भारत में आपातकाल के सिंघम : लोकबंधु राजनारायण
भारत में आपातकाल के सिंघम : लोकबंधु राजनारायण
भारत अनेकता एकता की भावना को हृदय में सम्मानित करने वाला देश है। त्रेता युग, द्वापर युग, मौर्य वंश, मुगल काल, ब्रिटिश काल आदि के समय में राजनीति व कूटनीति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी, यही नीति आज भी अखिल विश्व में गतिमान है। राजनीतिक दुर्व्यवस्था का दुष्परिणाम उस देश के जनमानस को भुगतना पड़ता है। जब सहनशक्ति अपरिमित या यूं कहें कि पराकाष्ठा को पार कर जाती है, तो आपातकालीन द्वार खोलना पड़ता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात केंद्र व प्रदेशों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार रहती थी। इस सरकार ने तत्कालीन परिस्थितियों को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक लघु-कुटीर उद्योग, मिल, उच्च शिक्षण संस्थान आदि की स्थापना की। जिससे आमजन को शिक्षा, स्वास्थ्य रोजगार मिलता रहे। किंतु सत्ता सुख और अहंकार में लिया गया एक विवेकपूर्ण निर्णय और उसकी सजा को संपूर्ण भारतवासियों ने भुगता। वह निर्णय था-1975 में लगाया गया आपातकाल।
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राज नारायण का जन्म 23 नवम्बर सन 1917 को मोतीकोट, वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम स्व० अनन्त प्रसाद सिंह, भूमिहार ब्राह्मण थे। मार्कतूली ने राज नारायण को “भारत का जिमीकार्टर” कहा था। काशी में मोक्षदायिनी माँ गंगा के पावन तट पर रामनगर का किला है, जिसकी रोशनी और आभा संपूर्ण काशी को देदीप्यमान कर रही है। इसी काशी के मोती कोट नामक स्थान पर राज नारायण का जन्म 23 नवंबर सन 1917 को हुआ था। पिता अनंत प्रसाद सिंह भूमिहार ब्राह्मण थे, जो इसी राजमहल में रहते थे। चंदापुर कोठी रायबरेली के छोटे राजा श्री हर्षेन्द्र सिंह ने संस्मरण रूप में बताया कि राज नारायण जी सन 1971 में रायबरेली आ गए थे और चंदापुर कोठी में रहने लगे थे। राजसी ठाठ-बाट त्यागकर साधारण जीवन व्यतीत करने लगे थे। उनके हृदय में जनता के प्रति संवेदना थी। सन 1971 के लोकसभा चुनाव में राज नारायण जी इंदिरा गांधी के खिलाफ मैदान में उतरे, किंतु हार का सामना करना पड़ा था।
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इंदिरा गांधी सरकार ने सन 1974 में नागरिकों के संवैधानिक अधिकार समाप्त कर दिए थे। CRP (Code of Criminal Procedure) को भंग कर दिया गया था। इसी के साथ 1974 में ही MISA Act (Maintenance of Internal Security Act) भारत सुरक्षा अधिनियम लागू कर दिया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार करके जेल भेजा जा सकता था। उस व्यक्ति को माननीय न्यायालय में पेश करने की आवश्यकता भी नहीं होती थी, न ही जमानत होती थी। यह अधिनियम लागू होते ही मानो न्यायालय पंगु हो गया था। यह अधिनियम 21 माह तक देश में लागू हो रहा MISA Act के तहत इंदिरा गांधी सरकार की यातना सहने वालों और जेल जाने वालों को उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री माननीय अखिलेश यादव (कार्यकाल 2012-17) ने लोकतंत्र सेनानी उपाधि देते हुए समय-समय पर संशोधन करते हुए रुपये 20000/माह शुरू की थी।
पूर्व प्रधानमंत्री स्व० श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून सन 1975 को आपातकाल लागू कर दिया था। इंदिरा गांधी ने एक नारा दिया था- हम दो हमारे दो। जिसके लिए उन्होंने परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाया गया, जो भारत में सबसे बड़ा विरोध का कारण था। जिनके दो संताने थी, उन्हें नसबंदी कराने होगी। सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों पर दबाव था कि कम से कम 3 केस दीजिए, तब वेतन निर्गत होगा इसलिए उन्होंने विवाहित पुरुषों को भी जबरन नसबंदी करवाना शुरू कर दिया था। इसका विरोध सर्वप्रथम पटना विश्वविद्यालय में शुरू हुआ। उस समय श्री लालू यादव (पूर्व रेल मंत्री भारत सरकार, पूर्व मुख्यमंत्री बिहार) पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष थे, जिन्होंने जबरन नसबंदी के विरोध में अनशन किया था। श्री लालू यादव का विचार था कि यह आंदोलन विश्वविद्यालय परिसर में ही सीमित रहेगा। किंतु इंदिरा गांधी और आपातकाल का विरोध की चिंगारी संपूर्ण भारत में भड़क चुकी थी। उसी समय लालू जी की धर्मपत्नी श्रीमती राबड़ी देवी ने एक सुकन्या को जन्म दिया था, जिसका नाम मीसा भारती रखा था।
