सविता चड्ढा का अनुभव – कलम की शक्ति

सविता चड्ढा का अनुभव – कलम की शक्ति

कलम की शक्ति

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जब किसी नुकीले प्रश्न को मेरी कलम ने उछाल दिया आसमानी सितारों ने मुझे मुश्किलों से निकाल लिया।
– सविता चडढा

मुझे कलम से इतना प्यार हो गया कि मैं जहां भी जाती , सुंदर, आकर्षक, रंग-बिरंगे पैन देखती और उन्हें खरीद लेती थी। महंगे से महंगा और सस्ते से सस्ता पैन अपने पास रखना मेरी आदत में शुमार हो गया था । मुझे याद है एक बार राष्ट्रपति भवन में डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा जी के हाथ में मैंने एक खूबसूरत पेन देखा था जिससे उन्होंने मेरी पुस्तक पर हस्ताक्षर किए थे। मैं उनसे तो वह पेन नहीं मांग पाई लेकिन बाद में मैं नेपाल में एक यात्रा के दौरान मैंने वैसा ही एक पेन दुकान पर देखा ।उस समय उस पेन की कीमत 700 थी । मैंने वह पेन खरीद लिया मेरे साथ मेरे और मित्र भी थे और मेरा बेटा भी था । उन्होंने कहा इतना महंगा पहन खरीदने की क्या जरूरत है। मेरे बेटे सोनल शंटी ने मेरे जवाब देने से पहले ही उन्हें कह दिया था” अंकल शौक की कोई कीमत नहीं होती, मम्मी को सुंदर पैन खरीदने का शौक है ।”
इसी प्रकार जब एक बार श्रीमान साहब सिंह वर्मा , जो दिल्ली के मुख्यमंत्री थे उनके निवास पर एक भव्य साहित्यिक समारोह था और मैंने उन्हें अपनी एक पुस्तक भेंट की तो उन्होंने अपने जेब से मुझे एक खूबसूरत पैन निकालकर दे दिया था। वह पेन भी मेरे पास आज सुरक्षित है। इसी प्रकार पंजाब केसरी के महेंद्र खन्ना भी एक बार मेरे लिए बहुत खूबसूरत पैन लेकर आए थे। समय-समय पर गोष्ठियों में, मित्रों से मुझे बहुत सारे कलम(पैन) मिले हैं और मैंने उन्हें सहेज कर रख लिया है । हालांकि उनमें से कई मैंने उपयोग कर लिए और कई भेंट भी कर दिए हैं।
मित्रों अगर हम कलम की बात करते हैं, कलम की प्रशंसा करते हैं, कलम हमें रास्ता दिखाती है, कलम हमारे लिए भगवान के समान है तो हमें कलम से लिखे जाने वाले एक-एक शब्द को सोच विचार कर लिखना चाहिए। कलम की नोक को सदा सुनहरा और साफ रखना भी हमारा ही उत्तरदायित्व है न ?

मिलती रही मुश्किलें, आंधियां पग पग पर
कलम ने कभी भी होने नहीं बेहाल दिया।

सविता चडढा

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Short Story Ghar Aana | लघुकथा घर आना- पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

Short Story Ghar Aana | लघुकथा घर आना- पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’

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घर आना


आँखों के आंसू बहकर गालों पर सूख चुके थे, बस की खिड़की से हौले हौले आती हवा के झोकों ने झपकी लेने पर मजबूर कर दिया. अचानक से मोनी को अर्जुन दा की तबियत ख़राब होने की सूचना मिली! मोनी से रहा न गया! मन में अंजाना डर बिठाये पति रोहित और बेटे आदि को साथ ले पिता से मिलने अस्पताल जा पहुंची!

दूर से ही पिता को देख रही थी मोनी! पास जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी! उसे पता था कि अपने पसंद की शादी करने से पापा अब तक नाराज़ होंगे! फोन पर दो वर्ष पूर्व बात करते हुए उसके पापा ने यह कहते हुए फ़ोन काटा था की आज के बाद इस घर के दरवाजे तेरे लिए हमेशा के लिए बंद!
मोनी की माँ बचपन में ही गुजर गयी थी! उसका पालन पोषण सब उसके पापा ने किया था! तभी तीमारदार के रूप में वहां उपस्थित उनके भाई की नज़र मोनी पर पड़ी! उन्होंने धीरे से बेड पर मशीनों से घिरे मोनी के पापा से कहा-“दादा! ,मोनी आई है!”
अर्जुन दा ने चौंकते हुए पुछा, “मोनी.. मोनी आई है? कहाँ है मोनी?? मोनी?” मोनी के नाम भर से चेहरे की चमक एकदम से बढ़ गयी! अपना नाम पिता के मुख से सुनते ही मोनी पिता के पास दौड़ी गयी!

फिर क्या था, आंसुओं के सैलाब में पिता और पुत्री खूब नहाए! आंसू जब थमे तो अर्जुन दा ने मोनी से पूछा- “अकेले आई है मोनी?”
मोनी ने इशारे से पति और बेटे को पास बुलाया! नन्हे आदि को देख कर अर्जुन दा निहाल हुए जा रहे थे! दिन भर रहने के बाद अगले दिन फिर आने का वादा कर के मोनी वापिस जाने लगी!
तभी अर्जुन दा ने तीनो को वापिस बुलाया, जैसे कुछ ज़रूरी काम रह गया हो! रोहित और मोनी का हाथ अपने हाथ में ले कर जैसे अर्जुन दा ने इस रिश्ते को स्वीकृति प्रदान की! और फिर आश्वस्त होते हुए बोले-
“घर आना!..”
मोनी के मन में ढेर सारे भाव उद्वेलित हो रहे थे! अस्पताल के गेट तक पहुची ही थी कि उन्ही तीमारदार का फ़ोन था!
“बेटा, पापा नहीं रहे!”


