संचार क्रांति और भाषिक उदासीनता | हिंदी दिवस विशेष

“संस्कृत माँ, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है।” ◆डॉ फादर कामिल बुल्के।

विभिन्न मामलों में प्रगति के विविध सोपानों को तय करता हुआ हमारा देश भारत समृद्धि के पथ पर अग्रसर है। सूचना-क्रांति के इस युग में आज भौतिकता की दृष्टि से जितना समृद्ध हम आज हैं, उतना पहले कभी न थे। हम आध्यात्मिक दृष्टि से भले ही पिछड़ गए हैं, लेकिन कला, कर्म और कौशल को विकसित करके हमने स्वयं को सुखी बनाने का हर संभव प्रयास किया है। भौतिकता की दौड़ में जो सबसे खतरनाक है, वह है हमारी भाषिक उदासीनता।

भाषिक का अर्थ विशेष संदर्भ में भाषाओं के संबंध में है, लेकिन क्योंकि हम भारत में रहते हैं इसलिए यहां भाषा का अर्थ हिंदी भाषा के सन्दर्भ में ग्रहण किया जाना चाहिए। अपने 1000 वर्षों के इतिहास में क्रमशः संस्कृत – पालि – प्राकृत और अपभ्रंश से निकली हुई हिंदी स्वतंत्रता के पूर्व तक अपने मार्ग को प्रशस्त कर रही थी। परन्तु पता नहीं, कैसी वैमनस्य की हवा चली कि आजादी के बाद जो देश की संवैधानिक स्थितियां बनी, उसमें हमारे वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं का हिंदी के प्रति मोह भंग होता गया। जबकि आजादी की लड़ाई में हिंदी का योगदान अविस्मरणीय है।

अंग्रेजी के अल्पज्ञान ने हिंदी को पंगु बना दिया।”अशोक कुमार गौतम।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में 14 सितंबर सन 1949 ई० को संविधान सभा की लंबी चर्चा हुई, तब उसी दिन शाम को राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति प्रदान की गई। इसलिए प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। संविधान का अनुच्छेद 343 (1) के तहत भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी, लिपि देवनागरी और गणितीय अंक अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9 मान्य होंगे। भाषा संबंधी उपबंध संविधान के अनुच्छेद 349 से 351 तक वर्णित है। महात्मा गांधी ने हिंदी के रूप में हिंदुस्तानी को अपनाने की बात कहकर प्रकारांतर से हिंदी पर बड़ा उपकार किया है।

“वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है, जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके।” ◆पीर मुहम्मद मूनिस।

हिंदी भाषियों ने भी हिंदी को बढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हिंदी का हतभाग्य यह रहा कि आजादी के बाद अभिजात्य वर्ग का अंग्रेजी के प्रति मोह बना रहा और अंग्रेजी का यह व्यापक मोह अभिजात वर्ग से नीचे की ओर अर्थात जनसामान्य में उतरता चला गया। आज स्थिति यह हो गई है कि हिंदी के प्रदेशों में भी कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को न तो हिंदी माध्यम से शिक्षा देना चाहता है और न ही हिंदी पढ़ाना चाहता है। रही-सही कसर संचार व्यवस्थाओं ने तोड़ कर दी है। दुःख इस बात का है कि हम आज तक इंजीनियरिंग और मेडिकल के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से तैयार नहीं कर पाए हैं। विद्यार्थियों में मेडिकल और यांत्रिकी की पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती। मन में भ्रम समाया हुआ है कि विज्ञान की सम्पूर्ण पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती अर्थात देशी भाषाएं इस कार्य के लिए नकारा है, जबकि ऐसा नहीं है।

संसार में बहुत से ऐसे देश हैं जो चिकित्सा, तकनीक, यांत्रिक और यहां तक मानविकी विषयों की पढ़ाई अपनी भाषा में करते हैं और आज संसार की दौड़ में सबसे आगे हैं। हम उपरोक्त विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी में करके भी पीछे हैं। इससे सिद्ध होता है कि उन्नति और प्रगति के लिए अंग्रेजी अनिवार्य नहीं है, लेकिन संकल्प की अनिवार्यता अवश्य होनी चाहिए। अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो, हिंदी दिलों से दिलों को जोड़ने वाली स्नेहमयी भाषा है।

“राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी ही जोड़ सकती है।” ◆बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’।

भारत वासियों का एक बड़ा हिस्सा हिंदी बोलता है, एक छोटा हिस्सा अंग्रेजी प्रभाव वाला है, जो ऊँचे-ऊँचे पदों पर अथवा सरकार में बैठा और शासन करता है। इन्हीं नीति नियंताओं के कारण हिंदी की उपेक्षा कहीं न कहीं हो रही है। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने घोषणापत्र में भाषा की बात नहीं करती है। कारण कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि शासक और शोषितों की भाषा हमेशा अलग अलग रहती है। अब तो आत्मचिंतन करने पर महसूस होता है कि हिंदी गरीबों की भाषा और अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की भाषा बन गई है। हिंदी की प्रगति इसका रोजगार से न जुड़ना भी एक बाधा है। यह भी देखा गया है कि हिंदी का झंडा उठाने वाले घरों का वातावरण अंग्रेजीमय है। ऐसी स्थिति में हिंदी के प्रति न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

अशोक कुमार गौतम,

असि० प्रोफ़ेसर, साहित्यकार

शिवा जी नगर, दूरभाष नगर रायबरेली

मो० 9415951459

hindi diwas speech/के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली

हर घर की नाम पट्टिका हो हिंदी में : डॉ चंपा श्रीवास्तव

hindi diwas speech:के0डी0 हिंदी शोध संस्थान, रायबरेली की तरफ से विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आयोजित संगोष्ठी में डॉ चंपा श्रीवास्तव पूर्व अध्यक्ष कला संकाय अधिष्ठाता छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर ने अपने उद्बोधन में कहा के हिंदी आज न कि भारतवर्ष में बल्कि संपूर्ण विश्व में अपना एक बृहद रूप स्थापित कर चुकी है उन्होंने यह भी कहा आइए हम सब विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर यह संकल्प लें के हम अपने घरों की नाम पट्टिका को हिंदी में लगवाने का काम करें। डॉ0 आर बी श्रीवास्तव प्राचार्य ने हिंदी दिवस के अवसर पर विश्व में हिंदी के बढ़ते हुए प्रभाव को जो उन्होंने विदेश यात्राओं में व्यावहारिक रूप से देखा उसको सभी के समक्ष रखते हुए कहा कि विश्व में ऐसे भी राष्ट्र हैं जहां पर हिंदी को पढ़ने पढ़ाने और हिंदी के क्षेत्र में वहां की सरकारें रोजगार देने में वचनबद्ध हैं। विदेशों की सरकारें यह सदैव प्रयासरत रहती हैं कि हिंदी सिर्फ व्यावहारिक भाषा ही नहीं कार्यालयों की भाषा एवं पत्र व्यवहार की भाषा बने।

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hindi diwas speech:असि0 प्रोफेसर अशोक कुमार ने हिंदी के वैश्विक स्तर की महत्वपूर्ण जानकारियां देते हुए कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह ने नागपुर में 10 जनवरी 2006 ने कहा कि आज से प्रतिवर्ष ‘विश्व हिंदी दिवस’ मनाएंगे। भारत ही नहीं मारीशस बाली जकार्ता जैसे राष्ट्र हिंदी को अपनी कार्यालयों की भाषा, पत्र व्यवहार की भाषा एवं पठन-पाठन की भाषा के रूप में स्थापित कर रहे हैं। आज हिंदी अपना एक बृहद रूप स्थापित कर रही है हम सब सौभाग्यशाली हैं के ऐसे राष्ट्र में मेरा जन्म हुआ जहां की भाषा बहुधा हिंदी है।अशोक कुमार ने आगे कहा कि अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो हिंदी मन से मन को जोड़ने वाली भाषा है।

