वर्तमान स्थिति में लव मैरिज बेहतर क्यों और कैसे?

शादी का मौसम चल रहा है , सभी अपने सगे सबंधी के शादी समारोह के लिए शॉपिंग करते हुए आपको बाज़ारों में दिख जायेंगे। कुछ दिनों पहले अख़बार में मैंने पढ़ा कि इस वर्ष शादी समारोह में पांच लाख करोड़ का रेवेन्यू आएगा जो भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा। भारत में दो चीजे ऐसी है जिन पर पैसा लगाओ कम ही है, एक घर बनाना दूसरा शादी , हमने भारत में शादी के बदलते कल्चर को देखा है पहले बाराती पांच छः दिन रूकती थी। अब कुछ घंटो में बाराती चल देते है शादी में सगे- सबंधी कुछ समय पहले रुकते थे , आपस में मेल- जोल बढ़ता था। साथ में भोजन की व्यवस्था होती थी। हलवाई मिठाई बनाता था , बड़े बुजर्ग अपने सामने साफ सफाई से पूरा खाना पीना तैयार करते थे। अब वो दौर चला गया , अब होटल ,रेस्टोरेंट ने उसकी जगह ले ली है , वो खाने का स्वाद भी फीका सा लगता है , अब हम अपने टॉपिक पर आते है कि ये संस्मरण मैंने अपने अनुभवों को देखते हुए लिखा है , जो वर्तमान स्थिति से लिया गया है।

1 . लव मैरिज से दहेज प्रथा पर लगेगा लगाम

आज फिर एक बेटी दहेज़ के कारण आत्महत्या को मजबूर हो गयी , सुबह ही अख़बार में मैंने पढ़ा। सभी पढ़े लिखे लोग थे , पढ़े लिखे लोगो में डॉक्टर उनका पेशा था , जिस देश में नवरात्रि में देवी की पूजा होती है , उसी देश में घर आने वाली देवी को ख़रीदा जाता है , ये प्रथा को पढ़े लिखे लोग ही बढ़ावा दे रहे है , मैंने कुछ समय एक वेबसाइट पढ़ी थी जिस पर आईएएस , बैंकिंग, रेलवे सरकारी नौकरी वालों के दहेज़ के रेट लगे थे , जिस पर बोली लगती है। अब जब प्रेम विवाह की बात करे तो इस विवाह में प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे को जानते है ,इस परिस्थिति में मंदिर , कोर्ट में विवाह को करते हुये देखा गया है। बाद में दोनों पक्ष रिसेप्शन पार्टी भी दे देते है , जिससे दोनों पक्ष खुश रहते है।

2 . अरेंज मैरिज के दौरान बढ़ते खर्चे

इसी साल में अपने रिश्तेदार की शादी में गया , इस दौरान पांच से छः फंक्शन हुए लड़की के पिताजी ने इस शादी में एक करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च किये , पिता ने अपनी बेटी के लिए जो वर चुना था , वो सरकारी अधिकारी था फिर भी उसने दहेज़ लिया , ये देखा गया अरेंज मैरिज में लोग ज्यादा खर्चा करते है ये आंकड़े बोल रहे है आने वाले चार महीने में चार लाख करोड़ अर्थव्यवस्था में शादी समारोह से आएगा करीब 38 लाख शादी भारत में होगी , भारत में 75 % लोग अरेंज मैरिज करना पसंद करते है ये आंकड़ा है ये बदल रहा है। वही लव मैरिज में ख़र्चे कम होते है ये आपने महसूस किया होगा।

3 . लिव इन रिलेशनशिप बनाम लव मैरिज

कुछ समय पहले लिव इन रिलेशनशिप की एक घटना ने पूरे भारत को सोचने पर मजबूर कर दिया है , ये भारत वर्ष में एक रोग की तरह सामने आ रहा है , जिसमे हमारी युवा पीढ़ी को शिकार बनाया है। जो डेवलप देश है वहां विवाह तो नाम मात्र है वहां इस तरह के रिवाजो के चलते युवा पिता नहीं बनाना चाह रहे है , जिसके चलते पहले रिश्तो में ब्रेकअप और फिर तलाक होता है , इस लिव इन रिलेशनशिप के दौरान पुत्र या पुत्री की प्राप्ति होती है तो नया शब्द आया है सिंगल पेरेंट्स जिसमे माँ को ही बच्चे की परवरिश करनी पड़ती है, इस दौरान समाज के ताने भी सुनने पड़ते है। इन्ही रिवाजो के चलते विकसित देश में बुजुर्गो की संख्या में बढ़ोतरी देखी गयी है। इसलिए कहा जा सकता है भारत में आप आपसी सहमति से विवाह करे या प्रेम विवाह करे , दोनों को स्थान है पर लिव इन रिलेशनशिप समाज का अभिशाप है , ये नैतिक दृष्टि से बिलकुल सनातन संस्कृति के विरुद्ध है।

4 . अंतिम समय में निर्णय सही नहीं होते ये कोई बॉलीवुड मूवी नहीं है

आपने हिंदी मूवी देखी होगी वहां प्रेम विवाह पर पूरी मूवी केंद्रित होती है , लेकिन जब प्रेमी और प्रेमिका एक दूसरे को चुनते है तो वहां पिता और माँ को विलन दिखा दिया जाता है। आखिर में होता है शादी के दौरान प्रेमिका जहर खा लेती है या प्रेमी के साथ भाग जाती है। पिछले दो दशकों में गांव में रोज ही ये घटनाये देखने को मिल रही है शहरों में 1980 के बाद प्रेम विवाह प्रांरभ हो चुके थे ,यहाँ हम हाल ही एक केस स्टडी से समझते है आजकल यूट्यूब पर मनोज दे जो फेमस यूटूबर है मनोज ने प्रेम विवाह किया दोनों यूटूबर थे , भाग के कलकत्ता में शादी की , फिर आ कर परिवार से सॉरी बोला , दोनों परिवार राजी , इसी घटना से एक कहावत याद आती है मिया बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। प्रेम विवाह में माँ बाप को बता देना ठीक होता है , अंतिम समय में जब बताया जाता है माँ बाप की सामाजिक प्रतिष्ठा ख़राब होती है साथ ही माँ बाप की जमा पूंजी खर्च हो जाती है। 2023 में आज की पीढ़ी तो बता देती है , जिस कारण प्रेम विवाह सफल भी हो रहे है।

5 . परिवार का सपोर्ट न करना प्रेम विवाह की सबसे कमजोर कड़ी है

जब प्रेम विवाह होता है ज्यादा देखा गया है भाग कर शादी होती है , जिस कारण माता पिता , सगे संबंधी नाता तोड़ लेते है। इस दौरान फाइनेंसियल सपोर्ट ख़त्म हो जाता है। प्रेमी और प्रेमिका को जॉब या बिज़नेस करना पड़ता है। साथ ही समाज से सुनना पड़ता है , लेकिन ये नजरिया भी बदल रहा है अगर आप माँ या पिता में से एक को इस प्रेम के बारे में बताये तो फाइनेंसियल सपोर्ट होता है। प्रेम विवाह के दौरान सपोर्ट लेकर चले नहीं तो आने वाली समस्याएं आपके रिश्ते को कमजोर कर सकती है।

6 . प्रेम विवाह किया है कोई पाप नहीं

प्रेम विवाह में प्रेम ही सबसे बड़ी चीज है , प्रेम के बिना रिश्ता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। प्रेम विवाह तो भगवान श्री कृष्णा ने भी किया , पर आज की पीढ़ी सुंदरता पक्ष देखकर प्रेम करती है ये सच्चा प्रेम नहीं है , प्रेम को हम गोपियों से सीख़ सकते है , ये ही पक्ष प्रेम को निश्छल बनाता है। प्रेम विवाह करिये लेकिन गोपियों जैसा त्याग भी अपने चरित्र में अपनाइए।

आशा है कि ये लेख आपको पसंद आया होगा ,प्रस्तुत लेख मैंने अपने संस्मरणों पर तैयार किया। ये लेखक की निजी राय है , इसका कोई उद्देश्य नहीं है पाठको को आहात करना है।

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खुशबू | संस्मरण | रत्ना भदौरिया

खुशबू | संस्मरण | रत्ना भदौरिया

खुशबू आज भी आयी थी लेकिन आज की खुशबू में हवा ज्यादा थी इसलिए नाक के अंदर प्रवेश करते- करते गुम हो गयी । लेकिन मेरे दिमाग में पुरानी यादों को ताजा कर गयी थी। मेरे हिसाब से यादें पुरानी नहीं होती बस हम नयी यादों में इतना मशगूल हो जाते हैं कि पहले की यादें पुरानी लगने लगती हैं। हां तो अब उस याद पर आते हैं आज से लगभग दस पहले जब हम ज़िंदगी की आपाधापी से कोसों दूर खेलकूद की आपाधापी और त्योहार आते ही उसके उत्साह में व्यस्त रहते। ना कोई थकान होती ना कोई चिंता। आज तो खाने के हर कौर में यही चिंता रहती है की कहीं शुगर न बढ़ जाए या ब्लड प्रेशर बढ़ गया तो क्या होगा?अरे कुछ लोग कहते हैं कि ज्यादा तेल खाने से हार्ट की समस्या आ जाती है।

सब छोड़ो ये बात खूब याद रखो की वजन बढ़ जायेगा इसलिए लाइट खाना खाओ । मुझे ये बात थोड़ी कम जमती और त्योहार आते ही मेरा दिमाग घर में बन रहे पूड़ी,कचौड़ी, पुलाव ,पनीर , मिठाई और होली पर तेल में भुने पापड़ों की तो क्या बात ?जिसे आज के दौर में वजन ना बढ़ाने के लिए भूनकर खाया जाता है मैं तो तेल पापड़ के दौर में पतली थी भुने पापड़ों के दौर में खूब मोटी हो रही हूं पता नहीं क्यों? ये सवाल भी बराबर हिलोरें मारता रहता है। होली और नागपंचमी के त्योहार में हमारे यहां गुझिया बनाने का बड़ा रिवाज है। जोकि हर तबके के लोगों के यहां बनती है चाहे गरीब हो या अमीर।

अब जब अपनी यादों को ताजा कर ही हूं तो आप सबको एक मजेदार बात बताती हूं जब मैं करीब सात -आठ साल की थी तो होली के त्योहार में बनी गुझिया जिन्हें मांगने पर मम्मी एक दे देती और कहती बाद में खाना सब एक साथ नहीं। एक से भला होता नहीं,दूसरी तुरन्त मांगने पर मिलती नहीं थी। एक दिन मैंने और मेरे भाई बहन तीनों ने ज्यादा खाने की योजना बनाई। मम्मी की गुझिया अलमारी में रखी थी जोकि मेरे से ऊंचाई में बड़ी थी। तीनों मेज को सरका कर लें गये आलमारी तक और खूब गुझिया खायी कुछ पाकेट में भी रख ली।

दुर्भाग्य मम्मी खडी -खडी सब देख रही थी। कार्यक्रम खत्म होते ही सबसे पहले मुझे मार पड़ी इन शब्दों के साथ की चोरी घर से सीखते हैं खाना था तो बताया क्यों नहीं ? मम्मी के पिटाई के बाद धीरे-धीरे दिन बीतते गए और मैं नौकरी के सिलसिले में घर से बाहर आ गयी। अब तो अक्सर त्योहार पर बाहर ही रहती हूं। मम्मी फोन पर ही बता देती हैं क्या- क्या बनाया और मैं सुनकर ही पकवानों का आनंद लें लेती हूं। लेकिन गुझिया की बात सुनते ही बचपन की वो पिटाई जरुर याद आ जाती है।

मम्मी ने कल भी बता दिया था कि नागपंचमी का त्योहार है आज पकवान बता दिये मैं फोन से ही आनंद लें रही हूं। जो घर पर हैं वो सौभाग्यशाली हैं की उनकी खुश्बू बराबर नाक में जा रही होगी और देर तक थमी रहेगी । लेकिन जो मेरे जैसे घर के बाहर हैं उनको पकवानों की खुशबु आयी होगी लेकिन चाहे कुछ छड़ के लिए ही गुम हुई हो लेकिन हुई जरुर होगी। मैं तो इसी में खुश हूं कि ख़ुशबू आयी तो सही आप भी——— शुक्रिया।

रत्ना भदौरिया

संस्मरण(मैं और मेरी मां) / रत्ना सिंह

संस्मरण(मैं और मेरी मां) जब मैं करीब पांच साल की थी तब पापा ने प्राथमिक विद्यालय में मेरा दाखिला करवा दिया,जो मेरे घर के पीछे था।मेरे पास कोई काम नहीं होता था ,भला पांच साल की बच्ची क्या काम करेगी । लेकिन सुबह उठकर खेल में लगे रहने का काम तो कर ही सकती है। मैं वो सब कुछ नहीं बस सुबह उठी‌ मुंह धोया और कपड़े पहने , बैग लिया हर दो मिनट में मम्मी अब जाऊं, मम्मी अब जाऊं कहती रहती ।

