मधुमास लौट फिर से आया | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

पीत बसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया,
अंग-अंग में अंगड़ाई है,
मधुमास लौट फिर से आया।टेक।

नयनों में सतरंगी सपने,
आते-जाते लगते अपने,
सुधि की मोहक अमराई में,
चॉद लगा मन को चुभने।
धरा वधूटी सी सज-धज कर,
नव नेहिल वारिद मॅडराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।1।

लूट लिया था पतझर ने कल,
तरु-तर उपवन रूप विमल,
कोंपल,किसलय,लतिका मचले-,
कलिका बिहॅसे मधुर धवल।
रोम-रोम में मादक सिहरन,
कुंज-निकुंज शलभ बौराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।2।

कल आयेगी भोर सुहावन,
भर जायेगी डेहरी-ऑगन,
पुलक धिरकते खग-कुल देखो-,
नवल व्योम छवि रूप लुभावन।
भंग पिये बिन मस्त भृंग से,
मधु माधव ने फिर बिखराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली

कोहरा | Hindi Kavita | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

कोहरा

कोहरे में सनें शहर- गांव,
लगता है चारों तरफ छांव।
दूर तक धुंधलापन दिखता,
धरती का नया रूप खिलता।
जिधर देखो धुआं- धुआं है,
पास का नहीं कुछ भी दिखता।
सूरज ने सबको दिया दांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
ठंडक नें रूप है दिखाया,
जैसे मेहमान नया आया।
सर्दी से बचने की खातिर,
लोगों ने आग है जलाया।
ठंडक से जकड़े हाथ पांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
चौपाये ठंड से हैं कांपते,
पक्षी भी घोसलों से झांकते।
कहीं अगर जाने की सोचो,
नज़र नहीं आते हैं रास्ते।
नदिया में चलती नहीं नाव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
नीचे को गिर रहा पारा,
अब केवल आग का सहारा।
कैसे कटेगी रात मेरी,
सोचता है बुधिया बेचारा।
दूसरा नहीं कोई ठांव,

कोहरे में सनें शहर- गांव ।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

जनकवि सुखराम शर्मा सागर की कविता | हिंदी रचनाकार

अभी सवेरा यतन कीजिए

अभी सवेरा यतन कीजिए

जो बचा है उसको जतन कीजिए
बने हैं राजा रंक यहां पर
दिलों में दीपक जला दीजिए
मिली जो शोहरत नहीं मुकम्मल
कौन है अपना नहीं है मुमकिन
बोया है जैसा वही मिलेगा
अजीब करिश्मा समझ लीजिए
दिलों में दीपक जला दीजिए
माता-पिता है जहां में भगवन
प्रकृति का मकसद समझ लीजिए
सागर की लहरें आती है जाती
मैल दिलों के समन कीजिए
उम्मीद तुमसे किया जो अपने
वही करे जो फर्ज समझिए
नापूरी होगी ख्वाहिश सभी की
माया की नगरी समझ लीजिए
जो बचा है उसका जतन कीजिए
अभी सवेरा यतन कीजिए

जनकवि सुखराम शर्मा सागर

मर्म


सुख दुख के भव सागर में
अपने मन की प्यास छिपाए
तन मन हारा हारा है
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
जब था सब कुछ पास हमारे
अपना बनाया बन सबके प्यारे
बिरले दुख में बने है साथी
हकदार बने अब सभी बाराती
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
अपने प्रसाद में बने प्रवासी
भ पसीना था सपन संजोया
जेसीबी हो अब नियति तुम्हारी
माया में किया को जरा
अपनों से ही अपनों ने हार
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
बसंत सुहाना आए जाए
पतझड़ से ना विस्मित हो जाए
यस अपयस रह जाए सारा
सुखसागर ही एक सहारा
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा

जनकवि सुखराम शर्मा सागर

मैंने ऐसी प्रीति देखी है | हिंदी गीत | डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

मैंने ऐसी प्रीति देखी है | हिंदी गीत | डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

मैंने ऐसी प्रीति देखी है
जिससे लाज सॅवर जाती है
मैंने ऐसी रीति देखी है
नैया बीच भ‌ॅवर जाती है ।

