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लघुकथा | एक नई रोशनी -सविता चडढा

लघुकथा | एक नई रोशनी -सविता चडढा

उस दिन बाप बेटे में तकरार शुरू हो गई। देर रात बेटे ने कुछ ज्यादा ही पी ली थी। बाप ने समझाने की कोशिश की लेकिन तकरार बढ़ते-बढते बहुत सारी हदें पार कर गई । तकरार के बाद धक्का-मुक्की शुरू हुई और बेटे ने बाप पर हाथ उठा दिया।  बाप  चोटिल हो गया। 

अगले दिन  बाप ने सोचा भगवान से ही जाकर पूछता हूं । सुबह उठने पर जब वह धीरे-धीरे मंदिर की सीढ़ियां चड़ रहा था तो उसे एक महिला ने पूछा “अंकल  आपको क्या हुआ ।” उसने नजरें उठाई और देखा , ये तो गुणवंती की बहू है । उसने घर ,अपने  सम्मान को बचाने की फिज़ूल कोशिश करते  हुए इतना ही कहा “भगवान का शुक्र मनाओ गुणवंती की बहू ,भगवान ने तुम्हें तीन बेटियां ही दी है।  बेटियां कभी बाप पर हाथ नहीं उठाती। गुणवंती की बहू ने एक नई रोशनी महसूस की और भगवान का आभार प्रकट किया।

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कलम की शक्ति सबसे अधिक शक्तिशाली है- सविता चडढा

कलम की शक्ति सबसे अधिक शक्तिशाली है- सविता चडढा

सविता चडढा, वरिष्ठ साहित्यकार को आप जानते ही हैं, पढ़िए उनके जीवन का महत्वपूर्ण अनुभव जब उन्हें कैंसर ने जकड़ लिया, उन्हीं की कलम से।

बहुत ही अद्भुत जीवन है मेरा ।

बचपन में पांच भाई बहनों में सबसे बड़ी बेटी के रूप में परिवार में रहना और मध्यवर्गीय परिवार की कठिनाइयों को देखते हुए बड़े होना । थोड़ा बड़े होने पर शिक्षा को अपना लक्ष्य बनाते हुए पढ़ाई करना और 20 वर्ष से पूर्व ही सरकारी नौकरी पा लेना । आज यह सब एक सपना सा लगता है। जीवन में बहुत ही उतार-चढ़ाव आए अगर उन सब का वर्णन करुंगी तो आप भी मेरे साथ , कई बार पहाड़ की चोटी पर चढ़ेंगे और फिर उतरेंगे ।मुझे लगता है इस प्रक्रिया में आपको बहुत थकान हो सकती है । मैं उस प्रक्रिया से आप को बचाने की कोशिश में हूं। मैं आपको केवल अपने जीवन से जुड़ा एक अनुभव बता रही हूं।
2007 में अपने बगल में एक गांठ का पता चलने के पश्चात जब उसका परीक्षण करवाया गया तो पता चला कि यह गांठ मेलिगनेंट अर्थात कैंसर युक्त है। यह सूचना बहुत डरा देने वाली थी । आप जानते हैं कि मैं डर के साथ दोस्ती करने वाली नहीं थी।‌ मैंने डर को अपने से थोड़ा दूर कर दिया और इस समस्या के समाधान में जुट गई थी। उसके लंबी प्रक्रिया का बखान भी मैं नहीं करना चाहती । आप सब जानते हैं कैंसर के बाद मनुष्य किन कठिनाइयों से खेलता है।

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अक्टूबर 2007 में राजीव गांधी अस्पताल में मेरी उस गांठ की सर्जरी हुई

