पुस्तक विमोचन: पुष्पलता श्रीवास्तव ‘शैली’ का प्रथम काव्य संग्रह ‘देहरी’

पुष्पलता श्रीवास्तव, शैली का प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह, ‘देहरी’, लोक संपृक्ति के प्रसंगों को समाविष्ट किए हुए भावों एवं विचारों का ऐसा समन्वय सहेजे है कि इससे गुजरते हुए मन रस आप्लावित हो उठता है।
अत्यंत सहज रूप से भावों की अभिव्यक्ति, आडम्बरहीन तरीके से उद्गारों को शब्द देना पुष्पा जी की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है। गहन संवेदना की अभिव्यक्ति इतने सरल, प्राकृतिक रूप में वही कलम कर सकती है जिसे कविता रचनी नहीं पड़ती वरन् जो कविता को जीती है। अत्यंत सशक्त संप्रेषण शक्ति है पुष्पा जी की कलम में। कविता के रचे जाने और पढ़े जाने का सम्पूर्ण प्रकरण कुछ ऐसा है कि लिखने वाले के मन में जो भाव उठे वे सीधे जा कर पढ़ने वाले के मन में घर कर जाने की क्षमता रखते हैं।

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लोक जीवन के विश्सनीय दृश्य, ग्राम्य संवेदना और संस्कृति में लिपटे परिवेश का एक सोंधी मिठास से परिपूर्ण ऐसा चित्रण हैं देहरी में संकलित कविताओं में कि कविताओं को पढ़ते हुए मन में जैसे खेत से ताजा तोड़े गन्ने की गड़ेरियों का रस बूंद बूंद भीतर उतरने लगता है।ग्रामीण दृश्यों का सहज लोक भाषा में स्निग्ध चित्रण है किंतु मात्र शब्द चित्र नहीं हैं वे, वरन् भरपूर वैचारिक सम्पन्नता भी है। सीख है, आग्रह है, विसंगतियां है, विपन्नता है, अपने पूरे ठेठ स्वरूप में यथार्थ है। शब्दों, भावों और विचारों का जो समन्वय है वही कविताओं की ग्राहयता को बढ़ा जाता है।
संदर्भित संग्रह में एक कविता है—’गाँव की महक’। इस कविता में कोयल की कूक है, आम महुए से आराम से बतिया रहे हैं, बाँस के झुरमुट से झांकता सूरज है, साँझ के गीत हैं..गरज यह की मन को माधुर्य से सिंचित करते बहुत से ग्रमीण संदर्भ के चित्र हैं पर कविता का असली उद्देश्य है बेटियों से इन सबको आत्मसात करने का आग्रह। इतना ही नहीं पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता और इन्हें उचित मान देने पर भी बात की गई है। इसी कविता में कच्चे आंगन में जलते चूल्हे की सोंधी महक है, बिटिया के लिए रोटी सेंकती ताई भी हैं, रात भर दूध औटाती काकी भी हैं और ताऊ के प्यार की खनक भी है। अपनी जड़ों और पारिवारिक संबंधों के संरक्षण के प्रति कवियत्री की यह निष्ठा कविता को बेशकामती बना जाती है।इसी कविता की अंतिम पंक्तियों में गाँव के कुएं के संदर्भ में घूंघट से निकली बात का जिक्र आता है। जिन्हें गाँव के कुएं और पनघट पर पर एकत्रित गाँव की बहुओं वाले उस दृश्य और उसकी आत्मा का अनुभव होगा वह पाठक स्वयं को कवियत्री की इस बात से जोड़ पायेगा, ‘बात घूँघट के नीचे से निकली मगर, चुपके- चुपके हवा में पतंग बन गई।‘
देहरी में माँ और माँ की देहरी से संबंधित, माँ को संबोधित अत्यंत भाव प्रवण कवितायें हैं।
‘अम्मा जब मिलने आऊँगी, मुझको गले लगा लेना।
उलझे हुए मेरे बालों को तुम पहले सुलझा देना।‘
माँ और बेटी के अंतरंग, साख्य भाव से परिपूर्ण क्षणों का सर्वाधिक सटीक और मनभावन चित्र है, अम्मा के सामने बाल खोले बैठी बिटिया और तेल लगाती, बाल सुलझाती माँ, किंतु यहाँ भी बात वहीं तक तो सीमित नहीं है। माँ की देहरी से ससुराल की बखरी में प्रविष्ट हुई बिटिया के मन की बहुत सी उलझने सुलझाने, ढांढस बंधाने और रास्ता दिखाने का काम भी माँ ही करती है और इस बात को अभिव्यक्त करने के लिए अत्यंत आत्मीय बिम्ब हैं इस कविता में।
बात माँ की बनाई ‘तरकारी की सोंधी महक’ की हो या ‘कोठरी में बस मेरा सामान रखना’ का प्यारा सा अनुरोध हो, ऐसी हर कविता से गुजरते हुए मन में बरसों पहले छूटी देहरी की स्म़ृतियाँ बरबस घनीभूत हो उठती हैं। माँ ही क्यों यह कविता संग्रह पारिवारिक संबंधों फिर वो भाई- भाभी हो, बिटिया हो या ससुराल पक्ष के संबंध, के प्रति, उनके जीवन में होने के प्रति अनेक भावांजलियाँ समेटे है अपने आप में।
समसामायिक विषयों , सामाजिक समस्यायों के प्रति उदासीन नहीं है कवियत्री, पर्यावरण का असंतुलन, पारिवारिक विघटन के दौर में घर के बुजुर्गों का बढ़ता अकेलापन, कन्यायों- महिलाओं पर होते शारीरिक दुष्कर्म, बारिश में ढहती कच्ची छतें, कृषक के संघर्ष, सब पर दृष्टि गई है पुष्पा जी की और प्रत्येक विषय को अत्यंत संवेदनशील ढंग से सहेजा है उन्होंने अपनी कविताओ में।
प्रणय गीत भी हैं संग्रह में। ‘मन से मन जब मिला, तम लजा कर गिरा, लाज की ओढ़नी फिर बाँधनी पड़ी’, है कहीं तो कहीं, ‘साँकलों की खटक सुन प्रिये, लाज को छोड़ बैठे नयन’, चाँद है, चाँदनी है और हरसिंगार की महक भी, गरज यह कि हथेली पर पंख फड़फड़ाती तितली सरीखे भावों की कोमलता है इन प्रणय गीतों में। किंतु हम जिस कविता की ओर आपका ध्यानाकर्षण करना चाहेंगे वह है— ‘बेमतलब की डाँट तुम्हारी, प्रियतम नहीं सहूँगी।‘ इस कविता में प्रेयसी पत्नी का कहना है कि उसे भौतिक सुख और विलासता की बहुत चाह नहीं है। आर्थिक सामर्थ्य के बाहर उसे कुछ नहीं चाहिए किंतु किसी भी प्रकार का अन्याय, मानसिक प्रताड़ना वह नहीं सहन करेगी। इस कविता में पुष्पा जी ने स्त्री का जो रूप प्रतिष्ठित किया है, वही हमारी संस्क़ृति, नारी मन और पारस्परिक प्रेम का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है।
देशज शब्दावली, लोक राग, लोक भाषा के शब्दों का प्रयोग और सहज अभिव्यक्ति शैली ‘देहरी’ की कविताओं को मन में रोपने में अत्यंत सहायक हुए हैं।
‘देहरी’ के विषय में कही गई बातें अधूरी रह जायेंगी यदि इसमें संकलित भूमिकाओं का जिक्र न किया गया। साहित्य जगत में स्थापित हस्ताक्षरों द्वारा लिखित भूमिकायें तो देहरी का मान बढ़ा ही रही हैं किंतु इसे विशिष्ट बनाती हैं परिवार जनों के भावों की अभिव्यक्ति और स्वयं पुष्पा जी की कही बात। भावों की सहज, ईमानदार, कोमल, कवितामयी अभिव्यक्ति से ओत- प्रोत ये भूमिकायें देहरी की कविताओं का वह प्रवेश द्वार हैं, जिससे भीतर जा बाहर निकलने का मन ही नहीं करता।
देहरी का विमोचन हो चुका है। पुस्तक आप सबके मध्य है। आनंद उठाइये। पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’ को हमारी अगाध शुभकामनाएं। वे अपनी साहित्यिक यात्रा के पथ पर निरंतर अग्रसर हों पर हमें देहरी पर के नीम और घर के बखरी, दालान से जोड़े रहे उनकी कलम, यह हमारा अनुरोध है।
नमिता सचान सुंदर

