पंडित राम प्रसाद बिस्मिल : शौर्य का पर्याय

पं० राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) के शाहजहांपुर जनपद के छोटे से गांव खिरगीबाग में 11 जून सन 1897 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता मुरलीधर और माता फूलमती किसी तरह से परिवार की गाड़ी चला रहे थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। राम प्रसाद बिस्मिल अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। रामप्रसाद जी हर धर्म का बराबर सम्मान करते थे। उनके उपनाम ‘राम, बिस्मिल औऱ अज्ञात’ थे।


रामप्रसाद बिस्मिल प्रतिभा संपन्न युवा थे, उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था, जिसके कारण अनुवादक व साहित्यकार बन गए थे। बाद में वे इसी लेखन कौशल से अपनी जीविका चला रहे थे। राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा लिखा गया गीत- सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है.. पूरे भारत में विख्यात हुआ और आज भी 26 जनवरी, 15 अगस्त, 2 अक्टूबर जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर यह गीत अवश्य गया जाता है।


स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और ‘हिंदुस्तान पब्लिक संगठन’ से जुड़े रहे। राम प्रसाद बिस्मिल बचपन से ही शरारती थे। गलत संगत के कारण की आदत भी गलत पड़ गई थी। राम प्रसाद बिस्मिल अपने पिता के संदूक से रुपए चुराकर सिगरेट, तंबाकू, भांग आदि खरीदते थे, रुपये बच जाने पर उपन्यास खरीद लिया करते थे।


राम प्रसाद ने अपने वरिष्ठ साथियों के दिशा निर्देशन में “मातृ देवी’ नामक संगठन बनाया था, जिसके लिए समय-समय पर धन की आवश्यकता पड़ती थी। किसी की भी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि, अपने पास से कोई व्यक्ति संगठन के लिए धन दे सके। तब राम प्रसाद बिस्मिल ने तीन डकैतियां डाली थी। भारत का मशहूर काकोरी कांड की चर्चा आज भी होती है। काकोरी कांड की घटना से ब्रिटिश सरकार बैकफुट पर आ गई थी और फिरंगियों को भारत से सत्ता समाप्ति की आहट सुनाई देने लगी थी।


सरकारी धन को लूटने के लिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अपने घर (शाहजहांपुर) में 7 अगस्त सन 1925 को आपातकालीन बैठक बुलाई। जिसमें सर्वसम्मति से तय हुआ कि सहारनपुर से लखनऊ आने वाली पैसेंजर रेलगाड़ी को लूट जाएगा। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद आदि लगभग 10 वीर सपूत शाहजहांपुर स्टेशन पर रेलगाड़ी में सवार हो गए। भाप इंजन से छुक-छुक चलने वाली गाड़ी धीरे-धीरे लखनऊ पहुंच रहे थी। जैसे रेलगाड़ी जंगलों को चीरते हुए काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुक कर, आगे बढ़ ही रही थी, कि बसंती चोले वाले क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने से भरे बक्से रेलगाड़ी से नीचे फेंक दिया। बाद में मजबूत बक्सा को हथौड़ा से तोड़कर सोना चांदी लूट ले गए। जल्दबाजी में सोना चांदी से भरे कुछ पैकेट वही छूट गए थे।

अंग्रेजन में बहुत तनाव व्याप्त हो गया कि क्रांतिकारी जब रेलगाड़ी लूट सकते हैं तो आगे कुछ भी कर सकते हैं इस डर से अंग्रेजों ने काकोरी कांड की घटना को गंभीरता से लेते हुए ब्रिटिश सीआईडी अधिकारी आर ए होतम और स्कॉटलैंड की विश्वसनीय पुलिस को जांच सौंप गई जज ए हाई मिल्टन ने 6 अप्रैल 1927 को निर्णय देते हुए क्रांतिकारी पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि यह घटना भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की साजिश है जिसके कारण सभी क्रांतिकारी दोषियों को फांसी की सजा सुनाई जाती है लगभग 6 मा ट्रायल कैसे चलने के बाद गोरखपुर की जेल में 18 दिसंबर 1927 को माता-पिता से अंतिम मुलाकात करने के अगले दिन 19 दिसंबर 1927 को सुबह फांसी दे दी गई है बाद में रामप्रसाद बिस्मिल के समाधि बाबा राघव दास आश्रम बरहज देवरिया में बनाई गई थी राम प्रसाद साहित्यकार अनुवादक होने के नाते अनेक पुस्तक भी लिखते थे उनकी लिखी प्रमुख पुस्तकें- मैनपुरी षडयंत्र, स्वदेशी रंग, अशफाक की याद में, आदि हैं।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

अवध की सांस्कृतिक लोक चेतना

कहते हैं कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है। शहरों के साथ ही बदलते हुए ग्रामीण परिवेश में आपसी प्रेम, सामंजस्य और लोक परम्परा, लोक संस्कृति लुप्त हो रही हैं। लोक संस्कृतियों के प्रति हमारी अबोधता उसके अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। आकाश, सूर्य, चाँद, पानी, हवा, पृथ्वी आदि का हमारे जीवन का मूल आधार है। इनके महत्व को हम भूलते जा रहे हैं। और तो और, इन सब बातों में हम वक्त बर्बाद नहीं करना चाहते हैं। ईश्वर प्रदत्त हर अमूल्य निधियाँ निःशुल्क मुझे मिल रही है, फिर भी हम इन प्राकृतिक निधियों की रक्षा करने के बजाय, निरंतर दोहन कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि बिन सांस्कृतिक लोक के हमारा जीवन अधूरा है और इसके अभाव में हम सुखमय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

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प्रत्येक क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। जिसके कारण वह क्षेत्र पहचाना जाता है। इस दृष्टि से अवध की संस्कृति और उसकी परम्पराएँ एक समृद्ध विरासत को संजोए हुए हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है अवध। यह एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं, अपितु त्रेतायुग से ही एक अनूठी संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण है, जो भारत में शायद ही कहीं देखने को मिले। जहाँ खिलते, महकते फूल, फल, मुस्कुराते मौसम, आती-जाती ऋतुएँ हैं। तीज त्यौहार, लोक कंठ से फूटे ताने धुने, धर्म-कर्म हैं। पाश्चात्य सभ्यता और वहाँ की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से भले ही हमारी संस्कृति क्षीण हुई हो, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पूरी दमखम के साथ विद्यमान है।

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अवध क्षेत्र लगभग 12 जनपदों में विस्तारित है। यहाँ के लोक संस्कृति विविधताओं से भरी है और उनका स्वरूप आज भी गाँवों में देखने को मिलता है। जब हम त्योहारों की बात करते हैं तो अवध क्षेत्र में पूरे वर्ष भर विभिन्न प्रकार के पर्व मनाया जाते हैं। होली, दीपावाली, दशहरा, रामनवमी, दुर्गा पूजा, रक्षाबंधन आदि के अतिरिक्त इस्लाम धर्मावलंबी ईद, बकरीद, मुहर्रम, ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस, ईस्टर, गुड फ्राइडे, धूमधाम से मनाते हैं। यहाँ के त्योहारों की विशेषता है कि सब त्यौहार एक साथ बिन भेदभाव के मनाए जाते हैं। दशहरे में रामलीला का मंचन तो होली में झूमकर फाग होता है। व्रतों की बात करें तो, करवाचौथ हलछठ, गणेश चतुर्थी, हरितालिका तीज, रोजा (रमजान) आदि व्रत रखे जाते हैं। जो कहीं पति की लंबी उम्र के लिए, तो कहीं बालकों की लंबी उम्र के लिए महिलाओं द्वारा बड़ी आस्था के साथ रखे जाते हैं। यहाँ लोकगीतों की बहुलता है। शादी विवाह में अलग लोकगीत, ऋतुओं के अलग लोकगीत, श्रम के अलग लोकगीत और अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। विवाह गीत गुनगुनाते हैं-
जउने अंगनवा खेली हो बिटिया, वह सुना करि जई हो।
कुछ बेरिया के बाद हो बिटिया, अपने घर का जई हो।।
सास-ससुर से मिल कर रहि हो,
वई माई बाबू तुम्हार हो।
ननद के साथै हँसीहो खेलि हो,
वई बहिनी अब तुम्हार हो।।

पुत्र जन्म पर सोहर गाने की परंपरा है, तो शादी में बन्ना विदाई गीत, भोजन करते समय गारी (गाली) आदि गाने की परंपरा है। अवध क्षेत्र में वैवाहिक रस्मों में आत्मिक प्रेम कूट-कूट कर भरा था, बराती भोजन ग्रहण करते समय गलियाँ (गारी) भी खाते थे, और ऊपर से उन गारी के बदले कुछ धनराशि भी महिलाओं को नेग रूप में देते थे। ये प्रेम डोर की प्रथा अब अतिथि ग्रहों (गेस्ट हाउस) और बफर सिस्टम ने सुरसा की भाँति निगल लिया है। शादी के गीतों में इतनी विविधता है कि तिलकोत्सव, द्वारचार के अलग गीत, सप्तपदी (सात फेरे) के अलग गीत, विदाई के अलग गीत हैं। कोई भी गीत गाने से पहले महिलाएं देवी गीत गाना नहीं भूलती हैं। जिसमें गौरी, गणेश, शीतला माँ के गीत सम्मिलित हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर देवी गीत और जागरण के गीत गाए जाते हैं जिन्हें भजन कहते हैं-
देवी आँगन मोरे आई,निहुरि कै मैं पईयाँ लागू।
काऊ देखि देवी मगन भइहैं, काऊ देखि मुस्कानी।
रानी देखि देवी मगन भई हैं, बालक देखि मुस्कानी,
देवी आँगन मोरे आई, निहुरि कै मैं पइयाँ लागू।

इन्हीं लोकगीतों के सहारे जनमानस अपने दुखों को भूल कर अपना सामंजस्य बैठाते हैं। खेती-किसानी करते समय, श्रम गीतों के गाने की प्रथा है। खेतों में धान लगाते समय गीत गाये जाते थे, जिससे सर्वधर्म समभाव के साथ किसानों में एकता, ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहे-

रिमझिम बरसे पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।
लहरत बा तलवा में पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।।
सोने की थारी मां ज्योना परोसे,
पिया का जेवाई आई धनियाँ।
नाच्यो गायो खुसी मनायो, भरि जइहैं कोठिला ए धनियाँ।