मुझे वो दिन खूब याद है जब मम्मी ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा कि सुबह से कुछ नहीं बस उठी और परेशान करना शुरू कर दिया जब समय हो‌गा तो बता दूंगी । चल बैठ इधर , कुछ देर बैठी फिर मम्मी जाऊं, मम्मी जाऊं पता नहीं क्यों मुझे ये लगता कहीं देर न हो जाये। देर तो कभी नहीं होती लेकिन मम्मी परेशान होकर डांट देती तो कभी पिटायी भी कर देती।

एक दिलचस्प बात यह है कि मैं बेहद जिद्द लड़की घर में जो चीज नहीं होती वही चाहिए होती, तब भी मम्मी की डांट पड़ती।एक दिन मैंने मम्मी को कहा कि देखना बड़ी हो जाऊंगी तो तुमसे बहुत दूर जाकर नौकरी कर लूंगी फिर आऊंगी नहीं तब तुम रोते रहना । मम्मी उस समय गुस्से में कह देती कि ठीक है चली जाना कमसे कम घर में थोड़ी शांति रहेगी। कुछ छड़ बाद अपनी नम आंखों से गले लगाती और कहती बेटा जिद्द नहीं करते तू तो अच्छी बिटिया है मेरी।

एक घटना और है जो मुझे बेहद याद आती है जब मैंने प्राथमिक विद्यालय की पढ़ाई खत्म करके, आगे की पढ़ाई के लिए गांव से करीब पांच किलोमीटर की दूरी पर एक स्कूल में दाखिला लिया तो कभी-कभी मम्मी डांटती थी तो शाम को स्कूल छुट्टी के बाद रास्ते में बैठ जाती और देर से घर आती । तब तक मम्मी खाना नहीं खाती थी । मेरे घर पहुंचने पर मेरे साथ मम्मी खाना खाती और मुझे समझाती ।

धीरे -धीरे पढ़ाई पूरी कर मैंने नौकरी के लिए दिल्ली की ओर चल पड़ी। उस दिन मम्मी और मैं एक दूसरे को पकड़कर घंटों रोये थे लेकिन मम्मी ने मुझे हंसाने के लिए कहा पहले तो तू कहती थी ,दूर चली जाऊंगी फिर आज —-। सच में आज जब नौकरी से शाम को अपने हाथ से खाना बनाती हूं तब खाने के लिए मिलता है, कभी कभी मन नहीं होता तो भूखे सो जाती हूं । कभी कभी छः महीने बीत जाते हैं मम्मी के हाथ का खाना नहीं मिलता। मम्मी के साथ बहुत सी यादें हैं जो मैं लिखते हुए भी नहीं लिख पा रही हूं। सच मम्मी आपके प्यार और ममता से कभी कोई उऋण नहीं हो सकता। मैं तो कभी भी नहीं। आपकी प्यारी बिटिया रत्ना हैप्पी मदर्स डे लव यू मां

साहित्य और चिकित्सा क्षेत्र का अनमोल रत्न : भगिनी रत्ना सिंह

गाँव के नाम से तो लगता है कि नदी, झील, पहाड़, पर्वत, झरनें आदि की अति विशिष्टता हिमालयी प्राकृति की गोद में रची बसी होगी, क्योंकि नाम ही ऐसा है- पहाड़पुर।
वास्तविकता को देखा जाय, तो इक्कीसवीं सदी में भी उस गाँव की समतल भूमि पर सामान्य यातायात की व्यवस्था व सुविधा नहीं है। व्यक्तिगत संसाधन ही आवागमन का सहारा हैं। सरकारी सुविधाओं से तो पहाड़पुर गाँव का दूर-दूर तक नाता नहीं है।

न जाने कितनी निरीह लड़कियों की पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने खयालात के लोगों की मानसिकता वैसे भी लड़कियों की पढ़ाई एवं रोजगार को लेकर सकारात्मक नहीं रही है।
घर की दहलीज से कदम निकाल कर जब रत्ना ने गाँव की सरहदें लाँघकर लगभग 1 मील पैदल चलकर राष्ट्रीय राजमार्ग 24B पर आती थी, तब ऑटो टैक्सी का यातायात के रूप में उपयोग करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहर की ओर रुख किया , तो न जाने गाँव वालों के कितने हास्य-व्यंग्य सहने पड़े। तत्कालीन परिस्थितियों में निश्चित रूप से रत्ना सिंह के अंदर संघर्ष वाहिनी के रूप में सिंह वाहिनी विराजमान हो गयी होंगी, क्योंकि उनके माता-पिता का सहयोग हर कदम पर मिलता रहा और आज भी मिल रहा है। उनका नाम रत्ना सिंह किसी रत्न से कम नहीं है।


डॉ० संतलाल, भाषा सलाहकार, पर्यावरण सचेतक रायबरेली कई बार मुझसे वरिष्ठ साहित्यकारों की चर्चा करते समय बताया करते हैं कि रत्ना सिंह कम उम्र में ही मन्नू भंडारी जी वरिष्ठ कथा लेखिका के सानिध्य में 4 वर्ष रही हैं। आदरणीया मन्नू भंडारी और रत्ना सिंह का साथ में कुछ छायाचित्र देखकर ऐसा लगता है मानो, दोनों माँ बेटी हैं। परन्तु दुर्भाग्य से मन्नू जी इस नश्वर संसार से विदा होकर अनंत में लीन हो गयी हैं।


रत्ना सिंह सशक्त लघुकथा लेखिका बन चुकी हैं। हो भी क्यों न..। अंतरराष्ट्रीय लेखिकाओं के साथ रहने वाला कोई भी आम मानव नहीं हो सकता। हर स्तर, हर कदम पर साहित्य की कल्पनाशीलता बनाने व लिखने की अद्भुत शक्ति माँ वीणावादिनी ने रत्ना सिंह को दी है।


एक दिन रत्ना द्वारा लिखित लघुकथा hindirachnakar.com के माध्यम से प्रकाशित हुई थी, जिसे मैंने फेसबुक पर पढ़कर कुछ पल के लिए आत्ममंथन और आत्मचिंतन किया। मुझ बेसबरे से रहा न गया, उसी लघुकथा को पुनः मैंने पढ़ा। उसके बाद मैंने टिप्पणी लिखा कि बहन रत्ना सिंह, उम्र में भले ही कम हो, किंतु आपका लेखन और शब्द चयन देखकर मुझे लगा रहा है, वास्तव में आप मन्नू भंडारी, ममता कालिया जैसी विदुषी साहित्यकारों के पदचिन्हों पर चल रही हो। बहुत आगे तक जाओगी। उनका भी उत्तर उस पावन रिश्तों की कड़ी को मजबूत करते हुए आया। उस दिन से दो अजनबियों को नया रिश्ता मिल गया। जो अखिल विश्व का सबसे पावन रिश्ता है- भइया बहन।


प्रकृति परिवर्तन कहें या दूषित खानपान या अनियमित दिनचर्या। मैं बीमार हो गया। बुखार भी थर्मामीटर में 102 ℃, तब रत्ना सिंह (स्टॉफ नर्स) अपोलो अस्पताल इंद्रप्रस्थ, नई दिल्ली से ही मोबाइल द्वारा मुझे औषधियों और कई जाँचों के विषय मे व्हाट्सएप के माध्यम से बताती रही। कुछ दिनों में ही मैं स्वस्थ हो गया। मुझे ऐसा लग रहा था कि वो सिर्फ नर्स ही नहीं, मानो वरिष्ठ चिकित्सक भी हैं।

बातों-बातों में रत्ना ने बताया कि नौकरी के साथ मेडिकल नर्सिंग की पढ़ाई कर रही हूँ, भविष्य में अपने विभाग से अनुमति लेकर पीएचडी भी करूँगी। तब एक पल के लिए मेरे मन मस्तिष्क में वो ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी लडक़ी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के चिकित्सालय में नौकरी, निरन्तर शिक्षा ग्रहण करना, साथ ही ये उच्च स्तरीय विचारधारा। गर्व के साथ कह सकता हूँ कि आप महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत और पथप्रदर्शक के रूप में मील का पत्थर हो।


डॉ० संतलाल गुरुदेव ने कई बार मुझे बताया कि हंस पत्रिका में रत्ना के कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इससे ही सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि हंस पत्रिका में छोटे मोटे साहित्यकारों के लेख प्रकाशित नहीं होते हैं।


एक दिवस मैंने कुछ चिकित्सीय कार्य हेतु रत्ना सिंह को कॉल लगाया, तो एक पल के लिए मुझे लगा कि ये 10-11 वर्षीय लड़की की पतली सी प्यारी आवाज क्यों आ रही है। शायद रांग नम्बर लग गया। कुछ देर तो अचंभित रहा, उसके बाद वार्ता करते-करते मेरी समझ मे आया कि पक्का ये ही रत्ना सिंह हैं। अब मैं तो खुले मंच से कह सकता हूँ कि रत्ना, आवाज से नन्हीं बालिका, उम्र में युवा उत्साह, अनुभवों व विचारों में अति वरिष्ठता की श्रेणी में स्थापित हो चुकी हैं।


अब तक उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई थी। होती भी क्यों ? लगभग 600 किलोमीटर का जो फाँसला। पर कहावत है कि जहाँ चाह, वहाँ राह…
परम् पिता परमेश्वर की कृपा और सन्तलाल जी के आशीर्वाद से उनसे मुलाकात साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान हो गई। प्रथम मुलाकात में मुझे लग रहा है कि रत्ना सिंह के लिए सुंदर, सुशील, शालीन, धीर, वीर, गम्भीर, चिकित्सा और साहित्य पथ में परिपक्व … जैसे विशेषण भी कम पड़ जाएँगे। साहित्य तो सागर से भी गहरा है।
ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप अनेक बाधाओं को पार करते हुए निरन्तर प्रगतिपथ पर बढ़ती रहो। आपका भविष्य उज्ज्वल रहे, दीर्घायु हों। चिकित्सा विभाग में भी रहकर समाजसेवा करती रहो।
हर कदम पर आपके साथ, आपका भ्राता…

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

मेरी संसद (राष्ट्र मंदिर) यात्रा – अशोक कुमार गौतम | संस्मरण | यात्रावृत्तांत

मेरी संसद (राष्ट्र मंदिर) यात्रा – अशोक कुमार गौतम | संस्मरण | यात्रावृत्तांत

यात्राओं का सुखदायक आनंद हर किसी को भावविभोर कर देता है और रोचक यात्राएँ तो आजीवन मन में रची-बसी रहती हैं। भ्रमणशील यात्राओं से अनेक देशों, राज्यों, धर्मों, रीति-रिवाजों , सभ्यताओं, संस्कृतियों आदि की महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती हैं साथ ही यात्राएँ भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक आर्थिक रूप से अति महत्वपूर्ण होती हैं। अखण्ड भारत में एकता का संचार होने लगता है। जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण.. स्वच्छंद प्रवृत्तियों से लबरेज़, बनने बिगड़ने का समय, हरफनमौला जीवन विद्यार्थी की किशोरावस्था होती है। मैं युवराज दत्त स्नातकोत्तर महाविद्यालय लखीमपुर खीरी सत्र 2004-05 में शिक्षक-शिक्षा विभाग का विद्यार्थी था। मेरे गुरु प्रोफ़ेसर कर्ण सिंह कुशवाह, प्रोफेसर प्रह्लाद राम वर्मा, डॉ० विशाल द्विवेदी, डॉ० सत्यनाम थे। जिनका आशीर्वाद और सानिध्य हर कदम पर हमें मिलता रहता था। विभागाध्यक्ष डॉक्टर कर्ण सिंह कुशवाह से गुरु-शिष्य इतना गहरा सम्बन्ध हो गया था कि अक्सर शाम की चाय उन्हीं के यहाँ होती थी।

एक दिन हम कई सहपाठी गुरु जी के घर गए, तो उन्होंने शैक्षणिक भ्रमण का महत्व और पाठ्यक्रम से सम्बंध के विषय में बताना शुरू किया, मानो क्लास उनके घर मे ही चालू हो गयी। अंत मे निष्कर्ष निकाला गया कि यात्रा का उद्देश्य राजनीतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह पूर्ण हो सके, क्योंकि धर्म और राजनीति का गहरा सम्बन्ध सनातन काल से चला आ रहा है। अगले दिन क्लास में कर्ण सिंह गुरु जी ने शैक्षिक भ्रमण की बात रखी। सभी सहपाठियों ने तालियों की गड़गड़ाहट से सहमति दी। उसी क्षण गोला गोकर्णनाथ, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली, खुर्जा, आगरा, मथुरा आदि जाने की रूपरेखा बन गयी। हम सभी ने अनुमानित धनराशि आपस में एकत्रित करनी शुरू की। लगभग 5 दिन में सभी साथियों की धनराशि गुरु जी के पास जमा हो गयी। मन में उत्साह बार बार हिंलोरे ले रहा था। कभी-कभी हम सब सशंकित भी हो जाते थे, क्योंकि डॉ० कर्ण सिंह जी कड़क थे। सभी सहपाठियों के लिए लग्ज़री बस, एवं गुरुजनों के लिए बुलेरो गाड़ी बुक की गई। हम लोगों ने दिनांक 19 फरवरी सन 2005, दिन शनिवार को सर्वप्रथम लखीमपुर जनपद में ही छोटी काशी नाम से विश्वविख्यात गोला गोकरन नाथ में भगवान शिव के दर्शन किया।

