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सजा | रत्ना भदौरिया | लघुकथा

कल के दृश्य ने वो गाना सार्थक कर दिया ‘मेरा गम तेरे ग़म से कितना कम है ‘। अभी तक गाना खूब सुना ,गुनगुनाया लेकिन हमेशा लगता रहा कि नहीं दुनिया में मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं है। कल के दृश्य ने सबकुछ बदल दिया और लगने लगा अरे ! मुझसे कम दुखी कोई नहीं है। मेरी और नंदिनी की बात अभी ज्यादा पहले नहीं शुरू हुई थी महज एक महीना हुआ था लेकिन दोनों को एक दूसरे पर विश्वास ऐसा जम गया मानो बचपन की सहेलियां हों। काम की व्यस्तता की वजह से फोन पर कम ही बातें होती मैसेज से हाल खबर रोज ही हो जाती। इन एक महीने में तीन से चार बार फोन पर बात हुई। लेकिन ज़्यादातर दो से तीन मिनट ही बात सम्भव हो पायी।कल हम दोनों फ्री थे मेरा कुछ स्वास्थ्य ठीक नहीं था और नंदिनी की कालेज की छुट्टी थी। बातों का दौर लम्बा चला तो उसने उस दृश्य का जिक्र किया जो मेरे लिए दृश्य लेकिन उसकी कहानी थी। नंदिनी ने बात मेरी शादी से शुरू की । तो मैंने कहा नहीं यार अभी नहीं वैसे सच बताऊं करना नहीं चाहती कोई रुचि नहीं है। भाई ,बहन , मां- बाप सब लोग हैं नौकरी भी है फिर क्या जरूरत आज कल वैसे भी लड़कों का कोई भरोसा नहीं। वैसे नंदिनी आपकी शादी हो गयी क्या? नहीं मैं तो चालीस से ऊपर की हो गयी अब क्या करूंगी शादी करके ? क्या ?आप तो बहुत बड़ी हैं मुझसे माफ़ी चाहूंगी हमेशा आपका नाम या यार कहकर बुलाती रही मैं इतनी बेवकूफ कभी पूछा भी नहीं।

अरे नहीं कोई बात नहीं बिट्ट सब चलता है। शादी नहीं की इसके पीछे बहुत बड़ी कहानी है। बताइये ना दीदी आज मैं बिल्कुल व्यस्त नहीं हूं मैंने कहा। नहीं बिट्टू फिर कभी बताऊंगी। नहीं दीदी मैं जिद्द करने लगी । चलो अच्छा इतनी जिद्द कर रही हो तो बता ही देती हूं। आज के बीस साल पहले पापा सरकारी मास्टर के पद से रिटायर हुए और घर पर रहने लगे। एक साल व्यतीत भी नहीं हुआ था कि पापा को कैंसर हो गया उनके रिटायरमेंट के जितने पैसे थे सब उनकी दवाई में लग गये और दुर्भाग्य देखो उसी दौरान कोरोना आ गया मैं प्राइवेट स्कूल अध्यापिका थी कालेज की नौकरी तो बाद में मिली, नौकरी छूट गयी पापा को कैंसर के साथ -साथ कोरोना भी हो गया।

मां भी पापा की देखभाल करते -करते कोरोना की शिकार हो गयी। और एक एक करके दोनों चलते बने। घर ,पैसा जो भी बचा था दोनों भाईयों ने ले लिया मैं अकेले रह गयी। फिर पता है बिट्टू सब लोग कहते इसका भी कहीं रिश्ता कर दो । दोनों भाइयों ने योजना बनाई और जितने भी रिश्ते आते वे तोड़वा देते एक भाई एक कमी निकालता तो दूसरा दूसरी कमी , कोई रिश्ता ही नहीं हो पा रहा था। पास पड़ोस के लोग और भी बोलने लगे थे लेकिन भाइयों को कोई फर्क नहीं पड़ा, एक सबसे दुर्भाग्य का दिन तब आया जब पता चला कि मुझे पागल होने के लिए दवाईयां दी जा रही थी वो भी भाइयों के द्वारा इसका कारण जानने कि कोशिश कि तो पता चला कि महज यह कारण था ,अब इसे संभाले कौन और शादी में तनिक रकम नहीं खर्च होती कौन करे इतने पैसे खर्च —-।