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hindi diwas speech:दयाशंकर राष्ट्रपति पुरस्कृत असिस्टेंट प्रोफेसर ने सभी को हिंदी दिवस की बधाई देते हुए कहा के हम और हमारी हिंदी हमारी पहचान है हमें अपनी पहचान को विश्व पटल पर अपने लेखन से स्थापित करना इसके लिए हमें हिंदी को और सबल एवं समृद्ध बनाना चाहिए। भारत के वर्तमान महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने सभी न्यायालयों के ये सुक्षाव दिया है कि क्यूं न न्यायालयों में चल रहे मुकदमों के फैसले हिंदी में सुनाएं जाएं ताकि हमारे देश की गांव में निवास करने वाली कम पढ़ी लिखी जनता भी उसे पढ़ सकें और समझ सके “हिंदी पढ़ें-हिंदी बढ़े” ऐसी धारणा के साथ हम सब हिंदी को उत्तरोत्तर विश्व की अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखना चाहते हैं। यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है। के0डी0 शोध संस्थान के सचिव एवं चिकित्साधिकारी डॉ0 प्रभात श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदी हम सभी विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर आज से यह संकल्प लें के कार्यालय में या बैंक खातों में जहां भी हम हस्ताक्षर करें, हिंदी में करें।कार्यक्रम का संचालन डॉ0 पूर्ति श्रीवास्तव असिस्टेंट प्रोफेसर मनोविज्ञान ने किया।

hindi diwas 2021 -हिन्दी का सफर कहाँ तक/आशा शैली

हिन्दी का सफर कहाँ तक

(hindi diwas 2021)


hindi diwas 2021: कभी-कभी हम भयभीत से हो जाते हैं यह सोचकर कि बदलते हुए समाज के परिवेश में हमारी हिन्दी कहीं पिछड़ तो नहीं रही? सम्भवतया इसमें आंग्ल भाषा का प्रभाव भी शामिल हो, किसी हद तक हिन्दी का स्वरूप बिगाड़ने का दायित्व आम बोल-चाल में इंग्लिश का दखल भी है जिसे हम आज हिंग्लिश कहने लगे हैं। हिन्दी को रोमन में लिखना भी एक तरह की निराशा पैदा करता है  परन्तु वह मात्र मोबाइल तक सीमित है, इसलिए अधिक परेशान नहीं करता। हाँ बोलने में आंग्ल भाषा का अधिक प्रयोग किसी तरह से भी हितकर नहीं कहा जा सकता।

मैकाले का षडयंत्र सफल हुआ।

(hindi diwas 2021)

वर्तमान परिपेक्ष में नयी पीढ़ी को जब हम अंग्रेज़ी पर आश्रित और निर्भर देखते हैं तो मन में एक टीस-सी उठती है। यहाँ हम निरुपाय से बस देखते रहने के लिए विवश हैं। मैकाले का षडयंत्र  सफल हुआ। आज उसकी नीति सफल होकर कहीं बहुत गहरे पैठ गई है और इस षडयंत्र  का शिकार हुए हम भारतवासी चाहकर भी अपनी भावी पीढ़ियों को हिन्दी की ओर उन्मुख नहीं कर पा रहे। लगता है आज हिन्दी लिखना-पढ़ना लोगों से छूट रहा है। हाँ यह आवश्य है कि घर में यदि हिन्दी बोली जाती है तो भावी पीढ़ी हिन्दी सीखेगी ही परन्तु अधिक संभ्रांत कहे जाने वाले घरों में बात-चीत का माध्यम भी अंग्रेजी ही हो गई है। मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में भी हिन्दी किसी हद तक मौखिक होकर रह गई है।

