अन्तर्चिन्तन:राम घर आते हैं | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’ | क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

अन्तर्चिन्तन::राम घर आते हैं।

दिव्य राम छवि धाम सुघर मुसकाते हैं,
जन-जन पावन दृष्टि कृपा बरसाते हैं।
युग-युग से अवध निहार रहा कब आयेंगे-
कण-कण हुआ निहाल राम घर आते हैं।1।

बर्बर नीच लुटेरों ने ऐसे दिन दिखलाया है,
कालखण्ड यह देख मुखर मुसकाया है।
जीत सदा सच की होती संघर्ष करो-,
सुदिन देख धरती पर त्रेता फिर आया है।2।

हे राम सभी निष्काम कर्म करते जायें,
उर-मर्यादित भाव धर्म के बढ़ते जायें।
खा कर शबरी-बेर,नई इक रीति बनाओ-
नवल सृजन-पथ लोग सदा चलते जायें।3।

मोक्ष दायिनी सरयू की जल धारा हो जाये,
उत्सर्गित कण-कण अवध दुबारा हो जाये।
ध्वजा सनातन पुनि अम्बर अशेष फहरे-,
अब विश्व-पूज्य यह भारत प्यारा हो जाये।4।

जैसा चाहो राम कराओ हम तो दास तुम्हारे,
अनभिज्ञ सदा छल-छद्मों से मेरी कौन सवॉरे।
निष्कपट हृदय अनुसरण तुम्हारा करता निशि दिन-,
तेरी चरण-शरण में आया तू ही मुझे उबारे।5।

रघुनाथ तुम्हारे आने की हलचल यहॉ बहुत है,
निठुर पातकी जन की धरती खलल यहॉ बहुत है।
चाह रहे हैं लोग सभी लिये त्राण की अभिलाषा-,
कब धर्म-ध्वजा फहराये उत्कंठा प्रबल बहुत है।6।

पड़ा तुम्हारे चरण में इसे शरण दो नाथ,
जब तक करुणा न मिले नहीं उठेगा माथ।
युग की प्यास बुझाई है तुमने ही आकर-,
मातु जानकी पवनसुत सहित मिलो रघुनाथ।7।

2 .क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

भारत की प्रिय प्यारी हिन्दी,
यथा सुहागन की हो बिन्दी।1।
जन्म जात अपनी यह बोली,
दीप जलाये खेले होली।2।
अधर-अधर मुस्कान बिखेरे,
वरद गान कवि चतुर चितेरे।3।
सुधा-वृष्टि-तर करती रहती,
अंजन बनकर नयन सवॅरती।4।
सबको प्रिय मन भाती हिन्दी,
विश्व-कुटुम्ब बनाती हिन्दी।5।
तुम भी गाओ मैं भी गाऊॅ,
हिन्दी का परचम लहराऊॅ।6।
धर्म – ध्वजा अम्बर लहराये,
वीणावादिनि पथ दिखलाये।7।
हिन्दी पढ़ें , पढ़ायें हिन्दी,
दुनिया को सिखलायें हिन्दी।8।
निज में शर्म , सुधार करो,
फिर हिन्दी – ऋंगार करो।9।
निज बालक कहॉ पढ़ाते हो?
क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?10।
नौकरशाह और सरकारी-
सेवक से प्रिय हिन्दी हारी।11।
शपथ सोच कर लेना होगा,
भरत-भूमि-ऋण देना होगा।12।
आओ लें संकल्प आज हम,
हिन्दी में ही करें काम हम।13।
प्रिय राम हमारे हिन्दी में,
हर काम सवॉरें हिन्दी में।14।
विश्व पूज्य यह हिन्दी होगी,
द्वेष-मुक्त प्रिय हिन्दी होगी।15।

अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

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आशा शैली

अंतर

पति के देहांत को छः महीने से भी ज्यादा हो गये थे, बेटी बार-बार बुला रही थी। हॉस्टल की वार्डन भी कई बार कह चुकी थी कि ‘बच्ची पिता को लेकर बहुत भावुक है, एक बार आप आकर उसे मिल जाइए थोड़ा-सा हौसला होगा उसे।’
घर से निकलने की उसे हिम्मत ही नहीं हो रही थी, फिर भी वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक थी। पिता के न रहने पर माँ के बढ़े हुए दायित्व से भली भान्ति परिचित थी, अतः शिमला जाने का मन बना ही लिया।
बैग उठाकर बाहर ही निकली थी कि विवाहित बेटे ने टोक दिया, ‘‘यह क्या पहन लिया आपने? कुछ समाज की भी चिन्ता है या नहीं?’’
करुणा ने चौंककर अपने आप को देख, उसने गहरे हरे रंग का पुराना-सा प्रिंट सूट पहन रखा था, ‘‘इस सूट में क्या हो गया?’’
‘‘आपको पगड़ी पर कितनी सारी सफेद साड़ियाँ मिली थीं? उनका क्या करेंगी आप?? अब आपको घर से बाहर जाते समय उन्हें पहनना जरूरी है। हमारे समाज का यही नियम है।’’ बेटे की आवाज़ सपाट थी।
‘‘बस के सफर में सफेद कपड़ा जल्दी गंदा हो जाता है। मिला पहुँचकर बदल लूँगी।’’ करुणा नीचे सड़क पर उतर गई थी। बस आने वाली थी, बहस का समय नहीं था।

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शाम तक वह अपनी मित्र उषा के घर में थी, उषा से भी इस हादसे के बाद वह पहली बार मिल रही थी, वातावरण बोझिल ही रहा। सुबह करुणा को सफेद साड़ी में शृंगार विहीन देखकर वह बिलख उठी, परन्तु करुणा अनदेखा करके बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल ने लड़की को बुलावा भेजा, पर यह क्या, बेटी तो माँ को देखते ही दरवाजे से उल्टे पैर भागती हुई प्रांगण के बड़े पेड़ से सिर मार-मार कर रोने लगी। जो अध्यापिकाएँ करुणा से मिलने आई थीं वे भी लड़की के इस अप्रत्याशित व्यवहार से भौंचक्की खड़ी थीं, तभी वार्डन ने आगे बढ़कर बच्ची को प्यार से सहलाते हुए पूछा,
‘‘क्या हुआ मैना? क्यों रो रही हो?? तुमने ही तो उनको मिलने के लिए बुलाया था।’’
‘‘मैम!….उसने सुबकते हुए कहा, ‘‘वो, सफेद साड़ी…..वो मुझे याद दिलाती है….पापा मर गये…नहीं हैं अब मेरे पापा’’ वह फिर हिचकियाँ लेने लगी।
‘‘सॉरी बेटा, अब ऐसा नहीं होगा। विश्वास रखो।’’ करुणा ने बेटी को गले लगा लिया। अब उसने उषा की दी हुई कत्थई शॉल ओढ़ ली।

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पूस की रात | संस्मरण | आशा शैली

एक संस्मरण याद आ गया, वही देखिए।

पूस की रात

बर्फबारी दोपहर से ही शुरू हो गई थी फिर भी पाँच-छः बजे तक जमी नहीं थी। जीव-जंतु, पशु कोई भी तो खुले में नज़र नहीं आ रहा था। वर्षा शुरू होते ही सब अपने अपने बसेरों में दुबक गये थे। हमारे पहाड़ी गाँव में सन्नाटा पसरा पड़ा था। हमने भी कोयलों को अंगीठी कमरे में ही रख ली थी। यह हर साल शीतकाल का नियम था कि हमारी रसोई सोने वाले कमरे में ही आ जाती और पूरे परिवार के बिस्तर भी। इससे ईंधन की बचत जो होती थी। घर बहुत बड़ा नहीं था, बस दो ही कमरे थे, हम दो और हमारे तीन बच्चे।

अंगीठी पर चावल चढ़ा रखे थे। दाल बन चुकी थी और चावल के कुकर में सीटी आने वाली थी तभी सड़क से किसी के पुकारने की आवाज़ आई,

“कोई है, कोई है?” हम पति-पत्नि ने बाहर की बत्ती जलाई तो नीचे सड़क पर एक साया दिखाई दिया जो मुँह उठाए आवाज़ें दे रहा था। हमारा घर सड़क के किनारे ही था। हमने देखा वह व्यक्ति बर्फ के बीच खड़ा काँप रहा था। अब तक बर्फ सात-आठ इंच जम चुकी थी। हमने उसको ऊपर आने को कहा तो वह बर्फ में गिरता पड़ता हमारे घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

बरामदे के पास आकर उसने अपने कपड़ों और जूतों से सूखी बर्फ झाड़ी और बरामदे में पड़े बड़े-से बक्से पर ही बैठने लगा। तब हमने देखा कि वह लंगड़ाकर चल रहा था। उसके दाँत मारे शीत के कटकटा रहे थे। उसने कांपते हुए ही बताया कि उसे पिछले गाँव में किसी ने रात काटने को जगह नहीं दी। वह दूर से पैदल आ रहा था और अभी शहर सोलह मील दूर था। वह इस इलाके में अजनबी था। किसी को नहीं जानता।

हमने उसे दूसरे कमरे में रजाई देकर बैठा दिया और कहा कि ‘खाना बन रहा है, आप आराम से सुबह चले जाना।’

चावल बन जाने पर मेरे पतिदेव ने थाली में दाल-भात डालकर बड़े बेटे को मेहमान को दे आने को कहा। हमारे घरों में तब भोजन थोड़ा बढ़ाकर ही बनता था। बेटा थाली देकर लौटा तो उसने बताया कि राहगीर ने थाली पकड़ते ही दोनों हाथों की अंगुलियाँ झट से उबलते चावलों में डाल दें और थाली से अपने चेहरे को सेकने लगा। इस पर मेरे पति बोले,

“हमारा कमरा अब गर्म हो गया है बच्चो। तुम खाना खाओ।” कहकर उन्होंने अंगीठी उठा ली और दूसरे कमरे में ले गये। मैं भी गर्म पानी लेकर गई और उस अजनबी के हाथ-पैर धुलवाए।

सुबह तक हिमपात थम चुका था, चाय पीकर वह अजनबी चला गया। फिर हमने उसे कभी नहीं देखा पर आज भी सर्दी में कंपकंपाती उसकी आँखें मुझे याद आती हैं।

वह मेरे पति से कह रहा था, “बाबू जी, आप न होते तो मैं सुबह कहीं मरा पड़ा होता।”

मेरे पति ने हँसते हुए कहा था, “राम जी हैं न, सबके रखवाले।”

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मण्डी नगर और शिवमन्दिर | Mandi Nagar and shiv Mandir – आशा शैली

