खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459

हिन्दी की लोकप्रियता के साथ बढ़‌ता जनाधार

हिन्दी की लोकप्रियता के साथ बढ़‌ता जनाधार

भाषा के बिना समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मजबूत और सुदृढ़ राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के लिए राष्ट्रभाषा का होना उतना ही आवश्यक है, जितना जीवित रहने के लिए ‘आत्मा’ का होना आवश्यक है।
हिंदी भाषा की जब भी बात होती है तो, मन में 14 सितंबर, हिंदी दिवस गूंजने लगता है। तत्क्षण बैंकिंग सेक्टर, चिकित्सा क्षेत्र, अभियांत्रिकी क्षेत्र, आईसीएसई, सीबीएसई बोर्ड के स्कूल, सोशल मीडिया, हिंग्लिश आदि की ओर अंतःमन का ध्यानाकर्षण होने लगता है। हम सब मिलकर चिंतन करें कि आखिर 72 वर्ष बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई है? वोट की राजनीति या विभिन्न सरकारों में इच्छाशक्ति की कमी या क्षेत्रवाद? या भौतिकवादी समाज में खुद को श्रेष्ठ दिखाना? कारण जो कुछ भी हो, हम कह सकते हैं कि हिंदी अपने ही देश में बेगानी होती जा रही है।
हिंदी का प्रत्येक व्यंजन और स्वर मुख्यतः अर्धचंद्र और बिंदी से बना है। यदि हम हिंदी लिखते समय सुकृत बिंदी और अर्धचंद्र का प्रयोग आवश्यकतानुसार करें, तो सभी वर्ण शब्द वाक्य अति सुंदर तथा सुडौल बनेंगे। हिंदी के उद्भव की बात करें तो, विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है, तत्पश्चात क्रमानुसार पालि–प्राकृत–अपभ्रंश तब हिंदी का विकास हुआ है।

सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी


गुरु गोरखनाथ, लल्लू लाल, सरहपा हिंदी के प्रथम गद्य लेखक/रचनाकार माने जाते हैं। चंद्रवरदाई, मालिक मोहम्मद जायसी, खुसरो, अब्दुल रहमान, संत रैदास, सूरदास, तुलसीदास, बिहारी, मीराबाई, नाभादास भारतेंदु हरिश्चंद्र, महादेवी वर्मा आदि ने हिंदी में अपनी विभिन्न विधाओं रचनाएं लिखा है, जो आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल से हिंदी प्रचलन में होने का प्रमाण है। उत्तर प्रदेश में रायबरेली जनपद के ग्राम दौलतपुर निवासी, हिंदी के पुरोधा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन 1903 में ‘सरस्वती’ पत्रिका का संपादन किया, तब वे ब्रिटिश शासनकाल में रेलवे में नौकरी करते थे। उसी वर्ष द्विवेदी जी ने राष्ट्रप्रेम और हिंदी के उत्थान के लिए अंग्रेजों से मन मुटाव हो जाने के कारण रेलवे की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था। स्वतंत्र भारत से पूर्व सन 1918 ईस्वी में सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की पहल की थी। भारतीय संविधान के भाग 17 में वर्णित अनुच्छेद 343 से 351 तक संघ की भाषा, उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों की भाषा, प्राथमिक शिक्षा, मातृभाषा में देने का उल्लेख है। हम गर्व के साथ कहते हैं कि विश्वपटल पर हिंदी दूसरे पायदान पर है। दिनांक 10 जनवरी सन् 2017 को दैनिक जागरण के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित शीर्षक “दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा बनी हिंदी” के अंतर्गत मुंबई विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर डॉक्टर करुणा शंकर उपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ’ में यह उल्लेख किया है कि हिंदी विश्व पटल पर सर्वाधिक बोली जाती है।


हिंदी का विकास कैसे हो?


सरकारी, गैर सरकारी कार्यालयों में जो व्यक्ति कार्यालयी कार्य हिंदी में करे, उसे अतिरिक्त वेतन, अतिरिक्त अवकाश तथा अहिंदी भाषी राज्यों में भ्रमण हेतु पैकेज दिया जाना चाहिए। हिंदी विषय के विभिन्न साहित्यकारों और अन्य ज्ञानोपयोगी बिंदुओं पर शोधकार्य होना चाहिए, जिसके लिए सरकार और विश्वविद्यालयों को पहल करनी होगी। हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए संपूर्ण भारत के सभी स्कूलों में हिंदी विषय में प्रथम श्रेणी प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा अतिरिक्त छात्रवृत्ति, प्रशस्ति पत्र और अधिभार अंक मिलना चाहिए, जिससे छात्रों का हिंदी प्रेम और मनोबल बढ़े। महानगरों की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं वाले स्कूलों में छात्रों और अभिभावकों से हिंदी में ही वार्तालाप किया जाए। हिंदी को पाठ्यक्रम का एक हिस्सा मानकर नहीं, वरन मातृभाषा के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए।
हिंदी आध्यात्मिकता, दर्शनिकता से परिपूर्ण, भावबोध से ही दूसरों के मन की बात समझने वाली l वैज्ञानिक शब्दावली की भाषा है। हिंदी भाषा में स्वर और व्यंजनों के उच्चारण कंठ, तालु, होष्ठ, नासिका आदि से निर्धारित अक्षरों में किए जाते हैं। ऐसा वैज्ञानिक आधार अन्य भाषाओं में नहीं मिलेगा। हिंदी में जो लिखते हैं, वही पढ़ते हैं- जैसे ‘क’ को ‘K क’ ही पढ़ेंगे। अंग्रेजी में ‘क’ को Ch, Q, C, K लिखते या पढ़ते हैं। हिंदी “अ” अनपढ़ से शुरू होती है और “ज्ञ” ज्ञानी बनाकर छोड़ती है, जबकि अंग्रेजी A apple से शुरू होकर Z zebra जानवर बनाकर छोड़ती है।
अखिल विश्व की प्रमुख भाषाओं में चीनी भाषा में 204, दूसरे स्थान पर हिंदी में 52, संस्कृत में 44, उर्दू में 34. फारसी में 31, अंग्रेजी में 26 और लैटिन भाषा में 22 वर्ण होते हैं। हिंदी की महत्ता और वैज्ञानिक पद्धति को समझते हुए देश में सर्वप्रथम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी के आईआईटी विभाग ने अपने पाठ्यक्रम को हिंदी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने की अनुमति प्रदान की है।
गर्व की बात है कि माननीय उच्च न्यायालय, प्रयागराज के न्यायमूर्ति श्री शेखर कुमार यादव ने “स्व का तंत्र और मातृभाषा” विषयक संगोष्ठी को संबोधित करते हुए अधिवक्ताओं से कहा था कि आप हिंदी में बहस करें, मैं हिंदी में निर्णय दूँगा। साथ ही कहा कि 25 प्रतिशत निर्णय में हिंदी में ही देता हूँ।
विश्वविद्यालयों की वार्षिक, सेमेस्टर परीक्षाओं में वर्णनात्मक या निबंधात्मक प्रश्नोत्तर लगभग समाप्त करके बहुविकल्पीय प्रश्नपत्रों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। इस विकृत व्यवस्था से नकल को बढ़ावा तो मिला ही, साथ-साथ विद्यार्थी के अंदर लिखने-पढ़ने का कौशल तथा भाषाई ज्ञान समाप्त हो रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार को खुश करने के लिए कुछ विश्वविद्यालयों के नीति नियंता अब भी बहुविकल्पीय प्रश्नपत्र प्रणाली लागू करते देश को गर्त में ले जाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं? हमें स्मरण रखना चाहिए कि आम–खास सभी की पारिवारिक संतानें आने वाले समय में पठन, पाठन, लेखन क्षेत्र में मानो अपंग हो जाएंगी। निवेदन पूर्वक आग्रह है कि बहुविकल्पीय प्रणाली समाप्त किया जाना चाहिए। कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त करने के भ्रम में युवा पीढ़ी की भाषा, तार्किक शक्ति क्षीण होती जा रही है । उदाहरण स्वरूप विद्यार्थी, युवा और र्बुजुर्ग नर–नारी व्हाट्सएप विश्वविद्यालय के चक्कर में पड़कर अंग्रेजी या हिंदी की संक्षिप्त भाषा को अपने जीवन और लेखन में उतरने लगे हैं। इतना संक्षिप्त भाषाई प्रयोग से न हिंदी का सही व्याकरणीय ज्ञान का बोध करा पा रहा है, न अंग्रेजी का। जैसे प्लीज को Plz , थैंक्स को Thnx, मैसेज को Msg, हम को Hmm लिखने का प्रचलन खूब चल रहा है। जो आने वाली पीढ़ी के लिए घातक है।
कोविड-19 का दुष्प्रभाव भी बच्चों बूढ़ों पर बहुत पड़ा
है। इसके कारण 2 वर्षों से अधिक समय तक स्कूली, पुस्तकीय और प्रयोगात्मक पढ़ाई न हो पाने के कारण वास्तविक ज्ञानार्जन की समस्या उत्पन्न हुई है। विद्यार्थियों में भाषाई, उच्चारण और व्याकरण की समस्या दूर करने के लिए शिक्षकों के साथ-साथ अभिभावकों को भी आगे आना होगा। अभिभावक गण अपने पाल्यों की कॉपियां देखें और त्रुटियों की ओर उनका ध्यानाकर्षण करें।

हिंदी दिलों को जोड़ने वाली मातृभाषा

अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो हिंदी दिलों को जोड़ने वाली मातृ भाषा। हिंदी माँ है, तो उर्दू मौसी और संस्कृत तो सभी भाषाओं की जननी है। इसका गहनता से अध्ययन करते हुए हिंदी भाषा को सशक्तिकरण के रूप में अपनाना होगा। प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाने का तात्पर्य यह नहीं है कि हिंदी पीछे है या कमजोर है। इस महत्वपूर्ण दिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने का उद्देश्य है- हिंदी को सम्मान देना। इस सम्मान की गरिमा बनाए रखने के लिए देवनागरी लिपि हिंदी को यथाशीघ्र राष्ट्रभाषा घोषित किया जाना चाहिए।