मैं उत्तराखण्ड के जिस भाग में रहती हूँ वहाँ राष्ट्रीय सेवक संघ का प्रभाव अधिक है, बहुत सारे घरों के बच्चे शाखा में जाते हैं। उस पर भी बच्चे अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के कारण हिन्दी की गिनती तक नहीं जानते। मैं स्वयं पंजाबी भाषी क्षेत्र से हूँ। मेरा जन्म अविभाजित पंजाब में हुआ और अभी तक हमारे घरों में पंजाबी बोली भी जाती है फिर भी हिन्दी का प्रभुत्व बना हुआ है। इस पर भी नई पीढ़ी हिन्दी की गिनती तक नहीं जानती। हालांकि आज की नई पीढ़ी के बच्चे हिन्दी बोलते अवश्य हैं यह किसी हद तक हमारी पीढ़ी का दबाव भी हो सकता है क्योंकि साधारणतया घरों और गली बाजारों में हिन्दी बोली जाती है परन्तु लिखने-पढ़ने के नाम पर नई पीढ़ी के बच्चे वही अंग्रेज़ी ही जानते समझते हैं।

एक समय था जब अक्सर सुना जाता था कि दक्षिण भारत में हिन्दी का विरोध बहुत मुखर है। परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। इसका कारण सम्भवतया रोजगार भी है। बहुत सी सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं में दक्षिण भारतीय लोग उत्तर भारत में नौकरी के लिए आ रहे हैं, इसी प्रकार उत्तरी भारत के लोग दक्षिण में नौकरी कर रहे हैं। ऐसे में राजनीतिक पैंतरे बाजी के बाद भी भाषा के विस्तार पर अंकुश रखना कठिन हो जाता है और इसका लाभ हिन्दी को भरपूर मिल रहा है।

दक्षिण के हर राज्य में हिन्दी प्रचार के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी बहुत-सी संस्थाएँ हैं और वे अपना काम भी कर रही हैं, फिर भी यह कोई बहुत उत्साहवर्धक स्थिति नहीं है तो निराशाजनक भी नहीं। काम तो हो ही रहा है, भले ही गति धीमी है। कुछ न होने से कुछ होना बेहतर हैं। हाँ यह अवश्य है कि हमें और मेहनत करनी पड़ेगी। कोई माने या न माने हिन्दी का फलक बहुत विस्तृत है। हिन्दी धीरे-धीरे जाग रही है।

हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा।

(hindi diwas 2021)

यहाँ केवल मैकाले को कोसने से काम नहीं चलने वाला। हमारी इस दुखद स्थिति के उत्तरदायी हमारे नेतागण भी रहे हैं, जिन्होंने सब कुछ जानते-बूझते हुए भी हिन्दी को रोजगार से नहीं जोड़ा। स्थिति दुखद तो है परन्तु एकदम निराशाजनक भी नहीं है, क्योंकि तनिक-सी समझ विकसित होते ही हमारे बच्चे हिन्दी की ओर उन्मुख होने लगते हैं। पर ये सारी परिस्थितियाँ मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के लिए ही हैं। उच्च और उच्चमध्यम वर्ग तेज़ी से न केवल आंग्ल भाषा का अनुसरण कर रहा है अपितु पाश्चात्य संस्कृति  की ओर भी भाग रहा है यही सबसे बड़ी समस्या है। क्योंकि यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति के अनुसार मध्यम और निम्न वर्ग इसी उच्च वर्ग को अपना आदर्श मानकर इनके पीछे चलता है। ऐसे में जो लोग या संस्थाएँ हिन्दी के लिए काम कर रहे हैं उन्हें साधुवाद और प्रोत्साहन देना आवश्यक है।

हमारे समाज की तेजी से बदलती दशा और दिशा जहाँ अंग्रेज़ी भाषा पर निर्भर होती देखी जा रही है वहीं एक सुखद बयार के झोंके-सा सीमापार के देशों में बढ़ता हिन्दी क्षेत्र मन को आश्वस्त भी करता है। कहीं कानों में कोई कहता है कि ‘अभी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ है।’ ऐसा ही एक झोंका मैंने कुछ वर्ष पूर्व महसूस किया था जब उत्तराखंड के  वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ के आयोजन में हिन्दी के लगभग 70 ब्लॉगर खटीमा ,उत्तराखंड में एकत्र हुए। उस समय मुझे पता चला कि हज़ारों की संख्या में हिन्दी ब्लॉगर काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं नए बच्चे जब हिन्दी साहित्य में उतर रहे हैं तो हिन्दी साहित्य की गहराई तक जाने के लिए उन्हें हिन्दी सीखनी भी पड़ती है।

