खनकै शरद कै कंगनवा -शिव नारायण मिश्र
सुहानी शरद ऋतु के आने पर आंगन में (खुले स्थान से तात्पर्य है घर में खुलापन तो होता ही है )इससे ठंडक का अनुभव होता है ,प्रतीत होता है कि जाड़ा आंगन में झांक रहा है- शरद ऋतु के कंगन की खनक सुनकर। आंगन में कोई और भी तो झांकता है ।किसी की आहट को सुनकर ।किशोरी के मन प्राणों को कितना स्पर्श करता है खनकै शरद कै कंगनवा – शिव नारायण मिश्र ,तुलसीदास ने रामचरितमानस में शरद ऋतु का गुणगान करते हुए लिखा है – बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥अर्थात हे लक्ष्मण! देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में अपना वृद्घापकाल प्रकट किया है। वृद्घा वर्षा की ओट में आती शरद नायिका ने तुलसीदास के साथ कवि कुल गुरु कालिदास को भी इसी अदा में बाँधा था।
ऋतु संहारम के अनुसार ‘लो आ गई यह नव वधू-सी शोभती, शरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढँकी इस श्वेत वस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से ही निर्मित है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। पकी बालियों से नत, धान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि किसका मन नहीं मोहती।’ जानि सरद ऋतु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥ अर्थात शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं अर्थात पुण्य प्रकट हो जाते हैं।
बसंत के अपने झूमते-महकते सुमन, इठलाती-खिलती कलियाँ हो सकती हैं। गंधवाही मंद बयार, भौंरों की गुंजरित-उल्लासित पंक्तियाँ हो सकती हैं, पर शरद का नील धवल, स्फटिक-सा आकाश, अमृतवर्षिणी चाँदनी और कमल-कुमुदिनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहाँ? संपूर्ण धरती को श्वेत चादर में ढँकने को आकुल ये कास-जवास के सफेद-सफेद ऊर्ध्वमुखी फूल तो शरद संपदा है। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चाँद और उससे फूटती, धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक चाँदनी शरद के ही एकाधिकार हैं ,यह शरद ऋतु का सुहाना पन देखें गीत में –
खनकै शरद कै कंगनवा
खनके सरद कै कंगनवा ,
जाड़ झान्कै अंगनवा।
निर्मल नभ -धरती ,
नीलाभ रंग धानी ।
लागति है निर्मलता
केरि राजधानी ।
जइसे हो संतन के मनवा।
जाड़ झांकै अंगनवा।
दिन मइहाँ धमवा
सुखद तन परसे ,
रतिया जुन्हईया
प्रीति -रस बरसे ।
भीगि -भीगि सरसै परनवाँ,
जाड़ झान्कै अंगनवाँ।
गोपियन कइ चीर-हरन ,
कान्हा जो कइनै।
रथ पे सुभदरा के
अर्जुन ले अइनै ।
भोरहे मा देखियउँ सपनवाँ,
जाड़ झांके अंगनवाँ ।
अवधी कवि शिव नारायण मिश्र