कभी-कभी मैं स्वयं हतप्रभ रह जाता हूँ कि 21 अगस्त सन 2021 को हिंदुस्तान समाचार पत्र में प्रकाशित खबर के अनुसार प्रवक्ता पद के प्रश्नपत्र में 90% व्याकरण सम्बन्धी और अक्षरों की त्रुटियां थी। प्रतियोगी परीक्षाओं में इतनी अधिक त्रुटियों होना हम सब को कटघरे में खड़ा करता है। यह योग्यता में कमी या इच्छाशक्ति में कमी या हिंदी के प्रति दुव्यवहार दर्शाता है? आखिर हमारी शैक्षिक पद्धति कहाँ जा रही है?
अंत में इतना ही कहना चाहूँगा- अंग्रेजी के अल्पज्ञान ने हिंदी को पंगु बना दिया।

डॉ० अशोक कुमार गौतम, असिस्टेंट प्रोफेसर,
शिवा जी नगर, आईटीआई, रायबरेली उप्र
दूरभाष– 9415951459

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

स्वाधीनता संग्राम में ‘सरेनी गोलीकांड’ की स्वर्णिम गाथा

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ भले ही हम सन 1857 ई० से मानते हैं, किंतु फिरंगियों का भारत आगमन के समय से ही उनके विरोध की ज्वाला भारत में यत्र–तत्र जलने लगी थी। तत्पश्चात सन 1857 की क्रांति ने आजादी पाने का मार्ग प्रशस्त और तीव्र किया था। बहुत संघर्ष के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति का यह सपना 15 अगस्त सन 1947 की मध्यरात्रि को पूर्ण हुआ। कई दशकों की लंबी अवधि में देश की आजादी के यज्ञ में अगणित क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। इनमें से कई वीर सपूतों की चर्चा हुई और कई विस्मृति के गर्त में समा कर गुमनाम हो गए।
अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य भारत में कर लिया, तब फिरंगियों की सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों पर तरह–तरह की प्रताणनाएं देना शुरू कर दिया था। अनगिनत वीरों को कहीं भी, किसी भी चौराहा, या किसी भी पेड़ से सरेआम लटकाकर फांसी दे देते थे, हजारों क्रांतिकारियों को तोपों के मुंह पर बांधकर गोला से उन्हें उड़ा दिया जाता था। बहुत से स्वतंत्रता सेनानियों को भूखा–प्यासा रखते हुए तड़पा–तड़पा कर मारा जाता था।


पोर्ट ब्लेयर स्थित सेल्यूलर जेल में बंद निर्दोष क्रांतिकारियों, स्वातन्त्र्य वीरों पर किया गया जुल्म–ओ–सितम और यातनाओं की दर्द भरी दास्तां सुनकर दिल दहल जाता है, जिसके कारण उस स्थान को ‘काला पानी’ की संज्ञा दी गई है। वहां की घटनाओं और जुल्म को पढ़कर हमारी आंखों में आंसू आ जाते हैं।


क्रांतिकारियों के नाखूनों में कीलें ठोकी गयीं। पाशविक यातनायें दी गयी, कोल्हू में जोता गया, मगर वीरों ने उफ न किया। वीर सपूत फाँसी का फन्दा अपने हाथों से पहनकर हँसते हुये देश के लिए शहीद हो गये। इन वीरों का उत्साह देखकर फाँसी देने वाले जल्लाद भी रो पड़ते थे। वीर सपूतों के परिवारी जनों को सताया गया, लेकिन क्रान्तिकारी टूटे नहीं, बल्कि सभी क्रांतिकारियों में उत्साह दोगुना होता गया।
दुर्भाग्य यह है कि हम आजाद भारत वर्ष के नागरिक अपने आजादी के परवानों का नाम तक नहीं जानते। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई में सन 1857 के पूर्व से लेकर 15 अगस्त सन 1947 तक हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सबने कभी भी यश, वैभव या सुखों की चाह नहीं की और न ही इन शूरवीरों ने अवसरों का लाभ उठाया।
बलिदानों के अदम्य साहस और इनके प्राणोत्सर्ग की अमिट छाप हम सबके मन में सदैव उद्वेलन करती है। हुतात्माओं/क्रांतिवीरों की जीवनियां पीढ़ी दर पीढ़ी देशभक्ति, त्याग और बलिदान की भावनाओं से जन-जन को उत्प्रेरित करती रहेंगी और हमारी स्वतंत्रता को अक्षुण बनाए रखेंगी।

स्वाधीनता संग्राम में अवध का बैसवाड़ा क्षेत्र कहीं से भी पीछे न रहा, अपितु रायबरेली में ही शंकरपुर, भीरा गोविंदपुर, मुंशीगंज, फुरसतगंज, सेहंगो, करहिया बाजार, सरेनी आदि क्षेत्रों में फिरंगियों के खिलाफ बिगुल बजाया गया। सरेनी में 18 अगस्त सन 1942 को गोलीकांड हुआ था, जिसका संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत है–
रायबरेली के बैसवारा क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र अथवा राजधानी भले ही लालगंज रहा हो, लेकिन सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सरेनी ही प्रसिद्ध है। गुप्त काल के पूर्व से इस क्षेत्र का अस्तित्व माना जाता है। प्रमाण स्वरूप सरेनी गांव के उत्तर पूर्व में प्रसिद्ध सिद्धेश्वर मंदिर में गुप्तकालीन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। सरेनी की बाजार रायबरेली के पुराने बाजारों में गिनी जाती है। यहाँ पर उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली के व्यापारी खरीद-फरोख्त करने आते हैं।
ब्रिटिश शासनकाल में ही सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी।
ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त सन 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास प्रतिबिंबित करता है। देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को हजारों की संख्या में सरेनी विकासखंड निवासी देशभक्त तिरंगा फहराने के लिए थाने की ओर बढ़ने लगे। ब्रिटिश सिपाहियों की गोलियां इन वीरों के कदमों को रोक न सकी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सरेनी क्षेत्र के चौकीदारों ने रामपुर कला निवासी ठाकुर गुप्तार सिंह के नेतृत्व में 11 अगस्त सन 1942 को सरेनी बाजार में बैठक किया जिसमें निर्णय हुआ कि शीघ्र ही सरेनी थाना में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त 1942 को हैबतपुर में विशाल जनसभा में गुप्तार सिंह ने आंदोलन को अंतिम रूप देते हुए तिरंगा फहराने की तिथि 30 अगस्त सन 1942 निर्धारित की। कुछ वसंती चोले वाले वीर युवकों ने 30 अगस्त के बजाय 18 अगस्त को ही थाना में तिरंगा फहराने की ठान ली। युवाओं के आह्वाहन पर हजारों की संख्या में भीड़ सरेनी बाजार में एकत्रित हुई। तत्कालीन थानेदार बहादुर सिंह ने भीड़ को आतंकित करने के लिए नवयुवक सूरज प्रसाद त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया। यह खबर आग की तरह फैलते ही आजादी के दीवानों ने थाने पर हमला कर दिया। हमले में कई ब्रिटिश सिपाहियों को चोटें भी आई। आक्रोशित थानेदार और सिपाहियों ने थाने की छत पर चढ़कर निहत्थे जनता पर अंधाधुंध गोलियां चलाना शुरू कर दिया। इस अप्रत्याशित गोलीकांड में भारत माँ के 5 वीर सपूत– टिर्री सिंह (सुरजी पुर), सुक्खू सिंह (सरेनी), औदान सिंह (गौतमन खेड़ा), राम शंकर त्रिवेदी (मानपुर), चौधरी महादेव (हमीर गांव) शहीद हो गए।
रणबाकुरों ने अपनी शहादत स्वीकार की, लेकिन वो ब्रिटिश हुकूमत के आगे न डरे, न झुके। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले पाँच शहीदों की याद में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। इसके ठीक बगल में शहीद जूनियर हाई स्कूल परिसर में छोटा शहीद स्मारक का भी निर्माण कराया गया। दोनों स्मारक गर्व से सीना ताने गोलीकांड और अमरत्व को प्राप्त हुए वीर सपूतों की स्वर्णिम गाथा का मूक गवाह बन कर खड़े हैं।
सरेनी स्थित शहीद स्मारक पर सन 1997 से प्रतिवर्ष 18 अगस्त को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

डॉ अशोक कुमार गौतम
(असिस्टेंट प्रोफेसर)
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

अमर शहीद जोधा सिंह अटैया : सत्तावनी क्रांति के अग्रदूत, जो 51 क्रान्तिकारियों संग एक साथ फांसी पर झूल गए

भारत प्राचीन काल से ही संपदा संपन्न, सुखी व समृद्ध रहा है। अखिल विश्व में भारतवर्ष की अलग पहचान सदियों से रही है। जल-थल-नभ में बहुमूल्य खनिज सम्पदा, औषधियां, हीरा जवाहरात आदि उत्पन्न होते थे। शायद इसीलिये भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, किन्तु अनेक विदेशी आक्रांताओं ने कई बार भारत की अस्मिता पर हमला किया। पराधीनता की अंतिम दास्ताँ को भी समाप्त करने की शुरुआत सन् 1857 से पहले हो चुकी थी। उसके बाद सम्पूर्ण भारत में एक स्वर में सन् 1857 में जंग-ए-आजादी का परवान चढने लगी थी। तब अनेक क्रांतिकारियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हुए भारत माता की रक्षा के लिए प्राण न्यौछावर कर दिया।

