डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र की रचना फल Motivational poem in hindi प्रेेरणा दायक कविता का सार यह है कि फल वही प्राप्त कर पाता है जिन्होंने अहंकार के
वृहदाकार खोह को प्यार की मिट्टी से पाटा हो,वही व्यक्ति सच्चा सुख प्राप्त कर पाता है प्रस्तुत है रचना-
फल
(Motivational poem in hindi)
वृहद सुख की कामना
मन में लिए
घूम रहा है मनुष्य इधर- उधर
उस मृग की तरह
छद्माभास जिसे होता है अनवरत
छद्माभास
एक गंभीर रोग है नज़र का
जिसके ताने- बाने को
सत्ता और संपत्ति ने ही बुना है
निरंतर सिलता है
सत्ता और संपत्ति
अहंकार के ही परिधान को
भटक रहा है सदियों से इंसान
इसीलिए इसे धारण कर
नरक का पथ निर्मित होता है अहंकार से
क्योंकि इस दोष से नहीं बच सके हैं
बड़े- बड़े संन्यासी
इसीलिए नहीं चख सके
समता के फल के स्वाद को
क्योंकि
समता के फल का स्वाद
मिलता है उन्हीं को
जिन्होंने अहंकार के
वृहदाकार खोह को
प्यार की मिट्टी से पाटा हो
देश के कुछ संतों ने पाटा था इसे
चख सके इसीलिए
समता के फल के
मीठे स्वाद को वे
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छोटी मुनिया तो माँ के आँचल में दुबक गई लेकिन, बड़ा, बड़ा कुनमुना रहा था। माँ ने उठकर देखा तो उसका पैर खुला हुआ था इसलिए ठंड में कुनमुना रहा था। माँ ने कंबल खींचकर बड़े के पैरों में ढक दिया, जैसे ही माँ ने कंबल खींचा छोटा का सिर खुल गया वो चिड़चिड़ाने लगा। माँ बड़े को ढकती तो छोटा खुल जाता और छोटे को ढकती तो बड़ा, दोनो हाथ-पैर सिकोड़े पड़े थे। माँ कि छटपटाहट उसे सोने नहीं दे रही थी, बार-बार बड़बड़ाती आज अचानक ठंड इतनी बढ़ क्यों गयी, ये ठंड को भी अभी से आ जाना था।
सुबह पिता जाम पर जाते-जाते कह रहे थे, अब ठंड बढ़ रही है ऐसे में कंबल वाले आते हैं तुम ध्यान रखना, कम-से- कम दो कंबल तो ले ही लेना। बच्चों ने माँ से ऐसा कहते हुये पिता को सुन लिया था, जैसे ही कंबल वाला आया बच्चे माँ को आवाज लगाने लगे, माँ कंबल वाला आया है। माँ काम कर रही थी सो अभी टाल दिया। अब जब भी कंबल वाला आता बच्चे माँ को बताने दौड़ते। माँ बहुत सुंदर-सुंदर कंबल आया है, शाल और चादर भी है। तुम अपने लिये शाल भी ले लेना सुबह उठती हो तुम्हारे पास शाल नहीं है तुम्हें ठंड लगती होगी। पिताजी के लिये चादर भी ले लेना उनका बिछौना बिल्कुल फट चुका है। जब भी कंबल वाला आता माँ बच्चों की बातों को अनसुना कर देती, मुनिया कह रही होती है मैं तो लाल वाला लूंगी, बड़ा कहता मैं आकाश वाला और छोटा कहता मैं तो शेर वाला लूंगा। माँ चाहती थी कि ये कंबल वाला यहाँ से जल्दी निकल जाय और कंबल वाला था कि बार-बार वहीं आकर आवाज लगाने लग जाता। बेचने वालों की भी अजीब आदत होती है, कान चौकन्ना रखते हैं। बच्चों की बात सुनकर कंबल वाला भी रोज यहीं मंडराता रहता कंबल ले, शाल ले, चादर ले, माँ को बड़ी चिड़चिड़ाहट होती थी। जब भी कंबल वाला आता माँ टाल जाती, जबकि, पिताजी रोज कहकर जाते थे कि, शायद आज आयें कंबल वाले तुम जरा बाहर ध्यान रखना। बच्चों को समझ में नहीं आता कि, जब पिता ने बोला है तो माँ कंबल लेती क्यों नहीं।