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पुष्पा श्रीवास्तव शैली

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गुलशेर अहमद का कहानी संग्रह “रेलवे स्टेशन की कुर्सी”, एक अत्यंत हॄदय-स्पर्शी एवं मार्मिक कहानियों की किताब

गुलशेर अहमद का कहानी संग्रह “रेलवे स्टेशन की कुर्सी”, एक अत्यंत हॄदय-स्पर्शी एवं मार्मिक कहानियों की किताब 

लिखना मुझे अच्छा लगता है। कविताएँ, कहानियाँ, शायरी… लिखते-लिखते एक दिन मेरे ज़ेहन में आया कि कहानियों को किताब की शक्ल में लोगों तक पहुँचाना चाहिए। दोस्त ने कहा – “यार तू तो बढ़िया लिखता है। तेरी कहानियों की किताब तो आनी ही चाहिए।” बस फिर क्या था हम फूल के गुब्बारा हो गए और फुला-फुला कर “थैंक यू” बोलते रहे।

दोस्त होते ही ऐसे हैं। ख़ैर…मैंने मेरी कहानियों को लिखा और जब एक संग्रह की तरह हो गई तो मुझे भी लगा कि किताब की शक्ल में लोगों तक पहुँचनी चाहिए। और दोस्त की प्रशंसा से ओथ-पोथ मैं लग गया इसके फेरे में। जहाँ कहीं भी, कुछ भी जानकारी मिलती लपेटने लगे। समेटते रहें और समझते रहें।

कुछ पब्लिशर्स को भेजा। कई पब्लिशर्स ने माना किया। कुछ ने टाईम का अभाव बताया और कुछ ने साफ कह दिया कि नहीं छाप सकते तो कुछ ने मेल का रिप्लाई करना भी मुनासिब नहीं समझा। इसी में से “राजमंगल प्रकाशन” ने इसे छापने की हामी भर दी और एक साल दो महीने के इंतज़ार के बाद आज किताब किंडल वर्जन में अमेज़न पर उपलब्ध हो चुकी है।

 
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  • आप किताब का किंडल वर्जन यहाँ से प्राप्त करें। BUY ON AMAZON KINDLE

“रेलवे स्टेशन की कुर्सी” किताब के बारे में

किताब के बारे में बताना चाहूँगा कि ये समाज की बात करती है। समाज में फैले असमानताओं की बात करती है। पढ़े लिखे और अनपढ़ लोगों के बीच की समानताओं की बात करती है। बाप-बेटे के ज़िन्दगी की बात करती है। दोनों के रिश्तों की बात करती है। दोस्ती और प्रेम की बात करती है। और भी बहुत कुछ….
 
मैंने कहानियाँ लिखी और अब किताब की शक्ल भी ले चुकी है। अभी किताब अमेज़न पर किंडल वर्जन में उपलब्ध है। जल्दी ही पेपर बैक भी ऑनलाइन उपलब्ध हो जाएगी। आप किताब को पढ़ें और अपना फैसला करें कि मैंने इसके साथ कितनी सच्चाई और ईमानदारी के साथ कहानियों को उकेरने में कामयाब हो सका हूँ। क्या में कहानियों के किरदारों के साथ न्याय कर सका हूँ? यदि नहीं भी हुआ हूँ तो आप नकारिए और बताईए मुझे। मुझे बुरा नहीं लगेगा। मैंने अपनी इस छोटी सी जीवन का जो भी अनुभव रहा है उसके हिसाब से इसमें लिखने की कोशिश की है।

लेखक गुलशेर अहमद का  परिचय

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बिहार के सीवान जिले के जमाल हाता गाँव में पैदा हुए। पहले घर पर और गाँव के मदरसे में पढ़ाई शुरू हुई जिससे ऊर्दू सीखा और फिर प्राथमिक और उच्च विद्यालय की पढ़ाई हुई। बचपन से ही स्थानीय भाषा भोजपुरी सीखी। इंजीनियरिंग में ग्रेजुएशन के लिए भोपाल में चार साल रहें।

अहमद कहते हैं कि “जीवन एक दरिया की तरह है और हम सभी एक नाव पर हैं जहाँ कोई भी पतवार नहीं है लेकिन पतवार बनाने के लिए ज्ञान का भण्डार यहाँ अवश्य उपलब्ध है।
हम उससे अपनी नाव खेने का पतवार बना सकते हैं लेकिन खेवय्या प्रकृति ही होगी। हमारी इस जीवन के दरिया का किनारा मृत्यु है।”

आज कल दिल वालों की दिल्ली में निवास स्थल बनाएँ हुए हैं।
अब ये किताब आपकी है। आशा है ये आपको अपनी लगे, अच्छी लगे। इसकी कहानियाँ आपको अपनी लगे। इसके किरदार में आप खुद के देख पाएँ। गुलशेर अहमद  की    वेबसाइट विजिट करने के लिए क्लिक करे 
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कलम की शक्ति सबसे अधिक शक्तिशाली है- सविता चडढा

कलम की शक्ति सबसे अधिक शक्तिशाली है- सविता चडढा

सविता चडढा, वरिष्ठ साहित्यकार को आप जानते ही हैं, पढ़िए उनके जीवन का महत्वपूर्ण अनुभव जब उन्हें कैंसर ने जकड़ लिया, उन्हीं की कलम से।

बहुत ही अद्भुत जीवन है मेरा ।

बचपन में पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी बेटी के रूप में परिवार में रहना और मध्यवर्गीय परिवार की कठिनाइयों को देखते हुए बड़े होना । थोड़ा बड़े होने पर शिक्षा को अपना लक्ष्य बनाते हुए पढ़ाई करना और 20 वर्ष से पूर्व ही सरकारी नौकरी पा लेना । आज यह सब एक सपना सा लगता है। जीवन में बहुत ही उतार-चढ़ाव आए अगर उन सब का वर्णन करुंगी तो आप भी मेरे साथ , कई बार पहाड़ की चोटी पर चढ़ेंगे और फिर उतरेंगे ।मुझे लगता है इस प्रक्रिया में आपको बहुत थकान हो सकती है । मैं उस प्रक्रिया से आप को बचाने की कोशिश में हूं। मैं आपको केवल अपने जीवन से जुड़ा एक अनुभव बता रही हूं।
2007 में अपने बगल में एक गांठ का पता चलने के पश्चात जब उसका परीक्षण करवाया गया तो पता चला कि यह गांठ मेलिगनेंट अर्थात कैंसर युक्त है। यह सूचना बहुत डरा देने वाली थी । आप जानते हैं कि मैं डर के साथ दोस्ती करने वाली नहीं थी।‌ मैंने डर को अपने से थोड़ा दूर कर दिया और इस समस्या के समाधान में जुट गई थी। उसके लंबी प्रक्रिया का बखान भी मैं नहीं करना चाहती । आप सब जानते हैं कैंसर के बाद मनुष्य किन कठिनाइयों से खेलता है।

