खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में | अशोक कुमार गौतम

खीझते संस्कार और दम तोड़ती मांगलिक रस्में

शुभ विवाह के मुहूर्त की लग्न बेला आते ही बैंड बाजे की धुन, रंग बिरंगी सजावट, नानादि व्यंजनों से सजा पांडाल, डी.जे. पर थिरकते जनाती–बाराती आदि की चहक महक चहुंओर दिखाई सुनाई पड़ती है। सकुशल हंसी–खुंसी से विवाह संपन्न होने के लिए वर के माता–पिता और वधू के माता–पिता अपना–अपना पेट काटकर, एक-एक पाई जोड़कर अच्छी सी अच्छी व्यवस्था करने का हर सम्भव प्रयास करते हैं। सभी रीति–रिवाजों से सोशल मीडिया भरा रहता है, किंतु शिष्टाचार कहीं नहीं दिखता। संस्कार विहीन रस्में और छिछलापन लिए नवीन प्रथाएं देखकर कहीं न कहीं मन कचोटता है।


जयमाला कार्यक्रम आज की परंपरा नहीं है। त्रेतायुग में श्रीराम और सीता जी का शुभ विवाह भी जयमाला रस्म के साथ सन्पन्न हुआ था। यह वैवाहिक संबंध की महत्वपूर्ण रस्म है। जिसके द्वारा नवयुगल के सुखमयी दाम्पत्य जीवन के परिणय सुत्र में बंध जाते हैंl, इसे बदलता परिवेश कहें या पाश्चात्य सभ्यता का कुप्रभाव? वर्तमान समय में जयमाल के समय कहीं दुल्हन नृत्य करते हुए स्टेज पर आाती है, कहीं बुलट बाइक से स्टेज पर आती है, कहीं रिवॉल्वर/रायफल से फायर करती हुई स्टेज पर आती है, कहीं उसकी सखियाँ गोदी में उठा लेती है, जिससे दूल्हा माला आसानी से न पहना सके।


दूल्हे राजा भी पीछे क्यों रहें। कहीं दूल्हा शराब पीकर आता है, तो कहीं लड़खड़ाते हुए आता है, कहीं डान्स करते हुए आता है, कहीं दुल्हन की सहेलियों से शरारतें अटखेलियां करता है। कहीं दूल्हे को उसके मित्र इतना ऊपर उठा लेते हैं कि दुल्हन का जयमाला पहनाना असम्भव हो जाता है। आखिर इन सबके पीछे क्या धारणा है? क्या वैवाहिक जीवन सात जन्मों का बंधन है या विवाह विच्छेदन? बुजुर्गों के पहले युवा पीढ़ी को इस तथ्य पर चिंतन करना होगा।


हल्दी रस्म, मेंहदी रस्म आदि कभी शालीनता के साथ हृदय से निभाई जाती थीं, किंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्यों में पाश्चात्य संस्कृति से कुपोषित विभिन्न रस्मों को मानो होली पर्व में बदल दिया गया है। सारी खुशियां, आपसी समन्वय की भावना, आत्मिक सुख-शांति को कैमरों और दिखावटीपन ने छीन लिया है।

भौतिकवादी युग में हल्दी रस्म के दिन रिश्तेदारों व मोहल्ले वासियों को भावात्मक सांकेतिक भाषा में बता दिया जाता है कि पीले वस्त्र और मेंहदी रस्म के दिन हरे रंग के वस्त्र ही पहन कर आना है। जिन निर्धन दंपत्ति के पास पीले हरे रंग के वस्त्रादि नहीं होते हैं, उन्हें समाज में हीन भावना से देखा जाता है। बाहरी मेहमानों यहां तक पड़ोसियों को भी न चाहकर फिजूलखर्ची करना पड़ रहा है।