मण्डी नगर और शिवमन्दिर | Mandi Nagar and shiv Mandir – आशा शैली

हिमाचल प्रदेश में कुल मिलाकर बारह जिले हैं। प्रत्येक जिले की अपनी देव-परम्पराएँ और मेले त्यौहार हैं। इनमें से कुछ तो देश भर में विख्यात हैं और कुछ को अब विश्व स्तर पर भी पहचान मिलने लगी है। इन विख्यात त्यौहारों में कुल्लू का दशहरा, किन्नौर का फ्लैच, रामपुर का लवी मेला, चम्बा का मिंजर और मण्डी की शिवरात्रि आदि की गणना की जा सकती है। इन मेलों में एक बात जो समान है वह है देवताओं की सहभागिता। पूरे प्रदेश में देवताओं की सहभागिता को विशेष महत्व दिया जाता है और इनके प्रति इस प्रकार का व्यवहार अमल में लाया जाता है जैसे वह हम-आप जैसे ही हो किन्तु हमसे उच्च और विशिष्ट स्थान रखते हों। इस प्रकार आदर दिया जाता है जैसे किसी राजा-महाराजा को दिया जाए। लोग इन की पालकियों को सामने रखकर इस तरह नाचते-गाते हैं मानों देवता इन लोगों को देख रहा है और नाचने वाले इस प्रकार नृत्य मग्न होते हैं मानों देवता को प्रसन्न कर रहे हों। यही हिमाचल के मेलों की सबसे बड़ी विशेषता होती है वरना क्रय-विक्रय तो प्रत्येक मेले में होता ही है। हिमाचली मेलों की दूसरी विशेषता होती है वहाँ के लोकनृत्य, जिन्हें नाटी कहा जाता है, नाटी अर्थात् सामूहिक नृत्य। तो आइए कुछ बातें मण्डी नगर और उसकी शिवरात्रि की करें। इसके लिए हम आप को मण्डी ले चलते हैं, क्योंकि मण्डी जिले की सुन्दरता के लिए ही हिमाचल की सुन्दरता का बखान होता है।

मण्डी नगर जो कि जिला मुख्यालय भी है, व्यास और सुकेती नदियों के संगम स्थल पर समुद्र तल से 760 मीटर के ऊँचाई पर बसा हुआ एक सुन्दर और रमणीक नगर है। इतिहासकारों के अनुसार यह स्थान कुल्लू और लाहुल-स्पिति जाने के मार्ग में पड़ता है इस लिए यह मैदानों और पहाड़ों को जोड़ने वाली एक कड़ी रहा है। व्यापार का केंद्र रहने के कारण ही सम्भवतया इस का नाम मण्डी पड़ गया हो, लेकिन मण्डी नाम माण्डव्य ऋषि से सम्बद्ध भी माना जाता है। जनश्रुति के अनुसार माण्डव्य ऋषि ने इस क्षेत्र में तपस्या की थी। इस क्षेत्र में रियासतों की स्थापना जहाँ सातवीं ईस्वी पूर्व की मानी जाती है वहीं इस नगर की स्थापना बारे तथ्य है कि ईस्वी सन् 1526 में इसे मण्डी रियासत के शासक अजबरसेन ने बसाया था। इससे पूर्व इस स्थान पर घने जंगल हुआ करते थे। रियासत की राजधानी पुरानी मण्डी हुआ करती थी। इस जंगल पर सलयाणा के राणा गोकल का अधिकार था। लेकिन मण्डी में अजबरसेन का शासन था। राणा लोग राजाओं के अधीन ही रहते थे।

कहा जाता है कि एक दिन अजबरसेन को स्वप्न दिखई दिया। जिसमें राजा ने देखा कि एक गाय जंगल में एक स्थान पर आकर खड़ी हो जाती है और उसके थनों से अपने-आप दूध बहने लगता है। जिस स्थान पर दूध गिर रहा था वहाँ राजा को एक शिवलिंग नजर आया। उपरोक्त स्वप्न राजा को निरंतर कई रातों तक दिखाई देता रहा। जब ऐसा बार-बार होने लगा तो राजा ने अपने मंत्रियों को पूरी बात सुनाई। सुनकर सब ने ही आश्चर्य व्यक्त किया और इस बात की खोज-बीन करने का परामर्श राजा को दिया। राजा ने खोज कराई तो पता चला कि यह मात्र स्वप्न ही नहीं था, अपितु ठोस वास्तविकता थी। वास्तव में उस जंगल में एक स्थान पर ऐसा ही होता था, जैसा राजा ने स्वप्न में देखा था। तब राजा अजबरसेन ने उस स्थान पर बाबा भूतनाथ (सदाशिव) का मन्दिर बनवाया और अपनी राजधनी पुरानी मण्डी से यहाँ ले आए और स्वयं भी सदाशिव के शरणागत हो गए।

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भारत की स्वाधीनता के पश्चात् जब रियासतों का भारत संघ में विलय और हिमाचल का गठन हुआ तो 1948 में मण्डी, पांगणा और सुकेत की तीन छोटी-छोटी रियासतों को मिला कर इस क्षेत्र को भी जिले का रूप दिया गया और जिला मण्डी नाम दिया गया। वर्तमान में इस जिले का क्षेत्रफल 4018 वर्ग किमी. है।

इस समय इस नगर में छोटे-बड़े कुल मिलाकर 85 मन्दिर हैं, किन्तु प्रमुख मन्दिर आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व व्यास नदी के किनारे पर तत्कालीन मण्डी नरेश विजयसेन की माता द्वारा बनवाया गया था। इस मन्दिर का नाम साहबानी है। मन्दिर में ग्यारह रुद्रों के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की बहुत सी सुन्दर और कलात्मक मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं। इसके अतिरिक्त अर्धनारीश्वर, पंचवक्त्र महादेव मन्दिर, त्रिलोकनाथ मन्दिर, जालपा (भीमाकाली) आदि अन्य देवी-देवताओं के भी मन्दिर हैं, परन्तु अधिक मात्रा शिव मन्दिरों की ही है। इन्ही शिव मन्दिरों के कारण इसे छोटी काशी कहा जाता है।

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मण्डी रियासत के अधिकतर शासक शैव रहे हैं इसीलिए यहाँ शिवमन्दिरों की बहुतायत है। त्रिलोकीनाथ मन्दिर राजा अजबरसेन की रानी सुल्तान देवी ने अपने पति की सुख-समृद्धि के लिए बनवाया था इसका निर्माणकाल 1520 ईस्वी के आस-पास बताया जाता है। इस दृष्टि से त्रिलोकी नाथ मन्दिर पहले बना और भूतनाथ मन्दिर बाद में परन्तु भूतनाथ मन्दिर की मान्यता और प्रसिद्धि अधिक है। मण्डी का शिवरात्रि मेला भी भूतनाथ मन्दिर से ही प्रारम्भ हुआ माना जाता है। ईस्वी सन्1527 की शिवरात्रि को इस मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा की गई और उसी दिन से यह मेला प्रारम्भ किया गया जो अब पूरे भारत में विख्यात हो चुका है। मण्डी नगर और शिवरात्रि एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। घरों में पकवान बनने लगते हैं और कानों में गूंजने लगते हैं स्वर खरनाली, हरणसिंगे और ढोल की थाप के। अभी तक शिवरात्रि का मेला मण्डी में सात दिन तक चलता है। इस मेले में पूरे प्रदेश ही नहीं भारत के अन्य स्थानों के लोग भी स्थानीय देवताओं की ही तरह भाग लेते हैं। लेकिन इस मेले में अधिक सहभागिता हिमाचल सरकार की ही रहती है क्योंकि यह मेला अब विशुद्ध सरकरी तंत्र पर निर्भर हो कर रह गया है।

मण्डी वासियों की मान्यता है कि सूखा पड़ने की स्थिति में व्यास का इतना जल शिवलिंग पर चढ़ाया जाए कि पानी पुनः व्यास में मिलने लगे तो वर्षा हो जाती है। अतः सूखे की स्थिति में लोग आज भी घड़े भर-भर पानी शिवलिंग पर चढ़ाते हैं और इसकी निरंतरता को तब तक बनाए रखा जाता है, जब तक पानी की धारा व्यास में न मिलने लगे।
मण्डी का शिवरात्रि मेला भी हिमाचल के अन्य मेलों की ही भान्ति उन्हीं सारी परम्पराओं का निर्वाह करता है जिनका अन्य मेले करते हैं परन्तु प्रगति की अन्धी दौड़ में पुरातन कहीं खोता जा रहा है। नगर में नवनिर्माण के नाम पर बस्तियाँ मन्दिरों के प्रागणों तक फैलती जा रही हैं। नगर के मध्य भाग में राजा सिद्धिसेन का बनाया सुभाष पार्क है, जिसके एक कोने में मन्दिर और दूसरे कोने में सार्वजनिक शौचालय है। जिसकी सफाई न होने से साथ में ही बने पुस्तकालय एवं पाठशाला में बैठना भी दूभर हो जाता है। मन्दिरों का रख-रखाव भाषा एवं कला संस्कृति विभाग के सुपुर्द होने से मन्दिर सुरक्षित हैं लेकिन नगर अपना ऐतिहासिक महत्व खोता जा रहा है। मन्दिरों के पुजारी धूप जला कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। जहाँ एक भ्रांत-क्लांत मन विश्राम और शान्ति की आशा लेकर आने पर एक भी हरी शाखा न पाकर नदी किनारे के गोल और सूखे पत्थरों के दर्शन कर लौट जाते हैं।
सेरी रंगमंच की दर्शकदीर्घा की सीढ़ियाँ उखाड़ दी गई हैं, जहाँ बैठकर लोग शिवरात्रि और अन्य विशेष समारोहों का आनन्द लेते थे। इस विकास से तो यह आभास हो रहा है कि किसी समय छोटीकाशी खोज का विषय बन जाएगी और मण्डी के 85 मन्दिर शोध का विषय बन जाएंगे।

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उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand| आशा शैली

उत्तराखण्ड का इतिहास | History of Uttarakhand / आशा शैली

दुनिया जानती है कि इतिहास विजयी लोगों का होता है। पराजित सेनायें, राजा-महाराजा चाहे कितनी वीरता से ही क्यों न लड़े हों, उनका इतिहास ( History of Uttarakhand ) नहीं लिखा जाता, क्योंकि सत्ता विजेता के हाथ में होती है और वह धनबल से चाहे जो लिखवा सकता है। हाँ, यह बात अलग है कि पराजित वीरों की गाथायें जन-जन के हृदय में अवश्य रहती हैं और रहता है उन देशद्रोहियों के प्रति एक अव्यक्त आक्रोश जिनके कारण अन्यायी और अत्याचारी विजयश्री प्राप्त कर लेता है।

उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है

उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), भले ही उत्तर भारत में स्थित एक नव निर्मित राज्य है परन्तु यहाँ का इतिहास अति प्राचीन है। प्राचीनकाल से लेकर स्वतंन्त्रता प्राप्ति तक अनेक इतिहासकारों ने अपने-अपने तरीके से इसका उल्लेख किया है। डॉ. अजय सिंह रावत की ‘उत्तराखण्ड का समग्र राजनैतिक इतिहास (पाषाण युग से 1949 तक) नामक पुस्तक के आमुख में ‘दीपक रावत आई.ए.एस.’ ने लिखा है कि उत्तराखण्ड से ऐसे अनेक पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त होते हैं, जिनके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र अतिप्राचीन काल से ही मानवीय गतिविधियों से सम्बद्ध रहा है।’1 वर्तमान में इसका निर्माण 9 नवम्बर 2000 को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात् भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया और सन् 2000 से 2006 तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। जनवरी 2007 में स्थानीय लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए राज्य का आधिकारिक नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य की सीमाएँ उत्तर में तिब्बत और पूर्व में नेपाल से लगी हैं। पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश इसकी सीमा से लगे राज्य हैं। सन 2000 में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था।