फिर पता है बिट्टू मैंने कहा दिया ना किसी को किसी के सामने गिड़गिड़ाने की जरूरत है और ना ही मेरे बारे में चिंता करने की आप सब अपना अपना देखो। उस दिन से चौकन्नी और सतर्कता के साथ काम करने लगी भगवान का शुक्र रहा कि जल्द ही गांव के एक स्कूल में नौकरी मिल गयी। बिट्टू आज मैं पैंतालीस साल की हो गयी हूं और खुश हूं अपनी दुनिया में लेकिन दोनों भाईयों को जब कभी कभी दुखी देखती हूं तो समझ नहीं पाती की उनको क्या कहूं उनके किये की सजा है या कुछ और ——।

सखियां मंगल गाओ | प्रतिभा इन्दु

आने वाला है वह शुभ दिन
मिलकर हर्ष मनाओ ,
आयेंगे श्री राम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

वर्षों से प्यासी आँखों में
नूतन आस जगी है ,
आने वाला है वह क्षण , उस
पथ पर दृष्टि लगी है ।
द्वार-द्वार पर बनी रंगोली
कंचन थाल सजाओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

इंतजार के बाद सामने
चिर प्रतीक्षित घड़ियाँ ,
सारी अड़चन दूर हुई अब
टूट गई हथकड़ियाँ ।
प्रभु के पग जिस जगह पड़ेंगे
उस पर फूल सजाओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

राम पिता हैं सकल विश्व के
जननी सीता माई ,
धर्म , अर्थ औ” काम,मोक्ष हैं
रघुवर चारों भाई ।
नवल रंग , नूतन उमंग भर
धर्म-ध्वजा फहराओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

प्रतिभा इन्दु

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श्मशान लघुकथा | रत्ना भदौरिया

थरथर कांपता हुआ इधर उधर भटकने के बावजूद कहीं गर्माहट वाली जगह नहीं मिली ,तो एक जगह पेड़ की आड़ में बैठ गया ।जितनी तेजी से रात का समय बढ़ रहा था उतनी ही तेजी से कंपकंपाहट बढ़ रही थी। सिर ,कान ,नाक और हाथ पर एक भी कपड़ा ना होने की वजह से ऐसा लग रहा था मानो जम गया हो। शरीर पर तो फिर भी फटे पुराने कपड़े थे‌। पेड़ से दो चार बूंदें सिर पर टपक जाती और मैं अंदर तक और थर्रा जाता। गाड़ियों की आवा जाही ठप सी हो गई थी, आसमान की तरफ देखेकर ऐसा लगा कि अभी एक या दो ही बजे होंगे। तभी पेड़ों से टपक रही बूंदें शुरू हुई ये क्या लगता है बारिश तेज हो गई। अगर नहीं उठा तो राम नाम सत्य हो जायेगी, उठा और चल पड़ा कंपकंपी कम नहीं बढ़ रही थी ,बल्कि अब लथपथ भीग भी चुका था।तभी सामने आग की रोशनी सी प्रतीत हुई पास जाकर देखा तो पता चला ये श्मशान घाट है और ये जल रही लाशों की लपटें हैं।

पहले ठिठुका और पुराने दृश्य आंखों के सामने कौंध गये ,कैसे ? बचपन में ना अंधेरे में निकल पाता और ना ही घर के किसी कोने में जाता यहां तक बिस्तर या सोफे पर पैर नीचे करके नहीं हमेशा ऊपर करके बैठता। घर में अकेले रहना क्या होता है इससे कोशों दूर रहा , हमेशा यही बात का डर रहता कि भूत ना आ जाए।लेकिन एक महामारी आयी और घर का सबकुछ लेकर चली गयी,सब झटके में खत्म हुआ। जिसकी वजह से वो घर काटने को दौड़ता है। घर की प्रत्येक चीज से डर लगता है खुद नहीं समझ पाता कि अपने आप को पागल कहूं या बीमार या फिर कुछ और——।

ऐसा लगने लगा जैसे हड्डियां बोल रही हों इस कंपकंपी से इसलिए पुराने दृश्य को छोड़ श्मशान की तरफ बढ़ चला और वहीं आग के पास लेट गया,सुबह की आवाजों ने नींद तोडा आंखें खोली तो सामने देखा एक सज्जन कह रहें हैं कि ये रे पागल तू श्मशान में लाश की आग के पास लेट गया डर नहीं लगा। कैसा आदमी है तू? अरे भाई साहब ठंड की कंपकंपी से कम ही डर लगा और सबसे अच्छा तो यह लगा कि चैन की नींद आ गयी इस गरमाहट से—। वो सज्जन बुदबुदाया और वहां से चलता बना , मैं भी अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा लिया —-।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश

सलाहकार | सम्पूर्णानंद मिश्र

सलाहकार

सलाहकार
हर युग में हुए हैं राजाओं के

कुछ सलाहकार
राजा के ओंठ होते हैं
आगे-आगे राजा
पीछे- पीछे वे

वे सीधे- सीधे-सीधे
राजा के पेट में चहलकदमी करते हैं

कुछ ऐसे होते हैं
जो बिना कहे
राजा के विचार के चित्र को
अपनी सलाह की तूलिका‌ से रंग देते हैं

एक सीमा तक
इस तरह की पच्चीकारी
स्वीकारता है राजा

और कुछ ऐसे
सलाहकार होते हैं

जो दिन की रोशनी में राजा
और घोर घुप्प अंधेरी रात में
प्रजा के साथ

कुछ सलाहकार
ऐसे होते हैं जो
सत्ता के लिए

राजा के अनैतिक
कार्यों की आग में
ईर्ष्या का घी डालकर
प्रजा को उसमें झोंक देते है

और सारा कसूर
राजा के सिर मढ़ देते हैं

हर युग में
ऐसे सलाहकार रहे हैं
त्रेता में कुछ इसी तरह की
चूक राजा से हुई थी

इसीलिए गाहे-बगाहे
आज भी उस मर्यादित राजा को
इजलास में खड़ा कर दिया
जाता है

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

स्वर्ण युग का आगमन | प्रेमलता शर्मा

22 जनवरी वह पवित्र दिवस है
जब हिंदुस्तान के भाग्य जागेंगे
प्रभु अयोध्या आएंगे
फिर एक बार इस धरती पर
राम नाम ध्वजा फहराएंगे
राम नाम पर शहीद हुए जो
उनका बलिदान रंग लाया है
यह तो प्रभु की माया है
कि यह दिन अब सत्य होने वाला है
आस लिए व्याकुल नैन निहार रहे थे
कि कब प्रभु के पद रज धोकर
कई केवट भवसागर तर जाएगे
कोटि-कोटि भारतवासी के हृदय मे
इस दिन का इंतजार था
हर एक सनातनी के मन मे यही सवाल था
कब इस आर्यावर्त की भूमि पर
आर्य हमारे पधारने
धन्य है वो मां के लाल ,जिनके कर कमलो से अयोध्या का उद्धार हुआ
सतयुग मे तो एक रावण था
कलियुग मे रावण से धरती पटी पडी
इसीलिए यह लंका युद्ध अधिक लंबा
था, और प्रभु को अयोध्या लौटने इतना विलंब हुआ ।
देर हुई तो क्या हुआ राम लला घर आ ही गए ।
प्रभु के आने की खुशी मे हम सब
घर-घर दीप जलाकर दिपावली मनाएंगे ।
फिर एक बार धरती पर राम राज्य आने का सपना हम सब मिलकर सजाएगे।
प्रेमलता शर्मा ( रायबरेली)

अन्तर्चिन्तन:राम घर आते हैं | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’ | क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

अन्तर्चिन्तन::राम घर आते हैं।

दिव्य राम छवि धाम सुघर मुसकाते हैं,
जन-जन पावन दृष्टि कृपा बरसाते हैं।
युग-युग से अवध निहार रहा कब आयेंगे-
कण-कण हुआ निहाल राम घर आते हैं।1।

बर्बर नीच लुटेरों ने ऐसे दिन दिखलाया है,
कालखण्ड यह देख मुखर मुसकाया है।
जीत सदा सच की होती संघर्ष करो-,
सुदिन देख धरती पर त्रेता फिर आया है।2।

हे राम सभी निष्काम कर्म करते जायें,
उर-मर्यादित भाव धर्म के बढ़ते जायें।
खा कर शबरी-बेर,नई इक रीति बनाओ-
नवल सृजन-पथ लोग सदा चलते जायें।3।

मोक्ष दायिनी सरयू की जल धारा हो जाये,
उत्सर्गित कण-कण अवध दुबारा हो जाये।
ध्वजा सनातन पुनि अम्बर अशेष फहरे-,
अब विश्व-पूज्य यह भारत प्यारा हो जाये।4।

जैसा चाहो राम कराओ हम तो दास तुम्हारे,
अनभिज्ञ सदा छल-छद्मों से मेरी कौन सवॉरे।
निष्कपट हृदय अनुसरण तुम्हारा करता निशि दिन-,
तेरी चरण-शरण में आया तू ही मुझे उबारे।5।

रघुनाथ तुम्हारे आने की हलचल यहॉ बहुत है,
निठुर पातकी जन की धरती खलल यहॉ बहुत है।
चाह रहे हैं लोग सभी लिये त्राण की अभिलाषा-,
कब धर्म-ध्वजा फहराये उत्कंठा प्रबल बहुत है।6।

