खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459

सार्थक वेलफेयर सोसायटी ने कवि राम लखन वर्मा को किया सम्मानित

“भारत गौरव रत्न 2K24” का मिला सम्मान

रायबरेली-उ. प्र. AN ISO-9001:2015 प्रमाण पत्र प्राप्त एवं वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर संस्था सार्थक वेलफेयर सोसायटी लखनऊ द्वारा 29 सितम्बर 2024 को इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आईटीआई) रायबरेली में स. इंजीनियर पद पर कार्यरत श्री राम लखन वर्मा को “भारत गौरव रत्न 2024 सम्मान” से राजधानी लखनऊ के अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध संस्थान में उ.प्र. सरकार में मंत्री माननीय श्री विश्वनाथ जी, एमएलसी पवन कुमार, महान कमेडियन श्री अन्नू अवस्थी एवं सार्थक वेलफेयर सोसाइटी के संस्थापक/अध्यक्ष श्री अश्विनी जायसवाल द्वारा सम्मानित किया गया। यह विशिष्ट सम्मान उनके उत्कृष्ट लेखन और सामाजिक कार्य के लिए प्रदान किया गया।
आपको बताते चले रायबरेली जनपद के हरीपुर-निहस्था इनकी जन्मभूमि रही है यह कवि, साहित्यकार के अलावा कई समिति के मीडिया प्रभारी भी रहे। इससे पहले आईटीआई लिमिटेड मनकापुर गोंडा में सेवा करते हुए इन्होंने “मुख्य योग शिक्षक” रहते हुए पूरे गोंडा जनपद में योग का प्रशिक्षण देकर लोगों को स्वस्थ एवं निरोगी बनाया। इसके अलावा बहुत सारे सामाजिक कार्यो में अपनी भूमिका निभाई है और इनका सफर अभी भी जारी है। इससे पहले भी बहुत सारे सम्मान प्राप्त कर चुके हैं।

उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है| हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

उर-ऑगन की तुलसी ,तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।

अधरों पर मृदु हास तुम्हारा मुखरित है,
लोल कपोल खिले सुमनों सा मुकुलित है।
कजरारी पलकों के चौखट में कैद आज,
बन स्नेह सुधा की निर्झरिणी प्रवहित है।
अनुपल भाव सुमंगल उर भरने वाली,
पुण्य-प्रदा तू जीवन की पहचान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है,
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।1।

झील सरीखी गहरी तेरी सुधियों में,
मस्त भ्रमर-मन लिपट न जाए कलियों में।
पूछेंगे सब लोग तुम्हारा नाता मुझसे,
और मनायेंगे खुशियॉ फिर गलियों में।
स्नेह-गंग की चपल तरंगों सी बल खाकर,
मिल जाऊॅगा सागर में अब ठान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।2।

छली चॉद सा रूप बदलना मुझे तनिक ना भाया,
मुखर चॉदनी ने चुपके से तन-मन आग लगाया।
नव प्रभात की किरण सुनहरी सन्ध्या दीपक-बाती,
धड़कन की हर सॉस तुम्हारी,कैसा रूप सजाया।
सपनों की अमराई में जब-जब कोयल कूके,
मधुरिम स्वर की मलिका तुम हो जान लिया है।
उर-ऑगन की तुलसी तुमको मान लिया है।
निश्छल मन ने स्नेह सहज संज्ञान लिया है।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010

सांस्कृतिक संस्थान एवं संवेदना साहित्य परिषद रायबरेली के तत्वावधान में कलेक्ट्रेट परिसर में एक गोष्ठी आयोजित

सांस्कृतिक संस्थान एवं संवेदना साहित्य परिषद रायबरेली के तत्वावधान में कलेक्ट्रेट परिसर में एक गोष्ठी आयोजित की गई जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार शत्रुघ्न सिंह चौहान ने तथा संचालन हरिश्चंद्र त्रिपाठी हरीश एवं धन्यवाद प्रकाश आनंद स्वरूप श्रीवास्तव द्वारा किया गया।