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पहले कहा जा चुका है कि उत्तराखण्ड भले ही नवनिर्मित राज्य हो परन्तु इसका इतिहास अति प्राचीन है। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख किया गया है। पांचवीं सदी ईस्वी पूर्व में पाणिनी ने इस क्षेत्र का उल्लेख ‘उत्तरपथे वाहृतम’ कहकर किया है। तैत्तरीय उपनिषद् में ‘नमो गंगा यमुनायोर्मध्ये ये वसानि, ते मे प्रसन्नात्मा चिरंजीवित वर्धयन्ति’ कह कर यहाँ के निवासियों के लिए मंगलकामनायें प्रकट की गई हैं। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है, इस राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान हैं। आइए, आज हम उत्तराखण्ड के इतिहास पर एक दृष्टि डालें। इसके लिए हमें उत्तराखण्ड को अधिक गहराई से जानना होगा।
देहरादून, उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी होने के साथ इस राज्य का सबसे बड़ा नगर भी है। गैरसैण नामक एक छोटे से कस्बे को इसकी भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भविष्य की राजधानी के रूप में प्रस्तावित तो किया गया है किन्तु विभिन्न विवादों और संसाधनों के अभाव के चलते अभी भी देहरादून ही अस्थाई राजधानी बना हुआ है परन्तु राज्य का उच्च न्यायालय नैनीताल में है। आइये उत्तराखण्ड के इतिहास को खंगालते हैं।

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उत्तराखण्ड के इतिहास


इतिहास बताता है कि प्राचीन काल में उत्तराखण्ड पर अनेक जातियों ने शासन किया जिनमें से कुणिन्द उत्तराखंड पर शासन करने वाली पहली राजनैतिक शक्ति कही जाती है। इसका प्रमाण हमें अशोक के कालसी अभिलेख से मिलता है। जौनसार बाबर तथा लेंसडाउन ;पौड़ीद्ध से मिली मुद्राओं से हमें उत्तराखण्ड में यौधेयों के शासन के भी प्रमाण मिलते हैं।
कुणिन्द प्रारंभ में मौर्यों के अधीन थे। कुणिन्द वंश के सबसे शक्तिशाली राजा अमोधभूति की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड के मैदानी भागां पर शकों ने अधिकार कर लिया।
शकों के पतन के बाद तराई वाले भागों में कुषाणों ने अधिकार कर लिया था। ‘बाडवाला यज्ञ वेदिका’ का निर्माण करने वाले शील वर्मन को कुछ विद्वान कुणिन्द व कुछ यौधेय मानते हैं। उत्तर महाभारतकाल, पाणिनी काल या बौद्धकाल में मैदानों से आने वाले लोगों के यहाँ बसने और स्थानीय लोगों से घुलमिल जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो चुकी थी। ‘उत्तराखण्डःगढ़वाल की संस्कृति, इतिहास और लोक साहित्य’ पुस्तक, जिसे डॉ. शिव प्रसाद नैथानी ने लिखा है, की भूमिका में डॉ. नैथानी लिखते हैं, ‘उत्तराखण्ड गढ़वाल का प्राचीन साहित्य वैदिक काल के साहित्य के समान अलिखित, मौखिक और गेय-गान के रूप में होता था।’’
कर्तपुर राज्य के संस्थापक भी कुणिन्द ही थे, कर्तपुर में उस समय उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश तथा रोहिलखण्ड का उत्तरी भाग शामिल था। कालान्तर में कर्तपुर के कुणिन्दों को पराजित कर नागों ने उत्तराखण्ड पर अपना अधिकार कर लिया। नागों के बाद कन्नोज के मौखरियों ने उत्तराखण्ड पर शासन किया। मौखरी वंश का अंतिम शासक गृह्वर्मा था। हर्षवर्धन ने इसकी हत्या करके शासन को अपने हाथ में ले लिया। इसी हर्षवर्धन के शासन काल में चीनी यात्री व्हेनसांग उत्तराखण्ड भ्रमण पर आया था।
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तराखण्ड पर अनेक छोटी-छोटी शक्तियों ने शासन किया। इसके पश्चात 700 ई. में कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना हुई। इस वंश के तीन से अधिक परिवारों ने उत्तराखण्ड पर 700 ई. से 1030 ई. तक लगभग 300 साल तक शासन किया। इस राजवंश को उत्तराखण्ड का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश कहा जाता है।
प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजवंश की राजधानी जोशीमठ ;चमोलीद्ध के समीप कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी परन्तु बाद में राजधानी बैजनाथ (बागेश्वर) बनायी गई।
इस वंश का प्रथम शासक बसंतदेव था किन्तु बसंतदेव के बाद के इस वंश के राजाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। इसके बाद खर्परदेव के शासन के बारे में जानकारी मिलती है। खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन का समकालीन था। इसके बाद इसका पुत्र कल्याण राजा बना। खर्परदेव वंश का अंतिम शासक त्रिभुवन राज था।
नालंदा अभिलेख में बंगाल के पाल शासक धर्मपाल द्वारा गढ़वाल पर आक्रमण करने की जानकारी मिलती है। इसी आक्रमण के बाद कार्तिकेय राजवंश में खर्परदेव वंश के स्थान पर राजा निम्बर के वंश की स्थापना हुई। निम्बर ने जागेश्वर में विमानों का निर्माण करवाया था।
निम्बर के बाद उसका पुत्र इष्टगण शासक बना, उसने समस्त उत्तराखण्ड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया था। जागेश्वर में नवदुर्गा, महिषमर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज मंदिरों का निर्माण कराया।
इष्टगण के बाद उसका पुत्र ललित्शूर देव शासक बना तथा ललित्शूर देव के बाद उसका पुत्र भूदेव शासक बना इसने बौद्ध धर्म का विरोध किया तथा बैजनाथ मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। कार्तिकेयपुर राजवंश में सलोड़ादित्य के पुत्र इच्छरदेव ने सलोड़ादित्य वंश की स्थापना की। कार्तिकेयपुर शासकों की राजभाषा संस्कृत तथा लोकभाषा पाली थी।
कार्तिकेयपुर शासनकाल में आदि गुरु शंकराचार्य उत्तराखण्ड आये। उन्होंने बद्रीनाथ व केदारनाथ मंदिरों का पुनरुद्धार कराया और सन 820 ई. में केदारनाथ में ही उन्होंने प्राणोत्सर्ग किया। कार्तिकेयपुर वंश के बाद कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन हुआ


कत्यूरी वंश


मध्यकाल में कुमाऊं में कत्यूरियों का शासन था इसके बारे में जानकारी हमें स्थानीय लोकगाथाओं व जागर से मिलती है।
सन् 740 ई. से 1000 ई. तक गढ़वाल व कुमाऊं पर कत्यूरी वंश के तीन परिवारों का शासन रहा, तथा इनकी राजधानी कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) थी। आसंतिदेव ने कत्यूरी राज्य में आसंतिदेव वंश की स्थापना की और अपनी राजधानी जोशीमठ से रणचुलाकोट में स्थापित की। कत्यूरी वंश का अंतिम शासक ब्रह्मदेव था। यह एक अत्याचारी शासक था, जागरां में इसे वीरमदेव कहा गया है।
जियारानी की लोकगाथा के अनुसार 1398 में तैमूर लंग ने हरिद्वार पर आक्रमण किया और ब्रह्मदेव ने उसका सामना किया और इसी आक्रमण के बाद कत्यूरी वंश का अंत हो गया।
1191 में पश्चिमी नेपाल के राजा अशोक चल्ल ने कत्यूरी राज्य पर आक्रमण कर उसके कुछ भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 1223 ई. में नेपाल के शासक काचल्देव ने कुमाऊं पर आक्रमण किया और कत्यूरी शासन को अपने अधिकार में ले लिया।


कुमाऊं का चन्द वंश


कुमाऊं में चन्द वंश का संस्थापक सोमचंद था जो 700ई. में गद्दी पर बैठा था। कुमाऊं में चन्द और कत्यूरी प्रारम्भ में समकालीन थे और उनमें सत्ता के लिए संघर्ष चला जिसमें अन्त में चन्द विजयी रहे। चन्दों ने चम्पावत को अपनी राजधानी बनाया। प्रारंभ में चम्पावत के आसपास के क्षेत्र ही इनके अधीन थे लेकिन बाद में वर्तमान का नैनीताल, बागेश्वर, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा आदि क्षेत्र इनके अधीन हो गए। राज्य के विस्तृत हो जाने के कारण भीष्मचंद ने राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थान्तरित कर दी जो कल्याण चंद तृतीय के समय (1560) में बनकर पूर्ण हुआ। इस वंश का सबसे शक्तिशाली राजा गरुड़ चन्द था।
प्राचीन अल्मोड़ा कस्बा, अपनी स्थापना से पहले कत्यूरी राजा बैचल्देओ के अधीन था। उस राजा ने अपनी धरती का एक बड़ा भाग एक गुजराती ब्राह्मण श्री चांद तिवारी को दान दे दिया। बाद में जब बारामण्डल चांद साम्राज्य का गठन हुआ, तब कल्याण चंद द्वारा 1568 में अल्मोड़ा कस्बे की स्थापना इस केन्द्रीय स्थान पर की गई। चंद राजाओं के समय में इसे राजपुर कहा जाता था। ’राजपुर’ नाम का बहुत सी प्राचीन ताँबे की प्लेटों पर भी उल्लेख मिला है।
कल्याण चन्द चतुर्थ के समय में कुमाऊं पर रोहिल्लों का आक्रमण हुआ तथा प्रसिद्ध कवि ‘शिव’ ने कल्याण चंद्रौदयम की रचना की। चन्द शासन काल में ही कुमाऊं में ग्राम प्रधान की नियुक्ति तथा भूमि निर्धारण की प्रथा प्रारंभ हुई। चन्द राजाओं का राज्य चिन्ह गाय थी।
1790 ई. में नेपाल के गोरखाओं ने चन्द राजा महेंद्र चन्द को हवाल बाग के युद्ध में पराजित कर कुमाऊं पर अपना अधिकार कर लिया, इसके सांथ ही कुमाऊं में चन्द राजवंश का अंत हो गया।


गढ़वाल का परमार (पंवार) राजवंश


ईस्वी सन् 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा थे जिन्हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इनमे सबसे शक्तिशाली चांदपुर का राजा भानुप्रताप था, 887 ई. में धार (गुजरात) का शासक कनकपाल तीर्थाटन पर आया। भानुप्रताप ने इसका स्वागत किया और अपनी बेटी का विवाह उसके साथ कर दिया और अपना राज्य भी उन्हें दे दिया।
कनकपाल द्वारा 888 ई. में चाँदपुरगढ़ (चमोली) में परमार वंश की नींव रखी। ईस्वी सन् 888 से 1949 ई. तक परमार वंश में कुल 60 राजा हुए।
इस वंश के राजा प्रारंभ में कार्तिकेयपुर राजाओं के सामंत रहे लेकिन बाद में स्वतंत्र राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गए। इस वंश के 37वें राजा अजयपाल ने सभी गढ़पतियों को जीतकर गढ़वाल भूमि का एकीकरण किया। इसने अपनी राजधानी चांदपुर गढ़ को पहले देवलगढ़ फिर 1517 ई. में श्रीनगर में स्थापित किया। परमार शासकों को लोदी वंश के शासक बहलोल लोदी ने शाह की उपाधि से नवाजा, सर्वप्रथम बलभद्र शाह ने अपने नाम के आगे शाह जोड़ा। परमार राजा पृथ्वीपति शाह ने मुग़ल शहजादा दाराशिकोह के पुत्र सुलेमान शिकोह को आश्रय दिया था।
1636 ई. में मुग़ल सेनापति नवाजत खां ने दून-घाटी पर हमला कर दिया। उस समय की गढ़वाल राज्य की संरक्षित महारानी कर्णावती ने अपनी वीरता से मुग़ल सैनिको को पकड़वाकर उनके नाक कटवा दिए। इसी घटना के बाद महारानी कर्णावती को ‘नाककटी रानी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गयी।