उदैया चमार : अंग्रेजों को धूल चटाने वाले वीर योद्धा

उदैया चमार : अंग्रेजों को धूल चटाने वाले वीर योद्धा

अक्सर उच्च कुलीन लोगों द्वारा कहा जाता है कि दलितों ने समाज और देश के लिए क्या किया? सिर्फ वो सेवा ही तो करते थे। ऐसे प्रश्न करने वाले लोगों ने शायद इतिहास को गंभीरता से नहीं पढ़ा, या उन पुस्तकों तक पहुँच नहीं पाये हैं। ये भी विडंबना रही है कि दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था, इसलिए उनका ओजस्वी इतिहास के स्वर्णिम पन्नों से गुम हो गया था।
वैसे तो स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश तिलका मांझी के द्वारा सन 1771 में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध से माना जाना चाहिए।
उसके बाद दूसरी बार सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ चिंगारी भड़की थी। दुबले- पतले छहररे बदन वाले फुर्तीले उदैया चमार छतारी में चमड़े का व्यापार करते थे। उदैया अस्त्र शस्त्र चलाने में निपुण व दुश्मनों को चकमा देने में माहिर थे।
छतारी जिला अलीगढ़ के नवाब नाहर खान व उनके पुत्र ने सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण युद्ध लड़ा। इस लड़ाई में उदैया चमार ने 100 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। अन्ततः नवाब नाहर खान की जीत हुई।
पुनः सन 1807 में नवाब नाहर खान और उदैया चमार ने साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी, जिसमें फिरंगी बुरी तरह परास्त हुए और उन्हें छतारी छोड़ कर भागना पड़ा।
दूसरी बार अपनी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने कुछ दिन बाद नई कूटनीति से पूरी तैयारी के साथ आकर घेरा बनाकर उदैया चमार को गिरफ्तार कर लिया और सन 1807 में ही अंग्रेजों ने कुछ दिन ही मुकदमा चलाकर उदैया चमार को सरेआम छतारी गाँव के चौराहे पर फांसी दे दी थी।
अलीगढ़ के आसपास आज भी उदैया चमार के चर्चे होते हैं। कुछ जगह तो उदैया की पूजा भी होती है। वीर सपूत उदैया मातृभूमि के लिए शहीद हो गए, किंतु शूद्र होने के कारण उनका नाम गुम हो गया।

डॉ अशोक कुमार
रायबरेली UP
मो 9415951459

कुमारी सुनीति चौधरी : नाबालिग उम्र में ही अंग्रेज जिला कलेक्टर की गोली मारकर की हत्या

कुमारी सुनीति चौधरी : नाबालिग उम्र में ही अंग्रेज जिला कलेक्टर की गोली मारकर की हत्या