कठिनाइयों से खेलने की बात पर आप हैरान भी हो सकते हैं पर कठिनाइयों से जूझना अलग बात है और कठिनाइयों से खेलना अलग बात है । जब हम किसी चीज से खेलते हैं तो उसे खेल खेल में जीत भी सकते हैं। अक्टूबर 2007 में राजीव गांधी अस्पताल में मेरी उस गांठ की सर्जरी हुई । उस समय मैं पंजाब नेशनल बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक राजभाषा के रूप में कार्यरत थी । कई बार ध्यान में आता है अगर मैं बैंक में कार्य न करती होती तो मैं अपनी किताबों की संख्या में कुछ वृद्धि भी कर सकती थी। दूसरी ओर में सोचती हूं अगर मैं बैंक में नौकरी ना कर रही होती तो शायद इस बीमारी का इलाज कराने में मैं सफल भी नहीं हो पाती। कुछ बीमारियों को महारोग कहा गया है अर्थात इस पर खर्चा भी बहुत अधिक होता है और यह बीमारी व्यवस्थित भी बहुत मुश्किल से होती है । खैर, अपने संस्थान पंजाब नेशनल बैंक की मैं बहुत ही शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे मानो नया जीवन दिया।

मित्रों जीवन है तो कठिनाइयां भी है । मैं कई बार एक उदाहरण दिया करती हूं, यदि हमें वैष्णो देवी की यात्रा करनी है तो हमारे पास दो विकल्प हैं या तो हम पैदल जाएं या हम खच्चर की सवारी करें।(यह दूसरी बात है आज तीसरा विकल्प भी विद्यमान है पर वह सभी के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता)।
मित्रों दोनों ही विकल्पों में कष्ट है हम कौन सा कष्ट झेल सकते हैं, कितनी देर तक जेल सकते हैं ,ये हम पर निर्भर करता है और हम अपने लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं। पैदल जाएंगे तो भी रास्ते की कठिनाइयां है और यदि खच्चर पर यात्रा करते हैं तो भी अलग तरह की कठिनाइयां सामने आती हैं । जो लोग ये यात्रा कर चुके हैं उन्हें भी ये जानकारी होगी।
मैंने अपने संपूर्ण इलाज के दौरान , अपना समर्पण भगवान को और डाक्टरों को कर दिया था। आज मैं बहुत याद करने की कोशिश करती हूं तो मुझे आपको यह बताते हुए बहुत अच्छा लग रहा है कि 5 वर्ष चले अपने इस इलाज के दौरान, मुझे बिल्कुल भी किसी भी दुख या कठिनाई का एहसास नहीं हुआ । ईश्वर हमेशा ही मानो मेरे साथ साथ रहा और उसने मेरे सारे दुख बिल्कुल समाप्त कर दिए । डॉक्टरों के कहे अनुसार बस दवाई खानी पड़ी और 5 वर्ष दवाई खाने के बाद में 2012 में मेरी दवाई भी बंद हो गई। आज मैं आप सब के आशीर्वाद से बिल्कुल ठीक हूं, स्वस्थ हूं और आप जानते ही हैं ऐसा क्यों हो पाया । भगवान, डॉक्टरों के साथ साथ कलम की शक्ति मेरे पास थी, कलम की शक्ति सब शक्तियों से ऊपर है । इसने मुझे बहुत हौंसला दिया और मेरे भीतर का सारा अवसाद मानो मेरी कलम के रास्ते पिघलता रहा बाहर आता रहा।”

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Potee kee diray/सविता चडढा

पोती की डायरी

(Potee kee diray)


मेरी दादी को थोड़े-थोड़े दिन बाद अपने घर में लोगों, जिन्हें आप कवि, लेखक, साहित्यकार कहते है, को बुलाकर कविताएं पढ़वाना,उनकी काव्य गोष्ठियां, खातिर और सम्मान करना और कहानी पाठ करवाने की बुरी लत है । घर में ऐसा करने से उन्हें कोई मना नहीं करता। दादू बताते है, पिछले 30 से अधिक वर्षो से वे ऐसे आयोजन करती आ रही है । मैं भी 20 वर्ष की हो गयी हूँ और पिछले वर्ष से तो मैं इन सबकी साक्षी हूँ। एक जरुरी बात आपको कहनी होगी, मेरी दादी खुद बहुत अच्छी लेखिका है और बहुत सारे लोग उन्हें जानते हैं। इसलिए वे जब भी किसी को आमंत्रित करती हैं तो लेखक लोग उनके बुलावे का मान रखते ही हैं।

