Motivational poem in hindi -फल/डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र की रचना फल Motivational poem in hindi प्रेेरणा दायक कविता का सार यह है कि फल वही प्राप्त कर पाता है जिन्होंने अहंकार के
वृहदाकार खोह को प्यार की मिट्टी से पाटा हो,वही व्यक्ति सच्चा सुख प्राप्त कर पाता है प्रस्तुत है रचना-

फल

(Motivational poem in hindi)


वृहद सुख की कामना
मन में लिए
घूम रहा है मनुष्य इधर- उधर
उस मृग की तरह
छद्माभास जिसे होता है अनवरत
छद्माभास
एक गंभीर रोग है नज़र का
जिसके ताने- बाने को
सत्ता और संपत्ति ने ही बुना है
निरंतर सिलता है
सत्ता और संपत्ति
अहंकार के ही परिधान को
भटक रहा है सदियों से इंसान
इसीलिए इसे धारण कर
नरक का पथ निर्मित होता है अहंकार से
क्योंकि इस दोष से नहीं बच सके हैं

बड़े- बड़े संन्यासी
इसीलिए नहीं चख सके
समता के फल के स्वाद को
क्योंकि
समता के फल का स्वाद
मिलता है उन्हीं को
जिन्होंने अहंकार के
वृहदाकार खोह को
प्यार की मिट्टी से पाटा हो
देश के कुछ संतों ने पाटा था इसे
चख सके इसीलिए
समता के फल के
मीठे स्वाद को वे

Motivational poem hindi

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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Moral story|hindi kahani/अंजली शर्मा

आता तो रोज है आखिर माँ लेती क्यों नहीं

(Moral story in hindi)


छोटी मुनिया तो माँ के आँचल में दुबक गई लेकिन, बड़ा, बड़ा कुनमुना रहा था। माँ ने उठकर देखा तो उसका पैर खुला हुआ था इसलिए ठंड में कुनमुना रहा था। माँ ने कंबल खींचकर बड़े के पैरों में ढक दिया, जैसे ही माँ ने कंबल खींचा छोटा का सिर खुल गया वो चिड़चिड़ाने लगा। माँ बड़े को ढकती तो छोटा खुल जाता और छोटे को ढकती तो बड़ा, दोनो हाथ-पैर सिकोड़े पड़े थे। माँ कि छटपटाहट उसे सोने नहीं दे रही थी, बार-बार बड़बड़ाती आज अचानक ठंड इतनी बढ़ क्यों गयी, ये ठंड को भी अभी से आ जाना था।

सुबह पिता जाम पर जाते-जाते कह रहे थे, अब ठंड बढ़ रही है ऐसे में कंबल वाले आते हैं तुम ध्यान रखना, कम-से- कम दो कंबल तो ले ही लेना। बच्चों ने माँ से ऐसा कहते हुये पिता को सुन लिया था, जैसे ही कंबल वाला आया बच्चे माँ को आवाज लगाने लगे, माँ कंबल वाला आया है। माँ काम कर रही थी सो अभी टाल दिया। अब जब भी कंबल वाला आता बच्चे माँ को बताने दौड़ते। माँ बहुत सुंदर-सुंदर कंबल आया है, शाल और चादर भी है। तुम अपने लिये शाल भी ले लेना सुबह उठती हो तुम्हारे पास शाल नहीं है तुम्हें ठंड लगती होगी। पिताजी के लिये चादर भी ले लेना उनका बिछौना बिल्कुल फट चुका है। जब भी कंबल वाला आता माँ बच्चों की बातों को अनसुना कर देती, मुनिया कह रही होती है मैं तो लाल वाला लूंगी, बड़ा कहता मैं आकाश वाला और छोटा कहता मैं तो शेर वाला लूंगा। माँ चाहती थी कि ये कंबल वाला यहाँ से जल्दी निकल जाय और कंबल वाला था कि बार-बार वहीं आकर आवाज लगाने लग जाता। बेचने वालों की भी अजीब आदत होती है, कान चौकन्ना रखते हैं। बच्चों की बात सुनकर कंबल वाला भी रोज यहीं मंडराता रहता कंबल ले, शाल ले, चादर ले, माँ को बड़ी चिड़चिड़ाहट होती थी। जब भी कंबल वाला आता माँ टाल जाती, जबकि, पिताजी रोज कहकर जाते थे कि, शायद आज आयें कंबल वाले तुम जरा बाहर ध्यान रखना। बच्चों को समझ में नहीं आता कि, जब पिता ने बोला है तो माँ कंबल लेती क्यों नहीं।