इस दिशा में व्हाट्सएप्प और फेसबुक भी सहायक हो रहे हैं। नेट को कोसने वालों की भी कमी नहीं है पर सच तो यह है कि जिसे जो सीखना है वह सीख ही लेगा। यानि जिसे जिस चीज़ की तलाश है वह मिल ही जाएगी। आज यदि पुस्तकें नहीं पढ़ी जा रहीं तो उससे भी अधिक नेट पर साहित्य को पढ़ा जा रहा है। अर्थात पढ़ने की प्रवृति बढ़ी है। ऐसे में मोबाइल के कारण आँखों पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के कारण पुस्तकों का महत्व भी लोगों की समझ में आता जा रहा है।

भाषाओं के विस्तार और आदान-प्रदान के लिए पर्यटन भी बहुत सहयोगी होता है। इतिहास गवाह है कि हर बड़ा लेखक पर्यटन से जुड़ा रहा है, अर्थात् घुमक्कड़ रहा ही है। भारत विविधताओं को देश है और पर्यटन की अपार संभावनाएँ यहाँ विद्यमान हैं। बहुत से विदशी छात्र यहाँ अध्ययन के लिए भी आते हैं और भारत में रहकर वे हिन्दी न सीखें यह हो ही नहीं सकता। इतना ही नहीं आज हिन्दी के महत्व को समझते हुए विदेशों की सरकारें भी अपने यहाँ हिन्दी पढ़ाने लगी हैं। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के गुजराती कविता संग्रह का हिन्दी अनुवाद सुप्रसिद्ध ( लेखिका श्रीमती अंजना संधीर) ने किया तो बहुत से अन्य अनुवाद दूसरी भाषाओं से हिन्दी में और हिन्दी से अन्य भाषाओं में हो रहे हैं। इसका प्रमाण मैं इस आधार पर दे सकती हूँ कि शैलसूत्र में प्रकाशनार्थ कई भाषाओं से अनुवादित रचनायें मेरे पास आ चुकी हैं। इससे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी का विस्तार तो हो ही रहा है, हिन्दी साहित्य के भण्डार की  भी निरंतर वृद्धि  हो रही है।

भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

श्रीमती अंजना संधीर जहाँ पाँच वर्ष तक अमेरिका में हिन्दी पढ़ाती रही हैं तो वहीं डॉ. यास्मीन सुल्ताना नक़वी जैसे विद्वान जापान में अपने वर्षों के कार्यकाल में हिन्दी के सैकड़ों विद्यार्थियों को पारांगत करके आए हैं और आज भी कर रहे हैं। वर्तमान में बिड़ला फाउंडेशन के निदेशक सुरेश तुपर्ण भी जापान में हिन्दी पढ़ा चुके हैं। कहना न होगा कि प्रत्येक देश में आज हिन्दी पढ़ाई जा रही है। कारण चाहे जो भी हो हमें परन्तु हमारी भाषा को इसका सीधा लाभ मिल रहा है। हालांकि भारतीय सभ्यता की जड़ें जहाँ बहुत गहरी हैं, वहीं हिन्दी का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, फिर भी भारतीय सभ्यता के दीवाने बहुत लोग हैं। उन्हें भारतीय सभ्यता से जोड़ने का काम तो हिन्दी ही करेगी।