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अक्टूबर 2007 में राजीव गांधी अस्पताल में मेरी उस गांठ की सर्जरी हुई

कठिनाइयों से खेलने की बात पर आप हैरान भी हो सकते हैं पर कठिनाइयों से जूझना अलग बात है और कठिनाइयों से खेलना अलग बात है । जब हम किसी चीज से खेलते हैं तो उसे खेल खेल में जीत भी सकते हैं। अक्टूबर 2007 में राजीव गांधी अस्पताल में मेरी उस गांठ की सर्जरी हुई । उस समय मैं पंजाब नेशनल बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक राजभाषा के रूप में कार्यरत थी । कई बार ध्यान में आता है अगर मैं बैंक में कार्य न करती होती तो मैं अपनी किताबों की संख्या में कुछ वृद्धि भी कर सकती थी। दूसरी ओर में सोचती हूं अगर मैं बैंक में नौकरी ना कर रही होती तो शायद इस बीमारी का इलाज कराने में मैं सफल भी नहीं हो पाती। कुछ बीमारियों को महारोग कहा गया है अर्थात इस पर खर्चा भी बहुत अधिक होता है और यह बीमारी व्यवस्थित भी बहुत मुश्किल से होती है । खैर, अपने संस्थान पंजाब नेशनल बैंक की मैं बहुत ही शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे मानो नया जीवन दिया।

मित्रों जीवन है तो कठिनाइयां भी है । मैं कई बार एक उदाहरण दिया करती हूं, यदि हमें वैष्णो देवी की यात्रा करनी है तो हमारे पास दो विकल्प हैं या तो हम पैदल जाएं या हम खच्चर की सवारी करें।(यह दूसरी बात है आज तीसरा विकल्प भी विद्यमान है पर वह सभी के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता)।
मित्रों दोनों ही विकल्पों में कष्ट है हम कौन सा कष्ट झेल सकते हैं, कितनी देर तक जेल सकते हैं ,ये हम पर निर्भर करता है और हम अपने लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। पैदल जाएंगे तो भी रास्ते की कठिनाइयां है और यदि खच्चर पर यात्रा करते हैं तो भी अलग तरह की कठिनाइयां सामने आती हैं । जो लोग ये यात्रा कर चुके हैं उन्हें भी ये जानकारी होगी।
मैंने अपने संपूर्ण इलाज के दौरान , अपना समर्पण भगवान को और डाक्टरों को कर दिया था। आज मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूं तो मुझे आपको यह बताते हुए बहुत अच्छा लग रहा है कि 5 वर्ष चले अपने इस इलाज के दौरान, मुझे बिल्कुल भी किसी भी दुख या कठिनाई का एहसास नहीं हुआ । ईश्वर हमेशा ही मानो मेरे साथ साथ रहा और उसने मेरे सारे दुख बिल्कुल समाप्त कर दिए । डॉक्टरों के कहे अनुसार बस दवाई खानी पड़ी और 5 वर्ष दवाई खाने के बाद में 2012 में मेरी दवाई भी बंद हो गई। आज मैं आप सब के आशीर्वाद से बिल्कुल ठीक हूं, स्वस्थ हूं और आप जानते ही हैं ऐसा क्यों हो पाया । भगवान, डॉक्टरों के साथ साथ कलम की शक्ति मेरे पास थी, कलम की शक्ति सब शक्तियों से ऊपर है । इसने मुझे बहुत हौंसला दिया और मेरे भीतर का सारा अवसाद मानो मेरी कलम के रास्ते पिघलता रहा बाहर आता रहा।”

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लघुकथा

“कर भला तो हो भला”

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सविता चड्ढा

कनिका को जब से यह सूचना मिली है कि उसके पिता को अपने कारोबार मेंं काफी बड़ा घाटा हो गया है और वे बहुत परेशान हैं। उसे ये भी बताया गया है कि उसके पिता द्वारा प्रेषित सामान को गुणवत्ता के आधार पर खरा नहीं पाया गया । इसलिऐ उस माल का भुगतान नहीं किया गया और कंपनी ने वह सारा माल भी वापस लौटा दिया है ।
बात इससे भी अधिक यह हो गई कि उसके पिता को अब आगे से वह कंपनी कभी माल बनाने का ऑर्डर भी नहीं देगी। कनिका मन पर बोझ लिए, विचार करने लगी। उसकी अंतरात्मा ने उसे झकझोरा, वह सोचने लगी “मेरे दादी कहां करती थी, जब बेटियां अपने ससुराल का जानबूझकर कोई नुकसान करती हैं तो उसका खामियाजा उसके मायके वालों को भुगतना पड़ सकता है।”

कनिका के मन से पता नहीं कैसी हूक उठी, कई दिन से वह वैसे भी आत्मग्लानि से जूझ रही थी। वह उठी और अपनी सास से जोर जबरदस्ती से हस्ताक्षर कराए मकान के कागज, उनसे हथियाए हुए सोने के जेवरात उन्हें वापस कर दिए , ये कहते हुए

” जब आप अपनी इच्छा से मुझे देना चाहेंगी मैं ले लूंगी, अभी आप रख लीजिए।”

कनिका को पूरा विश्वास है अब उसके मायके में सब ठीक हो जाएगा।


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Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी

Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी

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पवन शर्मा परमार्थी

वो बूढ़ा आदमी


बात बहुत पुरानी है, राजधानी दिल्ली के ही एक क्षेत्र है, जिसका नाम लिखना में आवश्यक नहीं समझता। फिर भी इतना तो बताना ही होगा कि उस क्षेत्र में अक्सर आना-जाना लगा रहता था। उस क्षेत्र की एक पटरी पर मैंने एक बूढ़े आदमी को देखा। चेहरे पर मूँछे, सिर पर गमछा बाँधे, फ़टी हुई पूरी बाजू की कमीज व मैली-सी धोती बाँधे था। शरीर का तो क्या कहिये, मुँह में दाँत नहीं और पेट में आँत नहीं।

जून का महीना था, गर्मी अपने चरम पर थी। पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था। ऐसे में उस बूढ़े आदमी ने कनस्तर की टीन की दो परत कर उस पर मोटी-मोटी सेंकी थी दो रोटियां। सब्जी के नाम पर मुझे उसके पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। हाँ, दिखाई दे रहीं थी तो एक अखबार पर रखीं दो रोटियां। मैं उस बूढ़े आदमी को दूर खड़ा देख रहा था कि वह बेचारा उन दो रोटियों को किसके साथ निगलता है।

देखते ही देखते मैंने देखा कि उस बूढ़े आदमी ने एक कागज़ की पुड़ियों से थोड़ी से कुटी हुई लाल मिर्च, थोड़ा नमक निकालकर उन्हें एक छोटी-सी कटोरी में डालकर उसमें जरा-सा पानी मिलाकर चटनी बनाई। उसमें कुछ और मिलाने के लिए शायद उसके पास….।

यह देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई, मन कुंद हुआ, मेरी आँखों से यह देखकर पानी….। मेरा मन विचलित हो गया । यह देखकर मुझसे रहा नहीं गया, और मैं तुरन्त उस बूढ़े आदमी के पास पहुँच गया। हाथ जोड़कर बुढ़े को नमन किया। बूढ़ा मेरी ओर देखने लगा, वह मुझे जानने, समझने की कोशिश करने लगा। उससे पहले बूढ़ा कुछ कह पाता या कोई प्रश्न करता, मैं ही बोल पड़ा–“बाबा जी मैं एक मुआफ़िर हूँ, यहाँ से निकल रहा था कि आप पर नज़र पड़ गई, आपको देखा तो बस….।”

“हाँ बोलो बिटवा, का बात बा।”

“नहीं, बाबा काम तो कोई नहीं लेकिन कुछ प्रश्न हैं मेरे मन जो आपसे पूछना चाहता हूँ।”

हाँ….,हाँ, जरूर पूछो बिटवा। पर इक बात हमरी समझ मा कतई ना आई बा कि तुम प्रश्न काहे….।”

“बाबा जी आप इस उम्र में इतनी कड़ी मेहनत करते है, फिर भी आप भरपेट खाना नहीं खा पाते हैं। बिना किसी साग सब्जी के आप….।”

“बस इत्ती-सी (इतनी-सी) बात अरे, बबुआ। इमा हैरानी की कोउ बात नाहिं बा, ई तो हमरा रोज का काम बा। जब हम सब्जी लाइक कमात बा, तो सब्जी संग खात बा, और जब हमहु नहीं कमा पात हैं तो….।”

“क्या आपको इस तरह खाने में कोई परेशानी नहीं होती।”

“अरे नाहीं बबुआ, हमहु को कोउ परेशानी नाहीं होत बा, फिर होत भी तो का करीं। जब हमरी किस्मत ई मा लिखा तो फिर कोनों से का शिकायत करीं। हमहुँ तो या ही मा खुश रहत बा।”

“बाबा जी मैं समझ गया। आप अपनी हैसियत के हिसाब से चलते हैं। फिर भी मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपको लाल मिर्च के साथ रोटी खाते हुए नहीं देख पा रहा हूँ। इसलिए मेरी इच्छा है कि मैं आपके लिए अभी होटल से सब्जी लेकर आता हूँ, आप तब रोटी….।” इतना कहकर मैं वहाँ से सब्जी लेने जाने लिए जैसे ही मुड़ा, बाबा जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले–“नाहिं….नाहिं बबुआ, ई तो तो हमरा रोजाना….। चलो आज तुम्हरी सब्जी खाइन तो कल, परसों कोनो को….? फिर ई तो हमरे स्वाभिमान की बात बा, हम स्वाभिमानी बा बबुआ। हमहु काऊ की दया का पात्र बनना नाहिं चाहि।”

बाबा जी की बात सुनकर मैं हैरत में पड़ गया और धर्म संकट में भी और यह सोचने और विवश हो गया कि आज भी ऐसे स्वाभिमानी लोग जिन्दा हैं जो अपनी आन-बान-शान के लिए अपने स्वाभिमान को बरकरार रखे हुए हैं।

सोचता हूँ कि इस स्वार्थी समाज में क्या अभी बाबा जी जैसे निस्वार्थ, स्वाभिमानी लोग जिन्दा है? इसके अतिरिक्त अनेक प्रश्न अपने मस्तिष्क में लिए में अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ा और….।

कहानी की  सीख 

 Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी द्वारा रचित कहानी  हमें सीख देती है बाबा जी जैसे निस्वार्थ, स्वाभिमानी लोग जिन्दा है जो अपने स्वाभिमान को बरकरार रखे हुए।  प्रस्तुत कहानी की शिक्षा भी है मनुष्य को ईमानदारी, स्वाभिमान , प्रेम , दया  जैसे गुणों को नहीं छोड़ना चाहिए इन्ही गुणों के आधार पर मनुष्य महान बनता है।

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हिमाचल प्रदेश की बुलबुल हज़ार दास्तान- राजेंद्र नाथ रहबर

हिमाचल प्रदेश की बुलबुल हज़ार दास्तान- राजेंद्र नाथ रहबर

 

