लौट आओ राम-डॉ.संपूर्णानंद मिश्र

लौट आओ राम-डॉ.संपूर्णानंद मिश्र


कहां हो मेरे राम !
लौट आओ तुम एक बार फिर
ज़रूरत है आज सबसे ज़्यादा तुम्हारी
घुट रही है प्रजा
नहीं ले पा रही है
 सांस भी ठीक से
चली गयी है वेण्टीलेटर पर भी
 दिख रहा है हर पथ पर अंधकार
 बिरा रहा है मुंह तम भी आज
एक बहुत बड़ी क़ीमत वसूली है आफ़ताब ने अंधेरों से
अब नहीं डर है अंधेरे को किसी से
अर्जित कर लीं हर तरह की मायावी शक्तियां
 भयमुक्त बता रही है वह अब अपने को
नहीं झुकेगा
उस बड़े डीह के सामने जो
वर्षों से लोग माने हुए हैं
जिनके अस्तित्व और शौर्य को
निकाल लीं  जायेंगी ऐसी हर आंखों को
 ऊंची उठी हुई हो
जिनकी गर्दन सुराही से भी ज्य़ादा
चौखटों में ही समा जायेगी उनकी  चींखें
कौन पोंछने आयेगा आंसुओं को उनके
क्योंकि नहीं बर्दाश्त कर पायेंगे
अपने ऐनक से
 उन्हें कोई रास्ता दिखाए
डार्बिन के विकासवाद का सिद्धांत समझाए
  परित्याग कर दिया तुमने धोबी के कथन पर सतवंती मां सीता का
यह जानते हुए कि वह निर्दोष है
इन निर्दोषों के नयन- नीर पोंछने तुम आ जाओ
लौट आओ राम एक बार फिर !
laut -aao- raam
संपूर्णानंद मिश्र
संपूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
श्रीरामचरितमानस की चौपाई का अर्थ
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस एक विश्व प्रसिद्ध प्रबंध काव्य है ,जिसमें श्री राम, श्री लक्ष्मण ,श्री भरत जी ,श्री दशरथ जी आदि के पुरुष चरित्र के साथ ही साथ माता कौशल्या ,सीता, सुमित्रा आदि महिला पात्रों के चरित्र का जीवन्त चित्रण किया गया है । श्रीरामचरितमानस की चौपाई का अर्थ उधर विपक्ष के रावन ,खर -दूषण, मेघनाथ आदि पुरुष पात्रों के साथ शूर्पणखा ,मंदोदरी  जैसी नारी पात्रों की भी योजना की गई है ।इन्हीं पात्रों के मध्य महाराज दशरथ की रानी कैकयी का भी चरित्र प्रदर्शित किया गया है ।वह अपनी दासी मंथरा के कहने से दो वरदान मांगती है- प्रथम में राम के राज्याभिषेक के स्थान पर अपने पुत्र भरत का राज्याभिषेक  चाहती है। दूसरे वरदान में वह राम को 14 वर्ष का वनवास मांगती है ।वह राम को राजकुमार अथवा राजाराम से उठाकर उन्हें भगवान राम बना देती है ।

            राम के वनवास के पीछे के  अनेक कारण हैं ।

एक तो यह कि कैकेयी अपने चारों पुत्रों में से राम को ही एक ऐसे समर्थ  पुत्र के रूप में देखती है जो उसके समस्त शत्रुओं का नाश कर सकता है और उसकी बानगी उसे विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा तथा धनुष यज्ञ की शिव धनुष भंग के रूप में मिल चुकी थी ।