भारत में स्त्री और पुरुष को एक गाड़ी के दो पहिए कहा जाता है। वैसे कहने को तो भारत पुरुष सत्तात्मक देश है, फिर भी स्त्री का त्याग, तपस्या, ममता, स्नेह, बलिदान, संघर्ष सर्वोपरि है। स्त्री के बिना कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। कहा जाता है– *यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता।* अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। भारत में एक ओर नारियों की पूजा होती है, तो दूसरी ओर जब परिवार, समाज या देश पर संकट आता है, तब कोमल हृदय वाली नारी रणचंडी बन तलवार उठाकर रणभूमि की ओर निकल पड़ती है। ऐसी ही असंख्य वीर नारियों ने सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे, इतना ही नहीं, अपने प्राण न्योछावर कर दिए। हम ऐसी ही क्रांतिकारी वीरांगना कुमारी सुनीति चौधरी की अमर शौर्यगाथा की बात कर रहे हैं। जिस उम्र में नाबालिक बच्चे खेलते कूदते हैं, उस उम्र में कुमारी सुनीति ने अंग्रेज अफसर को गोली से उड़ा दिया था। कुमारी सुनीति चौधरी का जन्म बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत कोमिला जिला (तत्कालीन बांग्लादेश) में 22 मई सन 1917 को हुआ था। पिता उमाचरण चौधरी अंग्रेजी सरकार में सरकारी मुलाजिम और माता सुर सुंदरी कुशल ग्रहणी थी। मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली कायस्थ समाज की होनहार बेटी सुनीति चौधरी लिखने पढ़ने में होशियार थी। तत्कालीन परिस्थितियों में बालिकाओं को पढ़ने का अधिकार न के बराबर था। किंतु माता-पिता ने पुत्री स्नेह और उसकी हठधर्मिता के कारण स्कूल में दाखिला करा दिया था। वह बांग्लादेश के ही पैतृक गांव कोमिला में पढ़ने लगी थी। सुनीति तीरंदाजी, तलवारबाजी, लाठी चलाना, बंदूक चलाना, खेलकूद आदि में भी अव्वल थी। हाजिर–जवाबी उसकी विशेषता थी। कुमारी सुनीति चौधरी कोमिला के ही फैजिन्निशा गवर्नमेंट हाई स्कूल में कक्षा 8 की छात्रा थी। उनका मन पढ़ाई से ज्यादा क्रांतिकारी गतिविधियों में लगता था। इसलिए सर उल्लासकर दत्त को अपना क्रांतिकारी गुरु मानने लगी थी, क्योंकि उल्लासकर दत्त पहले ही फिरंगियों के खिलाफ बहुत मोर्चा खोल चुके थे। उनकी रणनीति व कूटनीति से अंग्रेज परेशान और भयभीत होने लगे थे। कुमारी सुनीति चौधरी बाद में त्रिपुरा जाकर पढ़ने लगी थी। वहां भी स्कूली गतिविधियों में अव्वल रहती थी। सन 1931 में वरिष्ठ सहपाठी प्रीतिलता ब्रम्हा की सलाह और प्रेरणा से कुमारी सुनीति चौधरी, शांति घोष क्रांतिकारी युगांतर समूह में शामिल हो गईं। प्रीतिलता ने लड़कियों का संघ बनाया। उस कमेटी में सुनीति चौधरी कप्तान, शांति घोष सचिव और प्रीतिलता अध्यक्ष चुनी गई। क्रांतिकारी बरुण भट्टाचार्य से सुनीति चौधरी और शांति घोष ने पिस्तौल शूटिंग और अन्य मार्शल आर्ट में प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया। गर्म खून वाली सुनीति ने फिरंगियों का विरोध करते हुए कहा– “हमारे खंजर और लाठी के खेल का क्या मतलब, अगर हमें वास्तविक लड़ाई में भाग लेने का मौका ही नहीं मिले?”