बादल भी कुछ ऐसे देखे
जो केवल गरजा करते हैं
उनमें कुछ ऐसे भी देखे
जो केवल वर्षा करते हैं ।

कहीं-कहीं तो हमने देखा
अपनों के ख़ातिर मरते हैं
अपनों को कुछ ऐसा देखा
अपने ही मारा करते हैं ।

सोचा कुछ अनसोचा देखा
दूर बहुत कुछ पास से देखा
जैसा दिखता वैसा ना वह
झूठी लेकिन आस से देखा ।

इसको उसको सबको देखा
नीरज जीवन भर है देखा
देखा कुछ अनदेखा देखा
रहे सुनिश्चित हर क्षण है लेखा ।

डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज
गीतकार रायबरेली

वह बूढ़ा पेड़ | सम्पूर्णानंद मिश्र

वह बूढ़ा पेड़

गांव की ड्योढ़ी पर आज
वह बूढ़ा पेड़ नहीं दिखा मुझे

जिसकी डालियों की देह पर
चींटियां इत्मीनान से अपना निवाला निर्विघ्न लेकर आती थी

किसी आगत ख़तरे में
उन पेड़ों के कोटर में
गिलहरियां छुप जाया करती थी

गांव की सुहागिन
लड़कियां सावन में
पेड़ की लचीली डालियों पर
झूलते हुए‌ प्रिय के पास अपनी प्रेम- पाती पहुंचाती थी

वह बूढ़ा पेड़ गांव के
बच्चों को संस्कारों का ककहरा सिखाता था

बूढ़ों की खिलखिलाहट
उसी पेड़ में बसती थी

न जाने कितनी विधवाओं की मांगों में सिंदूरी रंग डाला था
पंचायत ने उसी बूढ़े पेड़ के निर्णय पर

उस बूढ़े पेड़ के
हस्ताक्षर के बिना
गांव का कोई मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं होता था

वह बूढ़ा पेड़
मानों गवाह था
गांव के शुभ और अशुभ कर्मों का

लेकिन वह बंद रखता था
हमेशा अपना मुंह

राग और द्वेष से
मुक्त था वह

गांव के सबल लोग
कभी- कभी
अनायास उससे टकराते थे

क्योंकि
उस बूढ़े पेड़ ने
अपने पेट में न जाने गांव के कितने श्वेत चेहरों के पापों की गठरियों को छिपाए हुए था

न जाने कौन सी आंधी
कल रात आई

कि उस बूढ़े पेड़ की आंखें
आज नीली हो गई

सैकड़ों कौओं से
वह बूढ़ा पेड़ आज घिरा हुआ था

छोटी- बड़ी चिटियां निष्कंटक उसकी देह पर चहलकदमी कर रही थी

आज वह बूढ़ा नहीं जगा!

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
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shiksha ka moolyaankan/सीताराम चौहान पथिक

shiksha ka moolyaankan: सीताराम चौहान पथिक की रचना शिक्षा का मूल्यांकन जो वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर कटाक्ष है प्रस्तुत है –


शिक्षा का मूल्यांकन ।

विश्व विद्या्लय ज्ञान का विश्व-मन्दिर ।
अथवा उच्च शिक्षा का

आधुनिक फैशन- रैम्प ॽ
वहां- फैशन रैम्प – पर

टिकटों द्वारा प्रवेश होता है ,
यहां- शिक्षा परिसर – रैम्प पर

प्रवेश निशुल्क है ।

प्रातः से सांय तक रंग- बिरंगे

डिजाइनदार अल्प – परिधानों मे ,
तितलियों की कैटवाक होती है

शोख अदाओं के साथ ,
शिक्षा – परिसर नहीं ,

मानों फिल्मी स्टूडियो हो ।
रैगिंग प्रतिबंधित होने से

भ्रमरो को थामना पड़ता है
दूर से कलेजा अपने हाथ । जी हां ,

यही शिक्षा का विश्व – विद्यालय परिसर है ।
शिक्षा- संस्कृति और सभ्यता का केन्द्र ।
किन्तु शिक्षा कैसी — कक्षाओं में

