जो हार न माने, वो है- आशा/ डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र

जो हार न माने, वो है-आशा


कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण

चीन की गौरव कही जाने वाली कुंजड़िन चेन-शु-चू के अनथक परिश्रम का उदाहरण देते हुए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र ने अपने एक लेख में कहा है कि मैं जब भी हिन्दी की अग्रणी लेखिका आशा शैली को देखता हूँ तो मुझे बरबस उस उद्यम साहसी, विनम्र, मितव्ययी और परोपकार की भावना से सराबोर कर्मयोगिनी का स्मरण हो आता है। जिसने स्वयं सब्जी बेच कर जरूरतमंदों के लिए पाँच करोड़ की धनराशि एकत्र कर ली थी। उन्होंने दोनों में बहुत साम्य अनुभव किया है। डॉ. मिश्र ने उन्हें ‘वन विमेन आर्मी’ कहा है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं। वे जिस जीवट के साथ बिना किसी बाह्य सहायता के अकेले दम भाषा-साहित्य के क्षेत्र में अनवरत काम कर रही हैं, वह किसी अघोषित युद्ध से कम नहीं।
हालांकि धन-संग्रह करने के मामले में तो आशा शैली की चेन-शु-चू से बराबरी नहीं की जा सकती, परन्तु इतना जरूर है कि उन्होंने साधनविहीन ग्रामीण वातावरण में रहते हुए मामूली स्तर से अपनी लेखन यात्रा प्रारंभ की और आज साठ वर्षों के बाद उनके खाते में ढेर सारी कहानियाँ, लघु कथाएँ, कविताएँ, गजलें, उपन्यास आदि के अलावा एक संपादक के रूप में असंख्य उदीयमान लेखकों और कवियों का उत्साहवर्द्धन करके उनकी प्रतिभा को सँवार-माँज कर साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय फलक पर लाने का पुण्य जरूर संग्रहीत है।

आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है

(जो हार न माने, वो है-आशा)


आज हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, डोगरी, बांग्ला और उड़िया पर बराबर अधिकार रखने वाली आशा शैली न केवल लेखन तक सीमित हैं, बल्कि इन्होंने संपादन-प्रकाशन के क्षेत्र में भी अच्छा-खासा स्थान बनाया है। जिसके अंतर्गत यह वर्ष 2007 से हिन्दी कथा-साहित्य को समर्पित एक त्रैमासिक पत्रिका ‘शैल-सूत्र’ का नियमित प्रकाशन कर रही हैं, जिसमें नवोदित रचनाकारों के अलावा स्थापित लेखकों-कवियों की रचनाओं का भी समावेश होता है। इसके अतिरिक्त आत्मजा आरती की स्मृति को हर पल अपने ही आसपास महसूस करने के निमित्त ये ‘आरती प्रकाशन’ का भी संचालन करती हैं। इसके लिए काफी भाग-दौड़ करके इन्होंने आइ.एस.बी.एन. नंबर भी हासिल करने के बाद अब तक दर्जनों स्तरीय पुस्तकों का प्रकाशन सफलतापूर्वक किया है। ऐसा लगता है कि जीवन भर समय-समय पर कवि सम्मेलनों, साहित्यिक गोष्ठियों, परिचर्चाओं के आयोजन में इन्होंने जो आनंद लिया उसी से इन्हें आगे बढ़ने की ऊर्जा प्राप्त होती रही है। जीवन के एक कम अस्सी पड़ाव पार चुकी एकांत साधना-रत इस जीवट भरी महिला के भीतर बैठी लेखिका अभी भी पूरे दम-खम के साथ अपने सनातन धर्म का पालन करने में सक्रिय है।
मात्र चौदह वर्ष की अल्प-वय में दाम्पत्य-सूत्र से आबद्ध होने के तीन वर्ष उपरांत ही पति के साथ पाई-पाई जोड़कर परिश्रम पूर्वक हिमांचल के एक पर्वतीय गाँव में जमीन खरीद कर तैयार किये गये बाग में सेब, नाशपाती, अखरोट, प्लम, खुबानी, चेरी, बादाम आदि फल व सब्जियाँ पैदा कर लोगों को बाँटने के अलावा गाय पालने तथा तीन बच्चों की परवरिश के साथ-साथ साहित्य की अनवरत साधना में सुखानुभूति प्राप्त करना कोई मामूली काम न था। उस पर भी चालीस की वयःसंधि में पति का वियोग और फिर उसके दस वर्ष के अंतराल पर किसी वज्रपात की तरह युवा पुत्री की आकस्मिक मृत्यु का आघात इस भाव-प्रवण कवियित्री के हृदय को छलनी करने को पर्याप्त था। लेकिन धुन, धैर्य और साहस की धनी इस माँ ने प्रकृति का वह आघात भी सह लिया और बिना रुके साहित्य-साधना में लीन रही।
छठी कक्षा की पढ़ाई के दौरान पहली बार जब कुछ लिखा तो उसे सहपाठियों-अध्यापकों ने नहीं सराहा। फिर लिखी एक ग़ज़ल को दिल्ली के मिलाप ने 1960 में छापा। तब से शुरु हुई साहित्य-साधना में इनका रचना-संसार दर्जनों कहानियों के साथ-साथ ‘एक और द्रौपदी’ (काव्य संग्रह), काँटों का नीड़ (कविता संग्रह), ढलते सूरज की उदासियाँ (कविता संग्रह), प्रभात की उर्मियाँ (लघु कथा संग्रह), शज़रे तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह), पीर पर्वत (गीत संग्रह), सागर से पर्वत तक (ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद), गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की जीवनियाँ), साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित दादी कहो कहानी (लोक कथा संग्रह), सूरज चाचा (बाल कविता संग्रह), हमारी लोक कथाऐं (भाग1 से 6 तक), हिमाचल बोलता है (हिमाचली कला-संस्कृति पर आधारित और किताब घर से प्रकाशित), अरु एक द्रौपदी (एक और द्रौपदी का बांग्ला अनुवाद) आदि-इत्यादि तक फैला हुआ है। एक हिमाचली दलित कन्या ‘बीरमा’ और पंजाब के एक बहुचर्चित राजपरिवार के शीर्ष पुरुष के ताने-बाने को लेकर रचा गया इनका उपन्यास ‘छाया देवदार की’ बेहद चर्चित रहा। इसके अलावा एक बाल उपन्यास ‘कोलकाता से अंडमान तक’ तथा कहानी संग्रह ‘द्वंद्व के शिखर’, चीड़ के वनों में लगी आग आदि 28 पुस्तकें उपलब्ध एवं अन्य बहुत सी पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन हैं। ‘आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी’ और स्त्री संघर्ष एक चिन्तन जैसी पौस्तकें एवं स्त्री-विमर्श को रेखांकित करने वाले अनगिनत सम-सामयिक लेख उनकी बौद्धिक प्रखरता का परिचय देते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशों से प्रकाशित होने वाली अनेक हिंदी उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में भी इनकी कहानियाँ सम्मानपूर्वक छपती रहती हैं।

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इस प्रकार पति के आकस्मिक परलोक गमन के दस वर्ष के अंतराल पर ही युवा पुत्री का भी अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाना, स्वर्णिम भविष्य की कल्पना से संजोये दो-दो पुत्रों के लिए बहुएँ ढूंढ कर उनके घर बसाने के बाद उनसे घनघोर उपेक्षा ही नहीं बल्कि घृणा, तिरस्कार, अपमान, आक्षेप, अपने ही बनाए घर से अपने ही पुत्रों द्वारा बेघर कर दिया जाना, फिर सिर छिपाने को एक आशियाने की तलाश में विभिन्न कस्बों, शहरों और प्रदेशों की ठोकरें खाना, पुत्रों के साथ विभिन्न न्यायालयों में मुकदमेबाजी के झंझटों के अलावा और भी न जाने क्या-क्या झेलने के बीच भी अनवरत उच्चस्तरीय साहित्य-सृजन के साथ-साथ उदीयमान लेखकों व कवियों का उत्साहवर्द्धन-मार्गदर्शन करना कोई आसान काम नहीं है।