कार्यक्रम में सर्वप्रथम गोवा में आयोजित हिंदी दिवस पर लेखक मिलन समारोह पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी शिलांग द्वारा रायबरेली के डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज को “आर्मंड डी सूजा साहित्यिक यायावर सम्मान ” से सम्मानित किए जाने पर जनपद के कवियों द्वारा स्वागत एवं उनका अभिनंदन किया गया । जिसमें रायबरेली जनपद के दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश , सुरेश चंद्र शुक्ला, कृष्णानंद त्रिपाठी, अश्विनी कुमार श्रीवास्तव, अंगद प्रसाद त्रिवेदी, गंगा सहाय द्विवेदी, अशोक मिश्रा साथी , अभिमन्यु सिंह , गंगा प्रसाद चौधरी, अजय मिश्र , शैलेंद्र सिंह, रमेश कुमार सिंह आदि प्रबुद्ध लोग उपस्थित रहे ।

गोष्ठी के अंत में विगत दिनों रायबरेली जनपद के यशस्वी वरिष्ठ साहित्यकार डॉ .राधे रमण त्रिपाठी रमणेश, एवं पुलिस विभाग में कार्यरत प्रसिद्ध गीतकार, गज़लकार दिनेश कुमार मिश्र स्नेही तथा दुर्गा शंकर वर्मा दुर्गेश की पत्नी के आकस्मिक निधन पर 2 मिनट का मौन रखकर ईश्वर से उनकी आत्मा को शांति देने की तथा उनके परिवार को असहनीय दुख सहने की क्षमता प्रदान करने की कामना की गई ।उपस्थित साहित्यकारों ने उनके निधन को अपूर्णीय छति बताया।

साहित्य की दुनिया में रायबरेली का नाम रोशन कर रहे अभय प्रताप सिंह

जनपद रायबरेली, निवासी बेनीकोपा ( कबीरवैनी ) के रहने वाले युवा साहित्यकार अभय प्रताप सिंह अब उत्तर प्रदेश के बाद अन्य राज्यों जैसे बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़, गुजरात, गोवा, मध्य प्रदेश, हरियाणा, आदि में भी अपने नाम का परचम लहरा रहे हैं। अभय हाल ही में ‘ लेखनशाला ‘ नाम का एक ‘ संस्था ‘ स्थापित किए जोकि हर रोज नई बुलंदियों को स्पर्श कर रहा है।

इस संस्था का उद्देश्य उन तमाम रचनाकारों को जगह देना है, उनकी लिखी रचनाओं को प्रकाशित करना है जिनके पास प्रतिभा है, मेहनत करने का जुनून है, लेखनी का शौक है। उसके बावजूद वो अपनी रचनाओं को प्रकाशित करवाने में असमर्थ हैं।

संस्था संस्थापक, अभय जी से बात करने पर उन्होंने बताया कि लेखनशाला संस्था की स्थापना 13 जुलाई 2024 को की गई थी। जिसका मकसद हर उस शख्स तक पहुंचना है जो लिखना चाहते हैं, पढ़ना चाहते हैं, साहित्य में रुचि रखते हैं लेकिन उनके पास किसी भी प्रकार की कोई विकल्प नहीं है जिससे वो अपनी बातों को लोगों के मध्य रख पाएं। इसलिए हमारा उद्देश्य यही है कि हम हर उस शख्स तक पहुंचे जो इन परेशानियों से जूझ रहे हैं और साहित्यिक सेवा भी करना चाहते हैं। हमारी ये संस्था सभी लेखकों, पाठकों और तमाम सहपाठियों के लिए लाभप्रद होगी। हम हर संभव प्रयास करेंगे की इस संस्था के माध्यम से हम पाठकों के लिए हर रोज़ कुछ न कुछ नया लाएं जिससे उन पाठकों को थोड़ी आसानी प्राप्त हो।

उन्होंने ने ये भी कहा कि लेखनशाला ( शब्दों की उड़ान ) संस्था में संस्था के कई सारे प्रोडक्ट भी शामिल किए गए हैं। हमारी संस्था हमारी पूरी टीम, सभी भाषा सलाहकार इस छोटी सी मुहीम में अपना हिस्सा लिए और संस्था को मजबूत बनाए। मैं सिर्फ़ संस्था का संस्थापक हूं लेकिन संस्था के सफ़लता के पीछे का सारा योगदान, टीम और भाषा सलाहकारों को जाता है।