पिछले हफ्ते दादी ने बहुत ही उत्साह से मुझे बताया ” इस बार विदेश से दो लेखक आ रहे हैं, हो सकता हैं मेरे घर भी आ जाये। फेसबुक के जरिये उनसे काफी बातचीत हुई हैं । अपने देश के लोग हैं ।”

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दादी बहुत उत्साहित लग रही थी। मैं उन्हें कुछ कहना चाहती थी पर मन में सोचती रह गई और कह नहीं पाई । दादी की कई किताबें भी चाप चुकी है और हमारे घर आने वाली गोष्ठियों में देश के जाने माने साहित्यकार, लेखक, कवि, साहित्य को प्रेम, करने वाले राजनेता भी कई बार पधार चुके हैं पर दादी कभी इतनी उत्साहित नहीं हुई, इस बार क्यों ? खैर मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। वह प् हर दिन तैयारियों में लग गयी। छत से लेकर, हर दिवार पर अपने हाथ से कभी झाड़ू से, कभी कपड़े से दीवारों को साफ करने लगी । अपनी किताबों के रेक, उन्हें मिली बहुत सारी शील्डें , सारी किताबें साफ करने लगी। उन्हें हमेशा लगता है कि लोग उन्हें तंदरुस्त और स्वस्थ समझे, उनकी दुर्बलता कहीं प्रकट न हो जाये, मुझे लगता है ये भय ही उनके उत्साह का कारण बना रहता है ।

भारत में आने के बाद से, जगह जगह उस विदेशी लेखक मोहित का सम्मान हो रहा था। दादी सिर्फ एक बार उस लेखक से पिछले साल के पुस्तक मेले में मिली थी । दादी उसे मिलकर निमंत्रण देना चाहती थी। अपने घर से लगभग एक घंटे की दूरी पर होने वाले आयोजन में दादू-दादी दोनों मोहित को आमंत्रित करने गए, मैं भी उनके साथ थी । वह लेखक सब मित्रो को मिल रहा था। दादी ने कल के लिए निमंत्रण दिया और 3 बजे हमारे घर उसका कहानी पाठ का समय तय हो गया ।

दादू, मैं और दादी हम कार्यक्रम समाप्ति से पहले घर के लिए निकल पड़े थे। रास्ते में दादी कुछ नहीं बोल रही थी, दादी सोचती रही कैसे होगा, क्या-क्या करना है।

अगले दिन सुबह दादी जब मंदिर गयी तो लौटने पर उनके हांथो में फूल मालाओं का बैग था। बैग देखते ही मैंने पूछा था “आप तो कभी फूलों की माला नहीं लाती, इस बार क्यों ?”

वह हंस पड़ी, कुछ कहाँ नहीं। रसोई में खुद ही अपने लिए चाय बनाई, दो बिस्कुट के साथ चाय पीकर वह बोली जरा मेरे साथ बाजार तक चलो, सुबह के 10 बजे थे, मैंने कहा “दुकानें तो खुलने दो.” वह मुस्कराई, वह गुस्से में बहुत कम आती हैं, उन्हें क्रोधी लोग बिलकुल पसंद नहीं। मैं चुपचाप उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गई । दुकान पर अभी साफ सफाई हो रही थी ,उन्होंने चन्दन की दो बड़ी मालाएं खरीदी, दो खूबसूरत शाल लिए, मोतियों की मालाएं ली। थोड़ा आगे आने पर वे एक दुकान के सामने रुक गई। ये एक बेकरी की दुकान थी, ऊँची शानदार दुकान । दादी हर चीज का मुआयना करने लगी । आखिरी उन्होंने मसालेदार काजू का आर्डर दिया। ड्राई फ्रूट वाला नमकीन मिक्सचर लिया। सबसे सुंदर दिखने वाले स्वादिष्ट फ्रंटियर के बिस्कुट ख़रीदे। मैं चुपचाप उन्हें देख रही थी। वैसे तो हर बैठक की तयारी वे खुद करती हैं पर इस बार काजू, मिक्सचर भी। मैं चुप रही । वे रिटायर हैं और उन्हें पेंशन मिलती है, अपनी अधिकांश पेंशन वे यूं ही खर्च करती हैं। इतने पर भी वे रुकी नहीं। मिठाइयों में उन्होंने छोटे गुलाब जामुन ख़रीदे। ढोकला, समोसे, कचौड़ी, मट्ठी का आर्डर वे पहले ही दे चुकी थी।