इस पावन भूमि का नाम व मंदिर की स्थापना के पीछे भगवान शिव और शिवभक्त लंकापति रावण की भक्ति व वरदान से जोड़कर देखा जाता है। वैसे तो लखीमपुर खीरी के ओयल कस्बा में बना मेढ़क मंदिर, देवकली में अद्भुत प्राकृतिक छटाओं के बीच बना शिव मंदिर, दुधवा नेशनल पार्क, शारदा बैराज, मैलानी का कई किलोमीटर तक फैला सागौन का जंगल आदि देखकर मन प्रफुल्लित हो जाता है।


गाज़ियाबाद के होटल में रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन 20 फरवरी 2022 रविवार को सुबह वहीं पर कैलाश पर्वत की आकृति पर बना मोहन मंदिर का दर्शन करने के उपरांत दिल्ली की ओर कूच कर चुके थे। दिल्ली की चकाचौंध व भागमभाग करती जिंदगी, मेट्रो ट्रेन की सीटी के साथ सरपट स्पीड, श्यामलता लिए हुए यमुना की अविरल धारा, तो यमुना के दूसरी छोर पर मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा निर्मित लालकिला के कई गुम्मद, फौलादी दीवारें आदि… सब दृश्य नेत्रों के सामने था। सभी का मन भारत की राजधानी और भारत का दिल दिल्ली की ओर खिंचा चला जा रहा था।

कुछ साथी बस की खिड़कियों से मेट्रो ट्रेन को अपलक देख रहे थे। हलांकि मेट्रो ट्रेन में मैं काफी पहले सफर कर चुका था। इसलिए मैं मेट्रो की टिकट, प्लेटफॉर्म पर प्रवेश-निकास, सामान व बैग की स्कैनिंग जाँच, स्वचालित सीढ़ियों आदि की जानकारी सभी को साझा कर रहा था। इस तरह 20 फरवरी रविवार व 21 फरवरी सोमवार 2005 को अमर ज्योति, इंडिया गेट, राज घाट, किसान घाट, कुतुबमीनार, लालकिला, लोटस टेम्पल आदि स्थानों की बारीकियों के साथ जानकारी एकत्रित करते हुए भ्रमण किया। सोमवार को राष्ट्रपति भवन जनता के लिए बंद रहता है, इसलिए 21 फरवरी को हम लोग राष्ट्रपति भवन (रायसीना हिल) नहीं देख पाए थे।


दिनाँक 22 फरवरी सन 2005, दिन मंगलवार ! गाज़ियाबाद की उसी होटल निकलने के बाद खाते-पीते, मौज-मस्ती के साथ सफर करते-करते भारत के हृदय स्थल संसद भवन के समीप पहुँच चुके थे। इस घड़ी का बेसब्री से सभी को इंतजार था। काफी दूर से ही संसद भवन की भव्यता सबको अपनी ओर प्रेमडोर से खींच रही थी। देश के कर्णधारों/जनप्रतिनिधियों का भारत के मतदाताओं द्वारा निर्वाचन, सुख सुविधाओं आदि के विषय में सोंचकर, अनेकों प्रश्न हमारे मन मे उठ रहे थे।


संसद के आसपास काफी सन्नाटा पसरा था, यदि आवाजें आती थी तो सिर्फ बूटों के कदम ताल की..।


लगभग 2 किलोमीटर पैदल चलने के बाद आ पहुंचे थे संसद भवन के मुख्य द्वार। वहाँ दूर से ही दिख रहे थे वॉचिंग टॉवर पर खड़े अत्याधुनिक आग्नेयास्त्रों से लैश भारत माँ के अनेक जाबांज़ वीर सपूत। बाउंड्री के चारों तरफ सुरक्षा व विद्युत करंट दौड़ाने के लिए मोटे तार लगे थे। सुरक्षा से जुड़े सीनियर अधिकारियों ने बाहर से ही पूँछतांछ करके संतुष्ट होने के बाद, हमारा सारा सामान, साथियों के कुछ कैमरे, व गिनती के दो चार मोबाइल आदि क्लार्क रूम में सुरक्षित व निःशुल्क रखवा कर स्वागत कक्ष में बैठने का आदेश दिया। अंदर से हरी झंडी मिलने के बाद अधिकारियों ने हम सभी को लंबी कतार बनाने को कहा। गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वहन करते हुए सबसे आगे समस्त गुरुजन, उनके पीछे हम लोग। हम सभी की विभिन्न प्रकार से सघन जांच करने के बाद एक-एक कर संसद परिसर में प्रवेश कराया गया।


गोलाकार भव्य इमारत, मोटे, मजबूत, गोल, चिकने खंभे, जगह-जगह नक्काशी सबका मन मोह रही थी। यह सब देख हम ईश्वर को धन्यवाद दे रहे थे कि जिस पावन स्थल पर बड़े-बड़े उद्योगपति नहीं पहुँच पाते, वहाँ हम सब लोग विद्यार्थी जीवन में ही पहुँचकर एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे। सैकड़ों की संख्या में लाल और नीली फ्लेसर बत्ती लगी गाड़ियाँ खड़ी थी। हम सभी सहपाठियों, और गुरुजनों का दल लगभग 62 सदस्यीय था, जिनकी सुरक्षा और पथप्रदर्शन के लिए संबंधित अधिकारियों व सैनिकों का 6 सदस्यीय साथ चल रहा था। मुख्य परिसर में प्रवेश से पहले अधिकारियों ने हम सबको कुछ दिशा निर्देश दिया। तत्पश्चात सर्वप्रथम संसद के उस स्थान को दिखाया, जिसे देखकर हमारी आँखों में क्रोध की ज्वाला के साथ दुःख के आँसू टपक पड़े। उस स्थान पर अंदर जाने के लिए बड़ा सा दरवाजा, जिसके दाएँ व बाएँ ओर लगभग 5×5 फ़ीट के चौकोर खंभे।

इसी स्थान पर 13 दिसंबर सन 2001 को 5 आतंकवादियों ने संसद की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़ते हुए एम्बेसडर कार से परिसर के अंदर घुसकर ताबड़तोड़ गोलियाँ बरसानी शुरू कर दी थी। भारत के वीरों ने तत्काल मोर्चा संभाला। उस हमले में हमारे 9 सैनिक/सिपाही शहीद हुए थे और कुछ देर बाद पाँचों आतंकी ढेर हो गए थे। हमले के समय भारतरत्न स्व० अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का शीतकालीन सत्र चल रहा था। लन्च टाइम होने के कारण अधिकतर सांसद परिसर से बाहर जा चुके थे। फिर भी श्री लालकृष्ण आडवाणी सहित लगभग 200 सांसद संसद के अंदर उपस्थित थे। आतंकियों की गोलियों के निशान उन खंभों में आज भी मौजूद हैं। परिसर के अंदर ही अलग-अलग स्थानों पर चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, सुखदेव, राजगुरु, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, डॉ० राजेंद्र प्रसाद, महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरु, वीर सावरकर आदि की भव्य और सुन्दर प्रतिमाएँ लगी हुई थी, मानो बोलने वाली हैं।


हमारा कारवां पहुँच चुका था लोकसभा (निम्न सदन) के अंदर। जहाँ देश के सांसद (लोकसभा सदस्य) भारत की दशा और दिशा तय करते हैं। वो कभी-कभी जनमानस को दिखाने के लिए तू-तू, मैं-मैं भी कर लेते हैं। अर्ध-चंद्राकार गोलाई में लगी हुई चमचमाती मेज-कुर्सियाँ, उनके मध्य में कुर्सी थी लोकसभा अध्यक्ष की। जब हम लोग 22 फरवरी 2005 को गए थे तो, उस समय डॉ० मनमोहन सिंह सरकार का शुरू होने वाला ग्रीष्मकालीन सत्र का संसद में रिहर्सल चल रहा था, इसलिए सुरक्षा अधिकारियों का आदेश पाकर लोकसभा का रिहर्सल देखने के लिए हम लोग दर्शक दीर्घा में लगी सुंदर कुर्सियों बैठ गए। उसी भवन का लाइव टेलीकास्ट हम अपने घरों में टेलीविजन के माध्यम से देखते और रेडियो के माध्यम से सुनते हैं। अंदर का कितना मनोरम दृश्य, जिसका वर्णन कर पाना आसान नहीं है।


लोकसभा घूमने के बाद हम लोग पहुँच चुके थे राज्यसभा। राज्य सभा अर्थात उच्च सदन तो लोकसभा से भी मनोरम है। भारत के किसी भी कोने में पंखें छत से लटकते हुए मिलेंगे। परंतु आम स्थानों के विपरीत राज्यसभा हाल में मजबूत सुनहरे रंग की गोल अनगिनत पाइप फर्श में जड़ी हुई मजबूती के साथ खड़ी हैं, जिनके ऊपरी छोर पर पंखे लगे हैं। जिन्हें देख कर ऐसा लग रहा था, मानो हेलीकॉप्टर के पंखे हैं। फरवरी में शीत ऋतु होने के कारण पंखे तो बंद, फिर भी देखने में बहुत आकर्षक थे। अर्ध-गोलाई में लगी सुंदर मेज कुर्सियाँ व सभी कुर्सियों के सामने छोटे-छोटे पतले माइक मेज से जड़े थे, जिससे इन्हें कोई उठा न सके। मध्य में राज्यसभा के सभापति, उप राष्ट्रपति की सिंहासन रूपी विशाल कुर्सी लगी है। बड़े-बड़े हाई क्वालिटी के कैमरे व टेलीवीजन लगे हैं, जिनके माध्यम से लाइव प्रसारण जनमानस के लिए किया जाता है। लोकसभा की ही तरह राज्यसभा हाल की दर्शक दीर्घा में लगभग 25 मिनट तक हम लोग बैठकर कुछ सांसदों की वार्ताएं रिहर्सल रूप में सुन रहे थे।


अब हमारा कारवाँ पहुँच चुका था संयुक्त सदन। यहाँ भारत के सभी अधिनियम पास होकर संवैधानिक रूप ले लेते हैं। इस सदन की अध्यक्षता महामहिम राष्ट्रपति महोदय करते हैं। यहाँ लोकसभा व राज्यसभा, दोनों सदनों के मनोनीत व निर्वाचित सांसद सदस्य बैठते हैं। इस विशालकाय भवन की शोभा अद्भुत व अकल्पनीय थी। सदन के चारों तरफ भित्तियों पर अखंड भारत के महान क्रांतिकारियों, साहित्यकारों, महापुरुषों, भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की जानी-मानी हस्तियों आदि के छायाचित्र लगे हुए थे। उसी हाल में बैठकर सुरक्षा अधिकारियों ने हमें संसद सत्र की शुरुआत, सत्र समापन, विधेयक, चर्चाएँ, प्रश्नकाल आदि के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान की।


दोपहर ढल गई थी। हल्की धूप निकल चुकी थी, जो जाड़ा को परास्त करने के लिए नाकाफी थी, फिर भी रगों में देशप्रेम के लिए रक्त उबाल मार रहा है। बीच-बीच में हम लोग जय हिंद, वंदे मातरम का जयघोष कर रहे थे, तो सुरक्षा अधिकारी शान्ति बनाये रखने की अपील करते-करते डाँटने भी लगते थे।


अब हम भूख से भी व्याकुल हो रहे थे। इसलिए अंत में आ चुके थे संसद भवन की कैंटीन। यहॉं की विशेषताओं के विषय में आप जानते ही हैं..। कैंटीन में साफ़-सफाई इतनी ज्यादा थी, कि मानो बिस्तर न होने पर फर्श पर ही लेट सकते हैं। वेटर भी देखने में किसी अधिकारी से कम नहीं लग रहे थे। वहाँ रंग-बिरंगी झालर-झूमर की भव्य सजावट सबका मन मोहित कर रही थी। भारत के सभी राज्यों के प्रसिद्ध व्यंजन स्वादिष्ट नाश्ता/भोजन के रूप में काउंटर पर सजे थे। सबने कुछ न कुछ हल्का-फुल्का खाया, मैंने भी सेब व अनार का जूस पिया था। सभी ने कैंटीन में ही कुछ देर आराम करने के बाद थोड़ा-थोड़ा सादा भोजन ग्रहण किया, क्योंकि संसद भवन से प्रस्थान करते ही आगरा व मथुरा को प्रस्थान करने के लिए हमारे गुरु डॉ० कर्ण सिंह जी का आदेश प्राप्त हो चुका था। भोजन करने के बाद हमने अनुमान लगाया कि हम सब लगभग 4 से 5 घंटा संसद भवन के अंदर भ्रमण कर चुके हैं।