2 अगस्त, 1942 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) के एक छोटे से गाँव अस्मान खट्टड़ से शुरू हुआ जीवन का सफर देश विभाजन के बाद जगाधरी, अंबाला, हल्द्वानी, खतौली, सितारगंज, लालकुआँ आदि अनेक जगहों में होते हुए निरंतर यायावरी में बीता। बीच के कुछ वर्ष हिमाचल के गाँव गौरा में घर-गृहस्थी में बीते परंतु पारिवारिक झंझटों ने शिमला के वर्किंग वीमेन हॉस्टल की शरण लेने को विवश कर दिया। जिंदगी के थपेड़ों ने आज इन्हें उत्तराखण्ड में नैनीताल जिले के एक गाँव में अनेक घर बदलते रहने के बाद किराये के एक दो कमरे वाले घर में ला पटका है। इतना सब झेलने के बावजूद भी न तो इन्होंने और न ही इनकी लेखनी ने कभी हार मानी और न विश्राम ही लिया।

मानव जीवन में दो रंग बहुत गहराई तक परस्पर घुले-मिले हैं–आशा और शैली। आशा है मनुष्य के जीने की डोर जो उसे स्वर्णिम भविष्य की उम्मीदों से बाँधे रखती है, उसकी खुली आँखों के सपनों का आधार। मानव आशाओं के पंख पर ही तो सवार होकर नित निरंतर जीवन-यात्रा पर निकल पड़ता है और उसके अंतिम छोर पर पहुँचने तक यह क्रम यूँ ही अनवरत चलता रहता है। और शैली है उसके जीने का ढंग, कला और जिंदगी के प्रति उसका अपना नजरिया। उसके अपने बनाये नियम, कायदे; जिनका वह स्वयं पालन करता है और किसी हद तक चाहता भी है कि दूसरे भी कमोवेश उनको अपनाऐं। आशा और शैली का यह मिला-जुला स्वरूप ही तो मनुष्य की अपनी पहचान है। लेकिन जब ये दोनों शब्द एकाकार हो जायें तो? एक ऐसा व्यक्तित्व उभर कर सामने आता है जिसमें जिजीविषा, हौसला, उल्लास, कठोर श्रम, सद्भाव, सेवा-सत्कार, प्रेम, करुणा, शालीनता, ज्ञान-पिपासा, जीवन को अनंत मानने वाले आध्यात्मिक चिंतन से पगा सनातनी सुरुचिपूर्ण संस्कारों के साथ-साथ नियमित जीवन-चर्या आदि का बेहतरीन सम्मिश्रण। विगत साठ सालों से साहित्य-साधना में लीन आशा शैली को उनके पाठक, मित्र और मिलने वाले सभी इसी रूप में जानते-पहचानते हैं।

एक का अस्सी की वयःसंधि में भी युवाओं सी ऊर्जा से लबरेज आशा शैली आज भी लगातार भारी अर्थाभाव के बावजूद छंद, गीत, ग़ज़ल, कविता, लघुकथा, कहानी, उपन्यास, वैचारिक आलेख आदि लिखने में स्वयं को व्यस्त रखती हैं। इनकी रचनाओं में प्रेम, भक्ति, विरह, वैराग्य, आक्रोश, व्यंग्य, हास्य आदि जीवन के हर रंग और रस का समावेश होता है। ‘शैल-सूत्र’ तथा आरती प्रकाशन से प्रकाशनार्थ आने वाली सारी सामग्री को अपने कंप्यूटर पर स्वयं टाइप करके ले-आउट, डिजायन और फिर मुद्रण आदि कार्य स्वयं करने से इनके बहुमुखी व्यक्तित्व और प्रतिभा का पता चलता है।

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इसके साथ-साथ देश भर में जहाँ कहीं से भी साहित्यिक गोष्ठी, कवि सम्मेलन, परिचर्चा आदि के लिए इन्हें बुलावा आता है, ये चल पड़ती हैं, अक्सर अपने खुद के खर्चे पर। वहाँ व्यवस्था चाहे जैसी भी हो इन्होंने सदैव आयोजकों के प्यार व सम्मान को ही तरजीह दी है।

लगभग साठ वर्षों की साहित्य-साधना और निजी जिंदगी के कष्ट-साध्य समय में आशा शैली को कभी भी किसी भी पुरस्कार के लिए लालायित नहीं देखा गया। अलबत्ता देश भर में फैले विभिन्न भाषा-भाषी अपने पाठकों, प्रशंसकों, संगठनों को लुटाया प्यार इन्हें कई गुना प्रतिफलित हुआ है। तमाम तरह के पुरस्कारों, अभिनंदन के प्रतीक चिह्नों और मानद उपाधियों के माध्यम से। जिनमें हिन्दी जगत की अनेक नामचीन संस्थाएँ भी शामिल हैं। उन्हीं ढेर सारे पुरस्कारों-सम्मानों से इनका कमरा अटा पड़ा है। विरासत में मिले गहन संस्कारों से बँधी आशा जी सैटिंग-गैटिंग और सोर्स-फोर्स-घूस-घूँसे तथा तमाम तरह के जुगाड़ों से भरे वर्तमान माहौल में ऐसा करके कोई भी पुरस्कार हासिल कर लेने को कतई गलत मानती हैं। आध्यात्मिक विचारों से भरपूर सादगी भरा इनका जीवन जरूरतमंदों को देते रहने का एक कभी खत्म न होने वाले सिलसिले की तरह है। फिर ऐसी कर्मयोगिनी किसी से कुछ लेने के विषय में तो सोच भी नहीं सकती।
संयोग-वियोग, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, लाभ-हानि और भी न जाने कैसे दृश्य मानव जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं और आगे भी रहेंगे। यह क्रम निरंतर जीवन-यात्रा में आता रहता है; लेकिन धीरमति, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति इनसे सदैव अप्रभावित रहते हुए अपना कर्म करने में जुटे रहते हैं, बल्कि रुकावटों, कष्टों और संघर्षों को वे और भी अधिक शक्ति-अर्जन का अवसर जान उल्लासपूर्वक आगे बढ़ते रहते हैं। यही वह सद्गुण आशा शैली में है जो उन्हें हर समस्या से पार पाने और आगे बढ़ने में सहायता करता है। शालीनता, ज्ञान-पिपासा, वाक्पटुता और व्यवहार-कौशल से भरपूर आशा जी के उदारमना अति अनुकरणीय व्यक्तित्व में एक विचित्र आकर्षण है, जिससे पहले ही संपर्क में व्यक्ति आबद्ध हो जाता है।
देश के अग्रणी लेखक डॉ. राष्ट्रबंधु ने आशा शैली के सम्बंध में लिखा है़ ‘वह अंदर से चाहे जितनी कमजोर और निराश हों लेकिन उनके अधरों पर सदा मुस्कान खेलती है। उनमें कहीं भी अबला की कोई शिथिलता नहीं दिखाई देती… बहुत बहादुर औरत हैं आशा जी, गज़ब की हिम्मत है उनमें।’
आशा शैली की हिम्मत और उनका हौसला अभी भी बरकरार है जैसे वे अभी-अभी युवावस्था की दहलीज पर खड़ी जीवन के अनंत संघर्षों को मुस्कराते हुए झेलने को तत्पर हों पूरी जिजीविषा के साथ। वे अभी भी साहित्य-साधना के नये सोपानों की ओर अग्रसर हैं। थकना-हारना तो जैसे वे जानती ही नहीं। लगता है इन्होंने अपने नाम को सार्थक बनाते हुए यह जीवन-मंत्र अपना लिया है, ‘जो हार न माने वो है आशा’।


डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
देहरादून

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Lunar Eclipse Chandra Grahan 2021 : सूतक काल जानिये

Lunar Eclipse Chandra Grahan 2021 : सूतक काल जानिये

चंद्र ग्रह्ण क्यों होता है और किन शहरो में इसका प्रभाव रहेगा 

चंद्र ग्रहण एक ऐसी खगोलीय घटना है जिसका ज्योतिषीय प्रभाव इस वर्ष का कुछ क्षेत्रों पर ही पड़ेगा । चंद्रमा मन का कारक होता है और इसका प्रभाव सीधे व्यक्ति के मस्तिष्क पर पड़ता है।
जिन क्षेत्रों में यह ग्रहण दिखाई देना है उनमें कोलकाता गुवाहाटी जोरहाट डिब्रूगढ़ सिलचर शिलांग दिमापुर तेजू ईटानगर अगरतला और इंफाल शामिल है।