त्रिपुरा के कॉलेज में प्रति वर्ष 6 मई को वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जाता था। जिसमें आदिवासी समुदाय के लोगों की भी बढ़-चढ़कर भागीदारी होती थी। इसी क्रम में 6 मई सन 1931 को आयोजित वार्षिकोत्सव में कुमारी सुनीति चौधरी को महिला स्वयंसेवी संस्था का लीडर, अस्त्र–शस्त्र व गोला बारूद का संरक्षक बनाया गया। साथ ही ‘मीरा देवी’ उपनाम दिया गया था। सुनीति की काबिलियत के कारण कई पद मिल चुके थे, इसलिए उनके अंदर अब उत्साह दोगुना हो गया था।
कु. सुनीति चौधरी अपने परिवार और अन्य लोगों से अंग्रेजों के काले कारनामों के विषय में सुना करती थी कि अंग्रेजों के जुल्म की दास्तां सुनकर हर भारतीय की आंखों में आंसू आ जाते हैं। फिरंगियों ने भारत के महिलाओं, बच्चों, पुरुषों, विकलांगो तक नहीं छोड़ा था। गरीबों के कारण जो व्यक्ति अंग्रेजों का टैक्स नहीं अदा कर पाता था, उन्हें अंग्रेज लोहे की कील लगे चमड़े के पट्टा से मारते थे। अंग्रेज सिपाही तो बेकसूर लोगों पर कोड़ा बरसाना और बंदूक चलाना अपना शौक समझते थे। जिस गांव से अंग्रेज दरोगा घोड़ा पर बैठकर निकल जाता था, उस गांव के घरों में सारे दरवाजे–खिड़की बंद हो जाते थे। अंग्रेज अपनी हवस मिटाने के लिए भारत की महिलाओं लड़कियों को घरों से उठा लेते थे और उनके साथ छावनी में बारी-बारी से दुष्कर्म और अप्राकृतिक संबंध बनाते थे। जो महिलाएं विरोध करती थी, उनके गुप्तांगों में बंदूक की नाल रखकर फायर कर देते थे, जिससे महिलाओं का शरीर के चीथड़े उड़ जाते थे और तुरंत ही उनकी मृत्यु हो जाती थी। ऐसे क्रूर अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारियों ने बिगुल छेड़ रखा था। अंग्रेज अफसर और सिपाही, क्रांतिकारियों के घर वालों को तो और अधिक परेशान करते थे। हाथ पैरों में नुकीली कील ठोक देते थे। अंग्रेज शोषण, दमनकारी नीति, अधिक टैक्स वसूली आदि लगातार थोंप रहे थे। इस प्रकार के अमानवीय कृत्य करने में एक अफसर नहीं, बल्कि संपूर्ण भारत के लगभगअंग्रेज अफसर शामिल रहते थे। कु. सुनीति चौधरी ये सब जुल्म–ओ–सितम अपनी आंखों से देख–सुन रही थी। इसलिए वीरांगना सुनीति चौधरी के मन में दिन–प्रतिदिन अंग्रेजों के खिलाफ क्रूरता भरी बाते सुन कर आक्रोश बढ़ता ही जा रहा और उनका खून उबाल मार रहा था।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत में सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा था, जिसे चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवंस ने दबाने की हरसंभव कोशिश की। जिसके कारण सुनीति चौधरी बहुत खफा थी।
लगभग 14 वर्षीय कुमारी सुनीति चौधरी और लगभग 15 वर्ष की कुमारी शांति (सेंटी) घोष ने त्रिपुरा के स्कूल में पढ़ाई कर रही थीं, इसलिए वहीं प्लान बनाया कि त्रिपुरा के अंग्रेज कलेक्टर के दफ्तर में जाकर अपने स्कूल में तैराकी प्रतियोगिता आयोजित करने की अनुमति के लिए प्रार्थना पत्र देंगे। उसी क्षण गोली मारकर उसकी हत्या भी कर दी जाएगी। इस प्लान की किसी को कानों–कान खबर नहीं हुई।
14 दिसंबर सन 1931 को दोपहर का समय, त्रिपुरा के मैजिस्ट्रेट के बंगले के बाहर एक गाड़ी से दो किशोरियाँ हँसते हुए उतरीं। दिसंबर में भीषण ठंड होने के कारण दोनों ने साड़ी के ऊपर से गर्म ऊनी शॉल ओढ़ रखा था, जिससे किसी को शक न हो। उन लड़कियों ने दफ्तर के अंदर अपने छद्म नाम (मीरा देवी और इला सेन) से पर्ची भेजा, जिसके बाद एसडीओ नेपाल सेन के साथ मैजिस्ट्रेट बाहर निकले। मैजिस्ट्रेट को स्विमिंग क्लब में आमंत्रित किया गया था, कलक्टर वहां जाने की जल्दबाजी में थे। दोनों वीरांगनाओं ने अंग्रेज सिपाहियों को प्रसन्न करने के लिए वार्तालाप में बड़ी मासूमियत से चापलूसी से भरे शब्दों का प्रयोग कर रही थीं, जिससे अंग्रेजों को अपनी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं होने दिया। लड़कियाँ स्वीकृति मिलने के लिए बेचैन हो रही थीं। मजिस्ट्रेट अपने चेंबर में गया और फाइल में रखे कुछ कागज पढ़ते हुए दोनों किशोरियों को कार्यालय के अंदर बुलवाया था।
दो सहेलियों कुमारी सुनीति चौधरी और कुमारी शांति (सेंटी) घोष पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अपने स्कूल में तैराकी प्रतियोगिता कराने का प्रार्थना पत्र और शॉल के अंदर ऑटोमेटिक पिस्तौल छिपाकर त्रिपुरा के अंग्रेज कलेक्टर चार्ल्स जेफ्री बकलैंड स्टीवेंस के दफ्तर में पहुंच गई। मजिस्ट्रेट चार्ल्स जेफ्री फाइल रखे कुछ पेपर्स पढ़ ही रहे थे। तभी मौका पाकर दोनों कुमारी वीरांगनाओं ने अपने–अपने कपड़ों में छिपी पिस्तौल निकालकर एक साथ ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर उसकी हत्या कर दी। मजिस्ट्रेट को संभलने तथा अंग्रेज सिपाहियों को पोजीशन लेने तक का मौका नहीं मिला। बाद में ब्रिटिश सिपाहियों ने दोनों लड़कियों को गिरफ्तार कर लिया। त्रिपुरा क्षेत्र बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था, इसलिए कोलकाता न्यायालय में लगभग 8 माह मुकदमा चला। चूंकि दोनों किशोरियां नाबालिक थी, इसलिए न्यायाधीश ने उन्हें फांसी देने के बजाय, 10 वर्ष का सश्रम कारावास की सजा सुनाई।
क्रूर अंग्रेजों ने उम्मीद के मुताबिक कु. सुनीति चौधरी की दुश्मनी उनके परिवार के साथ निकालना शुरू किया। पिता जी को मिलने वाली सरकारी पेंशन बंद करा दी। दो निर्दोष अग्रजों को जेल में डाल दिया गया और अनुज की भूख से असमय मृत्यु हो गई।
गांधीवादी युग की शुरुआत हो चुकी थी। राष्ट्रपिता अहिंसावादी महात्मा गांधी अपने दबाव से कुछ निर्णय भारतीयों के हित में कर लिया करते थे। ऐसे समय में महात्मा गांधी और अंग्रेज अफसर के मध्य कुमारी सुनीति चौधरी को लेकर सफल वार्ता हुई। सुनीति और सेंटी घोष की सजा 10 वर्ष से घटाकर 7 साल करके सन 1939 में रिहा कर दिया गया। एक बार एक पत्रकार ने कुमारी सुनीति से जेल मैनुअल के विषय में पूछा, तो उन्होंने उत्तर देते हुए बताया कि– “घोड़े के अस्तबल में रहने से, मरना बेहतर है।” फिर भी भारत के वीर सपूतों ने हार नहीं मानी और लगभग 90 वर्ष का संघर्ष करने के बाद आजाद भारत में हमें जीने का अवसर मिला है। भारत में सबसे कम उम्र में क्रांतिकारी बनने वाली वीरांगना कुमारी सुनीति चौधरी और शांति घोष थी।
जेल से रिहा होने के बाद कुमारी सुनीति ने अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने पर जोर दिया। कोलकाता स्थित कैम्पबेल मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. (तत्कालीन एम.बी. डिग्री) की पढ़ाई करके कुशल चिकित्सक बन गई। तत्पश्चात गरीब, किसान, मजदूर वर्ग की चिकित्सीय उपचार व सेवा करती रहीं। लोग उन्हें लेडी मां कहकर बुलाते थे। भारत स्वतंत्र होने पर, अर्थात् सन् 1947 में कुमारी सुनीति चौधरी ने बंगाल के प्रसिद्ध व्यापारी और व्यापार संघ के अध्यक्ष प्रद्योत कुमार घोष के साथ सात फेरे लेकर परिणय सूत्र में बंध गई थी। उनके दोनों भाई जेल से रिहा हो गए। परिवार पटरी पर दौड़ने लगा था। दुर्भाग्य से यह खुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही, 71 वर्ष की उम्र में 12 जनवरी सन 1988 को श्रीमती सुनीति चौधरी घोष का स्वर्गवास हो गया था।

डॉ. अशोक कुमार गौतम

असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

स्त्री; आश्रित या आश्रयदात्री|जिज्ञासा मिश्रा

हमारे भारतीय कानून में सबको एक समान माना गया है। क्या स्त्री ? क्या पुरुष ? क्या हिंदू और क्या मुस्लिम ? लेकिन क्या व्यवहार में भी ऐसा होता है ? बहुत ही कम!