पहले घर की महिलाएँ मिल-जुलकर प्रातःकाल उठकर चकिया (जात) में गेहूँ पीसती थी, उसके बाद दैनिक कार्यों में लग जाती थी। जब भी कोई मेहमान आता था तो बड़े सम्मान से उन्हें भोजन कराती थी। घर की महिलाएँ चकिया में गेहूं पीसते हुए लोकगीत के माध्यम से ही मेहमानों से हालचाल पूँछती और अपनी उन्हें बताती थी। ससुराल में जात पीस रही एक स्त्री अपने भाई से बात करते हुए गाती है-
बैठहुँ न मोरे भैया रतनी पलंगिया हो न,

बहिनी कहीं जाऊ आपन हवालिया हो न।
नौ मन कूटयो भइया, नौ मन पीस्यो हो न,
भइया पहिली टिकरिया, मोर भोजनवा हो न।

इस तरह से महिलाएं अपने भाई को गीत के माध्यम से हाल-चाल बताती थी। कुछ जातियां बिरहा गाती हैं। जातीय नृत्यों में यादव गडरिया का नृत्य, धोबियों पासियों का नृत्य प्रसिद्ध है। खेद का विषय यह है कि अब यह नृत्य विलुप्तप्राय हो चुके हैं। इस प्रकार के नृत्य करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। अब इन नृत्यकारों को संरक्षित और इन पर शोध करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति इन नृत्य-गीतों को न सीखना चाहता है और न ही अपने बच्चों को सिखाना चाहते हैं। कारण समाज अब नृत्य करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगा है, समाज को ऐसी कुत्सित विचारधारा बदलनी होगी। डीजे के युग में दिल पर सीधा कुप्रहार करने वाले गीतों की भीड़ में लोकनृत्यों का अस्तित्व समाप्त की ओर है।
फाल्गुन हिन्दू कैलेंडर का अंतिम महीना है। रंगों का त्योहार होली के मौसम में एक महीना तक अर्थात वसंत पंचमी से शीतलाष्टमी तक फ़ाग की धूम रहती है। बड़े-बड़े ढोल-नगाड़ों की थाप पर फाग गाए जाते हैं और किसी प्रतिष्ठित स्थान पर फाग की प्रतियोगिता भी आयोजित होती है। चौताल, डेढ़ताल, ढाईताल फाग ढोलक की थाप पर सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। कवि दुलारे ने तो अमर शहीद राणा बेनीमाधव सिंह पर डेढ़ताल का फाग ही लिख डाला। जिसको न गाया जाय तो फाग अधूरा माना जाता है-

अवध मां राना भैयो मरदाना।
पहिल लड़ाई भई बकसर मां, सेमरी के मैदाना।
हुवाँ से जाय पुरवा मां जीत्यो, तबै लाट घबराना।
नक्की मिले, मान सिंह मिलिगै, जानै सुदर्शन काना।।
अवध मां राना भयो मरदाना।।

अवध की संस्कृति सामूहिकता पर आधारित है जो समूह को महत्व देती है। नौटंकी यहाँ की प्रमुख लोककला है। शादी के दिन जब सभी पुरुष बारात चले जाते हैं तब रात्रि में घर की सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए महिलाएँ रातिजगा करती हैं। जिसके लिए रात्रि में स्त्रियाँ अपना रूप बदलते हुए चोर, पुलिस, किसान, पुरुष आदि का भेष बनाकर खेलती थी, जिसे नकटा कहा जाता था। ये परम्परा भी अंतिम साँसे गिन रही है। स्त्रियाँ स्वांग प्रहसन् करके रात भर जागती हैं, जिससे घर में किसी प्रकार का कोई खतरा उत्पन्न न हो।
वर्षा ऋतु में ढोलक, हारमोनियम, बीन की थाप और धुन पर पर अल्हैत लोग हिंदी साहित्य का वीर रस से ओतप्रोत आल्हा गाते हैं और जनमानस में वीरता व ओज का संचार करते हैं। आल्हा यद्यपि बुंदेलखंड की पावन धरती, विशेषकर महोबा, उरई, जालौन क्षेत्र की विधा है, क्योंकि आल्हा यादव और उदल यादव बुंदेलखंड के महोबा में पैदा हुए थे लेकिन उनकी वीरता की कहानियाँ पूरे उत्तर भारत में आल्हा गायन के रूप में गाई जाती हैं। उन्नाव जनपद के नारायणदास खेड़ा निवासी श्री लल्लू बाजपेई को आल्हा सम्राट कहा जाता है। रामरथ पांडेय (लालगंज) आल्हा गायन में मशहूर हैं। लल्लू बाजपेई के आल्हा की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

बड़े लड़ाईया महोबे वाले इनकी मार सही ना जाए।
एक को मारे दो मर जाएँ, मरै तीसरा दहशत खाए।।

ये तो परमसत्य है कि लोकगीतों के स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। लोग जीवन में जैसे-जैसे आपसी सहयोग और सद्भाव विलुप्त हो रहा है, उसी तरह हमारी प्राचीन संस्कृति भी विलुप्त होने के कगार पर है। हम तो उस देश के वासी हैं, जहाँ हर कदम, हर पर्व पर खुशी मिल-जुलकर बाँटते हैं। हर त्योहार का कोई न कोई गीत भी सामूहिक गान के रूप में गया जाता है। जैसे गीतों में सावन कजरी गाई जाती है। यद्यपि कजरी गीत का मूल स्रोत मिर्जापुर माना गया है, लेकिन अवध के विभिन्न जनपदों में कजरी बहुतायत गाई जाती है। पूरा श्रावण मास ही भगवान शिव को समर्पित है। सावन के महीने में पेड़ो की शाखाओं पर झूले पड़ जाते हैं। महिलाएँ झूले पर झूलते हुए गाती हैं। इस प्रकार के गीतों से परिवार व पड़ोसियों से बिगड़े हुए मधुर सम्बन्ध भी बन जाते हैं-

कहाँ से आये श्याम बनवारी, कहाँ से आई राधिका रानी।
गोकुल से आए बनवारी ,
मथुरा आई राधिका प्यारी।।
कि झोंका धीरे से देओ, हमें डर लगता भारी।
डरो मत राधिका प्यारी, हमें तो तुम जान से प्यारी।।

कृष्ण जन्माष्टमी के समय सोहर, भजन, धार्मिक गीत गाए जाते हैं। नृत्य की बात करें तो धोबियों (निर्मल) के लोकनृत्य में अब माइक का प्रयोग होने लगा है। पहले कमर में घंटी बाँधकर लहंगा पहनकर और बांसुरी लेकर नाचने वाला व्यक्ति जब बाँसुरी की तान छेड़ता था तो, दर्शक व श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इस नृत्य में मुख्य रूप से मृदंग और कसावत वाद्य यंत्र होता था। एक आदमी प्रकाश के लिए मशाल जलाकर आगे-आगे चलता था।
यादवों (अहीरों) के लोकनृत्य में घुँघरू वाले जाँघिया को धोती के ऊपर पहनते और 7 मीटर का पटुका बाँधते थे। इनके वाद्य यंत्रों में नगाड़ा और नगरची होते थे। इनमें नाचने वालों को गॉंव के लोग नचनिया समझते थे।
इन्हीं लोकनृत्य में एक प्रमुख लिल्ली घोड़ी का नृत्य बहुत प्रसिद्ध था। शुभ अवसर पर एक व्यक्ति काठ के घोड़े को सजा कर अपनी कमर में रस्सी के सहारे पहन लेता है, तत्पश्चात सुंदर मनमोहक नृत्य करता था। इसे देखकर बच्चे और स्त्रियाँ अति प्रसन्न होते थे।
प्राचीन काल से ही अवध की संस्कृति में खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा की विशेषता रही है। अनेक अवसरों पर नाना प्रकार के पकवान बनाए जाने की परंपरा रही है। जैसे होली में गुझिया पापड़, बरगदाही में बरगद गुलगुले, गुरुपूर्णिमा असाड़ी को बेसन की बेढ़ई, नागपंचमी में गेहूं चने की घुघरी, दीपावली को लाई चूरा रेवड़ी चीनी के खिलौने, गणेश चतुर्थी को तिलवा लड्डू धूंधा, मकर संक्रांति में घी खिचड़ी नीम्बू आदि बनाए जाने की परंपरा रही है। मशीनीकरण और अर्थ के युग मे अब ये सब समाप्ति की ओर है। लोग अनपढ़ थे, परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान उनके अंदर कूट-कूट कर भरा था। शायद इसीलिए मौसम अनुसार खाद्य पदार्थ बनते थे, जो शरीर के लिए लाभदायक है। किंतु आज हम भोजन के साथ मिलावटी पदार्थ अर्थात मीठा जहर खा रहे हैं।
अवध की संस्कृति गाँव की संस्कृति है। सद्भाव और सहकार इसके मूल में बसा है। आधुनिकता की चकाचौंध में अवध की संस्कृति अभी भी जीवित है। हाँ, संकट भी मंडरा रहा है। गाँव की विभिन्न कथाएँ-प्रथाएँ दम तोड़ने लगी है, जो पहले दिलों को जोड़ने वाली होती थी। विवाह के समय दुल्हन के यहाँ बारात 3 दिन रुकती थी और अब 3 घंटे में बरात हो जाती है। क्योंकि अब बारात दिल जोड़ने वाली नहीं, अपितु अर्थ जोड़ने वाली हो गयी है। बारात की तैयारियों में पूरा गाँव लग जाता था। ग्रामीणों की चारपाई आ जाती थी। बर्तन, ड्रम आदि सब मिल जाते थे। इन सबसे अर्थ बचत और एकता बढ़ती थी। आज इंसान ये सब करने में खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। हम डीजे की कानफोड़ू आवाज और जगमगाती रोशनी के द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं बचा सकते हैं। आज सगे संबंधियों का नाता भी पकवानों तक सीमित हो गया है। मेहमान, मित्र आदि भोजन का अंदाजा लगा कर ही घरों से निकलते हैं, जिसके कारण दूरियाँ बढ़ गयी हैं-
बफर सिस्टम सबसे महान।
न कोउ भूखा, न अघान।।
हुआँ तो धक्का मुक्की की बहार है।
कहते हैं कि समरसता की फुहार है।।
कोउ गुस्से मा लाल पीला,
तो कोहू का कपड़ा लाल पीला।
यह सब अवगुण कहीं नहीं अखिल भारत और अवध के लिए घातक सिद्ध होंगे। धर्म, वंश, जाति, लिंग भेद से बहुत ऊपर उठकर हमें अपनी विलुप्त होती जा रही जड़ों पर विचार करना होगा, अन्यथा हमारी लोक संस्कृति किस्सा-कहानी तक सीमित और सपना बनकर रह जायेगी।

