नाराज़गी | शैलेन्द्र कुमार

नाराज़गी / शैलेन्द्र कुमार

   मुझे याद नहीं कि उस दिन कोई त्यौहार था या कुछ और घर की साफ-सफाई की जा रही थी। पापा को उस दिन भी ड्यूटी  जाना था। ऐसे दिनों में मांँ बड़ी आफत में फंँस जाती, पापा के लिए खाना बना कर तैयार करें या घर की सफाई करें। अकेली जान और इतना काम, ऊपर से बच्चों की शरारत और उनके झगड़े। मांँ परेशान हो जाती। पापा भी उनके काम में हाथ न बँटा पाते क्योंकि उन्हें दिन भर दौड़-भाग करनी होती थी। सुबह छह बजे घर से निकल जाते और आते  लौटकर कोई ग्यारह बजे रात को।  ड्यूटी ही ऐसी थी, फील्ड वर्क था। साइकिल से आना-जाना होता। पापा को भी थकान हो जाया करती थी। ऐसे में मांँ कई बार झुंझला कर बच्चों को पीट दिया करती।

     उस दिन भी कुछ ऐसा ही घट गया था। मेरे दो बड़े भाई थे एक काम न करता, दूसरा उससे ईर्ष्या करता और मांँ से लड़ता। एक छोटी बहन थी। छोटी थी इसलिए वह बहुत ज्यादा मांँ की सहायता न कर पाती थी। रहा मैं, तो मैं था मांँ का दुलारा बेटा। मांँ मुझसे कभी कहती ही नहीं किसी काम के लिए लेकिन मैं जितना मांँ को दुलारा था उतना ही मांँ भी मुझे प्यारी थी। मांँ मुझसे कहे या न कहे मैं किसी न किसी बहाने उसकी सहायता कर ही देता लेकिन उनके काम में मेरी सहायता ऊंँट के मुंँह में जीरा के बराबर ही होती थी।

    उस दिन हुआ यह कि मांँ ने किसी काम के लिए छोटी बहन से कहा। बहन से काम बिगड़ गया। माँ उस पर चिल्लाने लगी। मुझे यह अन्याय लगा तो मैं बहन का पक्ष लेकर मांँ से बहस करने लगा। मेरी उम्र भी कोई ज्यादा न थी यही कोई बारह-तेरह बरस का रहा होऊंगा मैं। किंतु स्कूल में लड़का-लड़की एक समान का पाठ पढ़ चुका था।

     और माँ ने बहन से यही कहा था “तुम लड़की जात हो, तुम्हें इतनी भी समझ नहीं है, क्या करोगी ससुराल में जाकर, मुझे गाली सुनवाओगी।”

बस इसी बात पर मैं चिढ़ गया और मांँ से बहस करने लगा।

   मांँ वैसे भी थकी हुई थी और परेशान भी, ऐसे में उनका चिड़चिड़ा जाना स्वाभाविक था।

उन्होंने मुझे चेताया “मैं तुझ से बात नहीं कर रही।”

मैंने कहा “तो क्या हुआ आप क्यों डांट रही उसको, उसने जानबूझकर तो गलती नहीं की और अगर गलती है तो भी इसमें लड़का-लड़की कहांँ से आ गया।”

मांँ ने कहा “देख मैं तुझसे कुछ कह नहीं रही फिर तुम मुझसे क्यों लड़ रहा है? और उसे समझना चाहिए कि वह लड़की है।”

मैंने कहा “लड़की है तो क्या हो गया?”

   मांँ ने गुस्से से मुझे घूरा और आखिरी चेतावनी देते हुए कहा “अब तू चला जा यहांँ से नहीं तो मार खा जाएगा।”

मैं नहीं हटा, मैं जानता था मांँ मुझे नहीं मार सकती। उसने आज तक ठीक से मुझ पर गुस्सा तक नहीं किया आखिर मैं मांँ का दुलारा बेटा था।

   जब मैं न माना तो वह उठीं और मेरे पास आकर गुस्से से मुझसे बोली
“न जाएगा तू?”
मैंने कहा “नहीं”
मांँ- “न जाएगा”
मैं- “नहीं”
बस मेरा ’न’ कहना था कि उनका हथ उठ गया। उनके हाथ में झाड़ू थी और उसी झाड़ू से मुझे एक, दो,  तीन, लगा दिया धड़ाधड़। मैं आवाक रह गया।

  समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि मांँ मुझे मार सकती है। मैं गुस्से से भर गया, मेरा चेहरा लाल हो गया लेकिन न तो मैं रोया न ही चीखा-चिल्लाया, न मेरी आंँखों से एक बूंद आंँसू निकला। क्षोभ से भर गया था मैं। न हिला न डुला। मांँ मार चुकी थी और जाकर अपने काम में लग गई। थोड़ी देर मैं खड़ा रहा फिर वहांँ से उठकर चला आया। आकर कमरे के एक कोने में फर्श पर बैठ गया।