आज हम बात कर रहे हैं गांव में रहने वाली लड़कियों ,बहुओं, कामकाजी महिलाओं की। हर क्षेत्र में उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है , सिर्फ इसलिए क्योंकी वह एक स्त्री है। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी स्त्रियां अपनी गुलामी की जंजीर तोड़ने के लिए संघर्षरत हैं। जो उनका जन्मसिद्ध अधिकार होता है वह भी उन्हें संघर्ष करके ही प्राप्त होता है। स्त्री – पुरुष का यह भेदभाव जन्म से ही शुरू हो जाता है। लडकों के पैदा होने पर उत्सव मनाया जाता है दावतें होती हैं और लड़कियों के पैदा होने पर कोई उत्सव नहीं होता। तब ” शादा जीवन उच्च विचार ” का ढोंग होने लगता है। शुरू से ही लडकों और लड़कियों को भिन्न – भिन्न संस्कार दिये जाते हैं

“तुम इतनी तेज नहीं बोल सकती , क्योंकी तुम लड़की हो।तुम्हें घरेलु काम करने हैं क्योंकी तुम लड़की हो। अरे! तुम ऐसे ठहाके मार के कैसे हंस सकती हो? तुम तो लड़की हो। कुछ तो शर्म करो। बचपन से ही लड़कियों को ” तुम लड़की हो ” का टैग मिल जाता है यही चीजें अगर लड़का करे तो पुरुषत्व की निशानी और अगर लड़की करें तो बेशरम। अरे वाह ! क्या दोगली रीत है ?

गांव में जब भी स्कूल में कोई वर्षिक उत्सव या आज़ादी का उत्सव मनाया जता है और उसमें नृत्य आदि के प्रतियोगितायें रखी जाति हैं तो उनमें भाग लेने के लिए लडकों को इजाजत की जरूरत नहीं होती लेकिन लड़कियों को ना जाने कितनी मेहनत करके घर वालों की इजाजत लेनी पड़ती है।” अरे तुम लड़की हो वहां इतने सारे लोगों के सामने स्टेज पर नाचोगी। तुम्हें हमारी मर्यादा का ख्याल तो है तुम्हें ? नृत्य जो एक कला है ,आत्म विकास का मध्यम है उसको भी मर्यादा से जोड़ कर उसका अर्थ ही बदल दिया जता है। वह भी सिर्फ लड़कियों के लिए। ” लड़का नाचे तो शान लड़की नाचे तो अपमान। ” हमारे गांव में लडकों का जब जी चाहता है तो घर से निकल पड़ते हैं घूमने के लिए। जब जी चाहता है तब घर आते हैं। लेकिन लड़कियां जब तक कोई जरूरी काम ना हो घर से बाहर नहीं निकल सकती और अगर कहीं जाते भी हैं तो कई सवालों के जवाब देने के बाद।

कहाँ जा रही हो ? वहां क्या काम हैं ? घंटे भर के अंदर वापस आ जाना। अकेले नहीं ,भाई को साथ लेकर जाओ, अच्छा उस सहेली के यहां जा रही हो, क्या जरूरत है जाने की? यह दोस्ती बस स्कूल तक सीमित रखो घर पर लाने की कोई जरूरत नहीं है। वगैरह – वगैरह इतने सवालों के जवाब देने के बाद भी इजाजत मिलेगी या नहीं , कोई पता नहीं होता। लड़कियों को बचपन से ही सीख दी जाती है की जब तक मायके में हो तब तक पिता और भाई के आश्रय में रहना है। ससुराल में पति के आश्रय में और बुढ़ापे में बेटों के। उनकी पुरी जिंदगी को आश्रित बना दिया जता है। अगर वो सक्षम भी हो तो बिना किसी पुरुष का साथ लिए उन्हें घर से बाहर कदम नहीं रखने दिया जाता है। लड़कियों की जिंदगी किराएदार की तरह होती है, उनका हिस्सा न मायके में होता है और ना ही ससुराल में। मायके वाले कहते हैं पराई अमानत है ,एक दिन चली जायेगी और ससुराल वाले कहते हैं पराय घर की है। हम सबके अपने होकर भी पराए रह जाते हैं। और तो और गांव में आज भी शादी सिर्फ़ समझौता होती है। अपनी पसंद चुनने का आपके पास कोई हक नहीं होता है। विवाह के क्षेत्र जाति – उपजाति में अत्यंत ही सीमित होते हैं और अगर गलती से किसी को दूसरी जाति या दुसरे उपजाति के ही लड़के या लड़की से प्रेम – प्रसंग हो जाए तो उसका अधिकार ,उसकी स्वतंत्रता सब छीन लिया जता है और अन्ततः समझौते की शादी करा दी जाति है। प्रेम जो खुद में ही पवित्र है ,शास्वत है अनंत और असिम है, जो हर जाति – पाति, ऊंच – नीच से परे है , उसको भी यहां एक कलंक के रूप में देखा जता है और प्रेम करने वालों को चरित्रहीन समझा जता है। मतलब अगर यहां किसी को प्यार करना हो तो कैसे करें? प्यार तो कोई सोच समझकर नहीं करते वो तो बस हो जाता है। या फिर हाथ में एक बोर्ड लेकर घूमें की “हिंदू ब्राह्मण कान्यकुब्ज प्रेमिका को उच्च व मान्य ब्राह्मण कुल का सजातीय प्रेमी चाहिए। तब जाकर कोई मिले और फिर उससे प्रेम करें।

“वाह ! सोच के भी कितना दुःख होता है की अनंत और असीम प्रेम को भी एक सीमा और क्षेत्र विशेष में बंध दिया गया है और इस बंधन को कुछ गिने – चुने लोग ही तोड़ पाते हैं। वह भी एक लंबे संघर्ष के बाद। लंबे अरसे के बाद। बहुओं की दशा तो और भी दयनीय होती है, उनका अस्तित्व बस पति की सेवा करने का, कामकाज करने और घर की चारदीवारी के अंदर ही होता है। और अगर औरत घर से बाहर निकलकर काम भी करना चहती है तो उस पर हजार पाबंदीयां लगाई जाती हैं।

” आदमियों से ज्यादा बोल – चाल मत रखना, अपने काम से काम रखना ,घर से कार्यालय और कार्यालय से घर। इसके आगे कदम मत बढ़ाना “नौकरी शुरू करते ही उसमें ऐसी कई पाबंदियां लगा दी जाती हैं ।अगर एक औरत भले ही काम के सिलसिले में ही किसी आदमी से बोल दे , दो – चार बातें कर ले तो उसको चरित्रहीन कह दिया जाता है। अगर किसी कामकाजी महिला के घर पर उस घर के मुखिया के बजाय उस महिला के नाम से निमंत्रण पत्र आ जाता है तब तो पूछो ही मत । तुरंत औरत को सवालों के कटखरे में खड़ा कर दिया जाता है। ” यह तुम्हारे नाम से क्यों आया है? तुम ठेकेदार हो ? घर के पुरुष मर गए हैं क्या ? “अरे भाई ! जब उस महिला की सह – कर्मचारी उसे ही जानती है तो उसी के नाम से निमंत्रण पत्र भेजेगी ना। जैसे किसी पुरुष का दोस्त पुरुष के नाम का निमंत्रण पत्र भेजेगा ना की उसकी पत्नी या मां के नाम का। सीधी सी बात है लेकिन इससे पुरुषों के ताथकथित आत्मसम्मान को ठेस पहुंच जाति है ,की कोई हमारी जगह कैसे ले सकता है ?