डॉ० अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

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हमारी आवाज | रत्ना भदौरिया

इंसानियत ख़त्म हो गई है इस बात से बिल्कुल नकारा नहीं जा सकता। मैं तो इस बात को चीख चीखकर कहती हूं। अगर इंसानियत होती तो हम बार बार स्त्री होने के नाम पर पिस्ते नहीं देखो न कभी मणिपुर कभी राजस्थान कभी हाथरस मुझे नहीं लगता कि देश का कोई भी कोना बचा होगा जहां हम नहीं पिसे हो।पिसना, शर्मसार, घटिया, दुखदायी ये सारे शब्द मुझे ऐसी घटनाओं के आगे बहुत फीके और छोटे लगते हैं।

ऐसी घटनाओं के लिए जो शब्द इस्तेमाल करना चाहिए वो तो वर्णमाला में भी नहीं मिलते क्योंकि वर्णमाला को भी शर्म आती होगी ऐसे शब्दों को अपने बीच पाते हुए। कल राजस्थान में एक औरत की मात्र इतनी ही तो बात थी कि वो दूसरे आदमी के साथ रहना चाहती थी। मैं पूछती हूं उन तमाम महिलाओं को जब पुरुषों के द्वारा कभी दहेज के लिए तो कभी वो दिखने में सुंदर माडर्न नहीं है कभी क्या,कभी क्या कहकर छोड़ दिया जाता है,जला दिया जाता है तब कहां चले जाते हैं?

ये बड़े -बड़े दांत दिखाने वाले लोग जो आज उस महिला की नग्न अवस्था देखकर निकाल रहे थे। खैर पुरुष का छोड़ो यहां पर वो बात भी बहुत सत्य साबित होती है घर का भेदी लंका ढाही। क्योंकि महिलाओं के दांत भी वहां कम छोटे नहीं दिख रहे थे उस महिला को नग्न देखकर ।कमसे कम हमें तो जगना होगा। लेखक , विचारक , प्रचारक, राजनीतिक, सामाजिक और सोसल मीडिया का तो क्या ही कहना —-?

अरे फालोवर्स बढ़ाकर चुप क्यों हो जाते हैं इसलिए की दूसरे मुद्दे पर फालोवर्स बढ़ाना है या फिर इसलिए की इस मुद्दे से झोली भर गयी । मैं पूछती हूं की जब हम महिलाओं को ही खत्म कर दिया जायेगा तो आप सब आयेंगे कहां से क्योंकि बनाया तो हमनें ही है आप सबको भी । और ये फालोवर्स बढ़ाने वाले लोग ——–। तो सब मिलकर तब तक फालोवर्स बढ़ाते रहिए जब तक हमारी समस्या का समाधान ना हो जाए।

एक बात और कहना चाहती हूं कि एक लड़की या औरत जब कपड़ा छोटा पहन लिया तो वो मर्यादा या संस्कार भूल गयी । महिलाओं को जो निर्वस्त्र किया गया उसके खिलाफ आपके मुंह बंद क्यों और यदि खुले हुए हैं तो चुप्पी क्यों?

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

मेरे जीवन की प्रतिमूर्ति :मेरे गुरु

मेरे जीवन में कोई एक अध्यापक नहीं बल्कि अनेकों गुरुओं का योगदान रहा है और मैं मानती भी हूं कि वो हर व्यक्ति गुरु होता है जिससे हम कुछ न कुछ सीखते हैं। लेकिन कुछ गुरु विशेष हैं मेरे जीवन में जो कुछ न कुछ नहीं बल्कि सभी कुछ सिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। उनका बस चले तो गूगल की तरह हर चीज सिखा दें।

अब वो विशेष हैं तो यहां नाम लेना भी विशेष है -मेरी मां और पिता, संतलाल सर, मन्नू भंडारी, सुधा अरोड़ा, ममता कालिया, अशीष श्रीवास्तव,इन विशेष गुरुओं ने आज मुझे जिस मुकाम तक पहुंचाया है कि अगर जीवन में यहां से लडखडाऊं तो भी जमीन पर गिर कर बिथरुंगी नहीं बल्कि नीचे धीमी गति से और संभलते हुए उतरूंगी। आशीष सर की एक बात बार- बार याद आ रही है।

जब मैं नौवीं कक्षा में पढ़ती थी तब अशीष सर हमारे कक्षा अध्यापक होने के साथ -साथ हिन्दी के अध्यापक और गांव के रहने वाले। इत्तफाक उनका खेत मेरे घर के सामने ही जब कभी खेतों की तरफ आते मेरी मम्मी या पापा से शिक़ायत कर जाया करते कि ये पढ़ती नहीं है बिल्कुल भी। मैं हर दिन मुंह बिचकाते हुए पता नहीं सर इधर आते ही क्यों हैं? इनके पास कोई काम ही नहीं। हर शाम दरवाज़े पर दुबकी किताब लेकर बैठती महज सर के डर से की शायद पढ़ता हुआ देख शिकायत नहीं करेंगे लेकिन फिर भी ——-।

मम्मी का भी यही था हर दिन ग़लती निकालना तब अच्छा नहीं लगता था लेकिन आज ग़लती नही सही है यह चीज मम्मी या किसी के मुंह से सुनकर बहुत अच्छा लगता है और मम्मी की बात भी याद आती है कि उस समय ——।

संतलाल सर, सुधा अरोड़ा, मन्नू भंडारी सबने साहित्यिक जीवन के साथ -साथ व्यक्तिगत जीवन से जुड़े हर पहेलू में मेरी मदद के साथ -साथ बेहतरीन से बेहतरीन काम को करने की सीख दी। सभी को धन्यवाद के साथ -साथ शिक्षक दिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएं। आप सब हमेशा स्वस्थ रहें और यूं ही मेरा मार्गदर्शन करते रहें।

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रायबरेली के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का योगदान | अशोक कुमार गौतम

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रायबरेली के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का योगदान

सन 1857 की क्रांति में अखण्ड भारत के जिन-जिन वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उनमें बैसवारा के राजा राव राम बक्श सिंह, अवध केसरी राणा बेनी माधव सिंह, वीर वीरा पासी, लाल चंद्र स्वर्णकार, राजा हरिप्रसाद सिंह, खद्दर-भद्दर यादव, रघुनाथ आज का नाम सर्वादरणीय है। स्वाधीनता संग्राम की चिंगारी सन 1857 में अखंड भारत में भड़क चुकी थी। जिसमें असंख्य ज्ञात-अज्ञात शहीदों ने स्वतंत्रता संग्राम की मिसाल को अपने लहू से जलाए रखा। शहीदों के प्रति हम मूक श्रद्धांजलि अर्पित कर पा रहे हैं। सन 1857 के बाद की क्रांति की चिंगारी 1920 के लगभग पुनः जोर-शोर से भड़की और भारत के आजादी प्राप्त तक प्रज्वलित होती रही।
इस क्रम में कुछ प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों का परिचय देना समीचीन प्रतीत होता है-

राना बेनी माधव सिंह


अवध प्रांत के शंकरपुर रायबरेली रियासत के राजा राणा बेनी माधव सिंह सन 1857 के गदर में अंग्रेजों से बराबर मोर्चा लेते रहे। आपने अपना साम्राज्य बहराइच तक फैलाया था। गोरिल्ला युद्ध में माहिर राणा साहब को लखनऊ की रानी बेगम हजरत महल ने दिलेर-ए-जंग की उपाधि दी थी। माँ भगवती के उपासक राणा बेनी माधव सिंह ने अंग्रेज सेनापति होप ग्रांड और चैंबर लेन को भागने पर मजबूर कर दिया। आपको अवध केसरी, नर नाहर कहा जाता है। आपने अपने सेनापति वीरा पासी के सहयोग से हर स्तर पर अंग्रेजों को खदेड़ा है और अंतिम सांस तक अंग्रेजों के हाथ नहीं आए।