चंद्र ग्रहण का समय  २६ मई २०२१ को

इस ग्रहण में चंद्र का कुछ भाग ही प्रभावित होगा लेकिन कुछ विशेष लोगों को इसमें सावधानी बरतने की जरूरत है दोपहर में 3:00 से 6:00 के बीच में पड़ने वाले इस ग्रहण में किन लोगों को सावधानी बरतनी है उस पर ध्यान दें।
भले ही जिन क्षेत्रों में जहाँ  दिखाई देगा वहां पर ही सूतक माना जाएगा फिर भी कुछ लोगों को सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

चंद्र ग्रहण के दौरान सावधानियां

१. चंद्र ग्रहण का सूतक 9 घंटे पहले लगता है इसलिए गर्भवती महिलाओं को विशेष रूप से घर के अंदर रहना चाहिए

२. देवी जी का कोई मंत्र उन्हें जपना चाहिए साथ ही अपने पास एक चाकू अवश्य रखना चाहिए क्योंकि इस दौरान नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव ज्यादा हो जाता है और गर्भवती महिलाओं के पेट में पल रहे बच्चे पर उसका प्रभाव पड़ने की आशंका रहती इसलिए ऐसी महिलाओं को यह उपाय करना चाहिए।
३. साथ ही किसी प्रकार की वस्तु को काटे नहीं चाहे वह सब्जी हो या कपड़ा हो या फिर लकड़ी। हो सके तो जितनी देर चंद्र ग्रहण पड़े आप सोए ना और देवी जी का कोई मंत्र जपते रहें। अगर कोई मंत्र नहीं आता है तो ओम दुर्गाय नमः का ही जाप करें।
४. ग्रहण के उपरांत स्नान कर लें अगर स्नान नहीं कर सकते तो अपने ऊपर गंगाजल जरूर आचमन कर ले क्योंकि यह नकारात्मक घटना है जिसका प्रभाव इतना होता है कि चंद्र ग्रहण के दौरान समुद्र का जल भी उफान मारने लगता है।

इस ग्रहण का उन लोगों पर विशेष प्रभाव होता है जो मानसिक रूप से किसी परेशानी से ग्रसित होते हैं। जिन लोगों की कुंडली में चंद्रमा नीच राशि का होता है या फिर ग्रहण दोष होता है उनको विशेष तौर पर चंद्र ग्रहण के दौरान सावधानी बरतनी चाहिए और इन दोष से मुक्ति के लिए भी अच्छा दिन होता है । ओम नमः शिवाय का जाप और ॐ सोम सोमाय नमः का जाप विशेष तौर पर ऐसे लोगों को लाभ पहुंचाने वाला होता है।
क्योंकि यह ग्रहण चंद्रमा की नीच राशि यानी की वृश्चिक राशि में ही पड़ रहा है।


पूजा गुप्ता
ज्योतिर्विद

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Hindi Kahani phaanken mein ek raat – फांकें में एक रात

Hindi Kahani phaanken mein ek raat – फांकें में एक रात

फांकें में एक रात कहानी


गुलफ़ाम महज़ तेरह साल का था, जब उसके अब्बू फ़िरोज़ अल्ला को प्यारे हो गए। प्रयागराज के एक छोटे से कस्बे में एक छोटी सी दुकान है, जहां फ़िरोज़ बाइक बनाने का काम करता था।चालीस साल की अवस्था थी। बेहद चुस्त-दुरुस्त, शरीर गठा हुआ, नीली आंखें, हिरण की तरह फुर्तीला। एक अलग ही सांचे में पकाकर अल्ला ताला ने उसको निकाला था। व्यवहार में विनम्रता। ईमानदारी तो उसके चेहरे के दर्पण से ही अपना प्रतिबिंब दिखा देती थी। उसके पूर्वज बिहार से बहुत पहले ही आकर बस गए थे। उन दिनों चंपारण में आज की तरह ही एक महामारी आई थी, जिसमें गुलफ़ाम के परदादा सब कुछ छोड़कर जान बचाकर यहां आ गए थे तब से यह परिवार यहीं रहने लगा। फ़िरोज अच्छा मैकेनिक था इसमें किसी तरह का कोई संशय नहीं था, मीठी ज़ुबान थी। किसी भी ग्राहक को निराश नहीं करता था। देर सबेर सभी का काम कर देता था, पैसा जो दे दो उसी में संतोष कर लेता था। संतोष जिसके मन में आ जाय बड़े से बड़ा प्रलोभन उसकी ईमान को नहीं डिगा सकता है। उस रात को गुलफ़ाम कभी भी नहीं भूल सकता जिस दिन महज़ दो सौ ग्राम दूध पीकर पेट सहलाते हुए निद्रा देवी को वह नींद के लिए पुकार रहा था। फ़िरोज को लाकडाउन की वज़ह से एक पैसा भी नहीं मिला।

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उस दिन वह बेहद निराश था। यह परिवार रोज़ कुआं खोदकर पानी पीता था। आज उसे चूल्हे की चिंता सर्पिणी की भांति रह- रह डंक मार रही थी। आज घर में क्या बनेगा ? घर पहुंचते ही छोटी बिटिया सकीना साइकिल पकड़ लेती थी। फ़िरोज उसके गालों को चूमने लगता था। इसके बाद उसे पांच रुपए वाला पारले बिस्कुट उसके हाथों में दे देता था। यह नित्य का काम था। कुछ समय तक वह वात्सल्य- सुख की सरिता में जी भर नहाता था। आज सकीना सोई हुई थी। घर में पहुंचते ही पत्नी अमीना का चेहरा बेहद निराश था; क्योंकि फ़िरोज़ के हाथ में कोई थैला नहीं था। घर में केवल आध पाव दाल बचा हुआ था। इसके अलावा सारे डिब्बे झांय- झांय कर रहे थे। अमीना ने फ़िरोज़ से कहा कि आज क्या खिलाएंगे बच्चों को! हम लोग तो पानी पीकर भी रात गुजार लेंगे। अमीना भी आठ तक पढ़ी थी। महामारी के प्रकोप से परिचित थी, समझ रही थी धंधा ऐसे समय में मंदा हो गया है। ऊपर से पुलिस वालों का आतंक। कई परिवार फूलपुर कस्बे से अपना मकान औने पौने दाम में बेचकर अपने- अपने गांव में ही कुछ करने के इरादे से चले गए थे, लेकिन फ़िरोज़ के कुल पांच बच्चे थे; सात लोगों का कुनबा लेकर कहां जाता वह! वैसे भी गांव में कौन सा पारिजात वृक्ष था, जो उसकी भूख मिटा देता।उस दिन घर में कुछ नहीं बन पाया।

