सजा | रत्ना भदौरिया | लघुकथा

कल के दृश्य ने वो गाना सार्थक कर दिया ‘मेरा गम तेरे ग़म से कितना कम है ‘। अभी तक गाना खूब सुना ,गुनगुनाया लेकिन हमेशा लगता रहा कि नहीं दुनिया में मुझसे ज्यादा दुखी कोई भी नहीं है। कल के दृश्य ने सबकुछ बदल दिया और लगने लगा अरे ! मुझसे कम दुखी कोई नहीं है। मेरी और नंदिनी की बात अभी ज्यादा पहले नहीं शुरू हुई थी महज एक महीना हुआ था लेकिन दोनों को एक दूसरे पर विश्वास ऐसा जम गया मानो बचपन की सहेलियां हों। काम की व्यस्तता की वजह से फोन पर कम ही बातें होती मैसेज से हाल खबर रोज ही हो जाती। इन एक महीने में तीन से चार बार फोन पर बात हुई। लेकिन ज़्यादातर दो से तीन मिनट ही बात सम्भव हो पायी।कल हम दोनों फ्री थे मेरा कुछ स्वास्थ्य ठीक नहीं था और नंदिनी की कालेज की छुट्टी थी। बातों का दौर लम्बा चला तो उसने उस दृश्य का जिक्र किया जो मेरे लिए दृश्य लेकिन उसकी कहानी थी। नंदिनी ने बात मेरी शादी से शुरू की । तो मैंने कहा नहीं यार अभी नहीं वैसे सच बताऊं करना नहीं चाहती कोई रुचि नहीं है। भाई ,बहन , मां- बाप सब लोग हैं नौकरी भी है फिर क्या जरूरत आज कल वैसे भी लड़कों का कोई भरोसा नहीं। वैसे नंदिनी आपकी शादी हो गयी क्या? नहीं मैं तो चालीस से ऊपर की हो गयी अब क्या करूंगी शादी करके ? क्या ?आप तो बहुत बड़ी हैं मुझसे माफ़ी चाहूंगी हमेशा आपका नाम या यार कहकर बुलाती रही मैं इतनी बेवकूफ कभी पूछा भी नहीं।

अरे नहीं कोई बात नहीं बिट्ट सब चलता है। शादी नहीं की इसके पीछे बहुत बड़ी कहानी है। बताइये ना दीदी आज मैं बिल्कुल व्यस्त नहीं हूं मैंने कहा। नहीं बिट्टू फिर कभी बताऊंगी। नहीं दीदी मैं जिद्द करने लगी । चलो अच्छा इतनी जिद्द कर रही हो तो बता ही देती हूं। आज के बीस साल पहले पापा सरकारी मास्टर के पद से रिटायर हुए और घर पर रहने लगे। एक साल व्यतीत भी नहीं हुआ था कि पापा को कैंसर हो गया उनके रिटायरमेंट के जितने पैसे थे सब उनकी दवाई में लग गये और दुर्भाग्य देखो उसी दौरान कोरोना आ गया मैं प्राइवेट स्कूल अध्यापिका थी कालेज की नौकरी तो बाद में मिली, नौकरी छूट गयी पापा को कैंसर के साथ -साथ कोरोना भी हो गया।

मां भी पापा की देखभाल करते -करते कोरोना की शिकार हो गयी। और एक एक करके दोनों चलते बने। घर ,पैसा जो भी बचा था दोनों भाईयों ने ले लिया मैं अकेले रह गयी। फिर पता है बिट्टू सब लोग कहते इसका भी कहीं रिश्ता कर दो । दोनों भाइयों ने योजना बनाई और जितने भी रिश्ते आते वे तोड़वा देते एक भाई एक कमी निकालता तो दूसरा दूसरी कमी , कोई रिश्ता ही नहीं हो पा रहा था। पास पड़ोस के लोग और भी बोलने लगे थे लेकिन भाइयों को कोई फर्क नहीं पड़ा, एक सबसे दुर्भाग्य का दिन तब आया जब पता चला कि मुझे पागल होने के लिए दवाईयां दी जा रही थी वो भी भाइयों के द्वारा इसका कारण जानने कि कोशिश कि तो पता चला कि महज यह कारण था ,अब इसे संभाले कौन और शादी में तनिक रकम नहीं खर्च होती कौन करे इतने पैसे खर्च —-।

फिर पता है बिट्टू मैंने कहा दिया ना किसी को किसी के सामने गिड़गिड़ाने की जरूरत है और ना ही मेरे बारे में चिंता करने की आप सब अपना अपना देखो। उस दिन से चौकन्नी और सतर्कता के साथ काम करने लगी भगवान का शुक्र रहा कि जल्द ही गांव के एक स्कूल में नौकरी मिल गयी। बिट्टू आज मैं पैंतालीस साल की हो गयी हूं और खुश हूं अपनी दुनिया में लेकिन दोनों भाईयों को जब कभी कभी दुखी देखती हूं तो समझ नहीं पाती की उनको क्या कहूं उनके किये की सजा है या कुछ और ——।