जनकवि सुखराम शर्मा सागर की कविता | हिंदी रचनाकार

अभी सवेरा यतन कीजिए

अभी सवेरा यतन कीजिए

जो बचा है उसको जतन कीजिए
बने हैं राजा रंक यहां पर
दिलों में दीपक जला दीजिए
मिली जो शोहरत नहीं मुकम्मल
कौन है अपना नहीं है मुमकिन
बोया है जैसा वही मिलेगा
अजीब करिश्मा समझ लीजिए
दिलों में दीपक जला दीजिए
माता-पिता है जहां में भगवन
प्रकृति का मकसद समझ लीजिए
सागर की लहरें आती है जाती
मैल दिलों के समन कीजिए
उम्मीद तुमसे किया जो अपने
वही करे जो फर्ज समझिए
नापूरी होगी ख्वाहिश सभी की
माया की नगरी समझ लीजिए
जो बचा है उसका जतन कीजिए
अभी सवेरा यतन कीजिए

जनकवि सुखराम शर्मा सागर

मर्म


सुख दुख के भव सागर में
अपने मन की प्यास छिपाए
तन मन हारा हारा है
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
जब था सब कुछ पास हमारे
अपना बनाया बन सबके प्यारे
बिरले दुख में बने है साथी
हकदार बने अब सभी बाराती
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
अपने प्रसाद में बने प्रवासी
भ पसीना था सपन संजोया
जेसीबी हो अब नियति तुम्हारी
माया में किया को जरा
अपनों से ही अपनों ने हार
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा
बसंत सुहाना आए जाए
पतझड़ से ना विस्मित हो जाए
यस अपयस रह जाए सारा
सुखसागर ही एक सहारा
अपनों ने मजधार में मारा
फर्ज हमारा मर्म तुम्हारा

जनकवि सुखराम शर्मा सागर