छात्र नदारद
कैंटीनों में चटपटे व्यंजनों का
रसास्वादन करते ,
रोमांस करते छात्रों की टोलियां ।।

संस्कृति के नाम पर

पश्चिम का भद्दा अंधानुकरण ।
भारतीय भाषाओं का उपहास ।
दासता की प्रतीक अंग्रेजी का वर्चस्व ।
यही है हमारे राष्ट्रीय नेताओं
की कथनी-करनी का अन्तर।
भारत की राष्ट्रीयता पर
कुठाराघात ।
नैतिकता का गिरता स्तर ।

अब समय आ गया है ,
मैकाले की शिक्षा – प्रणाली पर

पुनर्विचार करने का ,
अर्धनग्न फैशन – प्रवॄति को
करना होगा दृढ़तापूर्वक हतोत्साहित ।
छात्रों को स्कूलों की तरह देना होगा ,
राष्ट्रीय ड्रेस – कोड ।
शिक्षा – परिसर में

महापुरुषों की अमॄत -वाणी का
गुंजाना होगा जय – घोष ।

देश- भक्त  क्रान्ति कारियो के

उल्लेखनीय योगदान का ,
पाठ्य- पुस्तको में करना होगा

निष्ठापूर्वक समावेश ।
तभी होगी भारतीय शिक्षा सार्थक एवं निर्दोष

shiksha- ka- moolyaankan
सीताराम चौहान पथिक

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hindi kavita sine media darpan /सिने – मीडिया दर्पण|

हिंदी  रचनाकार का प्रयास रहता है hindi kavita sine media darpan समाज से जुडी कविता पाठकों के सामने प्रस्तुत हो  वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक की रचना सिने – मीडिया दर्पण उस कथन को चरित्रार्थ  कर रही हैं । २०२० में ऐसा ही हुआ जब जाने- माने अभिनेता ने अपने मायानगरी निवास पर आत्महत्या कर ली जब इस मामले को जनता के सामने प्रस्तुत किया तो बहुत सवाल सभी के मन में थे कि जाने -माने अभिनेता ने सब कुछ होते हुए भी खुदखुशी क्यों की इन सभी बिंदुओं को अपनी लेखनी में संजोया हैं वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक ने अपनी रचना में ,हमें आशा है कि काफी सवाल आपके इस कविता को पढ़ने के बाद हल होंगे ।

सिने – मीडिया दर्पण

(hindi kavita sine media darpan )


कहां गयी संवेदना,

कहां गए सुविचार ।
मर्यादाएं सो गयी,

जाग रहा व्यभिचार

नैतिकता सिर धुन रही,

फूहड़ता का राज ।
कामुक फिल्में शीर्ष पर,

जुबली मनती आज ।।

कहां ॽ सिनेमा स्वर्ण- युग,

राष्ट्र – भक्ति के गीत ।
ओजस्वी पट- कथा पर,

संवादों की नीति ।।

बच्चे- बूढ़े औ तरुण,

भिन्न मतों के लोग ।
फिल्में थीं तब आईना ,

प्रेरित होते लोग ।।

लौटेगा क्या फिर कभी ॽ

स्वर्ण- काल सुर- धाम ।
धर्म – नीति – इतिहास पर ,

फिल्में बनें तमाम ।।

अब फिल्में विष घोलती ,

अपराधों की बाढ़ ।
बलात्कार है शिखर पर ,

लज्जा हुई उघाड़ ।।

परिधान अल्प,

अध- नग्न तन बालाओं की धूम ।
सिने – मीडिया मस्त है ,

लोग रहें हैं झूम ।।

मायानगरी को लगा ,

चरित्र – हनन का रोग ।
बच्चे कामुक हो रहे ,

निश्चिन्त दीखते लोग ।।

भारतीय संस्कृति का ,

नित – नित होता लोप ।
कब चेतेगा सिनेमा ॽ

बरसेगा जब कोप ।।

है भारत- सरकार से,

साहित्य – कार की मांग ।

अंकुश कसो प्रमाद पर

पथिक-रचो नहिं स्वांग ।।

hindi-kavita-sine-media-darpan

सीताराम चौहान पथिक

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 तुम धुआं हवन का हो जाते/ सृष्टि कुमार श्रीवास्तव