  जैसा कि प्रमाण मिलता है कि कैकेयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध भूमि में उनके रथ  संचालन हेतु जाया करती थी ।एक बार वह रावण से युद्ध के समय महाराज दशरथ का रथ हाँक  रही थी ।उस समय उनकी हार हो जाने से रावण ने उनका उपहास करते हुए कहा कि रघुवंशी में इतना साहस नहीं है कि वह मेरे जैसे महान योद्धा का सामना कर सके।
         यह बात माता कैकई को बहुत चुभ गई और उसने  वही रावण को जवाब दिया था कि रघुवन्शियो के द्वारा ही तुम्हारे वंश का नाश होगा। अपने इसी वचन को पूरा करने के लिए कैकई ने राम को 14 वर्षों का वनवास मांगा था ।वनवास का वरदान मांगने के समय उसका पुत्र भरत अयोध्या में नहीं था ।यही उपयुक्त अवसर था जब वह राम का वनवास मान सकती थी। वनवास के वर माँगने के  बाद अयोध्या वासियों ने, राह के लोगों ने उसके इस कार्य की भर्त्सना की लेकिन कैकई अपने निर्णय पर अटल रही ।हालांकि उसके इस निर्णय के कारण राजा दशरथ को प्राण गंवाने पड़े ।यह तो होना ही था क्योंकि उन्हें श्रवण कुमार के अंधे माता पिता का श्राप था ।  राजा दशरथ ने इस वनवास के कारण पत्नी कैकेयी का परित्याग कर दिया और मृत्यु को प्राप्त हो गए।
           ननिहाल से लौटे भरत ने भी उसकी कम निंदा नहीं की ।उन्होंने भी माता कैकई का परित्याग किया, जिसकी निंदा भगवान राम ने भरत से ही की ।भगवान  राम अपनी माता कैकई को अन्य दोनों माताओं से अधिक चाहते थे। माता कैकेई भी चारों पुत्रों में से राम को अधिक चाहती थी जिसका प्रमाण दशरथ जी स्वयं देते हुए कहते हैं कि तुमने हमेशा राम की सराहना की है ।आज क्या हो गया है जो कि राम के प्रति ऐसी निष्ठुर हो गई हो ।
     कैकेयी तो जानती थी कि मैं राम को उनके कर्तव्य को पूरा करने में उनका साथ दे रही हूं अन्यथा उनका जन्म लेना ही व्यर्थ हो जाता है। राजकुमार से राजाराम ही हो पाते। उसने वनवास देकर उन्हें संपूर्ण सत्य से अवगत कराया ।सभी प्रकार के मानव से मिलाया ।यहाँ तक महाराज सुग्रीव, नल ,नील ,अंगद तथा हनुमान से मिलाया और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बांधने का कार्य कराया ।
         माता कैकई रावण की सौंदर्य प्रियता को भी जानती थी। उसे यह भी पता था कि उपवन में सीता को किसी पक्षी के द्वारा कहा गया था कि इसे रावण चुराकर लंका ले जाएगा। किसी बहाने रावण वन से सीता का  अपहरण करेगा तब राम और उनकी वानरी सेना द्वारा रावण के वंश का समूल नाश किया जाएगा ।
        एक किवदंती और भी है कि राजा दशरथ का मूल मुकुट जो उन्हें वंश परंपरा से प्राप्त हुआ था। बाली ने उसे हराकर प्राप्त कर लिया था। उस मुकुट को भी अयोध्या वापस लाने की क्षमता भी वह राम में ही देखती थी जैसा कि बाद में बाली वध के बाद हुआ भी ।
           इस प्रकार महारानी कैकई ने अपने एक ही वरदान के कारण महाराज दशरथ के पुत्र प्रेम ,भरत का राम के प्रति भ्रातृ प्रेम एवम् सेवक भाव , लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न के भ्रातृ प्रेम ,महारानी कौशल्या के धैर्य, उर्मिला  की प्रेम परीक्षा,और यही नहीं संपूर्ण अयोध्या के नर -नारियों के राम प्रेम को दर्शाने का अवसर प्रदान किया। राम को भी विभिन्न साधू सन्यासियों और संतों के दर्शन करने, उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया।जिस कारण से राम जन्म हुआ था अर्थात पृथ्वी का भार उतारने का कार्य करने का भी अवसर राम को माता कैकई के वरदान से ही प्राप्त हुआ ।राम को सब के प्रति समभाव दर्शाने का मौका भी वनवास के द्वारा ही प्राप्त हुआ।
           अहिल्या जैसी निरपराध नारी जो अपने ही पति से शापित हुई थी उसका उद्धार ,शबरी जैसी नारी का उद्धार ,ऋषि मुनियों की रक्षा का कार्यभार भी माता कैकई के कारण ही पूर्ण हुआ ।यही नहीं तमाम राक्षस योनियों में उत्पन्न ऋषि मुनियों का भी उद्धार राम के वन गमन से ही पूर्ण हुआ ।
        यही कारण था कि राम ने माता कैकई को कहीं भी अपमानित नहीं होने दिया ।उनकी दृष्टि में मां कैकयी  अन्य दोनों माताओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी ।उसका प्रमाण उन्होंने वन से वापस आने पर दिया ।

