक प्रयोग महानगरों के लोग करते हैं। भारत की 35% आबादी आज भी इण्टरनेट की पहुंच से दूर है।

प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान (PMGDISHA) महत्वपूर्ण अभियान है, इसके तहत देश के 6 करोड़ घरों को 2019 तक डिजिटल रूप से साक्षर बनाने का उद्देश्य है। कौशल विकास प्रोजेक्ट (Skill Devlopment Project) 2017 से प्रारम्भ हो चुका है। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य शहरी, ग्रामीण, पिछड़े लोगों को सैद्धान्तिक और व्यवहारिक रूप से प्रशिक्षण प्रदान करके स्वावलम्बी बनाना है, जिसके लिये तकनीकी, डिजिटल जानकारी दी जाती है।

C.S.C. (Common service Centre) अर्थात् आम सेवा केन्द्र, यह प्रोग्राम राष्ट्रीय ई-गवर्नेन्स योजना का रणनीतिक आधार है। इसे मई 2006 में भारत सरकार के इलेक्ट्राॅनिक एवं आईटी मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया था। जिसका उद्देश्य शिक्षा, स्वास्थ्य, टिकट, विभिन्न प्रमाणपत्र बनवाना, बिल भुगतान और अन्य जानकारी उपलब्ध कराना था। आज यह सेवा भारत में बृहद् स्तर पर कार्य कर रही है। इस डिजिटल युग में कम्प्यूटर बनाम मानव (Computer v/s Human) में श्रेष्ठ कौन है।इस सम्बन्ध में आम जनता में भी अक्सर चर्चाएं हुआ करती हैं।

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’’कम्प्यूटर के सम्बन्ध में यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि कम्प्यूटर की अपनी कोई बुद्धिमत्ता नहीं होती, न ही इसमें सोचने बिचारने की समझ या निर्णय लेने या तर्क करने की शक्ति होती है। यह शक्ति उसे मानव द्वारा प्रदान की जाती है। अतः कम्प्यूटर मानव की ही कृति है, इसलिये वह मानव से श्रेष्ठ नहीं हो सकता है, लेकिन किसी मानव से श्रेष्ठ कार्य करने में सक्षम अवश्य हो सकता है।’’

’डिजिटल भारत’ सरकार की एक पहल है, जिसके तहत सभी सरकारी विभागों को देश की जनता से जोड़ना है। इसका प्रमुख उद्देश्य बिना कागज (paperless) के इस्तेमाल के सरकारी सेवाएं जनता तक आसानी से इलेक्ट्राॅनिक रूप से पहुंचाना है। इस परियोजना को ग्रामीण क्षेत्रों की जनता तक पहुंचाने के लिए त्रिस्तरीय प्रोग्राम बनाया गया है- (1) डिजिटल आधारभूत ढ़ांचे का निमार्ण करना, (2) इलेक्ट्राॅनिक रूप से सेवाओं को जनता तक पहुंचाना, (3) डिजिटल साक्षरता। इस योजना को वर्ष 2019 तक पूर्ण करने का लक्ष्य रखा गया है, इससे सेवा प्रदाता और उपभोक्ता दोनों को प्रत्यक्ष लाभ होगा।
भारत निरन्तर प्रगति के पथ पर चल रहा है। डिजिटल भारत का सपना 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व0 राजीव गांधी ने देखा था जो पूर्णरूपेण आज चरितार्थ हो रहा है। भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी उज्ज्वल भारत के भविष्य का सपना साकार कर रहे हैं।

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सरकार ने डिजिटल इण्डिया के माध्यम से अमीर-गरीब के खाई पाट दी है। फिर भी शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यह खाई आज भी बनी है, जिसे ’ 4जी बनाम 2जी ’ कहा जा सकता है, अब तो 5G की पीढ़ी आ गयी है। जरूरत है हम इन सम्भावनाओं और सुरक्षा के सवालों के बारे में सजग रहें। ई-टेन्डर, ई-टिकट, ई-बिल आदि को जितना प्रयोग में लाया जायेगा उतना ही भष्टाचार में लगाम लगेगी। हमारे देश में नेटवर्क की बहुत समस्या थी, जिसका उदाहरण दूरदर्शन है। पहले हम छत पर चढ़कर एन्टीना घुमाया करते थे, अब सेटटाॅप बाक्स के माध्यम से साफ चित्र देख सकते हैं। ’आज भारत का नेटवर्क इतना स्लो है कि भारत का दुनिया में 115वां स्थान है। जाहिर है सरकार इन उद्देश्यों को आसानी से हांसिल नहीं कर सकती।’ (source NDTV)


भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेन्द्र मोदी ने 8 नबम्बर 2016 को नोटबन्दी का आदेश पारित किया था। जिसके बाद से निरन्तर कैशलेस ट्रांजेक्शन पर जोर दिया जा रहा है। इस डिजिटल युग में मोबाइल यकीनन बटुआ के समान हो गया है। इसे ई-वाॅलेट नाम भी दिया गया है, पर इसका उपयोग आसान नहीं है। साइबर अपराध दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। अब सवाल उठता है क्या वाकई मौजूदा हालातों में देश की अर्थ व्यवस्था पूर्णरूपेण डिजिटल हो सकती हैघ् क्या लो-इण्टरनेट कनेक्टीविटी, साइवर क्राइम, तकनीकी जानकारी का अभाव, डिजिटल इण्डिया प्रोग्राम की प्रगति में बाधक हैघ् क्या भारत जैसे देश में कैशलेस इण्डिया का सपना पूरा करना आसान हैघ् इसके लिये अनेक चुनौतियों का सामना भारत को करना पड़ेगा।


डिजिटल इण्डिया का लाभ जनता को परोक्ष रूप से मिल रहा है, वहीं कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है। जिससे निपटने में कुछ वक्त लगेगा। 90 करोड़ गरीब, अशिक्षित लोगों के पास इन्ड्रायड मोबाइल नही है, वे लोग BHIM Apps का लाभ कैसे उठायेंगेघ? ऊपर से साइबर अपराधियों की नजरें Apps पर निरन्तर रहती। इन्ड्रायड मोबाइल के माध्यम से सोशल मीडिया पर झूठी अफवाहें फैलती रहती हैं, जिसे रोक पाना प्रशासन के लिये भी चुनौती है। इस मोबाइल से अँाख, कान खराब हो रहे हैं, वहीं कम निन्द्रा ले पाने के कारण पेट सम्बन्धी समस्याएं बढ़ रही हैं। फिर भी डिजिटल इण्डिया के सपने को आइए हम सब मिलकर सफल बनायंें, जिससे सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सके।

डाॅ अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
रायबरेली (उ0प्र0)
मो0 9415951459

नाराज़गी | शैलेन्द्र कुमार

नाराज़गी / शैलेन्द्र कुमार

   मुझे याद नहीं कि उस दिन कोई त्यौहार था या कुछ और घर की साफ-सफाई की जा रही थी। पापा को उस दिन भी ड्यूटी  जाना था। ऐसे दिनों में मांँ बड़ी आफत में फंँस जाती, पापा के लिए खाना बना कर तैयार करें या घर की सफाई करें। अकेली जान और इतना काम, ऊपर से बच्चों की शरारत और उनके झगड़े। मांँ परेशान हो जाती। पापा भी उनके काम में हाथ न बँटा पाते क्योंकि उन्हें दिन भर दौड़-भाग करनी होती थी। सुबह छह बजे घर से निकल जाते और आते  लौटकर कोई ग्यारह बजे रात को।  ड्यूटी ही ऐसी थी, फील्ड वर्क था। साइकिल से आना-जाना होता। पापा को भी थकान हो जाया करती थी। ऐसे में मांँ कई बार झुंझला कर बच्चों को पीट दिया करती।

     उस दिन भी कुछ ऐसा ही घट गया था। मेरे दो बड़े भाई थे एक काम न करता, दूसरा उससे ईर्ष्या करता और मांँ से लड़ता। एक छोटी बहन थी। छोटी थी इसलिए वह बहुत ज्यादा मांँ की सहायता न कर पाती थी। रहा मैं, तो मैं था मांँ का दुलारा बेटा। मांँ मुझसे कभी कहती ही नहीं किसी काम के लिए लेकिन मैं जितना मांँ को दुलारा था उतना ही मांँ भी मुझे प्यारी थी। मांँ मुझसे कहे या न कहे मैं किसी न किसी बहाने उसकी सहायता कर ही देता लेकिन उनके काम में मेरी सहायता ऊंँट के मुंँह में जीरा के बराबर ही होती थी।