घर पहुंचकर वह खाने की तैयारी में लग गयी। मेरी माँ भी उनका पूरा साथ दे रही थी पर आज उनकी तबियत ख़राब थी । पिछले दो दिन से मां का पेट ख़राब चल रहा है । डॉक्टर कह रहा था ड्रिप लगवा लो पर दादी ने घर में ही सब व्यवस्था कर दी थी, इलेक्ट्रॉल के कई पैकेट मंगवा दिए और माँ को कहा “कुछ नहीं होगा, मुझे तो अक्सर ऐसा होता रहता है। आज की बात है थोड़ा सहयोग दो।”

माँ पूरा साथ दे रही थी परन्तु दादी को पता था माँ ज्यादा देर रसोई में खड़ी नहीं हो पायेगी। दादी ने सारा खाना रेस्तरां से मंगवाया, मिक्स वेजिटेबल, दाल मक्खनी, फ्रूट रायता, मिस्सी और सादी रोटी। मम्मी ने मटर-पनीर और वेज-पुलाव घर ही बना लिया। एक बजे सब आ गए और खाना शुरू हो गया। किसी को पता नहीं चलने दिया कि खाना बाहर से मंगवाया है। दादी सब का ध्यान रख लेती है, वह बीच-बीच में कहती रही “मेरी बहु बहुत अच्छा खाना बनाती है। उसे पिज्जा भी बहुत अच्छा बनाना आता है । ” पता नहीं कोई उनकी बात सुन रहा था कि नहीं पर उन्होंने कई बार ये बात बोली। सबने खाने की जमकर तारीफ की और आये लेखक महोदय ने कहाँ ” कहानी पाठ से पहले ही चाय हो जानी चाहिए। थोड़ा गला अच्छा महसूस करेगा।” उनके साथ ही लंदन से पधारी एक बहुत ही शालीन, सौम्य, राजनीतिज्ञ और लेखिका जीनत साहिबा भी थी , उनके दिल्ली में रह रहे भाई-भाभी भी उनके साथ आए थे। जीनत जी ने कहा “मैं काफी लूंगी।” दादी ने फ़ौरन कहा , बहु कॉफ़ी बहुत अच्छी बनाती है। चाय -कॉफ़ी का दौर चल ही रहा था कि और लेखक कवि आने शुरू हो गए । मौसम थोड़ा ठंडा ही था, जनवरी का महीना, कोल्ड ड्रिंक छोटे-छोटे गिलास में डाले गए। पता नहीं कोई पियेगा के नहीं। दादी कहती “सब लोग चाय नहीं पीते, इसलिए कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिंक सब रखने है।” बिसलेरी की छोटी पानी की बोतले भी मंगवाकर रख ली थी। साढ़े तीन बज गए तो सबने कहानी पाठ शुरू करने के लिए कहा। दादी ने माइक संभाल लिया और आये सभी अथितियों का स्वागत किया । आये सब लेखकों का परिचय कराया गया मोहित और जीनत का फूलमाला, चन्दन की माला, मोतियों की माला, शाल, अभिनन्दन पत्र भेंट कर स्वागत किया गया। देश की प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक आशुतोष भी मुख्य अथिति के रूप में आये हुए थे. उनका भी फूल माला, शाल मोतियों की माला भेंट कर स्वागत किया। दादी घर आये मेहमानों को बहुत ही आदर-सत्कार देना चाहती थी. उन्होंने अपने पोते राज को अपनी नई पेंटिंग पर उपस्थित मेहमानों के हस्ताक्षर करवाने के लिए आमंत्रित किया। मोहित और जीनत साहिबा और आशुतोष जी ने चित्र पर हस्ताक्षर किये। समय की गति को देख अब मोहित को कहानी पाठ के लिए निवेदन किया गया ।

