अतीत के झरोखे से /सम्पूर्णानंद मिश्र

अतीत के झरोखे से /सम्पूर्णानंद मिश्र

आज दिनांक 7 सितंबर का दिन मेरी ज़िन्दगी का अहम दिन है। 7 सितंबर 2002 दिन शनिवार को जम्मू-कश्मीर में अवस्थित केन्द्रीय विद्यालय किश्तवाड़, जिसे केन्द्रीय विद्यालय संगठन की स्थानांतरण नियमावली में कठिन क्षेत्र माना जाता है, में मैंने बतौर स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी, कार्यभार ग्रहण किया था। बेरोज़गारी के अभिशाप से अवमुक्त होकर जम्मू कश्मीर की वादियों तक पहुंच गया। मेरे तीन मित्र जिनका नामोल्लेख करना अत्यंत समीचीन होगा। श्री अशोक कुमार पांडेय सेवानिवृत्त ग्राम विकास अधिकारी सिंचाई विभाग, मुगलसराय।

श्री राधेश्याम सिंह चौहान व अजय कुमार जायसवाल सहायक अध्यापक प्राथमिक विभाग चकिया जिला चंदौली, इन त्रिमूर्तियों ने मेरे भीतर इतना उत्साह भर दिया कि मैं जाने के लिए वहां तैयार हो गया जबकि 2002 में वहां आतंकवादी गतिविधियां पराकाष्ठा पर थी मेरे मन ने भी मुझे यही समझाया कि आपदा में जो अवसर तलाश ले वही असली विजेता होता है। उन मित्रों ने मुझे 4 सितंबर 2002 दिन बुधवार को हाबड़ा से चलकर जम्मू जाने वाली गाड़ी पर बैठाने के लिए मुगलसराय स्टेशन तक आए थे। जब मुगलसराय छूटा तो लगा सब कुछ छूट गया। मित्र छूटे। परिवार छूटा। देश छूटा।

अपना मन भी मुगलसराय में ही छूट गया केवल शरीर गया। जम्मू शुक्रवार यानि 5 सितंबर को दोपहर बारह बजे पहुंचा। वहां पहुंचने पर मन टूटने लगा और मैं अपने को अभागा समझने लगा कि हे ईश्वर मुझसे क्या पाप हो गया कि सब कुछ छोड़कर यहां तक चला आया। मेरी बिटिया उस समय चार साल की थी उसके रोने की आवाज़ और मां की आंखों से निकले हुए आंसू मेरे पैरों में ममता और स्नेह की अनेक बेड़ियों को डाल दिया उन्हें तुड़ा कर परदेश चल देना कितना कष्टसाध्य था यह मित्रों अवर्णनीय है। खैर *पुरुष बलि नहीं होत है समय होत बलवान* 6 सितंबर की शाम 6 बजे किश्तवाड़ पहुंच गया।

वहां की सुंदरता ने मुझे अपनी तरफ़ आकृष्ट किया। तत्कालीन प्राचार्य व वर्तमान सहायक आयुक्त वाराणसी संभाग, परम श्रद्धेय श्री बिशुन दयाल जी की सदाशयता ने मुझे यह पता ही न चलने दिया कि मैं मुगलसराय यानि घर से लगभग 1300 किलोमीटर दूर आ गया हूं। उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया। उस समय मुझे केन्द्रीय विद्यालय संगठन के नियमों का ककहरा भी नहीं आता था। उन्होंने न केवल केन्द्रीय विद्यालय संगठन के नियमों की वर्णमाला का बोध कराया, बल्कि शिक्षण की विभिन्न धाराओं और प्रविधियों से मुझे अवगत भी कराया।

उनके प्रति आभार व्यक्त करना उनके इस महनीय कार्य को छोटा करना होगा। मुगलसराय पी० जी ० कालेज चंदौली में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर लब्ध प्रतिष्ठ कथाकार व मेरे बाबूजी श्रद्धेय श्री डॉ० रमाकांत मिश्र जी उस समय कार्यरत थे और मेरा आवास भी मुगलसराय कोतवाली के पीछे विकासनगर कालोनी में था, जबकि मैं मूलतः वाराणसी हरिहरपुर हाथी बाजार का रहने वाला हूं। किश्तवाड़ जम्मू कश्मीर मुझे खूब फलीभूत हुआ। यहां की आबोहवा का मैंने खूब लाभ भी उठाया स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से। यहीं 2003 में 10 सितंबर के दिन मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई दरअसल रत्न कहना बिल्कुल त्वरा होगी क्योंकि जब तक वह अपने को रत्न के रूप में ढाल न लें। 10 सितंबर 2022 को पूरे 19 साल के हो जायेंगे।