पड़ोस से बड़ी मिन्नतें कर आध सेर दूध लेकर अमीना आई और उसमें आध सेर पानी मिलाकर किसी तरह बच्चों की भूख को शांत किया। आकाश में तारे टिमटिमा ही रहे थे कि फ़िरोज़ उठ गया। उसे नींद नहीं लगी,और सकीना के रोने की आवाज़ ने उसके भ्रम को पुष्ट कर दिया। वह समझ गया कि उसे भूख लगी है। अमीना ने उसे अपनी गोद में ले लिया ; कुछ देर तक तो वह शांत थी, लेकिन फिर वह रोने लगी। अमीना की छाती भी सूख चुकी थी। उसको कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसने उसे दूध की जगह पानी पिलाया। अमीना की आंखों से आंसू झरझर बहने लगे। इसी दुश्चिंताओं के स्वप्न के दरिया में फ़िरोज कब डूब गया। उसे नींद आ गई। सुबह के सात बज चुके थे। भगवान भुवन भास्कर अपनी अर्चियों से पूरी कायनात को नहला रहे थे, अमीना ने आवाज़ दी कि क्या आज दुकान नहीं जाओगे ? वह हड़बड़ा कर उठा और देखा कि दिन काफी चढ़ चुके हैं, वह आधे घण्टे के भीतर ही तैयार हो गया। अपनी साइकिल से चल पड़ा। रात का भयावह दृश्य उसके मस्तिष्क पर किसी मयूर की तरह नृत्य कर रहा था; वह जानता था कि फांकें में एक रात तो बीत गई, अगर आज कुछ बोहनी नहीं होगी तो कैसे चलेगा! इसी उधेड़बुन में लगभग पांच सौ मीटर ही चला होगा कि उसकी साइकिल असंतुलित हो गई और वह डिबाइडर से टकराते हुए गिर पड़ा। फूलपुर ब्रिज से तेज़ रफ़्तार से आ रही ट्रक उसे रौंदते हुए निकल चुकी थी, और वह वहीं इस असार संसार को छोड़कर अल्ला को प्यारा हो गया। उसके मुहल्ले का अख़्तर इफको टाउनशिप में सफाई का काम कांटैक्ट बेस पर करता था, वह उधर से जा रहा था; देखा कि बीसों लोगों की भीड़ इकट्ठी है।वह रुक गया, और उसने देखा कि यह तो फ़िरोज़ है; उसने अमीना के घर फ़ौरन सूचना भिजवायी कि फ़िरोज़ का एक्सीडेंट हो गया है अमीना भागते-भागते आ पहुंची और फ़िरोज़ को देखते ही बेहोश होकर गिर पड़ी। कुछ देर बाद ही पुलिस वाले आ गए और पंचनामा हेतु अपनी कार्रवाई करने लगे। उधर फ़िरोज़ के घर में मातम छा गया था।

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सम्पूर्णानंद मिश्र
प्रयागराज फूलपुर
7458994874

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रावल रतन सिंह मेवाड़ की जीवनी | Rawal Ratan Singh history in hindi

रावल रतन सिंह मेवाड़ की जीवनी | Rawal Ratan Singh history in hindi

राजस्थान की धरती ने वीरों को जन्म दिया है उन्ही वीरों में रावल रतन सिंह का नाम आपने शायद न सुना हो लेकिन आप रानी पद्मावती को जानते होंगे उन्ही के पति रावल रतन सिंह मेवाड़ की जीवनी के बारे में इस लेख में बात करेंगे, चित्तौड़ की महारानी का जौहर , राजपूत सैनिको के द्वारा अलाउदीन का सामना करना इस लेख में बताया गया है।

रावल रतन सिंह का जीवन परिचय एवं इतिहास


नाम – रावल रतन सिंह
पिता का नाम -रावल समरसिंह
शासक – मेवाड़ के ४२ शासक ( अंतिम शासक )
शासन वर्ष – १३०२ -१३०३ ( एक वर्ष )
वंश – गुहिल वंश
मृत्यु – अलाउद्दीन खिलजी के द्वारा धोखे से
पत्नी -रानी पद्मावती
भाई – २ (राघव और चेतन )


रावल रतन सिंह मेवाड़ कौन थे

रावल रतन सिंह १३ शताब्दी में जन्मे चितौड़ के राजपूत राजा थे , राजा रत्न सिंह के बारे में जानकारी हिंदी के महाकाव्य पद्मावत में मिलती है ,अपने वंश के अंतिम शासक भी थे। राजा रतन सिंह शादीशुदा थे १३ रानी उनके महल में निवास करती थी , लेकिन राजपूत खून होने की वजह से वह महाराजा मलखान सिंह को युद्ध में हराकर  रानी पद्मावती से विवाह किया , इसके बाद उनके द्वारा जीवन में कोई विवाह नहीं किया गया।

रावल रतन सिंह की मृत्यु का कारण क्या था ?


रावल रतन सिंह की मृत्यु की वजह अलाउदीन की राजनीतिक  महत्वाकांक्षा थी ,रत्न सिंह के भाइयों के द्वारा  अलाउदीन से मिलकर उनकी पत्नी पद्मावती की सुंदरता की चर्चा की , जिसके कारण उसने चित्तौड़ पर हमला कर दिया लेकिन राजपूत सैनिको ने उसकी सेना से खूब लड़ाई लड़ी , जब वह असफल रहा तो उसने प्रस्ताव भेजा कि मैं आपकी पत्नी का चेहरा शीशे के माद्यम से देखना चाहता हूँ , राजा रतन सिंह उसके जाल में फँस गए। जैसे ही उसने रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब देखा वह मोहित हो गया २८ जनवरी १३०३ में दिल्ली से धावा बोल दिया चित्तौड़ की तरफ २६ अगस्त १३०३ को चित्तौड़ को फतह कर लिया। इस युद्ध में ३० हज़ार से अधिक राजपूत लड़ाकू मारे गए थे , जब रानी पद्मावती को पता चला कि राजा रतन सिंह मारे गए है , १६ हज़ार रानियों के साथ अग्नि में जौहर कर आत्माहुति दी

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अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

अँगूठी ने खोला भेद | हिमाचल प्रदेश की लोककथा | आशा शैली

महासवी लोककथा का स्वरूप

लोककथा के इतिहास को खंगालने लगें तो हम देखते हैं कि लोककथा की परम्परा धरती के हर कोने में रही है, यह निर्विवाद सत्य है। लेखन की प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही कहानी कहने-सुनने की उत्सुकता ने ही इस कला को जन्म दिया है। लोककथा का स्वरूप आमतौर पर लोक हितकारी ही रहा है, सम्भवतया लोककथा का उद्भव लोकहित को दृष्टि  में रखकर किया गया हो।
कहा नहीं जा सकता कि इसका आरम्भ कब हुआ होगा, प्रमाण के लिए हमें वेदों तक दृष्टि दौड़ानी पड़ेगी, जहाँ ऋषिगण गुरुजनों से प्रश्न पूछते हैं तो गुरुजन उत्तर में एक कहानी सुना देतो हैं। मैंने अपनी पुस्तक दादी कहो कहानी के लिए देश के विभिन्न भागों की लोकथायें एकत्र करते समय देखा है कि अधिकतर लोककथायें लगभग हर क्षेत्र में थोड़े-थोड़े बदलाव के साथ उपस्थित रहती हैं, फिर भी क्षेत्र विशेष का प्रभाव हर लोककथा पर देखा जा सकता है। पहाड़ों में प्रचलित लोककथाओं में आपको पर्वत शृंखलाओं, गहरे नालों-खाइयों, प्रचलित परम्पराओं, देव परम्पराओं अथवा पहाड़ी फल-फूलों का वर्णन अवश्य ही मिलेगा। वहीं सामान्यतः मैदानी क्षेत्रों की लोककथाओं में इनका अभाव देखने में आता है।
राजा-रानियों की लोककथायें भी प्रायः पूरे देश में प्रचलित होती हैं। यहाँ मैं शिमला जिला के अपर महासू क्षेत्र की कुछ लोककथाओं को संदर्भ हेतु लूँगी। दूसरे क्षेत्रों में इनका प्रसार है या नहीं, यह मेरे विचाराधीन नहीं है।