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ऐसे ही फतेहपुर के क्रांतिकारी अमर शहीद जोधा सिंह अटैया थे। जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर अंग्रेजों से अपनी रियासत मुक्त कराई थी।
जोधा सिंह अटैया का जन्म उत्तर प्रदेश सूबे के फतेहपुर जनपद में बिंदकी के निकट रसूलपुर पंधारा में हुआ था।
शहीद जोधा सिंह के नाम के साथ जुडे ‘अटैया’ शब्द की भी अपनी अलग कहानी है। अटैया शब्द इक्ष्वाकु वंश से संबंधित है, जिसके अन्तर्गत ‘गौतम’ गोत्र वाले क्षत्रिय आते हैं। गौतम वंशीय क्षत्रिय उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान में अधिक संख्या में निवास करते हैं। ये लोग ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, राष्ट्रप्रेमी, हृदय के साफ और दुश्मनों से बदला लेने में भी माहिर होते हैं।
भगवान गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ) के कहने पर गुरु शालण्य ने कपिलवस्तु से अलग राज्य स्थापित करने के लिए गौतम वंश की नींव डाली थी। ‘गौतम’ शब्द संस्कृत में गो + तम से बना है। इसलिए गौतम का अर्थ अंधकार को आध्यात्मिक ज्ञान से दूर करने वाला अर्थात ‘उज्जवल प्रकाश’ होता है।
कहा जाता है कि गौतम बुद्ध के वंशज फ़तेहपुर के शासक हरि वरण सिंह अटैया थे, जिन्होंने मुगलों से कई बार युद्ध करके उन्हें पराजित किया था। राजा हरि वरण सिंह के वंशज ही राजा जोधा सिंह अटैया थे।
इतिहासकार श्री शिव सिंह चौहान ने अपनी पुस्तक “अर्गल राज्य का इतिहास” में लिखा था कि फ़तेहपुर परिक्षेत्र इलाहाबाद (प्रयागराज) रेजीडेंसी के अन्तर्गत आता था, जिसे पश्चिमी इलाहाबाद और पूर्वी कानपुर के नाम से संबोधित किया जाता था। मुगलकाल का अंतिम दौर और ब्रिटिश काल का प्रारंभिक समय तक फ़तेहपुर नाम का कोई अस्तित्व नहीं था। कालांतर में अंग्रेजों ने यथाशीघ्र अपने साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से सन् 1826 में फ़तेहपुर जनपद का गठन किया था।
भारत की दो पवित्र नदियाँ माँ गंगा (सुरसरि) और यमुना (कालिंदी) के मध्य फ़तेहपुर जनपद में स्थित हैं। फतेहपुर जनपद के उत्तर में गंगा और दक्षिण में यमुना के हजारों वर्षों से अनवरत कल-कल की मधुर ध्वनि के साथ बहती हुई प्रतिदिन लाखों लोगों को जीवन दान देती हैं।
अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह का जन्म फ़तेहपुर से दक्षिण-पश्चिम में स्थित बिंदकी के समीप रिसालपुर के राजवाड़ा परिवार में हुआ था।
फ़तेहपुर छावनी में हमेशा भारी मात्रा में गोला बारूद का जखीरा रहता था। मातादीन वाल्मीकि ने जब शहीद मंगल पाण्डेय का जातिवाद के तंज पर आक्रोशित होकर कहा कि सुअर और गाय की चर्बी लगी करतूस मुँह से खींचते हो, तब तुम्हारी पंडिताआई कहाँ चली जाती है। इतना सुनते ही मानो अमर शहीद मंगल पाण्डेय के चक्षु खुल गए हों। मंगल पाण्डेय ने पश्चिम बंगाल स्थित बैरकपुर में 10 मार्च सन् 1857 को बगावत करते हुए ब्रिटिश अधिकारी मेजर ह्यूसन को गोली मार दी। उसके बाद 10 मई सन् 1857 को मेरठ में पूर्ण रूप से क्रांति की चिंगारी भड़की थी। यह क्रान्ति की चिंगारी ही नहीं, भारतीयों को आजादी पाने और भारत के उद्धार की लौ थी। यही चिंगारी ठीक एक माह बाद 10 जून को फ़तेहपुर में आग का गोला बनकर भड़क उठी थी। फ़तेहपुर के राजा ठाकुर जोधा सिंह पहले से ही सतर्क और घात लगाये बैठे थे कि यथाशीघ्र फिरंगियों पर हमला किया जा सके। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ अपने नज़दीकी नाना साहब सहमति पाकर फिरंगियों के ख़िलाफ़ फतेहपुर में जंग-ए-आजादी का आगाज़ कर दिया।
फ़तेहपुर के तत्कालीन कलेक्टर हिकमतुल्ला कहने को तो ब्रिटिश सरकार के नौकर थे, लेकिन उनका रक्त सच्चा हिंदुस्तानी था। इसलिए कलेक्टर ने क्रांतिकारियों का हर कदम पर सहयोग किया। उनके सहयोग से क्रांतिकारियों ने कचहरी परिसर में झंडा फहरा दिया। फ़तेहपुर की आज़ादी की घोषणा होते ही कलेक्टर हिकमतुल्ला को चकलेदार/ रिसालेदार नियुक्त कर दिया था। ‘चकलेदार’ का अर्थ- ‘कर Tax वसूलने वाला अधिकारी’ होता है। फ़तेहपुर की आज़ादी की घोषणा का स्वर लंदन पर जाकर सुनाई दिया था। तब फिरंगी इनसे भयभीत हो गए थे।
सन 1857 के गदर में शहीद जोधा सिंह का नाम कुशल रणनीतिकारों की श्रेणी में अग्रणी रहता था। अपनी रणनीति के तहत जोधा सिंह अटैया ने अवध और बुन्देलखण्ड के क्रान्तिकारी राजाओं से बेहतर ताल मेल बैठाया। सभी रियासतों के राजाओं और क्रान्तिकारियों ने एक साथ मिलकर उचित अवसर देखकर धीरे-धीरे सम्पूर्ण भारत में फिरंगियों और उनकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ संग्राम छेड़ दिया था।
अंग्रेज सैनिक अपने गुप्तचरों के साथ मिलकर, जोधा सिंह अटैया को खोज रहे थे। इस बीच जोधा सिंह को अपने गुप्तचरों से जानकारी हुई कि अंग्रेज सिपाही दरोगा दीवान आदि महमूद पुर गाँव में डेरा डाल चुके हैं। तब जोधा सिंह अटैया और उनके क्रांतिकारी साथियों ने गाँव में घुसकर 27 अक्तूबर सन् 1857 को सभी अंग्रेजों को एक घर में कैद करके आग के हवाले कर दिया। कई अंग्रेज सैनिकों की आग से जलकर मृत्यु हो गई थी। जोधा सिंह को पता चला की एक स्थानीय गद्दार रानीपुर पुलिस चौकी में छिपा है। जोधा सिंह ने साथियों को 7 दिसम्बर सन् 1857 को नाव से गंगा पार भेज कर देशद्रोही गद्दार को भी मरवा दिया था। अब तो अंग्रेजों में दशहत बढ़ती ही जा रही गई थी। अंग्रेज अधिकारी भी ठाकुर जोधा सिंह का नाम सुनते ही थर-थर काँपने लगे थे।
लंदन की अंग्रेज सरकार ने कर्नल पॉवेल को फतेहपुर का दमन करने के लिए भेजा। कर्नल पॉवेल ने जोश के साथ अपने सैनिकों को ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनकी सेना पर हमला करने के लिए भेजा। किन्तु अंग्रेज सैनिकों को उल्टे पैर भागने को मजबूर होना पड़ा। तब कर्नल पॉवेल आग बबुला हो गए। जोधा सिंह अटैया ने अवसर मिलते ही कर्नल पॉवेल को भी घेर कर सिर को धड़ से अलग करके मार डाला। भारत में चारों तरफ फ़तेहपुर की क्रांति की चर्चा हो रही थी। लंदन का सिंहासन भी डोलने लगा था।
अंग्रेज गवर्नर ने अब अत्यंत क्रूर कर्नल नील को फ़तेहपुर की क्रांति का दमन करने के लिए भेजा। कर्नल नील ने अपनी भारी मात्रा में सेना को फ़तेहपुर में जोधा सिंह व उनका रजवाड़ा को तहस-नहस करने का आदेश जारी किया। कर्नल नील बेकसूर लोगों को भी बहुत प्रताड़ित कर रहा था। क्रांतिकारियों को तो तत्काल मार देता था। इस प्रकार जोधा सिंह अटैया की सेना कमजोर पढ़ने लगी थी, लेकिन हौसला और उत्साह दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था।
गोरिल्ला युद्ध में निपुण जोधा सिंह अटैया ने नए सिरे से पुराने सैनिकों के साथ ही युवाओं को भी क्रांतिकारी, देशप्रेमी के रूप में प्रशिक्षण देकर फिर से नई फ़ौज तैयार किया। उसके बाद जोधा सिंह अटैया ने अपना गुप्त स्थान फ़तेहपुर से स्थानांतरित करते हुए खजुहा बना लिया था। खजुहा में जोधा सिंह का गोपनीय स्थान अंग्रेज नहीं जानते थे। किंतु स्थानीय देशद्रोही ने लालचवश क्रांतिकारी जोधा सिंह अटैया का गोपनीय ठिकाना अंग्रेजों को बता दिया। देशद्रोही की मुखबरी के कारण कर्नल नील ने अपनी घुड़सवार सेना के साथ घोरहा गांव के पास जोधा सिंह अटैया व उनके 51 साथियों को चारों तरफ से गिरफ़्तार कर लिया था।
28 अप्रैल सन 1858 का वह मनहूस दिन था, जब अंग्रेजों ने बिना किसी अदालत की सुनवाई के ही जोधा सिंह अटैया समेत बावन साथियों को बिंदकी के निकट मुगल रोड पर खजुहा ग्राम स्थित इमली के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दिया था। फांसी देने के बाद कर्नल नील ने आस-पास के गाँव में मुनादी करवा दी कि, जो व्यक्ति इन शवों को नीचे उतारेगा, उन्हें भी फांसी दे दी जाएगी। लगभग 18 दिन तक शव पेड़ पर लटके रहे और चील कौवा माँस नोच-नोच कर खाते रहे। आज इस पावन धरा को बावनी इमली के नाम से जाना जाता है।
महाराज राजा भवानी सिंह ने भारी तादाद में अपने सैनिकों के साथ 4 जून सन् 1858 की रात में सभी शवों को नीचे उतार कर शिवराजपुर स्थित गंगा तट पर अंतिम संस्कार किया था।
शिवराजपुर में भगवान श्री कृष्ण का प्राचीन मंदिर है। जिसे मेवाड़ राज्य के राजा भोजराज सिंह की पत्नी, कृष्ण भक्त मीराबाई ने स्थापित किया था।
फ़तेहपुर जनपद में खजुहा का भी अपना अलग पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व है। खजुहा को ‘छोटी काशी’ कहा जाता है। इस छोटे से कस्बे में लगभग 118 शिव मंदिर है। औरंगजेब के समय की मुगल रोड आज भी है। कहा जाता है कि दशहरा का दिन यहां पर रावण को जलाया नहीं जाता, बल्कि उनकी पूजा होती है। दशहरा में मेला लगता है। 52 क्रान्तिकारियों के शहादत की अंतिम विदाई देने वाला मूक गवाह इमली का पेड़ आज भी सुरक्षित और संरक्षित है। जिसमें 28 अप्रैल सन 1858 को 52 क्रान्तिकारी परवाने भारत माँ की रक्षा करते हुए फांसी पर झूल गए थे।
खजुहा ग्राम को भी अब बावनी ‘इमली’ ग्राम से जाना जाता है। ‘बावनी इमली’ स्थल पर शहीद स्मारक बना हुआ है, जहाँ पर प्रतिवर्ष 28 अप्रैल को शहीदों की स्मृतियों को जीवन्त रखने के लिए अनेक साँस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा उत्सव मनाया जाता है।