    उस दिन हुआ यह कि मांँ ने किसी काम के लिए छोटी बहन से कहा। बहन से काम बिगड़ गया। माँ उस पर चिल्लाने लगी। मुझे यह अन्याय लगा तो मैं बहन का पक्ष लेकर मांँ से बहस करने लगा। मेरी उम्र भी कोई ज्यादा न थी यही कोई बारह-तेरह बरस का रहा होऊंगा मैं। किंतु स्कूल में लड़का-लड़की एक समान का पाठ पढ़ चुका था।

     और माँ ने बहन से यही कहा था “तुम लड़की जात हो, तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है, क्या करोगी ससुराल में जाकर, मुझे गाली सुनवाओगी।”

बस इसी बात पर मैं चिढ़ गया और मांँ से बहस करने लगा।

   मांँ वैसे भी थकी हुई थी और परेशान भी, ऐसे में उनका चिड़चिड़ा जाना स्वाभाविक था।

उन्होंने मुझे चेताया “मैं तुझ से बात नहीं कर रही।”

मैंने कहा “तो क्या हुआ आप क्यों डांट रही उसको, उसने जानबूझकर तो गलती नहीं की और अगर गलती है तो भी इसमें लड़का-लड़की कहांँ से आ गया।”

मांँ ने कहा “देख मैं तुझसे कुछ कह नहीं रही फिर तुम मुझसे क्यों लड़ रहा है? और उसे समझना चाहिए कि वह लड़की है।”

मैंने कहा “लड़की है तो क्या हो गया?”

   मांँ ने गुस्से से मुझे घूरा और आखिरी चेतावनी देते हुए कहा “अब तू चला जा यहांँ से नहीं तो मार खा जाएगा।”

मैं नहीं हटा, मैं जानता था मांँ मुझे नहीं मार सकती। उसने आज तक ठीक से मुझ पर गुस्सा तक नहीं किया आखिर मैं मांँ का दुलारा बेटा था।

   जब मैं न माना तो वह उठीं और मेरे पास आकर गुस्से से मुझसे बोली
“न जाएगा तू?”
मैंने कहा “नहीं”
मांँ- “न जाएगा”
मैं- “नहीं”
बस मेरा ’न’ कहना था कि उनका हथ उठ गया। उनके हाथ में झाड़ू थी और उसी झाड़ू से मुझे एक, दो,  तीन, लगा दिया धड़ाधड़। मैं आवाक रह गया।

  समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मांँ मुझे मार सकती है। मैं गुस्से से भर गया, मेरा चेहरा लाल हो गया लेकिन न तो मैं रोया न ही चीखा-चिल्लाया, न मेरी आंँखों से एक बूंद आंँसू निकला। क्षोभ से भर गया था मैं। न हिला न डुला। मांँ मार चुकी थी और जाकर अपने काम में लग गई। थोड़ी देर मैं खड़ा रहा फिर वहांँ से उठकर चला आया। आकर कमरे के एक कोने में फर्श पर बैठ गया।

    रोने की बहुत इच्छा हो रही थी पर रोया नहीं। दिमाग में बवंडर सा छा गया था। मैं मांँ का दुलारा था। मन में घमासान मचा हुआ था।
मांँ ने मुझे मारा! मेरी मांँ ने मुझे मारा! असंभव। कितनी झूठी है, हमेशा प्यार, हमेशा दुलार कितनी झूठी!
मैं क्या समझता था और यह क्या निकली। मैंने इतना क्या गलत बोल दिया। यही प्यार है इनका?