अब हम उदास मन के साथ लौटकर पुनः स्वागत कक्ष और क्लार्क रूम के समीप आ चुके थे। क्लार्क रूम निःशब्द होकर संसद भवन छोड़ने का मूक इशारा कर रहा था। हमारे गुरुजनों और हम सभी सहपाठियों ने सुरक्षाकर्मियों और अधिकारियों को हृदय से धन्यवाद दिया। सभी प्रशासनिक अधिकारियों के व्यक्तित्व और कार्यशैली, देशप्रेम की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए हम अपनी-अपनी जेब में रखें टोकन खोज रहे थे। जिससे सभी सहपाठी अपना अपना सामान प्राप्त कर सकें।


संसद भवन से निकलने के बाद पुनः बार-बार पीछे मुड़कर विशालकाय इमारत को देख रहे थे। तभी पश्चिम दिशा की ओर आकाश में धुन्ध के बीच सूर्य की हल्की लालिमा दिखाई पड़ी, जो सूर्यास्त का संकेत कर रही थी। अब हम लोग पूर्व निर्धारित स्थल पर खड़ी बोलेरो गाड़ी में गुरुजन और लग्ज़री बस में हम सब बैठकर संसद, लालकिला, इंडिया गेट, कुतुबमीनार आदि की बातें आपस में साझा करते हुए पेठानगरी, ताजनगरी, प्रेमनगरी आगरा, श्री कृष्ण की नगरी मथुरा वृन्दावन आदि के लिए प्रस्थान कर चुके थे। ब्रज मण्डल 84 कोस (252 किलोमीटर) फैला है। हम सबने अगले 2 दिवस में लगभग सम्पूर्ण ब्रज मंडल का भ्रमण किया।


वैसे तो मैंने भारत के 16 राज्यों का भ्रमण किया, किंतु सर्वश्री अनूप शर्मा, मनीष शर्मा, कृष्ण मुरारी पाठक, संजय कुमार, अतुल पाण्डेय, कौशलेंद्र सिंह, आफ़ताब आलम, रणंजय सिंह, बालेंदु भूषण वर्मा, सुधांशू स्वरूप, सच्चिदानंद, अनिल रावत, दिग्विजय नारायण, विकास उत्तम पटेल, राजीव कुमार, रमाकान्त द्विवेदी, विनय मिश्र, विनय कुमार सिंह, वीरेंद्र कुमार आदि घनिष्ठ सहपाठियों के साथ भ्रमण करने का जो सुखमय आनन्द मिला, वैसा आनंद कहीं अन्यत्र भ्रमण में न मिला।


असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
वार्ड नं 10, शिवा जी नगर
रायबरेली उ०प्र०
मो० 9415951459

हिंदी रचनाकार की दो साल की यात्रा | संस्मरण

हिंदी रचनाकार की दो साल की यात्रा | संस्मरण

साहित्य हर देश का महत्वपूर्ण अंग होता है, जब कोरोना की बीमारी चरम पर थी। उस समय आदरणीय डा. संतलाल का इंटरव्यू quami reporter पर देखा। वो समय डरावना था 24 मार्च 2020 को लॉकडाउन हो चुका था।सभी घर पर रामायण, टीवी पर देख रहे थे। साल 2020 मैं पंकज भईया से भी मिला , इस साल जनवरी से मार्च तक एनजीओ के स्कूल में पढ़ा रहा था । लेकिन कोरोना की वजह से बच्चों को पूरा पढ़ा नहीं पाएं, ये सभी बच्चे बाल श्रम करते थे,कुछ दिनों पहले रायबरेली की इस कालोनी में गया था, पता चला कि कुछ बच्चो ने पढ़ाई अपनी जारी रखी है, कुछ बच्चे आर्थिक स्थिति अच्छी न होने से कार्य भी कर रहे है। चलो अपने शीर्षक पर आते है, हिंदी रचनाकार समूह का जन्म आदरणीय डॉक्टर संतलाल का साक्षात्कार से,

जिसे पंकज भईया ने लिया, इस साल हिंदी विषय में भी काफी बच्चे फैल हुए थे , इसके बाद पंकज भईया ने दूसरा साक्षात्कार

आदरणीय वैशाली चंद्रा का लिया, इन दोनो साक्षात्कार के प्रभाव से 30 अगस्त 2020 को हिंदी रचनाकार समूह की वेबसाइट ब्लॉगर पर थी, पहली रचना प्रकाशित महादेवी वर्मा की, इसके बाद 10 सितम्बर 2020 को हिंदी रचनाकार समूह के व्हाट्स ऐप ग्रुप की शुरुआत हुई। इस शुरुआत में पंकज भैया, डॉ. संतलाल जी, डॉ. रसिक किशोर नीरज जी, डॉ. अशोक गौतम जी, डॉ.दयाशंकर , डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र, डॉ. वैशाली चंद्रा, कल्पना अवस्थी जी, डॉ. शैलेंद्र जी, आरती जायसवाल जी, आदरणीय पुष्पा श्रीवास्तव शैली जी, आदरणीय सविता चड्ढा जी, आदरणीय आशा शैली जी, स्वर्गीय सीताराम चौहान जी, बाबा कल्पनेश जी, हरिशचन्द्र त्रिपाठी हरीश जी, परम हंस मौर्य, आदि अन्य साहित्यकार जिनकी वजह से हिंदी रचनाकार समूह दो वर्ष पूरे कर पाया। मै क्षमा भी मांगता हूं जिनका भूलवश नाम नही लिख पाया हूं। आगे हम बढ़े हिंदीरचनाकर की दो वेबसाइट सितम्बर २०२० और दिसंबर 2020 में लांच की। वर्तमान में हिंदीरचनाकर कॉम पर ५०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी है , साथ ही हिंदीरचनाकर इन पर २०० से अधिक कहानी , संस्मरण , लेख का संग्रह तैयार हो चुका है। साथ ही वर्तमान स्थिति में हिंदीरचनाकर सोशल मीडिया पर एक्टिव है , कुछ महीने पहले ट्विटर पर १००० फॉलोअर की उपलब्धि प्राप्त हुयी , साथ ही फेसबुक पेज , कोरा , यूट्यूब पर एक्टिव रूप से कार्य कर रहे है। हमारी टेक्निकल समस्याओ को दूर करते है अमन जी , साथ ही गुलशेर अहमद जी का शुक्रिया जिनका सहयोग हमेशा बेहतर करने के लिए होता है। आपको बता दे चले गुलशेर अहमद जी पेशे से Enginer है , साथ ही कविताघर वेबसाइट के संस्थापक है। 2021 , 2022 में ऑनलाइन स्तर की प्रतियोगिता हिंदी रचनाकार के सौजन्य से सफलता पूर्वक संपन्न हुयी। आगे भी उम्मीद है कि ऐसी प्रतियोगिता ऑनलाइन और ऑफलाइन भी होंगी।

कुछ लोगो का साथ मिला और कुछ लोगो ने साथ छोड़ दिया

दो साल में १०० से अधिक रचनाकारों ने अपनी रचनाएं भेजी और हमारी टीम ने उसको प्रकाशित किया। स्वर्गीय सीता राम चौहान जी ने हिंदी रचनाकार के लिए काफी रचनाये लिखी, दुर्भाग्य वश हमारे बीच नहीं रहे। हिंदी रचनाकार टीम उनकी सदैव हमेशा आभारी रहेगी। पवन शर्मा परमार्थी  जी ने भी काफी रचनाये लिखी ,दुर्भाग्य वश हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन कलम की आवाज़ अभी भी जिन्दा है आप सभी इनकी रचनाये हिंदी रचनाकार की वेबसाइट पर पढ़ सकते है। नए रचनाकार इन दो सालों में जुड़े , उससे काफी उत्साह बढ़ता है , प्रदीप प्यारे, अभय प्रताप सिंह ,ज्योति गुप्ता जी , आदरणीय गोविन्द गज़ब जी , आदरणीय रश्मि लहर जी , आदरणीय सुदामा जी , रत्ना जी ,भारमल गर्ग “साहित्य पंडित”, आदि अन्य रचनाकार जो लगातार जुड़ रहे है . इसके लिए हिंदी रचनाकार की पूरी टीम आप सब की आभारी है।

भविष्य की योजनाएँ

साहित्य का स्वर्ण युग पर नजर डाले , तो कवि प्रदीप जी , गोपाल दास नीरज , फणीश्वर रेणु , आदि साहित्यकारों का नाम उनकी रचनाओं और उस पर बॉलीवुड का प्रभाव के कारण हुआ। आज हम देखते टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया की वजह से अपनी रचना को नया आयाम दे सकते है और इसके लिए बॉलीवुड की भी जरूरत नहीं है ,इसको उदारहण से समझते है कि यूट्यूब और वेबसाइट , आपको अपने कार्य के लिए अच्छा पैसा देता है। साहित्यकार को इन प्लेटफार्म को समझना होगा , इस तरह नए रचनाकार आर्थिक रूप से मजबूत हो सकते है। साथ ही किताब का नया रूप बदला है आजकल नए श्रोता ऑडियो बुक पसंद कर रहे है , तो हमे उस रूप में आना होंगा। साथ ही पॉडकास्ट के माद्यम से कहानी और संस्मरण ला सकते है। नयी पीढ़ी को नया कलेवर चाहिए , इसके लिए हिंदी रचनाकार भी प्रयास कर रहा है , यूट्यूब पर 800 से ज्यादा सब्सक्राइबर इस बाद का प्रमाण है कि हमारा कंटेंट ठीक है इसको हम हर दिन बेहतर करने का प्रयास कर रहे है। ट्विटर पर हमे अच्छा सपोर्ट मिल रहा है। साथ ही हम आने वाले सालो में संस्मरण, कहानी , कविता ,उपन्यास को नए रूप में लाने का प्रयास करेंगे।

संगठन ही शक्ति है इसके लिए सभी रचनाकारों का शुक्रिया

वेबसाइट और वीडियो कंटेंट तैयार करना इतना आसान नहीं होता है , साथ ही रचनाकार अपना समय और खून पसीना के साथ रचना तैयार करता है। इस प्रक्रिया में कोई धन का अर्जन करना नयी छुपा है। इसलिए सभी रचनाकारों का हृदय से धन्यवाद देते है। इस अर्थयुग में आपका मार्गदर्शन हमारी पूरी टीम के लिए उत्साह को बढ़ाता है। हमारे कैमरामैन नीरज भैया का शुक्रिया जो हमारे कार्यक्रम में अपना योगदान देते है। साथ ही विशेष आभार श्री पंकज गुप्ता जी , डॉ. संतलाल जी का , डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज जी का , आदरणीय पुष्पा श्रीवास्तव शैली जी का , डॉ. सम्पूर्णान्द मिश्र जी , आदरणीय अनंग पाल सिंह भदौरिया’अनंग जी, आदरणीय रश्मि लहर जी का , डॉ. अशोक गौतम जी , आदरणीय हरिश्चंद्र त्रिपाठी हरीश जी का , आदि रचनाकार हर दिन हमारा सहयोग करते है इसके लिए ह्रदय से आभार।

अतीत के झरोखे से /सम्पूर्णानंद मिश्र

अतीत के झरोखे से /सम्पूर्णानंद मिश्र

आज दिनांक 7 सितंबर का दिन मेरी ज़िन्दगी का अहम दिन है। 7 सितंबर 2002 दिन शनिवार को जम्मू-कश्मीर में अवस्थित केन्द्रीय विद्यालय किश्तवाड़, जिसे केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थानांतरण नियमावली में कठिन क्षेत्र माना जाता है, में मैंने बतौर स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी, कार्यभार ग्रहण किया था। बेरोज़गारी के अभिशाप से अवमुक्त होकर जम्मू कश्मीर की वादियों तक पहुंच गया। मेरे तीन मित्र जिनका नामोल्लेख करना अत्यंत समीचीन होगा। श्री अशोक कुमार पांडेय सेवानिवृत्त ग्राम विकास अधिकारी सिंचाई विभाग, मुगलसराय।

श्री राधेश्याम सिंह चौहान व अजय कुमार जायसवाल सहायक अध्यापक प्राथमिक विभाग चकिया जिला चंदौली, इन त्रिमूर्तियों ने मेरे भीतर इतना उत्साह भर दिया कि मैं जाने के लिए वहां तैयार हो गया जबकि 2002 में वहां आतंकवादी गतिविधियां पराकाष्ठा पर थी मेरे मन ने भी मुझे यही समझाया कि आपदा में जो अवसर तलाश ले वही असली विजेता होता है। उन मित्रों ने मुझे 4 सितंबर 2002 दिन बुधवार को हाबड़ा से चलकर जम्मू जाने वाली गाड़ी पर बैठाने के लिए मुगलसराय स्टेशन तक आए थे। जब मुगलसराय छूटा तो लगा सब कुछ छूट गया। मित्र छूटे। परिवार छूटा। देश छूटा।