हिन्दी की लोकप्रियता के साथ बढ़‌ता जनाधार

हिन्दी की लोकप्रियता के साथ बढ़‌ता जनाधार

भाषा के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मजबूत और सुदृढ़ राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रभाषा का होना उतना ही आवश्यक है, जितना जीवित रहने के लिए ‘आत्मा’ का होना आवश्यक है।
हिंदी भाषा की जब भी बात होती है तो, मन में 14 सितंबर, हिंदी दिवस गूंजने लगता है। तत्क्षण बैंकिंग सेक्टर, चिकित्सा क्षेत्र, अभियांत्रिकी क्षेत्र, आईसीएसई, सीबीएसई बोर्ड के स्कूल, सोशल मीडिया, हिंग्लिश आदि की ओर अंतःमन का ध्यानाकर्षण होने लगता है। हम सब मिलकर चिंतन करें कि आखिर 72 वर्ष बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई है? वोट की राजनीति या विभिन्न सरकारों में इच्छाशक्ति की कमी या क्षेत्रवाद? या भौतिकवादी समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखाना? कारण जो कुछ भी हो, हम कह सकते हैं कि हिंदी अपने ही देश में बेगानी होती जा रही है।
हिंदी का प्रत्येक व्यंजन और स्वर मुख्यतः अर्धचंद्र और बिंदी से बना है। यदि हम हिंदी लिखते समय सुकृत बिंदी और अर्धचंद्र का प्रयोग आवश्यकतानुसार करें, तो सभी वर्ण शब्द वाक्य अति सुंदर तथा सुडौल बनेंगे। हिंदी के उद्भव की बात करें तो, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है, तत्पश्चात क्रमानुसार पालि–प्राकृत–अपभ्रंश तब हिंदी का विकास हुआ है।

सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी


गुरु गोरखनाथ, लल्लू लाल, सरहपा हिंदी के प्रथम गद्य लेखक/रचनाकार माने जाते हैं। चंद्रवरदाई, मालिक मोहम्मद जायसी, खुसरो, अब्दुल रहमान, संत रैदास, सूरदास, तुलसीदास, बिहारी, मीराबाई, नाभादास भारतेंदु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा आदि ने हिंदी में अपनी विभिन्न विधाओं रचनाएं लिखा है, जो आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल से हिंदी प्रचलन में होने का प्रमाण है। उत्तर प्रदेश में रायबरेली जनपद के ग्राम दौलतपुर निवासी, हिंदी के पुरोधा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन 1903 में ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन किया, तब वे ब्रिटिश शासनकाल में रेलवे में नौकरी करते थे। उसी वर्ष द्विवेदी जी ने राष्ट्रप्रेम और हिंदी के उत्थान के लिए अंग्रेजों से मन मुटाव हो जाने के कारण रेलवे की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। स्वतंत्र भारत से पूर्व सन 1918 ईस्वी में सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी। भारतीय संविधान के भाग 17 में वर्णित अनुच्छेद 343 से 351 तक संघ की भाषा, उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों की भाषा, प्राथमिक शिक्षा, मातृभाषा में देने का उल्लेख है। हम गर्व के साथ कहते हैं कि विश्वपटल पर हिंदी दूसरे पायदान पर है। दिनांक 10 जनवरी सन् 2017 को दैनिक जागरण के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित शीर्षक “दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बनी हिंदी” के अंतर्गत मुंबई विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉक्टर करुणा शंकर उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ’ में यह उल्लेख किया है कि हिंदी विश्व पटल पर सर्वाधिक बोली जाती है।


हिंदी का विकास कैसे हो?


