उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand| आशा शैली

उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand / आशा शैली

दुनिया जानती है कि इतिहास विजयी लोगों का होता है। पराजित सेनायें, राजा-महाराजा चाहे कितनी वीरता से ही क्यों न लड़े हों, उनका इतिहास ( History of Uttarakhand ) नहीं लिखा जाता, क्योंकि सत्ता विजेता के हाथ में होती है और वह धनबल से चाहे जो लिखवा सकता है। हाँ, यह बात अलग है कि पराजित वीरों की गाथायें जन-जन के हृदय में अवश्य रहती हैं और रहता है उन देशद्रोहियों के प्रति एक अव्यक्त आक्रोश जिनके कारण अन्यायी और अत्याचारी विजयश्री प्राप्त कर लेता है।

उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है

उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), भले ही उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है परन्तु यहाँ का इतिहास अति प्राचीन है। प्राचीनकाल से लेकर स्वतंन्त्रता प्राप्ति तक अनेक इतिहासकारों ने अपने-अपने तरीके से इसका उल्लेख किया है। डॉ. अजय सिंह रावत की ‘उत्तराखण्ड का समग्र राजनैतिक इतिहास (पाषाण युग से 1949 तक) नामक पुस्तक के आमुख में ‘दीपक रावत आई.ए.एस.’ ने लिखा है कि उत्तराखण्ड से ऐसे अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अतिप्राचीन काल से ही मानवीय गतिविधियों से सम्बद्ध रहा है।’1 वर्तमान में इसका निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात् भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया और सन् 2000 से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन 2000 में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था।

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पहले कहा जा चुका है कि उत्तराखण्ड भले ही नवनिर्मित राज्य हो परन्तु इसका इतिहास अति प्राचीन है। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। पांचवीं सदी ईस्वी पूर्व में पाणिनी ने इस क्षेत्र का उल्लेख ‘उत्तरपथे वाहृतम’ कहकर किया है। तैत्तरीय उपनिषद् में ‘नमो गंगा यमुनायोर्मध्ये ये वसानि, ते मे प्रसन्नात्मा चिरंजीवित वर्धयन्ति’ कह कर यहाँ के निवासियों के लिए मंगलकामनायें प्रकट की गई हैं। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है, इस राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान हैं। आइए, आज हम उत्तराखण्ड के इतिहास पर एक दृष्टि डालें। इसके लिए हमें उत्तराखण्ड को अधिक गहराई से जानना होगा।
देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर भी है। गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित तो किया गया है किन्तु विभिन्न विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून ही अस्थाई राजधानी बना हुआ है परन्तु राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है। आइये उत्तराखण्ड के इतिहास को खंगालते हैं।