इधर रोज ठंड बढ़ती जा रही थी। माँ रोज रात में यही बड़बड़ाती कि, कंबल वाले आज फिर नहीं आये, पता नहीं कब आयेंगे, इस बार आयेंगे भी या नहीं आयेंगे। पिता शाम को घर में आते ही माँ से यही सवाल पूछते कंबल वाले आये थे क्या! माँ कहती इधर तो नहीं आये, उधर तुम्हें कहीं दिखे क्या! तुम्हें कहीं दिखें तो तुम ध्यान रखना, एकाध तो ले ही लेना।

बच्चे आपस में बात करते कि, माँ-पिताजी को आखिर; कौन से कंबल वाले का इंतजार है। कौन से कंबल वाले से कंबल खरीदना चाहते हैं। आखिर,उन्हें कैसा कंबल चाहिए । ठंड बढ़ती जा रही है और माँ-पिताजी कह रहे हैं थोड़ा और इंतजार कर लेते हैं। बच्चे सोच रहे हैं जितने कंबल वालेे आये हैं उन्होंने तो सबके बारे में माँ को बताया है फिर वो कौन सा कंबल वाला है जिसका माँ पिता जी को इंतजार है। अब बच्चों को क्या मालूम; माँ-पिताजी कंबल बेचने वालों की नहीं, कंबल बाँटने वालों की बात कर रहे हैं।

Moral-story-anjali-sharma
अंजली शर्मा

बिलासपुर ( छत्तीसगढ़ )

Navvrsh par kavita||maa par kavita/baba kalpnesh

बाबा कल्पनेश की कलम से दो रचना जो समाज को एक संदेश देती हैं Navvrsh par kavita,maa par kavita नववर्ष,माँ ममतामयि जो पाठको के सामने प्रस्तुत है।

नववर्ष


अभी कहाँ नव वर्ष, यहाँ भारत में आया।
अभी यहाँ हर ठाँव, अधिक कुहरा गहराया।।

हम तो अधिक उदार, पराया पर्व मनाते।
अपने त्यागे छंद ,गजल औरों की गाते।।

हिंदी से मुख मोड़, सदा अंग्रेजी सीखें।
हमको समझे हेय,उन्ही नयनों को दीखें।

हम जो नहीं कदापि,रूप हमको वह भाया।
अभी कहाँ नव वर्ष, यहाँ भारत में आया।।

हम ज्यों बाल अबोध,दौड़ कर आगी पकड़े।
जले भले ही हाथ, सोच पर अपनी अकड़े।।

सन् यह बीता बीस,सनातन नहीं हमारा।
अभी अधिक है दूर,चैत का नव जयकारा।।

जब बसंत हर ठाँव, मिले सुंदर गहराया।
अभी कहाँ नव वर्ष, यहाँ भारत में आया।।

अपना जो आधार, हमें है कम ही भाता।
निज पतरी का भात,हमें है कहाँ सुहाता।।

दूजे का हर रंग, बड़ा चटकीला लगता।
हमको अपना चाव,आश्चर्य पल-पल ठगता।।

उनके सुनकर बोल,सदा हमने दुहराया।
अभी कहाँ नव वर्ष, यहाँ भारत में आया।।


विधा-मधु/दोधक/बंधु/फलस्वरूप छंद
विधान-भगण भगण जगण+22
11वर्ण, चार चरण,प्रति दो चरण समतुकांत

