वह बूढ़ा पेड़ | सम्पूर्णानंद मिश्र
वह बूढ़ा पेड़
गांव की ड्योढ़ी पर आज
वह बूढ़ा पेड़ नहीं दिखा मुझे
जिसकी डालियों की देह पर
चींटियां इत्मीनान से अपना निवाला निर्विघ्न लेकर आती थी
किसी आगत ख़तरे में
उन पेड़ों के कोटर में
गिलहरियां छुप जाया करती थी
गांव की सुहागिन
लड़कियां सावन में
पेड़ की लचीली डालियों पर
झूलते हुए प्रिय के पास अपनी प्रेम- पाती पहुंचाती थी
वह बूढ़ा पेड़ गांव के
बच्चों को संस्कारों का ककहरा सिखाता था
बूढ़ों की खिलखिलाहट
उसी पेड़ में बसती थी
न जाने कितनी विधवाओं की मांगों में सिंदूरी रंग डाला था
पंचायत ने उसी बूढ़े पेड़ के निर्णय पर
उस बूढ़े पेड़ के
हस्ताक्षर के बिना
गांव का कोई मांगलिक कार्य सम्पन्न नहीं होता था
वह बूढ़ा पेड़
मानों गवाह था
गांव के शुभ और अशुभ कर्मों का
लेकिन वह बंद रखता था
हमेशा अपना मुंह
राग और द्वेष से
मुक्त था वह
गांव के सबल लोग
कभी- कभी
अनायास उससे टकराते थे
क्योंकि
उस बूढ़े पेड़ ने
अपने पेट में न जाने गांव के कितने श्वेत चेहरों के पापों की गठरियों को छिपाए हुए था
न जाने कौन सी आंधी
कल रात आई
कि उस बूढ़े पेड़ की आंखें
आज नीली हो गई
सैकड़ों कौओं से
वह बूढ़ा पेड़ आज घिरा हुआ था
छोटी- बड़ी चिटियां निष्कंटक उसकी देह पर चहलकदमी कर रही थी
आज वह बूढ़ा नहीं जगा!
सम्पूर्णानंद मिश्र
शिवपुर वाराणसी
7458994874