यहाँ हमारे लिए हिन्दी में निकलने वाली ई पत्रिकाओं का भी संज्ञान लेना बहुत आवश्यक है। वर्तमान समय में बहुत-सी ई पत्रिकाएँ निकल रही हैं जो निःसंदेह हिंदी के लिए संजीवनी का काम कर रही हैं। आजकल सभी अखबारों ने भी अपने ई संस्करण निकालने शुरू कर दिए हैं। हिन्दी ई पत्रकाओं में जय-विजय, हस्ताक्षर वेव पत्रिका, उच्चारण व अन्य ऐसी बहुत-सी पत्रिकाएँ निकल रही हैं परन्तु मैं यहाँ जिस पत्रिका की चर्चा कर रही हूँ उसका नाम है ‘अनहद ड्डति’।

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका

‘अनहद ड्डति’ पत्रिका मेरे संज्ञान में तब आई जब अचानक ही मुझे अम्बाला से निमन्त्रण मिला। यह बात शायद सात-आठ वर्ष पुरानी है, क्योंकि इस पत्रिका को निकलते हुए तब भी समय हो चुका था। तब तक मैं केवल प्रिंट मीडिया से ही परिचित थी। अनहद ड्डति का वार्षिक समारोह था। अम्बाला जाकर मुझे पता चला कि इस पत्रिका के सम्पादक चसवाल दम्पति हैं। प्रेम पुष्प चसवाल जी की कई पीढ़ियाँ हिन्दी साहित्य से जुड़ी हुई हैं और उनकी पत्नी प्रेमलता चसवाल जी भी अच्छी साहित्यकार हैं। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इनकी संतानें भी हिन्दी साहित्य की सेवा कर रही हैं।

अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है

यह एक कार्यशाला थी। प्रेमलता चसवाल जी ने पत्रिका का परिचय कराया और कार्यशाला में सिखाया कि हम ई-पत्रिका में भागीदारी कैसे करें। वर्तमान में यह पत्रिका आठ वर्ष की हो चुकी है। भारत से पत्रिका को चसवाल दम्पति और अमेरिका से आपकी बेटी देख रही है। कहना न होगा कि इन आठ वर्षों में पत्रिका ने बहुत से नये आयामों को छुआ है। पिछले वर्ष धर्मशाला ,हिमाचलप्रदेश  में अनहद ड्डति के बैनर के तले आयोजित तीन दिवसीय कार्यक्रम में आपकी बेटी विभा ने धर्मशाला में उपस्थित सभी साहित्यकारों से उनकी पुस्तकों की एक-एक प्रति लेकर अमेरिका के एक पुस्तकालय में पहुँचाई। आज जहाँ हवाई यात्रा में हम सीमित सामान ही ले जा सकते हैं वहाँ मोटी-मोटी चालीस से अधिक पुस्तकें अमेरिका के पुस्कालय में पहुँचाना आसान काम नहीं और यह हिन्दी और हिन्दी साहित्यकारों के लिए किसी सम्मान से कम नहीं है। इसे हम हिन्दी के लिए उपलब्धि क्यों न मानें। अनहद ड्डति में नए-पुराने सभी लेखकों को स्थान मिलता है, अतः इसका प्रसार भी व्यापक है। यह हिन्दी के लिए शुभ है।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इण्डोनेशिया, कम्बोडिया ही नहीं सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भारतीय सभ्यता के अवशेष देखे जा रहे हैं और वहाँ के अध्ययनशील छात्र अपनी जड़ों की ओर लौटने का प्रयास कर रहे हैं। यह सच है कि विदेशों में हिन्दी भाषा का प्रभाव बढ़ रहा है।

अकेले कम्बोडिया में ही अगणित ऐसे छात्र-छात्राएँ है जिन्हें भारत और हिन्दी से असीम प्यार है। पर बिडंम्बना यह है कि हम तो  अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से अंग्रेजी सिखाने में लगे हुए हैं।

 विद्वानों का कहना है कि यदि भारत की सरकारें संवेदनशील होतीं तो सांस्कृतिक  एकता के कारण सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया के देश भारत के साथ एकजुट होते। जैसे यूरोपीय देश एकजुट हैं। हमारे पूर्वज हमें यह विरासत देकर गये हैं। पर हमारा देश तो सैक्युलर था उसने इन देशों के प्रति उदासीनता दिखाई।