माँ ममतामयि


नीर भरे दृग मातु निहारे।
माँ ममतामयि लाल पुकारे।।

डूब रहा भव सिंधु किनारे।
जीवन कंटक हैं भयकारे।।

दृष्टि करो नित नेह भरी री।
डूब रही अब जीव तरी री।।

ज्ञान नहीं चित रंच बचा है।
जीवन सार विसार लचा है।।

पाप भरी गगरी अब फूटे।
जीवन याचकता जग छूटे।।

नित्य सुझुका रहे यह माथा।
तीन त्रिलोक रचे यश गाथा।।

गूँज रही महिमा जग भारी।
बालक-पालक माँ भयहारी।।

कौन दिशा यह बालक जाए।
माँ ममता तज क्या जग पाए।।

ले निज अंक सुधार करो री।
सत्य सुधा रस सार भरो री।।

हो चिर जीव सदा यह माता।
गीत रहे महिमा तव गाता। ।

navrsh-kavita-maa-kavita
बाबा कल्पनेश

navrsh kavita, maa kavita, बाबा कल्पनेश की स्वरचित रचना है  आपको पंसद लगे सामाजिक मंचो पर शेयर करे जिससे हमारी टीम का उत्साह बढ़ता है।
 

hindi kavita sine media darpan /सिने – मीडिया दर्पण|

हिंदी  रचनाकार का प्रयास रहता है hindi kavita sine media darpan समाज से जुडी कविता पाठकों के सामने प्रस्तुत हो  वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक की रचना सिने – मीडिया दर्पण उस कथन को चरित्रार्थ  कर रही हैं । २०२० में ऐसा ही हुआ जब जाने- माने अभिनेता ने अपने मायानगरी निवास पर आत्महत्या कर ली जब इस मामले को जनता के सामने प्रस्तुत किया तो बहुत सवाल सभी के मन में थे कि जाने -माने अभिनेता ने सब कुछ होते हुए भी खुदखुशी क्यों की इन सभी बिंदुओं को अपनी लेखनी में संजोया हैं वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक ने अपनी रचना में ,हमें आशा है कि काफी सवाल आपके इस कविता को पढ़ने के बाद हल होंगे ।

सिने – मीडिया दर्पण

(hindi kavita sine media darpan )


कहां गयी संवेदना,

कहां गए सुविचार ।
मर्यादाएं सो गयी,

जाग रहा व्यभिचार

नैतिकता सिर धुन रही,

फूहड़ता का राज ।
कामुक फिल्में शीर्ष पर,

जुबली मनती आज ।।

कहां ॽ सिनेमा स्वर्ण- युग,

राष्ट्र – भक्ति के गीत ।
ओजस्वी पट- कथा पर,

संवादों की नीति ।।

बच्चे- बूढ़े औ तरुण,

भिन्न मतों के लोग ।
फिल्में थीं तब आईना ,

प्रेरित होते लोग ।।

लौटेगा क्या फिर कभी ॽ

स्वर्ण- काल सुर- धाम ।
धर्म – नीति – इतिहास पर ,

फिल्में बनें तमाम ।।

अब फिल्में विष घोलती ,

अपराधों की बाढ़ ।
बलात्कार है शिखर पर ,

लज्जा हुई उघाड़ ।।

परिधान अल्प,

अध- नग्न तन बालाओं की धूम ।
सिने – मीडिया मस्त है ,

लोग रहें हैं झूम ।।

मायानगरी को लगा ,

चरित्र – हनन का रोग ।
बच्चे कामुक हो रहे ,

निश्चिन्त दीखते लोग ।।

भारतीय संस्कृति का ,

नित – नित होता लोप ।
कब चेतेगा सिनेमा ॽ

बरसेगा जब कोप ।।

है भारत- सरकार से,

साहित्य – कार की मांग ।

अंकुश कसो प्रमाद पर

पथिक-रचो नहिं स्वांग ।।

hindi-kavita-sine-media-darpan

सीताराम चौहान पथिक

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hindi geet lyrics || हम सबके हैं सभी  हमारे

डॉ. रसिक किशोर सिंह ‘ नीरज ‘ प्रस्तुत गीत संग्रह hindi geet lyrics हम सबके हैं  सभी  हमारे  के  माध्यम  से  अपनी  काव्य-साधना के भाव  सुमन  राष्ट्रभाषा  हिंदी  के श्री  चरणों  में  अर्पित  कर रहे हैं  |  इस  संकलन  की गीतात्मक  अभिव्यक्तियों में  भाव  की  प्रधानता  है | 

