पाश्चात्य संस्कृति का असर । Paashcaaty snskrti kaa asr।

पाश्चात्य संस्कृति का असर   ऐसा पड़ा कि भारतीय समाज अपने आदर्शों और नैतिक मूल्य को भूल गया सीताराम चौहान  ने अपनी कविता में   इन्हीं बिंदुओं को अपनी कविता के माध्यम से पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है किसी भी देश की संस्कृति की पता लगाने के लिए उसके खानपान, संस्कृति, शिक्षा, रहन-सहन से देश के नागरिकों का दृष्टिकोण सामने आता है। पाश्चात्य संस्कृति का असर आज परिवार टूट रहे हैं बच्चों को गुरुकुल पद्धति वाली उच्च आदर्शों वाली शिक्षा नहीं मिल पा रही है आधुनिकता की दौड़ में हम अपने मूल को खोते जा रहे हैं अपनी मातृभाषा का सम्मान नागरिकों में नहीं रहा है।

पश्विमी — हवा

बाबा बच्चों से कहें , उठो प्रात  गोपाल ।

बच्चो से भी क्या कहें , देख बड़ों के हाल ।।

पश्विम से चल कर हवा , जब पूरब में आई ।

संस्कृति की लुटिया डुबी , बे -शरमी है छाई ।।

मां बच्चों से कह रही , कहो माॅम और डैड ।

सूट – बूट और टाई संग , सिर पर रखो हैट ।

अंग्रेजी के सीख कर , अक्षर दो और चार ।

हिन्दी पर है हंस रहा , बिल्लू बीच बाज़ार ।।

भाषा – संस्कृति डस-रहा , मैकाले विष – नाग ।

नेता अंग्रेजी  पढ़े ,  लगा   रहे   हैं आग ।।

हिन्दी – दिवस मना रहे , मंत्रालय में  लोग ।

हिन्दी से अनभिज्ञ  हैं , अंग्रेजी  का  रोग ।।

हिन्दी भाषा के बिना , सद्गति कैसे होय ।

अंग्रेजी की गठरिया ,  गर्दभ बन क्यों ढोय ।।

डाक  सदा मिलती रही , आंधी हो  बरसात ।

हरकारा अब  मस्त है , डाक नदी में जात  ।।

राष्ट्र – भावना  सो गयी , हुआ अनैतिक तन्त्र ।

लूटो , जी भर लूट लो , राजनीति का मंत्र  ।।

पश्विम से ही सीख लो , राष्ट्र – भक्ति के भाव ।

समय – नियोजन  से बढे , प्रगति और सद – भाव  ।।

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best hindi kavita- दया शंकर पाण्डेय

हिंदी रचनाकार के मंच पर best hindi kavita-डॉ. दया शंकर पाण्डेय की पांच कवितायें पढ़ेंगे जो आपको अपने पुराने दिनों की यादों मे प्रवेश कर देगा आपको पसंद आये तो अवश्य शेयर करे |
 

1.अनुभूति

प्रेम की अनुभूति हो तुम

किसलयों सी प्रणय की
संप्रीति हो तुम

विच्छुरित होती कहाँ हो
प्रेम-पथ से,

हृद-निलय में शोभती संगीत
हो तुम ।

अग्नि का अस्तित्व भी तुझमें अवस्थित,

तप्त उर में प्यार की इक
शीत हो तुम ।

अधर जो मधु-घट सदृश
बिंबित हुआ है,

किस अधर की रिक्तता की
धीति हो तुम ।

दग्ध हृद में प्रणय की
अनुभूति हो तुम ।


2.अमर प्रेम शबरी के जूठे बेरों में

श्रीराम नाम के जपते ही उजियारे हुये अंधेरों में,
देखा है हमने अमर प्रेम शबरी के जूठे बेरों में ।

करता है जो पालन-पोषण इस धरती का अदृश्य होकर,
जैसे है पालन करे पिता जगती में
राम सदृश बनकर,

पत्थर भी नारी हो जाये वह शक्ति है उसके पैरों में ।

अमीर-गरीब का भेद नहीं करता है
नील गगन से वह,
झाँकता बैठ कर ऊपर से अपने मधुरिम आँगन से वह,

भक्तों की है करता रक्षा वह जाकर उनके डेरों में ।

संसार के कण कण में वह है दिखता है
परम् भक्ति में वह,
जीवन के प्रतिपल सांसों में मानवता की उसशक्ति में वह,