अँगूठी ने खोला भेद लोककथा 

एक दिन भोले शंकर के किसी भक्त ने मन्दिर में शिवलिंग पर सोने की अँगूठी चढ़ाई। शिव शंकर और पार्वती उस समय मानव रूप धरकर मन्दिर के नज़ारे ले रहे थे। शिवजी ने वह अँगूठी उठा कर ध्यान से देखी फिर वह पार्वती को दे दी। पार्वती उपहार प्राप्त करके बड़ी प्रसन्न हुई।
थोड़े दिनों बाद ही गाँव में मेला था। पार्वती के मन में आया कि वे भी मेले में मनुष्य रूप में भाग लें। पार्वती ने बहुत आग्रह किया कि भोलेबाबा मेले में चलें। घेरा बाँधकर नाचते युवक-युवतियों के साथ वे भी नाचना चाह रही थीं लेकिन भोले शंकर को वे किसी भी तरह न मना सकीं।
भोले बाबा को इन सब हंगामों से क्या लेना-देना। वे तो अपने घोटे के आनन्द में मगन श्मशानों में भटकते प्रसन्न रहते, लेकिन अब उनके सामने समस्या खड़ी हो गई, क्योंकि पार्वती रूठ गई थी। अब इन्कार कर दिया तो मेले में कैसे जाते! हेठी न हो जाती पत्नी के सामने। जब वे नहीं मानीं तो उन्होंने पार्वती को अकेले जाने को कह दिया, किन्तु नाटी ;नृत्यद्ध में नाचने से मना कर दिया था। पार्वती ने इसे स्वीकार कर लिया।
सुबह सवेरे उठकर पार्वती ने गेहूँ की मोड़ी ;भुने दानेद्ध भूनी, उस में अखरोट तोड़ कर मिलाए और सज संवर कर मेले चल दी। मेले में घूमती युवतियों ने उन्हें साथ ले लिया। फिर वे सब मिलकर झूला-झूलने चलीं। गरमा-गरम जलेबियाँ खाने के बाद सभी युवतियों ने नाटी की ओर चलने की योजना बनाई तो पार्वती को पति को दिया वचन याद आ गया वह कुछ युवतियों के साथ एक किनारे बैठ कर नाटी देखने लगी।
नाटी धीरे-धीरे तेजी पकड़ती जा रही थी, तभी साथ की लड़कियों ने पार्वती का हाथ पकड़कर उन्हें नाटी में घसीट लिया। अब क्या था, ढोल और शहनाई के साथ एक के बाद एक रसीले गीत नाटी को गति दे रहे थे। सभी जोड़े बे-सुध होकर नाच रहे थे। पार्वती का हाथ जिस युवक ने पकड़ रखा था उसे पार्वती की अंगुली में पहनी अँगूठी चुभने लगी तो उसने देखा अंगूठी बहुत सुन्दर थी। अँगूठी कुछ ढीली तो थी ही युवक ने नृत्य के झटके के बहाने पार्वती की वह अँगूठी झटक कर निकाल ली। पार्वती को पता ही न चला, मुद्रिका कब उसके हाथ से निकल गई।
जब वह घर लौटीं तो शिव भोले वैसे ही ध्यान मग्न मिले। उल्लसित मुख लिए जब पार्वती उनके निकट जा कर बैठ गई तो उनका ध्यान भंग हुआ। पूछने लगे, ‘‘कैसा रहा मेला?’’
‘‘बहुत आनन्द आया। आपको कहा था चलिए लेकिन आप कहाँ मानते हैं हमारी बात!’’ पार्वती ने उलाहना दिया।
‘‘खूब नाची होगी तुम तो?’’ शिव जी ने फिर पूछा
‘‘कहाँ! आपने मना जो कर दिया था। मन तो मेरा कर रहा था, लेकिन मैं तो बँधी हुई थी न आपको दिए हुए अपने वचन से।’’
‘‘अच्छा किया! अब जरा मेरे पाँव धो डालो।’’
‘‘अभी आती हूँ।’’ यह कहकर पार्वती तुरन्त उठकर चली गई छोटी गागर में पानी और डबरा ;परातद्ध लेकर लौट आई और शिवजी के पाँव धोने लगी।
‘‘पार्वती तुम्हारी अँगूठी कहाँ है?’’ अचानक शिव भोले ने उसके हाथ में अँगूठी न देख कर कहा।
‘‘अरे!’’ अब पार्वती को पता चला कि उसके हाथ में अँगूठी नहीं है, ‘‘वह…।’’ उसने हाथ देखते हुए कहा, ‘‘पता नहीं कहाँ गिर गई।
‘‘सच बताओ, कहाँ गिरी?’’ शिव भी हठ पर उतर आए, ‘‘नाची होगी तुम, किसी ने हाथ से निकाल ली होगी।’’
‘‘नहीं, मैंने कहा न? मैं नहीं नाची। कहीं गिर गई होगी।’’
‘‘पार्वती! यह देखो अँगूठी। मेरे पास है,’’ शिवजी हँस पड़े, ‘‘तुम्हारी आदत नहीं बदली। कहना भी नहीं मानती और झूठ भी बोलती हो। पर मैं भला किसी दूसरे के साथ तुम्हें कैसे नाचने देता। जब मैंने झटका दिया था तब भी तुम्हें पता नहीं चला कि हाथ से अँगूठी निकल गई है, लेकिन एक बात है। आज तुम नाची बड़े कमाल का हो। भई हमें तो आनन्द आ गया मेले में जाकर।’’
‘‘आप बड़े दुष्ट हैं।’’ कहकर पार्वती ने गागर का सारा पानी शिवजी के ऊपर उंडेल दिया।
इस लोककथा में हिमाचल के उन्मुक्त जीवन, मेले त्योहार और पति-पत्नी के हास-परिहास का परिचय मिलता है और यह भी पता चलता है कि हिमाचल का जनमानस देवों को अपने जैसा, अपने बीच का ही इन्सान ही समझते हैं कुछ और नहीं।


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आशा शैली

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Akshaya Tritiya 2021:अक्षय तृतीया में क्या करना चाहिए

Akshaya Tritiya 2021

अक्षय तृतीया क्यों मनाई जाती है

अक्षय तृतीया सनातन हिंदू धर्म का एक ऐसा पर्व है जिसमे कहा जाता है जो करेंगे उसका विशेष लाभ मिलेगा।
वैसे तो जनसाधारण में यह प्रचलन है कि सोना खरीदेंगे तो दिन दुगनी रात चौगुनी सफलता मिलेगी और उससे ज्यादा सोना वह बन जाएगा लेकिन सोना खरीदने तक ही सीमित नहीं है अक्षय तृतीया का महत्व सबसे पहले इसका महत्व जानेंगे कि आखिर क्यों खास है यह दिन जिसे हम अक्षय तृतीया कहते हैं।


अक्षय तृतीया का महत्व

Akshaya Tritiya 2021

आज के दिन सूर्य और चंद्र दोनों ही एक साथ अपनी उच्च राशि में रहते हैं अगर हम सनातन धर्म की महत्वपूर्ण घटनाओं की बात करें तो वह इस प्रकार है आज के ही दिन भागीरथी जी की प्रार्थना पर मां गंगा ने धरती पर आगमन किया था। आज के ही दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम जी का जन्म दिवस मनाया जाता है।
आज के ही दिन से महर्षि वेदव्यास ने महाभारत की रचना के लिए शुभारंभ किया था। आज के ही दिन से मथुरा के बांके बिहारी जी का दरबार खोला जाता है उनके चरणों के दर्शन किए जाते हैं। अन्य की देवी माता अन्नपूर्णा का भी जन्म आज के ही दिन माना जाता है।आज के ही दिन भगवान केदारनाथ जी के पट खोले जाते हैं और उनके भक्त दर्शन करते हैं।
बंगाली समुदाय में आज के ही दिन से खाता बही का शुभारंभ किया जाता है। क्योंकि आज के दिन को यह लोग शुभ मानते हैं।


आप इस का कैसे लाभ ले सकते हैं

यह थी वह महत्वपूर्ण बातें हैं जिनकी वजह से अक्षय तृतीया का महत्व है अब हम जानेंगे कि आप इस का कैसे लाभ ले सकते हैं।
गृहस्थ जीवन के सभी लोगों को यह दो उपाय आज के दिन अवश्य करने चाहिए।
1. किसी पात्र व्यक्ति को भोजन अवश्य कराएं जिसमें चावल अवश्य हो।
2. आज के दिन आप अगर अपने गुरु मंत्र को जपते हैं तो उसका अधिक लाभ होता है अगर आपके पास गुरु मंत्र नहीं है तो आप अपने इष्टदेव या कुलदेवी या कुलदेवता का मंत्र का जाप कर सकते हैं साथ ही अगर आप कोई विशेष मंत्र करते हैं तो उसको भी जाप करने से वह कई गुना ज्यादा फल आपको देता है।