“प्रभु जाना कैकई लजानी,

प्रथम तासु गृह गये भवानी।”

           इस चौपाई से स्पष्ट हो जाता है कि  राम ने माता कैकई के सम्मान की सदैव रक्षा की और वह ऐसा क्यों न करते क्योंकि वह संपूर्ण पात्रों को अपने अपने चरित्रों को व्यक्त करने का शुभ अवसर प्रदान करने में सक्षम थी।
       अंत में समग्र विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि जिस प्रकार स्वर्ण को अपनी शुद्धता व्यक्त करने के लिए कसौटी पर कसा जाता है अथवा उसे तपा कर उसकी शुद्धता की जांच की जाती है ,उसी प्रकार रामचरितमानस के सभी पात्रों की शुद्धता की जांच महारानी कैकयी  की कसौटी पर खरा उतरने के बाद या उनकी अग्नि में तपने के बाद  ही हो पाती है।
      अतः उक्त माता कैकेयी को कोटिशः नमन -अभिनंदन एवं उनके आशीर्वाद की शुभेच्छा।
shreeraamacharitamaanas- kee- chaupaee- ka- arth
rubi sharma
झांसी की रानी – रूबी शर्मा

यह भारत भूमि सिर्फ वीरों की जननी नहीं है यहाँ पर अनेक विदुषी एवं वीर बालाओं ने जनम लेकर इसके गौरवमय इतिहास को और भी स्वर्णिम बनांया है। भारत के इतिहास में १९ नवंबर का दिन बहुत ही गौरवपूर्ण है ।इस दिन परम विदुषी ,कुशल,राजनीतिज्ञ ,वीरांगना,व्यवहार कुशल एवं अनुपम सुंदरी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म दिवस हम मनाते हैं। भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ मे आदर्श वीरांगना थीं। सच्चा वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबराता है। प्रलोभन उसे कर्तव्य -पालन से विमुख नहीं कर सकते
महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म १९ नवंबर १८३५ को काशी में हुआ था। इनके पिता मोरोपंत तथा माता भागीरथी बाई थी । इनके पितामह बलवंतराव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रहने लगी। उन्हें बचपन में सब ‘मनु’ कहकर बुलाते थे। बचपन से ही इनमे अपार साहस और वीरता थी। वे सामान्य बच्चो के खेल न खेलकर अस्त्र -शस्त्रों से खेलती थीं। इनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से १८५० ई. मे हुआ। १८५१ में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने -कोने मे आनन्द की लहर प्रवाहित हुई । लेकिन चार माह पश्चात् उस बालक का निधन हो गया। पूरी झाँसी शोक सागर मे डूब गयी। राजा गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पंहुचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और २१ नवंबर १८५३ मे उनका निधन हो गया।
महाराज की मृत्यु रानी के लिए असहनीय थी लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं , उन्होंने विवेक नहीं खोया। उन्होंने राजा के जीवन काल में ही अपने बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंग्रेज़ी सरकार को सूचना दे दी थी , परन्तु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। लार्ड डलहौजी ने अपनी राज्य हड़पने की नीति के अंतर्गत झांसी को अंग्रेजी राज्य मे मिलाने की घोषणा कर दी। रानी ने कहा , मै अपनी झांसी नहीं दूँगी। ७ मार्च १८५४ को झांसी पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया। रानी ने पेंशन अस्वीकार कर दी। रानी ने अंग्रेज़ो के विरुद्ध क्रांति कर दी। रानी ने महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें युद्ध करने के लिए तैयार किया। उस समय पुरे देश के राजा महाराजा अंग्रेज़ो से दुखी थे। सबने रानी का साथ दिया। मंगलपांडे , नाना साहब ,तात्याटोपे ,बेगम हज़रत महल ,बेगम जीनतमहल , बहादुर शाह ,आदि सभी रानी के इस कार्य में सहयोग देने लगे। एक साथ सभी ने ३१ मई १८५७ को अंग्रेज़ो के विरुद्ध क्रांति करने का बीड़ा उठाया लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला स्थान- स्थान पर भड़क उठी। सभी बहुत ही साहस एवं वीरता पूर्वक युद्ध करते रहे । भयंकर युद्ध हुआ। अंग्रेज कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को सुसंगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया।
२३ मार्च १८५८ को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरभ हुआ। रानी ने खुले रूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। झलकारी बाई ,मुन्दरबाई जैसी वीरांगनाओं ने भी अपार साहस दिखाया। रानी अपनी सेना के साथ अंग्रेज़ो से अपार साहस और निर्भीकता पूर्वक युद्ध करती रही। उनके पराक्रम को देखकर अंग्रेज़ अधिकारी दंग रह गये । उन्होंने पहली बार ऐसी वीरांगना देखी थी मन ही मन वे रानी के शौर्य की प्रशंसा भी करते थे लेकिन शत्रु होने की वजह से युद्ध भी।
अदभुत पराक्रम के पश्चात् रानी युद्ध मे घायल हो गयी और वीरगति को प्राप्त हुई लेकिन रानी ने कभी अंग्रेज़ो की दासता स्वीकार नहीं की थी।