सरकारी, गैर सरकारी कार्यालयों में जो व्यक्ति कार्यालयी कार्य हिंदी में करे, उसे अतिरिक्त वेतन, अतिरिक्त अवकाश तथा अहिंदी भाषी राज्यों में भ्रमण हेतु पैकेज दिया जाना चाहिए। हिंदी विषय के विभिन्न साहित्यकारों और अन्य ज्ञानोपयोगी बिंदुओं पर शोधकार्य होना चाहिए, जिसके लिए सरकार और विश्वविद्यालयों को पहल करनी होगी। हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए संपूर्ण भारत के सभी स्कूलों में हिंदी विषय में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा अतिरिक्त छात्रवृत्ति, प्रशस्ति पत्र और अधिभार अंक मिलना चाहिए, जिससे छात्रों का हिंदी प्रेम और मनोबल बढ़े। महानगरों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं वाले स्कूलों में छात्रों और अभिभावकों से हिंदी में ही वार्तालाप किया जाए। हिंदी को पाठ्यक्रम का एक हिस्सा मानकर नहीं, वरन मातृभाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए।
हिंदी आध्यात्मिकता, दर्शनिकता से परिपूर्ण, भावबोध से ही दूसरों के मन की बात समझने वाली l वैज्ञानिक शब्दावली की भाषा है। हिंदी भाषा में स्वर और व्यंजनों के उच्चारण कंठ, तालु, होष्ठ, नासिका आदि से निर्धारित अक्षरों में किए जाते हैं। ऐसा वैज्ञानिक आधार अन्य भाषाओं में नहीं मिलेगा। हिंदी में जो लिखते हैं, वही पढ़ते हैं- जैसे ‘क’ को ‘K क’ ही पढ़ेंगे। अंग्रेजी में ‘क’ को Ch, Q, C, K लिखते या पढ़ते हैं। हिंदी “अ” अनपढ़ से शुरू होती है और “ज्ञ” ज्ञानी बनाकर छोड़ती है, जबकि अंग्रेजी A apple से शुरू होकर Z zebra जानवर बनाकर छोड़ती है।
अखिल विश्व की प्रमुख भाषाओं में चीनी भाषा में 204, दूसरे स्थान पर हिंदी में 52, संस्कृत में 44, उर्दू में 34. फारसी में 31, अंग्रेजी में 26 और लैटिन भाषा में 22 वर्ण होते हैं। हिंदी की महत्ता और वैज्ञानिक पद्धति को समझते हुए देश में सर्वप्रथम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के आईआईटी विभाग ने अपने पाठ्यक्रम को हिंदी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने की अनुमति प्रदान की है।
गर्व की बात है कि माननीय उच्च न्यायालय, प्रयागराज के न्यायमूर्ति श्री शेखर कुमार यादव ने “स्व का तंत्र और मातृभाषा” विषयक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए अधिवक्ताओं से कहा था कि आप हिंदी में बहस करें, मैं हिंदी में निर्णय दूँगा। साथ ही कहा कि 25 प्रतिशत निर्णय में हिंदी में ही देता हूँ।
विश्वविद्यालयों की वार्षिक, सेमेस्टर परीक्षाओं में वर्णनात्मक या निबंधात्मक प्रश्नोत्तर लगभग समाप्त करके बहुविकल्पीय प्रश्नपत्रों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। इस विकृत व्यवस्था से नकल को बढ़ावा तो मिला ही, साथ-साथ विद्यार्थी के अंदर लिखने-पढ़ने का कौशल तथा भाषाई ज्ञान समाप्त हो रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार को खुश करने के लिए कुछ विश्वविद्यालयों के नीति नियंता अब भी बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र प्रणाली लागू करते देश को गर्त में ले जाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं? हमें स्मरण रखना चाहिए कि आम–खास सभी की पारिवारिक संतानें आने वाले समय में पठन, पाठन, लेखन क्षेत्र में मानो अपंग हो जाएंगी। निवेदन पूर्वक आग्रह है कि बहुविकल्पीय प्रणाली समाप्त किया जाना चाहिए। कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त करने के भ्रम में युवा पीढ़ी की भाषा, तार्किक शक्ति क्षीण होती जा रही है । उदाहरण स्वरूप विद्यार्थी, युवा और र्बुजुर्ग नर–नारी व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के चक्कर में पड़कर अंग्रेजी या हिंदी की संक्षिप्त भाषा को अपने जीवन और लेखन में उतरने लगे हैं। इतना संक्षिप्त भाषाई प्रयोग से न हिंदी का सही व्याकरणीय ज्ञान का बोध करा पा रहा है, न अंग्रेजी का। जैसे प्लीज को Plz , थैंक्स को Thnx, मैसेज को Msg, हम को Hmm लिखने का प्रचलन खूब चल रहा है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए घातक है।
कोविड-19 का दुष्प्रभाव भी बच्चों बूढ़ों पर बहुत पड़ा
है। इसके कारण 2 वर्षों से अधिक समय तक स्कूली, पुस्तकीय और प्रयोगात्मक पढ़ाई न हो पाने के कारण वास्तविक ज्ञानार्जन की समस्या उत्पन्न हुई है। विद्यार्थियों में भाषाई, उच्चारण और व्याकरण की समस्या दूर करने के लिए शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावकों को भी आगे आना होगा। अभिभावक गण अपने पाल्यों की कॉपियां देखें और त्रुटियों की ओर उनका ध्यानाकर्षण करें।