डॉ अशोक कुमार गौतम
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, लेखक, सम्पादक
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर, रायबरेली UP
मो. 9415951459

अंतिम मुगल सम्राट : बहादुर शाह जफर, जिनको भोजन में फिरंगियों ने बेटों के सिर परोसा

भारत में सत्तावनी स्वाधीनता संग्राम की क्रांति में किसी क्षेत्र या धर्म विशेष के लोगों ने अपनी कुर्बानियां नहीं दी, अपितु संपूर्ण भारत के सभी धर्म व सभी जातियों के लोगों ने खुशी-खुशी अपने प्राणों को निछावर कर दिया था। तत्कालीन परिस्थितियों में न हिंदू, न मुसलमान, न सिक्ख। स्वाधीनता संग्राम में जो भी शामिल था, वह सिर्फ सच्चा हिन्दुस्तानी, देश प्रेमी और भारत माता का रखवाला था। फिरंगियों ने भारतीयों पर जबरन अत्याचार, शोषण शुरू कर दिया। बच्चे औरतें भी अंग्रेजों के शोषण से बच नहीं सकी। फिर भी भारतीय वीर सपूत लड़ते रहे, तब अंत में भारत स्वतंत्र हुआ।
ऐसे ही वीर सपूत बहादुर शाह ज़फ़र थे।
बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्टूबर सन 1775 में पुरानी दिल्ली में हुआ था। पिता का नाम मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय और माता का नाम लालबाई था। जिन्होंने दिल्ली में कुशल शासक की भूमिका निभाते हुए होनहार बालक को जन्म दिया था। आप मशहूर शायर और मुगलकालीन शासन के अंतिम सम्राट थे। मुगल सम्राट अकबर शाह द्वितीय की मृत्यु के बाद 29 सितंबर सन 1837 को बहादुर शाह जफर ने दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान होकर भारत पर शासन करना प्रारंभ किया। जिसके साथ ही भारत से फिरंगियों को खदेड़ना आपका मुख्य उद्देश्य बन चुका था। आपने अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए -आजादी का ऐलान कर दिया। स्वाधीनता संग्राम में मुगल मुगल शासक जफर ने भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व करते हुए 1857 का विद्रोह शुरू कर दिया और स्वयं भी जंग के मैदान में कूद पड़े। इस महासंग्राम को सिपाही विद्रोह, भारतीय विद्रोह आदि की संज्ञा दी गई थी। बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में सशस्त्र सिपाहियों का अंग्रेजों के विरुद्ध 2 वर्ष युद्ध चला। विद्रोह का श्रीगणेश ब्रिटिश सरकार की छोटी-छोटी छावनियों से प्रारंभ हुआ था। बहादुर शाह जफर की सेना छावनियों में गोलाबारी करके ब्रिटिश हुकूमत को तहस नहस करने में लगी थी। ऐसे समय में मंगल पांडेय ने शूद्र सफाईकर्मी गंगू मेहतर द्वारा की गई यथार्थवादी तल्ख टिप्पणी सुनकर मेरठ छावनी के विद्रोह की लौ जलाई थी, जो संपूर्ण भारत में धीरे-धीरे बढ़ने लगी थी। ब्रिटिश सरकार में मंगल पांडेय सिपाही और गंगू मेहतर जमादार के पद पर कार्यरत थे।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, मशहूर सूफी विद्वान फजले हक खैराबादी ने दिल्ली स्थित भारत की सबसे बड़ी जामा मस्जिद से अंग्रेजों के विरुद्ध फतवा जारी कर दिया और इस फतवे को अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का रूप दे दिया था। अब फिरंगियों में भय का माहौल था। अपनी कुर्सी डगमाती देख अंग्रेजों ने हजारों भारतीय उलेमाओं को सरेआम पेड़ों से लटका कर फांसी दे दी। इतना ही नहीं, अंग्रेजों ने अनेक वीर सपूतों को तोपों से भी उड़वा दिया, तो हजारों भारतीयों को काला पानी की आजीवन सजा भी दी। इस प्रकार अंग्रेजों का जुल्म और सितम बढ़ता गया है। फजले हक खैराबादी से अंग्रेज बहुत घबराते थे, इसलिए उन्हें रंगून (म्यांमार) में काला पानी की सजा देने के बावजूद भी मृत्युदंड दिया था।
यह क्रूरता अंग्रेजों पर ही भारी पड़ती जा रही थी। सम्राट बहादुर शाह जफर किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार न थे। अंग्रेजो ने कई संधि प्रस्ताव जफर के पास भेजा, किंतु सच्चे हिंदुस्तानी राष्ट्र प्रेमी जफर ने अंग्रेजों के सामने नतमस्तक होना कबूल नहीं किया, बल्कि फिरंगियों के खिलाफ और अधिक मुखर हो गए। तब फिरंगियों ने हजारों मुसलमानों को दिल्ली के लाल किला गेट पर गोली मार दी, सैकड़ो लोगों को वहीं पर फांसी भी दे दी। हजारों भारतीयों के बहते लहू का गवाह दिल्ली स्थित लाल किला के एक विशाल दरवाजे को आज भी ‘खूनी दरवाजा’ नाम से जाना जाता है। कुछ समय बाद लखनऊ में भी बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया था।
डरे सहमे अंग्रेजों ने भारत में हर ‘तरफ फूट डालो, राज करो’ एवं छल-कपट की कूटनीति भी जारी रखी। ब्रिटिश सरकार का मेजर हडसन दिल्ली में ही उर्दू भाषा भी सीख रहा था। एक दिन मेजर हडसन को मुन्शी जब अली और मिर्जा इलाही बख्श से खुफिया जानकारी प्राप्त हुई कि बहादुर शाह जफर अपने दो पुत्रों मिर्जा मुगल व खिजर एवं पोता अबूबकर सुल्तान के साथ पुरानी दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा में छिपे हैं। वहां मेजर हडसन ने पहुंचकर जफर को गिरफ्तार कर लिया था | क्योंकि बहादुर शाह जफर के दोनों पुत्रों और पोते ने अंग्रेजो के बीवी बच्चों का कत्ल करने मे हिस्सा लिया था| बहादुर शाह जफर और अन्य टीमों को गिरफ्तार करने के बाद मेजर हडसन ने शायराना अंदाज में कहा कि-
“दमदम में दम नहीं है, खैर मांगो जान की। ऐ जफर ठंडी हुई अब, तेग हिंदुस्तान की।।”
सम्राट, शायर बहादुर शाह ज़फ़र ने मेजर हडसन की इस बात पर क्रोधित होकर बुलंद आवाज में फिरंगियों को उत्तर देते हुए कहा–
“गाजियो में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्त-ए-लंदन तक, चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।”
बाद में स्वाधीनता संग्राम के युद्ध में अंग्रेजों से बहादुर शाह जफर को पराजय का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने बहादुर शाह जफर व उनके पुत्रों को गिरफ्तार कर लिया। पुत्रों को दिल्ली में फांसी दे दी गई और जफर को म्यांमार स्थित रंगून में काला पानी की आजीवन सजा दी और वहीं 7 नवंबर सन 1862 में बहादुर शाह जफर की मृत्यु हो गई।
कहा जाता है अंग्रेज कितने कितने निर्दयी थे, इसका अंदाजा लगाने मात्र से ही भारतीयों की रूह कांप उठेगी। जब बहादुर शाह जफर और उनके दोनों पुत्रों को दिल्ली हुमायूं का मकबरा में गिरफ्तार किया गया, तो पुत्रों को पहले फांसी दे दी गई। बहादुर शाह जफर कई दिनों से भूखे प्यासे थे, उन्होंने भोजन मांगा तब क्रूर अंग्रेजों ने जफर के सामने थाली में उनके पुत्रों का सिर परोस कर दिया। सोचों उस पिता के दिल पर क्या बीती होगी। उसके बाद भी बहादुर शाह जफर ने पराधीनता स्वीकार नहीं की। सच्चे हिंदुस्तानी का धर्म निभाते हुए भारत माता की रक्षा के लिए शहीद हो गए।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार,
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल : शौर्य का पर्याय

पं० राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) के शाहजहांपुर जनपद के छोटे से गांव खिरगीबाग में 11 जून सन 1897 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता मुरलीधर और माता फूलमती किसी तरह से परिवार की गाड़ी चला रहे थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। राम प्रसाद बिस्मिल अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। रामप्रसाद जी हर धर्म का बराबर सम्मान करते थे। उनके उपनाम ‘राम, बिस्मिल औऱ अज्ञात’ थे।


रामप्रसाद बिस्मिल प्रतिभा संपन्न युवा थे, उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था, जिसके कारण अनुवादक व साहित्यकार बन गए थे। बाद में वे इसी लेखन कौशल से अपनी जीविका चला रहे थे। राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखा गया गीत- सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.. पूरे भारत में विख्यात हुआ और आज भी 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर यह गीत अवश्य गया जाता है।


स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और ‘हिंदुस्तान पब्लिक संगठन’ से जुड़े रहे। राम प्रसाद बिस्मिल बचपन से ही शरारती थे। गलत संगत के कारण की आदत भी गलत पड़ गई थी। राम प्रसाद बिस्मिल अपने पिता के संदूक से रुपए चुराकर सिगरेट, तंबाकू, भांग आदि खरीदते थे, रुपये बच जाने पर उपन्यास खरीद लिया करते थे।