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     रूबी शर्मा

अनुभूति की अभिव्यक्ति-आकांक्षा “सिंह अनुभा”

अनुभूति (Feeling) किसी एहसास को कहते हैं। यह शारीरिक रूप से स्पर्श, दृष्टि, सुनने या गन्ध सूंघने से हो सकती है या फिर विचारों से पैदा होने वाली भावनाओं से उत्पन्न हो सकती है। संस्कृत मैं ‘अनुभूति’, ‘अनुभव’ का समानार्थी है। इसका अभिप्राय है साक्षात, प्रत्यक्ष ज्ञान या निरीक्षण और प्रयोग से प्राप्त ज्ञान  में छायावाद काल नया सब नया अर्थ में प्रयुक्त होकर समीक्षात्मक प्रतिमान के रूप में स्थापित हुआ। छायावाद की वैयक्तिकता का सीधा संबंध अनुभूति से है। अनुभूति में जो सुख-दुखात्म बोध होता है वह तीखा और बहुत कुछ निजी होता है। अनुभूति की अभिव्यक्ति-आकांक्षा “सिंह अनुभा” हिंदी कविता में वक़्त कब बदलता है,भाव से यह भिन्न है। इस शब्द को शास्त्रीय गरिमा से मंडित करने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है।
 

अनुभूति की अभिव्यक्ति


वक़्त कब और कैसा है।

ये किसने जाना ?

वक़्त कब बदलता है।

ये किसने जाना ?

वक़्त कभी रुकता नहीं।

ये हमने जाना ।।

वक़्त सिर्फ बदलता रहता है।

ये हमने जाना ।।

लोग कहते हैं वक़्त के साथ चलो,

वक़्त के साथ चलना तो सीखा ।

पर वक़्त ने उसी वक़्त पर रुख बदल लिया।

और वक़्त पे खुद का साया बदल गया।

सच ये वक़्त कब और कैसा है।

ये हमने जाना ।।

वक़्त जो था पहले।

सोचा था शायद वैसा ही रहेगा।।

वक़्त जो चल रहा था।

सोचा था वो सही चलेगा।।

वक़्त और वक़्त की बातें वक़्त के साथ गुजर जाएँगी।

वक़्त नहीं रुका पर वक़्त के साथ क्या से क्या हो गया।।

सच ये वक़्त कब और कैसा रहेगा किसने जाना ।

कभी सोचा न था ये वक़्त भी आएगा।

गुजरी हुई तक़दीर का दीदार करायेगा।

क्या है आगे।क्या था पीछे उसका दर्पण दिखायेगा।

हमने फिर माना वक़्त सही है,– पर

वक़्त ने फिर से वक़्त पे आकर आइना दिखा दिया।

सच ये वक़्त कब और कैसा रहेगा।

ये हमने जाना ! हमने जाना ! हमने जाना।

anubhooti- kee- abhivyakti
आकांक्षा “सिंह अनुभा”

 