जनता पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी आदि ने मिलकर निर्णय लिया कि इंदिरा गांधी के खिलाफ सन 1977 के लोकसभा चुनाव में सशक्त उम्मीदवार उतारा जाए। भारत में तीखे तेवर वाले और सत्य का पक्ष लेने वाले राजनेताओं की कमी नहीं है। हमारे देश में ऐसे अनेक नेता हुए हैं, जिनके विद्रोही तेवर ने नई पहचान दी है। इन्हीं नेताओं में से एक राजनारायण भी थे। जिनके बारे में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था- जब तक राजनारायण जीवित है तब तक लोकतंत्र मर नहीं सकता है। डॉ राम मनोहर लोहिया के इस कथन के आलोक में यह सिद्ध होता है कि लोकतंत्रात्मक संरक्षा के लिए सपाट बयानबाजी वाले राजनेताओं की सदैव जरूरत पड़ती है। भारतीय संसदीय परंपरा को आदर्शात्मक ऊंचाई प्रदान करने वाले राज नारायण जी सन 1966 से 1972 और 1974 से 1977 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। लोकसभा में दो बार निर्वाचित हुए।
जब राजनारायण के व्यक्तित्व की बात आती है, तो उनका विद्रोही तेवर सर्वप्रथम हमारे सामने आता है। ब्रिटिश सरकार की चूले हिलाने वाले राज नारायण कभी भी सत्ता के मोह में नहीं फंसे। वह जमीन से जुड़े नेता थे और इसी कारण जनता ने उन्हें “लोकबंधु” की उपाधि दी थी। आजादी के पहले हो अथवा बाद में, उन्होंने लोकहित से जुड़े हुए लगभग 700 आंदोलन किए और 75 से अधिक बार जेल यात्रा की। खास बात यह है कि आपातकाल के पश्चात जब सन 1977 में केंद्र सरकार में मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में राज नारायण जी स्वास्थ्य मंत्री बने तो, अपनी ही सरकार का विरोध करने लगे थे। उनका कहना था कि चाहे सरकार में रहे, अथवा सरकार से बाहर। सरकार की जनविरोधी नीतियों और गलत बातों का हमेशा विरोध करेंगे। रायबरेली से उनकी तमाम स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। उन्होंने अपने जीवन के कई वसंत इस जनपद में बिताए हैं। इस दौरान अपने फक्कड़पन के कारण रायबरेली के लोगों के बीच अति प्रिय बन गए। न कोई दिखावा, न कोई तड़क-भड़क बल्कि,एक सामान्य व्यक्ति की भाँति जनता के बीच घुल-मिल जाना उनका स्वभाव था। संघर्ष के प्रति ऐसी निर्भीक आस्था अन्यत्र दुर्लभ है। इनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि विरोधियों ने जनता के बीच में नाटकीय अंदाज में राज नारायण को राजनीति का जोकर तक कहा। फिर भी रायबरेली की जनता ने इंदिरा गांधी के लिए रंच मात्र भी हमदर्दी नहीं दिखाई।
राजनारायण जैसा नेता कहाँ मिलेगा, जिसकी पूरी जिंदगी फक्कड़पन में गुजर गई हो और अपने परिवार के लिए कोई संपत्ति अर्थात फूटी कौड़ी तक न छोड़ी हो। उनके संघर्षपूर्ण जीवन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव हार गए तो, माननीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और इंदिरा गांधी को खुद न्यायालय में उपस्थित होना पड़ा था। राज नारायण ने सन 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर चुनावी कदाचार का केस इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर किया था। न्यायमूर्ति श्री जगमोहन सिन्हा ने 12 जून 1975 को केस पर निर्णय दिया कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग और प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराई है, इसलिए 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई जाती है।
संपूर्ण भारत में इंदिरा गांधी के नाम का डंका बज रहा था। उनके खिलाफ बिगुल फूँकना आसान न था। राज नारायण के आंदोलन से रायबरेली की जनता उत्साह से लबरेज थी। उत्साहित युवा वर्ग रायबरेली के लोकसभा चुनाव 1977 में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा था। सबके मन में सत्ता परिवर्तन की लहर दौड़ रही थी। मानो भावी सांसद राज नारायण के रूप में स्वयं ईश्वर रायबरेली की धरा पर उतर आया हो। इंदिरा गांधी ने सभी समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया था। बीबीसी लंदन और ऑल इंडिया रेडियो प्रमाणिक समाचार जनता तक पहुंचा रहे थे। जो राजनारायण के जनांदोलन में मील का पत्थर साबित हो रहे थे।