वह बसा हुआ है सन्ध्या में जीवन के
सुखद सवेरों में,

देखा है हमने अमर प्रेम शबरी के जूठे
बेरों में ।


3. मैं नारी हूँ

नारी है कुसुमित पुष्प सदृश
स्वर्णिम-जीवन अरुणाचल में,

सब देव,पुरुष मधुरिम फल हैं उसके,
आच्छादित आँचल में।

हों रंजनकरी कथायें या पुष्पित वेदना की हो लतिका,

संसृति का हो जीवन-विराम या नभमण्डल की हो कृतिका,

तुम नारी हो एक प्रणय-पीठ जब नेह-निमन्त्रण देती हो,
हृदयस्थ भाव जग उठते हैं जब नयन के मधु-कण देती हो।

ऐसे ही तुम बन स्नेहमयी जीवन पथ पर चलते रहना,
जगती का बन कर शुभ विहान धरणी,
सुखकर करते रहना ।


4.अनुपम सवेरा

 

सीप के मोती सदृश सौन्दर्य तेरा,

लगता जैसे स्वर्ग का अनुपम सवेरा ।

 

स्वर्ण-मुख प्रणयाग्नि से जब धधकता है

देह पर हो चाँद का जैसे बसेरा ।

 

चाँदनी रूठी हुई सी लग रही है,

व्योम से ही देख करके रूप तेरा ।

 

व्यथित जीवन देख तुझको उठ खड़ा है,

सुखद आशा की किरन ने हृदय घेरा ।

 

उड़ता आँचल देख बादल उड़ रहा है,

अब कहाँ पड़ता अवनि पर पाँव तेरा ।

 

सुघर तन पर रूप की खिलती हैं कलियाँ

पारखी मधुकर ने आकर डाला डेरा ।

स्नेहिल सपने देखकर पथरायी आँखें,

सरस चितवन ने है जब सेमुँह को फेरा ।


5.अधूरा दर्द

एक नौकरीशुदा थे बलई
काका
सरकारी काम में इतने
मसरूफ़ थे
कि घर के काम
मुतासिर होने लगे
बच्चों की पढ़ाई
और लुगाई
काका की मशरूफियत
की भेंट चढ़ने लगी
माटी की भीति
की पुताई
ऐसा लगा कि
सदियों से नहीं
हुई है
धीरे-धीरे
घर खण्डहर
में तब्दील होने
लगा
लेकिन ग़रीबी
को खण्डहर में
ख़ूब नींद है
आती
वक़्त जब अमीरी खोजने
है निकलता
तब गऱीबी चौकन्नी
हो उठती है
खण्डहर बोलने
लगता है
मर्यादा की फेंट
ढीली होने लगती
है
अमीरी मुँह बिराती है
समाज इज़्ज़त तोपने
के बजाय
उघाड़ने है लगता
तब आती है
याद
परिवार की
हकीक़त है यह
की परिवार
संसार से होता है
बड़ा
लेकिन जब कौरव
की भाँति बड़ा होने
लगता है
तब पाँच लोग
सौ पर भारी
पड़ने लगते हैं
अंधा राजा जब
क़ानून से भी
बड़ा अंधा हो
जाय
तब समाज अंधेर नगरी
की भाषा बोलने
है लगता
ललनाएँ कुकृत्य
के विद्रूप रूप
से त्रस्त होने
लगती हैं
समाज
जिह्वा विहीन हो
उठता है
बड़े बड़े वीरों
की आँखों
के समक्ष
लुटने लगती
है
अस्मिता
पंचकन्याओं की
लेकिन
बलई काका
की आँखें
सरकारी काम
की मशरूफियत
में समाज को
भुला बैठती हैं
लेकिन
समाज धन्य है
फिर से कच्चा पक्का
करने लगता है
और उसे रामनामी से
बड़ी शराब की नीलामी
लगने लगती है

best-hindi-kavita
दया शंकर पाण्डेय

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कल दीवाली होगी-बाबा कल्पनेश

ताटंक छंद


 

कल दीवाली होगी

कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा,
यह प्रकाश का पर्व युगों से, गीत लिखूँगा-गाऊँगा।