खनकै शरद कै कंगनवा -शिव नारायण मिश्र

सुहानी शरद ऋतु के आने पर आंगन में (खुले स्थान से तात्पर्य है घर में खुलापन तो होता ही है )इससे ठंडक का अनुभव होता है ,प्रतीत होता है कि जाड़ा आंगन में झांक रहा है- शरद ऋतु के कंगन की खनक सुनकर। आंगन में कोई और भी तो झांकता है ।किसी की आहट को सुनकर ।किशोरी के मन प्राणों को कितना स्पर्श करता है खनकै शरद कै कंगनवा – शिव नारायण मिश्र ,तुलसीदास ने रामचरितमानस में शरद ऋतु का गुणगान करते हुए लिखा है – बरषा बिगत सरद ऋतु आई। लछिमन देखहु परम सुहाई॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥अर्थात हे लक्ष्मण! देखो वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने कास रूपी सफेद बालों के रूप में अपना वृद्घापकाल प्रकट किया है। वृद्घा वर्षा की ओट में आती शरद नायिका ने तुलसीदास के साथ कवि कुल गुरु कालिदास को भी इसी अदा में बाँधा था।
ऋतु संहारम के अनुसार ‘लो आ गई यह नव वधू-सी शोभती, शरद नायिका! कास के सफेद पुष्पों से ढँकी इस श्वेत वस्त्रा का मुख कमल पुष्पों से ही निर्मित है और मस्त राजहंसी की मधुर आवाज ही इसकी नुपूर ध्वनि है। पकी बालियों से नत, धान के पौधों की तरह तरंगायित इसकी तन-यष्टि किसका मन नहीं मोहती।’ जानि सरद ऋतु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥ अर्थात शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते हैं अर्थात पुण्य प्रकट हो जाते हैं।
बसंत के अपने झूमते-महकते सुमन, इठलाती-खिलती कलियाँ हो सकती हैं। गंधवाही मंद बयार, भौंरों की गुंजरित-उल्लासित पंक्तियाँ हो सकती हैं, पर शरद का नील धवल, स्फटिक-सा आकाश, अमृतवर्षिणी चाँदनी और कमल-कुमुदिनियों भरे ताल-तड़ाग उसके पास कहाँ? संपूर्ण धरती को श्वेत चादर में ढँकने को आकुल ये कास-जवास के सफेद-सफेद ऊर्ध्वमुखी फूल तो शरद संपदा है। पावस मेघों के अथक प्रयासों से धुले साफ आसमान में विरहता चाँद और उससे फूटती, धरती की ओर भागती निर्बाध, निष्कलंक चाँदनी शरद के ही एकाधिकार हैं ,यह शरद ऋतु का सुहाना पन देखें गीत में –

खनकै शरद कै कंगनवा

 

     खनके सरद कै कंगनवा ,

     जाड़ झान्कै अंगनवा।

 

   निर्मल नभ -धरती ,

      नीलाभ रंग धानी ।

     लागति  है निर्मलता

      केरि      राजधानी ।

 

     जइसे हो संतन के मनवा।

     जाड़   झांकै     अंगनवा।

 

     दिन    मइहाँ      धमवा

    सुखद    तन     परसे ,

    रतिया          जुन्हईया

    प्रीति   -रस       बरसे ।

 

    भीगि -भीगि सरसै परनवाँ,

     जाड़    झान्कै   अंगनवाँ।

 

    गोपियन  कइ चीर-हरन ,

    कान्हा     जो       कइनै।

    रथ    पे    सुभदरा    के

    अर्जुन    ले       अइनै ।

 

    भोरहे मा  देखियउँ सपनवाँ,

    जाड़    झांके        अंगनवाँ ।

khanakai -sharad- kai- kanganava
शिव नारायण मिश्र

 

अवधी कवि शिव नारायण मिश्र

 