क्या स्त्रियों का मन नहीं होता ? उनकी प्रतिभा, प्रतिभा नहीं होती ? फिर क्यों उनकी प्रतिभाओं को दबा दिया जाता है ? क्यों उन्हें वो करने की आज़ादी नहीं मिलती जो वे करना चहती हैं ? क्या उनको हक नहीं की वह अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिएं न की किसी और के निरंकुश नियमों का पालन करके।

हमेशा से कह दिया जाता है कि लड़कियां कमजोर होती हैं। इनके पास दिमाग नहीं होता है।अरे इस पुरूष प्रधान समाज में क्या लड़कियों को उतने अवसर उतनी सुविधाएं दिये गए जितने के लडकों को ? फिर बिना अवसर दिए ही आप यह कैसे कह सकते हैं की लड़कियां कमजोर होती हैं ? ये तो कुछ यूं बात हो गई जैसे कि किसी को लड़ाई के मैदान में उतारे बिना ही उसे पराजित घोषित कर दिया जाए। अगर लड़कियों को अवसर मिलता है और तब वह कुछ ना कर पाती तब आप उन्हें असक्षम कहें ,तब हमें कोई शिकायत ना होंगी। लेकिन मुझे यकीन है की जितने अवसर व सुविधाएं लडकों को दिये जाते हैं उसका आधा भी अगर लड़कियों को मिले तो निश्चित ही वह प्रगति करेंगी क्योंकि स्त्रियां इतनी भी कमजोर नहीं होती हैं। उनमें तो सहनशीलता का गुण हो होता है। वो अपनी जान पर खेलकर, तमाम चोट सहकर , तमाम मुसीबतों को सहकर, तमाम तकलीफों को झेलने के बाद भी, वह दूसरों की रक्षा करती हैं। अपना संपूर्ण जीवन अपनी इच्छायें सब कुछ अपनों के लिए समर्पण कर देती हैं।

एक औरत के कई रूप होते हैं एक बेटी माता-पिता के लिए उनके मान – सम्मान के लिए अपनी इच्छाओं को त्याग देती है। एक बहु अपने मायके को त्याग देती है और ससुराल में ही सर्वस्व ढूंढती है। एक पत्नी स्वयं की पहचान को त्याग देती है और पति के पहचान में ही ढल जाती है। एक मां अपने बच्चों के लिए अपने सपने त्याग देती है। खुद भूखी रह कर भी अपने हिस्से से बच्चों का पेट भरती है ।पर इतना त्याग करने के बाद भी उसको मिलता क्या है अपमान , कलंक, रोक – टोक इत्यादि।

क्या पुरुषों का कोई फर्ज नहीं है? क्या उनका फर्ज बस इतना ही है कि वो पैसे कमाएं और परिवार का पेट भरें। क्या पुरुष उन स्त्रियों लिए, उन सब के लिए जो इतना त्याग करती हैं थोड़ा सम्मान, थोड़ी स्वतंत्रता और बिना रोक – टोक किए उनको उनकी जिंदगी जीने अधिकार नहीं दे सकते ? जोकि उनका जन्मसिद्ध अधिकार है? क्या स्त्रियों की प्रतिभाओं की ऊंगली पकड़ कर उनको प्रोत्साहन नहीं दे सकते? उनकी इच्छाओं को पुरा करने का अवसर उन्हें नहीं दे सकते ?

मुझे नहीं लगता है कि स्त्रियां सिर्फ़ पिता, पति या बेटों पर आश्रित होती हैं। वह तो स्वयं हम सबको आश्रय देती हैं। अपने आंचल के छांव में सबको समेटे रहती है। खुद अत्याचार सह कर भी सबको प्यार देती हैं। अपनी इच्छाओं को मार कर सबकी छोटी-छोटी इच्छाओं का भी सम्मान करती हैं ।

इतिहास गवाह है कि जब – जब स्त्रियों की सहनशीलता टूटी है तब – तब उन्होंने अपनी वीरता का परिचय दिया है। और तब जाकर समाज में क्रांति व परिवर्तन हुए हैं। स्त्री तो एक शांत नदी की तरह है जो सबको शीतलता प्रदान करती है। सबकी प्यास बुझाती है। लेकिन अगर उस पर अत्याचार होगा ,अपमान होगा तो वही स्त्री नदी की भयानक बाढ़ की तरह सब कुछ तहस – नहस कर सकती है। जिस दिन स्त्रियों को सम्मान ,उनके प्रतिभाओं को अवसर और उन्हें उनके हिस्से की स्वतंत्रता मिलने लगेगी तभी यह देश प्रगति की सीढ़ी पर चढ़ते हुए और आगे बढ़ सकेगा। क्योंकि भारत की आधी आबादी महिलाऐं ही हैं। आज विश्व में किसी भी ऐसे देश का उदाहरण नहीं है जो अपनी महिलाओं को सम्मान और बराबरी का दर्जा दिए बिना केवल पुरुषों के बल पर विकसित हुआ हो। स्वामी विवेकानंद जी ने भी महिलाओं के प्रति कहा है कि – “जैसे किसी पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना आसन नहीं है उसी प्रकार बिना महिलाओं की स्थिति में सुधार किए इस समाज का कल्याण संभव नहीं है।”

वीरांगना झलकारी बाई : वीरता का पर्याय

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा
दुर्गा दल की सेनापति,वीरांगना झलकारी बाई कोली (कोरी) का जन्म 22 नवबंर सन 1830 को उत्तर प्रदेश(तत्कालीन नाम पश्चिमोत्तर प्रान्त) राज्य में झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पिता का नाम स्व० सदोवर सिंह और मां का नाम स्वर्गीया जमुना देवी था। झलकारी बाई का जन्म के कुछ दिन में ही मां असमय स्वर्ग सिधार गई, अब बेटी की सेवा करने की जिम्मेदारी पिता पर आ गई। पिता जी ने लड़के की भांति ही झलकारी बाई का पालन–पोषण किया।