गुड़िया बोल रही है अम्मा, मुझको गणपति ला देना,
रग्घूमल की उस दुकान से,गुड्डा सुंदर सा लेना।
दीवाली के लिए रँगोली,मुझको सुखद बनाना है,
भाँति-भाँति के रंग बहुत से,भरकर उसे सजाना है।
खेत-बाग-मंदिर पर दीपक, लेश द्वार आ जाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

सजी हुई हैं बहुत दुकानें, लाई-खील-बतासे हैं,
बोलो नन्हे क्या-क्या लेना,बाबू जी के झाँसे हैं।
गुड़िया हुई रुआंसी लखकर,दिल मेरा घबड़ाता है,
धिक्कार कलम लिख देती मुझको,खुलकर रोना आता है।
खुशियों का त्योहार सोचता,खुशियाँ मैं भी पाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जाऊँगा।

पारस के सूरज जी आए,जाने क्या-क्या लाए हैं,
बच्चे टोले भर के दौड़े,सब का मन ललचाए हैं।
गुड़िया आकर घर में मेरी,गिन-गिन नाम बताए है,
मुझको भी ये लेना कह कर,हाथ-शीश मटकाए है।
सुनकर हँसते-हँसते बोला,मैं भी तुझको लाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

धरा धाम पर नभ उतरेगा,तारे धरती आएँगे,
चंदा मामा शीश झुका कर, और कहीं छिप जाएँगे।
हर-घर-आँगन-नगर-गाँव में, खुशी पटाखे फूटेंगे,
चिंताओं के परकोटे तो,तड़-तड़ तड़-तड़ टूटेंगे।
खुशियों में आकंठ डूब कर,नाचूँगा मैं धाऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

घर का दीपक अम्मा लेशें,परम्परा की थाती है,
तुलसी के चौरे पर दीपक, यह दैनिक सँझबाती है।
बाद इसी के भइया-भौजी,सब जन दीप जलाना जी,
गणपति-लक्ष्मी-सरस्वती को,फिर घर में बैठाना जी।
जितनी होंगी तिमिर दिवारें,सब को तोड़ गिराऊँगा,
कल दीवाली होगी अम्मा, मैं भी दिए जलाऊँगा।

बाबा कल्पनेश

हिंदीरचनाकार (डिसक्लेमर) : लेखक या सम्पादक की लिखित अनुमति के बिना पूर्ण या आंशिक रचनाओं का पुर्नप्रकाशन वर्जित है। लेखक के विचारों के साथ सम्पादक का सहमत या असहमत होना आवश्यक नहीं। सर्वाधिकार सुरक्षित। हिंदी रचनाकार में प्रकाशित रचनाओं में विचार लेखक के अपने हैं और हिंदीरचनाकार टीम का उनसे सहमत होना अनिवार्य नहीं है।|आपकी रचनात्मकता को हिंदीरचनाकार देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है|whatsapp के माद्यम से रचना भेजने के लिए 91 94540 02444,  संपर्क कर कर सकते है।

दीपावली-diwali poem in hindi

दीपावली प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला एक हिंदू त्यौहार है जो कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है हर वर्ष दीपावली अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है दीपावली  हिंदुओं का महत्वपूर्ण पर्व  है यह पर्व हमें संदेश देता है ‘अंधकार पर प्रकाश की विजय का’

माना जाता है की दीपावली उत्सव भगवान श्री राम के 14 वर्ष वनवास समाप्त होने के पश्चात अयोध्या वापस लौटे थे अयोध्या की प्रजा ने हृदय से अपनी राजा के लिए दीप जलाए उसी दिन से दीपावली की शुरुआत हुई भारतीयों का विश्वास भगवान श्रीराम से था उन्होंने सीखा अपने जीवन में की सत्य की सदा जीत होती है असत्य का हमेशा नाश होता है।
दिवाली का दिन नेपाल, भारत श्रीलंका, म्यांमार, मॉरीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा के क्रिसमिस दीप पर एक सरकारी अवकाश होता है

दीपावली


आ गई फिर दीपावली
स्त्रियां हो गई हैं बावली ‌
चाक को कुछ
यूं चलाता कुंभकार
कि मृत्तिका ‌श्रृंगार‌ कर
हो गई श्याम की मतवाली
अब हृदय- घरौंदो‌ से
अपना सिंहासन हटा ली तिमिरावली
प्रेम- रंग सरोवर में डूब ‌कर
अर्चियां बिखेर दी हैं दीपाली
भर दिया है पूरे घर को ‌प्रकाश ने
चमक उठी है लोगों की फिर से दंतावली

डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र
 

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर

गोधूलि-संपूर्णानंद मिश्र

गोधूलि


रोज़ थका हारा
जब गोधूलि बेला में
लौटकर घर आता हूं
बापू के आंखों में
एक अलग चमक ही पाता हूं
जिस दिन थोड़ी देर हो जाय
बापू के निलयों में
अस्त सूरज पाता हूं
गोधूलि बेला में
लौटकर घर जब आता हूं
बिटिया दौड़ी- दौड़ी आती है
दिन भर की ख़बर सुनाती है
दादू के टूटे चश्में की याद
मुझे दिलाती है
दादा से आज दादी कोहायी हैं
यह भी आकर बतला जाती है
रोज़ थका हरा गोधूलि बेला में

लौटकर घर जब आता हूं
सबकी उम्मीदों की झोली
भरकर ले आता हूं
किवाड़ की ओट में
पत्नी खड़ी हो जाती है
चेहरे पर उसके
उपालंभ की कुछ रेखा
दिख जाती है
जब रोज़ थका हारा आता हूं
तब गोधूलि बेला हो जाती है
अम्मा के सपनों की
झोली भरकर ले आता हूं
बापू के निलयों में
एक अलग चमक ही पाता हूं
जब रोज़ थका आता हूं
तब उम्मीदों की
किरणें लेकर आता हूं

संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका।

कोविड 19: अभिभावक और शिक्षण संस्थान की भूमिका

आकांक्षा सिंह “अनुभा

क्या कभी किसी ने सोचा था कि वक्त का पहिया इतना लंबा रुकेगा? शायद ही किसी ने ऐसा सोचा होगा। वक्त का पहिया ऐसा रुका कि व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक जैसी गतिविधियों पर ताला लग गया।

‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ अरस्तू का ये कथन गलत साबित होने की कगार पर आ गया। समाज शास्त्र की जैसे परिभाषा ही बदल गयी। ये सब कुछ आखिर सम्भव हो गया, विश्वव्यापी महामारी

कोविड19 के फैलने से।

कोविड 19 महामारी एक ऐसी महामारी है जिसने व्यक्ति का जीवन अस्त व्यस्त कर दिया। लेकिन वो कहते हैं ना कि किसी चीज़ का अंत ही आरम्भ बन जाता है। ठीक इसी प्रकार कोविड 19 महामारी के आने से हर गतिविधि एक नए रूप में सामने आई। जीवन जीने का नज़रिया ही बदल गया। इसी कड़ी में शिक्षा जैसी जरूरी आवश्यकता का भी स्वरूप बदल गया। नई पीढ़ी को परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार बनाने हेतु शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है।

लेकिन शिक्षा का स्वरूप इस भयंकर कोविड19 की महामारी काल में पूरा का पूरा बदल गया। महामारी ने विद्यार्थियों की पूरी दिनचर्या ही बदल कर रख दी। बेशक बच्चों के माता पिता पहले गुरु होते हैं। लेकिन विद्यालय में गुरु मंदिर के ऐसे पुष्प होते हैं जो भिन्न भिन्न प्रकार की अपनी महक के ज्ञान से बच्चों के मन मस्तिष्क में नित नई ऊर्जा भरते हैं।
शिक्षक ऐसे ईश्वरीय स्वरूप होते हैं, जो बच्चों में मानसिक, सामाजिक विकास की ऊर्जा भरते हैं। एक बच्चा जब छुटपन से विद्यालय जैसे मंदिर में कदम रखता है तब ईश्वर स्वरूप शिक्षक बच्चों की हर समस्या का समाधान करते हैं। शिक्षक बच्चों को मन , कर्म, वचन से जीवन की सभी प्रकार की चुनौतियों से डटकर सामना करने के लिए सशक्त बनाते हैं। बच्चों का एक लंबा वक्त शिक्षा के मंदिर में ही बीतता है। जिससे छोटे से बड़े कक्षा के हर स्तर के विद्यार्थियों को ईश्वर स्वरूप शिक्षक ही सँवारता है।
लेकिन वर्तमान समय में कोविड 19 की महामारी के समय में अभिभावक और शैक्षणिक संस्थानों में कुछ ऐसे मतभेद उभर कर समाज में सामने आए जो शिक्षक की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह लगा चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि शिक्षा के मंदिर की शोभा विद्यार्थियों से है परन्तु बिना शिक्षक के शिक्षा का मंदिर अपंग कहलायेगा। विद्यार्थी और शिक्षक दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। विद्यार्थी बिना विद्यालय व्यर्थ और शिक्षक बिना शिक्षा व्यर्थ।
कोविड 19 महामारी के दौर में जब व्यक्ति का व्यक्ति से सम्पर्क बंद है तो प्रश्न ये उठा आखिर शिक्षा के स्वरूप का संचालन कैसे हो? बड़े स्तर पर समाधान निकला। डिजिटलाइजेशन के युग मे शिक्षा के संचालन का स्वरूप ही बदला गया, अपनाया भी गया।
एक लंबे वक्त बाद शिक्षा के संचालन स्वरूप का ढाँचा पूरी तरह बदल गया। हर वर्ग की पहुँच तक शिक्षा को संभव बनाया गया। जिसका पूरा श्रेय शिक्षक को ही जाता है। इसमें कोई संशय ही नहीं है। खुद से प्रश्न करें कि क्या शिक्षक के बिना ये सम्भव हो पाता ?

