सत्तावनी क्रान्ति के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि : आजादी का अमृत महोत्सव
जब जब होइ धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा॥
(बालकांड, रामचरित मानस – गोस्वामी तुलसीदास)
महिमा मंडित भारत वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, श्री कृष्ण, गौतम बुद्ध , महावीर स्वामी, सम्राट अशोक जैसे महापुरुषों की जमीं है, जिन्होंने हमेशा शांति व सद्भाव का संदेश दिया है। इसलिए भारत शांतिप्रिय राष्ट्र था और यही मर्यादित परंपरा आज भी संपूर्ण राष्ट्र में विद्यमान है। जिसका फायदा कहीं न कहीं विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। जब–जब भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों, अंग्रेजों ने व्यापार का बहाना बनाकर आक्रमण करके शासन करना चाहा, तब हमारे राष्ट्र के निडर, शूरवीर, अमर शहीदों ने मानो ईश्वरीय शक्ति के साथ जन्म लिया। फिर इन योद्धाओं ने फिरंगियों के अहंकार व उनके साम्राज्य का समूल विनाश करते हुए, उनके हलक में हांथ डालकर वापस सिंहासन छीना था। ऐसे अमर शहीदों, क्रान्तिकारियों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आजीवन ऋणी रहेंगे।
थाल सजाकर किसे पूजने, चले प्रात ही मतवाले?
कहाँ चले तुम राम नाम का, पीताम्बर तन पर डाले?
सुंदरियों ने जहाँ देश-हित, जौहर-व्रत करना सीखा।
स्वतंत्रता के लिए जहाँ, बच्चों ने भी मरना सीखा।।
वहीं जा रहा पूजा करने, लेने सतियों की पद-धूल।
वहीं हमारा दीप जलेगा। वहीं चढ़ेगा माला-फूल॥
कवि श्याम नारायण पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ’हल्दीघाटी’ में उक्त कविता को लिखकर स्वतंत्रता, संघर्ष और त्याग का मार्ग प्रशस्त किया है। इतना ही नहीं, कवि श्याम नारायण ने महाराणा प्रताप सिंह जैसे शूरवीरों और भारत माता के रखवालों को ’सन्यासी’ की संज्ञा दी है, स्त्रियों को आत्म सम्मान व अपने संतानों की रक्षा करना जीवन का सबसे बड़ा यथार्थ स्वीकार किया है।
संन्यासी रूपी अमर शहीदों के श्री चरणों में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आज हम गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, जिनके त्याग और बलिदान के कारण ही खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों के आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलती रही हैं। यह ठीक है कि सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया है। तत्पश्चात स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने क्रांतिकारियों तरह तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखकर मारा गया। तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।
पोर्ट ब्लेयर में स्थित सेल्युलर जेल की दर्द भरी दास्तां रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। सन 1857 से 1947 के मध्य की दिल दहला देने वाली सत्य कहानी सुनकर आपकी आंखों में आंसुओं के साथ ज्वाला भी निकलेगी, कि क्रूर अंग्रेजों इतना जुल्म–ओ–सितम भारतीयों पर किया है। क्रांतिकारियों को ’देश निकाला’ की सज़ा देकर कैदी बनाकर सेल्युलर जेल रखा जाता था। एक कैदी से दूसरे से बिलकुल मिल नहीं सकता था। जेल में हर क्रांतिकारी के लिए एक अलग छोटा सा ऐसा कमरा होता था, जिसमें न ठीक से पैर पसार सकते थे , न ही ठीक से खड़े हो सकते थे। जो क्रांतिकारी अंग्रेजों के खिलाफ बोलते थे, अंग्रेज सिपाही उनके कमर में भारी पत्थर बांधकर समुद्र में जिंदा ही फेंक देते थे। एक कमरा में एक ही क्रांतिकारी को रखा जाता था। हांथ पैर में बेड़ियां और अकेलापन भी कैदी के लिए सबसे भयावह होता था। शायद इसीलिए सेल्युलर जेल को ’काला पानी’ की संज्ञा दी गई थी।