पड़ा तुम्हारे चरण में इसे शरण दो नाथ,
जब तक करुणा न मिले नहीं उठेगा माथ।
युग की प्यास बुझाई है तुमने ही आकर-,
मातु जानकी पवनसुत सहित मिलो रघुनाथ।7।

2 .क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

भारत की प्रिय प्यारी हिन्दी,
यथा सुहागन की हो बिन्दी।1।
जन्म जात अपनी यह बोली,
दीप जलाये खेले होली।2।
अधर-अधर मुस्कान बिखेरे,
वरद गान कवि चतुर चितेरे।3।
सुधा-वृष्टि-तर करती रहती,
अंजन बनकर नयन सवॅरती।4।
सबको प्रिय मन भाती हिन्दी,
विश्व-कुटुम्ब बनाती हिन्दी।5।
तुम भी गाओ मैं भी गाऊॅ,
हिन्दी का परचम लहराऊॅ।6।
धर्म – ध्वजा अम्बर लहराये,
वीणावादिनि पथ दिखलाये।7।
हिन्दी पढ़ें , पढ़ायें हिन्दी,
दुनिया को सिखलायें हिन्दी।8।
निज में शर्म , सुधार करो,
फिर हिन्दी – ऋंगार करो।9।
निज बालक कहॉ पढ़ाते हो?
क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?10।
नौकरशाह और सरकारी-
सेवक से प्रिय हिन्दी हारी।11।
शपथ सोच कर लेना होगा,
भरत-भूमि-ऋण देना होगा।12।
आओ लें संकल्प आज हम,
हिन्दी में ही करें काम हम।13।
प्रिय राम हमारे हिन्दी में,
हर काम सवॉरें हिन्दी में।14।
विश्व पूज्य यह हिन्दी होगी,
द्वेष-मुक्त प्रिय हिन्दी होगी।15।

आओ राम बिराजो | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

आओ राम बिराजो | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

बहुत दिनों के बाद बिराजे,
नव निर्मित घर राम।
बहुत दिनों के बाद आज,
यह पूर्ण हुआ है काम।
बाइस जनवरी सन् चौबीस का,
शुभ अवसर है आया।
राम की लीला कोई न जाने,
यह सब प्रभु की माया।
राम का नाम लियें सब मिलकर,
सुबह, दोपहरी, शाम।
सजी अयोध्या दुल्हन जैसी,
शोभा वरनि न जाए।
ढोल,मंजीरा,झांझ लिये,
सब मिलकर नाचे गायें।
स्वर्ग से फूल देव बरसाते,
लेकर राम का नाम।
घट-घट के वासी हैं राम,
जिनके नाम से बनते काम।
जिनके केवल दर्शन से ही,
मिल जाता है सुख का धाम।
आओ हम सब मिलकर बोलें,
जय-जय-जय-जय- जय श्री राम।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

अवध की सांस्कृतिक लोक चेतना

कहते हैं कृषि प्रधान देश भारत गाँवों में बसता है। शहरों के साथ ही बदलते हुए ग्रामीण परिवेश में आपसी प्रेम, सामंजस्य और लोक परम्परा, लोक संस्कृति लुप्त हो रही हैं। लोक संस्कृतियों के प्रति हमारी अबोधता उसके अस्तित्व की रक्षा करने में असमर्थ है। आकाश, सूर्य, चाँद, पानी, हवा, पृथ्वी आदि का हमारे जीवन का मूल आधार है। इनके महत्व को हम भूलते जा रहे हैं। और तो और, इन सब बातों में हम वक्त बर्बाद नहीं करना चाहते हैं। ईश्वर प्रदत्त हर अमूल्य निधियाँ निःशुल्क मुझे मिल रही है, फिर भी हम इन प्राकृतिक निधियों की रक्षा करने के बजाय, निरंतर दोहन कर रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि बिन सांस्कृतिक लोक के हमारा जीवन अधूरा है और इसके अभाव में हम सुखमय जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

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प्रत्येक क्षेत्र की अपनी सांस्कृतिक विशेषताएँ हैं। जिसके कारण वह क्षेत्र पहचाना जाता है। इस दृष्टि से अवध की संस्कृति और उसकी परम्पराएँ एक समृद्ध विरासत को संजोए हुए हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है अवध। यह एक भौगोलिक क्षेत्र ही नहीं, अपितु त्रेतायुग से ही एक अनूठी संस्कृति का जीता-जागता प्रमाण है, जो भारत में शायद ही कहीं देखने को मिले। जहाँ खिलते, महकते फूल, फल, मुस्कुराते मौसम, आती-जाती ऋतुएँ हैं। तीज त्यौहार, लोक कंठ से फूटे ताने धुने, धर्म-कर्म हैं। पाश्चात्य सभ्यता और वहाँ की संस्कृति के बढ़ते प्रभाव से भले ही हमारी संस्कृति क्षीण हुई हो, लेकिन अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी पूरी दमखम के साथ विद्यमान है।