वीरा पासी
स्वामिभक्त वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को लोधवारी में हुआ था। आपका वास्तविक नाम शिवदीन पासी था। आप राणा बेनी माधव सिंह के प्रमुख सेनापति व अंगरक्षक थे। आपने राणा साहब को ब्रिटिश हुकूमत की जेल से रोशनदान के रास्ते बाहर निकालकर आजाद कराया था। अपनी जान देकर राणा साहब के प्राणों की रक्षा करने वाले वीरा पासी के नाम से अंग्रेज थर-थर कांपते थे। इसलिए अंग्रेजों ने वीरा पासी का पता बताने वाले या वीरा को पकड़ने वाले को उस समय 50,000 रुपये इनाम की घोषणा की थी। भीरा की लड़ाई में राणा बेनी माधव सिंह के प्राणों की रक्षा करते हुए आप शहीद हो गए थे।
अमर शहीद औदान सिंह, सुक्खू सिंह, टिर्री सिंह, रामशंकर द्विवेदी व चौधरी महादेव
18 अगस्त सन 1942 को असंख्य रणबाकुरे सरेनी स्थित थाना में तिरंगा फहराने की जिद पर अड़े थे। तभी अंग्रेजों की गोलियों से 5 क्रांतिकारी शहीद हो गए थे। उन्हीं की स्मृति में थाना के ठीक सामने शहीद स्मारक बनाया गया है।
अंजनी कुमार तिवारी
इनका जन्म 1905 में बछरावां में हुआ था। पिता का नाम स्व० रामदयाल तिवारी था। आजादी की लड़ाई में आप 6 बार जेल गए, 4 वर्ष की सजा भुगती और ₹ 100 जुर्माना लगाया गया। 14 फरवरी सन1982 को आप का स्वर्गवास हो गया था।
अश्विनी कुमार शुक्ल
इनका जन्म 4 जुलाई सन 1907 को बकुलिहा, खीरों में सुखनंदन शुक्ल जी के घर में हुआ। इनकी शिक्षा-दीक्षा मारवाड़ी स्कूल कानपुर में हुई। साइमन कमीशन के विरोध में लाला लाजपत राय और गोविंद बल्लभ पंत के ऊपर हुए लाठीचार्ज से आहत होकर आप काले झंडे के साथ जुलूस में सम्मिलित हुए। इन्होंने लगान बंदी का भी विरोध किया। लालगंज में 1932 में जत्था बनाकर तार कटिंग की। जिसके जुर्म में 2 वर्ष का कारावास और ₹ 50 जुर्माना लगाया गया।
अम्बिका प्रसाद मिश्र
अम्बिका प्रसाद मिश्र का उपनाम दिवाकर शास्त्री था। आपका जन्म सुल्तानपुर खेड़ा (ऐहार) में स्व० नंदलाल मिश्र के घर में हुआ था। इनकी शिक्षा-दीक्षा काशी विद्यापीठ में हुई। डॉ० संपूर्णानंद और आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आकर अनेक आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। आप समाजवाद के समर्थक और नमक सत्याग्रह में सम्मिलित थे।
अहोरवा दीन यादव
आपका जन्म सन 1910 में पहाड़पुर (मोहन गंज) में हुआ था। पिता का नाम स्व० अधीन यादव था। आप कानपुर में डाक विभाग में नौकरी करते थे, साथ ही गणेश शंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में बराबर बने रहते थे। अहोरवादीन स्वाधीनता संग्राम में कॉंग्रेस जुलूस में सम्मिलित होते थे, जिसके कारण 6 माह की जेल और 15 रुपये जुर्माना लगाया गया था। बाद में सन 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह करने के जुर्म में 1 वर्ष का कठोरतम कारावास हुआ था।
अल्ला तवक्कुल मौलाना
अल्ला तवक्कुल मौलाना का जन्म शिवदयाल खेड़ा (बछरावां) में हुआ था। सन 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लेने के कारण 1 वर्ष की कठोर सजा और 40 रुपये जुर्माना लगाया गया था। मौलाना जी बड़े रौबदार इंसान थे, कहते थे कि ‘हमने 1 मिनट में अंग्रेजों को भगा दिया।’
कालिका प्रसाद मुंशी
कालिका प्रसाद मुंशी रायबरेली जनपद में कांग्रेस के जन्मदाताओं में से एक हैं। सन 1921 के मुंशीगंज गोली कांड के बाद एक खुलकर मैदान में आ गए थे। इनके नाम से ताल्लुकेदार और पुलिस दोनों घबराते थे। लालगंज में गांधी चबूतरा आपने ही बनवाया था। जमीदारों ने इन्हें परेशान करने के लिए निराधार मुकदमे लादे। मुंशीगंज मेला इन्होंने शुरू कर आया था। इनको तीन बार में छः छः माह की सजा दी गई थी। संपूर्ण जनपद में इनका व्यापक प्रभाव था खजूरगांव, टेकरी, तिलोई के राजाओं से हमेशा मोर्चा लिया था।
गजाधर प्रसाद वर्मा
आपका जन्म 2 नवंबर 1881 को अजबापुर थाना मोहनगंज में हुआ था। पिता का नाम स्वर्गीय राम सहाय वर्मा था। इन्होंने कक्षा चार तक की शिक्षा पाई थी। तिलोई कांग्रेस कार्यालय पर जब पुलिस ने कब्जा कर लिया तो गजाधर प्रसाद वर्मा ने फिर से ताला तोड़कर कब्जा कर लिया था। माफी न मानने पर अंग्रेजों ने जेल भेज दिया और 6 माह की सजा सुनाई गई थी। जेल में शारीरिक प्रताड़ना दी गई और इनसे कोलू चक्की चलाई गई थी।
गुप्तार सिंह
जिले के प्रमुख कांग्रेसी नेता थे। सरेनी में स्वाधीनता आंदोलन करने के परिणाम स्वरूप कई कई बार में 6 वर्ष की सजा और 2 वर्ष की नजरबंदी ही थी। जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं। 18 अगस्त सन 1942 में सरेनी गोलीकांड के प्रमुख सूत्रधार थे, जो थाना सरेनी पर कब्जा करके थाना पर तिरंगा फहराना चाहते थे। बाद में ब्रिटिश पुलिस ने गुप्तार सिंह को फरार घोषित करके इनका घर खुदवा लिया था।
चंद्रिका प्रसाद मुंशी जी असहयोग आंदोलन के पश्चात इन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी। आप 9 बार जेल गए और 7 वर्ष की सजा काटी। कुर्री सिदौली और शिवगढ़ रियासत का सदैव विद्रोह करते रहे। आप गुरुजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। आप महात्मा गांधी से विशेष प्रभावित थे। बछरावां में गांधी विद्यालय इंटर कॉलेज और दयानंद डिग्री कॉलेज सहित कई शिक्षण संस्थाओं के संस्थापक रहे। जीवन भर आपने नमक नहीं खाया।
दल बहादुर सिंह
आपका जन्म 20 अक्टूबर सन 1906 को करामा रक्त में रति पाल सिंह के यहां हुआ था मुंबई में नमक सत्याग्रह मैं 3 माह की सजा काटकर रायबरेली आ गए थे यहां भी बराबर ब्रिटिश हुकूमत से मोर्चा लेते हुए आपने कुल 5 वर्ष की सजा काटी थी।
शिवराम विश्वकर्मा
शिवराम विश्वकर्मा का उपनाम मुरली था। आप जतुआ टप्पा, मलिकमऊ चौबारा के निवासी थे। सन 1932 में 6 माह की सजा काटी थी। आपके ही सहयोग से पुराना तिलक भवन बेलीगंज में बना था। आपके राष्ट्र के प्रति निष्ठा भाव था और हमेशा ब्रिटिश शासन का विरोध किया।
मदन मोहन मिश्र
आपका जन्म 16 जनवरी सन 1917 को बेहटा कला सरेनी में हुआ था। पिता का नाम स्व० चन्द्रनाथ मिश्र था। ये किशोरावस्था से क्रांतिकारी थे। आप स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद के अध्यक्ष भी थे। 12 जून सन 1938 को विवाह मंडप से आप की गिरफ्तारी हुई थी। आपने “जनता राज” समाचार पत्र का संपादन किया, जिसका अंग्रेजों ने अनवरत विरोध किया। अंत में 20 जनवरी 1994 को आप का स्वर्गवास हो गया था।
रमाकान्त पाण्डेय
आप सलारपुर कोतवाली सदर के रहने वाले थे। पिता का नाम स्वर्गीय संत शरण पांडेय था। सन 1940 – 41 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में 1 वर्ष की सजा और 50 रुपये जुर्माना लगाया गया था। सन 1942 के आंदोलन में अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंककर आप फरार हो गए थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिषद के अध्यक्ष थे। देश को आजाद होने पर उन्होंने भारत माता का अभिवादन दंडवत किया था।
राम भरोसे श्रीवास्तव
आपका जन्म सन 1915 में तिलोई में हुआ था। पिता का नाम जगन्नाथ प्रसाद श्रीवास्तव था। पुरुषोत्तम दास टंडन के आग्रह पर आप मद्रास में हिंदी का प्रचार-प्रसार करने गए थे। फिर सन 1926 में रायबरेली आ गए। आते ही किसान आंदोलन में राजा विश्वनाथ से टक्कर हो गई। आपको कुल 5 वर्ष की सजा हुई थी।
श्रीमती सिताला और श्रीमती सुखदेई
आप दोनों मुस्तफाबाद, ऊँचाहार की रहने वाली थी। सन 1930 में इन वीरांगनाओं को नमक आंदोलन में भाग लेने के कारण 6 माह की सजा और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए 1 वर्ष का कठोर कारावास हुआ था।
गोविंद सिंह
आपका जन्म 18 जून सन 1912 को ओसाह महाराजगंज में हुआ था। सन 1932 में लगान बंदी आंदोलन में भाग लेने के कारण 6 माह की सजा हुई थी। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी 1 वर्ष के लिए आप जेल गए थे।
गुरुदास
आपका जन्म धुरेमऊ सरेनी में हुआ था। आपके पिता का नाम स्व० भोला था। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 18 अगस्त 1942 को हुए सरेनी गोलीकांड में आप पकड़े गए थे, जिसके कारण 7 वर्ष का कठोर कारावास की सजा आपने काटी थी।
चोहरजा सिंह
आपका जन्म स्वर्गीय पृथ्वीपाल सिंह के यहां जगदीशपुर नसीराबाद में हुआ था। आपने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया था। सन 1931 में 6 माह की जेल और 25 रुपये अर्थदंड लगाया गया था
जगन्नाथ दीक्षित
पिता का नाम स्वर्गीय दयानिधि दीक्षित था। आप रामपुर निहस्था के निवासी थे। सन 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होने के जुर्म में एक वर्ष की जेल और 200 रुपये जुर्माना लगाया गया था।
जयराम सुधांशु
सुधांशु का जन्म 5 मई सन 1922 को दीन शाह गौरा में हुआ था। आपके पिता का नाम स्वर्गीय बाबूलाल था। सन 1941 के सत्याग्रह में 9 माह की सजा का का कठोर कारावास हुआ था।
श्रीमती बुद्धा
आपका जन्म पचवासी जगतपुर में हुआ था। पिता का नाम स्वर्गीय गुरुदीन था। आपने व्यक्तिगत सत्याग्रह में शामिल थी, और आसपास के गॉंवों की महिलाओं को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोही तेवर रखने को कह रही थी। इस आंदोलन में भाग लेने के कारण आपको 3 माह की कड़ी कैद और 50 रुपये जुर्माना अंग्रेजों ने लगाया था।
सुन्दारा देवी
आपका जन्म ग्राम वंशपुर मुस्तफाबाद, सलोन में हुआ था। सन 1930 में महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थी, जिसके जुर्म में 6 माह की कड़ी कैद हुई थी।
रायबरेली जनपद में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की संख्या लगभग 1100 से ऊपर है। मुंशीगंज गोलीकांड में जिस किसान को पहली गोली लगी वह व्यक्ति अमर शहीद बदरू बेड़िया था।
आज के अवसर पर भले ही सभी क्रांतिकारी महानायकों की सूची प्राप्त नहीं है, लेकिन अखण्ड भारत के साथ ही रायबरेली में हुए सभी सभी गोलीकांडों में शहीद हुए किसानों, नौजवानों को श्रद्धा सुमन अर्पित करना मेरा धर्म है। इन सबके अतिरिक्त पंडित अमोल शर्मा जिन्हें मुंशीगंज गोलीकांड में छह माह की कैद और ₹ 50 जुर्माना हुआ था, उनको याद करना चाहिए। अलोपीदीन तिवारी, अंगद सिंह, अयोध्या, अवतार पासी, कमला किशोर, केदारनाथ द्विवेदी, गंगा दयाल बाजपेई, गया प्रसाद, जानकी देवी, हजारी प्रसाद, जयराम, सुधांशु, जगन्नाथ कुशवाह, देवता देवी, देवी प्रसाद, उत्तम लाल जैसे न जाने कितने अनगिनत वीरों के नाम हैं, जिनको स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जेल जाना पड़ा और यातनाएं सहनी पड़ी। परिणाम स्वरूप आज हम स्वतंत्र होकर खुली हवा में सांस ले रहे हैं। अब जरूरत है मानसिक रूप से भी स्वतंत्र हो जाये, जिससे हर भारतवासी सशख़्त और सक्षम बन सके।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर

शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

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आखिर कब तक / रत्ना भदौरिया

आखिर कब तक / रत्ना भदौरिया

पिछले एक महीने से बिस्तर पर पड़ी थी तो फोन छुआ ही नहीं अभी दो दिन पहले थोड़ा तबियत में सुधार आया तो सोचा कि फोन उठाऊं और देखूं कि क्या हो रहा है देश दुनिया में जैसे ही फेसबुक खोला ही था कि अपने आप फेसबुक बंद हो गया और शरीर कांपने लगा, अनेकों सवाल दिमाग में कौंधने लगे कि आखिर कब तक ——? मैं मणिपुर में हुए जघन्य अपराध की बात कर रही हूं ।

सोशल मीडिया भरा पड़ा है मणिपुर की घटना को लेकर मैं तो कहती हूं कि क्या सोशल मीडिया जब तक बेटियों को न्याय नहीं मिल जाता तब तक भरा रहेगा या फिर दो चार दिन के बाद दूसरे मुद्दे पर जा गिरेगा ये घटना रद्दी की टोकरी में जा गिरेगी।

मैं आप लोगों से पूछती हूं क्या आप लोग तब तक खड़े रहेंगे जब तक उन बेटियों को न्याय न मिल जाए तब तक या फिर फालोवर्स बढ़ाकर चुप हो जायेंगे। मैं उन लोगों से पूछती हूं जो विपक्ष में बैठकर सवाल उठा रहे हैं सत्ता पक्ष से क्या आप लोग तब तक सवाल उठाते रहेंगे जब तक न्याय न मिल जाए या फिर सत्ता में आते ही कुर्सी पर जम जायेंगे आज की सत्ता की तरह । मैं पूछना चाहती हूं उन सब लोगों से जिन्होंने लिखा है क्या आप इसे हर जगह पढ़ेंगे या फिर लिखकर छोड़ देंगे।

मेरा अनुभव और उम्र दोनों कम है लेकिन देश में बहुत ही महान वरिष्ठ ज्ञाता मौजूद हैं जो उम्र और अनुभव दोनों में वरिष्ठ हैं आप सब बताइये कि क्या आपने कभी महिलाओं को चैन की नींद सोते देखा है घर से लेकर बाहर तक का काम और फिर इस धरती का निर्माण उसके बदले में आप सब क्या दे रहे हैं? जहां तक मुझे याद है कि जब से स्त्री इस धरती पर आयी तब से उसका इस्तेमाल होता रहा और देखो न इतना गिर गये कि जिस स्त्री ने तुम्हें बनाया आज उसी को नंगा कर के सड़कों पर घुमाया छी: है मैं तो ऐसा शब्द ढूंढ रही हूं वर्णमाला में मिल ही नहीं रहा जिसका इस्तेमाल कर सकूं। इतने जघन्य अपराध के लिए वर्णमाला भी शर्मसार हो गया होगा कि आखिर ऐसा अपराध करने वालों के बारे में लिखे कैसे? मैं दो पंक्तियों के माध्यम से अपनी बात कहूंगी –

जो आज जगे या जो सो रहें अभी ,

उनको बता दूं औरत नहीं हुई नंगी। पूरा देश हुआ है नंगा।

किसका संबल गहे द्रोपदी, टूटा हर कंधा। खींच रहा चीर दुशासन राजा है अंधा, ऐसे में कैसे कह दें है वक्त भला चंगा।।

स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

स्वाधीनता आंदोलन के सूत्रधार : गुमनाम सिपाही

भारत की अर्थव्यवस्था, शिक्षा, सभ्यता एवं संस्कृति संपूर्ण विश्व में अग्रसर थी। समय-समय पर फ्रांसीसी, डचों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों ने भारत में लूटपाट करने में कोई-कसर नहीं छोड़ी। लगभग 300 वर्षों तक अंग्रेजों ने भारत पर शासन करके अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। भारत में अंग्रेजों ने क्रूरतापूर्वक शासन किया। जिसमें 1857 का विद्रोह ‘भारतीयों की मुक्त का युद्ध’ कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। किंतु अंग्रेजों के खिलाफ महासंग्राम की नींव तो तिलका मांझी ने सन 1771 में ही डाल दी थी। स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति में अखंड भारत के सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी वर्गों के स्त्रियों-पुरुषों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और प्राण न्योछावर कर दिया। दुर्भाग्य है कि इतिहास में अनेक वीर सपूतों, रणबांकुरों को समुचित स्थान नहीं मिल सका। भारत के कुछ स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ही याद किया जाता है। परंतु ऐसे अनगिनत नाम हैं, जिनके बलिदान व त्याग की गाथाएँ आम आदमी तक अभी नहीं पहुँच पाई हैं। ऐसे महापुरुष अंतिम सांस तक ब्रिटिश हुकूमत से लड़ते हुए शहीद हो गए। प्रस्तुत हैं प्रमुख स्वाधीनता संग्राम सेनानी, वीर योद्धा और उनका संक्षिप्त परिचय–


तिलका मांझी


तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी सन 1750 को तिलकपुर बिहार में हुआ था। वैसे तो भारत का स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन सन 1857 को माना जाता है, लेकिन अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह सन 1771 मे ही बिहार के संथाल संभाग में तिलका मांझी के नेतृत्व में शुरू हो चुका था। तिलका मांझी ने संथाल के आदिवासियों का नेतृत्व करते हुए लगभग 13 वर्ष तक अंग्रेजों से लंबी लड़ाई लड़ी। इसलिए हम भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम सेनानी तिलका मांझी को कह सकते हैं। तिलका मांझी ने सन 1778 में पहाड़ी सरदारों का नेतृत्व करते हुए रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से छीन लिया और इतना ही नहीं, सन 1784 में रामगढ़ स्थित राज महल के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट को मार डाला था। इसके बाद संपूर्ण भारत में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने धोखे से तिलका मांझी को गिरफ्तार कर लिया और घोड़े से बांधकर भागलपुर-बिहार तक घसीटते हुए ले गए। उसके बाद भी वीर योद्धा तिलका मांझी जीवित था। अंत में 13 जनवरी सन 1785 को भागलपुर स्थित वट वृक्ष पर फांसी दे दी गई।


मातादीन भंगी-


10 मई 1857 को घोषित तौर पर पहला स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध माना जाता है। भारतीय इतिहासकारों ने इसका श्रेय मंगल पांडेय को दिया है, किंतु वास्तविक सूत्रधार मेरठ निवासी मातादीन भंगी थे। मातादीन पश्चिम बंगाल के बैरकपुर छावनी में चपरासी खलासी की नौकरी करते थे। वह अनपढ़ थे, क्योंकि दलितों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। मातादीन भंगी को पहलवानी का बहुत शौक था। इसलिए अखाड़े में मल्ल युद्ध सीखना चाहते थे, किंतु अछूत होने के कारण कोई गुरु ना मिला। तब बैंड बजाने वाले मुसलमान इस्लालाउद्दीन ने मातादीन भंगी को विधिवत मल्लयुद्ध सिखाया था। एक दिन मातादीन ने भीषण गर्मी में प्यास से व्याकुल होकर मंगल पांडेय से पीने के लिए पानी मांगा, तो आक्रोशित मंगल पांडेय ने कहा कि- “अरे भंगी मेरा लोटा छूकर अपवित्र करेगा क्या?” जानलेवा गर्मी में गुस्से से तमतमाए मातादीन ने मंगल पाण्डेय को जवाब दिया कि- “पंडत, तुम्हारी पंडिताई तब कहाँ चली जाती है? जब तुम्हारे जैसे चुटियाधारी गाय और सुअर की चर्बी से बनी कारतूस मुंह से खींचते हैं?” यह बात मंगल पांडेय के सीने में आग का गोला की तरह लगी। मातादीन भंगी और मंगल पांडेय की बात भारत की विभिन्न छावनियों में आग की तरह फैल गई। मातादीन भंगी के इन्हीं शब्दों से विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ी और 1 मार्च सन 1857 को मंगल पांडेय ने परेड मैदान में एक अधिकारी को गोली मार दी। इसके बाद विद्रोह की चिंगारी भारत में और उठने लगी। अंग्रेज अफसरों ने पहले मंगल पांडेय और बाद में मातादीन भंगी को प्राण निकलने तक फांसी पर लटकाए रखा।


उदैया चमार-


वैसे तो स्वाधीनता संग्राम का श्री गणेश तिलका मांझी के द्वारा सन 1771 में अंग्रेजो के खिलाफ युद्ध से माना जाना चाहिए। उसके बाद दूसरी बार सन 1804 में अंग्रेजो के खिलाफ चिंगारी भड़की थी। छतरी जिला अलीगढ़ के नवाब नाहर खान व उनके पुत्र के द्वारा सन 1804 में अंग्रेजों के खिलाफ भीषण युद्ध लड़ा गया। इस लड़ाई में उदैया चमार ने 100 से अधिक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था। पुनः सन 1807 में नवाब नाहर खान और उदैया चमार ने अंग्रेजो के खिलाफ जंग छेड़ दी। इस बार अपनी पराजय से बौखलाए अंग्रेजों ने घेरा बनाकर उदैया चमार को गिरफ्तार कर लिया और सन 1807 में ही अंग्रेजों ने कुछ दिन ही मुकदमा चलाकर उदैया चमार को सरेआम छतरी गाँव के चौराहे पर फांसी दे दी थी।