इधर रोज ठंड बढ़ती जा रही थी। माँ रोज रात में यही बड़बड़ाती कि, कंबल वाले आज फिर नहीं आये, पता नहीं कब आयेंगे, इस बार आयेंगे भी या नहीं आयेंगे। पिता शाम को घर में आते ही माँ से यही सवाल पूछते कंबल वाले आये थे क्या! माँ कहती इधर तो नहीं आये, उधर तुम्हें कहीं दिखे क्या! तुम्हें कहीं दिखें तो तुम ध्यान रखना, एकाध तो ले ही लेना।
बच्चे आपस में बात करते कि, माँ-पिताजी को आखिर; कौन से कंबल वाले का इंतजार है। कौन से कंबल वाले से कंबल खरीदना चाहते हैं। आखिर,उन्हें कैसा कंबल चाहिए । ठंड बढ़ती जा रही है और माँ-पिताजी कह रहे हैं थोड़ा और इंतजार कर लेते हैं। बच्चे सोच रहे हैं जितने कंबल वालेे आये हैं उन्होंने तो सबके बारे में माँ को बताया है फिर वो कौन सा कंबल वाला है जिसका माँ पिता जी को इंतजार है। अब बच्चों को क्या मालूम; माँ-पिताजी कंबल बेचने वालों की नहीं, कंबल बाँटने वालों की बात कर रहे हैं।
हिंदी रचनाकार का प्रयास रहता है hindi kavita sine media darpan समाज से जुडी कविता पाठकों के सामने प्रस्तुत हो वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक की रचना सिने – मीडिया दर्पण उस कथन को चरित्रार्थ कर रही हैं । २०२० में ऐसा ही हुआ जब जाने- माने अभिनेता ने अपने मायानगरी निवास पर आत्महत्या कर ली जब इस मामले को जनता के सामने प्रस्तुत किया तो बहुत सवाल सभी के मन में थे कि जाने -माने अभिनेता ने सब कुछ होते हुए भी खुदखुशी क्यों की इन सभी बिंदुओं को अपनी लेखनी में संजोया हैं वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक ने अपनी रचना में ,हमें आशा है कि काफी सवाल आपके इस कविता को पढ़ने के बाद हल होंगे ।
डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘ नीरज ‘ प्रस्तुत गीत संग्रह hindi geet lyricsहम सबके हैं सभी हमारे के माध्यम से अपनी काव्य-साधना के भाव सुमन राष्ट्रभाषा हिंदी के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं | इस संकलन की गीतात्मक अभिव्यक्तियों में भाव की प्रधानता है |
आपको आत्म – वेदना/ सीताराम चौहान की हिंदी कविता कैसी लगी , पसंद आये तो समाजिक मंचो पर शेयर करे इससे रचनाकार का उत्साह बढ़ता है।हिंदीरचनाकर पर अपनी रचना भेजने के लिए व्हाट्सएप्प नंबर 91 94540 02444, 9621313609 संपर्क कर कर सकते है। ईमेल के द्वारा रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है|
निराला जी के पूर्वज उन्नाव जनपद के गढकोला ग्राम के रहने वाले थे, जो बैसवारा क्षेत्र में आता है। आपका जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल में 21 फरवरी 1896 ई0, वसंत पंचमी को हुआ था। बचपन का नाम सूरज कुमार था, बाद में उत्कृष्ट काव्यसृजन के कारण पूरा नाम ‘महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हो गया था। बचपन में आपने बंगाली भाषा सीखी थी, तत्पश्चात आपका विवाह रायबरेली जनपद के डलमऊ निवासी पं0 रामदयाल की सपुत्री मनोरमा के साथ वैदिक बिधि-विधान के साथ संपन्न हुआ था। धर्मपत्नी मनोरमा के कहने पर आपने हिंदी भाषा का अध्ययन करके ही हिंदी में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया। फिर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन किया। मनोरमा जी ने एक कन्या को जन्म दिया। बेटी को जन्म देने के बाद परलोकवासी हो गईं, तब निराला जी के जीवन में मानो वज्रपात हो गया हो।