स्वातन्त्र्य वीरों की यातनाओं को सुनकर दिल दहल जाता है। हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।
क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। इनकी यातनाओं की अत्यन्त करुण गाथा है। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया। हमारी आज की स्वतंत्रता का भव्य भवन अर्थात राष्ट्र मंदिर ऐसे ही क्रांतिकारी और बलिदानों की नींव पर टिका है। भारत के ये वीर सपूत हमारे प्रेरणापुंज हैं।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी। यदि हम प्रत्येक महापुरुष की अलग–अलग सम्पूर्ण जीवनी लिखने बैठेंगे तो, कागज, कलम और स्याही भले ही कम पड़ जायेगी, किंतु उनके त्याग व तपस्या की वीरगाथा की सत्यवाणी छोटी नहीं पड़ेगी। वैसे तो सत्तावनी क्रान्ति में अमरता को प्राप्त हुए भारत माता के लालों की शौर्य गाथा शब्दों में बयां करना, सूर्य को दीपक दिखाने के समान है।
अंग्रेजों के सामने नतमस्तक न होने पर जेल यात्रा करने वाले क्रान्तिकारी और ओजस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी ने राष्ट्र के शहीदों के लिए समर्पित कविता में ‘पुष्प की अभिलाषा’ व उसके अंतर्भावों का मार्मिकतापूर्ण वर्णन करते हुए लिखा है—
“मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।।”
प्रत्येक जीवनी बलिदानियों की देश के प्रति अटूट निष्ठा, जीवन संघर्ष और उनके कर्म पथ को चित्रित करती है। स्वाधीनता आन्दोलन में महिला और पुरुष दोनों ने त्याग और बलिदान दिया है, इसलिए दोनों को सम्मिलित किया गया है। हर जाति—धर्म के नामों को इसमें समाविष्ट किया गया है।
तिलका मांझी, बांके चमार, मातादीन भंगी, राजा राव राम बख्श सिंह, वीरा पासी, राणा बेनी माधव सिंह, ऊदा देवी पासी, बहादुर शाह ज़फ़र, माधौ सिंह, जोधा सिंह अटैया, उय्यलवाड़ा नरसिम्हा रेड्डी, टंट्या भील, रानी गिडालू, झलकारी बाई, बसावन सिंह, गंगू मेहतर, कुंवर सिंह, वीरपांड्या कट्टाबोम्मन, चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, रणवीरी वाल्मीकि, जैसे अनेक क्रांतिकारी वीर सपूत, जिनका नाम तक इतिहास के पन्नों में दबकर रह गया है, इन सब के विषय में सम्यक जानकारी देने का मेरा प्रयास है।
आज की परिस्थितियों और भौतिकवादी युग में जब महान राष्ट्रीय मूल्य और इतिहास में महापुरुषों के प्रति हमारी आस्था दरकने लगी है, तो ऐसे समय में स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के स्वर्णिम नाम वर्तमान और भविष्य की युवा पीढ़ी में सौम्य उत्तेजना पैदा करके उन्हें राष्ट्रभाव से ऊर्जस्वित करने का कार्य करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।
पुनः राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर इन पंक्तियों को याद करना मुझे समीचीन मालूम पड़ रहा है–
जला अस्थियां बारी-बारी,
फैलाई जिसने चिंगारी।
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन की मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।।
सत्तावनी क्रांति के ज्ञात–अज्ञात अमर शहीदों, क्रांतिकारियों, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के श्री चरणों में पुनः श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आने वाली पीढ़ी को महापुरुषों की शौर्य, पराक्रम, त्याग, वैभव आदि पढ़ने और उन वीरों को स्मरण करने के लिए बारंबार निवेदन करता हूं।
जय हिन्द वंदे मातरम्
डॉ अशोक कुमार,
असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ.प्र.)
मो० 9415951459