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कहानी शुरू हुई । बहुत ही सवेंदनशीलता और आकर्षक आवाज़ के साथ कहानी शुरू हुई। विषय कुछ खास नहीं था अस्पताल के एक कमरे में बीमार पति के साथ बिताये एक पत्नी के 15 दिन और बीमार पति की माँ की उपस्थिति का भरपूर चित्रण था कहानी में। कहानी पढ़ते हुए लेखक कभी सिसक रहा था, कभी हिचकियाँ ले रहा था, लग रहा था मानों रो रहा है, उसकी आंखे भी रुआंसी हो रही थी, कहानी पढ़ते हुये 10 मिनट हो गए थे कि दादी को मेरी माँ दिखी जो दो दिन से कॉफ़ी अस्वस्थ थी, वह खुद को रोक नहीं पायी और माँ के पास आकर उसे कुछ कहा और कहानी पाठ में उपस्थित एक लेखिका सरस्वती को नमस्तें कर ली। कहानी पाठ करने वाले लेखक मोहित ने अपना चश्मा गुस्से से उतार कर टेबल पर दे मारा और चीखते हुए बोला ” WHAT THE HELL ” हो गई कहानी” वह आगे कहानी नहीं पढ़ना चाहता था। दादी और हम सब हक्के-बक्के रह गए। दादी ने माफ़ी मांगी और कहा” जरुरी काम से मुझे उठना पड़ा, आप कहानी पढ़िए। खैर मोहित ने बहुत मुश्किल से खुद को शांत करने की कोशिश की, खुद ही अपने सर पर चार-पांच थपड लगाए और जब चश्मा पहनने लगे तो वह टूट चुका था, उसकी एक डंडी नदारद थी। लेखक उठा और अपने झोले से नया चश्मा निकाल कर कहानी पढ़ने लगा।

जहाँ तक मुझे लगता है इस ख़राब नाटक के बाद किसी की रूचि कहानी सुनने में नहीं होगी परन्तु हम भारतीय मुखौटा लगाने में माहिर है, कहानी पाठ चलता रहा। कहानी के दौरान कई बार लेखक चीखा, रोया, जोर-जोर से बोलता रहा ताकि कहानी प्रभावशाली बने । कहानी तो प्रभावशाली थी ही लेकिन लेखक के कहानी वाचन की शैली ने उसे हास्यापद बना दिया था। यहाँ तो सब लिखने वाले ही कहानी सुन रहे थे।

कहानी ख़त्म हुई तो सबने कुछ न कुछ कहा । सबसे पहले दादी ने कहा “मै आपको बड़ी बहन होने के नाते एक सलाह देना चाहती हूँ , आप अपनी सेहत का ध्यान रखें। कहानी पढ़ते हुए इतने उतार-चढ़ाव आपको नुकसान पहुंचा सकते है। पाठक और प्रशंसा से बड़ी अपनी सेहत है उसे ध्यान में रखिये। “

मैँ देख रही थी दादी सीधे-सीधे बहुत कुछ कह सकती थी परन्तु सयंम से उन्होंने अपनी बात की और कहानी की प्रशंसा भी की। उपस्थित लेखकों ने भी दादी की बात से सहमति जताई और उनको क्रोध पर नियंत्रण करने की सलाह दी। एक से लेकर 15 तक सभी ने कहानी की प्रशंसा की।

जीनत साहिबा को जब सम्बोधन के लिए बुलाया गया तो उन्होंने “दादी को इस आयोजन की बधाई दी और उपस्थित अतिथियों को इस कहानी के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा ये कहानी मोहित जी की नहीं है, ये विषय मैंने ही इन्हें बताया था, कहानी का नायक मेरा भांजा है और नायिका मेरे भांजे की पत्नी। इस कहानी की माँ मेरी बहन है। जब मैंने ये घटना इन्हें सुनाई तो मोहित ने मुझसे ये कह दिया था, आप इस विषय पर कहानी नहीं लिखोगी मैं लिखूंगा। मोहित ने बहुत ही खूबसूरती से इस विषय पर लिखा है। पात्रो के नाम बदले है। वास्तविक नाम आप सुनेंगे तो कहानी से तारतम्य बिठा नहीं पायेंगे।”