राम प्रसाद ने अपने वरिष्ठ साथियों के दिशा निर्देशन में “मातृ देवी’ नामक संगठन बनाया था, जिसके लिए समय-समय पर धन की आवश्यकता पड़ती थी। किसी की भी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि, अपने पास से कोई व्यक्ति संगठन के लिए धन दे सके। तब राम प्रसाद बिस्मिल ने तीन डकैतियां डाली थी। भारत का मशहूर काकोरी कांड की चर्चा आज भी होती है। काकोरी कांड की घटना से ब्रिटिश सरकार बैकफुट पर आ गई थी और फिरंगियों को भारत से सत्ता समाप्ति की आहट सुनाई देने लगी थी।


सरकारी धन को लूटने के लिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने घर (शाहजहांपुर) में 7 अगस्त सन 1925 को आपातकालीन बैठक बुलाई। जिसमें सर्वसम्मति से तय हुआ कि सहारनपुर से लखनऊ आने वाली पैसेंजर रेलगाड़ी को लूट जाएगा। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद आदि लगभग 10 वीर सपूत शाहजहांपुर स्टेशन पर रेलगाड़ी में सवार हो गए। भाप इंजन से छुक-छुक चलने वाली गाड़ी धीरे-धीरे लखनऊ पहुंच रहे थी। जैसे रेलगाड़ी जंगलों को चीरते हुए काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर, आगे बढ़ ही रही थी, कि बसंती चोले वाले क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने से भरे बक्से रेलगाड़ी से नीचे फेंक दिया। बाद में मजबूत बक्सा को हथौड़ा से तोड़कर सोना चांदी लूट ले गए। जल्दबाजी में सोना चांदी से भरे कुछ पैकेट वही छूट गए थे।

अंग्रेजन में बहुत तनाव व्याप्त हो गया कि क्रांतिकारी जब रेलगाड़ी लूट सकते हैं तो आगे कुछ भी कर सकते हैं इस डर से अंग्रेजों ने काकोरी कांड की घटना को गंभीरता से लेते हुए ब्रिटिश सीआईडी अधिकारी आर ए होतम और स्कॉटलैंड की विश्वसनीय पुलिस को जांच सौंप गई जज ए हाई मिल्टन ने 6 अप्रैल 1927 को निर्णय देते हुए क्रांतिकारी पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि यह घटना भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की साजिश है जिसके कारण सभी क्रांतिकारी दोषियों को फांसी की सजा सुनाई जाती है लगभग 6 मा ट्रायल कैसे चलने के बाद गोरखपुर की जेल में 18 दिसंबर 1927 को माता-पिता से अंतिम मुलाकात करने के अगले दिन 19 दिसंबर 1927 को सुबह फांसी दे दी गई है बाद में रामप्रसाद बिस्मिल के समाधि बाबा राघव दास आश्रम बरहज देवरिया में बनाई गई थी राम प्रसाद साहित्यकार अनुवादक होने के नाते अनेक पुस्तक भी लिखते थे उनकी लिखी प्रमुख पुस्तकें- मैनपुरी षडयंत्र, स्वदेशी रंग, अशफाक की याद में, आदि हैं।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

अवध की सांस्कृतिक लोक चेतना

कहते हैं कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है। शहरों के साथ ही बदलते हुए ग्रामीण परिवेश में आपसी प्रेम, सामंजस्य और लोक परम्परा, लोक संस्कृति लुप्त हो रही हैं। लोक संस्कृतियों के प्रति हमारी अबोधता उसके अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। आकाश, सूर्य, चाँद, पानी, हवा, पृथ्वी आदि का हमारे जीवन का मूल आधार है। इनके महत्व को हम भूलते जा रहे हैं। और तो और, इन सब बातों में हम वक्त बर्बाद नहीं करना चाहते हैं। ईश्वर प्रदत्त हर अमूल्य निधियाँ निःशुल्क मुझे मिल रही है, फिर भी हम इन प्राकृतिक निधियों की रक्षा करने के बजाय, निरंतर दोहन कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि बिन सांस्कृतिक लोक के हमारा जीवन अधूरा है और इसके अभाव में हम सुखमय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

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प्रत्येक क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। जिसके कारण वह क्षेत्र पहचाना जाता है। इस दृष्टि से अवध की संस्कृति और उसकी परम्पराएँ एक समृद्ध विरासत को संजोए हुए हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है अवध। यह एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं, अपितु त्रेतायुग से ही एक अनूठी संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण है, जो भारत में शायद ही कहीं देखने को मिले। जहाँ खिलते, महकते फूल, फल, मुस्कुराते मौसम, आती-जाती ऋतुएँ हैं। तीज त्यौहार, लोक कंठ से फूटे ताने धुने, धर्म-कर्म हैं। पाश्चात्य सभ्यता और वहाँ की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से भले ही हमारी संस्कृति क्षीण हुई हो, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पूरी दमखम के साथ विद्यमान है।

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अवध क्षेत्र लगभग 12 जनपदों में विस्तारित है। यहाँ के लोक संस्कृति विविधताओं से भरी है और उनका स्वरूप आज भी गाँवों में देखने को मिलता है। जब हम त्योहारों की बात करते हैं तो अवध क्षेत्र में पूरे वर्ष भर विभिन्न प्रकार के पर्व मनाया जाते हैं। होली, दीपावाली, दशहरा, रामनवमी, दुर्गा पूजा, रक्षाबंधन आदि के अतिरिक्त इस्लाम धर्मावलंबी ईद, बकरीद, मुहर्रम, ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस, ईस्टर, गुड फ्राइडे, धूमधाम से मनाते हैं। यहाँ के त्योहारों की विशेषता है कि सब त्यौहार एक साथ बिन भेदभाव के मनाए जाते हैं। दशहरे में रामलीला का मंचन तो होली में झूमकर फाग होता है। व्रतों की बात करें तो, करवाचौथ हलछठ, गणेश चतुर्थी, हरितालिका तीज, रोजा (रमजान) आदि व्रत रखे जाते हैं। जो कहीं पति की लंबी उम्र के लिए, तो कहीं बालकों की लंबी उम्र के लिए महिलाओं द्वारा बड़ी आस्था के साथ रखे जाते हैं। यहाँ लोकगीतों की बहुलता है। शादी विवाह में अलग लोकगीत, ऋतुओं के अलग लोकगीत, श्रम के अलग लोकगीत और अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। विवाह गीत गुनगुनाते हैं-
जउने अंगनवा खेली हो बिटिया, वह सुना करि जई हो।
कुछ बेरिया के बाद हो बिटिया, अपने घर का जई हो।।
सास-ससुर से मिल कर रहि हो,
वई माई बाबू तुम्हार हो।
ननद के साथै हँसीहो खेलि हो,
वई बहिनी अब तुम्हार हो।।

पुत्र जन्म पर सोहर गाने की परंपरा है, तो शादी में बन्ना विदाई गीत, भोजन करते समय गारी (गाली) आदि गाने की परंपरा है। अवध क्षेत्र में वैवाहिक रस्मों में आत्मिक प्रेम कूट-कूट कर भरा था, बराती भोजन ग्रहण करते समय गलियाँ (गारी) भी खाते थे, और ऊपर से उन गारी के बदले कुछ धनराशि भी महिलाओं को नेग रूप में देते थे। ये प्रेम डोर की प्रथा अब अतिथि ग्रहों (गेस्ट हाउस) और बफर सिस्टम ने सुरसा की भाँति निगल लिया है। शादी के गीतों में इतनी विविधता है कि तिलकोत्सव, द्वारचार के अलग गीत, सप्तपदी (सात फेरे) के अलग गीत, विदाई के अलग गीत हैं। कोई भी गीत गाने से पहले महिलाएं देवी गीत गाना नहीं भूलती हैं। जिसमें गौरी, गणेश, शीतला माँ के गीत सम्मिलित हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर देवी गीत और जागरण के गीत गाए जाते हैं जिन्हें भजन कहते हैं-
देवी आँगन मोरे आई,निहुरि कै मैं पईयाँ लागू।
काऊ देखि देवी मगन भइहैं, काऊ देखि मुस्कानी।
रानी देखि देवी मगन भई हैं, बालक देखि मुस्कानी,
देवी आँगन मोरे आई, निहुरि कै मैं पइयाँ लागू।

इन्हीं लोकगीतों के सहारे जनमानस अपने दुखों को भूल कर अपना सामंजस्य बैठाते हैं। खेती-किसानी करते समय, श्रम गीतों के गाने की प्रथा है। खेतों में धान लगाते समय गीत गाये जाते थे, जिससे सर्वधर्म समभाव के साथ किसानों में एकता, ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहे-

रिमझिम बरसे पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।
लहरत बा तलवा में पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।।
सोने की थारी मां ज्योना परोसे,
पिया का जेवाई आई धनियाँ।
नाच्यो गायो खुसी मनायो, भरि जइहैं कोठिला ए धनियाँ।

पहले घर की महिलाएँ मिल-जुलकर प्रातःकाल उठकर चकिया (जात) में गेहूँ पीसती थी, उसके बाद दैनिक कार्यों में लग जाती थी। जब भी कोई मेहमान आता था तो बड़े सम्मान से उन्हें भोजन कराती थी। घर की महिलाएँ चकिया में गेहूं पीसते हुए लोकगीत के माध्यम से ही मेहमानों से हालचाल पूँछती और अपनी उन्हें बताती थी। ससुराल में जात पीस रही एक स्त्री अपने भाई से बात करते हुए गाती है-
बैठहुँ न मोरे भैया रतनी पलंगिया हो न,

बहिनी कहीं जाऊ आपन हवालिया हो न।
नौ मन कूटयो भइया, नौ मन पीस्यो हो न,
भइया पहिली टिकरिया, मोर भोजनवा हो न।

