आत्म – वेदना / सीताराम चौहान पथिक
हिंदीरचनाकर पर वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक की रचना आत्मवेदना पाठकों के सामने प्रस्तुत है –
आत्म – वेदना ।
मंद पवन तन छू गई ,
लगा, तुम्हीं हो पास ।
काश, देख पाता तुम्हें ,
मन हो गया उदास ।
नूपुर की रुनझुन सुनी ,
जागा यह एहसास ।
कारण तो कोई बने ,
बुझे मिलन की प्यास ।
उपवन में खिलते सुमन ,
झूम रहे चहुं ओर ।
नॄत्य – भंगिमा प्रिया की ,
मन में उठी हिलोर ।
आज स्वप्न में दिख गया ,
अंतिम क्षण का दृश्य ।
मन रो – रो पागल हुआ ,
समझ अभी का दृश्य ।
एकाकी मन की घुटन ,
कहूं किसे ॽ जो होय ।
सुख – दुःख सांझे कर सकूं ,
कोई सहॄदय होय ।
पंद्रह वर्ष दारुण कथा ,
हो ज्यों कल की बात ।
अभी कहीं से आएगी ,
बन कर किरण – प्रभात ।
शुक्र दिवस भूला नहीं ,
काली अंधियारी रात ।
रूठ गया था भाग्य ,
लालिमा लिए उगा था प्रात।
सपनों का यह पालना ,
झूल रहा दिन – रैन ।
मधुर मिलन स्वर्णिम घड़ी ,
मिलता इनमें चैन ।
मीठी – कड़वी स्मृतियों ,
के यह ताजमहल ।
तुम्हे समर्पित हैं प्रिये ,
कर दो चहल-पहल ।
नीरस रसमय हो उठे ,
जब मिले अलौकिक रंग रंग ।
भूल जाऊं सारी व्यथा ,
पथिक तुम्हारे संग ।।
सीताराम चौहान पथिक
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