जहां-जहां राजनारायण चुनावी सभाएँ करते थे। जनता को आकर्षित करने के लिए गांधी की सभा भी वहीं पर लगा दी जाती थी। इंदिरा गांधी के पास सरकारी मशीनरी और कई गाड़ियां थी तो राजनारायण के पास सिर्फ एक जीप। भीड़ का उत्साह किसान, मजदूर, व्यापारी, विद्यार्थी आदि राजनारायण के साथ था। इंदिरा गांधी को हार का डर पूरी तरह से सताने लगा था। राज नारायण ने MA, LLB की उपाधि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, काशी से प्राप्त की थी। अंग्रेजी और भोजपुरी के अच्छे ज्ञाता व जानकर थे। फिर भी उन्होंने हिंदी का समर्थन सड़क से संसद तक किया। यद्यपि रायबरेली में कई वर्षों से रहने के कारण अवधी भी बढ़िया बोलते थे। उस समय ग्रामीण मतदाताओं की शैक्षिक योग्यता न के बराबर थी। इसलिए राजनारायण जी चुनावी सभाओं में ग्रामीणों से जन-संवाद में बैसवारी भाषा का प्रयोग करते थे। राजनारायण जी सिर पर हर कपड़ा बाँधकर क्षेत्र में निकलते थे, जो समाजवाद की एकता का प्रतीक था।
सन 1977 में लोकसभा चुनाव में विश्व प्रसिद्ध आयरन लेडी श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ राज नारायण प्रत्याशी अवश्य थे, किंतु रायबरेली की गलियों की सड़कों पर ऐसा अपार जनसमूह उमड़ रहा था, मानो लोकसभा आम चुनाव राज नारायण नहीं, अपितु यहाँ की जनता चुनाव लड़ रही है। रायबरेली निवासी श्री कृष्णानंद अदीब सन 1977 के लोकसभा चुनाव के मतगणना के मुख्य एजेंट थे। अदीब ने बताया कि इंदिरा गांधी कार्यवाहक प्रधानमंत्री होने के कारण सरकारी अमला उनके साथ था, किंतु यही अमला अंतर्मन से निडर नेता राजनारायण के साथ। रायबरेली जनपद के जिस बूथ की पेटी खुलती थी, उस बूथ की मतगणना शुरू होने से पहले ही मानो राज नारायण की झोली मतों से भर जाती थी। लोकसभा चुनाव 1977 का परिणाम आया तो, पूर्वानुमान के अनुसार राज नारायण विजय घोषित हुए। उसके बाद इंदिरा गांधी इतनी शर्मिंदा हुई कि उन्होंने रायबरेली से दुबारा लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा।
राज नारायण हमेशा सत्ता और शोषण के खिलाफ रहते थे, इसलिए उनका राजनीतिक प्रयोग दीर्घायु न हो सका। उन्होंने आजीवन समाजवादी सिद्धांतों की राजनीति की और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। स्वर्गीय इंदिरा गांधी को धूल चटाने वाला कोई मामूली आदमी नहीं हो सकता है। राज नारायण के विषय में कहा जाता है कि- अगर राजनेता न होते तो पहलवान होते। वे समाजवाद के क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने गैर कॉंग्रेस को परिपुष्ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। फक्कड़ स्वभाव वाले राज नारायण जी सरेनी, भोजपुर, दौलतपुर, ऊँचाहार, फुरसतगंज, बछरावां, करहिया बाजार आदि क्षेत्रों के पगडंडियों व खेतों-मेड़ों आदि में अकेले ही चल पड़ते थे। देखते ही देखते कुछ पल में उनके पीछे कारवां निकल पड़ता था। आपने समय का ख्याल और पालन करना, मानो महात्मा गांधी सीखा हो। राज नारायण की अनेक खूबियों के कारण कलम और कृपाण की सरजमी रायबरेली की जनता उन्हें सर-आंखों पर बैठाती थी। आज भी रायबरेली के गाँवों में सन 1971 और सन 1977 के संस्मरण लोगों के जवाबी याद हैं और लोग उन्हें चटकारे ले-लेकर सुनाते हैं। अपनी स्पष्टवादिता के कारण राजनारायण जी जन-सामान्य में लोकप्रिय थे। भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत ने 21 मार्च सन 2007 को राज नारायण के नाम पर डाक टिकट भी जारी किया था। महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन जैसे अनेक आंदोलनों में राज नारायण जी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, इसलिए कहा जाता है कि राज नारायण का एक पैर रेल में, दूसरा पैर जेल में रहता था। समाजवादी विचारक, मस्तमौला, विधायक, सांसद (लोकसभा, राज्यसभा) ने दिल्ली के राम मनोहर लोहिया चिकित्सालय में 31 दिसंबर सन 1986 को अंतिम सांस ली और दुर्भाग्यवश सुबह-ए-बनारस का राजनारायण रूपी सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया। मृत्यु के समय आपके बैंक खाता में मात्र 4500 रुपए थे। आपने अपनी जमीन का बड़ा भूभाग दलितों-पिछड़ों को दान कर दिया था। ऐसे महापुरुष को शत शत नमन…।