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उत्तराखण्ड के इतिहास


इतिहास बताता है कि प्राचीन काल में उत्तराखण्ड पर अनेक जातियों ने शासन किया जिनमें से कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति कही जाती है। इसका प्रमाण हमें अशोक के कालसी अभिलेख से मिलता है। जौनसार बाबर तथा लेंसडाउन ;पौड़ीद्ध से मिली मुद्राओं से हमें उत्तराखण्ड में यौधेयों के शासन के भी प्रमाण मिलते हैं।
कुणिन्द प्रारंभ में मौर्यों के अधीन थे। कुणिन्द वंश के सबसे शक्तिशाली राजा अमोधभूति की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड के मैदानी भागां पर शकों ने अधिकार कर लिया।
शकों के पतन के बाद तराई वाले भागों में कुषाणों ने अधिकार कर लिया था। ‘बाडवाला यज्ञ वेदिका’ का निर्माण करने वाले शील वर्मन को कुछ विद्वान कुणिन्द व कुछ यौधेय मानते हैं। उत्तर महाभारतकाल, पाणिनी काल या बौद्धकाल में मैदानों से आने वाले लोगों के यहाँ बसने और स्थानीय लोगों से घुलमिल जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। ‘उत्तराखण्डःगढ़वाल की संस्कृति, इतिहास और लोक साहित्य’ पुस्तक, जिसे डॉ. शिव प्रसाद नैथानी ने लिखा है, की भूमिका में डॉ. नैथानी लिखते हैं, ‘उत्तराखण्ड गढ़वाल का प्राचीन साहित्य वैदिक काल के साहित्य के समान अलिखित, मौखिक और गेय-गान के रूप में होता था।’’
कर्तपुर राज्य के संस्थापक भी कुणिन्द ही थे, कर्तपुर में उस समय उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग शामिल था। कालान्तर में कर्तपुर के कुणिन्दों को पराजित कर नागों ने उत्तराखण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। नागों के बाद कन्नोज के मौखरियों ने उत्तराखण्ड पर शासन किया। मौखरी वंश का अंतिम शासक गृह्वर्मा था। हर्षवर्धन ने इसकी हत्या करके शासन को अपने हाथ में ले लिया। इसी हर्षवर्धन के शासन काल में चीनी यात्री व्हेनसांग उत्तराखण्ड भ्रमण पर आया था।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड पर अनेक छोटी-छोटी शक्तियों ने शासन किया। इसके पश्चात 700 ई. में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखण्ड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है।
प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजवंश की राजधानी जोशीमठ ;चमोलीद्ध के समीप कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी परन्तु बाद में राजधानी बैजनाथ (बागेश्वर) बनायी गई।
इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था किन्तु बसंतदेव के बाद के इस वंश के राजाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसके बाद खर्परदेव के शासन के बारे में जानकारी मिलती है। खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन का समकालीन था। इसके बाद इसका पुत्र कल्याण राजा बना। खर्परदेव वंश का अंतिम शासक त्रिभुवन राज था।
नालंदा अभिलेख में बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की जानकारी मिलती है। इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेय राजवंश में खर्परदेव वंश के स्थान पर राजा निम्बर के वंश की स्थापना हुई। निम्बर ने जागेश्वर में विमानों का निर्माण करवाया था।
निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना, उसने समस्त उत्तराखण्ड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। जागेश्वर में नवदुर्गा, महिषमर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज मंदिरों का निर्माण कराया।
इष्टगण के बाद उसका पुत्र ललित्शूर देव शासक बना तथा ललित्शूर देव के बाद उसका पुत्र भूदेव शासक बना इसने बौद्ध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। कार्तिकेयपुर राजवंश में सलोड़ादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने सलोड़ादित्य वंश की स्थापना की। कार्तिकेयपुर शासकों की राजभाषा संस्कृत तथा लोकभाषा पाली थी।
कार्तिकेयपुर शासनकाल में आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखण्ड आये। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया और सन 820 ई. में केदारनाथ में ही उन्होंने प्राणोत्सर्ग किया। कार्तिकेयपुर वंश के बाद कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन हुआ


कत्यूरी वंश


मध्यकाल में कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन था इसके बारे में जानकारी हमें स्थानीय लोकगाथाओं व जागर से मिलती है।
सन् 740 ई. से 1000 ई. तक गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरी वंश के तीन परिवारों का शासन रहा, तथा इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) थी। आसंतिदेव ने कत्यूरी राज्य में आसंतिदेव वंश की स्थापना की और अपनी राजधानी जोशीमठ से रणचुलाकोट में स्थापित की। कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था। यह एक अत्याचारी शासक था, जागरां में इसे वीरमदेव कहा गया है।
जियारानी की लोकगाथा के अनुसार 1398 में तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया और ब्रह्मदेव ने उसका सामना किया और इसी आक्रमण के बाद कत्यूरी वंश का अंत हो गया।
1191 में पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 1223 ई. में नेपाल के शासक काचल्देव ने कुमाऊं पर आक्रमण किया और कत्यूरी शासन को अपने अधिकार में ले लिया।


कुमाऊं का चन्द वंश


कुमाऊं में चन्द वंश का संस्थापक सोमचंद था जो 700ई. में गद्दी पर बैठा था। कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन हो गए। राज्य के विस्तृत हो जाने के कारण भीष्मचंद ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दी जो कल्याण चंद तृतीय के समय (1560) में बनकर पूर्ण हुआ। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा गरुड़ चन्द था।
प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा 1568 में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। चंद राजाओं के समय में इसे राजपुर कहा जाता था। ’राजपुर’ नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।
कल्याण चन्द चतुर्थ के समय में कुमाऊं पर रोहिल्लों का आक्रमण हुआ तथा प्रसिद्ध कवि ‘शिव’ ने कल्याण चंद्रौदयम की रचना की। चन्द शासन काल में ही कुमाऊं में ग्राम प्रधान की नियुक्ति तथा भूमि निर्धारण की प्रथा प्रारंभ हुई। चन्द राजाओं का राज्य चिन्ह गाय थी।
1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवाल बाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया, इसके सांथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया।


