मधुमास लौट फिर से आया | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’

पीत बसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया,
अंग-अंग में अंगड़ाई है,
मधुमास लौट फिर से आया।टेक।

नयनों में सतरंगी सपने,
आते-जाते लगते अपने,
सुधि की मोहक अमराई में,
चॉद लगा मन को चुभने।
धरा वधूटी सी सज-धज कर,
नव नेहिल वारिद मॅडराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।1।

लूट लिया था पतझर ने कल,
तरु-तर उपवन रूप विमल,
कोंपल,किसलय,लतिका मचले-,
कलिका बिहॅसे मधुर धवल।
रोम-रोम में मादक सिहरन,
कुंज-निकुंज शलभ बौराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।2।

कल आयेगी भोर सुहावन,
भर जायेगी डेहरी-ऑगन,
पुलक धिरकते खग-कुल देखो-,
नवल व्योम छवि रूप लुभावन।
भंग पिये बिन मस्त भृंग से,
मधु माधव ने फिर बिखराया।
पीत वसन धरती ने ओढ़ी,
यौवन फसलों का गदराया।3।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश;
रायबरेली

मुक्ति का द्वार है | सम्पूर्णानंद मिश्र

मुक्ति का द्वार है | सम्पूर्णानंद मिश्र

स्त्री
हाड़, मांस,
और लोथड़े से निर्मित
सिर्फ़ एक देह नहीं है

जिसके लोथड़े को
नोंच लिया जाय
जब चाहे
और उसकी हड्डियों को
गली के
अन्यान्य कुत्तों के लिए
छोड़ दिया जाय

वह
एक आत्मा है
जो मुक्कमल शरीर में बसती है

जिस दिन
यह निकल जाय
पूरी गृहस्थी रोती है

ओढ़ती है जो
दु:खों की फटी चादर

लेकिन
अपने दु:खों के
आंसुओं के छींटों से
पुत्रों को नहीं भिगोती

उजड़ी
गृहस्थी की सिलाई
वह अपने
संतोष की सूई से करती है

लेकिन
अपनी पीड़ा की उल्टियां
करके
किसी की
दया के जल से अपना
और अपनी संतति का
मुंह नहीं धोती है

स्त्री देह नहीं है
हाड़- मांस का सिर्फ़
एक पुतला नहीं है

वह तो मुक्ति का
एक खुला द्वार है!

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

राम लौट घर आये हैं। हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश

आओ मिल-जुल खुशी मनायें,
राम लौट घर आये हैं,
चलो अवध सन्देशा लेकर,
घर-घर अक्षत आये हैं।टेक।

गहन निशा की मिटी कालिमा,
दुर्दिन सारा बीत गया,
नये भोर की अगवानी को,
बरस पॉच सौ रीत गया।
रात अंधेरी गुजर गई अब,
नव प्रभात फिर आये हैं।
आओ मिल-जुल खुशी मनायें,
राम लौट घर आये हैं1।

विध्वंसक भाव विचारों की,
हो गई पराजित बर्बरता,
सत्य-न्याय का बिगुल बज रहा,
चहॅक उठी है मानवता।
राष्ट्र-धर्म के गीत सुनाते,
अधर सुधा छलकाये हैं।
आओ मिल-जुल खुशी मनायें,
राम लौट घर आये हैं।।2।

क्षिति-जल-अम्बर जगत देखता,
दसों दिशायें , दनुज , देवता।
शेष विधर्मी राह झॉकते,
चाह रहे कुछ मिले नेवता।
विश्व-पटल पर कौतूहल के,
मेघ सनातन छाये हैं।
आओ मिल-जुल खुशी मनायें,
राम लौट घर आये हैं।3।

निरख नियति की व्यग्र भावना,
करते कोटिक कंठ साधना।
राम हमारे सभी राम के,
कौन अभागा जिसे चाव ना।
धन्य सुपावन भूमि अवध की,
हनुमत शीश नवाये हैं।
आओ मिल-जुल खुशी मनायें,
राम लौट घर आये हैं।4।

रचना मौलिक,अप्रकाशित,स्वरचित,सर्वाधिकार सुरक्षित है।

हरिश्चन्द्र त्रिपाठी’हरीश;
रायबरेली (उप्र) 229010

नए भवन में | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश

राम आए पधारे,
नए भवन में।
नींद भर करके सोए,
नए भवन में।
साथ लक्ष्मण,मां सीता,
और हनुमत भी हैं।
साथ उनके ये सारा,
जनमत भी है।
सारी खुशियां पधारीं,
नए भवन में।
भाई शत्रुघ्न,भरत,
कैकई,कौशल्या भी।
राजा दशरथ, सुमित्रा,
आई उर्मिला भी।
देख खुशियां मनाईं,
नए भवन में।
सरयू नदिया का पानी,
भी इठलाता है।
आज कितना हूं खुश,
सबको बतलाता है।
प्रीति की फुहार बरसी,
नए भवन में।
राम जी की कृपा,
सदा सबको मिले।
उनके आशीष से,
जीवन सबका खिले।
स्वर्ग से फूल बरसे,
नए भवन में।
अब तो ‘दुर्गेश’ का,
मन उछलनें लगा।
हर घड़ी राम का,
नाम जपने लगा।
बहे खुशियों के आंसू,

