श्मशान लघुकथा | रत्ना भदौरिया

थरथर कांपता हुआ इधर उधर भटकने के बावजूद कहीं गर्माहट वाली जगह नहीं मिली ,तो एक जगह पेड़ की आड़ में बैठ गया ।जितनी तेजी से रात का समय बढ़ रहा था उतनी ही तेजी से कंपकंपाहट बढ़ रही थी। सिर ,कान ,नाक और हाथ पर एक भी कपड़ा ना होने की वजह से ऐसा लग रहा था मानो जम गया हो। शरीर पर तो फिर भी फटे पुराने कपड़े थे‌। पेड़ से दो चार बूंदें सिर पर टपक जाती और मैं अंदर तक और थर्रा जाता। गाड़ियों की आवा जाही ठप सी हो गई थी, आसमान की तरफ देखेकर ऐसा लगा कि अभी एक या दो ही बजे होंगे। तभी पेड़ों से टपक रही बूंदें शुरू हुई ये क्या लगता है बारिश तेज हो गई। अगर नहीं उठा तो राम नाम सत्य हो जायेगी, उठा और चल पड़ा कंपकंपी कम नहीं बढ़ रही थी ,बल्कि अब लथपथ भीग भी चुका था।तभी सामने आग की रोशनी सी प्रतीत हुई पास जाकर देखा तो पता चला ये श्मशान घाट है और ये जल रही लाशों की लपटें हैं।

पहले ठिठुका और पुराने दृश्य आंखों के सामने कौंध गये ,कैसे ? बचपन में ना अंधेरे में निकल पाता और ना ही घर के किसी कोने में जाता यहां तक बिस्तर या सोफे पर पैर नीचे करके नहीं हमेशा ऊपर करके बैठता। घर में अकेले रहना क्या होता है इससे कोशों दूर रहा , हमेशा यही बात का डर रहता कि भूत ना आ जाए।लेकिन एक महामारी आयी और घर का सबकुछ लेकर चली गयी,सब झटके में खत्म हुआ। जिसकी वजह से वो घर काटने को दौड़ता है। घर की प्रत्येक चीज से डर लगता है खुद नहीं समझ पाता कि अपने आप को पागल कहूं या बीमार या फिर कुछ और——।

ऐसा लगने लगा जैसे हड्डियां बोल रही हों इस कंपकंपी से इसलिए पुराने दृश्य को छोड़ श्मशान की तरफ बढ़ चला और वहीं आग के पास लेट गया,सुबह की आवाजों ने नींद तोडा आंखें खोली तो सामने देखा एक सज्जन कह रहें हैं कि ये रे पागल तू श्मशान में लाश की आग के पास लेट गया डर नहीं लगा। कैसा आदमी है तू? अरे भाई साहब ठंड की कंपकंपी से कम ही डर लगा और सबसे अच्छा तो यह लगा कि चैन की नींद आ गयी इस गरमाहट से—। वो सज्जन बुदबुदाया और वहां से चलता बना , मैं भी अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा लिया —-।

रत्ना भदौरिया रायबरेली उत्तर प्रदेश