  गाँवों में फिर चलें 

(hindi geet lyrics)


गाँवों  में   फिर    चलें 

महानगर  को  छोड़  दें 

 मर्माहत    मानव   के 

जीवन   में   मोड़   दें | 

 

बाधित संस्कृति -प्रवाह 

कृत्रिमता     है     यहाँ 

स्वप्नों  से  सम्मोहित 

चकाचौंध  जहाँ -तहाँ 

व्यस्तता  हुई   प्रबल 

न  स्नेह की हवा बही 

झूठ का चला चलन 

न सत्य की प्रथा रही | 

 

मानव हो शांत सुखी 

प्रदूषण – गढ़ तोड़ दें 

गाँवो  में  फिर   चलें 

महानगर को छोड़ दें | 

 

शूरवीर -दानवीर 

सब यहीं पर सो  गये 

प्रौद्योगिकी विज्ञान के 

श्रेष्ठ  रूप  हो   गये 

वसुधैव कुटुम्बकम की  

सद्भावना रही यहाँ 

भारतीय चिंतन की 

समता है और कहाँ ?

 

भ्रमित पंथ अनुकरण 

‘नीरज’  अब  छोड़   दें 

गाँवों   में  फिर  चलें 

महानगर को छोड़ दें | 

https://youtu.be/HG7-Qe4du_c


 २.मैं अकेला हूँ 

(hindi geet lyrics)

 

भीड़ में रहते हुए भी  मैं अकेला हूँ | 

मैं नहीं केवल अकेला 

है अपार समूह जन का 

किन्तु फिर भी बेधता है 

क्यों अकेलापन ह्रदय का 

 

सिंधु नौका के विहग सा मैं अकेला हूँ | 

भीड़ में रहते हुए भी मैं अकेला हूँ | | 

 

मित्र कितने शत्रु कितने 

दुःख कितने हर्ष कितने 

कल्पना के नव सृजन में 

सत्य कितने झूठ कितने 

 

जय पराजय त्रासदी सौ बार झेला हूँ | 

भीड़ में रहते हुये भी मैं अकेला हूँ ||  

 

थके   मेरे पाँव चलते 

स्वप्न नयनों में मचलते 

ठोकरें लगतीं  मगर हम 

लड़खड़ाकर  फिर सम्हलते 

 

‘नीरज’ यह खेल कितनी बार खेला हूँ | 

भीड़ में रहते हुये  भी मैं अकेला हूँ || 

https://youtu.be/9m9VeSkqSCA


३. मत समझो घट भरा हुआ है 

(hindi geet lyrics )

 

मत समझो घट भरा  हुआ है | 

पूरा   का   पूरा     रीता    है|| 

 

एक – एक     क्षण  बीते कैसे 

यह वियोग की अकथ कहानी 

अम्बर   पट पर   नक्षत्रों    में 

पीड़ा की   है  अमिट  निशानी 

भरा-भरा  दिखता  सारा नभ 

पर अन्तस  रीता -रीता  है | 

पूरा    का  पूरा  रीता   है || 

 

जीवन तिल तिल कर कटता 

है प्रहर मौन इंगित  कर जाते 

सूनेपन    की  इस नगरी   में 

परछाईं     से   आते      जाते 

तम  प्रकाश की आँख मिचौनी 

में    ही   यह  जीवन बीता  है||

पूरा    का  पूरा  रीता   है ||     

 

विस्मृति की इस तन्मयता में 

खो   जाता है दुख सुख सारा 

मैं तुम का विलयन हो जाता 

खो  जाता अस्तित्व हमारा 

दग्ध प्राण निःशब्द  सुनाते 

मूक प्रणय की नवगीता है |

पूरा    का पूरा रीता है | | 

https://youtu.be/CpvZ8fVtY0M
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तुलसी गीत / डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज

तुलसी गीत   (tulsi geet dr. rasik kishor singh neeraj) डॉ. रसिक किशोर सिंह नीरज के गीत संग्रह ‘हम सबके है सभी हमारे से लिया गया है | प्रस्तुत है रचना –