‘छायावाद’ आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णिम युग माना जाता है।
पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाको महाप्राण, मतवाला, छयावाद का कबीर, मस्तमौला, विद्रोही कवि आदि नामों की संज्ञा दी गयी है। छायावाद के सभी तत्व निराला के काव्य में विद्यमान हैं। इनका जीवन सदैव शूलों से भरा था फिर भी गरीब, असहायों एवं महिलाओं के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। निराला ने अपनी रचनाओं में स्त्री को माता, पुत्री, पत्नी, आराध्या, देवि, साध्वी आदि रूपों में चित्रित किया है। आपने अपनी कविता में अत्यंत मार्मिक शब्दों में पत्नी ‘मनोरमा’ को स्मरण करते हुए लिखा है-
वह कली सदा को चली गयी दुनियां से, वह सौरभ से पूरित आज दिगन्त।
ऐसा ही शोक संवेदनाओं से परिपूर्ण अश्रुपूरित काव्य ‘सरोजस्मृति’ है। सरोजस्मृति को हिंदी जगत का सर्वश्रेष्ठ ‘शोकगीत’ कहा जाता है। निराला ने अपनी पुत्री का विवाह शिव शेखर द्विवेदी से कर दिया था। अठारह वर्ष पूर्ण करके बेटी ने उन्नीसवें वर्ष में कदम रखा ही था कि चेचक और तपेदिक रोग हो जाने के कारण बीमार हो गयी। दुर्भाग्यवश विवाहिता पुत्री सरोज की मृत्यु 19वें वर्ष में सन 1935 में राणा बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली में हो गयी थी। सुमित्रानंदन पंत जैसे वरिष्ठ साहित्यकार बेटी को देखने आए थे। निराला जी यह मानते हैं कि पुत्री की उम्र श्री मद्भागवत गीता के अठारह अध्याय के समकक्ष हैं, जो सरोज पूर्ण कर चुकी है। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है। इस शोकगीत में भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज में उसके दायित्व, संपादकों के प्रति आक्रोश और अंतर्मन की पीड़ा दिखाई पड़ती है। कवि निराला ने श्रीमद्भागवत गीता में अटूट आस्था, श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए लिखा है-
उन्नवीश पर जी प्रथम चरण, तेरा यह जीवन सिंधु-तरण। पूरे कर शुचितर सपर्याय, जीवन के अष्टादशाध्याय।”
पुत्री सरोज की मृत्यु के तीन माह बाद सन 1935 में सरोजस्मृति कविता का सृजन और प्रकाशन हुआ। हिंदी साहित्य में ‘शोकगीत’ जैसी नई विधा की नींव डालना निराला जी के लिए किसी चुनौती से कम न था। पुत्री की असामयिक मृत्यु ने मानो कवि की अंतरात्मा को झकझोर दिया था, तब आपने साहस और गंभीरता के साथ शोकगीत की नींव डाली। निराला के व्यक्तित्व और सहित्यप्रेम को देखते हुए आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी ने कहा था- *”कविताओं के भीतर से जितना अथच अस्खलित व्यक्तित्व निराला जी का है, उतना न प्रसाद जी का है, न पंत जी का है। यह निराला जी की समुन्नत काव्य साधना का प्रमाण है।”*
‘सरोजस्मृति’ हिंदी का सबसे लंबा शोकगीत है।