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अवध क्षेत्र लगभग 12 जनपदों में विस्तारित है। यहाँ के लोक संस्कृति विविधताओं से भरी है और उनका स्वरूप आज भी गाँवों में देखने को मिलता है। जब हम त्योहारों की बात करते हैं तो अवध क्षेत्र में पूरे वर्ष भर विभिन्न प्रकार के पर्व मनाया जाते हैं। होली, दीपावाली, दशहरा, रामनवमी, दुर्गा पूजा, रक्षाबंधन आदि के अतिरिक्त इस्लाम धर्मावलंबी ईद, बकरीद, मुहर्रम, ईसाई धर्मावलंबी क्रिसमस, ईस्टर, गुड फ्राइडे, धूमधाम से मनाते हैं। यहाँ के त्योहारों की विशेषता है कि सब त्यौहार एक साथ बिन भेदभाव के मनाए जाते हैं। दशहरे में रामलीला का मंचन तो होली में झूमकर फाग होता है। व्रतों की बात करें तो, करवाचौथ हलछठ, गणेश चतुर्थी, हरितालिका तीज, रोजा (रमजान) आदि व्रत रखे जाते हैं। जो कहीं पति की लंबी उम्र के लिए, तो कहीं बालकों की लंबी उम्र के लिए महिलाओं द्वारा बड़ी आस्था के साथ रखे जाते हैं। यहाँ लोकगीतों की बहुलता है। शादी विवाह में अलग लोकगीत, ऋतुओं के अलग लोकगीत, श्रम के अलग लोकगीत और अलग-अलग जातीय नृत्य हैं। विवाह गीत गुनगुनाते हैं-
जउने अंगनवा खेली हो बिटिया, वह सुना करि जई हो।
कुछ बेरिया के बाद हो बिटिया, अपने घर का जई हो।।
सास-ससुर से मिल कर रहि हो,
वई माई बाबू तुम्हार हो।
ननद के साथै हँसीहो खेलि हो,
वई बहिनी अब तुम्हार हो।।

पुत्र जन्म पर सोहर गाने की परंपरा है, तो शादी में बन्ना विदाई गीत, भोजन करते समय गारी (गाली) आदि गाने की परंपरा है। अवध क्षेत्र में वैवाहिक रस्मों में आत्मिक प्रेम कूट-कूट कर भरा था, बराती भोजन ग्रहण करते समय गलियाँ (गारी) भी खाते थे, और ऊपर से उन गारी के बदले कुछ धनराशि भी महिलाओं को नेग रूप में देते थे। ये प्रेम डोर की प्रथा अब अतिथि ग्रहों (गेस्ट हाउस) और बफर सिस्टम ने सुरसा की भाँति निगल लिया है। शादी के गीतों में इतनी विविधता है कि तिलकोत्सव, द्वारचार के अलग गीत, सप्तपदी (सात फेरे) के अलग गीत, विदाई के अलग गीत हैं। कोई भी गीत गाने से पहले महिलाएं देवी गीत गाना नहीं भूलती हैं। जिसमें गौरी, गणेश, शीतला माँ के गीत सम्मिलित हैं। विभिन्न धार्मिक अवसरों पर देवी गीत और जागरण के गीत गाए जाते हैं जिन्हें भजन कहते हैं-
देवी आँगन मोरे आई,निहुरि कै मैं पईयाँ लागू।
काऊ देखि देवी मगन भइहैं, काऊ देखि मुस्कानी।
रानी देखि देवी मगन भई हैं, बालक देखि मुस्कानी,
देवी आँगन मोरे आई, निहुरि कै मैं पइयाँ लागू।

इन्हीं लोकगीतों के सहारे जनमानस अपने दुखों को भूल कर अपना सामंजस्य बैठाते हैं। खेती-किसानी करते समय, श्रम गीतों के गाने की प्रथा है। खेतों में धान लगाते समय गीत गाये जाते थे, जिससे सर्वधर्म समभाव के साथ किसानों में एकता, ऊर्जा और उत्साह का संचार होता रहे-

रिमझिम बरसे पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।
लहरत बा तलवा में पनिया, आवा चली धान रोपे धनियाँ।।
सोने की थारी मां ज्योना परोसे,
पिया का जेवाई आई धनियाँ।
नाच्यो गायो खुसी मनायो, भरि जइहैं कोठिला ए धनियाँ।