अपना मन भी मुगलसराय में ही छूट गया केवल शरीर गया। जम्मू शुक्रवार यानि 5 सितंबर को दोपहर बारह बजे पहुंचा। वहां पहुंचने पर मन टूटने लगा और मैं अपने को अभागा समझने लगा कि हे ईश्वर मुझसे क्या पाप हो गया कि सब कुछ छोड़कर यहां तक चला आया। मेरी बिटिया उस समय चार साल की थी उसके रोने की आवाज़ और मां की आंखों से निकले हुए आंसू मेरे पैरों में ममता और स्नेह की अनेक बेड़ियों को डाल दिया उन्हें तुड़ा कर परदेश चल देना कितना कष्टसाध्य था यह मित्रों अवर्णनीय है। खैर *पुरुष बलि नहीं होत है समय होत बलवान* 6 सितंबर की शाम 6 बजे किश्तवाड़ पहुंच गया।

वहां की सुंदरता ने मुझे अपनी तरफ़ आकृष्ट किया। तत्कालीन प्राचार्य व वर्तमान सहायक आयुक्त वाराणसी संभाग, परम श्रद्धेय श्री बिशुन दयाल जी की सदाशयता ने मुझे यह पता ही न चलने दिया कि मैं मुगलसराय यानि घर से लगभग 1300 किलोमीटर दूर आ गया हूं। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। उस समय मुझे केन्द्रीय विद्यालय संगठन के नियमों का ककहरा भी नहीं आता था। उन्होंने न केवल केन्द्रीय विद्यालय संगठन के नियमों की वर्णमाला का बोध कराया, बल्कि शिक्षण की विभिन्न धाराओं और प्रविधियों से मुझे अवगत भी कराया।

उनके प्रति आभार व्यक्त करना उनके इस महनीय कार्य को छोटा करना होगा। मुगलसराय पी० जी ० कालेज चंदौली में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर लब्ध प्रतिष्ठ कथाकार व मेरे बाबूजी श्रद्धेय श्री डॉ० रमाकांत मिश्र जी उस समय कार्यरत थे और मेरा आवास भी मुगलसराय कोतवाली के पीछे विकासनगर कालोनी में था, जबकि मैं मूलतः वाराणसी हरिहरपुर हाथी बाजार का रहने वाला हूं। किश्तवाड़ जम्मू कश्मीर मुझे खूब फलीभूत हुआ। यहां की आबोहवा का मैंने खूब लाभ भी उठाया स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से। यहीं 2003 में 10 सितंबर के दिन मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई दरअसल रत्न कहना बिल्कुल त्वरा होगी क्योंकि जब तक वह अपने को रत्न के रूप में ढाल न लें। 10 सितंबर 2022 को पूरे 19 साल के हो जायेंगे।

पैतृक पेशा साहित्य से इतर हटकर इंजीनियरिंग की तैयारी में रत हैं। ईश्वर की कृपा रही तो इस बार उसे कहीं किसी शासकीय महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल जायेगा। मेरी पुत्री आकृति मिश्रा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी फैज़ाबाद में बी० एस० सी० चतुर्थ एवं अंतिम साल में अध्ययनरत है। मेरे जीवन को सार्थक दिशा देने में जिन महापुरुषों का योगदान रहा है उसमें सर्वप्रथम मेरे बड़े पिताजी, जो संस्कृत भाषा के आधिकारिक विद्वान रहे स्व० पं० विन्ध्यवासिनीप्रसाद मिश्र जी, उपप्राचार्य हाथी बरनी इण्टर कॉलेज वाराणसी, पूज्य पिताजी श्री डा० रमाकांत मिश्र प्रतिष्ठित उपन्यासकार व पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, लाल बहादुर शास्त्री पी० जी० कालेज मुगलसराय चंदौली का।

मेरे जीवन में मेरी पत्नी श्रीमती रेखा मिश्रा का भी अविस्मरणीय योगदान रहा जिन्होंने गृहस्थी की समस्त ज़िम्मेदारियों को सहर्ष अपने कंधे पर लेकर मुझे लिखने और कुछ अच्छा करने के लिए सदैव प्रेरित करने का पुनीत कार्य किया, उसके इस उत्साहवर्धन व सहयोग से मैंने लिखने का कार्य किया। आज की तिथि में मेरा एक काव्य- संग्रह कराहती संवेदनाएं प्रकाशित हो चुका है और दूसरा *शहर में कर्फ्यू* शीघ्र ही प्रकाशित होने की संभावना है प्रकाशक से बात चल रही है। इस 20 वर्ष की सेवा में मुझे कई प्रदेश के केन्द्रीय विद्यालय में कार्य करने का सुअवसर मिला, जहां भी रहा‌, बच्चों को पढ़ाने में मैंने अपनी तरफ़ से कभी कोई कमी नहीं की, क्योंकि यही छात्र किसी भी शिक्षक की असली पूंजी होते हैं।

उक्त अवधि के दरम्यान मुझे बहुत लोगों से मिलने का मौका मिला। जीवन के खट्टे और मीठे मिश्रित अनुभव भी मुझे प्राप्त हुआ। बहुरंगी और विविधता से युक्त मित्र भी मिले। कुछ मेरे साथ बहुत दूर तक चलते हुए आज भी मेरे साथ हैं और कुछ साथ होने की दिलासा भी दिलाते रहे, और कुछ इस तरह रंग बदलते रहे कि आज तक मुझे यह बात नहीं समझ आयी कि उनका असली रंग कौन सा है! परिस्थितिवश मेरे साथ रहे। खैर इन सभी का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मैं आभार अभिव्यक्त करता हूं।

11अप्रैल 2011को अंतिम बार मेरे और मेरे भाई, बहन के ऊपर अपनी ममता की वर्षा कर मेरी मां देवलोक चली गई उनकी आयु उस समय 62 वर्ष की ही थी। उनको बचाने की हम लोगों ने पुरज़ोर कोशिश की, लेकिन सारा प्रयास निष्फल हुआ। उस समय मैं केन्द्रीय विद्यालय जमुना कालरी मध्य प्रदेश में कार्यरत था बिलासपुर से लेकर बनारस के सभी अस्पतालों को छान मारा लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। इतने समय तक का ही साथ रहा माताजी के साथ हम भाई-बहन का। ईश्वर कारसाज होता है उसकी लीला बहुत न्यारी होती है। उसे समझ पाना हम जैसे सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है।

मां की असामयिक मृत्यु की पीड़ा से हम लोग अभी पूरी तरह से उबरे नहीं थे कि बड़े भाई श्री डा० नित्यानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी जवाहर नवोदय विद्यालय शेरघाटी गया की पत्नी और मेरी भाभी श्रीमती अंजू मिश्रा की कैंसर से मृत्यु ने पूरे परिवार को झकझोर कर रख दिया। 21 अक्टूबर 2015 शारदीय नवरात्र महाअष्टमी के दिन ब्रेस्ट कैंसर से जूझते हुए जब उन्होंने टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई में हम लोगों के सामने उन्होंने अंतिम सांस ली, तब के दृश्य को याद करने पर मन और शरीर दोनों जीर्ण-शीर्ण होने लगता है। समय बड़ा बलवान होता है। धीरे – धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। *जो बीत गई सो बात गई*अंत में मैं केन्द्रीय विद्यालय संगठन के उन सभी अधिकारियों का धन्यवाद करता हूं जिनके ज्ञान – वितान के नीचे बैठकर कुछ सीखने का अवसर मिला। आज अपनी शैक्षणिक- यात्रा के सफलतापूर्वक बीस वर्ष की उपलब्धि पर पुनः सभी के प्रति पूरी विनम्रता व प्रतिबद्धता के साथ आभार अभिव्यक्त करता हूं।

सम्पूर्णानंद मिश्र

स्नातकोत्तर शिक्षक, हिंदी

केन्द्रीय विद्यालय नैनी प्रयागराज( उत्तर प्रदेश)

7458994874

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किस्सा एक मुलाकात का (संस्मरण) | आशा शैली

किस्सा एक मुलाकात का (संस्मरण) | आशा शैली

पहली बार जब साहित्य मंच के कार्यक्रम में भाग लेने जालन्धर गई, तब मेरा परिचय मंच के अध्यक्ष जगदीश चन्षद्र से हुआ। उनका निवास माडल टाउन में था। मेरे रुकने की व्यवस्था स्काई लार्क होटल में की गई थी। मैं संस्था के सचिव प्रोफेसर मेहर गेरा के निमन्त्रण पर वहाँ गई थी। प्रोफेसर मेहर गेरा से यह मेरी दूसरी मुझे मुलाकात थी।शायद यह 1984 के जुलाई या अगस्त की बात है। प्रोफेसर मेहर गेरा मुझे दूरदर्शन ले गए। मैंने इससे पहले दूरदर्शन सेंटर नहीं देखा था।

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साधारण से कार्यालय में एक सौम्य व्यक्तित्व के दर्शन हुए। प्रो गेरा ने बताया, ये वैद्य जी हैं। आप तब तक यहाँ इनसे बात करें, मैं फूल वाले के पास होकर अभी आया।मैं हिमाचल के दूर दराज के क्षेत्र रामपुर बुशहर के भी छोटे से गाँव की रहने वाली। लम्बे सफर से थकी झेंपू सी औरत भला क्या बात करती। पर वैद जी इतने साधारण लग रहे थे कि उनका ज़रा- सा भी रौब मुझ पर नहीं पड़ा।

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थोड़ी सी देर में प्रोफेसर मेहर गेरा लौट आए, हमने चाय पी और थोड़ी इधर-उधर की बातें करते रहे। फिर उन्होंने मुझे होटल छोड़ दिया। दो-तीन घण्टे मैंने आराम किया और लम्बे सफर की थकान उतारी। शाम को वे दोनों मेरे कमरे में आए और मुझे वहाँ की व्यवस्था समझाने के बाद मेरी ग़ज़लें देखीं। उनके मंच पर मुझे पहली बार पढ़ना था। मैं मंच की मंजी हुई कलाकार भी नहीं थी। इससे पहले शिमला के गेयटी थियेटर में कुल मिलाकर एक इंडो-पाक मुशायरा पढ़ा था, पर हाँ आत्म विश्वास खूब दृढ़ था। दिल में डर कहीं नहीं था या इस नाम की चिड़िया से परिचय नहीं था।


इस मुशायरे में दिल्ली से जमीला बनो भी आई थीं। जमीला बानो से पहली मुलाक़ात गेयटी थियेटर में हो चुकी थी। एक पत्रकार भी थे, ‘अश्विनी’ जो मेरे आगे-पीछे मंडराने लगे, जिसे शायद वैद जी ने भांप लिया था। नये लोग और नई जगह होने से मैं घबरा गई थी। तब वैद जी ने बड़े ही नर्म लहजे में उसे मेरे कमरे की तरफ न जाने का परामर्श दिया था। इस समय उनकी आँखें देखने लायक थीं। एक पंजाबी के सरदार शायर थे उनको सभी मीशा कह के पुकार रहे थे। बहुत हँसमुख और मिलनसार थे। आज़ाद गुलाटी और राजेंद्र नाथ रहबर भी थे। बशीर बद्र, प्रेम कुमार नज़र, एहतेशाम सिद्दीकी और पंजाब के कई दूसरे नामी शायर थे। आकाश वाणी और दूरदर्शन के लोग भी थे। पर हिमाचल से मेरे सिवाय कोई नहीं था।


इस मुशायरे के बाद मुझे वैद्य जी निदेशक के पास ले गए और मेरे लिए दूरदर्शन के पहले ही कार्यक्रम में एक मुलाकात कार्यक्रम हुआ। धीरे-धीरे निकटता बढ़ने पर मुझे पता चला कि यह जो एकदम सीधा सा आदमी है, बहुत टेढ़ी कलम रखता है। बाद में इनके साहित्य मंच के लिए मुझे हिमाचल का प्रतिनिधित्व मिला और मिली जगदीश की चन्द्र टुण्डा लाट और अन्य पुस्तकें। फिर एक दिन वे हमारे बीच से अचानक ही उठकर चले गए। इसके साथ ही साहित्य मंच भी बिखर गया। प्रोफेसर गेरा खुद को बहुत अकेला महसूस करने लगे थे। वैद्य जी के साथ हमने, मोगा, जालन्धर, जगराओं, कपूथला, मलेरकोटला आदि में बड़े-बड़े मुशायरे किये। जिनमें शहरयार, और निदा फाज़ली जैसे शायर हिस्सा लेते थे। इन्हीं मुशायरों के दौरान मेरी मुलाकात सिमर सदोष, गीता डोगरा, ज्ञान सिंह संधू, सुरेश सेठ, कीर्ति काले और दूसरे बहुत से कलमकारों से होती रहती थी।