ऊदा देवी पासी-


ऊदा देवी का जन्म लखनऊ जनपद के उजिरावाँ गाँव में 30 जून सन 1830 को हुआ था। पति का नाम मक्का पासी था। ऊदा देवी का दूसरा नाम जगरानी था। ऊदा देवी अवध के छठे नवाब वाजिद अली शाह के महिला सुरक्षा दस्ते की सदस्य थी। मक्का पासी वाजिद अली शाह की सेना में सिपाही थे। उनकी शहादत के बाद ऊदा देवी ने अदम्य साहस के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ जंग के मैदान में कूद पड़ी। ऊदा देवी हमेशा पुरुष वेशभूषा वाले कपड़े पहनकर युद्ध करती थी। एक बार लखनऊ स्थित सिकंदर बाग में बंदूक, गोला बारूद लेकर पीपल के पेड़ पर चढ़ गई और लगभग 32 ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला। अफसोस इस लड़ाई में 16 नवंबर सन 1857 को ऊदा देवी भी शहीद हो गई। स्त्री की वीरता देखकर अंग्रेज अधिकारी काल्विन ने हैट (ब्रिटिश टोपी) उतारकर शहीद ऊदा देवी को श्रद्धांजलि दी थी। दलित वीरांगना ऊदा देवी को अंग्रेजों ने “ब्लैक टाइग्रेस” कहा था। लंदन टाइम्स के संवाददाता विलियम हार्वर्ड रसेल ने अपने समाचार पत्र में पुरुष वेशभूषा में स्त्री द्वारा पीपल के पेड़ से गोलियां चलाने और अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाने का उल्लेख किया था। वाजिद अली शाह ने अपनी रानियों की सुरक्षा के लिए 30 स्त्रियों का सुरक्षा दस्ता बनाया था। जिन्हें फौजी प्रशिक्षण भी दिया जाता था। इसी सुरक्षा दस्ता की सदस्या ऊदा देवी थी। बाद में इस सुरक्षा दस्ते को स्त्री पलटन बना दिया गया था, जिसकी वर्दी का रंग काला था।


वीर वीरा पासी-


वीर योद्धा वीरा पासी का जन्म 11 नवंबर सन 1835 को रायबरेली जिले के लोधवारी में हुआ था। इनका मूल नाम शिवदीन पासी था। वीरा के बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था तो वीरा अपनी बहन बतसिया के यहाँ पर रहने लगे थे। कालांतर में बहन के यहाँ रहने वाले भाई को ‘वीरना’ कहा जाता था। इसलिए वीरना से वीरा नाम पड़ गया था।


अवध क्षेत्र में रायबरेली जनपद के शंकरपुर रियासत के राजा राणा बेनीमाधव सिंह थे। जिनका साम्राज्य बहराइच, गोंडा तक फैला हुआ था। राणा बेनी माधव सिंह की सेना में भर्ती होने के कठोर नियम थे। सेना में भर्ती होने आए युवकों को एक सेर (950 ग्राम) घी खिलाकर राणा साहब उनके सीना में मुट्ठी बंद करके एक घूसा मारते थे। जो युवक मूर्छित नहीं होता था, वह सेना में भर्ती हो जाता था। वीरा पासी एक घूसा खाकर भी टस से मस नहीं हुआ। तब वीरा को राणा बेनी माधव सिंह ने अपना अंगरक्षक नियुक्त कर लिया। राना बेनी माधव सिंह अपने ननिहाल (नाइन-प्रतापगढ़) में पिता स्व० राम नारायण सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। अनियोजित युद्ध में पिता श्री वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ समय बाद राणा साहब खलीलाबाद में गिरफ्तार कर लिए गए। अब राजमाता की आँखों से आँसुओं की धार लगातार बह रही थी, जो वीरा पासी से देखी न गई। वीरा पासी ने राणा बेनी माधव सिंह को जेल से छुड़वाने की गुप्त योजना बनाई। वीरा ने विश्वासपात्र लोहार से 12 नुकीली मजबूत लोहे की कील बनवाया। जेल मैनुअल के अनुसार मध्यरात्रि 12:00 बजे जैसे ही 12 बार घंटा बजना शुरू हुआ। उसी धुन के साथ ही वीरा पासी भी दीवाल में गुरु हथौड़े से एक-एक कील ठोकते हुए छत पर चढ़ गए और रोशनदान के रास्ते रस्सा डालकर राना बेनी माधव सिंह को जेल से आजाद करा लिया। तब राणा साहब ने विश्वासपात्र स्वामिभक्त वीरा पासी को अपना सेनापति नियुक्त किया।


वीरा पासी ने 50 से अधिक अंग्रेजों को जान से मार दिया था। जिसके कारण अंग्रेज थरथर कांपते थे। अंग्रेजों ने वीरा से भयभीत होकर उन्हें पकड़ने या पता बताने वाले को 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम की घोषणा किया था। फिर भी अंग्रेज सिपाही वीरा पासी को पकड़ न सके। भीरा की लड़ाई में कुछ देशीय गद्दारों की सहायता से अंग्रेजों ने गोरिल्ला युद्ध में माहिर राना बेनी माधव सिंह को घेर लिया था। वीरा पासी भी गोरिल्ला युद्ध कला में निपुण होने के कारण राणा साहब के प्राणों की रक्षा करते हुए देश के लिए स्वयं को बलिदान करके अमर शहीद हो गए।


गंगू मेहतर-


गंगू मेहतर अकबरपुर जनपद कानपुर के रहने वाले थे। तत्कालीन सामंती व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के कारण उच्च वर्ग से परेशान होकर गंगू मेहतर कानपुर शहर के चुन्नीगंज में आकर रहने लगे थे। एक बार बिठूर में गंगू मेहतर मरा हुआ बाघ कंधे पर रखकर ले जा रहे थे। तभी उधर से निकल रहे नाना साहब की दृष्टि गंगू पर पड़ी। नाना साहब ने अनजान गंगू से परिचय पूँछकर अपनी सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे गंगू ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। गंगू मेहतर बिठूर के शासक नाना साहब की सेना में नगाड़ा बजाने का कार्य करने लगे थे। गंगू कई नामों से जाने जाते हैं। धानुक जाति होने के कारण- गंगू मेहतर। पहलवानी का बचपन से शौक होने के कारण- गंगू पहलवान और देवी माँ का सती चौरा में रहने के कारण इन्हें- गंगू बाबा कहा जाता था। अंग्रेज सिपाही विदेशी असलहों से लैस होने के कारण नाना साहब की सेना पर भारी पड़ रहे थे। तब गंगू मेहतर ने बड़ी चालाकी से अपनी तलवार द्वारा 200 से अधिक अंग्रेजों को मार डाला था। तब ब्रिटिश हुक़ूमत और उनकी सेना सहम गई थी। कुछ समय बाद गंगू मेहतर को गिरफ्तार कर लिया गया और अंग्रेजों का कत्लेआम के जुर्म में तत्काल फांसी की सजा सुनाई गई। कानपुर के सिविल सर्जन अधिकारी जान निकोलस ने फांसी से पहले चुन्नी गंज चौराहे पर गंगू मेहतर के मूर्ति लगवाने का आदेश दिया था। मूर्ति लगने के बाद 8 सितंबर 1859 को गंगू को फांसी दे दी गई थी। फांसी का फंदा चुनने से पहले गंगू मेहतर ने कहा था- “भारत की माटी में हमारे पूर्वजों का खून और गंध है। एक दिन यह मुल्क आजाद होकर रहेगा।”


वीरांगना झलकारी बाई-


झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति वीरांगना झलकारी बाई कोली का जन्म 22 नवंबर सन 1830 को झांसी जनपद के भोजला ग्राम में हुआ था। पति का नाम अमर शहीद पूरन सिंह कोली था, जो रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने का कर्मचारी था। झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल होने के कारण अंग्रेजों को कई बार गुमराह करके रानी वेश में युद्ध लड़ती थी उसी समय रानी लक्ष्मीबाई दूसरी रणनीति तैयार करने लगती थी। अंतिम समय में भी झलकारी बाई स्वयं रानी की वेशभूषा में लड़ते हुए अंग्रेजों के हाथों गिरफ्तार हो गई, उधर लक्ष्मीबाई अभेद्य किला से भागने में सफल रही।


झलकारी बाई स्कूली शिक्षा में तो अनपढ़ , किंतु तलवार चलाने में बहुत निपुण थी। उनका प्रसिद्ध वाक्य- “जय भवानी” था। ब्रिटिश सेना के जनरल ह्यूज रोज ने सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम के दौरान एक बड़ी सेना के साथ झांसी में हमला किया, तब भी झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को जान बचाकर भगाने में मदद की थी। दोनों में सब सुनियोजित रणनीति होने के कारण झलकारी बाई भी अंग्रेजों को चकमा देकर भागने में सफल रहती थी। झांसी के ही गद्दार ने झलकारी बाई को पहचान करके अंग्रेजों की मुखबिरी की, इसलिए झलकारी बाई ने गद्दार को सरेआम गोली मार दी थी। तब तक लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई की हमशक्ल वाली सच्चाई अंग्रेजों के सामने आ चुकी थी। जनरल ह्यूज रोज ने झलकारी बाई को गिरफ्तार कर मजबूत टेंट में कैद करके रखा था, फिर भी झलकारी बाई चालाकी से अंग्रेजों के चंगुल से भागने में सफल रही। उसके बाद ह्यूज रोज ने किला पर भारी हमला किया। पहले पति पूरन सिंह कोली शहीद हुए। कुछ दिन बाद ही ग्वालियर में 4 अप्रैल सन 1857 को तोप के गोले से झलकारी बाई भी मृत्यु पाकर वीरगति को प्राप्त हुई।


रणबीरी बाल्मीकि-


रणबीरी बाल्मीकि मुजफ्फर नगर के शामली की रहने वाली थी। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार में शामली स्वतंत्र जिला बन चुका है। महाभारत काल में शामली ‘कुरुक्षेत्र’ का हिस्सा हुआ करता था। 13 मई सन 1857 को संपूर्ण मुजफ्फर नगर या यूँ कहें, संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्वाधीनता पाने के लिए क्रांतिमय हो चुका था। तत्कालीन शामली तहसील का नेतृत्व चौधरी मोहर सिंह और कैराना क्षेत्र का नेतृत्व सैयद पठान कर रहे थे। दोनों रणबांकुरों का आपसी सामंजस्य देखकर अंग्रेज हैरान थे। चौधरी मोहर सिंह की मजबूत सैन्य पलटन थी, जिसका अहम हिस्सा शीघ्र ही रणबीरी वाल्मीकि बन गई। रणबीरी कुशल तलवारबाज और दुश्मनों को चकमा देने में महारत हासिल कर चुकी थी। अंग्रेज अफसर ग्रांट ज्वाइंट मजिस्ट्रेट के नेतृत्व में ब्रिटिश टुकड़ी ने शामली पर हमला कर दिया। इस युद्ध में मोहर सिंह और रणबीरी वाल्मीकि ने अनगिनत अंग्रेजों के सर कलम कर दिया। बौखलाए अंग्रेजों ने महिला क्रांतिकारियों पर गोलियाँ बरसानी शुरू की। इस गोलीकांड में रणबीरी वाल्मीकि भी वीरगति को प्राप्त हुई।