डिजिटलाइजेशन

डिजिटलाइजेशन के इस युग में हर वर्ग के शिक्षक ने बखूबी सीखते हुए खुद को हर सम्भव ढालते हुए शिक्षा के प्रसार में कोई कमी नहीं छोड़ी। लेकिन वो कहते हैं ना कि सकारात्मकता के साथ नकारात्मकता भी साथ साथ चलती है। कोविड 19 महामारी के दौर में शिक्षा का स्वरूप तो बदल गया लेकिन समस्याएं भी सामने आईं। वो ये कि बच्चों की क्लास ऑनलाइन चल रही है, बच्चा विद्यालय नहीं जा रहा तो फ़ीस क्यों दें ?
प्रश्न वाज़िब भी है। लेकिन अभिभावक एक प्रश्न खुद से करें कि जब बच्चा जिस कक्षा में पंजीकृत होता है तो क्या उसके बगैर उनका कार्य चल पाएगा ? अभिभावक अपनी स्वेच्छा से अपने बच्चे का विद्यालय में पंजीकरण कराते हैं। शिक्षण संस्थान योजनानुसार शिक्षा को डिजिटली शिक्षकों द्वारा प्रसार करवाते हैं। बच्चों की शिक्षा और साल खराब न हो इसलिए हर संभव प्रयास शैक्षणिक संस्थान अपने स्तर से करवाते हैं। फिर चाहे बच्चा किसी भी वर्ग का हो। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली हर वर्ग के लिए संभव कराई जाती है। फिर फीस ना देने का प्रश्न आखिर क्यों ? हाँ प्रश्न ये उठना वाज़िब है कि मनमुताबिक फीस वसूली आखिर क्यों ? यदि मन मुताबिक फीस प्राईवेट शिक्षण संस्थान ले रहें हैं तो हर वर्ग के अभिभावक को ये अधिकार है कि उसके खिलाफ आवाज़ उठाये।
अभिभावक के पास कई विकल्प मौजूद है कि वो अपने बच्चों को ऐसे मनमानी फीस वसूलने वाले शिक्षण संस्थान से अपने बच्चे को पृथक कर दें। लेकिन यदि अभिभावक बच्चों को विद्यालय स्तर पर शिक्षा का लाभ प्राप्त करा रहें हैं तो फीस देना आपका कर्त्तव्य बन जाता है।
 
कहते हैं वक़्त के साथ बदलना चाहिए। कोविड 19 महामारी में शिक्षा का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है और ये बदलाव विद्यार्थियों के भावी भविष्य के लिए उत्तम है।
———————————————-
आकांक्षा सिंह “अनुभा”
रायबरेली, उत्तरप्रदेश।