    रोने की बहुत इच्छा हो रही थी पर रोया नहीं। दिमाग में बवंडर सा छा गया था। मैं मांँ का दुलारा था। मन में घमासान मचा हुआ था।
मांँ ने मुझे मारा! मेरी मांँ ने मुझे मारा! असंभव। कितनी झूठी है, हमेशा प्यार, हमेशा दुलार कितनी झूठी!
मैं क्या समझता था और यह क्या निकली। मैंने इतना क्या गलत बोल दिया। यही प्यार है इनका?

   पर पता नहीं क्यों इच्छा हो रही थी, कि मांँ की गोद में सर रख दूं, रो लूं जी भरकर, मांँ से शिकायत कर दूं।

   जब कभी मुझे डांँट पड़ती या कोई मार देता या कहीं चोट लग जाती या कोई कीट-पतंगे काट लेते, मांँ मेरे हर कष्ट का इलाज कर देती थी। मैं निर्जीव ईंट-पत्थर की शिकायत भी मांँ से कर देता था। और मांँ तो मांँ थी। मांँ आसमान को डांँट देती, जमीन को भी चप्पल से पीट देती थी।

   लेकिन जब मांँ की शिकायत मांँ से ही करनी हो तो कैसे करें? दिल के अन्दर कुछ टूट सा रहा था। मुझे मांँ की हर बात याद आने लगी थी। जब वह मुझे प्यार करती थी जब बिल्कुल छोटे थे माँ अक्सर एक खेल खेला करती मुझसे।

मांँ कहती- “मेरा राजा बेटा कौन?”
और किसी के बोलने से पहले मैं झट से कहता- “मैं”
फिर मेरी बारी आती मैं कहता- “सबसे अच्छी मम्मी, मेरी मम्मी। सबसे प्यारी मम्मी, मेरी मम्मी।”

तब से लेकर अब तक हर पल, हर क्षण मेरे जीवन को मांँ वायुमंडल बनकर घेरे रहती। वही मांँ आज…

  एक-एक दृश्य मेरी आंँखों में साकार हो रहे‌ थे। मांँ मेरा सर अपनी गोदी में रखे मेरे बालों पर हाथ फिरा रही थी।
मैंने पूछा- “मांँ रिंकी की मम्मी उसे दूध क्यों नहीं पिलाती?”

मांँ ने कहा- “अरे वह बड़ी हो रही है न, कौन बच्चे को साल भर दूध पिलाता है।”

“मैंने कब तक दूध पिया था” मैंने पूछा।

मांँ- “तू अपनी बात मत कर मेरे सारे बच्चों में सबसे ज्यादा मैंने तुझे दूध पिलाया है।”

मैंने कहा- “मुझे क्यों?”

माँ- “मैं तुझसे बहुत प्यार करती हूंँ इसलिए।”

मैं- “क्यों प्यार करती हो मुझे?”

माँ- “चल हट बड़ी बातें करता है तू।”

और मेरा सिर अपनी गोदी से हटा कर बैठा देती मुझे।”

मेरी आंँखों में आंँसू आने वाले थे पर मैं रोया नहीं।

    एक और घटना “मैं रसोई में बैठा था, माँ खाना बना रही थी।

मैं- “मम्मी आप रसोई में किसी को आने क्यों नहीं देती?”

मांँ- “तू तो बैठा है न?”

मैं- “हांँ तो मुझे क्यों आने देती हो?”

माँ- “तू मुझे अच्छा लगता है न इसलिए”

मैंने पूछा- “क्यों?”

माँ- “चल भाग यहांँ से।”
मैं उठकर जाने लगा तो मुझे गोद में उठा कर बोली
“कहांँ जाता है मेरे राजा बेटा?”
मुझे हर याद चुभने लगी।
  
    मैंने सोच लिया था मांँ से मैं अब कभी बात नहीं करूंगा। कितने ही दृश्य आंँखों के सामने से आ– आकर मेरी आंँखों को नम करते रहे। मन कर रहा था, मांँ मुझे गले से लगा ले। लेकिन वह मुझे क्यों प्यार करेगी? बहुत गुस्सा करती हैं, करें। मैं खुद ही न जाऊंगा उनके पास। मैं धीरे से उठा और चारपाई पर औंधे मुंँह जा गिरा।

     घंटा दो घंटा बीत गया होगा।

बड़ा भाई आकर बोला “जाओ, खाना खा लो।”
मैं नहीं बोला वैसे ही पड़ा रहा।
दूसरा भाई आया- “खाना खाओ जाकर।”