तत्कालीन सामाजिक विपरीत परिस्थितियों के कारण पिता स्व० सदोवर सिंह अपनी सपुत्री को स्कूली शिक्षा नहीं दिला सके, किंतु घुड़सवारी, अस्त्र–शस्त्र चलाना, युद्ध करना आदि संघर्षी कार्य जरूर बखूबी सिखाया था। वह स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़, किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। अक्सर झलकारी बाई जंगल में लकड़ी लेने जाया करती थी।एक बार झांसी के जंगलों में झलकारी बाई का आमना–सामना तेंदुआ से हो गया, झलकारी बाई ने डरकर भागने के बजाय, कुल्हाड़ी से काटकर वन्यजीव को मार डाला था। यह बात रानी लक्ष्मी बाई को पता चली तो झलकारी बाई को अपनी सेना में सेनापति बनाया था।


पति का नाम अमर शहीद पूरन सिहं कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी थे। पूरन सिंह कोली बहुत ही स्वामिभक्त, मेहनतकश व कर्तव्यनिष्ठ थे,जिनकी ईमानदारी पर रंच मात्र भी संदेह नहीं किया जाता था। इसलिए महारानीलक्ष्मीबाई ने पूरन सिंह कोली को अपने तोपखाना की जिम्मेदारी दी थी।


झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराहकरके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी, उसी समय रानी लक्ष्मीबाई स्वयं अगली रणनीति तैयार करने में लग जाती थी। अन्तिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई का प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया। तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। युद्ध के मैदान में भी दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी फिरंगियों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक
लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी।


जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर अभेद्य टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से फिरंगियों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। किला की रक्षा करते हुए पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए थे। झलकारी बाई अपने पति का शोक में डूबने, तेरहवीं संस्कार आदि करने के बजाय, दूसरी रणनीति बनाकर फिरंगियों पर ज्वाला बनकर टूट पड़ी थी।

कई अंग्रेजों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया था। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हो गई थी।
कवि बिहारी लाल हरित ने “वीरांगना झलकारी बाई काव्य” नमक पुस्तक लिखा, जिसका एक दोहा दृष्टव्य है—
लक्ष्मीबाई का रूप धार, झलकारी खड्ग सवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में, शस्त्र अस्त्र तन धार चली।।

सरयू–भगवती कुंज
डॉ अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

Poet Pushpa Srivastava
उस साल चांँद निहार कर उतरते हुए जीने से गिर गई थी मैं। अफरा- तफरी मच गई थी पूरे घर में | संस्मरण | पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली

उस साल चांँद निहार कर उतरते हुए जीने से गिर गई थी मैं। अफरा- तफरी मच गई थी पूरे घर में।

“कौन गिरा?”

“अरे देखो!”

जेठानी जी तेज आवाज में- “अरे! देखो गुड्डी गिर गई!”

“अरे ! छोटी दीदी गिर गईं!” सब दौड़ कर आए गये।

“अरे मुझे चोट नहीं आई, मैं बिल्कुल ठीक हूॅं!” कहते हुए मैं भाव-विह्वल हो गई।

त्वरित निर्णय लिया गया कि अब अगली बार से पूजा नीचे  आंँगन में ही  होगी।

“अम्मा भी छत पर नहीं जा पातीं, वो भी आंँगन में बैठ पाएंँगी ।”

“हाँ -हाँ बिल्कुल।” सभी ने एक स्वर से सहमति जतायी।

बहुओं को सज -धज कर करवा चौथ की पूजा करते देख अम्मा बहुत खुश होती थीं ।

‘ठुक -ठुक’  डंडे की आवाज़ के साथ कभी मुझे निहारती कभी देवरानी को और कभी जेठानी को। वे पूरी तरह हमारे बीच शामिल हो जाना चाहतीं थीं।  

फोटो खिंचवाते समय आंँगन के चाॅंद की तरह घूम -घूम हम सब को निहारतीं और खुश होकर कुछ गुनगुनाती।

“मेरी नथुनी उलझ गई देखो पिया” 

आगे के बोल भूल जातीं, फिर कहतीं- ” राम राम बिसरि गयेन” और बिना दांँत के मुंँह से आह्लादित होकर हंँसती।

आज घर में पहले की तरह ही सब कुछ हुआ, हम सब घर की बहुएंँ सजीं , फोटो भी खींची गई। आंँगन में पूजा भी हुई, नीम के झुरमुट से आंँख-मिचौली करते हुए चाँद से भी मुलाकात हुई। पर मन! वो तो अम्मा की स्मृतियों में खोया रहा! अम्मा के घर पर न होने से उपजा खालीपन खुशियों पर भारी रहा! 

आज अपनी खिलखिलाती हँसी से घर के कोने कोने में

सितारे टांँकने वाली अम्मा की लाडली पारियांँ भी नहीं आईं।

कहाॅं चली गई थीं अम्मा! कहाॅं गया वह आंँगन में ठुक- ठुक की आवाज़ करने वाला चांँद? आज नहीं मिला पूजा के बाद पांँव छूने पर पीठ पर देर तक फिरने वाला वह थरथराता सा हाथ!  वह सदियों तक गूॅंजने वाला आशीर्वाद –

“बनीं रहौ बच्ची,अहिवात बना रहे”!

मेरे मुॅंह से सहसा निकला-“अम्मा तुम्हारा यह आशीष इस घर पर अक्षत रहे!” और तभी  मेरी भरी-भरी ऑंखों ने भी सिसकते हुए धीरे से कहा -“प्रणाम माँ!”

पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’ संस्मरण 

संस्मरण 

‘हमारी सांस्कृतिक प्रेरणा- अम्मा जी!’