हिमाचल की भीमाकाली और सराहन / आशा शैली

हिमाचल की भीमाकाली और सराहन / आशा शैली

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आशा शैली

हिमाचल प्रदेश का मन्दिरों और देवस्थानों से ओत-प्रोत अपूर्व प्राड्डतिक दृश्य है मन को आनन्द से भर देने वाला। नीचे-ऊपर पहाड़ ही पहाड़, झरने, नदियाँ, चारों ओर पिघलती बर्फ लेकर पर्वत शृंखलाएँ ऐसी, जैसे ईश्वर कुछ संदेशा लिखकर लोगों तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसी ही असमान्तर बर्फीली रेखाएँ पर्वतों को घेरे हैं। हरियाली के उपर बर्फ के सुन्दर मुकुट ऐसे सजे हुए हैं जैसे किसी राजा के सर पर चांदी का मुकुट सजा हो।

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हिमाचल में माँ ज्वाला और चिन्तपुरनी के भव्य मन्दिर हैं तो माँ भीमाकाली भी यहाँ विराजमान है। विष्णु, शिव, इन्द्र और अन्य देवी देवताओं के साथ देवी के मन्दिर भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं जिनमें माँ ज्वाला और चिन्तपुरनी के मन्दिर तो विश्वविख्यात हैं ही, परन्तु श्राईकोटि ;श्रीकोटिद्ध जहाँ नारद जी ने तप किया और माँ भीमाकाली का भव्य मन्दिर भी अब हिमाचल से बाहर जाना जाने लगा है।
शिमला से जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग की यात्रा किन्नौर की ओर को करते हैं तो शिमला से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हमें ‘सराहन’ नाम का लघु-नगर मिलता है। इसी सराहन नगर में अपनी पूरी साज-सज्जा के साथ खड़ा है माँ भीमाकाली का भव्य मन्दिर। यह मन्दिर शक्तिपीठ तो नहीं है फिर भी इसकी मान्यता शक्तिपीठ से किसी भी तरह कम नहीं। सराहन नाम के इस उपनगर को जहाँ सेब उत्पादन के लिए जाना जाता है वहीं भीमाकाली के कारण इसका महत्व है। बल्कि सच पूछा जाए तो सरहान का महत्व मन्दिर के कारण अधिक है।


सराहन को ड्डष्ण से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि यह नगर बहुत प्राचीन है और इसका पूर्व नाम शोणितपुर है जो राक्षसराज वाणसुर की राजधानी रहा है। द्वारिकाधीश के ज्येष्ठ पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अर्थात् श्री ड्डष्ण के पौत्र अनिरु( का वाणसुर की पुत्री उषा से स्वप्न में प्रेम हुआ तो उषा ने अनिरु( का अपहरण करवा लिया। इस पर वाणासुर ने दोनों को बंदी बना लिया। पता चलने पर श्रीड्डष्ण का वाणासुर से यु( हुआ और वाणासुर मारा गया। परन्तु इस प्रेमकथा में देवी की कहीं चर्चा नहीं है, क्योंकि तब देवी की स्थापना यहाँ नहीं थी। रामपुर बुशहर के पूर्व मुख्यमंत्री श्री वीरभद्र सिंह का वंश उन्हीं चन्द्रवंशीय अनिरु( का वंश कहा जाता है। इन चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी पूर्वकाल में कामरू जाम के स्थान पर बताई जाती है, जो कामरूप का अपभ्रंश कहा जाता है। कालांतर में ये लोग अपनी राजधानी सराहन ले आये। यहाँ पर इन चन्द्रवंशी राजाओं की राजधानी के चिन्ह इनके प्राचीन महल हैं। गोरखा लोगों के लगातार आक्रमण होते रहने से इन लोगों को राजधानी, रामपुर बुशहर की भौगौलिक संरचना के कारण रामपुर बुशहर लानी पड़ी। यहाँ ये अपनी रक्षा व्यवस्था को अधिक सुचारू रूप से सँभाल सकते थे। तीव्रगामी और रौद्र रूप धारिणी सतलुज नदी के किनारे बसा यह नगर बिलकुल मुहाने पर पहुँचकर ही दिखाई देता है इसलिए शत्रु पर आसानी से आक्रमण किया जा सकता था। अतः तत्कालीन राजा रामसिंह ने इस स्थान का सुरक्षात्मक दृष्टि से चयन किया। सराहन और रामपुर की दूरी मात्र 40 किलोमीटर के लगभग रह जाती है।


देवी भीमाकाली के साथ एक कथा जुड़ी है, कहा यह जाता है कि भीमाकाली का आगमन तो तपस्वी तांत्रिक भीमगिरि के साथ हुआ है। लोक में प्रचलित कथा के अनुसार भीमगिरि नाम के एक तांत्रिक संत ने बहुत समय तक कामाख्या में तपस्या की। कामाख्या से भ्रमण करते-करते वे इधर आ निकले। वे कामाख्या से आते समय अपने साथ दैवीय शक्ति को अपनी छड़ी में स्थापित करके ले आये। सराहन नाम के इस स्थान पर जब वे रुके तो उन्हें इस स्थान की रमणीयता भा गई और वे यहीं एक गुफा में तप करने के लिए आसन लगाकर बैठ गये। इस समय मातृशक्ति सहित छड़ी को उन्होंने वहीं पर विराजित कर दिया। लम्बे समय की तपस्या के पश्चात् जब वे वहाँ से जाने लगे तो मातृशक्ति ने जाने से इनकार कर दिया। तब तांत्रिक के पास कोई चारा न बचा और उसने माँ कामाख्या को वहीं स्थापित कर दिया। भीमगिरि द्वारा स्थापित यह शक्ति कालांतर में भीमाकाली कहलाने लगी।


भीमाकाली का यह भव्य मन्दिर जो हिमाचली राजाओं का निजी सम्पत्ति है। यहाँ परिसर में दो मन्दिरहिमाचल अगल-बगल खड़े हैं। प्राचीन मन्दिर के द्वार बहुत छोटे हैं, लगभग दो-तीन फीट ऊँचे और गवाक्ष तो सम्भवतया एक फीट के भी नहीं हैं। पूर्वकाल में स्थापित इस मन्दिर में पहाड़ी निर्माण कला के अनुसार बड़े-बड़े पत्थरों को तराशकर लगाया गया है। हर तीन फीट के बाद लकड़ी के मोटे-मोटे शहतीर इसमें लगाये गये हैं। यह मन्दिर 500 वर्ष से अधिक पुराना बताया जाता है, परन्तु अब बंद रहता है। इसे केवल राज परिवार की पूजा के लिए खोला जाता है।


जो तीन मंजिला मन्दिर आज जनता के दर्शनार्थ खुला रहता है, वह नव निर्मित है। हिमाचल प्रदेश भी अन्य भारत की तरह भयंकर छुआछूत से प्रभावित था। आज से 40/50 वर्ष पूर्व जब मन्दिर में सर्व साधारण के लिए प्रवेश खोला गया था तब राज परिवार द्वारा इस मन्दिर का निर्माण किया गया था। बाद में वीरभद्र सिंह, ;जिन्हें वहाँ की जनता मरणोपरान्त भी राजा साहब कहती हैद्ध ने इसे न्यास को सौंप दिया।


मन्दिर के ऊपर के गुम्बद सारे के सारे सोने के हैं। अंदर सिंह वाहिनी का सिंहासन भी सोने का है। मुख्य मूर्ति और साथ-साथ दस सिंहासनों में सरस्वती, लक्ष्मी, गणेश, शिवजी इत्यादि देवी देवताओं की मूर्तियाँ विराजमान हैं, जिन पर रोज पुजारी फूल-जल चढ़ाते हैं। इन पुजारियों को बकायदा तन्ख्वाह दी जाती है। मुख्य दर्शन के लिए तंग संकरी सीढ़ियों से तीन मंजिल ऊपर जाना होता है, मन्दिर में प्रवेश करते ही धरातल पर एक पालकी रखी हुई है, जिसमें बैठकर माँ भीमाकाली की सवारी रामपुर जाती है। वहाँ इस मूर्ति के सामने सात दिन तक भजन कीर्तन हुआ करता है, मेला लगता है हजारों दर्शनार्थी एकत्रित होते हैं।


मन्दिर के द्वितल में जहाँ सिंहवाहिनी की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित है। यहाँ हर समय ताला लगा रहता है क्योंकि एक बार तस्करों ने यह मूर्ति चुरा ली थी, जिसे दिल्ली की तंग गलियों से बरामद किया गया था। तस्कर मूर्ति को हानि नहीं पहुँचा पाये थे।
मन्दिर के सामने एक गुफा है जिसका दरवाजा बंद किया हुआ है। कहा जाता है कि ब्रिटिश शासन से पहले जिस अपराधी को भी मृत्यु दण्ड दिया जाता था उसे इस गुफा में धकेल दिया जाता था और वह कभी लौट कर नहीं आ सकता था। परन्तु हमने बड़े बुजुर्गों से यह भी सुना है कि इस गुफा का दूसरा छोर भी था। दण्डित व्यक्ति उस छोर से बाहर निकल जाते और फिर वहीं बसने लगे। चूंकि सैकड़ों वर्षों पूर्व आवागमन के साधन नहीं थे और इन क्षेत्रों में घने जंगल थे इसलिए किसी को पता नहीं चलता था और इस प्रकार धीरे-धीरे वहाँ पूरा गाँव बस गया, जिसका नाम रावीं है।


मन्दिर के पास ही एक म्यूजियम है, जिसमें इन हिमाचली राजाओं का उपयोग में लाया हुआ प्राचीन सामान रखा गया है। ‘वीरभद्र सिंह’ हिमाचल के पूर्व मुख्य मंत्री इसी राजवंश से हैं। पूरा जीवन पूजा के समय वे जरूर मंदिर में आते रहे हैं। मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर राज महल है, अत्यंत सुन्दर एक महल जिसमें लकड़ी के ऊपर अपूर्व नक्काशी की गई है। मन्दिरों के दरवाजों पर उन राजाओं के समय की अपूर्व नक्काशी का नमूना देखने को मिलता है। मन्दिर के सामने ही दोनों तरफ दो सिंहों के पुतले बने हुए हैं। दरवाजे पर पालकी, गणेश, पद्मफूल इत्यादि की नक्काशी की गई है जिसे देख कर प्राचीन समय की अपूर्व काष्ठकला का परिचय मिलता है।


मन्दिर के अंदर जो मूर्तियाँ हैं उनमें भीमाकाली की मूर्ति, बौ( मूर्ति, चण्डिका मूर्ति आदि हैं। जब चण्डिका और अन्नपूर्णा माताओं को रामपुर पालकी में बिठाकर ले जाया जाता है तब राज खानदान का कोई सदस्य आकर पहले माता का पूजन करता है उसके बाद ही बाकी सब लोग पूजन करते हैं।


भीमाकाली मन्दिर के पुजारियों के पास एक हस्त लिखित पुस्तक है, जिसे रावीं की पोथी कहा जाता है। यह पुस्तक वे लोग किसी को नहीं दिखाते। कहा जाता है कि इसमें इस क्षेत्र के राजाओं-सामन्तों एवं राजपरिवारों के रीति-रिवाज के बारे में सब कुछ लिखा है। पुस्तक कितनी प्राचीन है, ज्ञात नहीं परन्तु जब यह लिखी गई थी उस समय की राजनैतिक परिस्थितियों के बारे में भी सब जानकारी इस किताब में लिपिब( है। यह पहाड़ी भाषा के साथ पुरातन कुछ भाषाओं के संमिश्रण से लिखा गया है। डॉक्टर बंशी राम जी ने इसे शारदा लिपि में लिखित बताया है। बहुत मांगने पर भी उन्हें यह हस्तलिखित पुस्तक नहीं दी गई। उन्होंने प्रदेश सरकार से भी अनुरोध किया था, एक पन्ना केवल उनके हाथ लगा था जिसे पढ़कर बहुत सारी बातें उन्होंने बताई थी। डॉ. वंशीराम का गहन अध्ययन इस पुस्तक के ज्ञान को अवश्य जन-जन तक पहुँचा देता यदि उन्हें पुस्तक मिली होती। बहुत अनुनय विनय करने पर भी पुरोहितों ने उस पुस्तक को देने से इंकार कर दिया। डॉ. वंशीराम के अनुसार पुस्तक को राहुल सांड्डत्यायन ने भी देखा भर था। उन्हें भी इन स्थानीय पुजारियों ने पुस्तक नहीं दी, जिसका उन्हें सदैव खेद रहा। इन पुजारियों का कहना है कि यह किताब और किसी के हाथ आने से इस पहाड़ी के सारे लोग, ब्राह्मण परिवार के सारे लोग नष्ट हो जायेंगे। इसे पूजा जाता है पर पढ़ा नहीं जाता।’ यह समस्त अंधविश्वास से एक सम्पूर्ण इतिहास अनपढ़े अनजाने ही रह गये।

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मेरी जम्मू-कश्मीर यात्रा | आशा शैली