विशेष कार्य की सिद्धि हेतु विशेष उपाय किए जा सकते हैं।

1_ आज के दिन भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा का विशेष महत्व होता है अगर ब्रह्म मुहूर्त में उठकर पीले और लाल कपड़े धारण करके अपने घर के मंदिर में एक आम की पाटे के ऊपर लाल कपड़ा बिछाकर उसमें दो अष्टदल कमल हल्दी से बनाएं उसके ऊपर धूप दीप और कुमकुम से उस कमल की पूजा करें। उसके उपरांत विष्णु भगवान को बाई ओर के कमल पर और माता लक्ष्मी को दाहिने ओर के कमल पर रखें। अगर प्रतिमा नहीं है तो आप भावपूर्ण पूजा भी कर सकते हैं आपके मन में भाव हो कि माता लक्ष्मी और विष्णु जी साथ में आपके चौकी पर बैठे हैं।
शुद्ध घी का दीपक जलाएं उसमें हल्दी डाल दें ध्यान रखे देशी कलावे की ही बत्ती लगाएं। उसके बाद भाव पूर्ण तरीके से अगर आपके पास कमलगट्टे की माला है तो अति उत्तम नहीं तो स्फटिक की माला से भी आप माता लक्ष्मी का जाप करें और अगर हल्दी की माला है तो उससे विष्णु जी का मंत्र का जाप करें अगर हल्दी की माला नहीं है तो आप कमलगट्टे या फिर तुलसी की माला से ही विष्णु जी का जाप कर सकते हैं।
आप सच्चे मन से विश्वास के साथ प्रार्थना करें कि माता लक्ष्मी का स्थाई निवास आपके निवास पर हो।

विष्णु जी का मंत्र
ओम नमो भगवते वासुदेवाय
माता लक्ष्मी का मंत्र
ओम श्रीम‌् नमः

मंत्र पूरे होने के बाद आप आसन के नीचे जल की दो बूंद डालकर उसे तीन बार माथे पर लगाए तभी आसन से उठे।
नोट मंत्र पूरे होने के बाद आपको माता लक्ष्मी के सामने दीपक जलाकर जो रखा है वो रखा रहेगा आरती में जो दीपक प्रयोग किया जाएगा । उसके लिए कपूर से आरती करें और पूरे परिवार को हल्दी का तिलक लगाएं।
संध्या काल में आपको पुनः यही प्रतिक्रिया दोबारा करना।
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विद्यार्थी के लिए

अगर आप विद्यार्थी हैं आपके लिए भी ये दिन विशेष है आपको गणेश जी का या फिर माता सरस्वती जी किसी भी मंत्र का जाप इस दिन अपने घर के मंदिर में ब्रह्म मुहूर्त में उठकर करना है और प्रार्थना करनी है कि हमें हर परीक्षा में सफलता प्रदान करें।
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व्यापारियों के लिए

अगर आप व्यापारी हैं तो आपके लिए भी यह दिन विशेष है सुबह ब्रह्म मुहूर्त में एक ₹100 का नोट और कुछ पांच के सिक्के लेकर आपको अपने घर के मंदिर में लेकर बैठना है पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर सिक्के और नोट को उस लकड़ी के पाटे पर रख देना है। उसके उपरांत गणेश जी का मंत्र जाप करना है और उसके बाद माता लक्ष्मी और विष्णु जी के किसी भी मंत्र का आप श्रद्धा पूर्वक करें जो पैसे आपने पूजा में रखे थे उन पर हल्दी और कुमकुम का टीका लगाएं और उसे लाल कपड़े में लपेटकर अपने गल्ले में रखें। धन लक्ष्मी के स्थाई निवास की प्रार्थना करें पूर्ण विश्वास के साथ प्रार्थना करें।
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प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए

अगर आप नौकरी की तलाश में प्रतियोगी परीक्षा दे रहे हैं आपके लिए भी यह दिन शुभ है सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान आदि करके अपने घर के पूजा घर में बैठना है और अपनी कलम की पूजा करनी है साथ ही गणेश जी के मंत्र की एक माला जप कर सूर्य देव के मंत्र ओम घृणि सूर्याय नमः या फिर ओम सूर्याय नमः का जाप करना है और सूर्य नारायण का उसी मंत्र का श्रद्धा पूर्वक हवन करना है ध्यान रहे सूर्य नारायण के हवन सामग्री में गुड़ जरूर डालें।
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आप धन प्राप्ति चाहते हैं तो दिन भर इस दिन आप धनम् देहि धनम् देहि मन में माता लक्ष्मी को ध्यान में रखते हुए जपते रहें।
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यह थी अक्षय तृतीया के महत्त्व और उस दिन किए जाने वाले कुछ विशेष उपाय किसी भी ज्योतिषीय परामर्श के लिए संपर्क कर सकते हैं।


ज्योतिविद‌्
पूजा गुप्ता
9554322828

Short Stories in hindi | नवोदित कथाकार रत्ना सिंह का जीवन परिचय 

Short Stories in hindi : प्रस्तुत लघुकथा स्वेटर  की लेखिका   रत्ना सिंह  के  द्वारा पाठकों के समक्ष प्रेरणादायी कहानी प्रस्तुत है हमें आशा है कि यह कहानी आपके जीवन में बदलाव जरूर लायेगी। जानते है लेखिका के बारे में –

नवोदित कथाकार रत्ना सिंह का परिचय 

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रत्ना सिंह भदौरिया

 


  • नाम –  रत्ना सिंह

  • जन्म – 1995

  • जन्म स्थान  – रायबरेली 

  •  पेशा -नर्स

  • प्रकाशन-हंस जैसी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा वह कहानियां स्वीकृति।

  • सम्मान – स्काउटिंग के क्षेत्र में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित।

  • सम्पर्क-पहाडपुर कासो जिला रायबरेली उत्तर प्रदेश।

  • परिचय –  रायबरेली जनपद की मूल निवासी और इन्दिरा गाँधी राजकीय महाविद्यालय की पूर्व छात्रा रत्ना सिंह भदौरिया नवोदित कथाकार है। इनकी कहानियाँ और लघुकथायें हंस जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के लिए स्वीकृत हुई हैं। कथा जगत की प्रतिष्ठित कथाकार मन्नू भण्डारी रत्ना सिंह की कथा गुरु हैं। वर्तमान में रत्ना सिंह दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में स्टाफ नर्स हैं। इनका कहानी संग्रह शीघ्र ही पाठकों के सम्मुख होगा । इस समय रत्ना सिंह एक उपन्यास प्रणीत कर रही हैं।

लघुकथा स्वेटर 

रोज की तरह आज सुबह 9:00 बजे भी बहुत ठंड थी मैंने और रीमा ने जल्दी-जल्दी जूते मोजे सौल स्वेटर टोपी आदि पहनकर पार्क में टहलने चल पड़े रीमा हमारी बड़ी बहन है जो रोज सवेरे मेरे साथ पार्क में टहलने जाती है हम दोनों पार्क में टहलते टहलते वहीं पड़ी एक बेंच पर बैठ गए l हर दिन की तरह देखा कि रेखा आज भी काम पर वही पतला स्वेटर पहनकर जा रही थी वह हमारे घर के थोड़ी दूर पर एक घर में काम करती है वहां काम करने के बाद मेरे घर भी आती है । मैंने पार्क में बैठे बैठे सोचा कि बहुत सारे कपड़े हैं आज इसे भी कुछ गर्म कपड़े दे दूं। मैं घर आकर सबसे पहले अलमारी खोलकर बैठ गई कुछ गर्म कपड़े निकाल कर रख दिए तभी घंटी बजी मैंने दरवाजा खोला अरे! रेखा तू आजा । रेखा कांपती हुई कमर दोहरी कर के अंदर आ गई मैंने उससे कहा ,”देख पहले तो तू इससे एक स्वेटर निकाल कर पहन ले”। उसने कहा ,मेम साहब इतने अच्छे कपड़े यह तो तुमरे ऊपर अच्छे लगत हैं। मैंने कहा नहीं यह सब तेरे लिए जा तू पहन कर आ—-।
अरे तू कितनी सुंदर लग रही है अब कल अब कल से यह पतला वाला स्वेटर पहन कर मत आना और यह भी सारे कपड़े घर लेकर जाना वह तो फूली नहीं समा रही थी उसने जल्दी-जल्दी अपना काम खत्म किया और चली गई।
आज मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी ,इसलिए पार्क में टहलने नहीं गई जैसे ही दरवाजे की घंटी बजी दरवाजा खोला तो देखा कि वही पतला स्वेटर पहने कांपती हुई रेखा सामने खड़ी थी,मैंने स्नेह से डांटते हुए कहा ,तुझे कल ही तो स्वेटर दिए थे। उधर से जो आवाज आई वह सुनकर मैं हतप्रभ हो गई।
क्या बताऊं मेम साहब मैं कल जैसे ही यहां से निकली थोड़ी दूर गई तो देखा “एक वृद्ध विधवा महिला सड़क के किनारे पड़ी ठंड से कांप रही थी “।
मैंने समझा कि मुझसे ज्यादा स्वेटर की जरूरत इनको है इसलिए मैंने वह स्वेटर उनको दे दिए।