मैं- “मैं नहीं खाऊंगा।”

बहन- “खा लो जाकर न।”
मैं- “कह दिया न, नहीं खाएंगे तो नहीं खाएंगे।”

   दो घंटे और बीत गए होंगे। मुझे भूख लगने लगी थी। पर मैंने ठान लिया था कुछ भी हो जाए नहीं खाऊंगा। भूख तो लगी ही थी, सोच-सोच  थक गए थे। मुझे नींद आ गई।

    शाम को फिर सब बारी-बारी से खाने के लिए मुझे बुलाने आए और मैंने सब को फिर से मना कर दिया। भूख तो बहुत तेज लगी हुई थी पर मेरा गुस्सा था जो मुझे नहीं जाने दे रहा था। जिद्दी तो एक‌ नंबर का हूँ।

     एक कसक और मन में उठी कि मांँ एक बार भी बुलाने नहीं आई। क्या सच में मांँ का प्यार झूठा है। एक बार भी हाल पूछने नहीं आई मेरा। यही वो मांँ है। नहीं गया मैं खाना खाने। सब भाई-बहन खा कर सो गए। मांँ पूरा दिन भीतर ही रही एक बार भी बाहर न निकली थी। पापा भी ड्युटी से लौटकर आ गए थे और खाना खाकर वापस आ गए और लेट गए थे।

   पापा लेटे-लेटे मुझसे बोले “जाओ खाना खा लो जाकर।”

मैंने कहा- ” मेरी इच्छा नहीं है।”

वह बोले- “क्यों इच्छा नहीं है?”

मैंने कहा- “बिल्कुल भूख नहीं लगी है, नहीं खाऊंगा।”

पापा- “तू क्या चाहता है कि तेरी माँ ऐसे ही भूखी बैठी रही, भूखी सो जाए?
सुबह से उसने पानी तक नहीं पिया। सारा दिन इतना सारा काम-धाम, वैसे ही थक गई और ऊपर से तू…”

मैं अवाक रह गया। सोच में पड़ गया। माँ ने खाना नहीं खाया, क्यों?

ऐसा लगा जैसे मैंने यह प्रश्न स्वयं से पूछा हो। मेरी वजह से?

    मैं उठ कर चला गया रसोई में, देखा माँ बैठी थी चुपचाप। मुझे देखते ही थाली उठाई और खाना परोसने लगी। खाना निकालते-निकालते उनकी आंँखों में आंँसू आ गए। यह सब देख कर मेरी भी आंँखें डबडबा आई। मैंने कहा- “सॉरी मम्मी।”

मांँ ने कहा- “इतनी छोटी सी बात पर तू रूठ गया?
इतनी बड़ी नाराजगी!
मुझे सजा दे रहा है तू? गुस्से में थी तो तुझे भी दो झाड़ू लगा दी।”

मैंने कहा- “तुम मुझे खाने के लिए एक बार भी बुलाने क्यों नहीं आई?”

मांँ ने कहा- “केवल तू ही रूठ सकता है, मैं नहीं”

    मांँ- “तुझे इतना प्यार करती हूंँ। क्या तू मुझे माफ नहीं कर सकता था।”
मैं क्या बोलता? मन कर रहा था कि खुद के गाल पर कितने ही थप्पड़ मारूं। सोचने लगा, मैंने मांँ को कितना दुख दिया। मांँ ने आगे कहा- “जिसे जितना चाहो वह उतना ही दुख देता है।”
वह थोड़ा रुकी
फिर बोली
“कोई और ऐसा करता तो मुझे कोई फर्क न पड़ता लेकिन तूने ऐसा किया…”

   …और वह फफक कर रो पड़ी। मैंने खाना छोड़ कर मांँ को गले लगा लिया। मांँ ने मुझे बाहों में भर लिया।

   सुबह से जो तूफान सीने में उठ रहा था मेरे, वह भाप बनकर उड़ गया और मेरी पलकों का बांध तोड़कर मेरे आंँसू बह चले। पूरा दिन रोने से खुद को रोका था अब मेरा रोना बंद नहीं हो रहा था। हम दोनों ही रो रहे थे।

    मैंने पूंँछा- “तूने खाना क्यों नहीं खाया?

मांँ ने कहा- “दुष्ट तुझे खिलाए बिना मैंने कभी खाया है क्या?

मैंने कहा- “मैं दुष्ट हूँ?”

मांँ ने कहा- “कौन इतना रुलाता है माँ को, तू दुष्ट तो है ही।”

इतना कहकर माँ मुस्कुरा दी। मैं भी मुस्कुराने लगा।

शैलेन्द्र कुमार असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी

राजकीय महिला महाविद्यालय कन्नौज