सुभद्रा कुमारी चौहान : क्रांतिकारी और साहित्यिक वीरांगना
राष्ट्रीय कवयित्री श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म संवत 1961 में श्रावण मास के शुक्लपक्ष की नागपंचमी, 16 अगस्त 1904 को प्रयागराज के निहालपुर नामक ग्राम में हुआ था। पिता स्व० रामनाथ सिंह जमीदार थे। इनके माता-पिता शिक्षा के प्रति हमेशा सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे। सुभद्रा चौहान बचपन से ही लिखने-पढ़ने में अव्वल थी। उन्होंने 9 वर्ष की उम्र में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। इसलिए सुभद्रा जी अपने शिक्षक-शिक्षिकाओं की प्यारी छात्रा और आँखों का तारा बन गई थी। सुभद्रा कुमारी चौहान और छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा बचपन की सहेलियां थी।
बाल्यावस्था में सुभद्रा कुमारी चौहान का विवाह मध्य प्रदेश राज्य के खंडवा निवासी लेखक नाटककार लक्ष्मण सिंह से हो गया था। लक्ष्मण सिंह की शिक्षा बी०ए०, एल०एल०बी० थी। इसलिए वे शिक्षा का महत्व समझते हुए सुभद्रा कुमारी की शिक्षा पर कभी बाधा नहीं उत्पन्न होने दिया, अपितु सुभद्रा चौहान को हर कदम पर प्रोत्साहन देते रहते थे। सुभद्रा अक्सर अपने मन की बात कहा करती थी कि- “मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों ओर नित्य मेला लगता रहे। बच्चे खेलते रहे, स्त्रियाँ गाती रहे और कोलाहल होता रहे”
सुभद्रा कुमारी चौहान स्वाधीनता संग्राम में भारत को स्वतंत्र कराने के लिए महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर कांग्रेस में सम्मिलित हुई थी और अंग्रेजों के दमनकारी अत्याचारों का विरोध खुल कर करती थी। अंग्रेजों की षड्यंत्रकारी नीतियों का विरोध करने के कारण सुभद्रा कुमारी चौहान को जेल यात्रा भी करनी पड़ी थी। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सुभद्रा कुमारी चौहान जेल जाने वाली पहली भारतीय नारी थी। सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री, जिसका नाम सुधा चौहान था। सुधा चौहान ने अपनी माँ सुभद्रा की मृत्यु के पश्चात माँ पर जीवनी लिखी, जिसका नाम “मिला तेज से तेज” रखा था। सुभद्रा कुमारी चौहान दुर्भाग्यवश सड़क मोटर दुर्घटना में 15 फरवरी सन 1948 को असमय मृत्यु का शिकार हो गई।
प्रमुख रचनाएँ
- कविताएँ– मुकुल, त्रिधारा, वीरों का कैसा हो बसंत, झाँसी की रानी, पानी और धूप, मेरा जीवन, विदाई, विजयी मयूर।
- कहानी– बिखरे मोती, उन्मादिनी, सीधे-सादे चित्र।
- बाल साहित्य– सभा का खेल।
सुभद्रा कुमारी चौहान हमेशा वीर रस से परिपूर्ण ओजस्वी विचारधारा से युक्त गद्य-पद्य लिखती थी। जिन्हें पढ़कर भारतीय जनमानस की भुजाएँ फड़कने लगती थी। ऐसी ही कविता “वीरों का कैसा हो वसंत” लिखा है, जिसका एक छंद दृष्टव्य है-
“आ रही हिमालय से पुकार,
है उदधि गरजता बार-बार।
प्राची पश्चिम भू नभ ऊपर,
सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत।
वीरों का कैसा हो वसंत।।”
सुभद्रा कुमारी चौहान को उनकी काव्य कृति “मुकुल” पर हिंदी साहित्य सम्मेलन की ओर से सम्मान स्वरूप उस समय 50,000 रुपये का सेक्सेरिया पुरस्कार प्रदान किया गया था।
सुभद्रा कुमारी चौहान देशप्रेम के साथ-साथ सुखमय दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करना अपना नैतिक कर्तव्य समझती थी। भारतीय नारी की प्रेम विषयक भावना से ओत-प्रोत श्रृंगार रस की कविताएँ भी आपने लिखा है। महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान घनिष्ठ सखियाँ होने के बावजूद दोनों में दाम्पत्य जीवन के प्रति विरोधाभास पाया जाता था, क्योंकि सुभद्रा कुमारी वीर एवं श्रृंगार रस की और महादेवी करुण एवं शान्त रस की कवयित्री थी। सुभद्रा कुमारी चौहान ने पति के प्रति आत्मसमर्पण और आत्म सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए पति को प्रभु का स्थान देते हुए लिखा है-
“पूजा और पूजापा प्रभुवर, इसी पुजारिन को समझो।
दान दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो।।”
मानव का वर्तमान काल जैसा भी चल रहा है, उससे अच्छा भविष्य हो। यही उम्मीद की किरण मानवी जीवन को आशान्वित बनाए रखती है। सुभद्रा कुमारी चौहान भी आशावादी दृष्टिकोण पर विश्वास रखती हैं। किसी भी मुश्किल घड़ी में चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती हैं। इसलिए उम्मीद की राह दिखाते हुए सुभद्रा जी ने लिखा है-
“मैंने हँसना सीखा है, मैं नहीं जानती रोना।
वर्षा करता है प्रतिफल, मेरा जीवन में सोना।।”
सुभद्रा कुमारी चौहान जन जागरण का संदेश अखिल भारत को देती हैं। आपकी ओजस्वी लेखनी जवानों, किसानों, महिलाओं, बालकों, रजवाड़ों आदि में जागृति, राष्ट्रीय भावना भर देती है। सुभद्रा जी की हर एक कविता पढ़कर हर देशवासी गर्व महसूस करता है
सन 1857 की क्रांति में झाँसी की वीरांगना “रानी लक्ष्मी बाई” ने अदम्य साहस और असाधारण वीरता के कारण अंग्रेजों को छठी का दूध याद दिलाया था। सुभद्रा कुमारी चौहान ने लक्ष्मीबाई (मनु) की गौरवगाथा कविताओं के माध्यम से जन-मानस के बीच पहुँचाया था। बुंदेलखंड ही नहीं, वरन भारत के कोने-कोने में सुभद्रा कुमारी चौहान का लिखा गीत “झाँसी की रानी” आज भी खूब गुनगुनाया जाता है-
“सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सुभद्रा कुमारी चौहान ने साहित्य, समाज और राष्ट्र में समन्वय स्थापित करते हुए कविताएँ लिखी हैं, जो अद्भुत हैं। आपकी लेखनी देश के प्रति उत्पन्न मनोभाव की पीड़ा हृदयस्थल को स्पर्श कराती है। रचनाओं में समरसता, कोमलता, नवीनता, स्वाभाविकता, तारतम्यता के स्वर सुनाई पड़ते हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान जी उत्कृष्ट कवयित्री ही नहीं, बल्कि लेखिका भी हैं।