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आशा शैली

आशा शैली उर्दू शायरी को हिमाचल प्रदेश का एक गरांकद्र अतिया हैं

मोहतरमा आशा शैली साहिबा हिमाचल प्रदेश की कोहस्तानी बुलंदियों से अपनी ताज़ाकारी, खुश शगुफतगी, लहजे की तवानाई और शगुफ्ता बयानी के ज़रिये उम्दा उर्दू शायरी के नमूने पेश करके एक मुद्दत से दिलो-दिमाग फरहती और तस्कीन का सामान मुहैया फरमा रही हैं। इन का कलाम पढ़ कर नये रास्ते खुलते हुए महसूस होते हैं और कारी ये महसूस करता है कि वह खुली फिज़ाओं और ताजा हवाओं में साँस ले रहा है और ऐसा होना एक कुदरती अमर है। शायरी का तअलुक माहौल से है। आशा शैली हिमाचल परदेश के एक दूर अफतादह, पसमान्दा मगर खूबसूरत और कुदरती मनाज़र से मालामाल इलाके की रहने वाली हैं। बर्फ़ से ढकी हुई पहाड़ियों की फलक बर-दोष चोटियाँ, सुबक सिर नदियाँ, बरसात में भीगने हुए देवदारों के घने स्याह जंगल, दूर-दूर तक फैले हुए सिलसिला हाय कोह, पत्थरों से सर फोड़ते पुरशोर पहाड़ी नदी-नाले, नागिन की तरह बलखाती लहराती हुई शबनम आलूद पगडंडियाँ और इनसे लिपटते हुए सर सब्जी पेड़ों के साये, साँस लेती हुई जिन्दा-जावेद सबीही हाथों में हज़ार आइने लिए साफ़ शफ़ाफ़ मुतरनम झरने, रंग-बरंगे पंछियों के दिल आवेज़ कहकहे, अतरबेज़ हवायें, शामों के झुटपुटे और घरों को लौटते हुए पंछियों की लम्बी कतारें, फूलों से लदी हुई हसीन शादियाँ, मन को मोह लेने वाले कुदरती मनाज़र, सादा सरिश्त कोही मख़लूक और दूर किसी चरवाहे की बांसुरी से निकलती हुई दर्द भरी लय से गूँजती हुई घाटियाँ आशा शैली की शायरी के लिए मवाद फराहम करती हैं और इनके फिक्र की तितली के परों पर रंग बिछा देते हैं। जदीद मआशरे की तेजी से तब्दील होते हुए हालात मआशी व तहजीबी ग्लोबलाईजेशन चारहाना मादीयत और सैटलाइट मीडिया के बायस रोनुमा होने वाली तब्दीलियों ने अभी उनके दामने कोह में बसी हुई बस्ती पर यलगार नहीं दी है और उनकी शायरी पर बसों और कारखानों की चिमनियों के स्याह धुएँ की परतें नहीं जमी हैं। सच तो यह है कि आशा शैली उर्दू शायरी को हिमाचल प्रदेश का एक गरांकद्र अतिया हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वो सिर्फ हिमाचल प्रदेश ही की हैं। पंजाब की सोंधी मिट्टी के साथ भी इनका रिश्ता उस्तवार है। इन्होंने शायरी का आग़ाज़ किया है तो पंजाब के एक बुजुर्ग और क्लासिकी रंग के उस्ताद शायर जनाब रघुबीर सहाय साहिर सयालकोटी साहब मरहूम के आगे ज़ानुए तलम्मज़ता किया। जिनका यह शेर है

महफिल में जज़ीरे मिरे हुस्ने बयान के
हर शख्स पूछता है ये हज़रत कहाँ के हैं

क़िबला साहिर साहब जालन्धर के रहने वाले थे। जब तक बकैद-ए-हयात रहे, आशा शैली जी को बराबर अपने कीमती मश्विरे और इसलाह से फ़ैजयाब फरमाते रहे। जनाब जिगर जालंधरी और जनाब आर डी शर्मा तासीर साहब भी जनाब साहरि के दामने-फ़ैज असर से बाबस्ता थे। इस तरह वो मोहतरमा शैली के ख्वाजा ताश ठहरे। साहिर साहब की वफ़ात के बाद शैली पंजाब के रंगे-जदीद के नामवर शायर प्रोफेसर मेहर गेरा के दामने फ़ैज से वाबस्ता हो गयीं। मेहर गेरा साहब पंजाब की जदीद उर्दू शायरी के मैमारों में से एक हैं। इनका जिक्रे खैर आते ही उनका शेर याद आ जाना एक कुदरती अमर है,

तमाम उम्र रहा उसको अब्र का अहसास
न जाने कौन सी रुत में वो शख्स भीगा था।

आशा शैली का पंजाब की सरज़मीन के साथ तअलुक का जिक्र

आशा शैली का पंजाब की सरज़मीन के साथ तअलुक का जिक्र आ ही गया है तो ये भी अर्ज कर दूँ कि पंजाब के जिला मोगा के दो-तीन देहातों में इन की ज़मीनें थीं, जो अब ग़ालिबन इन्होंने फरोख्त कर दी हैं। पंजाब में मुनक्कद होने वाले मुशायरों में भी वो तशरीफ़ लाती रही हैं।
हाँ तो मैं ज़िक्र कर रहा था कि आशा शैली को एक तरफ़ जहाँ क्लासिकी रंग के एक उस्ताद कमाल से फ़ैजयाब होने का मौका मिला वहीं दूसरी तरफ उन्हें रंगे जदीद के एक ताबनाक चराग़ों से अपनी शायरी का चिराग़ रोशन करने का मौका मिला। इस तरह इन के कलाम में दोनों असातज़ा के रंग कलाम का हसीन अमतज़ाज मिलना एक कुदरती बात है। आशा शैली के कलाम की जदीदियत रवायत की तौसीअ ही से आलमे वजूद में आई है। मै इसे अनहराफ का नाम नहीं देता क्योंकि जदीद तरीन जदीदियत की जड़ें भी रवायत के मख़ज़ गोशों में मिल जायेंगी। वैसे भी मेरी दानिस्त में अनहराफ का तअलुक नाख़ल्फ़ी से और तौसीअ का तअलुक सआदतमंदी से है। शैली जी के कलाम में मौसम, पत्थर, शहर, धूप, जाड़ा, किरचें, रुत, जंगल, जज़ीरा वगैरह अल्फ़ाज़ का मिल जाना जदीदियत की तरफ़ उनके बढ़ते हुए कदमों की निशानदेही करता है।

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Old Age Home in Hindi | वृद्धाश्रम – डॉ0 सोनिका अम्बाला