हिंदी दिलों को जोड़ने वाली मातृभाषा

अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो हिंदी दिलों को जोड़ने वाली मातृ भाषा। हिंदी माँ है, तो उर्दू मौसी और संस्कृत तो सभी भाषाओं की जननी है। इसका गहनता से अध्ययन करते हुए हिंदी भाषा को सशक्तिकरण के रूप में अपनाना होगा। प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का तात्पर्य यह नहीं है कि हिंदी पीछे है या कमजोर है। इस महत्वपूर्ण दिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने का उद्देश्य है- हिंदी को सम्मान देना। इस सम्मान की गरिमा बनाए रखने के लिए देवनागरी लिपि हिंदी को यथाशीघ्र राष्ट्रभाषा घोषित किया जाना चाहिए।

कभी-कभी मैं स्वयं हतप्रभ रह जाता हूँ कि 21 अगस्त सन 2021 को हिंदुस्तान समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के अनुसार प्रवक्ता पद के प्रश्नपत्र में 90% व्याकरण सम्बन्धी और अक्षरों की त्रुटियां थी। प्रतियोगी परीक्षाओं में इतनी अधिक त्रुटियों होना हम सब को कटघरे में खड़ा करता है। यह योग्यता में कमी या इच्छाशक्ति में कमी या हिंदी के प्रति दुव्यवहार दर्शाता है? आखिर हमारी शैक्षिक पद्धति कहाँ जा रही है?
अंत में इतना ही कहना चाहूँगा- अंग्रेजी के अल्पज्ञान ने हिंदी को पंगु बना दिया।

डॉ० अशोक कुमार गौतम, असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, आईटीआई, रायबरेली उप्र
दूरभाष– 9415951459

डॉक्टर सविता चड्ढा को टोक्यो में मिला “परिकल्पना यात्रा सम्मान ” और राष्ट्र गौरव साहित्य सम्मान”

डॉक्टर सविता चड्ढा को टोक्यो में मिला “परिकल्पना यात्रा सम्मान ” और राष्ट्र गौरव साहित्य सम्मान”

परिकल्पना संस्था के रजत जयन्ती यात्रा समारोह का जिन्जा स्थित कोको आडिटोरियम, टोकियो में आयोजन किया गया। हिंदी अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन व सम्मान समारोह के आयोजन मे

हिंदी साहित्याकार डॉक्टर सविता चड्ढा को ”परिकल्पना यात्रा सम्मान ” से सम्मानित किया गया इसके साथ हि उन्हें आई. पी. फाउंडेशन इंटरनेशनल द्वारा ‘राष्ट्र गौरव साहित्य सम्मान’ से सम्मानित किया गया। डॉक्टर रविन्दर प्रभात और डॉक्टर स्मिता मिश्रा द्वारा सम्मानित करते हुए लेखिका का परिचय देते हुए उनके साहित्य सृजन की सराहना की गई। ये सम्मान उन्हें उनकी सृजनात्मक एवं रचनात्मक अभिव्यक्ति , हिंदी समाज, साहित्य , भाषा एवं संस्कृति को वैश्विक स्तर समृद्ध करने और हिंदी समाज में उच्च मानक स्थापित करने के लिए प्रदान किया गया। उल्लेखनीय है की लेखिका सविता चड्ढा पिछले चलीस वर्षों से हिंदी साहित्य में सृजनरत हैँ और देश विदेश में अनेक सम्मानो से सम्मानित हैं।
इस आयोजन में अमेरिका, प्रयागराज, दिल्ली, आगरा, उज्जैन, लखनऊ व दिल्ली के अनेक साहित्यकारों ने सहभागिता की।

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों का भारत आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलने लगी थी। तत्पश्चात सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया था। बहुत संघर्ष के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों पर तरह–तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखते हुए तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।


पोर्ट ब्लेयर स्थित सेल्यूलर जेल में बंद निर्दोष क्रांतिकारियों, स्वातन्त्र्य वीरों पर किया गया जुल्म–ओ–सितम और यातनाओं की दर्द भरी दास्तां सुनकर दिल दहल जाता है, जिसके कारण उस स्थान को ‘काला पानी’ की संज्ञा दी गई है। वहां की घटनाओं और जुल्म को पढ़कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।