तुलसी गीत 

(tulsi geet dr. rasik kishor singh neeraj)


वसुधा में नित्य राम

दर्शन की बात करनी है

हुलसी के पुत्र तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

रत्नों  में रत्न पाकर

हुए राममय धनी थे

सौभाग्य  संत  तेरा

हीरे की नव कनी थे |

 

युग   प्रेरणा   रहो      तुम

परिवर्तन की बात करनी है

हुलसी   के   पुत्र    तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

कवि  भावना  में  तेरी

यमुना   हुई  प्रवाहित

मानस  सुधा को पीकर

रस भक्ति स्वर निनादित |

 

आत्मा सुत आत्मीय सबके

प्रत्यर्पण की बात करनी है

हुलसी   के  पुत्र   तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

झंकृत न हो सका   उर

जब काव्य गीत स्वर था

बजरंग   की   कृपा   से

हुआ ज्ञान भी मुखर था |

 

तुलसी से  चन्दन हाथ ले

रघुवर की बात  करनी  है

हुलसी   के  पुत्र    तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

आदर्श  के      पुजारी

भविष्यत के दृश्य देखे

अन्तः करण मनुज के

सौभाग्य   कर्म  लेखे |

 

अविरल तुम्हारी नवधा

भक्ती की बात करनी हैं

हुलसी   के  पुत्र   तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

कविता लिखी या मंत्रो

में   दिव्य दृष्टि   तेरी

है सकल विश्व आँगन

रसधार    वृष्टि  तेरी |

 

भू स्वर्ग  सृष्टि    करके

अम्बर की बात करनी है

हुलसी   के  पुत्र   तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

 

किया सर्वस्व राम अर्पण

शिक्षण   सहज दिया था

बंधुत्व       भावना    से

जग ऐक्यमय  किया था |

 

‘नीरज ‘ राम  हो ह्रदय में

तुलसी की बात करनी है

हुलसी  के   पुत्र   तुलसी

पैगम्बर की बात करनी है |

https://youtu.be/QshJCxN5X3w


२. वर दे हे माँ ,जग कल्याणी 


वीणा पाणि सुभग वरदानी

वर दे हे माँ ,जग कल्याणी |

 

झंकृत    वीणा के   तारों   से

स्वरलय गति की झनकारो से

गीतों  की मधुरिम तानों से

झूम   उठे  मानस कल्याणी

वीणा पाणि सुभग वरदानी

वर दे हे माँ ,जग कल्याणी |

 

शब्दों में नव अर्थ जगा दे

तिमिर घोर अज्ञान भगा दे

भावों में’ शुचि पावनता दे

नवल ज्योति भर दे वरदानी

वीणा पाणि सुभग वरदानी

वर दे हे माँ ,जग कल्याणी |

 

लिखे लेखनी तेरी महिमा

अंकित छंद -छंद में गरिमा

अक्षर आभा युत ज्यों मणि माँ

नव रस नित्य करें अगवानी

वीणा पाणि सुभग वरदानी

वर दे हे माँ ,जग कल्याणी |


 

 तुम धुआं हवन का हो जाते/ सृष्टि कुमार श्रीवास्तव

तुम धुआं हवन का हो जाते 


कुछ प्रश्नो के उत्तर होते हैं
कुछ प्रश्न स्वयं उत्तर होते।

 

लहरें आ आ कर टकराती
तन मन को बोझिल कर जातीं
फिर गीत घुमड़ते सीने मेँ
आँखें आंसू से भर आतीं

 

ऐ काश नदी तुम हो जाते
हम घाटों के पत्थर होते।

 

सब कुछ कहकर भी लगता है
कुछ बातें फिर भी रह जातीं
होंठों के बस की बात नही
जो मौन निगाहें कह जातीं

 

शब्दों से ज्यादा अर्थवान
भावों के विह्वल स्वर होते।

 

पीड़ा के पर्वत का गलना
गंगा की लहरों का नर्तन
धरती अम्बर की बांहों मे
कुछ और नही ये आकर्षण

 