नई-नई बहू मैं निर्जला व्रत पहली बार रखे थी! पूजा करने के लिए तैयार हुई तो अम्मा बार-बार मुझे देख कर बताती रहीं..” नथ पहनना ज़रूरी होता है। देखो बेंदी तिरछी है, ठीक कर लो। कान वाले झाले काहे नहीं पहिने?” उजबक ढंग से तैयार हुई मैं लॅंहगे की चुन्नी नहीं सॅंभाल पा रही थी। अम्मा ने मुस्करा कर कहा था- “धीरे-धीरे आदत पड़ जाएगी” सुनकर मुझे चैन मिला। पहला हर काम बड़ा कठिन लगता था। 

अम्मा “देखो बबलू दुलहिन! लहंगा लंबा है सॅंभल कर चलो।  भूख लगे तो पहले साल ही कुछ खा लो” आदि बातें बता कर सारी तैयारी करने लगतीं। 

घर पकवानों की सोंधी महक से भर जाता।ढेर सारा पुजापा बनता, साथ में तरह-तरह के व्यंजन भी बनते। अम्मा सुबह से भजन गुनगुनाते हुए काम में लग जाती थीं। अम्मा कमाल की कलाकार भी थीं। दीवार पर माता जी का चित्र बनातीं तो जैसे माॅं साक्षात मुस्करा पड़ती थीं। सूरज-चंन्द्रमा बनाने के साथ अम्मा का चेहरा भी चमक उठता था। 

दशहरे वाले दिन से घर की दीवार का एक कोना अम्मा की उंगलियों से सजने लगता। पापा कहते..”देखो टेढ़ी न हो जाए लाइन!”  वे दोनों दीवार पर अपने भावों के साथ परिवार की सुखद कामना रचाते रहते। पापा मुग्ध होकर अम्मा की कलाकारी देखते थे। उनके चेहरे के प्रशंसित भाव देखकर हम लोग भी बहुत खुश होते थे। मेरी आर्ट तो इतनी खराब थी कि.. क्या कहें। अम्मा के पास बैठ जाएं तो वे कहें, “माता जी की चुनरी तुम भी रंग दो।”  मैं झिझक जाऊॅं तो वे कहें-“भगवान भावना देखते हैं बहू!” 

इतने वर्षों बाद भी पहले साल की वे अनमोल स्मृतियाॅं मन में जस की तस  सिमटी हैं। समय बीतता रहा..पापा के जाने से जो धक्का लगा वो अम्मा की बीमारी से और बढ़ गया। कल अम्मा बोल भी नहीं सकीं। जीवन का यह बदलाव अंतर्मन को अनदेखी पीड़ा से भरता जा रहा है। बार-बार मन करता है भगवान से कहें -” अम्मा को स्वस्थ कर दीजिए भगवन्!” 

रश्मि ‘लहर’

”समय की लीला” | लघुकथा | रश्मि लहर

”समय की लीला”

छोटे साहब ने बड़े साहब को खुश करने के लिए जेल में रामलीला करवाने का मन बना लिया था। चार दिन की तैयारी के बाद आज फाइनल कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। मंत्री जी ने दोनों साहब लोगों को इनाम स्वरूप ‘आशीर्वाद’ दिया। बड़े साहब मंत्री जी के साथ चले गए। सब लोग सफ़ल आयोजन की ख़ुमारी में थे कि छोटे साहब की चीख सुनकर सब चौंक पड़े। 

छोटे साहब की प्रेयसी ‘सीता’ बनी कैदी को तो ढूॅंढ लिया गया था.. फिर? सब चिंतित कि.. “क्या हुआ?” 

जेल में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया था।  सब स्तब्ध! जितने मुॅंह उतनी बातें! छोटे साहब कमरे में बंद हो चुके थे। अचानक सिक्योरिटी गार्ड ने जो बताया उसको सुनकर सबके मुंह से चीख निकल पड़ी! उसने कहा –

“पता चला है कि सीता जी को ढूॅंढकर लाने वाले दो बंदर बने कैदी-नंबर 402 तथा 404 रामलीला समाप्त होने से पहले ही फरार हो गए!”

रश्मि ‘लहर’

जिन्दगी को हमने जूम किया – अभय प्रताप सिंह | पुस्तक समीक्षा

पहली बार कोई पुस्तक पढ़ते हुए ऐसा लगा कि जैसे कविताओं की गहराइयां तभी समझ आएंगी जब साहित्य में रुचि ही नहीं बल्कि उच्च स्तर का ज्ञान भी होना ज़रूरी है।

पल्लवी मंडल और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पढ़ने के बाद ये अहसास हुआ की कोई इतनी कम उम्र में इतनी अच्छी कविताएं … ?

ये पुस्तक सिर्फ़ लिखी ही नहीं गई है। बल्कि इन कविताओं में सामाजिक, राजनीतिक , सांस्कृतिक, स्त्री विमर्श, नया समाज निर्माण, प्रेम, संघर्ष, सबक, सीख उम्मीद, खालीपन, अकेलापन आदि काफ़ी मात्रा में देखने को मिलती हैं।

” तुम जो कागज के टुकड़ों में बसा
कभी चुपके से हाथों में सिमटा
कभी सपना बन, आंखों में छलका
तुम्हारा मोल क्या, कभी सम्पूर्ण तो कभी अधूरा। “

” जब कुछ नहीं होता
तो सिर्फ़ उम्मीद ही होती है
उस सुबह की
जो शायद मेरी भी हो। “
इसी पुस्तक से ….

मैं सालों पहले करीब 150 से अधिक कविताएं लिखा था पर बाद में लगा कि मैं कविताएं लिखने के लायक नहीं हूं जो कि मित्र आशुतोष शुक्ल के शब्दों का मुहर लगने के बाद ये साबित हो गया था कि मेरे द्वारा कविताएं लिखना देश के ऊपर अहसान करना हो जाएगा इसलिए मैं उन सभी कविताओं को चुन – चुन कर डिलीट किया क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि मेरी कविताओं का एक भी अभिलेख इतिहास का पाठ्यक्रम बढ़ाए।

कहते हैं कि –

” किसी उदास चेहरे पर खुशियां लाने का मूल्य,
किसी खुश चेहरे की तारीफों से कई गुना अधिक होता है।”

भगवंत अनमोल द्वारा लिखित पुस्तक ” ज़िंदगी 50 – 50 ” की ये पंक्तियां पल्लवी जी और अंजली ठाकुर द्वारा लिखित पुस्तक ” जिन्दगी को हमने जूम किया ” पर एकदम सटीक बैठती है।

आप दोनों की इस उपलब्धि के लिए बहुत सारी बधाइयां और मुझे इस पुस्तक को सम्प्रेम भेंट के लिए बहुत – बहुत आभार।

आख़िर में आप दोनों की तारीफ़ में कुछ कहने के लिए हेक्टर गर्सिया और फ्रांसिस मिरेलस द्वारा लिखित व प्रसाद ढापरे द्वारा अनुवादित पुस्तक ” इकिगाई ‘ में जापानी कहावत सबकुछ बयां कर देती है जो कि –

” सौ वर्ष जीने की चाहत आप में तभी होगी
जब आपका हर पल सक्रियता से भरा हो।”

– अभय प्रताप सिंह
(संस्थापक – लेखनशाला)

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459