इस तरह से महिलाएं अपने भाई को गीत के माध्यम से हाल-चाल बताती थी। कुछ जातियां बिरहा गाती हैं। जातीय नृत्यों में यादव गडरिया का नृत्य, धोबियों पासियों का नृत्य प्रसिद्ध है। खेद का विषय यह है कि अब यह नृत्य विलुप्तप्राय हो चुके हैं। इस प्रकार के नृत्य करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। अब इन नृत्यकारों को संरक्षित और इन पर शोध करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति इन नृत्य-गीतों को न सीखना चाहता है और न ही अपने बच्चों को सिखाना चाहते हैं। कारण समाज अब नृत्य करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगा है, समाज को ऐसी कुत्सित विचारधारा बदलनी होगी। डीजे के युग में दिल पर सीधा कुप्रहार करने वाले गीतों की भीड़ में लोकनृत्यों का अस्तित्व समाप्त की ओर है।
फाल्गुन हिन्दू कैलेंडर का अंतिम महीना है। रंगों का त्योहार होली के मौसम में एक महीना तक अर्थात वसंत पंचमी से शीतलाष्टमी तक फ़ाग की धूम रहती है। बड़े-बड़े ढोल-नगाड़ों की थाप पर फाग गाए जाते हैं और किसी प्रतिष्ठित स्थान पर फाग की प्रतियोगिता भी आयोजित होती है। चौताल, डेढ़ताल, ढाईताल फाग ढोलक की थाप पर सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। कवि दुलारे ने तो अमर शहीद राणा बेनीमाधव सिंह पर डेढ़ताल का फाग ही लिख डाला। जिसको न गाया जाय तो फाग अधूरा माना जाता है-

अवध मां राना भैयो मरदाना।
पहिल लड़ाई भई बकसर मां, सेमरी के मैदाना।
हुवाँ से जाय पुरवा मां जीत्यो, तबै लाट घबराना।
नक्की मिले, मान सिंह मिलिगै, जानै सुदर्शन काना।।
अवध मां राना भयो मरदाना।।

अवध की संस्कृति सामूहिकता पर आधारित है जो समूह को महत्व देती है। नौटंकी यहाँ की प्रमुख लोककला है। शादी के दिन जब सभी पुरुष बारात चले जाते हैं तब रात्रि में घर की सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए महिलाएँ रातिजगा करती हैं। जिसके लिए रात्रि में स्त्रियाँ अपना रूप बदलते हुए चोर, पुलिस, किसान, पुरुष आदि का भेष बनाकर खेलती थी, जिसे नकटा कहा जाता था। ये परम्परा भी अंतिम साँसे गिन रही है। स्त्रियाँ स्वांग प्रहसन् करके रात भर जागती हैं, जिससे घर में किसी प्रकार का कोई खतरा उत्पन्न न हो।
वर्षा ऋतु में ढोलक, हारमोनियम, बीन की थाप और धुन पर पर अल्हैत लोग हिंदी साहित्य का वीर रस से ओतप्रोत आल्हा गाते हैं और जनमानस में वीरता व ओज का संचार करते हैं। आल्हा यद्यपि बुंदेलखंड की पावन धरती, विशेषकर महोबा, उरई, जालौन क्षेत्र की विधा है, क्योंकि आल्हा यादव और उदल यादव बुंदेलखंड के महोबा में पैदा हुए थे लेकिन उनकी वीरता की कहानियाँ पूरे उत्तर भारत में आल्हा गायन के रूप में गाई जाती हैं। उन्नाव जनपद के नारायणदास खेड़ा निवासी श्री लल्लू बाजपेई को आल्हा सम्राट कहा जाता है। रामरथ पांडेय (लालगंज) आल्हा गायन में मशहूर हैं। लल्लू बाजपेई के आल्हा की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

बड़े लड़ाईया महोबे वाले इनकी मार सही ना जाए।
एक को मारे दो मर जाएँ, मरै तीसरा दहशत खाए।।

ये तो परमसत्य है कि लोकगीतों के स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। लोग जीवन में जैसे-जैसे आपसी सहयोग और सद्भाव विलुप्त हो रहा है, उसी तरह हमारी प्राचीन संस्कृति भी विलुप्त होने के कगार पर है। हम तो उस देश के वासी हैं, जहाँ हर कदम, हर पर्व पर खुशी मिल-जुलकर बाँटते हैं। हर त्योहार का कोई न कोई गीत भी सामूहिक गान के रूप में गया जाता है। जैसे गीतों में सावन कजरी गाई जाती है। यद्यपि कजरी गीत का मूल स्रोत मिर्जापुर माना गया है, लेकिन अवध के विभिन्न जनपदों में कजरी बहुतायत गाई जाती है। पूरा श्रावण मास ही भगवान शिव को समर्पित है। सावन के महीने में पेड़ो की शाखाओं पर झूले पड़ जाते हैं। महिलाएँ झूले पर झूलते हुए गाती हैं। इस प्रकार के गीतों से परिवार व पड़ोसियों से बिगड़े हुए मधुर सम्बन्ध भी बन जाते हैं-

कहाँ से आये श्याम बनवारी, कहाँ से आई राधिका रानी।
गोकुल से आए बनवारी ,
मथुरा आई राधिका प्यारी।।
कि झोंका धीरे से देओ, हमें डर लगता भारी।
डरो मत राधिका प्यारी, हमें तो तुम जान से प्यारी।।

कृष्ण जन्माष्टमी के समय सोहर, भजन, धार्मिक गीत गाए जाते हैं। नृत्य की बात करें तो धोबियों (निर्मल) के लोकनृत्य में अब माइक का प्रयोग होने लगा है। पहले कमर में घंटी बाँधकर लहंगा पहनकर और बांसुरी लेकर नाचने वाला व्यक्ति जब बाँसुरी की तान छेड़ता था तो, दर्शक व श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इस नृत्य में मुख्य रूप से मृदंग और कसावत वाद्य यंत्र होता था। एक आदमी प्रकाश के लिए मशाल जलाकर आगे-आगे चलता था।
यादवों (अहीरों) के लोकनृत्य में घुँघरू वाले जाँघिया को धोती के ऊपर पहनते और 7 मीटर का पटुका बाँधते थे। इनके वाद्य यंत्रों में नगाड़ा और नगरची होते थे। इनमें नाचने वालों को गॉंव के लोग नचनिया समझते थे।
इन्हीं लोकनृत्य में एक प्रमुख लिल्ली घोड़ी का नृत्य बहुत प्रसिद्ध था। शुभ अवसर पर एक व्यक्ति काठ के घोड़े को सजा कर अपनी कमर में रस्सी के सहारे पहन लेता है, तत्पश्चात सुंदर मनमोहक नृत्य करता था। इसे देखकर बच्चे और स्त्रियाँ अति प्रसन्न होते थे।
प्राचीन काल से ही अवध की संस्कृति में खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा की विशेषता रही है। अनेक अवसरों पर नाना प्रकार के पकवान बनाए जाने की परंपरा रही है। जैसे होली में गुझिया पापड़, बरगदाही में बरगद गुलगुले, गुरुपूर्णिमा असाड़ी को बेसन की बेढ़ई, नागपंचमी में गेहूं चने की घुघरी, दीपावली को लाई चूरा रेवड़ी चीनी के खिलौने, गणेश चतुर्थी को तिलवा लड्डू धूंधा, मकर संक्रांति में घी खिचड़ी नीम्बू आदि बनाए जाने की परंपरा रही है। मशीनीकरण और अर्थ के युग मे अब ये सब समाप्ति की ओर है। लोग अनपढ़ थे, परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान उनके अंदर कूट-कूट कर भरा था। शायद इसीलिए मौसम अनुसार खाद्य पदार्थ बनते थे, जो शरीर के लिए लाभदायक है। किंतु आज हम भोजन के साथ मिलावटी पदार्थ अर्थात मीठा जहर खा रहे हैं।
अवध की संस्कृति गाँव की संस्कृति है। सद्भाव और सहकार इसके मूल में बसा है। आधुनिकता की चकाचौंध में अवध की संस्कृति अभी भी जीवित है। हाँ, संकट भी मंडरा रहा है। गाँव की विभिन्न कथाएँ-प्रथाएँ दम तोड़ने लगी है, जो पहले दिलों को जोड़ने वाली होती थी। विवाह के समय दुल्हन के यहाँ बारात 3 दिन रुकती थी और अब 3 घंटे में बरात हो जाती है। क्योंकि अब बारात दिल जोड़ने वाली नहीं, अपितु अर्थ जोड़ने वाली हो गयी है। बारात की तैयारियों में पूरा गाँव लग जाता था। ग्रामीणों की चारपाई आ जाती थी। बर्तन, ड्रम आदि सब मिल जाते थे। इन सबसे अर्थ बचत और एकता बढ़ती थी। आज इंसान ये सब करने में खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। हम डीजे की कानफोड़ू आवाज और जगमगाती रोशनी के द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं बचा सकते हैं। आज सगे संबंधियों का नाता भी पकवानों तक सीमित हो गया है। मेहमान, मित्र आदि भोजन का अंदाजा लगा कर ही घरों से निकलते हैं, जिसके कारण दूरियाँ बढ़ गयी हैं-
बफर सिस्टम सबसे महान।
न कोउ भूखा, न अघान।।
हुआँ तो धक्का मुक्की की बहार है।
कहते हैं कि समरसता की फुहार है।।
कोउ गुस्से मा लाल पीला,
तो कोहू का कपड़ा लाल पीला।
यह सब अवगुण कहीं नहीं अखिल भारत और अवध के लिए घातक सिद्ध होंगे। धर्म, वंश, जाति, लिंग भेद से बहुत ऊपर उठकर हमें अपनी विलुप्त होती जा रही जड़ों पर विचार करना होगा, अन्यथा हमारी लोक संस्कृति किस्सा-कहानी तक सीमित और सपना बनकर रह जायेगी।

डॉ० अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

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हमारी आवाज | रत्ना भदौरिया

इंसानियत ख़त्म हो गई है इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता। मैं तो इस बात को चीख चीखकर कहती हूं। अगर इंसानियत होती तो हम बार बार स्त्री होने के नाम पर पिस्ते नहीं देखो न कभी मणिपुर कभी राजस्थान कभी हाथरस मुझे नहीं लगता कि देश का कोई भी कोना बचा होगा जहां हम नहीं पिसे हो।पिसना, शर्मसार, घटिया, दुखदायी ये सारे शब्द मुझे ऐसी घटनाओं के आगे बहुत फीके और छोटे लगते हैं।

ऐसी घटनाओं के लिए जो शब्द इस्तेमाल करना चाहिए वो तो वर्णमाला में भी नहीं मिलते क्योंकि वर्णमाला को भी शर्म आती होगी ऐसे शब्दों को अपने बीच पाते हुए। कल राजस्थान में एक औरत की मात्र इतनी ही तो बात थी कि वो दूसरे आदमी के साथ रहना चाहती थी। मैं पूछती हूं उन तमाम महिलाओं को जब पुरुषों के द्वारा कभी दहेज के लिए तो कभी वो दिखने में सुंदर माडर्न नहीं है कभी क्या,कभी क्या कहकर छोड़ दिया जाता है,जला दिया जाता है तब कहां चले जाते हैं?