सौगात – अरविंद जायसवाल

सौगात

आज आजाद हैं हम खुले आसमां,
पंक्षियों की तरह हम गगन छू रहे।
खत्म हैं बंदिशें बेकरारी नहीं,
आज अपने वतन से गले मिल रहे।
आज आजाद हैं हम खुले आसमां,
पंक्षियों की तरह हम गले मिल रहे।
आज का दिन समर्पण सुहाना तुम्हें,
आज मिट जाने दो सारे शिकवे गिले।
जिन शहीदों ने हमको ये सौगात दी,
 हर वर्ष दीप उनके लिये ही जले।
आज आजाद हैं हम खुले आसमां,
पक्षियों की तरह हम गगन छू रहे।
 करते अरविंद ईश्वर से यह प्रार्थना,
जन्म जब भी मिले तो यहीं पर मिले।
मेरे भारत का झंडा तिरंगा सदा,
नित नई ज्योंति से जगमगाता रहे।
 आज आजाद हैं हम खुले आसमां,
पंक्षियों की तरह हम गगन छू रहे।
हमें विश्वास है कि हमारे लेखक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस वरिष्ठ सम्मानित लेखक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।लेखक की बिना आज्ञा के रचना को पुनः प्रकाशित’ करना क़ानूनी अपराध है |आपकी रचनात्मकता को हिंदीरचनाकार देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है|
bachpan ki yaadein story-संतोष कुमार विश्वकर्मा

“स्कूटर


हम लोग उम्र के उस दौर में थे, जब मन साइकिल से मोटरसाइकिल पर जाने के लिए बेचैन होने लगा था। हम मतलबमैं और मेरे सुपर स्टार दोस्त मियां मोकीम। तो उस समयबजाज सुपरस्कूटर का जलवा था, और मोटरसाइकिल में लोग बहुत कम इंटरेस्ट लेते थे,स्कूटर उस समय सुपर स्टार होती थी।

कभी किसी की स्कूटर खड़ी देख लेते थे हम लोग,तो मोहल्ले के दूसरे लड़को के सामने खूब शेखी बघारते,और अपने आधे अधूरे ज्ञान का प्रदर्शन करते, जैसे,”पहिला गेर ऊपर लगेगा, “चौथे गेर में गाड़ी बहुत भागती है“,  पहिया के नीचे अगर अद्धा गया तो गाड़ी पलट जाएगी और बहुत कुछ जैसे कि हम सब कुछ जानते है।

किसी तरह थोड़ा बहुत हम लोग चलाना जान गए थे।किसी की स्कूटर कभी मिल जाती थी चलाने को तो,बड़ी शान से अपने घर की तरफ जरूर जाते थे,कि देख लो हम भी स्कूटर चलाना जानते है। मोकीम के साथ भी यही सेम सिचुएशन थी, क्योंकि वो और मै अक्सर एक ही गाड़ी पर होते थे।

वो अपने घर के सामने मुझे पीछे बैठाते थे,और मैं अपने घर के सामने मोकीम को पीछे बिठाता था।स्कूटर चलाने का शौक अपने जुनून पर था और उसी बीच एक दुःखद घटना हो गई, मोकीम के अब्बा हुजूर का इंतकाल हो गया, मोकीम के बड़े भाई सिकंदर अपने ससुराल गए थे, तो ये तय हुआ कि, मोकीम जाएं और सिकंदर को अपने साथ लेकर आएं।

बगल से सेठ माताफेर की स्कूटर का प्रबंध हुआ, अगर मैयत का मामला ना होता तो सेठ माताफेर अपना स्कूटर हरगिज़ नहीं देते। मैं मुकीम के मन की स्थिति को बहुत अच्छी तरह से समझ रहा था, उन्हें अब्बा हुजूर की मौत का दुख तो बहुत था लेकिन स्कूटर चलाने का रोमांच उससे कहीं ज्यादा था,मोकीम तुरंत तैयार हो गए जाने के लिए।

जब मैंने सुना कि ,स्कूटर से जाएंगे तो मैं भी फट से तैयार हो गया।मोकीम इस समय डिस्टर्ब है ,मैं इनके साथ जरूर जाऊंगा ,ऐसा झांसा देकर मैं भी मोकीम के साथ हो लिया ,स्कूटर चलाने के लालच में।।

मोकीम के भैया की ससुराल करीब 40 किलोमीटर दूर थी, स्कूटर मोकीम ने ही स्टार्ट किया, और वही चला रहा था ,चार पांच किलोमीटर जाने के बाद मेरे मन मे भी स्कूटर चलाने तीव्र इच्छा हुई ,एक बार थोड़ा कहीं डगमगाया तो मैंने अपनी आवाज को गंभीर करते हुए कहा कि ,”मोकीम तुम्हारे अब्बा की अभी डेथ हुई है तुम्हारी तबियत ठीक नही लग रही रही है,लाओ स्कूटर मैं चलाऊ। लेकिन मोकीम ने तत्काल इनकार कर दिया बोला कि ,”बैठे रहो जल्दी पहुचना है, टाइम कम है। ये सुनते ही दिल बैठ गया,दरअसल स्कूटर चलाने का कीड़ा जितना मुझे काटा था उतना ही मियां मोकीम को भी।