   पर पता नहीं क्यों इच्छा हो रही थी, कि मांँ की गोद में सर रख दूं, रो लूं जी भरकर, मांँ से शिकायत कर दूं।

   जब कभी मुझे डांँट पड़ती या कोई मार देता या कहीं चोट लग जाती या कोई कीट-पतंगे काट लेते, मांँ मेरे हर कष्ट का इलाज कर देती थी। मैं निर्जीव ईंट-पत्थर की शिकायत भी मांँ से कर देता था। और मांँ तो मांँ थी। मांँ आसमान को डांँट देती, जमीन को भी चप्पल से पीट देती थी।

   लेकिन जब मांँ की शिकायत मांँ से ही करनी हो तो कैसे करें? दिल के अन्दर कुछ टूट सा रहा था। मुझे मांँ की हर बात याद आने लगी थी। जब वह मुझे प्यार करती थी जब बिल्कुल छोटे थे माँ अक्सर एक खेल खेला करती मुझसे।

मांँ कहती- “मेरा राजा बेटा कौन?”
और किसी के बोलने से पहले मैं झट से कहता- “मैं”
फिर मेरी बारी आती मैं कहता- “सबसे अच्छी मम्मी, मेरी मम्मी। सबसे प्यारी मम्मी, मेरी मम्मी।”

तब से लेकर अब तक हर पल, हर क्षण मेरे जीवन को मांँ वायुमंडल बनकर घेरे रहती। वही मांँ आज…

  एक-एक दृश्य मेरी आंँखों में साकार हो रहे‌ थे। मांँ मेरा सर अपनी गोदी में रखे मेरे बालों पर हाथ फिरा रही थी।
मैंने पूछा- “मांँ रिंकी की मम्मी उसे दूध क्यों नहीं पिलाती?”

मांँ ने कहा- “अरे वह बड़ी हो रही है न, कौन बच्चे को साल भर दूध पिलाता है।”

“मैंने कब तक दूध पिया था” मैंने पूछा।

मांँ- “तू अपनी बात मत कर मेरे सारे बच्चों में सबसे ज्यादा मैंने तुझे दूध पिलाया है।”

मैंने कहा- “मुझे क्यों?”

माँ- “मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूंँ इसलिए।”

मैं- “क्यों प्यार करती हो मुझे?”

माँ- “चल हट बड़ी बातें करता है तू।”

और मेरा सिर अपनी गोदी से हटा कर बैठा देती मुझे।”

मेरी आंँखों में आंँसू आने वाले थे पर मैं रोया नहीं।

    एक और घटना “मैं रसोई में बैठा था, माँ खाना बना रही थी।

मैं- “मम्मी आप रसोई में किसी को आने क्यों नहीं देती?”

मांँ- “तू तो बैठा है न?”

मैं- “हांँ तो मुझे क्यों आने देती हो?”

माँ- “तू मुझे अच्छा लगता है न इसलिए”

मैंने पूछा- “क्यों?”

माँ- “चल भाग यहांँ से।”
मैं उठकर जाने लगा तो मुझे गोद में उठा कर बोली
“कहांँ जाता है मेरे राजा बेटा?”
मुझे हर याद चुभने लगी।
  
    मैंने सोच लिया था मांँ से मैं अब कभी बात नहीं करूंगा। कितने ही दृश्य आंँखों के सामने से आ– आकर मेरी आंँखों को नम करते रहे। मन कर रहा था, मांँ मुझे गले से लगा ले। लेकिन वह मुझे क्यों प्यार करेगी? बहुत गुस्सा करती हैं, करें। मैं खुद ही न जाऊंगा उनके पास। मैं धीरे से उठा और चारपाई पर औंधे मुंँह जा गिरा।

     घंटा दो घंटा बीत गया होगा।

बड़ा भाई आकर बोला “जाओ, खाना खा लो।”
मैं नहीं बोला वैसे ही पड़ा रहा।
दूसरा भाई आया- “खाना खाओ जाकर।”

मैं- “मैं नहीं खाऊंगा।”

बहन- “खा लो जाकर न।”
मैं- “कह दिया न, नहीं खाएंगे तो नहीं खाएंगे।”

   दो घंटे और बीत गए होंगे। मुझे भूख लगने लगी थी। पर मैंने ठान लिया था कुछ भी हो जाए नहीं खाऊंगा। भूख तो लगी ही थी, सोच-सोच  थक गए थे। मुझे नींद आ गई।

    शाम को फिर सब बारी-बारी से खाने के लिए मुझे बुलाने आए और मैंने सब को फिर से मना कर दिया। भूख तो बहुत तेज लगी हुई थी पर मेरा गुस्सा था जो मुझे नहीं जाने दे रहा था। जिद्दी तो एक‌ नंबर का हूँ।