वह कुछ सोचने लगी फिर उन्होंने वास्तविक पात्रों के नाम बताये, वे नाम इस्लामिक नाम थे और कहानी के नाम पंजाबी थे।

सबसे अंत में पत्रिका के संपादक और सवेंदनशील कवि, लेखक आशुतोष ने दादी का बहुत आभार किया और लेखक मोहित को कहानी पाठ और अभिनन्दन पर बधाई दी। दादी ने घर आये सभी अतिथियों को विदा किया लेकिन आठ दस लोग अभी बैठे हुए थे और फिर से चाय बन रही थी। वे लोग दादी का चेहरा देख रहे थे पर वे ऐसे शांत थे मानो कुछ हुआ ही न हो। सब लोग दादी के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। दादी सबके मन की बात शायद समझ गई थी, वे बोली “आज मेरी क्या सच में कोई गलती थी जो मोहित जी कहानी पाठ के दौरान क्रोधित हो गए।”

वह सच में जानना चाहती थी। गोष्ठी के बाद रुके हुए पांच पुरुष और पांच महिलाएं थी उन्होंने दादी को कहा ” आपकी कोई गलती नहीं थी। ये तो उस लेखक का क्रोध या उसका अहंकार था। भला उसके कहानी पाठ के दौरान क्या कोई अपनी जगह से उठ नहीं सकता। नौटंकी साला।” एक ने कहाँ। दूसरे ने कहाँ “कहानी भी कोई ख़ास नहीं थी।”

तीसरे ने कहाँ “कहानी सुनाने और कहानी पढ़ने में अंतर होता है। ये तो कहानी अभिनीत कर रहे थे या कहानी का मंचन। हर पात्र के अनुसार कभी सिसकिया, कभी रोने का अभिनय, कभी चीखना, कभी हिचकियाँ। बहुत बुरा कथा वाचन था।”

महिलाएं तो बहुत आहत थी । एक तो होस्ट दूसरी महिला, तीसरा जिसके घर में वह कहानी पाठ कर रहा है, उसके साथ ही ऐसी बदसलूकी, गुस्से से अपना चश्मा तोड़ लेना। पुस्तक मेले में कैसे लड़कियों के साथ दांत फाड़कर बतिया रहा था, साला फरेबी मक्कार।” एक ने कहाँ।

मै सोच रही थी, ये कैसे लेखक है जो उसके सामने तो उसकी प्रशंसा में बिछे जा रहे थे और उसके जाते ही सब….. । मैं समझ नहीं पा रही थी यह मोहित का अहंकार था या उपस्थित लेखकों की ईर्ष्या, दूसरे के व्यव्हार को समझना बहुत कठिन है। दादी को उस रात हमारे घर में सबने डांटा ” कौन हैं ये मोहित , क्यों बुलाया उसे।”

दादी सबको समझा रही थी “मैंने कहाँ पढ़ा है इसे, मैं तो कुछ नहीं जानती । फेसबुक में कुछ लेखकों ने हुड़दंग मचा रखा है। हर रोज उछल कूद, लगता है बस ये ही महान लेखक है । मैं भी उसके झांसे में आ गयी। सोचा था की मोहित की कहानी के साथ मैं भी अपनी कहानी पढूंगी , पर मोहित ने आते ही मना कर दिया था, ये कहकर कि आज तो मैं ही अकेला कहानी पाठ करूँगा, पर इसने तो माहौल ही ख़राब कर दिया। “

अब अंत मेँ बारी थी मेरे पापा की, वह आज तक कभी दादी के सामने नहीं बोले थे। आज वह भी दादी से गुस्से में पूछ रहे थे “आपने उस मोहित के साथ फोटो खिंचवाने के लिए मुझे क्यों कहा।”