खैर मोकीम ने मुझे स्कूटर नही दिया और आप तो समझ ही रहे होंगे कि मेरे दिल की क्या हालत रही होगी।

।।मेरे बचपन की यादें से संकलित।।

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कागज़ की एक नाव बनाना,
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बहती नाव के पीछे-पीछे,
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चार बजे स्कूल से आना,
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बाबा जी को पता चले जब,
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आमों के पेड़ों पर चढ़कर,
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छप-छप पानी वाले दिन।
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अजिया के संग रात लेटकर,
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—————————
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हमें विश्वास है कि हमारे लेखक स्वरचित रचनाएं ही इस कॉलम के तहत प्रकाशित होने के लिए भेजते हैं। हमारे इस वरिष्ठ सम्मानित लेखक का भी दावा है कि यह रचना स्वरचित है।लेखक की बिना आज्ञा के रचना को पुनः प्रकाशित’ करना क़ानूनी अपराध है |आपकी रचनात्मकता को हिंदीरचनाकार देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है|

 
अहं ब्रह्मास्मि-डॉ.संपूर्णानंद मिश्र

अहं ब्रह्मास्मि

 

जिन्हें इंकार है

उसके अस्तित्व से ही

और जो माने बैठे हैं

मूरत में सूरत में

मंदिर मस्जिद गिरजे में

काशी क़ाबा पोथी में

सब ख़तरनाक हैं

क्योंकि वे हिस्सा हैं

एक ख़तरनाक खेल का

वे लेते हैं ठेका

या दिखाते हैं ठेंगा

मिट्टी को पकड़ो

या आसमान को

आस्तिक कहाओ

नास्तिक कहाओ

दोनों एक जैसे हो

क्योंकि दोनों देखते हैं

सिर्फ बाहर

एक को पाने का भ्रम

दूसरे को न पाने की खुशी

दोनों गफ़लत में

दोनों ख़तरनाक

दोनों भीतर से अनजान

*दोनों शक्तिहीन

दोनों खाली

इसीलिए दोनों आक्रामक

दोनों हिंसक

एक तीसरा भी तो है

जो महसूसता है

एक अनंत शक्ति

अपार आस्था

अटूट संबंध

भीतर ही भीतर

और निरंतर होता रहता है

समृद्ध सार्थक सशक्त

और बनाता रहता है

अपनी दुनिया को

सबके रहने लायक


2. *हत्या होगी सत्पथियों की*

दर्दनाक है यह समय

जी रहे हैं‌ जिसमें हम सभी

जबकि और भी

दर्दनाक वक्त आना शेष है

वर्तमान का आइना भविष्य का

अपना भयावह

रौद्र- रूप  दिखा रहा है

पूर्वाद्ध चरण आना कलिकाल

का तो अभी बहुत दूर बता रहा है

ऐसी विषम परिस्थिति में

दुरुह हो जायेगा जीना

हर सांस में घुल जायेगी अविश्वास,

अनास्था और अनैतिकता की ज़हरीली हवा

कत्ल करने दौड़ेगा

भाई, भाई का

दूसरों के दुःख में

सुख ढूंढ़ता फिरेगा मनुष्य

भंग कर दिया जायेगा

कौमार्य सारी रवायतों का

खायी जायेंगी

रक्त से सनी रोटियां

पुत्र ही धारदार

हथियार का निर्माण करेगा

पिता की गर्दन को रेतने के लिए

धर्म और सत्कर्म

की अस्मत लूटी जायेंगी

ठीक मंदिरों के सामने

बच सकेगा मनुष्य

सर्प- दंश से

लेकिन कोई दैवीय शक्ति

ही बचा सकेगी किसी

नर- पिशाच के

रक्तिम नुकीले दंश से

नृशंस हत्या

सरेआम होगी सत्पथियों की

यह वक्त तो आना अभी शेष है

ahan- brahmaasmi
संपूर्णानंद मिश्र

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

प्रयागराज फूलपुर

7458994874

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