इतना ही नहीं, बारात आने पर कहीं-कहीं तो मंच पर ही वर-वधू एक दूसरे पर दो–चार हांथ आजमा लेते हैं, तो कहीं मंच पर दहेज की माँग ऐसे होती है, मानो पशु बाजार में सुर्ख जोड़े में सजी दुल्हन की खरीद-फरोख्त की बोली लगाई जा रही हो। सर्वधर्म और सर्वसमाज को पुनः चिंतन–मनन करना चाहिए कि हम अपने समाज और आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे हैं।
धनाढ्य, पूंजीवादी ऊपरगामी विचारधारा की संस्कृति आज मध्यम और निम्नवर्गीय चौखटों पर प्रवेश कर रही है। जो भारत में आने वाली पीढ़ियों के लिए कुंठा और असहजता के द्वार खोलेगी। इसलिए ‘जितनी चादर, उतने पैर पसारना चाहिए’ की कहावत चरितार्थ करते हुए दिखावेपन और पश्चिमी देशों की संस्कृति से चार हाँथ दूरी बनाकर चलने में भलाई है।


विवाह पूर्व की मांगलिक रस्मों और विवाह के दिन तक हर माता-पिता या अभिभावक सोंचता है कि भोजनालय प्रबंधन आदि में कहीं कोई कमी न रह जाये। इसलिए 30 से 35 प्रकार का नाश्ता, भोजन और मिष्ठान आदि सजाकर मेहमानों और मेजवानों की सेवा में रखा जाता है। बफर सिस्टम में कोई भी व्यक्ति नाना प्रकार के सभी व्यजनों को ग्रहण नहीं करता होगा और सही मायने में सायद ही किसी का पेट भरता होगा। फिर भी समाज में पद और प्रतिष्ठा की होड़ में अनावश्यक रूप से अधिकाधिक व्यय करके भी आत्म संतुष्टि नहीं मिलती है।


अफसोस तो तब होता है जब अधिकांश भोजन नालियों, तालाबों में फेंका जाता है।
अन्न का अनादर करने वाले इंसान किसी भी प्रकार से सभ्य सुसंस्कृति युक्त समाज का निर्माण नहीं कर सकते। बफर सिस्टम में किसी के कपड़े लाल-पीले हो जाते हैं तो, कोई गुस्सा में लाल-पीला हो जाता है।
चिकित्सा जगत कहा गया है कि शरीर को सुदृढ़ और निरोगी बनाए रखने के लिए भोजन और पानी बैठकर ही ग्रहण करना चाहिए। अफसोस बफर सिस्टम के आगे चिकित्सा पद्धति दम तोड़ देती है।
सीखना सिखाना जीवन का महत्वपूर्ण पहलू है। संस्कारित ज्ञानवर्धक शिक्षा देने का कार्य हर पीढ़ी में रहा है, सही मार्गदर्शन से दांपत्य जीवन में चार चांद लग जाते थे। कुछ दशक पहले तक कन्या के घर में आई हुई सभी सखियाँ, सगे सम्बन्धी, शुभचिंतक स्त्रियाँ आदि दुल्हन को सिखाती थी कि-

सास ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसनेहू।।
अति सनेह बस सखीं सवानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी।।
(बालकाण्ड, श्री रामचरित मानस)

किंतु आज आर्थिक और स्वालम्बी संस्कारहीन युग में वर–वधू के नैतिक संस्कार सुरसा रूपी धारावाहिकों, फिल्मों , रील्स आदि ने निगल लिया है। शायद इसीलिए विवाह के चंद दिनों बाद ही विवाह-विच्छेदन की स्थिति उत्पन्न होने लगती है?
नव विवाहित जोड़े का उज्ज्वल भविष्य की कामना स्वरूप आशीर्वाद देने व खुशहाली का वातावरण स्थापित करने के लिए लोकगीत गाए जाने की परंपरा थी। इन लोकगीतों को कानफूडू हॉर्न और डीजे ने जब्त कर लिया है। इसलिए लोकगीत, लोकनृत्य, लोकभाषा, लोकगायकों आदि का अस्तित्व भी समाप्ति की ओर है। आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इनको संरक्षित संवर्धित करने की आवश्यकता है।
बैसवारा की शान सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी अपने शोक गीत ‘सरोज स्मृति’ में पुत्री सरोज का विवाह का वर्णन करते हुए दहेजप्रथा और फिजूलखर्ची बंद करने के लिए प्रेरित किया है-

कर सकता हूँ यह पर नहीं चाह।
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय।
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली, उ.प्र.
मो० 9415951459