क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी।

स्वाधीनता संग्राम में अवध का बैसवाड़ा क्षेत्र कहीं से भी पीछे न रहा, अपितु रायबरेली में ही शंकरपुर, भीरा गोविंदपुर, मुंशीगंज, फुरसतगंज, सेहंगो, करहिया बाजार, सरेनी आदि क्षेत्रों में फिरंगियों के खिलाफ बिगुल बजाया गया। सरेनी में 18 अगस्त सन 1942 को गोलीकांड हुआ था, जिसका संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत है–
रायबरेली के बैसवारा क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र अथवा राजधानी भले ही लालगंज रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सरेनी ही प्रसिद्ध है। गुप्त काल के पूर्व से इस क्षेत्र का अस्तित्व माना जाता है। प्रमाण स्वरूप सरेनी गांव के उत्तर पूर्व में प्रसिद्ध सिद्धेश्वर मंदिर में गुप्तकालीन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। सरेनी की बाजार रायबरेली के पुराने बाजारों में गिनी जाती है। यहाँ पर उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली के व्यापारी खरीद-फरोख्त करने आते हैं।
ब्रिटिश शासनकाल में ही सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी।
ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त सन 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास प्रतिबिंबित करता है। देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को हजारों की संख्या में सरेनी विकासखंड निवासी देशभक्त तिरंगा फहराने के लिए थाने की ओर बढ़ने लगे। ब्रिटिश सिपाहियों की गोलियां इन वीरों के कदमों को रोक न सकी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सरेनी क्षेत्र के चौकीदारों ने रामपुर कला निवासी ठाकुर गुप्तार सिंह के नेतृत्व में 11 अगस्त सन 1942 को सरेनी बाजार में बैठक किया जिसमें निर्णय हुआ कि शीघ्र ही सरेनी थाना में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त 1942 को हैबतपुर में विशाल जनसभा में गुप्तार सिंह ने आंदोलन को अंतिम रूप देते हुए तिरंगा फहराने की तिथि 30 अगस्त सन 1942 निर्धारित की। कुछ वसंती चोले वाले वीर युवकों ने 30 अगस्त के बजाय 18 अगस्त को ही थाना में तिरंगा फहराने की ठान ली। युवाओं के आह्वाहन पर हजारों की संख्या में भीड़ सरेनी बाजार में एकत्रित हुई। तत्कालीन थानेदार बहादुर सिंह ने भीड़ को आतंकित करने के लिए नवयुवक सूरज प्रसाद त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया। यह खबर आग की तरह फैलते ही आजादी के दीवानों ने थाने पर हमला कर दिया। हमले में कई ब्रिटिश सिपाहियों को चोटें भी आई। आक्रोशित थानेदार और सिपाहियों ने थाने की छत पर चढ़कर निहत्थे जनता पर अंधाधुंध गोलियां चलाना शुरू कर दिया। इस अप्रत्याशित गोलीकांड में भारत माँ के 5 वीर सपूत– टिर्री सिंह (सुरजी पुर), सुक्खू सिंह (सरेनी), औदान सिंह (गौतमन खेड़ा), राम शंकर त्रिवेदी (मानपुर), चौधरी महादेव (हमीर गांव) शहीद हो गए।
रणबाकुरों ने अपनी शहादत स्वीकार की, लेकिन वो ब्रिटिश हुकूमत के आगे न डरे, न झुके। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले पाँच शहीदों की याद में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। इसके ठीक बगल में शहीद जूनियर हाई स्कूल परिसर में छोटा शहीद स्मारक का भी निर्माण कराया गया। दोनों स्मारक गर्व से सीना ताने गोलीकांड और अमरत्व को प्राप्त हुए वीर सपूतों की स्वर्णिम गाथा का मूक गवाह बन कर खड़े हैं।
सरेनी स्थित शहीद स्मारक पर सन 1997 से प्रतिवर्ष 18 अगस्त को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

डॉ अशोक कुमार गौतम
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

साहित्य के क्षेत्र में युवा साहित्यकार समीक्षक दया शंकर को अवधी गौरव रजत सम्मान 2024 से सम्मानित