1790 ई. में गोरखाओं ने कुमाऊं के चन्दां को पराजित कर, 1791 ई. में गढ़वाल पर भी आक्रमण किया लेकिन पराजित हो गए। गढ़वाल के राजा ने गोरखाओं पर संधि के तहत 25000 रुपये का वार्षिक कर लगाया और वचन लिया कि अब ये गढ़वाल पर आक्रमण नहीं करेंगे, लेकिन 1803 ई. में अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में गौरखाओं ने भूकम्प से ग्रस्त गढ़वाल पर आक्रमण कर उनके काफी भाग पर कब्ज़ा कर लिया। 27 अप्रैल 1815 को कर्नल गार्डनर तथा गोरखा शासक बमशाह के बीच हुई संधि के तहत कुमाऊं की सत्ता अंग्रेजो को सौपी दी। कुमाऊं व गढ़वाल में गोरखाओं का शासन काल क्रमशः 25 और 10.5 वर्षों तक रहा जो बहुत ही अत्याचार पूर्ण था। इस अत्याचारी शासन को गोरख्याली कहा जाता है। धीरे-धीरे गोरखाओं का प्रभुत्व बढ़ता गया और इन्होनें लगभग 12 वर्षों तक राज किया। इनका राज्घ्य कांगड़ा तक फैला हुआ था, फिर गोरखाओं को महाराजा रणजीत सिंह ने कांगड़ा से निकाल बाहर किया। और इधर सुदर्शन शाह ने इस्ट इंडिया कम्पनी की मदद से गोरखाओं से अपना राज्य पुनः छीन लिया।

14 मई 1804 को देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में गोरखाओं से हुए युद्ध में प्रद्युमन्न शाह की मौत हो गई। इस प्रकार सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊं में नेपाली गोरखाओं का अधिकार हो गया।
प्रद्युमन्न शाह के एक पुत्र कुंवर प्रीतमशाह को गोरखाओं ने बंदी बनाकर काठमांडू भेज दिया, जबकि दूसरे पुत्र सुदर्शनशाह हरिद्वार में रहकर स्वतंत्र होने का प्रयास करते रहे और उनकी मांग पर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज ने अक्तूबर 1814 में गोरखा के विरुद्ध अंग्रेज सेना भेजी और 1815 को गढ़वाल को स्वतंत्र कराया लेकिन अंग्रेजों को लड़ाई का खर्च न दे सकने के कारण गढ़वाल नरेश को समझौते में अपना राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा।
सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को अपनी राजधानी श्रीनगर से टिहरी गढ़वाल स्थापित की। टिहरी राज्य पर राज करते रहे तथा भारत में विलय के बाद टिहरी राज्य को 1 अगस्त 1949 को उत्तर प्रदेश का एक जनपद बना दिया गया।


ब्रिटिश शासन


अप्रैल 1815 तक कुमाऊॅ पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों ने टिहरी को छोड़ कर अन्य सभी क्षेत्रों को नॉन रेगुलेशन प्रांत बनाकर उत्तर पूर्वी प्रान्त का भाग बना दिया और इस क्षेत्र का प्रथम कमिश्नर कर्नल गार्डनर को नियुक्त किया। कुछ समय बाद कुमाऊं जनपद का गठन किया गया और देहरादून को 1817 में सहारनपुर जनपद में शामिल किया गया। 1840 में ब्रिटिश गढ़वाल के मुख्यालय को श्रीनगर से हटाकर पौढ़ी लाया गया व पौढ़ी गढ़वाल नामक नये जनपद का गठन किया। 1854 में कुमाऊं मंडल का मुख्यालय नैनीताल बनाया गया। 1891 में कुमाऊं को अल्मोड़ा व नैनीताल नामक दो जिलो में बाँट दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति तक कुमाऊं में केवल 3 ही ज़िले थे। अल्मोड़ा, नैनीताल, पौढ़ी गढ़वाल। टिहरी गढ़वाल क्षेत्र एक रियासत के रूप में था। 1891 में उत्तराखंड से नॉन रेगुलेशन प्रान्त सिस्टम को समाप्त कर दिया गया। 1902 में सयुंक्त प्रान्त आगरा एवं अवध का गठन हुआ और उत्तराखंड को इसमें सामिल कर दिया गया। 1904 में नैनीताल गजेटियर में उत्तराखंड को हिल स्टेट का नाम दिया गया।


उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन


मई 1938 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन में गढ़वाल के श्रीनगर में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपनी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं निर्णय लेने तथा अपनी संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया। एक नए राज्य के रूप में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के फलस्वरुप (उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000) उत्तराखण्ड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई। इसलिए इस दिन को उत्तराखण्ड में स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

संस्मरण | आज फिर कुछ याद आया / आशा शैली

आज फिर कुछ याद आया / आशा शैली

जिस दिन से ‘लोनली मदर’ फिल्म की शूटिंग हुई है, जीवन में कई नए अध्याय खुलने लगे हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि मैं भी अभिनय कर सकती हूँ। बचपन में छटी कक्षा में एक अवसर मिला था, परन्तु घर से स्वीकृति नहीं मिली। गोल मेज़ कान्फ्रेंस में महात्मा गांधी का अभिनय करना था। अध्यापकों को मेरे उच्चारण आदि के कारण विश्वास था कि मैं निभा लूँगी। परन्तु होता यह है जब जो भाग्य में न हो, नहीं मिलता। और अब? ये बैठे-ठाले हो गया।

बात का सिरा पकड़ने के लिए कई साल पीछे जाना पड़ता है, जाने अनजाने। शायद दस या बारह साल हो गए, शक्ति फार्म से अजय कुमार ‘तड़प’ का फोन आया, ‘‘दीदी! कोई आप से बात करना चाह रहा है।’’ मेरे कहने पर उसने फोन दूसरे को पकड़ाया तो उधर से आवाज़ आई, ‘‘दीदी! में एक पत्रिका निकाल रहा हूँ आप की रचना चाहिए।’’ यह प्रताप दत्ता थे। मैंने रचना भेज दी। छप गई और फिर प्रताप दत्ता ससम्मान पत्रिका देने मेरे पास आए। यह मेरी प्रताप से पहली मुलाकात थी। पत्रिका का नाम विराज था, पत्रिका थी तो बहुत अच्छी पर इसके बाद वे पत्रिका नहीं निकाल पाए।

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उसके बाद जब वे फिर मेरे पास आए तो प्रताप ने अपनी कुछ रचनाएँ मुझे दीं शैलसूत्र के लिए। अच्छे रचनाकार हैं। समृद्ध शब्द सम्पदा के स्वामी। पर बांग्लाभाषी होने के कारण थोड़ा व्याकरण गड़बड़ा जाता है जो स्वाभाविक है। प्रताप ने मुझे बताया कि वे स्वभावतः फिल्म निर्माण में अधिक रुचि रखते हैं। इस समय उन्होंने लैपटॉप पर मुझे अपने द्वारा निर्मित एक बांग्ला फिल्म भी दिखाई और मुझ से इस क्षेत्र में सहायता करने को कहा। मैं तो सिर्फ फिल्म देखने भर से सम्बंध रखती थी। मैंने हँसी हँसी में कह दिया, ‘‘प्रताप, भाई कोई दादी-नानी का रोल हो तो बता देना। हाँ मेरी कहानी या गीत ग़ज़ल ले सकते हो। इसके अलावा मैं कुछ नहीं जानती।’’

उस दिन तो प्रताप थोड़ी देर बैठकर चले गए, फिर एक दिन दोबारा फोन पर वही बात उठाई तो मेरे मन में एकदम मंजू पाण्डे ‘उदिता’ जी का नाम आया। मंजू को इस क्षेत्र में अत्याधिक रुचि थी, यह मुझे पता था। उनका इस क्षेत्र के कई लोगों से सम्पर्क भी था। बस मैंने मंजू पाण्डे को फोन लगाया, वो घर पर ही थी। हम दोनों जा धमके उनके घर। परिचय कराया मैंने। मंजू की बात उनसे तय हो गई और इन दोनों ने कुछ काम भी किया। कलकत्ता से फिल्म लाइन के कई लोग जब भी आए तो प्रताप मेरे पास भी उन्हें लेकर आए।

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एक दिन फिर प्रताप ने कहा, ‘‘दीदी! हम फिल्म के लिए सितारगंज में साक्षात्कार ले रहे हैं। आप कुछ समय देंगी?’’ तब मैं सितारगंज में अपने भाई के घर चली गई। वहाँ मेरे भाई का पौत्र भी साक्षात्कार देने को तैयार हो गया। जिस पात्र का अभिनय करना था, लड़के ने अच्छा काम किया। यूँ ही बस मजे-मजे में जितने लोग थे सबने कैमरे के सामने खुद को जांचा परखा। मुझे भी सबने कहा, ‘‘आप भी तो आएँ।’’ पर मैं नहीं गई। मुझे यह सब बचकाना लग रहा था। बाद में भी कुछ लोग प्रताप से जुड़े रहे, मंजू पाण्डे निरंतर प्रताप के सम्पर्क में रही। अपने तमाम घरेलू और व्यवसायिक उतार-चढ़ाव के बाद भी कभी-कभी प्रताप फोन कर लेता। इस बीच नैनीताल फिल्म मेले में प्रताप को चार एवार्ड मिले। जिनका मुझे बाद में पता चला। शायद प्रताप को समझ में आ गया था कि मुझे इस क्षेत्र में कोई रुचि नहीं है। हाँ मैं अपनी कहानियों को जरूर लगवाना चाहती थी, पर शायद मेरी कहानियाँ फिल्म के हिसाब से फिट नहीं बैठतीं।

रहा माँ का रोल! तो यह करिश्मा तो इतना अचानक हुआ कि मैं खुद ही समझ नहीं पाई, कि हो क्या रहा है। प्रताप का फोन आया, ‘‘दीदी मैं आप से मिलना चाहता हूँ।’’
मुझे खटीमा जाना था। डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ की दो पुस्तकों का विमोचन था। सितारगंज रास्ते में है, तो मैंने इन्हें वहीं बुला लिया। थोड़ी ही देर में प्रताप , फिल्म के मुख्य पात्रों के साथ मेरे मायके में थे। यहीं उन्होंने मुझे बताया कि मुझे उस लघुफिल्म में मुख्य भूमिका करनी है। मैं सकपका गई, ‘‘ये क्या कर रहे हो प्रताप। मैंने तो कभी इस बारे में गम्भीरता से सोचा ही नहीं था। हँसी मज़ाक की बात को तुम कहाँ ले गए।’’ पर उन लोगों ने मेरी बात ही नहीं सुनी और अंततः माबदौलत घेर लिए गए और 12/13 जून शूटिंग के लिए तय हो गई। हमारी बात 10 तारीख को हुई और शूटिंग यानि बीच में केवल दो दिन। न कोई तैयारी न रिहर्सल।