ये बड़े -बड़े दांत दिखाने वाले लोग जो आज उस महिला की नग्न अवस्था देखकर निकाल रहे थे। खैर पुरुष का छोड़ो यहां पर वो बात भी बहुत सत्य साबित होती है घर का भेदी लंका ढाही। क्योंकि महिलाओं के दांत भी वहां कम छोटे नहीं दिख रहे थे उस महिला को नग्न देखकर ।कमसे कम हमें तो जगना होगा। लेखक , विचारक , प्रचारक, राजनीतिक, सामाजिक और सोसल मीडिया का तो क्या ही कहना —-?

अरे फालोवर्स बढ़ाकर चुप क्यों हो जाते हैं इसलिए की दूसरे मुद्दे पर फालोवर्स बढ़ाना है या फिर इसलिए की इस मुद्दे से झोली भर गयी । मैं पूछती हूं की जब हम महिलाओं को ही खत्म कर दिया जायेगा तो आप सब आयेंगे कहां से क्योंकि बनाया तो हमनें ही है आप सबको भी । और ये फालोवर्स बढ़ाने वाले लोग ——–। तो सब मिलकर तब तक फालोवर्स बढ़ाते रहिए जब तक हमारी समस्या का समाधान ना हो जाए।

एक बात और कहना चाहती हूं कि एक लड़की या औरत जब कपड़ा छोटा पहन लिया तो वो मर्यादा या संस्कार भूल गयी । महिलाओं को जो निर्वस्त्र किया गया उसके खिलाफ आपके मुंह बंद क्यों और यदि खुले हुए हैं तो चुप्पी क्यों?

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

मेरे जीवन की प्रतिमूर्ति :मेरे गुरु

मेरे जीवन में कोई एक अध्यापक नहीं बल्कि अनेकों गुरुओं का योगदान रहा है और मैं मानती भी हूं कि वो हर व्यक्ति गुरु होता है जिससे हम कुछ न कुछ सीखते हैं। लेकिन कुछ गुरु विशेष हैं मेरे जीवन में जो कुछ न कुछ नहीं बल्कि सभी कुछ सिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनका बस चले तो गूगल की तरह हर चीज सिखा दें।

अब वो विशेष हैं तो यहां नाम लेना भी विशेष है -मेरी मां और पिता, संतलाल सर, मन्नू भंडारी, सुधा अरोड़ा, ममता कालिया, अशीष श्रीवास्तव,इन विशेष गुरुओं ने आज मुझे जिस मुकाम तक पहुंचाया है कि अगर जीवन में यहां से लडखडाऊं तो भी जमीन पर गिर कर बिथरुंगी नहीं बल्कि नीचे धीमी गति से और संभलते हुए उतरूंगी। आशीष सर की एक बात बार- बार याद आ रही है।

जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ती थी तब अशीष सर हमारे कक्षा अध्यापक होने के साथ -साथ हिन्दी के अध्यापक और गांव के रहने वाले। इत्तफाक उनका खेत मेरे घर के सामने ही जब कभी खेतों की तरफ आते मेरी मम्मी या पापा से शिक़ायत कर जाया करते कि ये पढ़ती नहीं है बिल्कुल भी। मैं हर दिन मुंह बिचकाते हुए पता नहीं सर इधर आते ही क्यों हैं? इनके पास कोई काम ही नहीं। हर शाम दरवाज़े पर दुबकी किताब लेकर बैठती महज सर के डर से की शायद पढ़ता हुआ देख शिकायत नहीं करेंगे लेकिन फिर भी ——-।

मम्मी का भी यही था हर दिन ग़लती निकालना तब अच्छा नहीं लगता था लेकिन आज ग़लती नही सही है यह चीज मम्मी या किसी के मुंह से सुनकर बहुत अच्छा लगता है और मम्मी की बात भी याद आती है कि उस समय ——।

संतलाल सर, सुधा अरोड़ा, मन्नू भंडारी सबने साहित्यिक जीवन के साथ -साथ व्यक्तिगत जीवन से जुड़े हर पहेलू में मेरी मदद के साथ -साथ बेहतरीन से बेहतरीन काम को करने की सीख दी। सभी को धन्यवाद के साथ -साथ शिक्षक दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं। आप सब हमेशा स्वस्थ रहें और यूं ही मेरा मार्गदर्शन करते रहें।

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रायबरेली के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का योगदान | अशोक कुमार गौतम

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रायबरेली के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का योगदान

सन 1857 की क्रांति में अखण्ड भारत के जिन-जिन वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनमें बैसवारा के राजा राव राम बक्श सिंह, अवध केसरी राणा बेनी माधव सिंह, वीर वीरा पासी, लाल चंद्र स्वर्णकार, राजा हरिप्रसाद सिंह, खद्दर-भद्दर यादव, रघुनाथ आज का नाम सर्वादरणीय है। स्वाधीनता संग्राम की चिंगारी सन 1857 में अखंड भारत में भड़क चुकी थी। जिसमें असंख्य ज्ञात-अज्ञात शहीदों ने स्वतंत्रता संग्राम की मिसाल को अपने लहू से जलाए रखा। शहीदों के प्रति हम मूक श्रद्धांजलि अर्पित कर पा रहे हैं। सन 1857 के बाद की क्रांति की चिंगारी 1920 के लगभग पुनः जोर-शोर से भड़की और भारत के आजादी प्राप्त तक प्रज्वलित होती रही।
इस क्रम में कुछ प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों का परिचय देना समीचीन प्रतीत होता है-

राना बेनी माधव सिंह


अवध प्रांत के शंकरपुर रायबरेली रियासत के राजा राणा बेनी माधव सिंह सन 1857 के गदर में अंग्रेजों से बराबर मोर्चा लेते रहे। आपने अपना साम्राज्य बहराइच तक फैलाया था। गोरिल्ला युद्ध में माहिर राणा साहब को लखनऊ की रानी बेगम हजरत महल ने दिलेर-ए-जंग की उपाधि दी थी। माँ भगवती के उपासक राणा बेनी माधव सिंह ने अंग्रेज सेनापति होप ग्रांड और चैंबर लेन को भागने पर मजबूर कर दिया। आपको अवध केसरी, नर नाहर कहा जाता है। आपने अपने सेनापति वीरा पासी के सहयोग से हर स्तर पर अंग्रेजों को खदेड़ा है और अंतिम सांस तक अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।