पहले घर की महिलाएँ मिल-जुलकर प्रातःकाल उठकर चकिया (जात) में गेहूँ पीसती थी, उसके बाद दैनिक कार्यों में लग जाती थी। जब भी कोई मेहमान आता था तो बड़े सम्मान से उन्हें भोजन कराती थी। घर की महिलाएँ चकिया में गेहूं पीसते हुए लोकगीत के माध्यम से ही मेहमानों से हालचाल पूँछती और अपनी उन्हें बताती थी। ससुराल में जात पीस रही एक स्त्री अपने भाई से बात करते हुए गाती है-
बैठहुँ न मोरे भैया रतनी पलंगिया हो न,

बहिनी कहीं जाऊ आपन हवालिया हो न।
नौ मन कूटयो भइया, नौ मन पीस्यो हो न,
भइया पहिली टिकरिया, मोर भोजनवा हो न।

इस तरह से महिलाएं अपने भाई को गीत के माध्यम से हाल-चाल बताती थी। कुछ जातियां बिरहा गाती हैं। जातीय नृत्यों में यादव गडरिया का नृत्य, धोबियों पासियों का नृत्य प्रसिद्ध है। खेद का विषय यह है कि अब यह नृत्य विलुप्तप्राय हो चुके हैं। इस प्रकार के नृत्य करने वाले लोग उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। अब इन नृत्यकारों को संरक्षित और इन पर शोध करने की आवश्यकता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति इन नृत्य-गीतों को न सीखना चाहता है और न ही अपने बच्चों को सिखाना चाहते हैं। कारण समाज अब नृत्य करने वालों को हेय दृष्टि से देखने लगा है, समाज को ऐसी कुत्सित विचारधारा बदलनी होगी। डीजे के युग में दिल पर सीधा कुप्रहार करने वाले गीतों की भीड़ में लोकनृत्यों का अस्तित्व समाप्त की ओर है।
फाल्गुन हिन्दू कैलेंडर का अंतिम महीना है। रंगों का त्योहार होली के मौसम में एक महीना तक अर्थात वसंत पंचमी से शीतलाष्टमी तक फ़ाग की धूम रहती है। बड़े-बड़े ढोल-नगाड़ों की थाप पर फाग गाए जाते हैं और किसी प्रतिष्ठित स्थान पर फाग की प्रतियोगिता भी आयोजित होती है। चौताल, डेढ़ताल, ढाईताल फाग ढोलक की थाप पर सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। कवि दुलारे ने तो अमर शहीद राणा बेनीमाधव सिंह पर डेढ़ताल का फाग ही लिख डाला। जिसको न गाया जाय तो फाग अधूरा माना जाता है-

अवध मां राना भैयो मरदाना।
पहिल लड़ाई भई बकसर मां, सेमरी के मैदाना।
हुवाँ से जाय पुरवा मां जीत्यो, तबै लाट घबराना।
नक्की मिले, मान सिंह मिलिगै, जानै सुदर्शन काना।।
अवध मां राना भयो मरदाना।।

अवध की संस्कृति सामूहिकता पर आधारित है जो समूह को महत्व देती है। नौटंकी यहाँ की प्रमुख लोककला है। शादी के दिन जब सभी पुरुष बारात चले जाते हैं तब रात्रि में घर की सुरक्षा व्यवस्था बनाये रखने के लिए महिलाएँ रातिजगा करती हैं। जिसके लिए रात्रि में स्त्रियाँ अपना रूप बदलते हुए चोर, पुलिस, किसान, पुरुष आदि का भेष बनाकर खेलती थी, जिसे नकटा कहा जाता था। ये परम्परा भी अंतिम साँसे गिन रही है। स्त्रियाँ स्वांग प्रहसन् करके रात भर जागती हैं, जिससे घर में किसी प्रकार का कोई खतरा उत्पन्न न हो।
वर्षा ऋतु में ढोलक, हारमोनियम, बीन की थाप और धुन पर पर अल्हैत लोग हिंदी साहित्य का वीर रस से ओतप्रोत आल्हा गाते हैं और जनमानस में वीरता व ओज का संचार करते हैं। आल्हा यद्यपि बुंदेलखंड की पावन धरती, विशेषकर महोबा, उरई, जालौन क्षेत्र की विधा है, क्योंकि आल्हा यादव और उदल यादव बुंदेलखंड के महोबा में पैदा हुए थे लेकिन उनकी वीरता की कहानियाँ पूरे उत्तर भारत में आल्हा गायन के रूप में गाई जाती हैं। उन्नाव जनपद के नारायणदास खेड़ा निवासी श्री लल्लू बाजपेई को आल्हा सम्राट कहा जाता है। रामरथ पांडेय (लालगंज) आल्हा गायन में मशहूर हैं। लल्लू बाजपेई के आल्हा की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं-