तब तक मेरे संज्ञान में मंजू पाण्डे ‘उदिता’ किसी कार्यक्रम में गई हुई थीं। बारह तारीक को शूटिंग से पहले वे भी पहुँच गईं। उन्हें वृद्धाश्रम की डॉ. बनना था। यानि चट मंगनी और पट ब्याह। मुख्य पात्र मैं ही थी। दो दिन बाद मैं घर आ पाई और हम बन गए, फिल्मी कलाकार।

आशा की शैली एक मिशन है – कुँवर प्रदीप निगम

आशा की शैली एक मिशन है

आशा जी से मेरा परिचय अभी तक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही है। साक्षात्कार का अवसर नहीं मिला। इसे साहित्यिक भेंट कहते हैं। ऐसे सम्बंधों में एक जिज्ञासा बनी रहती है कि जिसकी कलम इतनी तपस्वी है, वह निश्चित ही तपा हुआ सोना होगा।

शैल-सूत्र तो मैं वर्षों से पढ़ रहा हूँ लेकिन उसकी शैली के मानदण्ड, उसका विस्तार, तपस्या और उसकी अमर ज्योति का संज्ञान मुझे अप्रैल 3, 2013 को हुआ जब पोस्टमैन मुझे शैल-सूत्र का दिसम्बर 2012 अंक दे गया। इस विशेषांक का पृष्ठ खोलते ही मुझे अपने पुराने मित्र, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का लेख ‘चन्दा पर खेती करने वाली आशा’ पढ़ा। इस विशेषांक को देखकर मैं समझा कि जिस को मैं सरिता समझ रहा था, वह गंगासागर तट निकला। मैं विचार करने लगा, कि अभी तक मैं आशा जी को मात्र कवयित्री/लेखिका/सम्पादक समझता था, लेकिन ऐसा नहीं है। उन्होंने तो सामाजिक संघर्ष की शिला पर एक पैर से खड़े होकर लम्बी अवधि तक घोर तपस्या की है। ऐसे क्रान्तिकारी क्षणों में ही कविता का जन्म होता है।

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मैंने छाया देवदार की, उपन्यास के अब तक प्रकाशित अंश पढ़े हैं। उसमें जमीदारी ऐंठ और अय्याशी के बीच कहीं न कहीं स्त्रीशक्ति और उनमें अधिकारों की सुलगती आंच दिखाई देती है। हालांकि तत्कालीन सामाजिक ढांचे में स्त्री की जो हालत रही, जो दुर्दशा हुई उसका प्रकारांतर से अभूतपूर्व दृश्य लेखिका ने उल्लिखित किया है। यह कथा तत्कालीन सामाजिक संरचना और समय के बदले हुए परिवेश हाशिये की जिन्दगी जी रहे सामाजिक न्याय से वंचित लोगों की पीड़ा और मूक संघर्ष को रेखांकित करती है। उपन्यास की नायिका समझती है कि ‘इन ऐंठुए आतंकी जमींदारों के लिए औरत का शरीर ही भगवान है। ये ऐंठुए जवान औरत के तलुवे चाटते हैं।’ मेरा आशय है कि लेखिका ने उस आतंकी मानसिकता और बेबस औरत की सामाजिक कमजोरी का बड़े ही सहज लहजे में आज के बदले हुए विकसित समाज को अहसास कराया है। इसे कहते हैं कलम की जादूगरी। आशा जी ने भी खौलते हुए स्वार्थी समाज को नज़दीक से देखा है और सामाजिक विसंगतियों को टक्कर भी दी है। इनके सामने ऐसे भी संकट आकर खड़े हो गए, जो इनके वर्चस्व को उखाड़ फेंकना चाहते थे लेकिन इनके भीतर बैठा कवि, इन्हें परामर्श देता रहा कि ‘ये कैंचियाँ हमें उड़ने से ख़ाक रोकेंगी, कि हम परों से नहीं हौसलों से उड़ते हैं।’ वही हौसले, आशा जी को उन कठिनाइयों के बीच से ले जाकर आज श्रमसाध्य कर्त्तव्यबोध में ले आई हैं। उन्हीं ‘हौसलों’ ने एक लेखिका के रूप में आशा जी को पहचान दी है और इन्होंने अब तक लेखन/सम्पादन से जुड़ी रहकर प्रखरता को प्राप्त किया है, तथा आज देश की वरिष्ठ साहित्यकार के रूप में सर्वविज्ञ हैं। इनकी कर्त्तव्यनिष्ठा, लगन और तप ने इनके चरण आगे बढ़ाये और पीछे मुड़कर देखने नहीं दिया। इनके साथ एक सिद्धांत और जुड़ गया कि, ‘ये और बात है आँधी हमारे वश में नहीं, मगर चिराग़ जलाना तो इख़्तियार में है।’ आशा जी चिराग़ जलाती रहीं, अंधियारे को रोशनी दिखाती रहीं और लबालब इनका आत्मविश्वास दृढ़ता के साथ खड़ा आवाज़ देता रहा, कि, ‘फानूस बन के जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे, वो शम्अ क्या बुझे जिसे रोशन खुदा करे।’ शायद यही संकल्प झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अंतरिक्ष की यात्रा से वापस लौटी सुश्री सुनीता विलियम्स का भी रहा होगा।

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कल साधनारत महिला साहित्यकार द्वारा अपने कंधों पर एक बड़ा दायित्व वहन कर लेना विशेष अनुकरणीय है और वह है शैल-सूत्र का प्रबंधन, सम्पादन और निस्तारण। वह भी ऐसे समय में जब पीत-पत्रकारिता का वर्चस्व है और साहित्यिक खेमेबाजी से रचनात्मकता पंगु होती जा रही है। इस समय सकारात्मक सृजन नहीं हो पा रहा। जो हो रहा है उसे सामूहिक स्वीकृति नहीं मिल पाती। एक जोड़ता है तो दूसरा जानबूझकर तोड़ता है। नये रचनाधर्मी न केवल भ्रमित होते हैं, बल्कि उनके विकास की गति भी प्रभावित होती है। वैसे भी साहित्यिक पत्रिकाओं एवं पाठकों की भी संख्या कम होती जा रही है। उस पर खेमेबाजी के चलते कभी-कभी अच्छी रचनाएँ पाठकों तक नहीं पहुँच पातीं। धर्मयुग, सारिका, हिन्दुस्तान जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाएँ पाठकों की कमी से नहीं, बल्कि प्रतिष्ठिनों की व्यवसायिकता के कारण बंद हुई हैं। दरअसल साहित्यिक पत्रिकाओं को विज्ञापन कम मिलने के कारण प्रकाशकों को यह सौदा घाटे का लगने लगा और पत्रिकाएँ बंद होने लगीं। यह परिस्थितियाँ विकाराल रूप से आशा जी के सामने भी हैं, फिर भी उनका हौसला देखिए कि पत्रिका समय से और शान से निकल रही है। इसे उनका मिश्नरी कार्य कहा जाना चाहिए। सच यह है कि साहित्यिक पत्रिकाओं को अखबारों की पीत-पत्रकारिता निगल रही है। अखबारों के साहित्यिक विशेषांक इस असाहित्यिकता के लिए जिम्मेदार हैं। विशेषांकों के उन पन्नों पर जो छापा जा रहा है, वह बिकाऊ तो है पर टिकाऊ नहीं। उनमें सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य नहीं हैं। उन विशेषांकों में अपसंस्कृति को मान्यता देने की कोशिश की जा रही है। इसके खिलाफ किसी ने आवाज़ नहीं उठाई।

ऐसी विषम परिस्थितियों में आशा जी द्वारा शैल-सूत्र का प्रकाशन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि इस पत्रिका की सामग्री टिकाऊ हैं इससे स्पष्ट होता है कि यह प्रकाशन इनकी कर्मठता, ईमानदारी, संकल्प और सहिष्णुता का परिणाम है। उनके इस संकल्प का अन्य प्रकाशकों को अनुकरण करना चाहिए। कोई आशा जी का अनुकरण करे या ना करे लेकिन जिस मिशन को लेकर वह चल रही हैं उसके प्रकाश से लोग अपनी राह आसान करते रहेंगे। यही उनका मिशन है। अंततः में आशा जी को एक शेर भेंट कर रहा हूँ,

जहाँ रहेगा वहाँ रोशनी लुटायेगा
किसी चिराग़ का अपना मकां नहीं होता।’

– कुँवर प्रदीप निगम, कानपुर देहात

हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

किसी भी देश-प्रदेश की संस्कृति सभ्यता, समृद्ध और इतिहास का मूल्याँकन यदि समग्रता में करना हो तो उस देश-प्रदेश के लोक साहित्य का गहराई से अध्ययन करना अपेक्षित होता है। माना जाता है कि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी प्रचलित, श्रुति आधरित लोककथाओं की जड़ें कहीं न कहीं वहाँ के इतिहास से अवश्य ही जुड़ी रहती हैं। हिमाचल प्रदेश की हरी-भरी घाटियों व निकट-दूर क्षेत्रों में अपार जल सम्पदा और वन सम्पदा के अतुल भण्डारों के साथ ही साथ लोक साहित्य भी यहाँ की साँस्कृतिक निधि् के रूप में बिखरा पड़ा है। साहित्य रूपी सम्पदा का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि उसमें जनमानस की सोच, साँस्कृतिक मान्यताएँ तथा सामाजिक दायित्वों का अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

ऋगवेद में लोक शब्द का प्रयोग ‘जन’ के लिए तथा स्थान के लिए हुआ है-

‘‘य इमे रोदसी उमे अहमिन्दमतुष्टवं।
विश्वासमत्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं।।
तथा
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो व्यौ समवर्तत।
पदभ्यां भूमिर्द्दिशः श्रोत्रातथा लोकां अकल्पयत्।।’’

लोक साहित्य के सफल चितेरे डॉ. वंशीराम शर्मा के अनुसारः-

‘‘उपनिषदों में ‘अयं बहुतौ लोकः’ कह कर विस्तार को लक्षित किया गया है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में लोक तथा ‘सर्वलोक’ शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनसे ‘लौकिक’ तथा ‘सार्वलौकिक’ शब्द जुड़े हुए उल्लिखित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनी ने वेद से पृथक् लोकसत्ता को स्वीकार किया था। वररूचि व पतंजलि ने भी लोकप्रचलित शब्दों के उद्धरण दिए हैं। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी तथा नाट्यधर्मी परम्पराओं का अलग-अलग रूप से उल्लेख करके लोक परम्पराओं को स्पष्ट रूप से अलग स्थान दिया है। ‘लोक’ शब्द का प्रयोग महाभारत में भी हुआ है और वहाँ इसे ‘सामान्य-जन’ के अर्थ में ही व्यवहृत किया गया है। ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः’ अर्थात् जो व्यक्ति ‘लोक’ को अपने चक्षुओं से देखता है वही सर्वदर्शी अर्थात् उसे पूर्णरूप से जानने वाला ही कहा जा सकता है।’ उक्ति महाभारत में वर्णित है।’’