नेपाल : मित्र राष्ट्र नेपाल में अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान केंद्रीय कार्य समिति द्वारा चौथा अंतरदेशीय अवधी महोत्सव, रजत जयंती दिवस तथा 527वां गोस्वामी तुलसीदास जयंती समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में जनपद के युवा साहित्यकार दयाशंकर को बतौर मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।कार्यक्रम के मुख्य अतिथि नेपाल राष्ट्र के वन तथा वातावरण मंत्री माननीय बादशाह कुर्मी विशिष्ट अतिथि डॉक्टर पंकज गुप्ता रहे। कार्यक्रम की शुरुआत गणेश स्तुति तथा ज्ञान की देवी मां सरस्वती वंदना से की गई।

देश-विदेश से आए साहित्यकारों ने अपनी- अपनी विधा की रचनाएं पढ़ कर खूब तालियां बटोरी। बताते चलें कि अंतर्देशीय अवधी महोत्सव में शिक्षा, स्वास्थ्य,कला,साहित्य, संस्कृति,समाज सेवा के क्षेत्र में अतुलनीय कार्य करने वाले विशिष्ट जनों को अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान हर वर्ष सम्मान प्रदान करता है।

इसी क्रम में साहित्य के क्षेत्र में युवा साहित्यकार समीक्षक दया शंकर को अवधी गौरव रजत सम्मान 2024 से सम्मानित किया गया। दयाशंकर एक प्रखर वक्ता और निष्पक्ष लेखक के रूप में जाने जाते हैं इनकी कहानी आलेख देश-विदेश की कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार के साथ साथ साहित्य के क्षेत्र में एक दर्जन से अधिक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।

इनकी उपलब्धि पर डॉ संत लाल, डा मनोज त्रिपाठी,डा बी.डी.मिश्र, डॉ संजय सिंह, डा आजेन्द्र सिंह,डा अजय सिंह चौहान डा किरन श्रीवास्तव,डा संतोष, डा अशोक कुमार, रवीन्द्र सिंह,कुंवर सिंह, अभिलाषा,सहित बहुत से लोगों ने बधाई दी।

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
(बालकांड, रामचरित मानस – गोस्वामी तुलसीदास)
महिमा मंडित भारत वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी, सम्राट अशोक जैसे महापुरुषों की जमीं है, जिन्होंने हमेशा शांति व सद्भाव का संदेश दिया है। इसलिए भारत शांतिप्रिय राष्ट्र था और यही मर्यादित परंपरा आज भी संपूर्ण राष्ट्र में विद्यमान है। जिसका फायदा कहीं न कहीं विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। जब–जब भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों ने व्यापार का बहाना बनाकर आक्रमण करके शासन करना चाहा, तब हमारे राष्ट्र के निडर, शूरवीर, अमर शहीदों ने मानो ईश्वरीय शक्ति के साथ जन्म लिया। फिर इन योद्धाओं ने फिरंगियों के अहंकार व उनके साम्राज्य का समूल विनाश करते हुए, उनके हलक में हांथ डालकर वापस सिंहासन छीना था। ऐसे अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आजीवन ऋणी रहेंगे।

थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?
सुंदरियों ने जहाँ देश-हित, जौहर-व्रत करना सीखा।
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा।।
वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा। वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥

कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ’हल्दीघाटी’ में उक्त कविता को लिखकर स्वतंत्रता, संघर्ष और त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। इतना ही नहीं, कवि श्याम नारायण ने महाराणा प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों और भारत माता के रखवालों को ’सन्यासी’ की संज्ञा दी है, स्त्रियों को आत्म सम्मान व अपने संतानों की रक्षा करना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ स्वीकार किया है।
संन्यासी रूपी अमर शहीदों के श्री चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज हम गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों के आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलती रही हैं। यह ठीक है कि सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया है। तत्पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने क्रांतिकारियों तरह तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखकर मारा गया। तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।
पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्युलर जेल की दर्द भरी दास्तां रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। सन 1857 से 1947 के मध्य की दिल दहला देने वाली सत्य कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसुओं के साथ ज्वाला भी निकलेगी, कि क्रूर अंग्रेजों इतना जुल्म–ओ–सितम भारतीयों पर किया है। क्रांतिकारियों को ’देश निकाला’ की सज़ा देकर कैदी बनाकर सेल्युलर जेल रखा जाता था। एक कैदी से दूसरे से बिलकुल मिल नहीं सकता था। जेल में हर क्रांतिकारी के लिए एक अलग छोटा सा ऐसा कमरा होता था, जिसमें न ठीक से पैर पसार सकते थे , न ही ठीक से खड़े हो सकते थे। जो क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बोलते थे, अंग्रेज सिपाही उनके कमर में भारी पत्थर बांधकर समुद्र में जिंदा ही फेंक देते थे। एक कमरा में एक ही क्रांतिकारी को रखा जाता था। हांथ पैर में बेड़ियां और अकेलापन भी कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। शायद इसीलिए सेल्युलर जेल को ’काला पानी’ की संज्ञा दी गई थी।
स्वातन्त्र्य वीरों की यातनाओं को सुनकर दिल दहल जाता है। हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। इनकी यातनाओं की अत्यन्त करुण गाथा है। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया। हमारी आज की स्वतंत्रता का भव्य भवन अर्थात राष्ट्र मंदिर ऐसे ही क्रांतिकारी और बलिदानों की नींव पर टिका है। भारत के ये वीर सपूत हमारे प्रेरणापुंज हैं।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी। यदि हम प्रत्येक महापुरुष की अलग–अलग सम्पूर्ण जीवनी लिखने बैठेंगे तो, कागज, कलम और स्याही भले ही कम पड़ जायेगी, किंतु उनके त्याग व तपस्या की वीरगाथा की सत्यवाणी छोटी नहीं पड़ेगी। वैसे तो सत्तावनी क्रान्ति में अमरता को प्राप्त हुए भारत माता के लालों की शौर्य गाथा शब्दों में बयां करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
अंग्रेजों के सामने नतमस्तक न होने पर जेल यात्रा करने वाले क्रान्तिकारी और ओजस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने राष्ट्र के शहीदों के लिए समर्पित कविता में ‘पुष्प की अभिलाषा’ व उसके अंतर्भावों का मार्मिकतापूर्ण वर्णन करते हुए लिखा है—
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।”

प्रत्येक जीवनी बलिदानियों की देश के प्रति अटूट निष्ठा, जीवन संघर्ष और उनके कर्म पथ को चित्रित करती है। स्वाधीनता आन्दोलन में महिला और पुरुष दोनों ने त्याग और बलिदान दिया है, इसलिए दोनों को सम्मिलित किया गया है। हर जाति—धर्म के नामों को इसमें समाविष्ट किया गया है।
तिलका मांझी, बांके चमार, मातादीन भंगी, राजा राव राम बख्श सिंह, वीरा पासी, राणा बेनी माधव सिंह, ऊदा देवी पासी, बहादुर शाह ज़फ़र, माधौ सिंह, जोधा सिंह अटैया, उय्यलवाड़ा नरसिम्हा रेड्डी, टंट्या भील, रानी गिडालू, झलकारी बाई, बसावन सिंह, गंगू मेहतर, कुंवर सिंह, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, रणवीरी वाल्मीकि, जैसे अनेक क्रांतिकारी वीर सपूत, जिनका नाम तक इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है, इन सब के विषय में सम्यक जानकारी देने का मेरा प्रयास है।
आज की परिस्थितियों और भौतिकवादी युग में जब महान राष्ट्रीय मूल्य और इतिहास में महापुरुषों के प्रति हमारी आस्था दरकने लगी है, तो ऐसे समय में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के स्वर्णिम नाम वर्तमान और भविष्य की युवा पीढ़ी में सौम्य उत्तेजना पैदा करके उन्हें राष्ट्रभाव से ऊर्जस्वित करने का कार्य करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।
पुनः राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इन पंक्तियों को याद करना मुझे समीचीन मालूम पड़ रहा है–
जला अस्थियां बारी-बारी,
फैलाई जिसने चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन की मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।।

सत्तावनी क्रांति के ज्ञात–अज्ञात अमर शहीदों, क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के श्री चरणों में पुनः श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आने वाली पीढ़ी को महापुरुषों की शौर्य, पराक्रम, त्याग, वैभव आदि पढ़ने और उन वीरों को स्मरण करने के लिए बारंबार निवेदन करता हूं।
जय हिन्द वंदे मातरम्

डॉ अशोक कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ.प्र.)
मो० 9415951459