मैथिलीशरण गुप्त की नारी भावना चित्रण | maithili sharan gupt ki nari bhavna
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त सन 1886 को चिरगांव जिला झांसी में हुआ था। आप खड़ी बोली के रचनाकार और द्विवेदी युग के कवि हैं। मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्रकवि की संज्ञा महात्मा गांधी ने दिया था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने सन 1952 में गुप्त जी को राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया था।
साकेत, यशोधरा, द्वापर, पंचवटी, सैरन्ध्री, नहुष, भारत भारती जैसे प्रमुख रचनाएं हैं। साकेत महाकाव्य में सीता जी को, यशोधरा महाकाव्य में यशोधरा जी को संघर्ष, त्याग, बलिदान की प्रतिमूर्ति दिखाया गया है। मैथिलीशरण गुप्त की मृत्यु 12 दिसंबर 1964 को हुई थी।
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नारी भावना का चित्रण
आदिकाल से ही समाज में नारी का स्थान सम्माननीय और पूज्यनीय रहा है। नारी मानव की जननी एवं सृष्टि निर्माणी है। नारी को पुरुष की अर्धांगिनी कहा गया है। नारी और नर के संयोग से ही समाज का निर्माण हुआ है। नारी की प्रेरणा से मानव के अंदर महानता का संचार हुआ है। नारी मानव के जीवन में सौंदर्य और आनंद की अनुभूति के सुखद क्षणों का हिस्सा है, किंतु आज समाज में नारी का महत्व बदल गया है। इस बदलते हुए महत्व को देखते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।।
गुप्त ने अपने काव्य में नारी की परिणीता (विवाहिता) रूप को स्वीकारा है। राष्ट्रकवि गुप्त जी ने सीता, यशोधरा, उर्मिला, कौशल्या, द्रौपदी आदि के माध्यम से नारी के उज्ज्वल और संघर्षशील वैवाहिक रूप को निरूपित किया है। उनकी दृष्टि में नारी पुरुषों के समय समस्त कार्य कर सकती है, कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है-
निज स्वामियों के कार्य में समभाग जो लेती न वे,
अनुराग पूर्वक योग जो उसमें सदा देती न वे।
तो फिर कहाती किस तरह अर्धांगिनी सुकुमारियाँ,
तात्पर्य यह अनुरूप ही थी नर वरों के नारियाँ।
यशोधरा आदर्श पत्नी है वह अपने पति को प्राणों से भी ज्यादा चाहती है। एक दिन भगवान गौतम बुद्ध रात्रि में यशोधरा को छोड़कर वन को चले जाते हैं। तभी उनके हृदय में आघात लगता है और कहती हैं-
नाथ कहाँ जाते हो, अब भी अंधकार छाया है,
हा! जाग कर क्या पाया, मैंने वह स्वप्न भी गवाया है।
यशोधरा “पूत कपूत हो सकता, पर माता कुमाता नहीं हो सकती”, की भावना से पति वियोग को भूल कर अपने शेष जीवन का आधार पुत्र राहुल को ही मानती हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने माँ का पुत्र के प्रति स्नेह का सहज और मार्मिकता से परिपूर्ण वर्णन किया है-
तुझको क्षीर पिला कर लूँगी।
नयन नीर उनको ही दूँगी।
गुप्त जी की कविता में नारी की निर्बलता में सफलता, कठोरता में कोमलता का संधान और आत्म समर्पण में आत्म अभिमान का विधान दिखता है। गुप्त जी ने यशोधरा का चरित्र चित्रण बड़े मार्मिक ढंग से किया है-
कठोर हो वज्रादपि ओ कुसुमादि सुकुमारी,
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेरी बारी।।
गुप्त जी ने माँ सीता के माध्यम से स्त्री को स्वाभिमानी, परिश्रमी तथा पुरुषों को नानादि व्यंजन और स्नेह देकर खुश करने वाली, पति के सुख-दुःख में बराबर की सहभागिनी बताया है-
औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ।
श्रमवारि बिंदुफल स्वास्थ्य शुचि फलती हूँ,
अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ।
गुप्त जी ने लक्ष्मण-उर्मिला के माध्यम से स्त्री को संघर्षशील बनने के साथ-साथ सुंदर सुकुमारी प्रेमिका एवं पत्नी के रूप में चित्रित किया है। लक्ष्मण की जीवनसंगिनी उर्मिला के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि पत्नी को भी साथ चलने और जीवन के संघर्षों में साथ खड़े होने का अवसर दीजिये-
वन में तनिक तपस्या करके,
बनने दो मुझको निज योग्य,
भाभी की भगिनी, तुम मेरे,
अर्थ नहीं केवल उपभोग्य।
गुप्त ने साकेत महाकाव्य के माध्यम से लिखा है की स्त्री रामराज्य छोड़कर वन गमन को जाती है। वहाँ भी गुरुजनों, परिजनों का सम्मान करना नहीं भूलती है। सभी को अतिथि मानती है। यहाँ तक जड़ी बूटियों का ज्ञान रखकर वैद्य की भाँति इलाज भी कर सकती है। विपरीत परिस्थितियों में स्त्री सब सीख जाती है और पुरुष को हर मुश्किल से उबार सकती है-
गुरुजन परिजन सब धन्य धन्य ध्येय हैं मेरे,
औषधियों के गुण-विगुण ज्ञेय हैं मेरे।
वन-देव-देवियाँ अतिथेय हैं मेरे,
प्रिय संग यहाँ सब प्रेय श्रेय हैं मेरे।
अंत में इतना ही कहना चाहूँगा कि मैथिलीशरण गुप्त के साहित्य सृजन में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी गयी है। सन 1900 के दशक में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई चरम पर थी। गुप्त जी को जितनी चिंता नारी सम्मान की थी, उससे कहीं ज्यादा चिंता देश के हालातों पर थी। आप प्रखर वक्ता और निडर साहित्यकार थे, अपनी भारतीय जनता को जगाने का प्रयास करते हैं।
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1912 ई० गुप्त की रचना भारत भारती अंग्रेजों ने जब्त कर ली थी।भारत की परतंत्रता देखकर भी सोई जनता की जगाती हुई रचना दृष्टव्य है-
हम कौन थे, क्या हो गए हैं,
और क्या होंगे अभी?
आओ विचारे आज मिलकर,
ये समस्याएँ सभी।

अशोक कुमार गौतम
अध्यक्ष हिंदी विभाग
शिवा जी नगर
रायबरेली (उ.प्र.)
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