इससे यह भली भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य, (लोक अर्थात् साधारण जन और साहित्य) दो शब्दों से मिल कर बना है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा कतिपय विद्वान ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘ग्राम्य’ या ‘जनपद’ नहीं मानते बल्कि गाँवों में फैली हुई उस जनता से लगाते हैं जिसका ज्ञान व्यावहारिक तथा मौखिक है। पहाड़ी तथा डोगरी भाषा-भाषी क्षेत्रों में लोक शब्द का अर्थ सामान्य जनता से ही लिया जाता है। यहाँ मैं पुनः डॉ. वंशी राम शर्मा को उद्धृत करूँगी जिनके अनुसार ‘‘लोक शब्द को कुछ विद्वानों ने अपने शब्दजाल में बाँधकर अभिजात्य वर्ग से दूर कर दिया तथा परम्परागत ढंग से अपेक्षाकृत आदिम अवस्था में निवास करने वाले लोगों को ही ‘लोक’ कहने के लिए सामान्य पाठकों को प्रेरित करने की चेष्ठा की, किन्तु यह परिभाषा अधूरी है। ‘लोक’ का अर्थ ‘समाज’ के पर्याय के रूप में होना चाहिए क्योंकि समाज अपनी मान्यताओं व परम्पराओं से अलग अस्तित्व वाला नहीं होता और ‘लोक’ का आकार भले ही समाज से अपेक्षाकृत छोटा हो परन्तु वह भी किसी बड़े समाज का सक्रिय अंग होता है। समाज का लिखित इतिहास हो सकता है और अब यही बात ‘लोक’ के लिए भी समझी जा सकती है।’’

अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं।

लोक साहित्य का सम्बंध लोक संस्कृति के साथ है। यहाँ संस्कृति को ‘शिष्ट’ तथा ‘लोक’ दो भागों में बाँटा गया है। शिष्ट संस्कृति का सीधा सम्बंध अभिजात्य वर्ग से है और उसकी परम्पराओं व ज्ञान का आधार लिखित साहित्य होता है जबकि सामान्य जन लोक विश्वासों व लोक परम्पराओं में अधिक विश्वास करता है और उसकी मान्यताएँ अलिखित होती हैं। वेद, शास्त्रों तथा पुराण आदि के द्वारा दर्शाया गया मार्ग अपेक्षाकृत परिष्कृत तथा विज्ञान सम्मत है अतः उसे शिष्ट संस्कृति के अंतर्गत रखा जा सकता है। वैसे देखा जाए तो शिष्ट साहित्य भी सामाजिक परिवेश को आधार मान कर लिखा जाता है और इस प्रकार लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायिका होती है। अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं। इसका पहला शब्द ‘लोक’ सामान्यतः अपढ़ गंवार, ग्रामीण, शिक्षा, विकास आदि प्रभावों से अलग-थलग समझा जाने वाला वर्ग होता है। परम्परा एवं रूढ़ियों को ढोने वाला-समझ कर इस साहित्य को शिष्ट साहित्य के समकक्ष नहीं रख जाता, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि कुल साहित्य की ठोस आधारशिला यही लोकसाहित्य होता है। लोक साहित्य के गम्भीरता पूर्वक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन अथवा अनुसंधान से यह स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य ही समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, भाषा शास्त्र, इतिहास, नृविज्ञान, शिष्ट साहित्य आदि से उपयोगी साहित्य होता है।

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हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु

हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु होने के कारण वर्णनातीत रूप से परत-दर-परत खुलते रोमांचक रहस्यों का इतिहास है। इस हिमक्षेत्र के प्रथम प्राचीनतम प्रागैतिहासिक राजा युकुन्तरस से लेकर आज तक के विकास और विभिन्न योजनाओं के विभिन्न चरणों का परिचय प्रचलित लोककथाओं, लोक आख्यानों अथवा लोकगीतों से चलता है। हिमाचल में चूंकि लोकगीतों का विषय ही लोककथाएँ हैं अतः लोककथाओं को लोकगीतों से अलग कर पाना असम्भव है, बल्कि यहाँ लोकसाहित्य में लोकगाथाएँ ही प्रचलित हैं। फिर भी इन सब साहित्यक प्रक्रियाओं से गुजरता हमारा लोकजीवन कभी लोकगीतों में मुखर हो उठता है कभी लोककथाओं, आख्यानों और लोकनाट्यों द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। बस यदि अन्तर है तो केवल इतना ही कि शिष्ट साहित्य जहाँ कागज़ के पन्नों पर उतर कर पुस्तकों में अंकित हो जाता है वहाँ लोकसाहित्य सरिता मुख-दर-मुख प्रवाहमान रहती है। इसके रचनाकार कम ही जाने जाते हैं और अधिकतर अज्ञात ही रह जाते हैं।

लोक साहित्य मानव जीवन के विकास और मनोविज्ञान का सशक्त ऐतिहासिक दस्तावेज होते हैं। मौखिक क्रम में उपलब्ध श्रुति आधारित लोकहित, सभ्यता के प्रभाव से अलग रहने वाली निरक्षर जनता के सुख-दुख की कहानी है। इसका रचनाकार युग-पीड़ा एवं सामाजिक दबाव को निरन्तर महसूस करता है। इस साहित्य को रचयिता के मस्तिष्क की उर्वरता का प्रमाण-पत्र माना जाता जा सकता है। ग्रामीण और निरक्षर ही नहीं फूहड़ समझे जाने वाले लोगों के मस्तिष्क भी कैसे-कैसे मधुर, सरस, कोमल और हृदयस्पर्शी साहित्य की रचना कर सकते हैं, यह आश्चर्य एवं कौतुहल का विषय है।

लोक साहित्य को कई भागों में बाँटा जा सकता है जैसे लोकगीत, लोक कथाएँ, लोकगाथाएँ, लोक नाट्य एवं कहावतें आदि। इन ग्राम्य गीतों अथवा कथा नाटकों द्वारा जाति विशेष के व्यावहारिक जीवन के प्रतिबिम्ब, उनके जीवन के विषय में, सभ्यताओं के बारे में सोचने, समझने और अन्दर तक झाँकने का अवसर सहज उपलब्ध होता है। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ, राजकुमारों व राजकुमारियों की कहानियों के माध्यम से अनेक शिक्षाप्रद प्रसंग प्राप्त होते हैं। यही लोक साहित्य की सार्थकता है यही उपलब्धि भी है।

हिमाचल प्रदेश का हर लोकगीत अपने आप में एक लोककथा है। कुंजू-चंचलो, दक्खनू सुनारी, मोहणा-मांण, रानी सुई आदि अनगिनत लोक कथाएँ यहाँ लोकगीतों में मिलती है। भारत के अन्य भागों की भाँति सर्दियों की लम्बी रातों में लोककथा कहने का रिवाज हिमाचल में भी रहा है। लोककथा, कहानी कहते आग के पास बैठे हिमाचलवासी किसी समय ढेरों ऊन काता करते थे।

लोक साहित्य का मौखिक होना भी उस युग की कहानी कहता है। इस साहित्य का मौखिक होना कोई परम्परा नहीं थी। उस युग की विवशता भी थी और आवश्यकता भी।

स्वतन्त्रता पूर्व के हिमाचल में छोटी-बड़ी अनेक रियासतें थीं। उस समय इन रियासतों का क्षेत्रफल 10,600 वर्गमील में फैला हुआ था। इन रियायसतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रोचक भी है और रोमांचक भी। पौराणिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार कोल, किरात, यक्ष, किन्नर, गर्न्धव और नाग आदि जातियाँ इसी हिमाचलीय उपत्यका की निवासी कही जाती हैं। राजा दिवोदास के आर्यों के विरुद्ध अनेक युद्धों का विवरण पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों द्वारा प्रमाणित होता है।

हिमाचल को एक साथ देवभूमि और असुर भूमि दोनों ही कहा जाता है। स्पष्टतया इसका आधार हमारी लोककथाओं में सुरक्षित है। हिमाचल के मंदिर इस क्षेत्र में नाग जाति के वर्चस्व की कथा कहते हैं। नौ नागों की लोककथा और अधिकतर मंदिरों में काष्ठ के नाग होना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इतिहास साक्षी है कि भारत में नाग जाति किसी समय बहुत शक्तिशाली रही है। किन्नर जाति आज भी ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों की निवासी है। स्थान-स्थान पर जाख (यक्ष) को देवता मान कर मंदिर में स्थापित किया जाना यक्षों के शक्तिशाली हिमाचल निवासी होने का प्रमाण देते हैं। किन्नर जाति आज भी उत्कर्ष की सीमाओं पर खड़ी है। कोल आज की कोली जाति प्रतीत होती है।

विश्व के महान देशों के लोकसाहित्य के क्षेत्र में भारी उपलब्धियों को देख कर आश्चर्य होता है। यूरोप और एशिया के बड़े राष्ट्रों का तमाम प्राचीन लोकसाहित्य प्रकाशित हो चुका है। इस दिशा में इन राष्ट्रों ने किसी भी विधा को नहीं छोड़ा। भारत में इस क्षेत्र में अभी बहुत कार्य शेष है।

हिमाचली लेखकों ने लोक साहित्य के क्षेत्र में अथक परिश्रम करके लोक साहित्य सागर में गहरी डुबकियाँ लगा कर बहुत से अमूल्य मोती खोज निकाले हैं। इनमें से कुछ चर्चित पुस्तकें इस सन्दर्भ में प्राप्त है। ‘‘हिमाचली लोककथाएँ’’ में इक्कीस लोकप्रिय लोकथाओं को अनुवाद सहित प्रकाशित किया गया है। ‘‘भर्तृहरि लोक गाथा’’ में जुब्बल, कोटखाई, राजगढ़, सिरमौर, कांगड़ा आदि क्षेत्रों में प्रचलित भर्तृहरि गाथा के विभिन्न रूपों को सम्पादित किया गया है।

हिमाचल की लोककथाएँ, पहाड़ाँ दे अत्थरु (पहाड़ी में) कागज़ का हंस, राजकुमारी और तोता, नौ-लखिया हार, फोक टेल्ज़ आफ हिमाचल, स्हेड़ेयो फुल्ल (संजोए हुए फूल-पहाड़ी), मीठी यादें, पलो खट्टे-मिट्टे (पहाड़ी), कथा-सरवरी दो भागों में (अकादमी द्वारा) प्रकाशित हैं। इन संग्रहों में अनुमानतः साढ़े तीन सौ लोक कथाएँ सम्पादित हैं। इसके अतिरिक्त हिमाचल भाषा विभाग के सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप हजारों लोक कथाएँ विभाग को प्राप्त हुई हैं। हिमभारती, हिमप्रस्थ में भी बहुत सी लोककथाएँ अनेक जनपदीय बोलियों में उपलब्ध् हुई हैं।

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लोक कथाओं के अनुसार जम्मू के भद्रवाह से टिहरी गढ़वाल तक यह पर्वतीय क्षेत्र एक सशक्त सांस्कृतिक इकाई रहा है। वैदिक काल में हिमाचल के इस क्षेत्र को वैराज्य नाम से पुकारा जाता था।

हालांकि हिमाचल प्रदेश की अधिकतर लोक कथाएँ यहाँ के देवताओं और मंदिरों से जुड़ी हैं, फिर भी हम इनकी विश्वासनीयता विदेशी साहित्य में खोजते हुए गर्व का अनुभव करते हैं। हमें आभारी होना चाहिए इन खोजी विदेशियों का जिन्होंने हिमाचल के इन दुर्गम और दुरूह दूर-दराज क्षेत्रों में बिना यातायात की सुविधाओं के लोककथाओं और किंवदंतियों के आधार पर पैदल घूम कर हमारी अमूल्य पुरातन सँस्कृति की धरोहर को खोज निकाला और लोककथाओं और पुरातन अवशेषों में तालमेल बैठाकर सत्य की खोज कर इतिहास लेखन का मार्ग प्रशस्त किया।