अंग्रेजी साहित्य में तो शोकगीत सन 1750 ई0 से पूर्व भी लिखे जाते थे, परन्तु हिंदी साहित्य में शोकगीत की सर्जना सन 1935 ई0 में सृजित सरोजस्मृति से मानी जाती है। निराला जी सदैव अपनी सहानुभूति शोषित वर्ग के प्रति रखते थे, इसलिए अपना धन, कपड़े, कम्बल आदि प्रयागराज में दान कर दिया करते थे। आप अर्थहीन हो गए थे। अपनी पुत्री का लालन-पालन भी खुले मन से नहीं कर पा रहे थे, तब निराला जी की सासु माँ से यह दुःख देखा नहीं गया। निराला की सहमति से नन्हीं सी परी सरोज को उसकी नानी डलमऊ लिवा लायी। वहीं पली बढ़ी। सरोज कभी कभी मोक्षदायिनी गंगा नदी के तट की रेत में खेला करती थी। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने इस यथार्थवादी दृश्टान्त को बहुत ही मार्मिक शब्दों में ‘सरोजस्मृति’ कविता में व्यक्त किया है-
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद बैठी नानी की स्नेह गोद। मामा-मामी का रहा प्यार, भर जलद धरा को ज्यो अपार।।
छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ
भारत में आदिकाल से स्त्री सभी रूपों में पूजनीय रही है और आज भी उसे देवी का स्थान दिया जाता है। छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ भी स्त्री के प्रति रही हैं। निराला जी परतंत्र भारत में भी भारतीय जन मानस को समाज की जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए दहेजप्रथा का घोर विरोध करते हैं। भौतिकवादी युग में मनुष्य अपनी पुत्री के विवाह में दिखावा करने, पुत्री की खुशहाली और वर पक्ष की मांग पर अधिक से अधिक धन खर्च करता है। कभी-कभी तो खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए जर-जमीन तक गिरवीं रख देता है या बेंच देता है। दहेज के लेन देन तथा अनावश्यक फिजूलखर्च निराला की दृष्टि में व्यर्थ है। निराला जी ने समाज को प्रेरणा देते हुए उपरोक्त तथ्यों को अपनी कविता सरोजस्मृति में मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-
मेरी ऐसी, दहेज देकर, मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर। बरात बुलाकर मिथ्या व्यय, मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।
पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु के महाप्राण निराला दार्शनिक हो गए थे। ‘सरोजस्मृति’ में करुणा की प्रधानता है। आपने सरोज की शैशवावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था से लेकर मृत्यु तक के दुखद सफर का सजीव चित्रण क्रमशः लिपिबद्ध किया है। पुत्री वियोग को सहन करने की क्षमता निराला के अंदर न थी, फिर भी समाज और राष्ट्र के प्रति सचेत रहते हैं। निराला ने ‘शोषकों को डाल पर इतराता हुआ गुलाब कहा है, जिसकी सेवा करने वाले खाद-पानी रूपी गरीब शोषक जन हैं।’
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अंत में आंखों में आँसू लिए झिलमिलाते अक्षरों से पुत्री सरोज की मृत्यु का वर्णन चंद शब्दों में ही कर पाने का साहस कर पाए थे। मानो आपकी सहनशक्ति टूट गयी थी। महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी जी ने अपने हृदय पर पत्थर रखकर ‘सरोजस्मृति’ में लिखा है-
दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कहीं।
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण।।
अशोक कुमार गौतम,
असि0 प्रोफेसर, चीफ प्रॉक्टर,
सरयू-भगवती कुंज
शिवा जी नगर, रायबरेली (उप्र)
9415951459
देखें अशोक कुमार गौतम का बधाई संदेश विश्व हिंदी दिवस 2021 पर –