कुंकुम सा काशमीर -डॉ.संतलाल

डॉ.संतलाल की कलम से कश्मीर की संस्कृति का अर्थ ,कश्मीर की संस्कृति एवं परम्पराओं से हैं. कश्मीर, उत्तर भारत का क्षेत्र (जम्मू-कश्मीर से मिलकर), उत्तर-पूर्व पाकिस्तान (आजाद कश्मीर और गिलगित-बाल्टिस्तान से मिलकर) और अक्साई चिन जो चीनी कब्जे वाले क्षेत्र हैं। कुंकुम सा काशमीर
कश्मीर की संस्कृति में बहुरंगी मिश्रण है एवं यह उत्तरी दक्षिण एशियाई के साथ साथ मध्य एशियाई संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित हैं। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ कश्मीर अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है; यह मुस्लिम, हिंदू, सिख और बौद्ध दर्शन एक साथ मिल कर एक समग्र संस्कृति का निर्माण करते हैं जो मानवतावाद और सहिष्णुता के मूल्यों पर आधारित हैं एवं सम्मिलित रूप से कश्मीरियत के नाम से जाना जाता है।
कश्मीरी लोगों की सांस्कृतिक पहचान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा कश्मीरी (कोशूर) भाषा है। इस भाषा को केवल कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों द्वारा कश्मीर की घाटी में बोली जाती है। कश्मीरी भाषा के अलावा, कश्मीरी भोजन और संस्कृति बहुत हद तक मध्य एशियाई और फारसी संस्कृति से प्रभावित लगता है। कश्मीरी इंडो-आर्यन (दर्डिक उपसमूह) भाषा है जो मध्य एशियाई अवेस्तन एवं फारसी के काफी करीब हैं। सांस्कृतिक संगीत एवं नृत्य जैसे वानवन, रउफ, कालीन / शाल बुनाई और कोशूर एवं सूफियाना कश्मीरी पहचान का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है। कश्मीर में कई आध्यात्मिक गुरु हुए हैं अपने देश से से पलायन कर कश्मीर में बस गए। कश्मीर भी कई महान कवियों और सूफी संत भी हुए जिनमे लाल देद, शेख-उल-आलम एवं और भी कई नाम हैं। इसलिए इसे पीर वैर (आध्यात्मिक गुरुओं की भूमि)के नाम से भी जाना जाता हैं। यहाँ पर यह ध्यान देने की बात हैं की कश्मीरी संस्कृति मुख्य रूप से केवल कश्मीर घाटी में चिनाब क्षेत्र के डोडा में ज्यादातर देखी जाती हैं। जम्मू और लद्दाख की अपनी अलग संस्कृति हैं जो कश्मीर से बहुत अलग हैं।

कुंकुम सा काशमीर

 

धवल किरीट सोहै कुंकुम सा काशमीर ,

मातृ  भूमि पद जल सागर उलीचा है।

भारत की भाग्य रेखा नदियाँ हमारी बनी,

सुधा सम सलिल सों कण कण सींचा है।

एकता की सूत्र धार भेद भाव से परे हैं,

प्रान्त प्रान्त में प्रवाह रेखा नहीं खींचा है।

भिन्न रूप रस गंध भिन्न भिन्न क्यारियाँ हैं,

भिन्न भिन्न सुमनों का भारत बगीचा है ॥

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डॉ.संतलाल

हम साधारण लोग – सीता राम चौहान पथिक

सीता राम चौहान पथिक की कलम से ” हम साधारण लोग” हिंदी कविता साधारण लोग की वेदना को प्रदर्शित करती सुन्दर रचना आपके सामने प्रस्तुत है

 हम साधारण लोग  

हम साधारण लोग
नहीं जानते ज्ञान – गूढ़ तत्व की बातें ,
  वेदांत की गहराइयां ,
थोथे उपदेशों की तलछट
तुम्हारे बौद्धिकता के जंगल में ,
उभरती खर – पतवारें ।
तुम्हारी महत्त्वाकांक्षाओं के टेढ़े मेढे पायदान ,
जिनकी बलि चढ़ती निर्दोष मानवता लहू – लुहान ।।
नहीं – नहीं      राष्ट्रीय नेताओं ,
 हम हैं सीधे सरल इनसान ।
हमें चाहिए तुम्हारा निश्छल – प्रेम विश्वास ।
हम जी लेंगे अभावों के बीच ,
केवल हमें दो अपना वीरोचित आत्म – विश्वास ।
अपने स्वार्थ , भ्रष्टाचार , अनैतिकता के आवरण ,
हटा कर तनिक देखो हमारी तरफ
हम हैं साधारण लोग फटे – हाल ।
 हमारे माथे की शिकनो में उभरते कई सवाल ।
तुम हो प्रजातंत्र के प्रतिनिधि ,
वोटों के केवल खरीदार ।।
हमारी गरीबी , भुखमरी , आत्म – हत्याओं पर तनिक करो विचार ,
हमारी ओर बढ़ रहे आतंकवादियों
के  पारावार ,
हमारी रक्षक सेनाओं को दो अत्याधुनिक हथियार ,
हम सीधे सरल – साधारण लोग
हमें चाहिए सूदृढ सूरक्षा तन्त्र ,
जिनमें तुम सूरक्षित हो
ना हो जाए निर्दोष मानवता बलिदान ।
हम हैं सीधे सरल इनसान ।।
हमने तुम्हें ‌ बनाया है महान
कर्तव्यों का तुम्हें नहीं है भान ।
हम यदि चाहें , छीन सकते हैं ,
तुम्हारा हठीला अभिमान ।।
प्रजा तन्त्र को होने ना देंगे यूं बदनाम ,
ज्ञम है  सीधे सच्चे सरल इनसान ।
   सीता राम चौहान पथिक दिल्ली
भ्रष्टतन्त्र का जुआ-आरती जायसवाल