इन देशों में भारत के प्रति असीम अनुराग है। यहाँ का जनसामान्य अपनी संस्कृति  की जड़ें भारत में देखता है। कम्बोडिया, थाईलैंड, लाओस, इन्डोनेशिया, वियतनाम, बर्मा, फिलिपीन्स आदि भारतीयता के रंग में रंगे हुए देश हैं। चूंकि यहाँ के लोगों को संस्कृत भाषा से गहन अनुराग है। इन लोगों की भारत के सांस्कृतिक  प्रतीकों की जानकारी अद्भुत है। यह विष्णु, शिव, गंगा, गरुड़ आदि सभी से गहराई से परिचित हैं पर भारत में तो धर्मनिरपेक्षता का अर्थ संस्कृति  विहीनता समझा गया। परिणाम सामने है।

बूंद-बूंद से ही घट भरता है। अतः यहाँ हर इकाई का योगदान महत्वपूर्ण है। हमारे आस-पास बहुत से विद्वान हिन्दी में ब्लॉग पर काम कर रहे हैं इन विद्वानों में डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’ शिखर पर हैं। इनका हिन्दी ब्लॉग उच्चारण आज भी यथावत काम कर रहा है। डॉ. सि(ेश्वर का कर्मनाशा ब्लॉग काम कर रहा है। शेफाली पाण्डे और ऐसे बहुत से नाम हैं।

मैंने अभी तक ब्लॉग पर काम नहीं किया परन्तु इसके महत्व से इनकार भी नहीं कर सकती। मूलतः पंजाबी भाषी होते हुए मैंने पंजाबी में बहुत कम लिखा है। हालांकि मैंने उर्दू, डोगरी महासवी बोलियों में भी लिखा है। परन्तु मेरा अधिक काम हिन्दी में ही है। यहाँ मैं यह भी कहना चाहूँगी कि यदि हमें हिन्दी के बारे में सोचना है और उसे विश्व-व्यापी बनाने की इच्छा है तो अन्य भाषा भाषियों से अपेक्षा न रखकर स्वयं पहल करनी होगी। मैंने ओड़िया सीखकर ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद किया है। इसी तरह यदि हम भारत की दूसरी भाषाओं में रुचि लेते हैं तो निश्चय ही हम हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं।

हमारे लिए प्रसन्नता की बात यह भी है कि वर्तमान में सरकारी कार्यालयों में भी हिन्दी में काम होने लगा है।

 कोई चाहे तो वह सारा काम हिन्दी में कर सकता है और यदि कोई कार्यालय इसमें लापरवाही बरतता है तो उसकी शिकायत भी की जा सकती है।

हिन्दी को विशाल फलक दिलाने में जहाँ सिनेमा के योगदान को जाना जाता है वहीं इस दिशा में प्रवासी भारतीय साहित्यकारों का योगदान भी कम नहीं है। विदेशों में बसे हमारे रचनाकार अपने-अपने तरीके से हिन्दी को आगे बढ़ा रहे हैं। वे जहाँ भी रह रहे हैं, वहाँ की भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी में भी निरंतर लिख रहे हैं। इससे हिन्दी का फलक विस्तार पा रहा है। वरिष्ठ साहित्यकारों के ऐसे बहुत से नाम हैं जो विदेश में भी हिन्दी भाषा में लिख रहे हैं।

सुखद आश्चर्य का विषय है कि नई पीढ़ी जो साहित्य में उतर रही है वह बहुत अच्छे स्तर का साहित्य दे रही है। यह हिन्दी के लिए उपलब्धि कही जाएगी। यदि कोई भाषा साहित्य में अपना स्थान बना लेती है तो उसका अस्तित्व खतरे में नहीं हो सकता। अतः हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए और हिन्दी के उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए।

hindi -diwas- 2021
आशा शैली

सम्पादक शैलसूत्र ;त्रै.द्ध

इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ, जिला  नैनीताल

उत्तराखण्ड-262402