यात्राएँ करना सम्भवतया मेरा स्वभाव ही बन गया है अथवा नियति, लेकिन परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव और देश की वर्तमान परिस्थितियों में सोच भी नहीं सकती थी कि कभी मुझे कश्मीर भी जाने का सौभाग्य प्राप्त होगा। जब से होश सँभाला है सुनती आई थी कि धरती पर कहीं स्वर्ग यदि है तो वह कश्मीर में ही है। आज उसी स्वर्ग के दर्शन करने का सौभाग्य अथवा अवसर अकस्मात उपस्थित हो गया।

हुआ यूँ, कि एक कश्मीरी लड़का ‘डॉक्टर इकबाल बट्ट मेरे ही मकान में रहता था। उन दिनों मैं अपने निजी घर-गाँव गौरा में रहती थी जो शिमला जिला में पड़ता है। जम्मू मेरा आना-जाना अक्सर ही होता रहता था। वहाँ मेरी एक बहुत पुरानी मित्र वीना शर्मा रहती थीं, उनकी बेटी रोहिणी का विवाह था। जब मुझे वीना के बेटे ध्रुव का फोन आया, जो विवाह का निमन्त्रण था तो डॉक्टर इकबाल भी मेरे साथ चलने के लिए तैयार हो गया। उस समय तो मैंने सोचा था कि उसे अपने घर जाने की इच्छा हो रही होगी परन्तु बहुत बाद में मेरी समझ में आया कि वह बहुत डरपोक था और गाँव के मेरे मकान में वह अकेले रहते हुए डर रहा था। अस्तु,
यथा समय हम दोनों जम्मू के लिए चल पड़े। रोहिणी के विवाह के बाद मैं डॉक्टर इकबाल के आग्रह पर अपनी मित्र वीना और उसके परिवार से विदा लेकर इकबाल के घर ‘दिलना’ (जो बारामूला जिला का एक गाँव है) के लिए चल पड़ी।
मन में विचित्र सी उत्सुकता थी, अजब रोमाँच, अनजाना सा कौतुहल। कैसा माहौल होगा वहाँ का? सभी लोगों का कहना था कि मुझे कश्मीर नहीं जाना चाहिए क्योंकि वहाँ का माहौल अभी तक ठीक नहीं हुआ था, परन्तु खतरों से खेलना शायद मेरा स्वभाव बन चुका था या अपने हालात से विद्रोह का यह एक सशक्त माध्यम मुझे अनजाने में ही दूर कहीं दूर ले जाता और मैं जहाँ जी चाहता वहाँ चल पड़ती। फिर चाहे कितनी भी वर्जनाएँ हों मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। बस अपने इसी स्वभाव के वशीभूत मेरी कश्मीर यात्रा आरम्भ हो गई।


इकबाल हर बात में कहता रहता था कि कश्मीर का कोई मुकाबला नहीं है। मैं भी सोचती थी कि सारी दुनिया ही कश्मीर की प्रशंसक है तो फिर इकबाल का तो वहाँ पर घर ही है। उसके साथ रहते मुझे क्या परेशानी हो सकती है? लेकिन इकबाल स्वयं ही बात-बात में डरता रहता था तो मुझे भी डरना तो चाहिए ही था। उसने मुझे एक भी साड़ी कश्मीर के लिए नहीं रखने दी जबकि मुझे साड़ी पहनना अच्छा लगता है पर इकबाल ने नहीं पहनने दी। और तो और, उसने मेरे कानों में पहने हुए टॉप्स पर लगी जंजीर भी उतरवा दी। मैं जितने दिन कश्मीर में रही मुझे सलवार-कमीज से ही काम चलाना पड़ा। वैसे उसके डरने में मुझे उस समय कुछ भी अनुचित नहीं लगा क्योंकि आतंकवाद का दौर तो था ही।


हाँ! तो हम जम्मू बस अड्डे पर पहुँचे तो सुबह के आठ बजने वाले थे। वहाँ से श्रीनगर के लिए बसें भी चलती थीं और टाटा सूमो टैक्सियाँ भी। बसों का किराया अवश्य ही कम था परन्तु वे शाम छः बजे के बाद ही श्रीनगर पहुँचातीं और हमें रात श्रीनगर गुजारनी पड़ती। बात एक ही थी, टाटा सूमो का किराया कुछ अधिक था परन्तु वे तीन-चार बजे के बीच श्रीनगर पहुँचा देतीं जिससे हम बारामूला के लिए समय से बस पकड़ सकते थे और रात होने से पहले इकबाल के घर दिलना पहुँच जाते। सो हमने टाटा सूमो में जाने का फैसला लिया।


जम्मू से हम जिस सूमो में सवार हुए, उसमें आगे की सीटों पर कुछ पुलिस के लोग बैठे थे इसलिए हम सब बीच वाले केबिन में बैठ गए। हमारे साथ कुछ हिमाचली लड़कियाँ भी बैठी थीं, जिन्हें टीचर ट्रेनिंग के लिए श्रीनगर जाना था। कुछ सैनिक थे जो वापस अपनी ड्यूटी पर जा रहे थे, रास्ते के लिए अच्छा गप्पबाजी का सामान हो गया। जम्मू बस अड्डे से निकलने के कुछ ही देर बाद पहाड़ी सिलसिला शुरू हो गया और ऊधमपुर तक आते-आते तो बाकायदा ठीक-ठाक पहाड़ ही दिखाई देने लगे। क्योंकि मैं हिमाचल के दुर्गम और ऊँचे पहाड़ों की रहने वाली हूँ इसलिए मुझ पर इन रूखी पहाड़ियों ने कोई प्रभाव नहीं डाला और मैं उन लड़कियों से बातों में उलझ गई।


सूमो में बैठे पुलिस विभाग के अधिकारी अपने अधिकारियों पर टिप्पणियाँ कर रहे थे तो सैनिक अपने अधिकारियों की छीछालेदर करते-करते सरकारी नीतियों की आलोचना पर उतर आए। सब के सब सरकारी नीतियों से असंतुष्ट थे तो हिमाचली लड़कियाँ जो अपने-अपने क्षेत्र में शिक्षिकाएँ भी थीं, अपने कश्मीरी छात्रों के अभद्र और उद्दण्ड व्यवहार से खिन्न थीं। उनका कहना था कि कश्मीरी छात्र राष्ट्रगान के समय पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाने लगते हैं। उन्हें अनुशासन में रखना बहुत कठिन हो जाता है।
दस बजे के करीब सूमो एक ढाबे पर रुक गई। नाश्ता तो करना ही था। मैं, सूमो से उतरकर आगे-पीछे के प्राकृतिक-अप्राकृतिक दृश्यों में कुछ नयापन तलाशती रही परन्तु मुझे कहीं कुछ भी नया नजर नहीं आ रहा था जिससे इकबाल कुछ चिढ़ने-सा लगा था। वह जहाँ कहीं कहता, ‘देखो, यह कितना खूबसूरत है’ तो मैं तुरन्त उस स्थान की हिमाचल के किसी अंचल से तुलना करने लगती। सच तो यही था कि पता नहीं क्यों, मुझे हिमाचल से अधिक सुन्दर तब भी कहीं कुछ लगता ही नहीं था और आज भी नहीं लगता और शायद लगेगा भी नहीं।


काफी सफर तय करने के बाद वह रोमांचक घड़ी आई जिसकी स्मृति सदा ही बनी रहेगी। यह थी वह सुरंग, जिसे पार करने के बाद जम्मू का इलाका खत्म होकर कश्मीर शुरू हो जाता था। वैसे तो कालका से शिमला जाते समय रेल के सफर में रास्ते में 103 सुरंगें पड़ती हैं, पर यह मेरे जीवनकाल में देखी गई सबसे लम्बी सुरंग थी जो शायद 1430 मीटर लम्बी थी सच में बहुत ही रोमांचक लगी। सुरंग में दाखिल होने से पहले इकबाल ने मुझे बताया कि यह सुरंग जम्मू को कश्मीर से अलग करती है।


यहाँ हमें रोक लिया गया। कुछ पुलिस अधिकारी और जवान गाड़ी में चढ़ आए उन्होंने हम सब का सामान चौक किया। हम लोगों को गाड़ी से नीचे उतरना पड़ा क्योंकि वहाँ पर हमारी शारीरिक तलाशी होनी थी। सड़क के दोनों ओर दो केबिन बने हुए थे वहाँ, एक महिलाओं के लिए और दूसरा पुरुषों के लिए। मैं जिस केबिन में गई वहाँ पुलिस की वर्दी में 30/35 वर्ष की एक सुन्दर कश्मीरी महिला बैठी हुई थी। मेरे पर्स की तलाशी लेते वक्त उसे मेरी बड़ी सी डायरी दिखाई दे गई थी, वह चौंक गई और मुझसे बड़े-बड़े सवाल करने लगी। उसे लगा कि मैं पत्रकार हूँ, (इकबाल ने मुझे पहले ही सावधान कर दिया था।) मैंने पत्रकार होने से इनकार किया और उसे बताया कि मैं उर्दू शायर हूँ, क्योंकि कुछ गजलें मेरी डायरी में उर्दू में भी लिखी हुई थीं। उसने डायरी में उर्दू में लिखी मेरी गजलें तो पढ़ीं लेकिन शायद उसे विश्वास नहीं आया या फिर हो सकता है, उसे शायरी से सचमुच ही लगाव रहा हो क्योंकि वह मुझसे शेर सुनाने की जिद करने लगी। बाहर इकबाल चिल्ला रहा था और भीतर वह महिला जाने ही नहीं दे रही थी। अतः एक-दो शेर सुनाकर मैंने उससे जान छुड़ाई और तुरन्त वापस आकर सूमो में बैठ गई।


इकबाल का मूड खराब हो चुका था। वह कह रहा था कि ‘‘ये सी.आइ.डी. वाले हैं, आप को पता भी नहीं चलेगा कि आप कब कानून की पकड़ में आ गई हैं।’’ लेकिन मैं सोच रही थी कि मैं कोई गैरकानूनी काम करूँगी तब न पकड़ में आऊँगी। ऐसे ही कैसे कोई मुझे कानून में लपेट लेगा? पर इकबाल था कि बराबर बोले ही जा रहा था। परन्तु अब हम सुरंग में प्रवेश कर चुके थे अतः उसके घुटन भरे वातावरण ने उसे चुप करा दिया था। जी हाँ! सुरंग में थोड़ी सी दूरी तय करने के बाद ही घुटन होने लगी थी, लेकिन ज्यादा नहीं। वह रामबाग तक चुप ही रहा।


रामबाग पहुँकर हम लोगों ने खाना खाया। बड़ी मुश्किल मेरे लिए हो जाती है कि पहाड़ में हर जगह ही दाल-भात का भोजन करना पड़ता है, जो मेरे लिए किसी मुहिम से कम नहीं। जगह अच्छी थी, पहाड़ थे सो, थोड़ा सा अपनापन लगा। लड़कियाँ शायद रात को शिमला से चली थीं इसलिए वे घर से खाना बनवाकर लाई थीं। मुझे भी वीना ने कुछ मिठाई और पूरी वगैरह दी थी, उसे पता था कि मैं चावल नहीं खा सकती लेकिन इकबाल ने चावल ही खाए। वहाँ एक बड़ा सा ढाबा था जिसके सामने और कई गाड़ियाँ खड़ी थीं। कुछ बसों का वहाँ रात्रि पड़ाव भी था।


खाना खाकर हमलोग आगे चल पड़े। रास्ते के दोनों ओर मजनू के वृक्ष अपनी लम्बी और बेलनुमा टहनियों से धरती माँ को प्रणाम कर रहे थे। इकबाल ने मुझे बताया कि इस पेड़ की लकड़ी से क्रिकेट खेलने के बैट बनते हैं। मैंने एक पेड़ अपने गाँव में भी मजनू का देखा था परन्तु जिसने उसे लगाया था शायद वह भी उसका नाम नहीं जानता था और न ही उसकी उपयोगिता के बारे में जानता होगा अन्यथा वहाँ भी घर-घर इसके पेड़ होते। आखिर धन कमाना कौन नहीं चाहता? यहाँ भी पूरे रास्ते लगभग हर घर के सामने बने-अधबने क्रिकेट बैट भारी मात्रा में सलीके से चट्टे (चौकोर ढेर) लगाकर रखे हुए थे।


हम शाम के चार बजे श्रीनगर पहुँच गए। श्रीनगर में प्रवेश करके, नदी पर बने हुए लकड़ी के पुल पर से गुजरते हुए हमें यत्र-तत्र छोटे शिकारे नजर आए। पता चला कि यदि हम रात को पहुँचते तो हमें पाँच बजे के बाद कोई बस बारामूला के लिए नहीं मिलती और तब हमें यहीं, इन्हीं शिकारों में रात गुजारनी पड़ती जिसके बारे में सोचकर भी झुरझुरी हो आती है क्योंकि नदी में पानी तो नाम मात्र को था और स्थान-स्थान पर पॉलीथिन और कचरे के ढेर नदी को घिनोना बना रहे थे। श्रीनगर बस अड्डे पर भी भारत के किसी अन्य छोटे कस्बे जैसा ही दृश्य उपस्थित था। कहीं भी-कुछ भी तो नया नहीं था। हम थक चुके थे और बारामूला की आखिरी बस छूटने का भय था। बस तैयार खड़ी थी जिसमें कुछ सीटें अभी बाकी बची हुई थीं सो हमें सीट भी मिल गई और हम आधे घण्टे बाद इकबाल के घर दिलना पहुँच गए। जहाँ उसकी माँ और भाइयों ने मेरा भरपूर स्वागत किया।