आरती जायसवाल साहित्यकार की कलम से “भ्रष्टतन्त्र का जुआ” हिंदी कविता प्रदर्शित करती है कि  2005 में भारत में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल नामक एक संस्था द्वारा किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि 62% से अधिक भारतवासियों को सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिये रिश्वत या ऊँचे दर्ज़े के प्रभाव का प्रयोग करना पड़ा। वर्ष 2008 में पेश की गयी इसी संस्था की रिपोर्ट ने बताया है कि भारत में लगभग 20 करोड़ की रिश्वत अलग-अलग लोकसेवकों को (जिसमें न्यायिक सेवा के लोग भी शामिल हैं) दी जाती है। उन्हीं का यह निष्कर्ष है कि भारत में पुलिस कर एकत्र करने वाले विभागों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है। आज यह कटु सत्य है कि किसी भी शहर के नगर निगम में रिश्वत दिये बगैर कोई मकान बनाने की अनुमति नहीं मिलती। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति भी यह मानकर चलता है कि किसी भी सरकारी महकमे में पैसा दिये बगैर गाड़ी नहीं चलती।
राजनीतिक पार्टियों का मूल उद्देश्य सत्ता पर काबिज रहना है। इन्होंने युक्ति निकाली है कि गरीब को राहत देने के नाम पर अपने समर्थकों की टोली खड़ी कर लो। कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए भारी भरकम नौकरशाही स्थापित की जा रही है। सरकारी विद्यालयों एवं अस्पतालों का बेहाल सर्वविदित है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में ४० प्रतिशत माल का रिसाव हो रहा है। मनरेगा के मार्फत्‌ निकम्मों की टोली खड़ी की जा रही है। १०० रुपये पाने के लिये उन्हें दूसरे उत्पादक रोजगार छोड़ने पड़ रहे हैं। अत: भ्रटाचार और असमानता की समस्याओं को रोकने में हम असफल हैं। यही हमारी महाशक्ति बनने में रोड़ा है।

‘भ्रष्टतन्त्र का जुआ’

भ्रष्टतन्त्र का जुआ’ धरा है

लोकतंत्र के कन्धों पर,

सत्य-झूठ के चयन का जिम्मा

यहाँ अक़्ल के अन्धों पर।

गूंगों को गीतों का ठेका,

लँगड़े नृत्य में सिद्ध हुए

लाचारी बैठी है कैसी

कर्तव्यों के कन्धों पर?

लूटो जितना लूट सको

बस नए बहाने गढ़ लेना

स्वर्णखान की रक्षा का

ज़िम्मा है कालेधन्धों पर।

सत्ता में शामिल होते ही सबने ही है जन को ठगा

कब तक हम विश्वास करें उनकी झूठी सौगन्धों पर?

‘आग लगाकर,आग बुझाना

कुछ जन का है काम यही।’

