Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी

Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी

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पवन शर्मा परमार्थी

वो बूढ़ा आदमी


बात बहुत पुरानी है, राजधानी दिल्ली के ही एक क्षेत्र है, जिसका नाम लिखना में आवश्यक नहीं समझता। फिर भी इतना तो बताना ही होगा कि उस क्षेत्र में अक्सर आना-जाना लगा रहता था। उस क्षेत्र की एक पटरी पर मैंने एक बूढ़े आदमी को देखा। चेहरे पर मूँछे, सिर पर गमछा बाँधे, फ़टी हुई पूरी बाजू की कमीज व मैली-सी धोती बाँधे था। शरीर का तो क्या कहिये, मुँह में दाँत नहीं और पेट में आँत नहीं।

जून का महीना था, गर्मी अपने चरम पर थी। पसीना रुकने का नाम नहीं ले रहा था। ऐसे में उस बूढ़े आदमी ने कनस्तर की टीन की दो परत कर उस पर मोटी-मोटी सेंकी थी दो रोटियां। सब्जी के नाम पर मुझे उसके पास कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। हाँ, दिखाई दे रहीं थी तो एक अखबार पर रखीं दो रोटियां। मैं उस बूढ़े आदमी को दूर खड़ा देख रहा था कि वह बेचारा उन दो रोटियों को किसके साथ निगलता है।

देखते ही देखते मैंने देखा कि उस बूढ़े आदमी ने एक कागज़ की पुड़ियों से थोड़ी से कुटी हुई लाल मिर्च, थोड़ा नमक निकालकर उन्हें एक छोटी-सी कटोरी में डालकर उसमें जरा-सा पानी मिलाकर चटनी बनाई। उसमें कुछ और मिलाने के लिए शायद उसके पास….।

यह देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई, मन कुंद हुआ, मेरी आँखों से यह देखकर पानी….। मेरा मन विचलित हो गया । यह देखकर मुझसे रहा नहीं गया, और मैं तुरन्त उस बूढ़े आदमी के पास पहुँच गया। हाथ जोड़कर बुढ़े को नमन किया। बूढ़ा मेरी ओर देखने लगा, वह मुझे जानने, समझने की कोशिश करने लगा। उससे पहले बूढ़ा कुछ कह पाता या कोई प्रश्न करता, मैं ही बोल पड़ा–“बाबा जी मैं एक मुआफ़िर हूँ, यहाँ से निकल रहा था कि आप पर नज़र पड़ गई, आपको देखा तो बस….।”

“हाँ बोलो बिटवा, का बात बा।”

“नहीं, बाबा काम तो कोई नहीं लेकिन कुछ प्रश्न हैं मेरे मन जो आपसे पूछना चाहता हूँ।”

हाँ….,हाँ, जरूर पूछो बिटवा। पर इक बात हमरी समझ मा कतई ना आई बा कि तुम प्रश्न काहे….।”

“बाबा जी आप इस उम्र में इतनी कड़ी मेहनत करते है, फिर भी आप भरपेट खाना नहीं खा पाते हैं। बिना किसी साग सब्जी के आप….।”

“बस इत्ती-सी (इतनी-सी) बात अरे, बबुआ। इमा हैरानी की कोउ बात नाहिं बा, ई तो हमरा रोज का काम बा। जब हम सब्जी लाइक कमात बा, तो सब्जी संग खात बा, और जब हमहु नहीं कमा पात हैं तो….।”

“क्या आपको इस तरह खाने में कोई परेशानी नहीं होती।”

“अरे नाहीं बबुआ, हमहु को कोउ परेशानी नाहीं होत बा, फिर होत भी तो का करीं। जब हमरी किस्मत ई मा लिखा तो फिर कोनों से का शिकायत करीं। हमहुँ तो या ही मा खुश रहत बा।”

“बाबा जी मैं समझ गया। आप अपनी हैसियत के हिसाब से चलते हैं। फिर भी मैं यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपको लाल मिर्च के साथ रोटी खाते हुए नहीं देख पा रहा हूँ। इसलिए मेरी इच्छा है कि मैं आपके लिए अभी होटल से सब्जी लेकर आता हूँ, आप तब रोटी….।” इतना कहकर मैं वहाँ से सब्जी लेने जाने लिए जैसे ही मुड़ा, बाबा जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले–“नाहिं….नाहिं बबुआ, ई तो तो हमरा रोजाना….। चलो आज तुम्हरी सब्जी खाइन तो कल, परसों कोनो को….? फिर ई तो हमरे स्वाभिमान की बात बा, हम स्वाभिमानी बा बबुआ। हमहु काऊ की दया का पात्र बनना नाहिं चाहि।”

बाबा जी की बात सुनकर मैं हैरत में पड़ गया और धर्म संकट में भी और यह सोचने और विवश हो गया कि आज भी ऐसे स्वाभिमानी लोग जिन्दा हैं जो अपनी आन-बान-शान के लिए अपने स्वाभिमान को बरकरार रखे हुए हैं।

सोचता हूँ कि इस स्वार्थी समाज में क्या अभी बाबा जी जैसे निस्वार्थ, स्वाभिमानी लोग जिन्दा है? इसके अतिरिक्त अनेक प्रश्न अपने मस्तिष्क में लिए में अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ा और….।

कहानी की  सीख 

 Vo Boodha aadamee – पवन शर्मा परमार्थी द्वारा रचित कहानी  हमें सीख देती है बाबा जी जैसे निस्वार्थ, स्वाभिमानी लोग जिन्दा है जो अपने स्वाभिमान को बरकरार रखे हुए।  प्रस्तुत कहानी की शिक्षा भी है मनुष्य को ईमानदारी, स्वाभिमान , प्रेम , दया  जैसे गुणों को नहीं छोड़ना चाहिए इन्ही गुणों के आधार पर मनुष्य महान बनता है।

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