     एक कसक और मन में उठी कि मांँ एक बार भी बुलाने नहीं आई। क्या सच में मांँ का प्यार झूठा है। एक बार भी हाल पूछने नहीं आई मेरा। यही वो मांँ है। नहीं गया मैं खाना खाने। सब भाई-बहन खा कर सो गए। मांँ पूरा दिन भीतर ही रही एक बार भी बाहर न निकली थी। पापा भी ड्युटी से लौटकर आ गए थे और खाना खाकर वापस आ गए और लेट गए थे।

   पापा लेटे-लेटे मुझसे बोले “जाओ खाना खा लो जाकर।”

मैंने कहा- ” मेरी इच्छा नहीं है।”

वह बोले- “क्यों इच्छा नहीं है?”

मैंने कहा- “बिल्कुल भूख नहीं लगी है, नहीं खाऊंगा।”

पापा- “तू क्या चाहता है कि तेरी माँ ऐसे ही भूखी बैठी रही, भूखी सो जाए?
सुबह से उसने पानी तक नहीं पिया। सारा दिन इतना सारा काम-धाम, वैसे ही थक गई और ऊपर से तू…”

मैं अवाक रह गया। सोच में पड़ गया। माँ ने खाना नहीं खाया, क्यों?

ऐसा लगा जैसे मैंने यह प्रश्न स्वयं से पूछा हो। मेरी वजह से?

    मैं उठ कर चला गया रसोई में, देखा माँ बैठी थी चुपचाप। मुझे देखते ही थाली उठाई और खाना परोसने लगी। खाना निकालते-निकालते उनकी आंँखों में आंँसू आ गए। यह सब देख कर मेरी भी आंँखें डबडबा आई। मैंने कहा- “सॉरी मम्मी।”

मांँ ने कहा- “इतनी छोटी सी बात पर तू रूठ गया?
इतनी बड़ी नाराजगी!
मुझे सजा दे रहा है तू? गुस्से में थी तो तुझे भी दो झाड़ू लगा दी।”

मैंने कहा- “तुम मुझे खाने के लिए एक बार भी बुलाने क्यों नहीं आई?”

मांँ ने कहा- “केवल तू ही रूठ सकता है, मैं नहीं”

    मांँ- “तुझे इतना प्यार करती हूंँ। क्या तू मुझे माफ नहीं कर सकता था।”
मैं क्या बोलता? मन कर रहा था कि खुद के गाल पर कितने ही थप्पड़ मारूं। सोचने लगा, मैंने मांँ को कितना दुख दिया। मांँ ने आगे कहा- “जिसे जितना चाहो वह उतना ही दुख देता है।”
वह थोड़ा रुकी
फिर बोली
“कोई और ऐसा करता तो मुझे कोई फर्क न पड़ता लेकिन तूने ऐसा किया…”

   …और वह फफक कर रो पड़ी। मैंने खाना छोड़ कर मांँ को गले लगा लिया। मांँ ने मुझे बाहों में भर लिया।

   सुबह से जो तूफान सीने में उठ रहा था मेरे, वह भाप बनकर उड़ गया और मेरी पलकों का बांध तोड़कर मेरे आंँसू बह चले। पूरा दिन रोने से खुद को रोका था अब मेरा रोना बंद नहीं हो रहा था। हम दोनों ही रो रहे थे।

    मैंने पूंँछा- “तूने खाना क्यों नहीं खाया?

मांँ ने कहा- “दुष्ट तुझे खिलाए बिना मैंने कभी खाया है क्या?

मैंने कहा- “मैं दुष्ट हूँ?”

मांँ ने कहा- “कौन इतना रुलाता है माँ को, तू दुष्ट तो है ही।”

इतना कहकर माँ मुस्कुरा दी। मैं भी मुस्कुराने लगा।

शैलेन्द्र कुमार असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी

राजकीय महिला महाविद्यालय कन्नौज

Biography of Poet Pradeep Maurya | प्रदीप मौर्या का जीवन परिचय

Biography of Poet Pradeep Maurya | प्रदीप मौर्या का जीवन परिचय

जीवन परिचय (1999-अब तक)