तुम धुआं हवन का हो जाते
हम मंत्रों के अक्षर होते।

tum-dhuaan-havan-ka-ho-jaateसृष्टि कुमार श्रीवास्तव

आत्म – वेदना / सीताराम चौहान पथिक

हिंदीरचनाकर पर  वरिष्ठ साहित्यकार सीताराम चौहान पथिक की रचना आत्मवेदना   पाठकों के सामने प्रस्तुत है –

आत्म – वेदना  ।


मंद पवन तन छू गई ,

लगा, तुम्हीं हो  पास ।

काश, देख पाता तुम्हें ,

मन हो गया  उदास  ।

 

नूपुर की रुनझुन सुनी ,

जागा  यह  एहसास ।

कारण तो कोई बने  ,

बुझे मिलन की प्यास ।

 

उपवन में  खिलते सुमन ,

झूम  रहे  चहुं   ओर  ।

नॄत्य – भंगिमा   प्रिया  की ,

मन  में  उठी  हिलोर   ।

 

आज स्वप्न  में  दिख गया ,

अंतिम   क्षण  का   दृश्य ।

मन  रो – रो  पागल हुआ ,

समझ  अभी  का  दृश्य  ।

 

एकाकी मन  की  घुटन ,

कहूं  किसे ॽ  जो  होय ।

सुख – दुःख  सांझे कर सकूं ,

कोई   सहॄदय   होय   ।

 

पंद्रह    वर्ष  दारुण  कथा ,

हो  ज्यों  कल  की  बात  ।

अभी कहीं  से  आएगी  ,

बन कर  किरण – प्रभात ।

 

शुक्र  दिवस  भूला  नहीं ,

काली अंधियारी  रात  ।

रूठ   गया  था  भाग्य  ,

लालिमा लिए उगा था प्रात।

 

सपनों  का  यह पालना  ,

झूल  रहा  दिन – रैन  ।

मधुर मिलन  स्वर्णिम घड़ी ,

मिलता  इनमें    चैन    ।

 

मीठी – कड़वी    स्मृतियों ,

के  यह   ताजमहल    ।

तुम्हे  समर्पित  हैं  प्रिये  ,

कर  दो   चहल-पहल  ।

 

नीरस  रसमय  हो  उठे  ,

जब मिले  अलौकिक रंग रंग ।

भूल  जाऊं  सारी  व्यथा ,

पथिक  तुम्हारे   संग  ।।

aatm-vedana-sitaram-chauhan-pathik

सीताराम चौहान पथिक

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निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति

महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

(निराला की रिक्त तमन्नाओं का ग्रंथ : सरोजस्मृति)


निराला जी के पूर्वज उन्नाव जनपद के गढकोला ग्राम के रहने वाले थे, जो बैसवारा क्षेत्र में आता है। आपका जन्म पश्चिम बंगाल के महिषादल में 21 फरवरी 1896 ई0, वसंत पंचमी को हुआ था। बचपन का नाम सूरज कुमार था, बाद में उत्कृष्ट काव्यसृजन के कारण पूरा नाम ‘महाप्राण पं0 सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला’ हो गया था। बचपन में आपने बंगाली भाषा सीखी थी, तत्पश्चात आपका विवाह रायबरेली जनपद के डलमऊ निवासी पं0 रामदयाल की सपुत्री मनोरमा के साथ वैदिक बिधि-विधान के साथ संपन्न हुआ था। धर्मपत्नी मनोरमा के कहने पर आपने हिंदी भाषा का अध्ययन करके ही हिंदी में लेखन कार्य का श्रीगणेश किया। फिर संस्कृत और अंग्रेजी का अध्ययन किया। मनोरमा जी ने एक कन्या को जन्म दिया। बेटी को जन्म देने के बाद परलोकवासी हो गईं, तब निराला जी के जीवन में मानो वज्रपात हो गया हो।