बांके चमार-


बांके चमार कुअरपुर जनपद जौनपुर के रहने वाले थे। इन्होंने सन 1857 में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूँका था। बांके चमार जौनपुर क्षेत्र का नेतृत्व कर रहे थे। अंग्रेज कई बार बांके चमार से पराजित हो चुके थे। तब उन्होंने बांके पर 50,000 रुपये (पचास हजार रुपये) इनाम रखा था। फिर भी अंग्रेज सिपाही कुशाग्र बुद्धि वाले, देश भक्त बांके चमार को पकड़ न सके। कुछ समय बाद ब्रिटिश सेना का सेवानिवृत्त सैनिक रमा शंकर तिवारी ने मुखबिरी करते हुए अंग्रेजों को बांके चमार के गुप्त ठिकाने के बारे में सूचित किया। वहाँ अचानक अंग्रेज पहुँच गए और लंबे संघर्ष में कई अंग्रेज सैनिक मारे गए। अंत में 18 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ बांके चमार गिरफ्तार कर लिए गए। बाद में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बांके चमार सहित 18 क्रांतिकारियों को चौराहा पर पेड़ से लटकाकर एक साथ फांसी दे दी गई थी।


बिरसा मुंडा-


मुंडा आदिवासी जनजाति में बिरसा का जन्म 15 नवंबर सन 1875 को उलीहातू रांची में हुआ था। बिरसा मुंडा कुशल योद्धा, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। सर्वविदित है कि आदिवासी समाज जंगली फलफूल, कंदमूल खाकर जीवन यापन करता है, फिर भी अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं भूलता। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों का कई बार नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों से युद्ध करके विजय श्री प्राप्त की।
1 अक्टूबर सन 1884 को बिरसा ने सभी मुंडा जनजाति के लोगों को एकत्रित करके लगान माफी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। सन 1885 को बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके 2 वर्ष का कठोर सश्रम कारावास की सजा दी। उसके बाद जनता में चेतना जागृत हुई और वहाँ की जनता ने ही बिरसा मुंडा को “धरती बाबा” उपनाम दिया। सन 1897 से सन 1900 के बीच बिरसा मुंडा ने कई युद्ध अंग्रेज सिपाहियों से लड़े। एकबार तो बिरसा मुंडा ने लग्भग 400 सिपाहियों को तीर कमान के बल पर खदेड़ दिया था। उसके बाद आक्रोशित अंग्रेजों ने बहुत से आदिवासी स्त्री, पुरुष, बच्चों को गिरफ्तार किया। एक जनसभा को संबोधित करते हुए 3 फरवरी सन 1900 को बिरसा मुंडा भी गिरफ्तार कर लिए गए। रांची कारागार में 9 जून सन 1900 को बिरसा मुंडा की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। आज बिरसा मुंडा को आदिवासी समुदाय में ईश्वर की तरह पूजा जाता हैं।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास अनेक गुमनाम और पन्नों से ओझल हो चुके वीर सपूतों, रणबांकुरों से भरा पड़ा है, परंतु भारत माता के उन वीरों को इतिहास के पन्नों में उचित न्याय नहीं मिल सका। इतिहासकारों, राजनेताओं या जनता में इच्छाशक्ति की कमी या जातिवाद का दंश अथवा अन्य कोई जो भी कारण रहा हो, तमाम शहीद आज भी गुमनाम हैं।


राजा डल पासी, राजा बल पासी, बिजली पासी, सुहेलदेव पासी, ताना जी मालुसरे कोरी, चौरी चौरा के नायक रमापति चमार, संपत चमार, कल्लू चमार, देश का दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड कहा जाने वाला मुंशीगंज, रायबरेली में 7 जनवरी सन 1921 को अंग्रेजों की पहली गोली खाने वाले बदरू बेड़िया जैसे असंख्य वीर सपूत भारत में भरे पड़े हैं, जिनके रक्त से भारत माता की जमीन लाल हो गई थी। तब सन 1947 में देश आजाद हुआ और आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। आवश्यकता है ऐसे अनगिनत वीर सपूतों की जयंती और पुण्यतिथि मनाई जाए। केंद्र व राज्य सरकारें, स्वयंसेवी संगठन, सर्व समाज, सर्व धर्म के लोग दलगत विचारधारा से ऊपर उठकर भारत के वीर सपूतों के पावन कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लें। उन महापुरुषों वीरों पर विस्तृत परिचर्चा हो। तभी पुण्यात्माओं को सच्चे अर्थों में हमारी श्रद्धांजलि अर्पित होगी, अन्यथा आने वाली नई पीढ़ी उन रणबांकुरों को भूल जाएगी।
तब देशप्रेमी कवि जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की कविता सार्थक होगी–
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥

वंदे मातरम जय हिंद

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर, रायबरेली
मो० 9415951459

सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं : डॉ० ओम प्रकाश सिंह

यूँ तो नौकरी करके अपनी सेवा करते हुए अनगिनत लोग सेवानिवृत्त हो जाते हैं, किंतु वो अध्यापक-प्राध्यापक जो निःस्वार्थभाव से शिक्षा, साहित्य और समाज को अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, ऐसे लोग ऊँगलियों पर गिने जा सकते हैं। ऐसे ही वरिष्ठ गुरुजनों की श्रेणी में शीर्षस्थ हैं – साहित्यकार, प्रोफेसर डॉ० ओम प्रकाश सिंह जी।

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डॉ ओम प्रकाश सिंह का व्यक्तित्व और उनके नवगीत, एकांकी, उपन्यास आदि पढ़कर के महाकवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य श्री रामचरित मानस की अर्धाली सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं याद आती है, क्योंकि श्रीराम की तरह आपका सरल स्वभाव है, छल तो आपको छूता भी नहीं है।

आपके द्वारा लिखे गए नवगीतों की भाषा इतनी सरल और सहज है, कि प्रशासनिक पदों पर विराजमान व्यक्ति से लेकर गाँव-गवई का आम इंसान भी आसानी से समझ लेता है। इसलिए आपके नवगीत भारत ही नहीं, अपितु विदेशों में भी पढ़े जा रहे हैं।

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संवेदनात्मक आलोक समिति शामली (उ.प्र.) के अध्यक्ष सचिव के माध्यम से डॉ० महेंद्र नारायण जी द्वारा संकलित प्रोफेसर डॉ० ओम प्रकाश सिंह के नवगीत पढ़ने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं खुद को भाग्यशाली समझने के साथ ही प्रोफेसर महेंद्र नारायण जी का हृदय से आभारी हूँ। नवगीतों का सृजन 1950 के दशक से होने लगा था, किंतु उसको गुरु जी ने ही परिपुष्ट करते हुए पैनी धार दिया है।

भौतिकयुग में मानवीय संवेदनाओं को ग्रहण लग गया। रक्त के रिश्ते भी ताख पर रख दिये गए हैं, एक साथ पूरा परिवार बैठकर भी अपने मे ही मस्त और व्यस्त हो गया है, जिसकी पीड़ा को व्यक्त करते हुए रचनाकार ने बड़े ही मार्मिक शब्दों लिखा है–

चुभ रहे हैं
मन गुलाबों पर कहीं,
किंतु जीते लोग
ख्वाबों पर कहीं
और काँटों से
घिरे हैं रिश्ते
प्रीत के बौने हुए संबंध।

‘प्रेम’ का महत्व त्रेता, द्वापर युग से चला आ रहा है। कबीर, तुलसी, सूर, जायसी, मीराबाई आदि ने शुद्ध, सात्विक प्रेम की परिकल्पना को महत्व दिया था, जिसका मूल उद्देश्य परमब्रह्म की प्राप्ति था। आज प्रेम का उद्देश्य अर्थवादी, संकीर्ण मानसिकता वाला हो गया है, जिसकी अवनति और अनुभूति रचनाकार गुरु जी भलीभांति महसूस करते हैं। आपने नवगीतों में भी बड़ी चतुराई से मानवीकरण पिरो दिया है। नायिका के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखा है–

सजी-धजी
चंपा आई है
सुर्ख चमेली नाचे।
श्वेत रंग
परिधान पहनकर
पत्र चांदनी बांचे
मंद हवा की
छेड़छाड़ को
लगी कुमुदनी सहने।

“अंधेरा और भी स्वच्छंद, गीत लिखे हैं, साँझ का सूरज, मैं वह गीत नहीं लिख पाया, नए संघर्ष के आगे” आदि अनगिनत गीत डॉ० ओम प्रकाश सिंह गुरु जी ने लिखा है, जिसका शीर्षक ही सब कुछ कह देता है।
नवगीत जैसी नई विधा में गीत लिखना आसान कार्य नहीं है, कम शब्दों में पूरी भावना व्यक्त करने के लिए चिंतन-मनन करना पड़ता है, जिसको डॉक्टर साहब गुरु जी ने नई दिशा और दशा प्रदान की है। गुरु जी ने साहित्यिक भाषा में नवगीत सृजित करके वरिष्ठ और नवोदित साहित्यकारों के लिए राह आसान कर दी है। अब तो नवगीत का प्रचलन देश के साहित्य समाज में इतना बढ़ गया है कि, इस पर शोधकार्य भी हो रहा है।
ऐसे गुरु के श्री चरणों मे बारम्बार सादर प्रणाम करता हूँ।

डॉ० अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय रायबरेली।
मो० 9415951459

कड़वा सच | मातृदिवस विशेष| अशोक कुमार गौतम

कड़वा सच

सच कड़वा होता है। ये कहावत तो सबने खूब सुना होगा, कहा होगा और देखा भी होगा। मैंने भी खूब देखा, सुना और कहा।
लेकिन आज मातृदिवस 14 मई के दिन एक सच की घटना जो झूठ के बेसन में खूब‌ लिपटी हुई है। आप चाहें तो कुछ और भी समझ सकते हैं लेकिन मेरी समझ में यही शब्द आया तो लिख दिया। फेसबुक हैप्पी मदर्स डे, लव यू माँ के साथ खींचीं गयी अनगिनत तस्वीरों से भरा पड़ा है। हम सबने कई सारी तस्वीरें खींचकर फेसबुक में भर दिया है। कई तश्वीरें फटे-पुराने, धूल-धूसरित अलबमों में लगी फोटोज को मोबाइल कैमरे में खींचकर सोशल मीडिया पर प्रसारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। नई-पूरानी फोटोज पोस्ट करने के बाद जो लाइक और शेयर, कामेंटस आ रहे हैं वे क्षणिक सुकून भी खूब दे रहे हैं। लेकिन एक बार हम अन्तरहृदय से चिंतन करें तो क्या सच में ये सब करने की जरूरत है।