आईए जानते है प्रदीप मौर्य का प्रदीप प्यारे तक सफ़र

मै आपको बताता चलूँ कि प्रदीप मौर्य का जन्म 1999 को उत्तरप्रदेश के जिला रायबरेली के कैड़ावा नामक गाँव में हुआ था इनके पिता का नाम श्रीपाल मौर्य जो कृषक है और गुलाब की खेती (दिल्ली) में असफलता मिलने के बाद इनके पिता ने हरियाणा में एक प्राइवेट कंपनी मे जॉब करने लगे।
आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण इनके पिता ने इनका नाम गाँव में लिखवाया और प्राथमिक तक की शिक्षा गाँव से प्राप्त की तथा 6 से 12 तक की शिक्षा गाँव के पास में स्कुल डाक्टर भीम राव अंबेडकर इंटर कालेज कैड़ावा ठाकुरपुर से की।
इंटर के बाद स्कुल के एक शिक्षक की सलाह पर इन्होने ITI गवर्नमेंट कालेज गोराबजार रायबरेली से कंप्यूटर ट्रेड से किया।
घर की हालत अभी सुधरी नही थी इसलिए इनको गाँव से 40 किलोमीटर दूर रायबरेली साईकिल से आना पड़ता था इस लगभग 1 वर्ष के कठिन संघर्ष के बाद प्रदीप को उनके मित्र प्रेमशंकर के यहाँ रतापुर में किराये पर रहने लगे।
जब ये किराये के रहने लगें तो भोजन न बना पाने के कारण कई कईं दिनो तक भूखे रहते,धीरे-धीरे जली-बुझी,अधपकी रोटी खाकर पेट भरते रहे।

ITI करने के बाद अप्रेंटिस के लिए भटक रहे थे लेकिन किस्मत मे साथ नहीं दिया। प्रदीप घर वालो पर बोझ नहीं बनना चाहते थे इसलिए इन्होने घर घर जाकर कोचिंग पढ़ाते और उसी से अपना खर्च वहन करतें ।
अब प्रदीप स्नातक की शिक्षा फीरोज गान्धी महाविद्यालय रायबरेली से बी0 ए0 करने लगे।
इनका मन व्याकुल परेशान सा रहता था । इनके साथी मित्र ने बताया की इन्हे कई कई दिनो तक नींद नही आती थी। अब इनके मन मे साहित्य का जन्म हो चुका था। प्रदीप जी और बातो का खुलासा हुआ की इन्होने अपनी पहली रचना दसवीं कक्षा में लिखी थी,जिसका शीर्षक है “हिंदी छोड़कर हम अन्ग्रेजन हो गए” ये प्रकृति प्रेमी हैं हाल ही 2021 में हुई एक विवाह कार्यक्रम में इन्होने अन्य लोगो की तरह गिफ्ट न ले जाकर पौधा लेकर पहुच गए थे जिसका लोगो ने विरोध भी किया था। ये अपने समय मे क्लास के मेधावी छात्रों में गिने जातें थे।
26 जनवरी के कार्यक्रम मे प्रदीप द्वारा रचित नाटक को ही प्रदर्शित किया जाता रहा।
प्रदीप ने इण्टरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी से व स्कूल में प्रथम रैंक से पास की।
ITI व ग्रेजुएट होने के बाद,वर्तमानस्थिति को देखते हुए LIC Of INDIA में अभिकर्ता की ऐजेन्सी ले ली।

साहित्य में परिवार

साहित्यक जीवन में इनके माता-पिता व चाचा जगतपाल का अहम योगदान रहा जो इन्हें हमेशा प्रेरित व संबल प्रदान करतें रहे।
इनकी दो बहनें हैं वंदना ,अर्चना जिन्होनें हमेशा एक दोस्त की भांती कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ी रही।
साहित्य में अचानक नहीं आये इनके मित्र थे अभय श्रीवास्तव व प.सत्यम शर्मा मे दिल्ली व लखनऊ से अपना पहला साहित्यक कार्यक्रम की शुरुवात की।

इनकी बहुत चर्चित पँक्ति यू रही कि


हमें गवार कहने वाले गवार कहतें रह जायेगें
हम ऐसे निखरेंगे कि लोग देखते रह जायेंगे।