डॉक्टर इकबाल ने घर पहुँचते ही अपनी माँ और भाभी को बता दिया था कि मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ और घास-पात ही खाती हूँ इसलिए मेरे लिए पनीर की सब्जी बनाई गई। अभी हम लोग चाय ही पी रहे थे कि पड़ौस में कहीं से औरतों के गाने की आवाजें आने लगी। थोड़ी ही देर में लोग हमें बुलाने भी आ गए। कैसे उन लोगों को पता चला होगा कि कोई मेहमान आए हैं। गाँव में जकात (भण्डारा) थी। दो खूबसूरत औरतें मेरे पास आईं, कहने लगीं, ‘‘गाय नहीं बनी है। आप चलिए।’’ इकबाल ने हँस कर कहा कि ‘‘ये तो घास खाती हैं, तुम किसी दिन घास बना कर इन्हें बुला लेना।’’ उस दिन तो वे औरतें मायूस होकर चली गईं, लेकिन जब तक हम वहाँ रहे हर दिन किसी न किसी घर से बुलावा आता रहा और हम चाय की दावत कुबूल करते रहे। खास बात यह कि बारमूला के हर घर में बेकरी में बनी चीजों का प्रयोग अवश्य ही होता है। लोग घरों में कुछ नहीं बनाते। वहाँ दिलना और बारामूला में कुछ शायरों से भी मेरी मुलाकात हुई। मैं जिस घर में भी जाती लोग मुझसे ग़ज़ल की फरमाइश जरूर करते थे।


एक दिन इकबाल मुझे किसी शायर के घर ले गया। मेरे मना करने पर बोला, ‘‘बड़े अच्छे शायर हैं। आप को उनसे मिलकर खुशी होगी। जब से उन्हें इस बात का पता चला है कि हमारे घर में कोई शाइरा आई हैं तभी से वे मुझसे आप को उनके घर लाने के लिए इसरार कर रहे हैं।


एक दिन बाद दोपहर तीन बजे के करीब हम उनके घर चले गए। वे अपने इलाके में बी.डी.ओ. थे। बड़ा सुन्दर घर बनाया हुआ था लेकिन दिलना के हर घर की तरह वहाँ भी बैठने का इन्तजाम जमीन पर ही था। पहले तो हमें उन्होंने बैठक में बैठाया जहाँ कुर्सियाँ और सोफे लगे हुए थे फिर शायद वे असहज अनुभव करने लगे तो बोले ‘‘चलिए आराम से अन्दर बैठा जाए।’’ अब हम जहाँ पहुँचे वह एक बड़ा हाल कमरा था। बिना किसी तरह के फर्नीचर के खूबसूरत कीमती कालीन पर दीवार के सहारे-सहारे गाव तकिए लगे हुए थे।


अब जो हमज़ौक लोग बैठे हैं तो कुछ हमसे सुना गया और कुछ उन्होंने सुनाया। सुनते-सुनाते वक्त का पता ही न चला। इकबाल बेचैन होने लगा तो मुझे भी आज्ञा लेने की याद आई। बाहर निकल कर देखा, अँधेरा होने लगा था। पूरे परिवार से विदा लेते-लेते कुछ समय और लग गया। उनका घर नजर से ओझल होते ही इकबाल ने बौखलाना शुरू कर दिया, ‘‘जल्दी चलो, आपको पता ही नहीं है कुछ भी।’’


मैं कुछ कहने ही चली थी कि उसने मुँह पर अँगुली रखकर धीरे से ‘शी’ की आवाज निकाली और मेरा बाजू पकड़ कर घसीटने लगा। जल्दी ही हम सड़क पर थे। उसने पलभर रुक कर चारों तरफ देखा फिर इत्मीनान की साँस लेकर बोला ‘चलो।’ और मेरा बाजू पकड़कर लगभग घसीटता हुआ सड़क पार कर गया।


सड़क पार होते ही उसने मेरा बाजू छोड़ दिया और एक लम्बा गहरा साँस लेकर बोला, ‘‘पता है, हम जहाँ से गुजर रहे थे वह एक खूंखार आतंकवादी का घर था। अगर वह आपको देख लेता तो गजब हो जाता। वह भी उस सुरंग वाली सी.आई.डी. की तरह ही सोचता कि आप रात को इधर से क्यों गुजर रही हैं।’’ खैर अब हम इकबाल के घर के पास थे और इकबाल पूरी तरह से निश्चिंत था।
मैं वहाँ पूरा एक महीना रही। मैं थोड़ी-थोड़ी कश्मीरी जबान भी समझने लगी थी। जैसे दही को जमदुद कहा जाता है, पानी को त्री और प्यास को त्रेश। इकबाल की माँ मुझे हर रोज कलमा पढ़ाने की कोशिश करती थी। मैं सोचती थी कि हमारे यहाँ कोई मुसलमान आए तो हम उसे कभी भी गीता पढ़ने को क्यों नहीं कहते? पर हाँ, यह बिल्कुल सच है हम किसी को नहीं कहते कि वह गीता या रामायण पढ़े।


पूरा एक महीना दिलना रहने के दौरान श्रीनगर की डलझील, गुलमर्ग और बहुत सी सूफी संतों की दरगाहों के साथ-साथ मैंने जिस कश्मीर को जाना-समझा वह न तो भारत के साथ कोई समझौता करने के लिए तैयार दिखाई दिया और न ही वह अपने आप को भारत का हिस्सा मानता है। अगर मैं यह कहूँ कि कश्मीर अलगाववादियों की आड़ में पाकिस्तान के हाथों में खेल रहा है और भारत को भावनात्मक त्रास देकर उसका दुरुपयोग कर रहा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि कश्मीरी नागरिक भारत की दी हुई हर सुविधा का उपयोग करना और प्रशासन को असफल सिद्ध करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते।


वहाँ पर कोई बिजली का बिल नहीं देता और सरकार बिजली के कनेक्शन भी नहीं काटती जबकि किसी भी भारतीय नागरिक के समय पर बिल न अदा करने पर उसके घर अथवा व्यवसायिक संस्थान के तार काट दिए जाते हैं। यहाँ, हर घर में रोशनी के लिए गैस के छः सात छोटे सिलेंडर होते हैं, जो महीनों तक विद्युत आपूर्ति के न होने पर भी नागरिकों को असुविधा अथवा अभाव नहीं होने देते। स्थानीय बसों में कण्डेक्टर के पास टिकट नहीं होते। जन साधारण पैसा अवश्य देते हैं और जवान लड़के-लड़कियाँ तो कई बार कण्डेक्टर को धमका भी देते हैं और पैसा नहीं देते। जब टिकट ही नहीं छपेंगे तो सरकार को टैक्स कौन देगा? इसी तरह सरकारी बैंकों (भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नैशनल बैंक, यू.को. बैंक आदि) में कश्मीरी लोग अपना खाता नहीं खोलते। कश्मीरी जनता का सारा धन जम्मू-कश्मीर बैंक में जाता है। सरकारी बैंक मात्र वेतन देने के लिए मौजूद हैं। वहाँ कोई आकाशवाणी और दूरदर्शन की ओर आकर्षित नहीं है। जब कभी घण्टे-आधे घण्टे के लिए बिजली आती है तो लोग पाकिस्तान टी.वी. या पाकिस्तान रेडियो सुनते हैं।


मुझे वह घटना भी नहीं भूलती जब मैं आकाशवाणी श्रीनगर में रिकार्डिंग के लिए गई थी। इकबाल मुझे आकाशवाणी छोड़कर किसी मित्र से मिलने चला गया था। उसे अन्दर नहीं जाने दिया गया था। उसने मुझसे कहा था, ‘‘रिकार्डिंग खत्म होने पर, बाहर गेट के पास रहना मैं दो घण्टे में आपको लेने आ जाऊँगा।’’ भीतर जाने पर आकाशवाणी के निदेशक बहुत ही सभ्यता से पेश आए। अतिथि कलाकार के बतौर मेरी रिकार्डिंग कर ली गई। फिर रिकार्डिंग के बाद जब मैं बाहर आई तो इकबाल अभी वापस नहीं पहुँचा था। मुझे उसका इन्तजार तो करना ही था, क्योंकि मैं वहाँ के रास्तों से परिचित नहीं थी। मैं आकाशवाणी के गेट के पास चुपचाप खड़ी हो गई। वहाँ से दायें-बायें हो जाने से इकबाल को मुझे तलाश करना पड़ सकता था। तब तक मोबाइल नहीं थे।


गेट पर दोनों ओर मोर्चे बने हुए थे। रेत के भरे बोरे गेट के दोनों तरफ रखे थे और बंदूकधारी सिपाही उनके पीछे खड़े थे। ऐसा हर आकाशवाणी केंद्र पर तो नहीं होता परन्तु वहाँ यह व्यवस्था सम्भवतया सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक थी। थोड़ी देर तो मैं इधर-उधर टहलती रही। गेट पर तैनात सिपाही भी मुझे देख रहे थे, फिर एक सिपाही मेरे पास आ गया। मुझसे उसने वहाँ टहलने का कारण पूछा, तो मैंने सारी बात उसे बता दी। जब वह बोला था तो मैंने उससे तुरन्त ही पूछ लिया, ‘‘आप हिमाचल के हो क्या? मैं भी हिमाचल की ही हूँ। मैंने आपकी भाषा को पहचान लिया है।’’


‘‘हाँ! काँगड़ा का हूँ, इधर चलिए।’’ मेरे उसके द्वारा इंगित स्थान पर जाने से वह कुछ आश्वस्त तो हुआ परन्तु फिर बेचैन होकर कहने लगा, ‘‘मैं आपके साथ अधिक बात नहीं कर सकता क्योंकि इससे आपको खतरा हो सकता है।’’


‘‘क्या खतरा हो सकता है मुझे?’’


‘‘आप समझ नहीं रही हैं, यहाँ तो दिन रात यही होता है, कहीं से कोई गोली आएगी जो हमारे लिए होगी और आप हमारे साथ हैं इसलिए वह गोली आपके लिए भी हो सकती है। मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ आप वहाँ, उस पेड़ के पास खड़े रह कर इन्तजार कर लीजिए।’’ इतना कह कर वह बिना जवाब का इंतज़ार किए, मुड़ कर चला गया और पुनः अपने मोर्चे पर खड़ा हो गया। मैं अक्सर ही सोचती हूँ कि इन हालात में हम किस कश्मीर को अपना कह रहे हैं? और हमारे नेता आखिर हमारी आने वाली नस्लों के लिए क्या सोच रहे हैं और क्या चाहते हैं?


दिलना के पास एक और गाँव है जिसका जिक्र करना अनुचित नहीं होगा। इस गाँव का नाम है कानसपुरा। कानसपुरा में मैंने बड़े-बड़े अवशेष देखे जो निःसंदेह बड़ी और विशाल मूर्तियों के थे। तब मुझे अपने पास कैमरा न होने का बहुत दुःख हुआ। इकबाल के बड़े भाई अध्यापक थे। उनसे छोटे डॉक्टर और उनसे छोटा फौजी। बड़े दोनों अविवाहित थे, जबकि फौजी विवाहित था। इकबाल सब से छोटा था। इकबाल के पिता फौज में ड्राइवर रहे थे और कारगिल में एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई थी।


इकबाल की माँ की पेंशन बन्द थी, जिसे बहाल कराने के लिए इकबाल मुझे भी साथ ले जाता था, क्योंकि उस विभाग के अधिकारी हिंदू भी थे और साहित्यकार भी थे। उसने मेरी बहुत-सी पुस्तकें घर से चलते समय साथ रख ली थीं। उस समय मुझे समझ में नहीं आया कि वह मेरी इतनी पुस्तकों का क्या करना चाहता है, पर अब समझ में आ रहा था। वह अपना काम निकालने के लिए साहित्य से जुड़े लोगों को मेरे माध्यम से प्रभावित कर रहा था।


जम्मू-कश्मीर के स्वस्थ्य विभाग के निदेशक मेरे पूर्व परिचित निकले। मैंने उनके साथ जालन्धर दूरदर्शन के मुशाइरों में भाग लिया था। इकबाल ने सरकारी नौकरी के लिए आवेदन कर रखा था, मैंने जब उनसे इकबाल की सिफारिश की तो उन्होंने उसे ऐसे लिया, जैसे मैंने उनसे चाय पिलाने को कहा हो। उन्होंने बाद में इकबाल की पोस्टिंग कारगिल में करवा दी।


इकबाल की माँ की पेंशन का मसला भी निपट गया और उसका फौजी भाई भी जो उन दिनों घर आया हुआ था, वापस लौट गया तो हम भी वापस हिमाचल लौट आए।