प्रेम के धोखे में हस्ताक्षर

होते ‘छल’ अनुबन्धों पर।

जीवन की पगडण्डी पर

सुख-दुःख दोनों के पहरे हैं,

नेह के धागे टूट गए सब,

रिश्ते कब तक ठहरे हैं।

वक़्त की धार की मार पड़ी

जब जीवन के प्रबन्धों पर।

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आरती जायसवाल

ज़्यादा संघर्षशील है-डॉ. सम्पूर्णानंद मिश्र

डॉ. सम्पूर्णान्द मिश्र की कविता “ज़्यादा संघर्षशील है” ये सन्देश देती है मानव जीवन में किस तरह संघर्ष की पराकाष्ठा चरम पर है कैसे ईमानदार आदमी आज सबसे ज़्यादा संघर्षशील है मानवता बस नाम मात्र की रह गयी है लोकतंत्र की वारांगनाएं अपने ग्राहकों को लुभा रही हैं यह कैसा वक्त है यह देश गतिशील है या प्रगतिशील हैं वर्तमान प्रगतिशील युग में प्रजातीय भेदभाव राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में कानून के रूप में व व्यवहार में जातीय भेदभाव के रूप में विद्यमान है। प्रजातीय संघर्ष कहीं सरकारी नीतियों से पुष्ट है तो कहीं प्रच्छन्न रूप में, जिससे विभिन्न वर्गों के बीच विषमता पायी जाती है। राजनैतिक क्षेत्र में विश्व के किसी भी देख में प्रजातीय भेदभाव को मान्यता नहीं है परन्तु राष्ट्रों में वहां की नीतियों व दशाओं के कारण सभी लोगों का मत देने, सरकारी सेवा में प्रवेश पाने एवं सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है। आर्थिक क्षेत्र में प्रजातीय भेदभाव के परिणाम से कुछ विशेष प्रजाति के लोग कम वेतन पर मजदूर के रूप में सदैव उपलब्ध रहते हैं। प्रजातीय भेदभाव सार्वजनिक स्थल, स्वास्थ्य व चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाओं, सामाजिक सुरक्षा व पारस्परिक सम्बन्धों में भी देखा जा सकता है। सांस्कृतिक क्षेत्र में जातीय भेदभाव जीवन स्तर की विभिन्नता से जन्म लेता है। वर्तमान समय में हर प्रजाति अपने को श्रेष्ठ व सुरक्षित बनाए रखना चाहती है इसलिए इस आधार के संघर्ष होते रहते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले संघर्षों का एक प्रमुख कारण यह भी है।

ज़्यादा संघर्षशील है*

 

यह कैसा वक्त है !

कि‌ बेइमानी फल रही है

कई‌ पांवों से चल रही है

ईमानदारी को उसने

लंगड़ा कर दिया है

उसके मुंह पर

जोरदार तमाचा जड़ दिया है

अब वह रिघुर- रिघुर

कर जी रही है

सही होते हुए भी

गरल पी रही है

यह कैसा वक्त है कि

छली आज सरेआम घूम रहे हैैं

लोकतंत्र की वीथिकाओं

में  लोग आज

उनको ही चूम रहे हैं

यह कैसा वक्त है कि

लोकतंत्र की वारांगनाएं

अपने ग्राहकों को लुभा रही हैं

बेझिझक अपना रेट बता रही हैं

यह कैसा वक्त है !

मानवता  बदनाम हो रही है

उसकी इज्जत नीलाम हो रही है

यह कैसा वक्त है!

यह देश गतिशील है

या प्रगतिशील है

लेकिन इतना जरूर है कि

ईमानदार आदमी

आज ‌सबसे ज़्यादा संघर्षशील है

यह कैसा वक्त है!

देश की आधी आबादी

क्रिया में है

आधी प्रतिक्रिया में है

बेइमानी फल रही है

कई पांवों से चल रही है

यह कैसा वक्त है कि

ईमानदार आदमी आज

सबसे ज़्यादा संघर्षशील है

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डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

प्रयागराज फूलपुर

प्रेम और स्नेह-आरती जायसवाल

आरती जायसवाल की कलम से हिंदी कविताप्रेम और स्नेह’ हमे सन्देश देती है कि हमे मानव जीवन प्रेम और स्नेह का साथ कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए प्रेम का मानव जीवन मे बड़ा महत्व है कविता पढ़कर आप इसको महसूस करेंगे आपको अच्छी लगे तो सोशल मीडिया में शेयर अवश्य करे

प्रेम और स्नेह‘*

प्रेम और स्नेह की वृष्टि

कभी देखी है तुमने ?

नहीं ये दर्शनीय वस्तुएँ नहीं हैं ,

ये शांत -शाश्वत व मधुर

अनुभूतियाँ हैं ,

इन्हें अनुभव ही किया जा सकता है।

ये आत्मा से उपजकर रोम -रोम से फूटती हैं

और वाणी से झरती हैं ।

दृष्टि से सभी को आप्लावित करती हैं

तथा सबको तुमसे जोड़ देती हैं।

क्या तुमने कभी

अनुभव किया है वह जोड़ ?

कि सभी तुमसे जुड़ गए हों

अदृश्य बंधन में बँधकर

सत्य कह रही हूँ ।

कि जब तुम ये अनुभूतियाँ प्राप्त कर लोगे

स्वयं को संसार में सर्वाधिक संपन्न समझोगे

जिसे किसी वस्तु का अभाव नहीं रहता है।

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आरती जायसवाल