तुम धुआं हवन का हो जाते 


कुछ प्रश्नो के उत्तर होते हैं
कुछ प्रश्न स्वयं उत्तर होते।

 

लहरें आ आ कर टकराती
तन मन को बोझिल कर जातीं
फिर गीत घुमड़ते सीने मेँ
आँखें आंसू से भर आतीं

 

ऐ काश नदी तुम हो जाते
हम घाटों के पत्थर होते।

 

सब कुछ कहकर भी लगता है
कुछ बातें फिर भी रह जातीं
होंठों के बस की बात नही
जो मौन निगाहें कह जातीं

 

शब्दों से ज्यादा अर्थवान
भावों के विह्वल स्वर होते।

 

पीड़ा के पर्वत का गलना
गंगा की लहरों का नर्तन
धरती अम्बर की बांहों मे
कुछ और नही ये आकर्षण

 

तुम धुआं हवन का हो जाते
हम मंत्रों के अक्षर होते।

tum-dhuaan-havan-ka-ho-jaateसृष्टि कुमार श्रीवास्तव

Pratibha Indu ki kavita-कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

(Pratibha indu ki kavita)


कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

ऊपर हमको उठना है

उत्साह हमारा न गिरने पाए ,

लिख दें ऐसा गीत जो

सारी दुनिया ही गा जाए ।

भूलकर बीते क्षणों को नया

मुकाम हमें पाना है ।

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

है बीता जो अशुभ उसे

रखना नहीं है याद हमें ,

 

नव आस लिए नव भाव लिए

करनी है फरियाद हमें।

 

प्रकाशित हो सबका जीवन

हमें ऐसी लौ को जगाना है ।

 

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

स्वस्थ रहें सब सुखी रहें

ऐसी हो अभिलाषाएं,

 

पूरी हों सबकी फिर

उम्मीदों की आशाएं।

 

ले हमको संकल्प अडिग

ये नव वर्ष मनाना है ।

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें

देकर ये जाता साल पुराना है।

 

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।

प्रतिभा इन्दु
भिवाडी़, राजस्थान

hindi kavita shabd pujaaree-शब्द का हूं मै  पुजारी

वरिष्ठ कवि सृष्टि कुमार श्रीवास्तव की’हिंदी कविता शब्द का हूं मै  पुजारी-hindi kavita shabd pujaaree हिंदी रचनाकार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। कविता मे लेखक ने अपने अनुभवों को पक्तियों के माध्यम से हिंदी कविता शब्द का हूं मै  पुजारी-  मे पिरोया है पाठक कविता को समझे और अपने भाव कमेंट के रूप मे व्यक्त करें ।

शब्द का हूं मै  पुजारी (hindi kavita shabd pujaaree)


शब्द का हूं मै  पुजारी

भावना का   सार   हूं।

मै   ऊषा  का गीत हूं

सूर्य   का उपहार  हूं।

अश्रु    मेरे     सूर्यवंशी

चन्द्रवंशी   हैं   व्यथायें

मंत्र    बनकर   गूंजती

जो लिखी मैने ऋचाएं।

तुम हँसे   मै   चुप रहा

ये   समय की   बात है।

ये न समझो मै तुम्हारे

सामने    लाचार     हूं।

बांसुरी बजती नही ती

बांसुरी   को   तोड़ दो।

साथ चलना है कठिन

तो साथ मेरा छोड़  दो।

सुख नही   निर्भर मेरा

रूप के   रति धर्म  पर।

संसार  मे हूं   मै  मगर

मै    नही    संसार   हूं।

राह    मे   कांटे  मिलेंगे

पूर्व  से  मै   जानता  हूं।

मंच का भ्रम   सामने है

सत्य  को पहचानता हूं।

आचरण पर आवरण का

मै  रहा   कब     पक्षधर।

व्यक्ति  मत समझो मुझे

मै   अमृत     विचार   हूं।

hindi- kavita- shabd- pujaaree1
सृष्टि कुमार श्रीवास्तव

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