Old Age Home in Hindi | वृद्धाश्रम – डॉ0 सोनिका अम्बाला

वृद्धाश्रम 


गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का अद्भुत संगम, तंबुओं का शहर, कुंभ मेला, शिक्षा का केंद्र, मुगल कालीन शासक अकबर का साम्राज्य, अक्षय वट, स्वाधीनता संग्राम का केंद्र अल्फ्रेड पार्क, राजनीतिक केंद्र, त्रेतायुग में भगवान श्री राम का विश्राम स्थल जैसे तमाम विशेषणों को समेटे है- आध्यात्मिक भूमि प्रयागराज। यहां की सभ्यता, संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था आज भी अद्भुत व निराली है। इसी शहर में नामी-गिरामी डॉक्टर वीर प्रताप रहते थे। नाम के अनुरूप ऑपरेशन, दवा-इलाज करने में निपुण थे। उनके परिवार में पत्नी, छोटा बेटा और वृद्ध पिता जी थे। डॉक्टर की ख्याति दिनों दिन बढ़ती जा रही थी। जिनकी चर्चा भारत के कोने-कोने में होने लगी थी। महाशय ने खूब धन कमाया और तत्पश्चात हाईटेक, फिल्मी सितारों का शहर एवं भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में अपना चिकित्सालय खोल लिया। वहां तो मानो धन-वर्षा ही होने लगी, क्योंकि ‘वीर प्रताप’ नाम ही काफी है। कुछ समय बाद वीर ने पत्नी, बेटा और पिता को भी मुंबई बुला लिया।
प्रयागराज-भारत की प्राचीन संस्कृति और मुंबई की पाश्चात्य संस्कृति में वृद्ध पिता जी समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे थे। पिता की यह विचारधारा वीर प्रताप को चुभने लगी थी। पिता जी वीर प्रताप को समझाते हुए कहते थे- अस्पताल के कर्मचारियों और नौकरों के साथ भी मानवता का व्यवहार करो। प्यार और सम्मान का भूखा हर व्यक्ति है। यह संस्कारी बातें अब तो डॉक्टर वीर प्रताप को इतना चुभी कि पिता को अपने साथ रखना ही नहीं चाहते थे। समय बीतता गया मानसिक तनाव कोरोना की तरह परिवार में फैल चुका था। कुछ दिन बाद डॉक्टर वीर अपने पिता को प्रयागराज घुमाने के बहाने ले गए। वहीं हमेशा के लिए दूरी बनाते हुए वृद्धाश्रम में पिता को छोड़कर वापस मुंबई लौट आए।
अब डॉक्टर का संपूर्ण ध्यान धन कमाने में लगा हुआ था। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था, पत्नी भी स्वयं को असहाय पाती थी। वीर प्रताप की पत्नी अपने ससुर जी को पिता की तरह मान-सम्मान देती थी। धनाड्य परिवार के बेटे का रुतबा तो सातवें आसमान पर था। बेटे की स्कूल में ग्रीष्मकालीन छुट्टियां हो चुकी थी।समय निकालकर डॉक्टर साहब सपरिवार महाकालेश्वर मंदिर उज्जैन दर्शन करने गए थे। उज्जैन में चर्चा फैली हुई थी कि यहाँ पर सिद्ध पुरुष ज्योतिषी बाबा आए हुए हैं। उनकी वाणी में मानो साक्षात सरस्वती विद्यमान हैं। बाबा जो भी कहते हैं, वह बात सत्य निकलती है। डॉक्टर वीर प्रताप अपनी उत्सुकता शांत करने के लिए ज्योतिषी बाबा के हाथ में  251 दक्षिणा स्वरूप अर्पित करते हुए पूछा- ‘गुरुदेव, मेरे पास धन, दौलत, गाड़ियां, बंगला, परिवार सब कुछ है। फिर भी इतना जानना चाहता हूं कि मेरी मृत्यु कब, कहां और किन परिस्थितियों में होगी?’ बाबा ने कड़ी नज़रें ऊपर उठाते हुए रुपये तुरन्त वापस करते हुए कहा कि मैं एक भी रुपया नहीं लेता हूँ, सिर्फ पेट भरने के लिए थोड़ा सा भोजन या अन्न ले लेता हूँ। इतना कहने के बाद मूलतः शांत स्वभाव के ज्योतिषी बाबा ने ध्यानपूर्वक वीर प्रताप की हस्त रेखाएं देखी और पढ़ी। रेखाएं देखने के बाद कुछ क्षण के लिए वीर प्रताप को निहारते रहे, फिर अपनी उंगलियों में कुछ जोड़-घटाना किया। तत्पश्चात लंबी सांस लेकर कहा- ‘वत्स वीर प्रताप, जिन परिस्थितियों में और जिस स्थान पर भविष्य में आप के पिता की मृत्यु होगी उसी परिस्थिति में आप की भी मृत्यु निश्चित है।’
यह सुनकर डॉक्टर वीर प्रताप एकदम से भयभीत होकर बाबा के चरणों में गिर पड़े। खुद को संभालते हुए पिताजी को वापस लाने सीधा प्रयागराज चले गए। वृद्धाश्रम में पहुंचकर पिता के श्री चरणों में अपना सिर रखते हुए अपनी अक्षम्य गलती के लिए माफी मांगी। स्वभाव वश कोमल हृदय वाले पिताजी ने अपने पुत्र को माफ कर दिया और सभी सदस्य एक साथ रहने लगे।

कहानी की सीख 

डॉ. सोनिका, अम्बाला की स्वरचित रचना ‘वृद्धाश्रम’ हमको सीख देती है कि हमें अपने माता–पिता का सम्मान अंतिम साँस तक करना चाहिए क्योंकि उनके पालन -पोषण के बिना हम कुछ नहीं होते हैं। प्रस्तुत कहानी में वीर प्रताप प्रसिद्धि पाते ही अपने पिता को भूल गए , उन्होंने पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया। लेकिन एक यात्रा के दौरान स्वामी जी की भविष्यवाणी सुनकर जमीर जाग उठा, उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और वह तुरंत अपने पिता के पास जाकर माफ़ी मांगते हुए उनको अपने साथ घर ले आता है । कहने को यह एक कहानी है लेकिन आज वर्तमान भौतिकवादी युग का कटु सत्य है।