गढ़वाल का परमार (पंवार) राजवंश


ईस्वी सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा थे जिन्हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इनमे सबसे शक्तिशाली चांदपुर का राजा भानुप्रताप था, 887 ई. में धार (गुजरात) का शासक कनकपाल तीर्थाटन पर आया। भानुप्रताप ने इसका स्वागत किया और अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर दिया और अपना राज्य भी उन्हें दे दिया।
कनकपाल द्वारा 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखी। ईस्वी सन् 888 से 1949 ई. तक परमार वंश में कुल 60 राजा हुए।
इस वंश के राजा प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजाओं के सामंत रहे लेकिन बाद में स्वतंत्र राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गए। इस वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़पतियों को जीतकर गढ़वाल भूमि का एकीकरण किया। इसने अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ को पहले देवलगढ़ फिर 1517 ई. में श्रीनगर में स्थापित किया। परमार शासकों को लोदी वंश के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि से नवाजा, सर्वप्रथम बलभद्र शाह ने अपने नाम के आगे शाह जोड़ा। परमार राजा पृथ्वीपति शाह ने मुग़ल शहजादा दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया था।
1636 ई. में मुग़ल सेनापति नवाजत खां ने दून-घाटी पर हमला कर दिया। उस समय की गढ़वाल राज्य की संरक्षित महारानी कर्णावती ने अपनी वीरता से मुग़ल सैनिको को पकड़वाकर उनके नाक कटवा दिए। इसी घटना के बाद महारानी कर्णावती को ‘नाककटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।


1790 ई. में गोरखाओं ने कुमाऊं के चन्दां को पराजित कर, 1791 ई. में गढ़वाल पर भी आक्रमण किया लेकिन पराजित हो गए। गढ़वाल के राजा ने गोरखाओं पर संधि के तहत 25000 रुपये का वार्षिक कर लगाया और वचन लिया कि अब ये गढ़वाल पर आक्रमण नहीं करेंगे, लेकिन 1803 ई. में अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गौरखाओं ने भूकम्प से ग्रस्त गढ़वाल पर आक्रमण कर उनके काफी भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 27 अप्रैल 1815 को कर्नल गार्डनर तथा गोरखा शासक बमशाह के बीच हुई संधि के तहत कुमाऊं की सत्ता अंग्रेजो को सौपी दी। कुमाऊं व गढ़वाल में गोरखाओं का शासन काल क्रमशः 25 और 10.5 वर्षों तक रहा जो बहुत ही अत्याचार पूर्ण था। इस अत्याचारी शासन को गोरख्याली कहा जाता है। धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्व बढ़ता गया और इन्होनें लगभग 12 वर्षों तक राज किया। इनका राज्घ्य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्य पुनः छीन लिया।

14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में गोरखाओं से हुए युद्ध में प्रद्युमन्न शाह की मौत हो गई। इस प्रकार सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊं में नेपाली गोरखाओं का अधिकार हो गया।
प्रद्युमन्न शाह के एक पुत्र कुंवर प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बंदी बनाकर काठमांडू भेज दिया, जबकि दूसरे पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रहकर स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहे और उनकी मांग पर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने अक्तूबर 1814 में गोरखा के विरुद्ध अंग्रेज सेना भेजी और 1815 को गढ़वाल को स्वतंत्र कराया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा।
सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को अपनी राजधानी श्रीनगर से टिहरी गढ़वाल स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को 1 अगस्त 1949 को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।


ब्रिटिश शासन


अप्रैल 1815 तक कुमाऊॅ पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने टिहरी को छोड़ कर अन्य सभी क्षेत्रों को नॉन रेगुलेशन प्रांत बनाकर उत्तर पूर्वी प्रान्त का भाग बना दिया और इस क्षेत्र का प्रथम कमिश्नर कर्नल गार्डनर को नियुक्त किया। कुछ समय बाद कुमाऊं जनपद का गठन किया गया और देहरादून को 1817 में सहारनपुर जनपद में शामिल किया गया। 1840 में ब्रिटिश गढ़वाल के मुख्यालय को श्रीनगर से हटाकर पौढ़ी लाया गया व पौढ़ी गढ़वाल नामक नये जनपद का गठन किया। 1854 में कुमाऊं मंडल का मुख्यालय नैनीताल बनाया गया। 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा व नैनीताल नामक दो जिलो में बाँट दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुमाऊं में केवल 3 ही ज़िले थे। अल्मोड़ा, नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल। टिहरी गढ़वाल क्षेत्र एक रियासत के रूप में था। 1891 में उत्तराखंड से नॉन रेगुलेशन प्रान्त सिस्टम को समाप्त कर दिया गया। 1902 में सयुंक्त प्रान्त आगरा एवं अवध का गठन हुआ और उत्तराखंड को इसमें सामिल कर दिया गया। 1904 में नैनीताल गजेटियर में उत्तराखंड को हिल स्टेट का नाम दिया गया।


उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन


मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।