बड़े लड़ाईया महोबे वाले इनकी मार सही ना जाए।
एक को मारे दो मर जाएँ, मरै तीसरा दहशत खाए।।

ये तो परमसत्य है कि लोकगीतों के स्रोत विलुप्त होते जा रहे हैं। लोग जीवन में जैसे-जैसे आपसी सहयोग और सद्भाव विलुप्त हो रहा है, उसी तरह हमारी प्राचीन संस्कृति भी विलुप्त होने के कगार पर है। हम तो उस देश के वासी हैं, जहाँ हर कदम, हर पर्व पर खुशी मिल-जुलकर बाँटते हैं। हर त्योहार का कोई न कोई गीत भी सामूहिक गान के रूप में गया जाता है। जैसे गीतों में सावन कजरी गाई जाती है। यद्यपि कजरी गीत का मूल स्रोत मिर्जापुर माना गया है, लेकिन अवध के विभिन्न जनपदों में कजरी बहुतायत गाई जाती है। पूरा श्रावण मास ही भगवान शिव को समर्पित है। सावन के महीने में पेड़ो की शाखाओं पर झूले पड़ जाते हैं। महिलाएँ झूले पर झूलते हुए गाती हैं। इस प्रकार के गीतों से परिवार व पड़ोसियों से बिगड़े हुए मधुर सम्बन्ध भी बन जाते हैं-

कहाँ से आये श्याम बनवारी, कहाँ से आई राधिका रानी।
गोकुल से आए बनवारी ,
मथुरा आई राधिका प्यारी।।
कि झोंका धीरे से देओ, हमें डर लगता भारी।
डरो मत राधिका प्यारी, हमें तो तुम जान से प्यारी।।

कृष्ण जन्माष्टमी के समय सोहर, भजन, धार्मिक गीत गाए जाते हैं। नृत्य की बात करें तो धोबियों (निर्मल) के लोकनृत्य में अब माइक का प्रयोग होने लगा है। पहले कमर में घंटी बाँधकर लहंगा पहनकर और बांसुरी लेकर नाचने वाला व्यक्ति जब बाँसुरी की तान छेड़ता था तो, दर्शक व श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। इस नृत्य में मुख्य रूप से मृदंग और कसावत वाद्य यंत्र होता था। एक आदमी प्रकाश के लिए मशाल जलाकर आगे-आगे चलता था।
यादवों (अहीरों) के लोकनृत्य में घुँघरू वाले जाँघिया को धोती के ऊपर पहनते और 7 मीटर का पटुका बाँधते थे। इनके वाद्य यंत्रों में नगाड़ा और नगरची होते थे। इनमें नाचने वालों को गॉंव के लोग नचनिया समझते थे।
इन्हीं लोकनृत्य में एक प्रमुख लिल्ली घोड़ी का नृत्य बहुत प्रसिद्ध था। शुभ अवसर पर एक व्यक्ति काठ के घोड़े को सजा कर अपनी कमर में रस्सी के सहारे पहन लेता है, तत्पश्चात सुंदर मनमोहक नृत्य करता था। इसे देखकर बच्चे और स्त्रियाँ अति प्रसन्न होते थे।
प्राचीन काल से ही अवध की संस्कृति में खान-पान, रहन-सहन और वेशभूषा की विशेषता रही है। अनेक अवसरों पर नाना प्रकार के पकवान बनाए जाने की परंपरा रही है। जैसे होली में गुझिया पापड़, बरगदाही में बरगद गुलगुले, गुरुपूर्णिमा असाड़ी को बेसन की बेढ़ई, नागपंचमी में गेहूं चने की घुघरी, दीपावली को लाई चूरा रेवड़ी चीनी के खिलौने, गणेश चतुर्थी को तिलवा लड्डू धूंधा, मकर संक्रांति में घी खिचड़ी नीम्बू आदि बनाए जाने की परंपरा रही है। मशीनीकरण और अर्थ के युग मे अब ये सब समाप्ति की ओर है। लोग अनपढ़ थे, परन्तु वैज्ञानिक ज्ञान उनके अंदर कूट-कूट कर भरा था। शायद इसीलिए मौसम अनुसार खाद्य पदार्थ बनते थे, जो शरीर के लिए लाभदायक है। किंतु आज हम भोजन के साथ मिलावटी पदार्थ अर्थात मीठा जहर खा रहे हैं।
अवध की संस्कृति गाँव की संस्कृति है। सद्भाव और सहकार इसके मूल में बसा है। आधुनिकता की चकाचौंध में अवध की संस्कृति अभी भी जीवित है। हाँ, संकट भी मंडरा रहा है। गाँव की विभिन्न कथाएँ-प्रथाएँ दम तोड़ने लगी है, जो पहले दिलों को जोड़ने वाली होती थी। विवाह के समय दुल्हन के यहाँ बारात 3 दिन रुकती थी और अब 3 घंटे में बरात हो जाती है। क्योंकि अब बारात दिल जोड़ने वाली नहीं, अपितु अर्थ जोड़ने वाली हो गयी है। बारात की तैयारियों में पूरा गाँव लग जाता था। ग्रामीणों की चारपाई आ जाती थी। बर्तन, ड्रम आदि सब मिल जाते थे। इन सबसे अर्थ बचत और एकता बढ़ती थी। आज इंसान ये सब करने में खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। हम डीजे की कानफोड़ू आवाज और जगमगाती रोशनी के द्वारा अपनी सभ्यता और संस्कृति को नहीं बचा सकते हैं। आज सगे संबंधियों का नाता भी पकवानों तक सीमित हो गया है। मेहमान, मित्र आदि भोजन का अंदाजा लगा कर ही घरों से निकलते हैं, जिसके कारण दूरियाँ बढ़ गयी हैं-
बफर सिस्टम सबसे महान।
न कोउ भूखा, न अघान।।
हुआँ तो धक्का मुक्की की बहार है।
कहते हैं कि समरसता की फुहार है।।
कोउ गुस्से मा लाल पीला,
तो कोहू का कपड़ा लाल पीला।
यह सब अवगुण कहीं नहीं अखिल भारत और अवध के लिए घातक सिद्ध होंगे। धर्म, वंश, जाति, लिंग भेद से बहुत ऊपर उठकर हमें अपनी विलुप्त होती जा रही जड़ों पर विचार करना होगा, अन्यथा हमारी लोक संस्कृति किस्सा-कहानी तक सीमित और सपना बनकर रह जायेगी।