संगोष्टी
काव्य कलश महराजगंज,काव्योम परिवार रायबरेली में प्रतिभाग करतें हैं।
सम्मान/पुरस्कार
प्रदीप जी अब तक 50 से ज्यादा ओपेन माईक व 7 से 10 कवि सम्मेलन मंच पर अपना काव्य पाठ कर चुके हैं।
इनकी रचनाये संकलन पुस्तक जैसे, भूमि,तस्वीर,रंग आदि।
अखबारो में प्रकाशित हुई रचनाओ मे लोग(लखनऊ मेल) हिंदुस्तान की खातिर (लखनऊ मेल) (कबाडीवाला (न्यूजवाणी), पिता का दर्द(इंडिया प्रहर)

ऑनलाइन प्लेटफार्म पर हिंदी रचनाकार,अनसुने किस्से , पोएट्री स्टेज,अमरउजाला काव्य ,टैलंट हण्ट आदि जगहों पर रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है।

अखिल भारतीय साहित्य मंथन शोध संस्थान द्वारा 9 अप्रेल 2022 को साहित्य मंथन कलम साधक सम्मान 2022 से सम्मानित किया गया।
राष्ट्रिय सेमिनार में स्त्री विमर्श के विविध आयाम में प्रदीप जी की रचना स्त्री का चयन हुआ ।

स्वदेश चेतना समिति लखनऊ (उ.प्र.) द्वारा नवोदित कवि सम्मान दिया गया।

पुर्नोदय साहित्यक संसथान एवं माँ भारती साहित्य सेवा संसथान द्वारा 05 जून 2022 को साहित्य साधक सम्मान एवं प्यारे की उपाधि प्रदान की गई।
अब ग्राम कैड़ावा का प्रदीप,प्रदीप प्यारे बन चुका हैं।

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सुभद्रा कुमारी चौहान : क्रांतिकारी और साहित्यिक वीरांगना

राष्ट्रीय कवयित्री श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म संवत 1961 में श्रावण मास के शुक्लपक्ष की नागपंचमी, 16 अगस्त 1904 को प्रयागराज के निहालपुर नामक ग्राम में हुआ था। पिता स्व० रामनाथ सिंह जमीदार थे। इनके माता-पिता शिक्षा के प्रति हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे। सुभद्रा चौहान बचपन से ही लिखने-पढ़ने में अव्वल थी। उन्होंने 9 वर्ष की उम्र में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। इसलिए सुभद्रा जी अपने शिक्षक-शिक्षिकाओं की प्यारी छात्रा और आँखों का तारा बन गई थी। सुभद्रा कुमारी चौहान और छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा बचपन की सहेलियां थी।

बाल्यावस्था में सुभद्रा कुमारी चौहान का विवाह मध्य प्रदेश राज्य के खंडवा निवासी लेखक नाटककार लक्ष्मण सिंह से हो गया था। लक्ष्मण सिंह की शिक्षा बी०ए०, एल०एल०बी० थी। इसलिए वे शिक्षा का महत्व समझते हुए सुभद्रा कुमारी की शिक्षा पर कभी बाधा नहीं उत्पन्न होने दिया, अपितु सुभद्रा चौहान को हर कदम पर प्रोत्साहन देते रहते थे। सुभद्रा अक्सर अपने मन की बात कहा करती थी कि- “मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे। बच्चे खेलते रहे, स्त्रियाँ गाती रहे और कोलाहल होता रहे”
सुभद्रा कुमारी चौहान स्वाधीनता संग्राम में भारत को स्वतंत्र कराने के लिए महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर कांग्रेस में सम्मिलित हुई थी और अंग्रेजों के दमनकारी अत्याचारों का विरोध खुल कर करती थी। अंग्रेजों की षड्यंत्रकारी नीतियों का विरोध करने के कारण सुभद्रा कुमारी चौहान को जेल यात्रा भी करनी पड़ी थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सुभद्रा कुमारी चौहान जेल जाने वाली पहली भारतीय नारी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री, जिसका नाम सुधा चौहान था। सुधा चौहान ने अपनी माँ सुभद्रा की मृत्यु के पश्चात माँ पर जीवनी लिखी, जिसका नाम “मिला तेज से तेज” रखा था। सुभद्रा कुमारी चौहान दुर्भाग्यवश सड़क मोटर दुर्घटना में 15 फरवरी सन 1948 को असमय मृत्यु का शिकार हो गई।