नए भवन में।

(सारे अधिकार लेखक के आधीन)
दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश

सखियां मंगल गाओ | प्रतिभा इन्दु

आने वाला है वह शुभ दिन
मिलकर हर्ष मनाओ ,
आयेंगे श्री राम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

वर्षों से प्यासी आँखों में
नूतन आस जगी है ,
आने वाला है वह क्षण , उस
पथ पर दृष्टि लगी है ।
द्वार-द्वार पर बनी रंगोली
कंचन थाल सजाओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

इंतजार के बाद सामने
चिर प्रतीक्षित घड़ियाँ ,
सारी अड़चन दूर हुई अब
टूट गई हथकड़ियाँ ।
प्रभु के पग जिस जगह पड़ेंगे
उस पर फूल सजाओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

राम पिता हैं सकल विश्व के
जननी सीता माई ,
धर्म , अर्थ औ” काम,मोक्ष हैं
रघुवर चारों भाई ।
नवल रंग , नूतन उमंग भर
धर्म-ध्वजा फहराओ !
आयेंगे श्रीराम अवध में
सखियाँ मंगल गाओ !

प्रतिभा इन्दु

सलाहकार | सम्पूर्णानंद मिश्र

सलाहकार

सलाहकार
हर युग में हुए हैं राजाओं के

कुछ सलाहकार
राजा के ओंठ होते हैं
आगे-आगे राजा
पीछे- पीछे वे

वे सीधे- सीधे-सीधे
राजा के पेट में चहलकदमी करते हैं

कुछ ऐसे होते हैं
जो बिना कहे
राजा के विचार के चित्र को
अपनी सलाह की तूलिका‌ से रंग देते हैं

एक सीमा तक
इस तरह की पच्चीकारी
स्वीकारता है राजा

और कुछ ऐसे
सलाहकार होते हैं

जो दिन की रोशनी में राजा
और घोर घुप्प अंधेरी रात में
प्रजा के साथ

कुछ सलाहकार
ऐसे होते हैं जो
सत्ता के लिए

राजा के अनैतिक
कार्यों की आग में
ईर्ष्या का घी डालकर
प्रजा को उसमें झोंक देते है

और सारा कसूर
राजा के सिर मढ़ देते हैं

हर युग में
ऐसे सलाहकार रहे हैं
त्रेता में कुछ इसी तरह की
चूक राजा से हुई थी

इसीलिए गाहे-बगाहे
आज भी उस मर्यादित राजा को
इजलास में खड़ा कर दिया
जाता है

सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874

स्वर्ण युग का आगमन | प्रेमलता शर्मा

22 जनवरी वह पवित्र दिवस है
जब हिंदुस्तान के भाग्य जागेंगे
प्रभु अयोध्या आएंगे
फिर एक बार इस धरती पर
राम नाम ध्वजा फहराएंगे
राम नाम पर शहीद हुए जो
उनका बलिदान रंग लाया है
यह तो प्रभु की माया है
कि यह दिन अब सत्य होने वाला है
आस लिए व्याकुल नैन निहार रहे थे
कि कब प्रभु के पद रज धोकर
कई केवट भवसागर तर जाएगे
कोटि-कोटि भारतवासी के हृदय मे
इस दिन का इंतजार था
हर एक सनातनी के मन मे यही सवाल था
कब इस आर्यावर्त की भूमि पर
आर्य हमारे पधारने
धन्य है वो मां के लाल ,जिनके कर कमलो से अयोध्या का उद्धार हुआ
सतयुग मे तो एक रावण था
कलियुग मे रावण से धरती पटी पडी
इसीलिए यह लंका युद्ध अधिक लंबा
था, और प्रभु को अयोध्या लौटने इतना विलंब हुआ ।
देर हुई तो क्या हुआ राम लला घर आ ही गए ।
प्रभु के आने की खुशी मे हम सब
घर-घर दीप जलाकर दिपावली मनाएंगे ।
फिर एक बार धरती पर राम राज्य आने का सपना हम सब मिलकर सजाएगे।
प्रेमलता शर्मा ( रायबरेली)

अन्तर्चिन्तन:राम घर आते हैं | हरिश्चन्द्र त्रिपाठी ‘हरीश’ | क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

अन्तर्चिन्तन::राम घर आते हैं।

दिव्य राम छवि धाम सुघर मुसकाते हैं,
जन-जन पावन दृष्टि कृपा बरसाते हैं।
युग-युग से अवध निहार रहा कब आयेंगे-
कण-कण हुआ निहाल राम घर आते हैं।1।

बर्बर नीच लुटेरों ने ऐसे दिन दिखलाया है,
कालखण्ड यह देख मुखर मुसकाया है।
जीत सदा सच की होती संघर्ष करो-,
सुदिन देख धरती पर त्रेता फिर आया है।2।

हे राम सभी निष्काम कर्म करते जायें,
उर-मर्यादित भाव धर्म के बढ़ते जायें।
खा कर शबरी-बेर,नई इक रीति बनाओ-
नवल सृजन-पथ लोग सदा चलते जायें।3।