दादी ने जवाब दिया था ” जो घर आते है, उन्हें अच्छा लगता है और उनका सम्मान किया जाना चाहिए।”

आपको पता है मोहित ने अपने पास बुलाते हुए मुझे क्या कहा ” Let your mother be happy.” बतमीज़ लेखक, ऐसे आदमी को तो….अपने दांत पीसते मेरे पापा बाहर चले गए। …………….. ।
पापा बाहर चले गए तो दादी चेहरा फक्क हो गया । शायद वो अब भी सोच रही थी “दिखने में तो मोहित ऐसा नहीं लगता , आज क्या हो गया उसे। दादी को पता ही नहीं चल पाया, उसे क्या हो गया था। “

अगली सुबह दादी की बहन का फ़ोन आया, वह भी कल की गोष्टी में शामिल थी, उसने उस लेखक के व्यव्हार की जी भरकर भर्त्सना की । फिर उसके बाद एक, दो, तीन, चार कई लेखकों के फ़ोन आते रहे, दादी को सब सांत्वना दे रहे थे और कह रहे थे अच्छा हुआ, आपने क्रोध नहीं किया।”

छोटी दादी ने तो यहाँ तक कह दिया था “मेरे घर कोई ऐसा करता तो मैं कह देती “कहानी गई भाड़ में, Get out from my home.”

पत्रिका के संपादक श्री आशुतोष का फ़ोन आया, दादी की बात मैं सुन पा रही थी पर वे क्या कह रहे थे मेँ सुन नहीं पाई, आखिर मैंने पूछा “क्या कह रहे थे आशुतोष ।”

“कल के किये दुःख जाहिर कर रह रहे थे। जो बातें उन्होंने कही है वे मार्गदर्शन करने वाली है। कई बार उम्र में छोटे भी बड़ी-बड़ी बातें कर हमें प्रकाशित कर जाते है। ” दादी ने मुझे कुछ नहीं बताया पर 20-25 मिनट होने वाली बात में बहुत कुछ ऐसा था जो दादी ने छिपा लिया था।

अभी मैं बात ही कर रही थी कि विदेशी लेखक मोहित जी का फ़ोन आ गया । कल के व्यव्हार के लिए क्षमा तो वे कल ही मांग गए थे । आज वो दादी की किसी कहानी पर अपनी राय बता रहे थे। कहानी को ऐसे लिखे, कहानी को ऐसे पढ़ो ….। दादी को बहुत लोगों ने पढ़ा -सुना है । प्रसाद विमल ने तो दादी को कहा था” तुम जैसा लिखती हो वैसा ही लिखती रहो। उनकी किताबों पर बड़े बड़े लेखकों ने लिखा है । “

मैने दादी को इतना कहते सुना था “आपका शक्रिया आप मेरे घर कहानी पढ़ने आये, अब मेरे पास आपकी दो-चीज़े हमेशा सुरक्षित रहेंगी , एक तो आपका दिया परफ्यूम और दूसरा आपकी ऐनक की टूटी हुई डंडी। जो अगले दिन कमरे की सफाई में मुझे मिल गयी ।

मुझे दादी की कविता की ये पंक्तियां अक्सर याद आ जाती हैं और बहुत अच्छी लगती हैं , शायद इन पंक्तियों में दादी, दूसरों को दुख देने वाले, बुरी सोच रखने वाले ही अधिक दुख में रहते हैं, को प्रकट कर रही हैं, “पांडव बनवास में इतने दुखी नहीं रहे, जितना दुर्योधन अपने महलों में रहा।” मैंने देखा दादी शांत चित्त होकर कुछ लिखने बैठ गई थी पर मैं लेखकों की दुनिया और साहित्य प्रेमियों के कल के अभिनीत मुखोटों को देख कर बहुत हैरान हूँ। मैंने अपने मन की बात लिख तो ली है, डर भी लग रहा है , कहीं लेखक वर्ग और दादी इसे पढ़कर नाराज़ न हो जाएँ।
क्या केवल लेखक को ही लिखने का हक़ है?

Potee- kee- diray

सविता चडढा,

899, रानी बाग़ , दिल्ली-110034

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