 


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डॉ0 सोनिका अम्बाला (हरियाणा)

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तीन हज़ार से 20 लाख तक कमाने की कहानी -Rodez web technologies Success story in hindi

Rodez web technologies Success story in hindi : नमस्कार मित्रो आज हम इस कहानी में रायबरेली जिले के एक स्टार्ट अप की कहानी के बारे में बताएंगे। जिसने 2016 में अपने स्टार्ट अप की शुरुआत मात्र 3000 से की लेकिन आज अप्रैल 2020 से अब तक लॉकडाउन में 20 लाख तक टर्नओवर कर चुके है, आज रायबरेली नहीं लखनऊ, दिल्ली जैसे महानगरों से प्रोजेक्ट लेकर आ रहे है अपने स्टार्ट अप के लिए ,चलिए जानते है। Rodez web technologies  की   सफलता का कहानी  :-

Rodez web technologie के संस्थापक अमन सिंह की कहानी

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 Rodez web technologie के संस्थापक  का  नाम अमन सिंह है। अमन सिंह का जन्म 14 फरवरी 1998 दिल्ली में हुआ था। उन्होंने  एमिटी विश्वविद्यालय से स्नातक किया है और कंप्यूटर अनुप्रयोगों में मास्टर्स पूरा किया है अमन सिंह के पिता दीपेंद्र सिंह रायबरेली के प्रथम कंप्यूटर विज्ञान के शिक्षक है , जिनके द्वारा 1989   से रायबरेली में कंप्यूटर संस्थान अमन कंप्यूटर एजुकेशन  के माध्यम से हज़ारो युवाओ को कंप्यूटर का ज्ञान करवाया गया है। इस संस्थान के माध्यम से अमन सिंह भी अपना अनुभव शेयर करते है युवा जो इस संस्थान से वेब डेवलमेन्ट, वेब डिजाइनिंग ,ऐप डेवलपमेन्ट , डिजिटल मार्केटिंग का कोर्स करते है।  उन्हें रोजगार के काबिल कोर्स को करते हुए तैयार करते है  अपने मार्गदर्शन में।  

जाने Rodez web technologies की शुरुआत की कहानी 

अमन सिंह ने  भविष्य का लक्ष्य रखा है  ये स्टार्ट अप कॉर्पोरेट सेक्टर में अपनी उपस्थिति दर्ज करायें  और आम आदमी तक इसकी पहुंच हो उन्होंने अपनी बात को कुंवर नारायण की पंक्तियों से समाप्त किया कि “कोई भी लक्ष्य इंसान के साहस से बड़ा नहीं होता हारा वो जो कभी लड़ा नहीं “

अमन सिंह जब १२ साल के थे 2012 में  उनके पिता का किडनी प्रत्यारोपण हुआ था, इस घटना से काफी दुःखी थे , उन्होंने अपनी जिम्मेदारी लेना प्रांरभ कर दिया वे कंप्यूटर संस्थान को लीड करने लगे , एमिटी विश्वविद्यालय में स्नातक के द्वारन 2016 में 3000 रुपए की पहली वेबसाइट बनाई। स्टार्ट अप  की शुरूआत  हो चुकी थी , अब नाम  रखने की बारी  थी।  rodez की  हिंदी अर्थ   राजा होता है , जो एक फ्रांस शहर के नाम पर है। Rodez web technologies स्टार्ट अप का नाम  रखा है जो वेबसाइट डेवलपमेंट, ऐप्प डेवलपमेन्ट का कार्य करती है जो उचित मूल्य पर रायबरेली जैसे जिले में रहकर उच्च गुणवक्ता की वेबसाइट कुछ ही दिनों में तैयार कर देते है , इसलिए इनके ऑफिस लखनऊ , दिल्ली जैसे शहर में भी सेवा दे रहे है अपनी कोर वैल्यू के साथ कि हमे अपने कस्टमर को जो समस्या को देखते हुए उसके अनुसार वेबसाइट को डिज़ाइन करना है।  अपने प्रॉब्लम सॉल्विंग प्रोडक्ट के साथ इस स्टार्ट अप ने 150 से ज्यादा वेबसाइट डिज़ाइन कर दी है , सभी क्लाइंट इस कंपनी की सेवाओ से संतुष्ट है।  आज इस स्टार्ट अप की ब्रांड वैल्यू का असर है कि इस स्टार्ट अप का रायबरेली  जिले में  90 परसेंट का मार्केट है , लोकल बिज़नेस , लोकल न्यूज़ वेबसाइट , पर्सनल ब्लॉग  के लिए रोडीज़ वेब से सम्पर्क करते है।

जाने Rodez web technologies Success story in hindi से जुडी महत्वपूर्ण बातें 

  • अमन सिंह अपने पिता और एलान मस्क को जीवन का आदर्श मानते है उन्ही को अपने जीवन की सफलता का श्रेय देते है।
  • Rodez web technologies में वर्तमान में 18 लोगो की टीम है जो रायबरेली नहीं अमेरिका, कनाडा , जैसे शहरों में अपनी सेवा दे रही है।
  • २०२० -२०२१ का स्टार्टअप का टर्नओवर 20 लाख रहा है।
  • अमन सिंह मानते है युवा जॉब क्रिएटर बने उन्हें दुःख होता है युवा अपना महत्वपूर्ण समय सरकारी नौकरी की तैयारी में व्यतीत कर देते है , जबकि वह तैयारी के साथ ऐसे कोर्स करते हुए अपनी पैसिव इनकम कर सकते है साथ वह माता – पिता को आर्थिक रूप से कुछ मदद भी कर पाएंगे। इन कोर्स को करने के बाद युवा घर से 20 हज़ार से १ लाख तक का कार्य कर सकता है बस संकल्प शक्ति के साथ एक्शन लेना होगा तभी परिणाम मिलेंगे।
  • रोडीज़ वेब अब सरकारी प्रोजेक्ट के लिए भी इस साल तैयार है संस्थापक अमन सिंह का कहना है कि सरकारी विभाग उनके सम्पर्क में है , जल्द ही सरकारी प्रोजेक्ट पर अपनी सेवाओं को शुरू करने जा रहे है।
  • Rodez web technologies मोबाइल ऐप पर कार्य कर रही है वर्तमान में 25 प्रोजेक्ट उनके पास है।
  • रोडीज़ वेब का लक्ष्य है २०२१-२०२२ में   १००० युवाओ को वेबसाइट डिज़ाइन का कोर्स कराके मार्केट के हिसाब से तैयार करना है जो बहुत सरल है।
  • Rodez web technologies के संस्थापक का कहना है कि ऐसे स्टार्ट अप गांव का लड़का भी खड़ा कर सकता है बस उसको स्किल सेट की जरूरत है जो अमन कंप्यूटर अकादमी में हम तैयार करते है।