मोक्ष दायिनी सरयू की जल धारा हो जाये,
उत्सर्गित कण-कण अवध दुबारा हो जाये।
ध्वजा सनातन पुनि अम्बर अशेष फहरे-,
अब विश्व-पूज्य यह भारत प्यारा हो जाये।4।

जैसा चाहो राम कराओ हम तो दास तुम्हारे,
अनभिज्ञ सदा छल-छद्मों से मेरी कौन सवॉरे।
निष्कपट हृदय अनुसरण तुम्हारा करता निशि दिन-,
तेरी चरण-शरण में आया तू ही मुझे उबारे।5।

रघुनाथ तुम्हारे आने की हलचल यहॉ बहुत है,
निठुर पातकी जन की धरती खलल यहॉ बहुत है।
चाह रहे हैं लोग सभी लिये त्राण की अभिलाषा-,
कब धर्म-ध्वजा फहराये उत्कंठा प्रबल बहुत है।6।

पड़ा तुम्हारे चरण में इसे शरण दो नाथ,
जब तक करुणा न मिले नहीं उठेगा माथ।
युग की प्यास बुझाई है तुमने ही आकर-,
मातु जानकी पवनसुत सहित मिलो रघुनाथ।7।

2 .क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?

भारत की प्रिय प्यारी हिन्दी,
यथा सुहागन की हो बिन्दी।1।
जन्म जात अपनी यह बोली,
दीप जलाये खेले होली।2।
अधर-अधर मुस्कान बिखेरे,
वरद गान कवि चतुर चितेरे।3।
सुधा-वृष्टि-तर करती रहती,
अंजन बनकर नयन सवॅरती।4।
सबको प्रिय मन भाती हिन्दी,
विश्व-कुटुम्ब बनाती हिन्दी।5।
तुम भी गाओ मैं भी गाऊॅ,
हिन्दी का परचम लहराऊॅ।6।
धर्म – ध्वजा अम्बर लहराये,
वीणावादिनि पथ दिखलाये।7।
हिन्दी पढ़ें , पढ़ायें हिन्दी,
दुनिया को सिखलायें हिन्दी।8।
निज में शर्म , सुधार करो,
फिर हिन्दी – ऋंगार करो।9।
निज बालक कहॉ पढ़ाते हो?
क्यों हिन्दी दिवस मनाते हो?10।
नौकरशाह और सरकारी-
सेवक से प्रिय हिन्दी हारी।11।
शपथ सोच कर लेना होगा,
भरत-भूमि-ऋण देना होगा।12।
आओ लें संकल्प आज हम,
हिन्दी में ही करें काम हम।13।
प्रिय राम हमारे हिन्दी में,
हर काम सवॉरें हिन्दी में।14।
विश्व पूज्य यह हिन्दी होगी,
द्वेष-मुक्त प्रिय हिन्दी होगी।15।

आओ राम बिराजो | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

आओ राम बिराजो | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

बहुत दिनों के बाद बिराजे,
नव निर्मित घर राम।
बहुत दिनों के बाद आज,
यह पूर्ण हुआ है काम।
बाइस जनवरी सन् चौबीस का,
शुभ अवसर है आया।
राम की लीला कोई न जाने,
यह सब प्रभु की माया।
राम का नाम लियें सब मिलकर,
सुबह, दोपहरी, शाम।
सजी अयोध्या दुल्हन जैसी,
शोभा वरनि न जाए।
ढोल,मंजीरा,झांझ लिये,
सब मिलकर नाचे गायें।
स्वर्ग से फूल देव बरसाते,
लेकर राम का नाम।
घट-घट के वासी हैं राम,
जिनके नाम से बनते काम।
जिनके केवल दर्शन से ही,
मिल जाता है सुख का धाम।
आओ हम सब मिलकर बोलें,
जय-जय-जय-जय- जय श्री राम।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

कोहरा | Hindi Kavita | दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’

कोहरा

कोहरे में सनें शहर- गांव,
लगता है चारों तरफ छांव।
दूर तक धुंधलापन दिखता,
धरती का नया रूप खिलता।
जिधर देखो धुआं- धुआं है,
पास का नहीं कुछ भी दिखता।
सूरज ने सबको दिया दांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
ठंडक नें रूप है दिखाया,
जैसे मेहमान नया आया।
सर्दी से बचने की खातिर,
लोगों ने आग है जलाया।
ठंडक से जकड़े हाथ पांव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
चौपाये ठंड से हैं कांपते,
पक्षी भी घोसलों से झांकते।
कहीं अगर जाने की सोचो,
नज़र नहीं आते हैं रास्ते।
नदिया में चलती नहीं नाव,
कोहरे में सनें शहर- गांव।
नीचे को गिर रहा पारा,
अब केवल आग का सहारा।
कैसे कटेगी रात मेरी,
सोचता है बुधिया बेचारा।
दूसरा नहीं कोई ठांव,

कोहरे में सनें शहर- गांव ।

दुर्गा शंकर वर्मा ‘दुर्गेश’