प्रमुख रचनाएँ

  • कविताएँ– मुकुल, त्रिधारा, वीरों का कैसा हो बसंत, झाँसी की रानी, पानी और धूप, मेरा जीवन, विदाई, विजयी मयूर।
  • कहानी– बिखरे मोती, उन्मादिनी, सीधे-सादे चित्र।
  • बाल साहित्य– सभा का खेल।

सुभद्रा कुमारी चौहान हमेशा वीर रस से परिपूर्ण ओजस्वी विचारधारा से युक्त गद्य-पद्य लिखती थी। जिन्हें पढ़कर भारतीय जनमानस की भुजाएँ फड़कने लगती थी। ऐसी ही कविता “वीरों का कैसा हो वसंत” लिखा है, जिसका एक छंद दृष्टव्य है-

“आ रही हिमालय से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार।
प्राची पश्चिम भू नभ ऊपर,
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत।
वीरों का कैसा हो वसंत।।”

सुभद्रा कुमारी चौहान को उनकी काव्य कृति “मुकुल” पर हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से सम्मान स्वरूप उस समय 50,000 रुपये का सेक्सेरिया पुरस्कार प्रदान किया गया था।

सुभद्रा कुमारी चौहान देशप्रेम के साथ-साथ सुखमय दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करना अपना नैतिक कर्तव्य समझती थी। भारतीय नारी की प्रेम विषयक भावना से ओत-प्रोत श्रृंगार रस की कविताएँ भी आपने लिखा है। महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान घनिष्ठ सखियाँ होने के बावजूद दोनों में दाम्पत्य जीवन के प्रति विरोधाभास पाया जाता था, क्योंकि सुभद्रा कुमारी वीर एवं श्रृंगार रस की और महादेवी करुण एवं शान्त रस की कवयित्री थी। सुभद्रा कुमारी चौहान ने पति के प्रति आत्मसमर्पण और आत्म सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए पति को प्रभु का स्थान देते हुए लिखा है-

“पूजा और पूजापा प्रभुवर, इसी पुजारिन को समझो।
दान दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो।।”

मानव का वर्तमान काल जैसा भी चल रहा है, उससे अच्छा भविष्य हो। यही उम्मीद की किरण मानवी जीवन को आशान्वित बनाए रखती है। सुभद्रा कुमारी चौहान भी आशावादी दृष्टिकोण पर विश्वास रखती हैं। किसी भी मुश्किल घड़ी में चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती हैं। इसलिए उम्मीद की राह दिखाते हुए सुभद्रा जी ने लिखा है-

“मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना।
वर्षा करता है प्रतिफल, मेरा जीवन में सोना।।”

सुभद्रा कुमारी चौहान जन जागरण का संदेश अखिल भारत को देती हैं। आपकी ओजस्वी लेखनी जवानों, किसानों, महिलाओं, बालकों, रजवाड़ों आदि में जागृति, राष्ट्रीय भावना भर देती है। सुभद्रा जी की हर एक कविता पढ़कर हर देशवासी गर्व महसूस करता है

सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगना “रानी लक्ष्मी बाई” ने अदम्य साहस और असाधारण वीरता के कारण अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाया था। सुभद्रा कुमारी चौहान ने लक्ष्मीबाई (मनु) की गौरवगाथा कविताओं के माध्यम से जन-मानस के बीच पहुँचाया था। बुंदेलखंड ही नहीं, वरन भारत के कोने-कोने में सुभद्रा कुमारी चौहान का लिखा गीत “झाँसी की रानी” आज भी खूब गुनगुनाया जाता है-

“सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सुभद्रा कुमारी चौहान ने साहित्य, समाज और राष्ट्र में समन्वय स्थापित करते हुए कविताएँ लिखी हैं, जो अद्भुत हैं। आपकी लेखनी देश के प्रति उत्पन्न मनोभाव की पीड़ा हृदयस्थल को स्पर्श कराती है। रचनाओं में समरसता, कोमलता, नवीनता, स्वाभाविकता, तारतम्यता के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान जी उत्कृष्ट कवयित्री ही नहीं, बल्कि लेखिका भी हैं।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर,

श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
रायबरेली (उ०प्र०) मो० 9415951459