माँ ही जगतजननी, जगतगुरु है। माँ ने ही जन्म दिया, जिसका कर्ज आजीवन नहीं उतार सकते, इसलिए ये सब ओछी बातें मन मे लानी ही नहीं चाहिए। अपार प्रसव पीड़ा से गुजरने के बाद , कभी कभी अपने भविष्य की चिंता छोड़कर शरीर भी चिरवा देती है कि मेरा लाल दुनिया में सुरक्षित आ जाय।
खुद भूखे रहकर गीले बिस्तर में कुकुरनिंदियाँ रूप में सोती है, बच्चे को सूखे बिस्तर में सुलाती है। तब उसके मन में कभी नहीं आता कि आज बेबी डे है। उसके लिए तो सम्पूर्ण जिंदगी में उसकी संतान बेबी ही नजर आती है।


फिर हम क्यों पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर मातृदिवस मनाकर माँ का अस्तित्व छोटा कर रहे हैं।
माँ किसी भी रूप में हो पूजनीय है- चाहे वो जन्मदात्री, गंगा माँ, भारत माँ, सरस्वती माँ, गुरु माँ आदि कोई भी हो। पर सबसे ऊंचा स्थान जन्मदात्री का ही रहेगा, जो सदियों से चला आ रहा है, आगे भी रहेगा।


हॉस्पिटल प्रशासन के निवेदन पर एक नर्स अपनी ड्यूटी निभाने पास के ही एक घर में गयी जहाँ नब्बे साल की बृद्धा अकेले घर में थी। पूंछने पर कहा सब बड़ी-बड़ी नौकरी में विदेशी बाबू बन गये हैं।ये बुढ़िया यहीं की यही। कहने पर कहते हैं, समय नहीं है। घर में कोई नौकर रख लो, वो देखभाल कर देगा। नर्स अपनी जिम्मेदारी पूरी करके चलने लगी तो उन्होंने पकड़कर रोते हुए कहा- जितनी देर से तू थी बेटा, बड़ा अच्छा लगा। ये घर कभी भरा रहता था.. आज उस भरे हुए घर की तस्वीर फोटो तक सिमट गयी हैं, फिर भी मेरा दिल की अंतिम साँसे उन पर टिकी हैं। काश अगर सबकी संतानें बुढापा का सहारा बन जाएं तो कोई मां अकेली नहीं रहेगी।
आज हम जितना बढ़-चढ़कर मातृदिवस (Mother’s Day) सम्पूर्ण भारत वर्ष या यूँ कहे अखिल विश्व में मना रहे हैं। यदि पूरे वर्ष उसका एक तिहाई भी मातृ दिवस/पिता दिवस मनाने लगें तो बृद्धाश्रम/अनाथालय खोलने की जरूरत ही न पड़े।
माँ का आशीर्वाद सदैव बना रहे।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
रायबरेली
मो० 9415951459

साहित्य और चिकित्सा क्षेत्र का अनमोल रत्न : भगिनी रत्ना सिंह

गाँव के नाम से तो लगता है कि नदी, झील, पहाड़, पर्वत, झरनें आदि की अति विशिष्टता हिमालयी प्राकृति की गोद में रची बसी होगी, क्योंकि नाम ही ऐसा है- पहाड़पुर।
वास्तविकता को देखा जाय, तो इक्कीसवीं सदी में भी उस गाँव की समतल भूमि पर सामान्य यातायात की व्यवस्था व सुविधा नहीं है। व्यक्तिगत संसाधन ही आवागमन का सहारा हैं। सरकारी सुविधाओं से तो पहाड़पुर गाँव का दूर-दूर तक नाता नहीं है।

न जाने कितनी निरीह लड़कियों की पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने खयालात के लोगों की मानसिकता वैसे भी लड़कियों की पढ़ाई एवं रोजगार को लेकर सकारात्मक नहीं रही है।
घर की दहलीज से कदम निकाल कर जब रत्ना ने गाँव की सरहदें लाँघकर लगभग 1 मील पैदल चलकर राष्ट्रीय राजमार्ग 24B पर आती थी, तब ऑटो टैक्सी का यातायात के रूप में उपयोग करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहर की ओर रुख किया , तो न जाने गाँव वालों के कितने हास्य-व्यंग्य सहने पड़े। तत्कालीन परिस्थितियों में निश्चित रूप से रत्ना सिंह के अंदर संघर्ष वाहिनी के रूप में सिंह वाहिनी विराजमान हो गयी होंगी, क्योंकि उनके माता-पिता का सहयोग हर कदम पर मिलता रहा और आज भी मिल रहा है। उनका नाम रत्ना सिंह किसी रत्न से कम नहीं है।


डॉ० संतलाल, भाषा सलाहकार, पर्यावरण सचेतक रायबरेली कई बार मुझसे वरिष्ठ साहित्यकारों की चर्चा करते समय बताया करते हैं कि रत्ना सिंह कम उम्र में ही मन्नू भंडारी जी वरिष्ठ कथा लेखिका के सानिध्य में 4 वर्ष रही हैं। आदरणीया मन्नू भंडारी और रत्ना सिंह का साथ में कुछ छायाचित्र देखकर ऐसा लगता है मानो, दोनों माँ बेटी हैं। परन्तु दुर्भाग्य से मन्नू जी इस नश्वर संसार से विदा होकर अनंत में लीन हो गयी हैं।


रत्ना सिंह सशक्त लघुकथा लेखिका बन चुकी हैं। हो भी क्यों न..। अंतरराष्ट्रीय लेखिकाओं के साथ रहने वाला कोई भी आम मानव नहीं हो सकता। हर स्तर, हर कदम पर साहित्य की कल्पनाशीलता बनाने व लिखने की अद्भुत शक्ति माँ वीणावादिनी ने रत्ना सिंह को दी है।


एक दिन रत्ना द्वारा लिखित लघुकथा hindirachnakar.com के माध्यम से प्रकाशित हुई थी, जिसे मैंने फेसबुक पर पढ़कर कुछ पल के लिए आत्ममंथन और आत्मचिंतन किया। मुझ बेसबरे से रहा न गया, उसी लघुकथा को पुनः मैंने पढ़ा। उसके बाद मैंने टिप्पणी लिखा कि बहन रत्ना सिंह, उम्र में भले ही कम हो, किंतु आपका लेखन और शब्द चयन देखकर मुझे लगा रहा है, वास्तव में आप मन्नू भंडारी, ममता कालिया जैसी विदुषी साहित्यकारों के पदचिन्हों पर चल रही हो। बहुत आगे तक जाओगी। उनका भी उत्तर उस पावन रिश्तों की कड़ी को मजबूत करते हुए आया। उस दिन से दो अजनबियों को नया रिश्ता मिल गया। जो अखिल विश्व का सबसे पावन रिश्ता है- भइया बहन।


प्रकृति परिवर्तन कहें या दूषित खानपान या अनियमित दिनचर्या। मैं बीमार हो गया। बुखार भी थर्मामीटर में 102 ℃, तब रत्ना सिंह (स्टॉफ नर्स) अपोलो अस्पताल इंद्रप्रस्थ, नई दिल्ली से ही मोबाइल द्वारा मुझे औषधियों और कई जाँचों के विषय मे व्हाट्सएप के माध्यम से बताती रही। कुछ दिनों में ही मैं स्वस्थ हो गया। मुझे ऐसा लग रहा था कि वो सिर्फ नर्स ही नहीं, मानो वरिष्ठ चिकित्सक भी हैं।

बातों-बातों में रत्ना ने बताया कि नौकरी के साथ मेडिकल नर्सिंग की पढ़ाई कर रही हूँ, भविष्य में अपने विभाग से अनुमति लेकर पीएचडी भी करूँगी। तब एक पल के लिए मेरे मन मस्तिष्क में वो ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी लडक़ी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के चिकित्सालय में नौकरी, निरन्तर शिक्षा ग्रहण करना, साथ ही ये उच्च स्तरीय विचारधारा। गर्व के साथ कह सकता हूँ कि आप महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत और पथप्रदर्शक के रूप में मील का पत्थर हो।


डॉ० संतलाल गुरुदेव ने कई बार मुझे बताया कि हंस पत्रिका में रत्ना के कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इससे ही सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि हंस पत्रिका में छोटे मोटे साहित्यकारों के लेख प्रकाशित नहीं होते हैं।


एक दिवस मैंने कुछ चिकित्सीय कार्य हेतु रत्ना सिंह को कॉल लगाया, तो एक पल के लिए मुझे लगा कि ये 10-11 वर्षीय लड़की की पतली सी प्यारी आवाज क्यों आ रही है। शायद रांग नम्बर लग गया। कुछ देर तो अचंभित रहा, उसके बाद वार्ता करते-करते मेरी समझ मे आया कि पक्का ये ही रत्ना सिंह हैं। अब मैं तो खुले मंच से कह सकता हूँ कि रत्ना, आवाज से नन्हीं बालिका, उम्र में युवा उत्साह, अनुभवों व विचारों में अति वरिष्ठता की श्रेणी में स्थापित हो चुकी हैं।


अब तक उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई थी। होती भी क्यों ? लगभग 600 किलोमीटर का जो फाँसला। पर कहावत है कि जहाँ चाह, वहाँ राह…
परम् पिता परमेश्वर की कृपा और सन्तलाल जी के आशीर्वाद से उनसे मुलाकात साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान हो गई। प्रथम मुलाकात में मुझे लग रहा है कि रत्ना सिंह के लिए सुंदर, सुशील, शालीन, धीर, वीर, गम्भीर, चिकित्सा और साहित्य पथ में परिपक्व … जैसे विशेषण भी कम पड़ जाएँगे। साहित्य तो सागर से भी गहरा है।
ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप अनेक बाधाओं को पार करते हुए निरन्तर प्रगतिपथ पर बढ़ती रहो। आपका भविष्य उज्ज्वल रहे, दीर्घायु हों। चिकित्सा विभाग में भी रहकर समाजसेवा करती रहो।
हर कदम पर आपके साथ, आपका भ्राता…

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली यूपी
मो० 9415951459