छायावाद’ आधुनिक हिंदी कविता का स्वर्णिम युग माना जाता है।

पं0 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को महाप्राण, मतवाला, छयावाद का कबीर, मस्तमौला, विद्रोही कवि आदि नामों की संज्ञा दी गयी है। छायावाद के सभी तत्व निराला के काव्य में विद्यमान हैं। इनका जीवन सदैव शूलों से भरा था फिर भी गरीब, असहायों एवं महिलाओं के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे। निराला ने अपनी रचनाओं में स्त्री को माता, पुत्री, पत्नी, आराध्या, देवि, साध्वी आदि रूपों में चित्रित किया है। आपने अपनी कविता में अत्यंत मार्मिक शब्दों में पत्नी ‘मनोरमा’ को स्मरण करते हुए लिखा है-

वह कली सदा को चली गयी दुनियां से,
वह सौरभ से पूरित आज दिगन्त।

ऐसा ही शोक संवेदनाओं से परिपूर्ण अश्रुपूरित काव्य ‘सरोजस्मृति’ है। सरोजस्मृति को हिंदी जगत का सर्वश्रेष्ठ ‘शोकगीत’ कहा जाता है। निराला ने अपनी पुत्री का विवाह शिव शेखर द्विवेदी से कर दिया था। अठारह वर्ष पूर्ण करके बेटी ने उन्नीसवें वर्ष में कदम रखा ही था कि चेचक और तपेदिक रोग हो जाने के कारण बीमार हो गयी। दुर्भाग्यवश विवाहिता पुत्री सरोज की मृत्यु 19वें वर्ष में सन 1935 में राणा बेनीमाधव सिंह जिला चिकित्सालय, रायबरेली में हो गयी थी। सुमित्रानंदन पंत जैसे वरिष्ठ साहित्यकार बेटी को देखने आए थे। निराला जी यह मानते हैं कि पुत्री की उम्र श्री मद्भागवत गीता के अठारह अध्याय के समकक्ष हैं, जो सरोज पूर्ण कर चुकी है। सरोज का मरण जीवन के शाश्वत विराम की ओर जाने की यात्रा है। इस शोकगीत में भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज में उसके दायित्व, संपादकों के प्रति आक्रोश और अंतर्मन की पीड़ा दिखाई पड़ती है। कवि निराला ने श्रीमद्भागवत गीता में अटूट आस्था, श्रद्धा और विश्वास व्यक्त करते हुए लिखा है-

उन्नवीश पर जी प्रथम चरण,
तेरा यह जीवन सिंधु-तरण।
पूरे कर शुचितर सपर्याय,
जीवन के अष्टादशाध्याय।”

पुत्री सरोज की मृत्यु के तीन माह बाद सन 1935 में सरोजस्मृति कविता का सृजन और प्रकाशन हुआ। हिंदी साहित्य में ‘शोकगीत’ जैसी नई विधा की नींव डालना निराला जी के लिए किसी चुनौती से कम न था। पुत्री की असामयिक मृत्यु ने मानो कवि की अंतरात्मा को झकझोर दिया था, तब आपने साहस और गंभीरता के साथ शोकगीत की नींव डाली। निराला के व्यक्तित्व और सहित्यप्रेम को देखते हुए आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी ने कहा था- *”कविताओं के भीतर से जितना अथच अस्खलित व्यक्तित्व निराला जी का है, उतना न प्रसाद जी का है, न पंत जी का है। यह निराला जी की समुन्नत काव्य साधना का प्रमाण है।”*

‘सरोजस्मृति’ हिंदी का सबसे लंबा शोकगीत है।

अंग्रेजी साहित्य में तो शोकगीत सन 1750 ई0 से पूर्व भी लिखे जाते थे, परन्तु हिंदी साहित्य में शोकगीत की सर्जना सन 1935 ई0 में सृजित सरोजस्मृति से मानी जाती है। निराला जी सदैव अपनी सहानुभूति शोषित वर्ग के प्रति रखते थे, इसलिए अपना धन, कपड़े, कम्बल आदि प्रयागराज में दान कर दिया करते थे। आप अर्थहीन हो गए थे। अपनी पुत्री का लालन-पालन भी खुले मन से नहीं कर पा रहे थे, तब निराला जी की सासु माँ से यह दुःख देखा नहीं गया। निराला की सहमति से नन्हीं  सी परी सरोज को उसकी नानी डलमऊ लिवा लायी। वहीं पली बढ़ी। सरोज कभी कभी मोक्षदायिनी गंगा नदी के तट की रेत में खेला करती थी। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी ने इस यथार्थवादी दृश्टान्त को बहुत ही मार्मिक शब्दों में ‘सरोजस्मृति’ कविता में व्यक्त किया है-

कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यो अपार।।

छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ

भारत में आदिकाल से स्त्री सभी रूपों में पूजनीय रही है और आज भी उसे देवी का स्थान दिया जाता है। छायावादी युग में निराला जी की संवेदनाएँ भी स्त्री के प्रति रही हैं। निराला जी परतंत्र भारत में भी भारतीय जन मानस को समाज की जिम्मेदारी का अहसास कराते हुए दहेजप्रथा का घोर विरोध करते हैं। भौतिकवादी युग में मनुष्य अपनी पुत्री के विवाह में दिखावा करने, पुत्री की खुशहाली और वर पक्ष की मांग पर अधिक से अधिक धन खर्च करता है। कभी-कभी तो खुद को श्रेष्ठ दिखाने के लिए जर-जमीन तक गिरवीं रख देता है या बेंच देता है। दहेज के लेन देन तथा अनावश्यक फिजूलखर्च निराला की दृष्टि में व्यर्थ है। निराला जी ने समाज को प्रेरणा देते हुए उपरोक्त तथ्यों को अपनी कविता सरोजस्मृति में मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है-

मेरी ऐसी, दहेज देकर,
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर।
बरात बुलाकर मिथ्या व्यय,
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

पुत्री सरोज की असामयिक मृत्यु के महाप्राण निराला दार्शनिक हो गए थे। ‘सरोजस्मृति’ में करुणा की प्रधानता है। आपने सरोज की शैशवावस्था, बाल्यावस्था, युवावस्था से लेकर मृत्यु तक के दुखद सफर का सजीव चित्रण क्रमशः लिपिबद्ध किया है। पुत्री वियोग को सहन करने की क्षमता निराला के अंदर न थी, फिर भी समाज और राष्ट्र के प्रति सचेत रहते हैं। निराला ने ‘शोषकों को डाल पर इतराता हुआ गुलाब कहा है, जिसकी सेवा करने वाले खाद-पानी रूपी गरीब शोषक जन हैं।’

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अंत में आंखों में आँसू लिए झिलमिलाते अक्षरों से पुत्री सरोज की मृत्यु का वर्णन चंद शब्दों में ही कर पाने का साहस कर पाए थे। मानो आपकी सहनशक्ति टूट गयी थी। महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी जी ने अपने हृदय पर पत्थर रखकर ‘सरोजस्मृति’ में लिखा है-

दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कहीं।
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण,
कर, करता मैं तेरा तर्पण।।

अशोक कुमार गौतम,
असि0 प्रोफेसर, चीफ प्रॉक्टर,
सरयू-भगवती कुंज
शिवा जी नगर, रायबरेली (उप्र)
9415951459

देखें अशोक कुमार गौतम का बधाई संदेश विश्व हिंदी दिवस 2021 पर

Pratibha Indu ki kavita-कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

(Pratibha indu ki kavita)


कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

ऊपर हमको उठना है

उत्साह हमारा न गिरने पाए ,

लिख दें ऐसा गीत जो

सारी दुनिया ही गा जाए ।

भूलकर बीते क्षणों को नया

मुकाम हमें पाना है ।

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

है बीता जो अशुभ उसे

रखना नहीं है याद हमें ,

 

नव आस लिए नव भाव लिए

करनी है फरियाद हमें।

 

प्रकाशित हो सबका जीवन

हमें ऐसी लौ को जगाना है ।

 

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें देकर

ये जाता साल पुराना है ।

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।।

स्वस्थ रहें सब सुखी रहें

ऐसी हो अभिलाषाएं,

 

पूरी हों सबकी फिर

उम्मीदों की आशाएं।

 

ले हमको संकल्प अडिग

ये नव वर्ष मनाना है ।

कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें

देकर ये जाता साल पुराना है।

 

नव उमंग नव उत्साह संजोए

फिर आता वर्ष सुहाना है ।

प्रतिभा इन्दु
भिवाडी़, राजस्थान