पैतृक पेशा साहित्य से इतर हटकर इंजीनियरिंग की तैयारी में रत हैं। ईश्वर की कृपा रही तो इस बार उसे कहीं किसी शासकीय महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल जायेगा। मेरी पुत्री आकृति मिश्रा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी फैज़ाबाद में बी० एस० सी० चतुर्थ एवं अंतिम साल में अध्ययनरत है। मेरे जीवन को सार्थक दिशा देने में जिन महापुरुषों का योगदान रहा है उसमें सर्वप्रथम मेरे बड़े पिताजी, जो संस्कृत भाषा के आधिकारिक विद्वान रहे स्व० पं० विन्ध्यवासिनीप्रसाद मिश्र जी, उपप्राचार्य हाथी बरनी इण्टर कॉलेज वाराणसी, पूज्य पिताजी श्री डा० रमाकांत मिश्र प्रतिष्ठित उपन्यासकार व पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, लाल बहादुर शास्त्री पी० जी० कालेज मुगलसराय चंदौली का।

मेरे जीवन में मेरी पत्नी श्रीमती रेखा मिश्रा का भी अविस्मरणीय योगदान रहा जिन्होंने गृहस्थी की समस्त ज़िम्मेदारियों को सहर्ष अपने कंधे पर लेकर मुझे लिखने और कुछ अच्छा करने के लिए सदैव प्रेरित करने का पुनीत कार्य किया, उसके इस उत्साहवर्धन व सहयोग से मैंने लिखने का कार्य किया। आज की तिथि में मेरा एक काव्य- संग्रह कराहती संवेदनाएं प्रकाशित हो चुका है और दूसरा *शहर में कर्फ्यू* शीघ्र ही प्रकाशित होने की संभावना है प्रकाशक से बात चल रही है। इस 20 वर्ष की सेवा में मुझे कई प्रदेश के केन्द्रीय विद्यालय में कार्य करने का सुअवसर मिला, जहां भी रहा‌, बच्चों को पढ़ाने में मैंने अपनी तरफ़ से कभी कोई कमी नहीं की, क्योंकि यही छात्र किसी भी शिक्षक की असली पूंजी होते हैं।

उक्त अवधि के दरम्यान मुझे बहुत लोगों से मिलने का मौका मिला। जीवन के खट्टे और मीठे मिश्रित अनुभव भी मुझे प्राप्त हुआ। बहुरंगी और विविधता से युक्त मित्र भी मिले। कुछ मेरे साथ बहुत दूर तक चलते हुए आज भी मेरे साथ हैं और कुछ साथ होने की दिलासा भी दिलाते रहे, और कुछ इस तरह रंग बदलते रहे कि आज तक मुझे यह बात नहीं समझ आयी कि उनका असली रंग कौन सा है! परिस्थितिवश मेरे साथ रहे। खैर इन सभी का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मैं आभार अभिव्यक्त करता हूं।

11अप्रैल 2011को अंतिम बार मेरे और मेरे भाई, बहन के ऊपर अपनी ममता की वर्षा कर मेरी मां देवलोक चली गई उनकी आयु उस समय 62 वर्ष की ही थी। उनको बचाने की हम लोगों ने पुरज़ोर कोशिश की, लेकिन सारा प्रयास निष्फल हुआ। उस समय मैं केन्द्रीय विद्यालय जमुना कालरी मध्य प्रदेश में कार्यरत था बिलासपुर से लेकर बनारस के सभी अस्पतालों को छान मारा लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। इतने समय तक का ही साथ रहा माताजी के साथ हम भाई-बहन का। ईश्वर कारसाज होता है उसकी लीला बहुत न्यारी होती है। उसे समझ पाना हम जैसे सामान्य मनुष्य के वश की बात नहीं है।

मां की असामयिक मृत्यु की पीड़ा से हम लोग अभी पूरी तरह से उबरे नहीं थे कि बड़े भाई श्री डा० नित्यानंद मिश्र स्नातकोत्तर शिक्षक हिंदी जवाहर नवोदय विद्यालय शेरघाटी गया की पत्नी और मेरी भाभी श्रीमती अंजू मिश्रा की कैंसर से मृत्यु ने पूरे परिवार को झकझोर कर रख दिया। 21 अक्टूबर 2015 शारदीय नवरात्र महाअष्टमी के दिन ब्रेस्ट कैंसर से जूझते हुए जब उन्होंने टाटा मेमोरियल अस्पताल मुंबई में हम लोगों के सामने उन्होंने अंतिम सांस ली, तब के दृश्य को याद करने पर मन और शरीर दोनों जीर्ण-शीर्ण होने लगता है। समय बड़ा बलवान होता है। धीरे – धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। *जो बीत गई सो बात गई*अंत में मैं केन्द्रीय विद्यालय संगठन के उन सभी अधिकारियों का धन्यवाद करता हूं जिनके ज्ञान – वितान के नीचे बैठकर कुछ सीखने का अवसर मिला। आज अपनी शैक्षणिक- यात्रा के सफलतापूर्वक बीस वर्ष की उपलब्धि पर पुनः सभी के प्रति पूरी विनम्रता व प्रतिबद्धता के साथ आभार अभिव्यक्त करता हूं।

सम्पूर्णानंद मिश्र

स्नातकोत्तर शिक्षक, हिंदी

केन्द्रीय विद्यालय नैनी प्रयागराज( उत्तर प्रदेश)

7458994874