डॉ० अशोक कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, दूरभाष नगर
रायबरेली
मो० 9415951459

कोहरा | Hindi Kavita | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

कोहरा

कोहरे में सनें शहर- गांव,
लगता है चारों तरफ छांव।
दूर तक धुंधलापन दिखता,
धरती का नया रूप खिलता।
जिधर देखो धुआं- धुआं है,
पास का नहीं कुछ भी दिखता।
सूरज ने सबको दिया दांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
ठंडक नें रूप है दिखाया,
जैसे मेहमान नया आया।
सर्दी से बचने की खातिर,
लोगों ने आग है जलाया।
ठंडक से जकड़े हाथ पांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
चौपाये ठंड से हैं कांपते,
पक्षी भी घोसलों से झांकते।
कहीं अगर जाने की सोचो,
नज़र नहीं आते हैं रास्ते।
नदिया में चलती नहीं नाव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
नीचे को गिर रहा पारा,
अब केवल आग का सहारा।
कैसे कटेगी रात मेरी,
सोचता है बुधिया बेचारा।
दूसरा नहीं कोई ठांव,

कोहरे में सनें शहर- गांव ।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

सिलवटें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

सिलवटें | पुष्पा श्रीवास्तव शैली

मन की चादर पर पड़ी जो सिलवटें,
उम्र देकर ही मिटाती रह गई।
गिर गए कुछ पल सुनहरी मोतियों के,
ढूंढ कर उनको उठाती रह गई।

एक कोने में जला दी रोशनी अब
की अंधेरा अब न भरने पाएगा।
खिड़कियां भी खोल दी मन के जिरह पर,
अब तो झोंका संदली हो आएगा।

कुछ गुलाबी सी किरन भी आ गई तो,
मन गुलाबों सा खिला हो जायेगा।
बारिशें भी हो गईं तो पूछना क्या?
घर से आंगन तक धुला हो जाएगा।

जाग जाती काश सोई भीतियां सब,
तालियां ही मैं बजाती रह गई।
और निंदिया का हिडोला आन उतरे,
लोरियां मन को सुनाती रह गई।

आ गई है नींद किंतु मोतियां तो,
आज भी बिखरी हुई हैं जिंदगी में ।
सिलवटें सुधरी न चादर ही बदल कर,
सुरमई संध्या बुलाती रह गई।।

पुष्पा श्रीवास्तव शैली