प्राचीन अवशेषों और लोक कथाओं का चोली-दामन का साथ होता है। ये प्राचीन अवशेष हमें हमारी सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराते हैं। स्थानीय देवी-देवता और इनसे जुड़ी लोककथाएँ भले ही शहरी सभ्यता को अंधविश्वास प्रतीत होती हों किन्तु ग्रामीण जनमानस इन्हीं दंतकथाओं में विश्वास करके आज भी देवताओं के निर्णय की अवज्ञा का साहस नहीं कर सकता। इससे समाज को एक स्वच्छ अनुशासन प्राप्त होता है, यही है लोक साहित्य की उपयोगिता और सार्थकता भी।

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हिमाचल प्रदेश की बुलबुल हज़ार दास्तान- राजेंद्र नाथ रहबर

हिमाचल प्रदेश की बुलबुल हज़ार दास्तान- राजेंद्र नाथ रहबर

 

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आशा शैली

आशा शैली उर्दू शायरी को हिमाचल प्रदेश का एक गरांकद्र अतिया हैं

मोहतरमा आशा शैली साहिबा हिमाचल प्रदेश की कोहस्तानी बुलंदियों से अपनी ताज़ाकारी, खुश शगुफतगी, लहजे की तवानाई और शगुफ्ता बयानी के ज़रिये उम्दा उर्दू शायरी के नमूने पेश करके एक मुद्दत से दिलो-दिमाग फरहती और तस्कीन का सामान मुहैया फरमा रही हैं। इन का कलाम पढ़ कर नये रास्ते खुलते हुए महसूस होते हैं और कारी ये महसूस करता है कि वह खुली फिज़ाओं और ताजा हवाओं में साँस ले रहा है और ऐसा होना एक कुदरती अमर है। शायरी का तअलुक माहौल से है। आशा शैली हिमाचल परदेश के एक दूर अफतादह, पसमान्दा मगर खूबसूरत और कुदरती मनाज़र से मालामाल इलाके की रहने वाली हैं। बर्फ़ से ढकी हुई पहाड़ियों की फलक बर-दोष चोटियाँ, सुबक सिर नदियाँ, बरसात में भीगने हुए देवदारों के घने स्याह जंगल, दूर-दूर तक फैले हुए सिलसिला हाय कोह, पत्थरों से सर फोड़ते पुरशोर पहाड़ी नदी-नाले, नागिन की तरह बलखाती लहराती हुई शबनम आलूद पगडंडियाँ और इनसे लिपटते हुए सर सब्जी पेड़ों के साये, साँस लेती हुई जिन्दा-जावेद सबीही हाथों में हज़ार आइने लिए साफ़ शफ़ाफ़ मुतरनम झरने, रंग-बरंगे पंछियों के दिल आवेज़ कहकहे, अतरबेज़ हवायें, शामों के झुटपुटे और घरों को लौटते हुए पंछियों की लम्बी कतारें, फूलों से लदी हुई हसीन शादियाँ, मन को मोह लेने वाले कुदरती मनाज़र, सादा सरिश्त कोही मख़लूक और दूर किसी चरवाहे की बांसुरी से निकलती हुई दर्द भरी लय से गूँजती हुई घाटियाँ आशा शैली की शायरी के लिए मवाद फराहम करती हैं और इनके फिक्र की तितली के परों पर रंग बिछा देते हैं। जदीद मआशरे की तेजी से तब्दील होते हुए हालात मआशी व तहजीबी ग्लोबलाईजेशन चारहाना मादीयत और सैटलाइट मीडिया के बायस रोनुमा होने वाली तब्दीलियों ने अभी उनके दामने कोह में बसी हुई बस्ती पर यलगार नहीं दी है और उनकी शायरी पर बसों और कारखानों की चिमनियों के स्याह धुएँ की परतें नहीं जमी हैं। सच तो यह है कि आशा शैली उर्दू शायरी को हिमाचल प्रदेश का एक गरांकद्र अतिया हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वो सिर्फ हिमाचल प्रदेश ही की हैं। पंजाब की सोंधी मिट्टी के साथ भी इनका रिश्ता उस्तवार है। इन्होंने शायरी का आग़ाज़ किया है तो पंजाब के एक बुजुर्ग और क्लासिकी रंग के उस्ताद शायर जनाब रघुबीर सहाय साहिर सयालकोटी साहब मरहूम के आगे ज़ानुए तलम्मज़ता किया। जिनका यह शेर है

महफिल में जज़ीरे मिरे हुस्ने बयान के
हर शख्स पूछता है ये हज़रत कहाँ के हैं

क़िबला साहिर साहब जालन्धर के रहने वाले थे। जब तक बकैद-ए-हयात रहे, आशा शैली जी को बराबर अपने कीमती मश्विरे और इसलाह से फ़ैजयाब फरमाते रहे। जनाब जिगर जालंधरी और जनाब आर डी शर्मा तासीर साहब भी जनाब साहरि के दामने-फ़ैज असर से बाबस्ता थे। इस तरह वो मोहतरमा शैली के ख्वाजा ताश ठहरे। साहिर साहब की वफ़ात के बाद शैली पंजाब के रंगे-जदीद के नामवर शायर प्रोफेसर मेहर गेरा के दामने फ़ैज से वाबस्ता हो गयीं। मेहर गेरा साहब पंजाब की जदीद उर्दू शायरी के मैमारों में से एक हैं। इनका जिक्रे खैर आते ही उनका शेर याद आ जाना एक कुदरती अमर है,

तमाम उम्र रहा उसको अब्र का अहसास
न जाने कौन सी रुत में वो शख्स भीगा था।

आशा शैली का पंजाब की सरज़मीन के साथ तअलुक का जिक्र

आशा शैली का पंजाब की सरज़मीन के साथ तअलुक का जिक्र आ ही गया है तो ये भी अर्ज कर दूँ कि पंजाब के जिला मोगा के दो-तीन देहातों में इन की ज़मीनें थीं, जो अब ग़ालिबन इन्होंने फरोख्त कर दी हैं। पंजाब में मुनक्कद होने वाले मुशायरों में भी वो तशरीफ़ लाती रही हैं।
हाँ तो मैं ज़िक्र कर रहा था कि आशा शैली को एक तरफ़ जहाँ क्लासिकी रंग के एक उस्ताद कमाल से फ़ैजयाब होने का मौका मिला वहीं दूसरी तरफ उन्हें रंगे जदीद के एक ताबनाक चराग़ों से अपनी शायरी का चिराग़ रोशन करने का मौका मिला। इस तरह इन के कलाम में दोनों असातज़ा के रंग कलाम का हसीन अमतज़ाज मिलना एक कुदरती बात है। आशा शैली के कलाम की जदीदियत रवायत की तौसीअ ही से आलमे वजूद में आई है। मै इसे अनहराफ का नाम नहीं देता क्योंकि जदीद तरीन जदीदियत की जड़ें भी रवायत के मख़ज़ गोशों में मिल जायेंगी। वैसे भी मेरी दानिस्त में अनहराफ का तअलुक नाख़ल्फ़ी से और तौसीअ का तअलुक सआदतमंदी से है। शैली जी के कलाम में मौसम, पत्थर, शहर, धूप, जाड़ा, किरचें, रुत, जंगल, जज़ीरा वगैरह अल्फ़ाज़ का मिल जाना जदीदियत की तरफ़ उनके बढ़ते हुए कदमों की निशानदेही करता है।

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कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण

चीन की गौरव कही जाने वाली कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण देते हुए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने एक लेख में कहा है कि मैं जब भी हिन्दी की अग्रणी लेखिका आशा शैली को देखता हूँ तो मुझे बरबस उस उद्यम साहसी, विनम्र, मितव्ययी और परोपकार की भावना से सराबोर कर्मयोगिनी का स्मरण हो आता है। जिसने स्वयं सब्जी बेच कर जरूरतमंदों के लिए पाँच करोड़ की धनराशि एकत्र कर ली थी। उन्होंने दोनों में बहुत साम्य अनुभव किया है। डॉ. मिश्र ने उन्हें ‘वन विमेन आर्मी’ कहा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। वे जिस जीवट के साथ बिना किसी बाह्य सहायता के अकेले दम भाषा-साहित्य के क्षेत्र में अनवरत काम कर रही हैं, वह किसी अघोषित युद्ध से कम नहीं।
हालांकि धन-संग्रह करने के मामले में तो आशा शैली की चेन-शु-चू से बराबरी नहीं की जा सकती, परन्तु इतना जरूर है कि उन्होंने साधनविहीन ग्रामीण वातावरण में रहते हुए मामूली स्तर से अपनी लेखन यात्रा प्रारंभ की और आज साठ वर्षों के बाद उनके खाते में ढेर सारी कहानियाँ, लघु कथाएँ, कविताएँ, गजलें, उपन्यास आदि के अलावा एक संपादक के रूप में असंख्य उदीयमान लेखकों और कवियों का उत्साहवर्द्धन करके उनकी प्रतिभा को सँवार-माँज कर साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय फलक पर लाने का पुण्य जरूर संग्रहीत है।

आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है

(जो हार न माने, वो है-आशा)