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पत्रकारिता दिवस पर विशेष – सविता चडढा और हिंदी पत्रकारिता

पत्रकारिता दिवस पर विशेष

सविता चडढा और हिंदी पत्रकारिता

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हिंदी पत्रकारिता दिवस पर मुझे याद आ गया है एक नाम श्रीमती सविता चड्ढा का। जब वह हिंदी पत्रकारिता का डिप्लोमा करने के लिए एक बहुत ही प्रतिष्ठित कॉलेज में गई थी और इंटरव्यू के दौरान उन्हें बताया गया कि यहां पर केवल अंग्रेजी में ही पत्रकारिता पढ़ाई जाती है लेकिन सविता जी तो हिंदी में लिखा करती थी । हालांकि इंटरव्यू के दौरान उनके विरोध पर बाद में उन्हें उस कॉलेज में भी दाखिला दे दिया गया था। हिंदी की दशा पर उस दौरान सविता जी को बहुत ही कष्ट हुआ था और बाद उनके प्रयास के बाद एक ऐसे कॉलेज में उन्होंने दाखिला ले लिया था
जहां से वे पत्रकारिता हिंदी में कर सकती थी ।
सविता जी ने एक बहुत ही खूबसूरत बात मुझे बताई, उन्होंने कहा

” मुझे आज लगता है कि जब हम आहत होते हैं तो हमारे भीतर एक प्रकाश पुंज भी स्थापित हो जाता है । वह हमें रास्ता भी दिखा सकता है और हमें जलाकर खाक भी कर सकता है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह आहत होने के पश्चात मस्तिष्क में व्याप्त इस प्रकाश पुंज का प्रयोग कैसे करता है।”

जिन दिनों वे डिप्लोमा कर रही थी बहुत खोजने के पश्चात भी उन्हें हिंदी में पत्रकारिता पर कोई मार्गदर्शक पुस्तक नहीं मिली थी जिससे नए पत्रकार मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें।

पत्रकारिता पर 10 पुस्तकें प्रकाशित होने की यात्रा 

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पत्रकारिता का डिप्लोमा पूरा करने के बाद सविता जी ने , परीक्षा के लिए उस समय जो भी नोटस तैयार किए थे उन सब को इकट्ठा किया और उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई ” नई पत्रकारिता और समाचार लेखन ।” यह पुस्तक तक्षशिला प्रकाशन ने 1989 में प्रकाशित की थी। पुस्तक प्रकाशित होते ही उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता पाठ्यक्रम में सहायक ग्रंथ के रूप में रख लिया गया और बाद में इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद भी श्री उमेश चंद्र बहुगुणा जी ने वर्ष 1998 में किया। ये अनुवाद भी तक्षशिला प्रकाशन ने ही करवाया था । बाद में यह पुस्तक विदेशों में भी पहुंच गई थी । 1992 में सविता जी की एक और पुस्तक प्रकाशित हुई थी तक्षशिला से जिसका शीर्षक था ” नामी उर्दू पत्रकार ।” बताते हुए बहुत अच्छा लग रहा है कि इसके बाद उनकी 1995 में पुस्तक आई “हिंदी पत्रकारिता सिद्धांत और स्वरूप “ यह पुस्तक भी समय-समय पर पुनरमुद्रित होती रही।
महावीर एंड संस से पत्रकारिता पर उनकी एक किताब “हिंदी पत्रकारिता अध्ययन और आयाम “ प्रकाशित की 2009 में। इस पुस्तक ने भी बहुत ही सम्मान और प्यार पाया। इसके बाद राज सूर्य प्रकाशन ने हिंदी पत्रकारिता पर उनकी चार पुस्तकें प्रकाशित की पहली पुस्तक, 2003 में “आजादी के 50 वर्ष और हिंदी पत्रकारिता प्रकाशित की , 2003 में ही “पत्रों की दुनिया “ , 2004 में ” इतिहास और पत्रकारिता”, 2012 में “दूरदर्शन का इतिहास और टेली फिल्में” प्रकाशित की। राज सूर्य से प्रकाशित उनकी 2 पुस्तकें भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता पाठ्यक्रम में संस्तुत हैं।
पत्रकारिता पर 10 पुस्तकें प्रकाशित होने के पश्चात सविता जी मानती है ” मुझे अब तक जो ज्ञान था, वह सब मैंने पत्रकारिता में पदार्पण करने वाले अपने उन मित्रों को दे दिया है जो पत्रकारिता में पदार्पण करना चाहते हैं। अगर मुझे कभी मौका लगा तो मैं हिंदी पत्रकारिता पर अपने जीवन के और अनुभव लिखकर एक और ग्रंथ देने का प्रयास करुंगी।”

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आपको  पत्रकारिता दिवस पर विशेष – सविता चडढा और हिंदी पत्रकारिता का विशेष साक्षात्कार  पंकज गुप्ता के द्वारा कैसा लगा, पसंद आये तो सामाजिक मंचो पर शेयर करे इससे रचनाकार का उत्साह बढ़ता है, हिंदीरचनाकर पर अपनी रचना भेजने के लिए व्हाट्सएप्प नंबर 91 94540 02444, 9621313609 संपर्क कर कर सकते है। ईमेल के द्वारा रचना भेजने के लिए  help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है|