वीरा पासी
स्वामिभक्त वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को लोधवारी में हुआ था। आपका वास्तविक नाम शिवदीन पासी था। आप राणा बेनी माधव सिंह के प्रमुख सेनापति व अंगरक्षक थे। आपने राणा साहब को ब्रिटिश हुकूमत की जेल से रोशनदान के रास्ते बाहर निकालकर आजाद कराया था। अपनी जान देकर राणा साहब के प्राणों की रक्षा करने वाले वीरा पासी के नाम से अंग्रेज थर-थर कांपते थे। इसलिए अंग्रेजों ने वीरा पासी का पता बताने वाले या वीरा को पकड़ने वाले को उस समय 50,000 रुपये इनाम की घोषणा की थी। भीरा की लड़ाई में राणा बेनी माधव सिंह के प्राणों की रक्षा करते हुए आप शहीद हो गए थे।
अमर शहीद औदान सिंह, सुक्खू सिंह, टिर्री सिंह, रामशंकर द्विवेदी व चौधरी महादेव
18 अगस्त सन 1942 को असंख्य रणबाकुरे सरेनी स्थित थाना में तिरंगा फहराने की जिद पर अड़े थे। तभी अंग्रेजों की गोलियों से 5 क्रांतिकारी शहीद हो गए थे। उन्हीं की स्मृति में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक बनाया गया है।
अंजनी कुमार तिवारी
इनका जन्म 1905 में बछरावां में हुआ था। पिता का नाम स्व० रामदयाल तिवारी था। आजादी की लड़ाई में आप 6 बार जेल गए, 4 वर्ष की सजा भुगती और ₹ 100 जुर्माना लगाया गया। 14 फरवरी सन1982 को आप का स्वर्गवास हो गया था।
अश्विनी कुमार शुक्ल
इनका जन्म 4 जुलाई सन 1907 को बकुलिहा, खीरों में सुखनंदन शुक्ल जी के घर में हुआ। इनकी शिक्षा-दीक्षा मारवाड़ी स्कूल कानपुर में हुई। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय और गोविंद बल्लभ पंत के ऊपर हुए लाठीचार्ज से आहत होकर आप काले झंडे के साथ जुलूस में सम्मिलित हुए। इन्होंने लगान बंदी का भी विरोध किया। लालगंज में 1932 में जत्था बनाकर तार कटिंग की। जिसके जुर्म में 2 वर्ष का कारावास और ₹ 50 जुर्माना लगाया गया।
अम्बिका प्रसाद मिश्र
अम्बिका प्रसाद मिश्र का उपनाम दिवाकर शास्त्री था। आपका जन्म सुल्तानपुर खेड़ा (ऐहार) में स्व० नंदलाल मिश्र के घर में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा काशी विद्यापीठ में हुई। डॉ० संपूर्णानंद और आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आकर अनेक आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। आप समाजवाद के समर्थक और नमक सत्याग्रह में सम्मिलित थे।
अहोरवा दीन यादव
आपका जन्म सन 1910 में पहाड़पुर (मोहन गंज) में हुआ था। पिता का नाम स्व० अधीन यादव था। आप कानपुर में डाक विभाग में नौकरी करते थे, साथ ही गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में बराबर बने रहते थे। अहोरवादीन स्वाधीनता संग्राम में कॉंग्रेस जुलूस में सम्मिलित होते थे, जिसके कारण 6 माह की जेल और 15 रुपये जुर्माना लगाया गया था। बाद में सन 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह करने के जुर्म में 1 वर्ष का कठोरतम कारावास हुआ था।
अल्ला तवक्कुल मौलाना
अल्ला तवक्कुल मौलाना का जन्म शिवदयाल खेड़ा (बछरावां) में हुआ था। सन 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण 1 वर्ष की कठोर सजा और 40 रुपये जुर्माना लगाया गया था। मौलाना जी बड़े रौबदार इंसान थे, कहते थे कि ‘हमने 1 मिनट में अंग्रेजों को भगा दिया।’
कालिका प्रसाद मुंशी
कालिका प्रसाद मुंशी रायबरेली जनपद में कांग्रेस के जन्मदाताओं में से एक हैं। सन 1921 के मुंशीगंज गोली कांड के बाद एक खुलकर मैदान में आ गए थे। इनके नाम से ताल्लुकेदार और पुलिस दोनों घबराते थे। लालगंज में गांधी चबूतरा आपने ही बनवाया था। जमीदारों ने इन्हें परेशान करने के लिए निराधार मुकदमे लादे। मुंशीगंज मेला इन्होंने शुरू कर आया था। इनको तीन बार में छः छः माह की सजा दी गई थी। संपूर्ण जनपद में इनका व्यापक प्रभाव था खजूरगांव, टेकरी, तिलोई के राजाओं से हमेशा मोर्चा लिया था।
गजाधर प्रसाद वर्मा
आपका जन्म 2 नवंबर 1881 को अजबापुर थाना मोहनगंज में हुआ था। पिता का नाम स्वर्गीय राम सहाय वर्मा था। इन्होंने कक्षा चार तक की शिक्षा पाई थी। तिलोई कांग्रेस कार्यालय पर जब पुलिस ने कब्जा कर लिया तो गजाधर प्रसाद वर्मा ने फिर से ताला तोड़कर कब्जा कर लिया था। माफी न मानने पर अंग्रेजों ने जेल भेज दिया और 6 माह की सजा सुनाई गई थी। जेल में शारीरिक प्रताड़ना दी गई और इनसे कोलू चक्की चलाई गई थी।
गुप्तार सिंह
जिले के प्रमुख कांग्रेसी नेता थे। सरेनी में स्वाधीनता आंदोलन करने के परिणाम स्वरूप कई कई बार में 6 वर्ष की सजा और 2 वर्ष की नजरबंदी ही थी। जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं। 18 अगस्त सन 1942 में सरेनी गोलीकांड के प्रमुख सूत्रधार थे, जो थाना सरेनी पर कब्जा करके थाना पर तिरंगा फहराना चाहते थे। बाद में ब्रिटिश पुलिस ने गुप्तार सिंह को फरार घोषित करके इनका घर खुदवा लिया था।
चंद्रिका प्रसाद मुंशी जी असहयोग आंदोलन के पश्चात इन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। आप 9 बार जेल गए और 7 वर्ष की सजा काटी। कुर्री सिदौली और शिवगढ़ रियासत का सदैव विद्रोह करते रहे। आप गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप महात्मा गांधी से विशेष प्रभावित थे। बछरावां में गांधी विद्यालय इंटर कॉलेज और दयानंद डिग्री कॉलेज सहित कई शिक्षण संस्थाओं के संस्थापक रहे। जीवन भर आपने नमक नहीं खाया।
दल बहादुर सिंह
आपका जन्म 20 अक्टूबर सन 1906 को करामा रक्त में रति पाल सिंह के यहां हुआ था मुंबई में नमक सत्याग्रह मैं 3 माह की सजा काटकर रायबरेली आ गए थे यहां भी बराबर ब्रिटिश हुकूमत से मोर्चा लेते हुए आपने कुल 5 वर्ष की सजा काटी थी।
शिवराम विश्वकर्मा
शिवराम विश्वकर्मा का उपनाम मुरली था। आप जतुआ टप्पा, मलिकमऊ चौबारा के निवासी थे। सन 1932 में 6 माह की सजा काटी थी। आपके ही सहयोग से पुराना तिलक भवन बेलीगंज में बना था। आपके राष्ट्र के प्रति निष्ठा भाव था और हमेशा ब्रिटिश शासन का विरोध किया।
मदन मोहन मिश्र
आपका जन्म 16 जनवरी सन 1917 को बेहटा कला सरेनी में हुआ था। पिता का नाम स्व० चन्द्रनाथ मिश्र था। ये किशोरावस्था से क्रांतिकारी थे। आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद के अध्यक्ष भी थे। 12 जून सन 1938 को विवाह मंडप से आप की गिरफ्तारी हुई थी। आपने “जनता राज” समाचार पत्र का संपादन किया, जिसका अंग्रेजों ने अनवरत विरोध किया। अंत में 20 जनवरी 1994 को आप का स्वर्गवास हो गया था।
रमाकान्त पाण्डेय
आप सलारपुर कोतवाली सदर के रहने वाले थे। पिता का नाम स्वर्गीय संत शरण पांडेय था। सन 1940 – 41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में 1 वर्ष की सजा और 50 रुपये जुर्माना लगाया गया था। सन 1942 के आंदोलन में अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर आप फरार हो गए थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद के अध्यक्ष थे। देश को आजाद होने पर उन्होंने भारत माता का अभिवादन दंडवत किया था।
राम भरोसे श्रीवास्तव
आपका जन्म सन 1915 में तिलोई में हुआ था। पिता का नाम जगन्नाथ प्रसाद श्रीवास्तव था। पुरुषोत्तम दास टंडन के आग्रह पर आप मद्रास में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने गए थे। फिर सन 1926 में रायबरेली आ गए। आते ही किसान आंदोलन में राजा विश्वनाथ से टक्कर हो गई। आपको कुल 5 वर्ष की सजा हुई थी।
श्रीमती सिताला और श्रीमती सुखदेई
आप दोनों मुस्तफाबाद, ऊँचाहार की रहने वाली थी। सन 1930 में इन वीरांगनाओं को नमक आंदोलन में भाग लेने के कारण 6 माह की सजा और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए 1 वर्ष का कठोर कारावास हुआ था।
गोविंद सिंह
आपका जन्म 18 जून सन 1912 को ओसाह महाराजगंज में हुआ था। सन 1932 में लगान बंदी आंदोलन में भाग लेने के कारण 6 माह की सजा हुई थी। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी 1 वर्ष के लिए आप जेल गए थे।
गुरुदास
आपका जन्म धुरेमऊ सरेनी में हुआ था। आपके पिता का नाम स्व० भोला था। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 18 अगस्त 1942 को हुए सरेनी गोलीकांड में आप पकड़े गए थे, जिसके कारण 7 वर्ष का कठोर कारावास की सजा आपने काटी थी।
चोहरजा सिंह
आपका जन्म स्वर्गीय पृथ्वीपाल सिंह के यहां जगदीशपुर नसीराबाद में हुआ था। आपने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया था। सन 1931 में 6 माह की जेल और 25 रुपये अर्थदंड लगाया गया था
जगन्नाथ दीक्षित
पिता का नाम स्वर्गीय दयानिधि दीक्षित था। आप रामपुर निहस्था के निवासी थे। सन 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होने के जुर्म में एक वर्ष की जेल और 200 रुपये जुर्माना लगाया गया था।
जयराम सुधांशु
सुधांशु का जन्म 5 मई सन 1922 को दीन शाह गौरा में हुआ था। आपके पिता का नाम स्वर्गीय बाबूलाल था। सन 1941 के सत्याग्रह में 9 माह की सजा का का कठोर कारावास हुआ था।
श्रीमती बुद्धा
आपका जन्म पचवासी जगतपुर में हुआ था। पिता का नाम स्वर्गीय गुरुदीन था। आपने व्यक्तिगत सत्याग्रह में शामिल थी, और आसपास के गॉंवों की महिलाओं को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोही तेवर रखने को कह रही थी। इस आंदोलन में भाग लेने के कारण आपको 3 माह की कड़ी कैद और 50 रुपये जुर्माना अंग्रेजों ने लगाया था।
सुन्दारा देवी
आपका जन्म ग्राम वंशपुर मुस्तफाबाद, सलोन में हुआ था। सन 1930 में महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थी, जिसके जुर्म में 6 माह की कड़ी कैद हुई थी।
रायबरेली जनपद में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की संख्या लगभग 1100 से ऊपर है। मुंशीगंज गोलीकांड में जिस किसान को पहली गोली लगी वह व्यक्ति अमर शहीद बदरू बेड़िया था।
आज के अवसर पर भले ही सभी क्रांतिकारी महानायकों की सूची प्राप्त नहीं है, लेकिन अखण्ड भारत के साथ ही रायबरेली में हुए सभी सभी गोलीकांडों में शहीद हुए किसानों, नौजवानों को श्रद्धा सुमन अर्पित करना मेरा धर्म है। इन सबके अतिरिक्त पंडित अमोल शर्मा जिन्हें मुंशीगंज गोलीकांड में छह माह की कैद और ₹ 50 जुर्माना हुआ था, उनको याद करना चाहिए। अलोपीदीन तिवारी, अंगद सिंह, अयोध्या, अवतार पासी, कमला किशोर, केदारनाथ द्विवेदी, गंगा दयाल बाजपेई, गया प्रसाद, जानकी देवी, हजारी प्रसाद, जयराम, सुधांशु, जगन्नाथ कुशवाह, देवता देवी, देवी प्रसाद, उत्तम लाल जैसे न जाने कितने अनगिनत वीरों के नाम हैं, जिनको स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाना पड़ा और यातनाएं सहनी पड़ी। परिणाम स्वरूप आज हम स्वतंत्र होकर खुली हवा में सांस ले रहे हैं। अब जरूरत है मानसिक रूप से भी स्वतंत्र हो जाये, जिससे हर भारतवासी सशख़्त और सक्षम बन सके।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर

शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459