आज हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, डोगरी, बांग्ला और उड़िया पर बराबर अधिकार रखने वाली आशा शैली न केवल लेखन तक सीमित हैं, बल्कि इन्होंने संपादन-प्रकाशन के क्षेत्र में भी अच्छा-खासा स्थान बनाया है। जिसके अंतर्गत यह वर्ष 2007 से हिन्दी कथा-साहित्य को समर्पित एक त्रैमासिक पत्रिका ‘शैल-सूत्र’ का नियमित प्रकाशन कर रही हैं, जिसमें नवोदित रचनाकारों के अलावा स्थापित लेखकों-कवियों की रचनाओं का भी समावेश होता है। इसके अतिरिक्त आत्मजा आरती की स्मृति को हर पल अपने ही आसपास महसूस करने के निमित्त ये ‘आरती प्रकाशन’ का भी संचालन करती हैं। इसके लिए काफी भाग-दौड़ करके इन्होंने आइ.एस.बी.एन. नंबर भी हासिल करने के बाद अब तक दर्जनों स्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन सफलतापूर्वक किया है। ऐसा लगता है कि जीवन भर समय-समय पर कवि सम्मेलनों, साहित्यिक गोष्ठियों, परिचर्चाओं के आयोजन में इन्होंने जो आनंद लिया उसी से इन्हें आगे बढ़ने की ऊर्जा प्राप्त होती रही है। जीवन के एक कम अस्सी पड़ाव पार चुकी एकांत साधना-रत इस जीवट भरी महिला के भीतर बैठी लेखिका अभी भी पूरे दम-खम के साथ अपने सनातन धर्म का पालन करने में सक्रिय है।
मात्र चौदह वर्ष की अल्प-वय में दाम्पत्य-सूत्र से आबद्ध होने के तीन वर्ष उपरांत ही पति के साथ पाई-पाई जोड़कर परिश्रम पूर्वक हिमांचल के एक पर्वतीय गाँव में जमीन खरीद कर तैयार किये गये बाग में सेब, नाशपाती, अखरोट, प्लम, खुबानी, चेरी, बादाम आदि फल व सब्जियाँ पैदा कर लोगों को बाँटने के अलावा गाय पालने तथा तीन बच्चों की परवरिश के साथ-साथ साहित्य की अनवरत साधना में सुखानुभूति प्राप्त करना कोई मामूली काम न था। उस पर भी चालीस की वयःसंधि में पति का वियोग और फिर उसके दस वर्ष के अंतराल पर किसी वज्रपात की तरह युवा पुत्री की आकस्मिक मृत्यु का आघात इस भाव-प्रवण कवियित्री के हृदय को छलनी करने को पर्याप्त था। लेकिन धुन, धैर्य और साहस की धनी इस माँ ने प्रकृति का वह आघात भी सह लिया और बिना रुके साहित्य-साधना में लीन रही।
छठी कक्षा की पढ़ाई के दौरान पहली बार जब कुछ लिखा तो उसे सहपाठियों-अध्यापकों ने नहीं सराहा। फिर लिखी एक ग़ज़ल को दिल्ली के मिलाप ने 1960 में छापा। तब से शुरु हुई साहित्य-साधना में इनका रचना-संसार दर्जनों कहानियों के साथ-साथ ‘एक और द्रौपदी’ (काव्य संग्रह), काँटों का नीड़ (कविता संग्रह), ढलते सूरज की उदासियाँ (कविता संग्रह), प्रभात की उर्मियाँ (लघु कथा संग्रह), शज़रे तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह), पीर पर्वत (गीत संग्रह), सागर से पर्वत तक (ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद), गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवनियाँ), साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित दादी कहो कहानी (लोक कथा संग्रह), सूरज चाचा (बाल कविता संग्रह), हमारी लोक कथाऐं (भाग1 से 6 तक), हिमाचल बोलता है (हिमाचली कला-संस्कृति पर आधारित और किताब घर से प्रकाशित), अरु एक द्रौपदी (एक और द्रौपदी का बांग्ला अनुवाद) आदि-इत्यादि तक फैला हुआ है। एक हिमाचली दलित कन्या ‘बीरमा’ और पंजाब के एक बहुचर्चित राजपरिवार के शीर्ष पुरुष के ताने-बाने को लेकर रचा गया इनका उपन्यास ‘छाया देवदार की’ बेहद चर्चित रहा। इसके अलावा एक बाल उपन्यास ‘कोलकाता से अंडमान तक’ तथा कहानी संग्रह ‘द्वंद्व के शिखर’, चीड़ के वनों में लगी आग आदि 28 पुस्तकें उपलब्ध एवं अन्य बहुत सी पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन हैं। ‘आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी’ और स्त्री संघर्ष एक चिन्तन जैसी पौस्तकें एवं स्त्री-विमर्श को रेखांकित करने वाले अनगिनत सम-सामयिक लेख उनकी बौद्धिक प्रखरता का परिचय देते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशों से प्रकाशित होने वाली अनेक हिंदी उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में भी इनकी कहानियाँ सम्मानपूर्वक छपती रहती हैं।

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इस प्रकार पति के आकस्मिक परलोक गमन के दस वर्ष के अंतराल पर ही युवा पुत्री का भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाना, स्वर्णिम भविष्य की कल्पना से संजोये दो-दो पुत्रों के लिए बहुएँ ढूंढ कर उनके घर बसाने के बाद उनसे घनघोर उपेक्षा ही नहीं बल्कि घृणा, तिरस्कार, अपमान, आक्षेप, अपने ही बनाए घर से अपने ही पुत्रों द्वारा बेघर कर दिया जाना, फिर सिर छिपाने को एक आशियाने की तलाश में विभिन्न कस्बों, शहरों और प्रदेशों की ठोकरें खाना, पुत्रों के साथ विभिन्न न्यायालयों में मुकदमेबाजी के झंझटों के अलावा और भी न जाने क्या-क्या झेलने के बीच भी अनवरत उच्चस्तरीय साहित्य-सृजन के साथ-साथ उदीयमान लेखकों व कवियों का उत्साहवर्द्धन-मार्गदर्शन करना कोई आसान काम नहीं है।

2 अगस्त, 1942 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) के एक छोटे से गाँव अस्मान खट्टड़ से शुरू हुआ जीवन का सफर देश विभाजन के बाद जगाधरी, अंबाला, हल्द्वानी, खतौली, सितारगंज, लालकुआँ आदि अनेक जगहों में होते हुए निरंतर यायावरी में बीता। बीच के कुछ वर्ष हिमाचल के गाँव गौरा में घर-गृहस्थी में बीते परंतु पारिवारिक झंझटों ने शिमला के वर्किंग वीमेन हॉस्टल की शरण लेने को विवश कर दिया। जिंदगी के थपेड़ों ने आज इन्हें उत्तराखण्ड में नैनीताल जिले के एक गाँव में अनेक घर बदलते रहने के बाद किराये के एक दो कमरे वाले घर में ला पटका है। इतना सब झेलने के बावजूद भी न तो इन्होंने और न ही इनकी लेखनी ने कभी हार मानी और न विश्राम ही लिया।

मानव जीवन में दो रंग बहुत गहराई तक परस्पर घुले-मिले हैं–आशा और शैली। आशा है मनुष्य के जीने की डोर जो उसे स्वर्णिम भविष्य की उम्मीदों से बाँधे रखती है, उसकी खुली आँखों के सपनों का आधार। मानव आशाओं के पंख पर ही तो सवार होकर नित निरंतर जीवन-यात्रा पर निकल पड़ता है और उसके अंतिम छोर पर पहुँचने तक यह क्रम यूँ ही अनवरत चलता रहता है। और शैली है उसके जीने का ढंग, कला और जिंदगी के प्रति उसका अपना नजरिया। उसके अपने बनाये नियम, कायदे; जिनका वह स्वयं पालन करता है और किसी हद तक चाहता भी है कि दूसरे भी कमोवेश उनको अपनाऐं। आशा और शैली का यह मिला-जुला स्वरूप ही तो मनुष्य की अपनी पहचान है। लेकिन जब ये दोनों शब्द एकाकार हो जायें तो? एक ऐसा व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है जिसमें जिजीविषा, हौसला, उल्लास, कठोर श्रम, सद्भाव, सेवा-सत्कार, प्रेम, करुणा, शालीनता, ज्ञान-पिपासा, जीवन को अनंत मानने वाले आध्यात्मिक चिंतन से पगा सनातनी सुरुचिपूर्ण संस्कारों के साथ-साथ नियमित जीवन-चर्या आदि का बेहतरीन सम्मिश्रण। विगत साठ सालों से साहित्य-साधना में लीन आशा शैली को उनके पाठक, मित्र और मिलने वाले सभी इसी रूप में जानते-पहचानते हैं।

एक का अस्सी की वयःसंधि में भी युवाओं सी ऊर्जा से लबरेज आशा शैली आज भी लगातार भारी अर्थाभाव के बावजूद छंद, गीत, ग़ज़ल, कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास, वैचारिक आलेख आदि लिखने में स्वयं को व्यस्त रखती हैं। इनकी रचनाओं में प्रेम, भक्ति, विरह, वैराग्य, आक्रोश, व्यंग्य, हास्य आदि जीवन के हर रंग और रस का समावेश होता है। ‘शैल-सूत्र’ तथा आरती प्रकाशन से प्रकाशनार्थ आने वाली सारी सामग्री को अपने कंप्यूटर पर स्वयं टाइप करके ले-आउट, डिजायन और फिर मुद्रण आदि कार्य स्वयं करने से इनके बहुमुखी व्यक्तित्व और प्रतिभा का पता चलता है।

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इसके साथ-साथ देश भर में जहाँ कहीं से भी साहित्यिक गोष्ठी, कवि सम्मेलन, परिचर्चा आदि के लिए इन्हें बुलावा आता है, ये चल पड़ती हैं, अक्सर अपने खुद के खर्चे पर। वहाँ व्यवस्था चाहे जैसी भी हो इन्होंने सदैव आयोजकों के प्यार व सम्मान को ही तरजीह दी है।

लगभग साठ वर्षों की साहित्य-साधना और निजी जिंदगी के कष्ट-साध्य समय में आशा शैली को कभी भी किसी भी पुरस्कार के लिए लालायित नहीं देखा गया। अलबत्ता देश भर में फैले विभिन्न भाषा-भाषी अपने पाठकों, प्रशंसकों, संगठनों को लुटाया प्यार इन्हें कई गुना प्रतिफलित हुआ है। तमाम तरह के पुरस्कारों, अभिनंदन के प्रतीक चिह्नों और मानद उपाधियों के माध्यम से। जिनमें हिन्दी जगत की अनेक नामचीन संस्थाएँ भी शामिल हैं। उन्हीं ढेर सारे पुरस्कारों-सम्मानों से इनका कमरा अटा पड़ा है। विरासत में मिले गहन संस्कारों से बँधी आशा जी सैटिंग-गैटिंग और सोर्स-फोर्स-घूस-घूँसे तथा तमाम तरह के जुगाड़ों से भरे वर्तमान माहौल में ऐसा करके कोई भी पुरस्कार हासिल कर लेने को कतई गलत मानती हैं। आध्यात्मिक विचारों से भरपूर सादगी भरा इनका जीवन जरूरतमंदों को देते रहने का एक कभी खत्म न होने वाले सिलसिले की तरह है। फिर ऐसी कर्मयोगिनी किसी से कुछ लेने के विषय में तो सोच भी नहीं सकती।
संयोग-वियोग, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, लाभ-हानि और भी न जाने कैसे दृश्य मानव जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं और आगे भी रहेंगे। यह क्रम निरंतर जीवन-यात्रा में आता रहता है; लेकिन धीरमति, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति इनसे सदैव अप्रभावित रहते हुए अपना कर्म करने में जुटे रहते हैं, बल्कि रुकावटों, कष्टों और संघर्षों को वे और भी अधिक शक्ति-अर्जन का अवसर जान उल्लासपूर्वक आगे बढ़ते रहते हैं। यही वह सद्गुण आशा शैली में है जो उन्हें हर समस्या से पार पाने और आगे बढ़ने में सहायता करता है। शालीनता, ज्ञान-पिपासा, वाक्पटुता और व्यवहार-कौशल से भरपूर आशा जी के उदारमना अति अनुकरणीय व्यक्तित्व में एक विचित्र आकर्षण है, जिससे पहले ही संपर्क में व्यक्ति आबद्ध हो जाता है।
देश के अग्रणी लेखक डॉ. राष्ट्रबंधु ने आशा शैली के सम्बंध में लिखा है़ ‘वह अंदर से चाहे जितनी कमजोर और निराश हों लेकिन उनके अधरों पर सदा मुस्कान खेलती है। उनमें कहीं भी अबला की कोई शिथिलता नहीं दिखाई देती… बहुत बहादुर औरत हैं आशा जी, गज़ब की हिम्मत है उनमें।’
आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है जैसे वे अभी-अभी युवावस्था की दहलीज पर खड़ी जीवन के अनंत संघर्षों को मुस्कराते हुए झेलने को तत्पर हों पूरी जिजीविषा के साथ। वे अभी भी साहित्य-साधना के नये सोपानों की ओर अग्रसर हैं। थकना-हारना तो जैसे वे जानती ही नहीं। लगता है इन्होंने अपने नाम को सार्थक बनाते हुए यह जीवन-मंत्र अपना लिया है, ‘जो हार न माने वो है आशा’।


डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
देहरादून

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