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दरवेश भारती के साथ आखिरी मुलाकात -आशा शैली

दरवेश भारती के साथ आखिरी मुलाकात -आशा शैली

संस्मरण आशा शैली के साथ 

पुरानी बात है, मैं हरियाणा के किसी मुशायरे से वापस लौट रही थी। अम्बाला रास्ते में हो और मैं डॉ महाराज कृष्ण जैन परिवार से मिलने न जाऊँ यह तो हो ही नहीं सकता। रात अम्बाला रुक कर मैं दूसरे दिन जिस बस में सवार हुई थी, हरवंश अनेजा उसमें पहले से ही बैठे थे। इस मुशायरे में यह मेरी उनसे पहली और आखिरी मुलाकात थी।
उस समय तक वे दरवेश नहीं बने थे। उनके साथ की सीट खाली थी। शायद हम लोग दिल्ली आ रहे थे। हमारी बातों का सिलसिला स्पष्ट है कि मुशायरे से चलकर ग़ज़ल तक आना ही था। मुझे यह तो याद नहीं कि हमने मुशायरे में क्या पढ़ा था पर यह ज़रूर याद है कि उन्होंने मेरी ग़ज़ल की जमकर तारीफ़ की थी और कहा था कि मैंने बहुत से कलाम सुने हैं मगर आपका कलाम उन सबसे अलग और पुख़्ता कलाम है। अपनी अलग पहचान बनाता।उसी सफर के दौरान दरवेश जी ने मुझे बताया था कि उनके पास उनके वालिद मोहतरम की लाइब्रेरी में बहुत सी बेशकीमती किताबें मौजूद हैं। उन्हीं में एक किताब मिर्ज़ा ग़ालिब के हमवक्त शोरा पर बहुत रोशनी डालती है, जिसमें मुस्लिम शोरा के दरम्यान एक हिन्दू शायर का बेहतरीन कलाम है। तब मैंने उनसे उस पर एक बड़ा सा लेख लिखने के लिए कहा था। मैं उसे अमीबा या और किसी रिसाले में देना चाहती थी, पर वे शायद ऐसा कर नहीं पाये क्योंकि उन्होंने मुझे बताया था कि वहाँ बहुत धूल मिट्टी पड़ी है, बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी किताब तलाशने में। मैंने बाद में भी बारहा उन्हें याद दिलाया, पर शायद वे नहीं कर पाये वरना आज एक और नायाब जानकारी हमारे पास होती। खैर, हम दोनों ने ही एक दूसरे के फोन नम्बर लिए और राब्ता बना रहा। मैंने अमीबा का सम्पादन किया तब भी उनसे कलाम मांगती रही और फिर शैलसूत्र का सफ़र शुरू होने तक वे दरवेश हो चुके थे। दरवेश भारती हमेशा ही शैलसूत्र का हिस्सा रहे हैं। मैं अपने कलाम पर भी मश्विरा मांग लेती थी और वे बिना झिझक मुझे नवाज़ते रहे। आज मैंने भी और दोस्तों की तरह एक अच्छा दोस्त और रहनुमा खो दिया है। क्या दुआ करें, किस किस की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें। पता नहीं, मैं नहीं जानती कि यह किसका शेर है, पर मेरे ससुर जी इसे अक्सर पढ़ा करते थे और फिर मैंने इसे किसी अच्छे गायक, शायद जगजीत सिंह से भी सुना था जो आज अक्सर ज़ुबान पर ही रहता है

कमर बाँधे हुए, चलने को यां सब यार बैठे हैं
कई आगे गये, बाकी जो हैं तैयार बैठे हैं


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आशा शैली
वरिष्ठ लेखिका शायरा संपादक
नैनीताल

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डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल/ डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल


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डॉ.रसिक किशोर सिंह नीरज

साहित्यकार डॉ नरेश कुमार वर्मा का परिचय 


भाषाविद्, समीक्षक, साहित्यकार डॉ नरेश कुमार वर्मा जी शासकीय गजानंद अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा में हिंदी विभागाध्यक्ष, पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर एवं साकेत साहित्य परिषद सुरगी राजनादगांव के प्रमुख सलाहकार थे।
आपका जन्म एक साधारण कृषक परिवार में 13 अगस्त 1959 को ग्राम फरहरा भाटापारा छत्तीसगढ़ में हुआ था उनके जीवन का बचपन से ही यह सपना था कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रोफ़ेसर बनें और वह अपने कठिन संघर्ष व परिश्रम की बदौलत ही उस सपने को साकार भी किया।
वह पहले होशंगाबाद फिर शासकीय स्वशासी दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव फिर गजानन अग्रवाल स्नातकोत्तर महाविद्यालय भाटापारा जनपद बलौदा बाजार छत्तीसगढ़ में सेवारत रहकर उन्होंने नया कीर्तिमान स्थापित किया है।
डॉ.वर्मा छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए अपने खून से पत्र लिखने वाले और गरीबों , शोषितों तथा किसान मजदूरों की आवाज बनकर खड़े होने वाले एक नेक इंसान तथा संवेदनाओं से भरे कवि थे, जिन्होंने अपनी कलम को स्याही से ही नहीं खून से भी चलाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है। तथा असहाय लोगों की पीड़ा को अपनी कविता संग्रह – माटी महतारी में लिखकर समाज के सामने प्रस्तुत कर अविस्मरणीय कार्य किया है। इसी प्रकार छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह की तरह उनका साकेत छत्तीसा भाग 1, 2 , 3 भी प्रकाशनोपरांत बहुचर्चित हुआ।
डॉक्टर वर्मा को लगभग 2 वर्ष पूर्व चुनाव के समय लकवा लग जाने से वह शारीरिक रूप से कुछ अस्वस्थ हो गए थे जिनका इलाज रायपुर के बड़े चिकित्सालय में चल रहा था उनकी सेवा में पूरा परिवार ही लगा रहता था परिवार में उनकी पत्नी श्रीमती मीना व पुत्री सुप्रिया तथा पुत्र मयंक विशेष रूप से अंतिम क्षणों तक इलाज और उनकी देखरेख व सेवा में तत्पर रहे ।
एक माह पूर्व पिता का संसार छोड़कर जाना पुत्र नरेश कुमार वर्मा को अंदर से मानो तोड़ गया और इस दुख को वह सहन नहीं कर सके।
चिकित्सक के परामर्श के अनुसार लगभग प्रत्येक माह रायपुर अपने उपचार हेतु बेटे मयंक के साथ हमेशा की तरह इस बार भी गए और वहां कोरोना संक्रमित हो जाने के कारण 27 अप्रैल 2021 को सदा – सदा के लिए ब्रह्मलीन हो गए।
डॉ. नरेश कुमार वर्मा का मेरा प्रथम परिचय नागरी लिपि परिषद छत्तीसगढ़ इकाई रायपुर में वर्ष 1995 में पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में हुआ था ।
इसके बाद जब वह मार्च 1998 में लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ में रिफ्रेशर कोर्स में आए थे तब मुझे आने के पूर्व उन्होंने सूचित कर दिया था कि 1 माह तक लखनऊ में ही हम रहेंगे। बस फिर क्या था वर्मा जी के स्वभाव और व्यक्तित्व से तो मैं बहुत ही अधिक प्रभावित था उनसे संपर्क कर अवकाश में एक दिन उनके सम्मान में साहित्यिक कार्यक्रम दो संस्थाओं के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित कराया तथा जिला पंचायत सभागार रायबरेली में उनका सम्मान और कवियों का काव्य पाठ होली मिलन के साथ ही संपन्न हुआ जिसमें डॉ. वर्मा के साथ पधारे मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि के भी साहित्यकार मित्र कार्यक्रम की सफलता से अत्यधिक प्रभावित और प्रसन्न हुए थे।
तत्पश्चात डॉ वर्मा वर्ष 2000 में मुझे राजनादगांव में जहां पर वह हिंदी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्यरत थे वहां राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में आमंत्रित कर सम्मानित किया ।
मैं उनके आवास पर ही रुका तथा डॉ. वर्मा ने मूर्धन्य कवि समीक्षक गजानन माधव मुक्तिबोध (जन्म 13 नवंबर 1917  मृत्यु 11 सितंबर 1964 ) कृतियां – चांद का मुंह टेढ़ा , काठ का सपना तथा मुक्तिबोध रचनावली आदि का आवास जो दिग्विजय कॉलेज में ही था तथा डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी (जन्म 27 मई 18 94 मृत्यु 28 दिसंबर 1971) कृतियां – 4 अनूदित तथा 6 संपादित और एक  व्यंग संग्रह प्रकाशित ।
आपसे आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अत्यधिक स्नेह रखते थे और उनकी रचनाओं को सरस्वती पत्रिका में भी प्रकाशित करते थे ।तथैव द्विवेदी जी ने इनके हाथों सरस्वती पत्रिका का संपादन भी सौंप दिया था जिसे उन्होंने कई वर्षों तक सरस्वती तथा छाया मासिक पत्रिका का कुशलतापूर्वक संपादन भी किया।
अंतिम समय वह अपने जन्म स्थान खैरागढ़ (छत्तीसगढ़) आकर शिक्षण कार्य करते रहे उन्होंने भी राजनादगांव के इस कॉलेज में प्राध्यापक रहकर अपनी सेवाएं दी थी वह भी मुझे डॉ. वर्मा ने दिखाया तथा उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय कराया।
इसी धरती के महान साहित्यकार डॉ. बल्देव प्रसाद मिश्र (जन्म 12 सितंबर 1898 मृत्यु 4 सितंबर 1975) कृतियां100 से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया है। जिनमें जीव विज्ञान ,कौशल किशोर राम राज्य, साकेत – संत , तुलसी दर्शन ,भारतीय संस्कृति, मानस में राम कथा, मानस माधुरी ,जीवन संगीत ,उदात्त संगीत आदि प्रमुख हैं। उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त कर 1923 में राजा चक्रधर सिंह के बुलावे पर रायगढ़ आ गए वहां पर 17 वर्षों तक न्यायाधीश ,नायब दीवान और दीवान रहकर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए ।उन्होंनेअपने 10- 11 वर्ष की आयु से ही कविता लिखनी प्रारंभ कर दिया था तथा वह भारत के ऐसे प्रथम शोधकर्ता के थे जिन्होंने अंग्रेजी शासनकाल में पहला हिंदी में अपना शोध प्रबंध प्रस्तुत कर डी. लिट् की उपाधि 1939 में प्राप्त किया था।
ऐसी महान साहित्यकारों की पावन भूमि की पूरी चर्चा विस्तार से मेरी व डॉ. नरेश वर्मा जी की हुई तथैव दिग्विजय कॉलेज के समीप प्रसिद्ध भूलन बाग को त्रिवेणी परिसर के रूप में विकसित किया गया है जिसका वर्तमान में सौंदर्य देखने लायक है। इतना रमणीक स्थान प्रदेश में प्रमुख स्थान रखता है यह 2 तालाबों से गिरा हुआ भूखंड पृष्ठ भाग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला मुक्तिबोध परिसर के रूप में स्थापित किया गया है।
जो माधव मुक्तिबोध व पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी तथा बलदेव प्रसाद मिश्र तीनों के महत्व को स्मरण कराता है जिसको जानकर मुझे आत्मानंद की अनुभूति हुई।
तदोपरांत डॉ. वर्मा जी और मैं पुनः वर्ष 2002 में दू.धा.म. स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय रायपुर(छत्तीसगढ़) में साहित्यिक समारोह में एक साथ रहे ।इस प्रकार उनका मेरा पारिवारिक संबंध हो गया और उनके घर भी तीन बार जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
लगभग 18 वर्षों तक एक दूसरे से केवल दूरभाष वार्ता ही होती रही लेकिन आने – जाने का अवसर नहीं मिला ,उधर कुछ वर्षों के बाद डॉ. वर्मा राजनांद गांव से भाटापारा स्थानांतरण हो कर आ गए लेकिन उनके कई बार आमंत्रण के बाद भी मैं नहीं पहुंच सका।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा के साथ : अविस्मरणीय पल

अचानक मेरे अभिन्न मित्र आनंद सिंघनपुरी ( छत्तीसगढ़) द्वारा 30 जनवरी 2021 को एक विशाल कार्यक्रम में मुझे विशिष्ट अतिथि के रुप में आमंत्रित किया गया। जिसमें छत्तीसगढ़ साहित्य परिवार व नई पीढ़ी की आवाज एवं रामदास अग्रवाल स्मृति साहित्य सम्मेलन व पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में पहुंचने के लिए था। जिस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ विनय कुमार पाठक एवं राष्ट्रीय कवि डॉ. ब्रजेश सिंह वरिष्ठ साहित्यकार डॉ .विनोद कुमार वर्मा, केवल कृष्ण पाठक आदि सैकड़ों साहित्यकार शिक्षाविद् भी उपस्थित रहने की सूचना प्राप्त हुई , जो मेरे लिए बहुत प्रसन्नता का विषय था क्यों कि लंबे अंतराल के बाद डॉ. नरेश वर्मा जी से मिलने का सुनहरा अवसर भी था। इसलिए इस कार्यक्रम की सहज स्वीकृति देने की विवशता और अधिक थी।
27 जनवरी 2021 को मैं जैसे ही भाटापारा रेलवे स्टेशन उतरा तो मेरे एक मित्र कन्हैया साहू अमित अपनी बाइक लेकर मुझे रिसीव करने के लिए पहले से ही उपस्थित थे । हम दोनों एक राष्ट्रीय समारोह झांसी में 2 दिन साथ रहे थे और अमित जी डॉ. वर्मा जी के शिष्य भी थे ।
उनके साथ बाइक से मैं उनके आवास सायंकाल पहुंच गया ।और उनके पूरे परिवार से मिलते ही मेरी 2 प्रदेशों से चलकर आने की सारी थकान क्षणभर में सचमुच ही दूर हो गई।
उनकी धर्मपत्नी मीना वर्मा एवं सुपुत्र मयंक वर्मा तथा पुत्री सुप्रिया (मेघा ) के साथ 4 और घर में परिवार के सदस्यों की तरह बोलते, समझदार पक्षी तोता (मिट्ठू) आदि भी प्रसन्नता से ओतप्रोत दिखाई पड़े । कुछ ही देर बाद हम लोग डॉ. वर्मा जी के साथ स्वल्पाहार करने लगे।
डॉ.नरेश कुमार वर्मा को अपनी सद्य: प्रकाशित वर्ष 2020 की 2 पुस्तकें सुनहरी भोर की ओर (काव्य संग्रह )और अञ्जुरी भर प्यास लिये (गीत संग्रह )भेंट किया ।तभी मेघा और मयंक दोनों ने कहा आपकी अंकल जी सभी किताबें हमारे घर में सुरक्षित हैं उनको हम लोग पढ़ते हैं।मैंने कहा क्यों नहीं यह तोसाहित्यकार का घर है बेटा।अब तक मेरी 12 पुस्तकें प्रकाशित हैं जो उन्हें पहले ही भेंट कर चुका था ,उसी समय डॉ.वर्मा जी ने कहा नीरज जी इस वर्ष आपके साहित्य पर विश्वविद्यालय द्वारा शोध कार्य करवाएंगे । मैंने उन्हें इसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित किया। यद्यपि ईश्वर को यह शायद मंजूर नहीं था इसीलिए उन्हें उसके पहले ही अपनी शरण में प्रभु ने ले लिया जिससे यह कार्य अब असंभव सा ही है…
कुछ ही देर बाद अंदर बरामदे में डॉ. वर्मा जी व उनकी पत्नी बच्चों के साथ घर पालतू तोतों से कुछ बातचीत किया वह प्यार और प्रसन्नता से अपने पंख खोलकर फड़फड़ा रहे थे । मैंने उनसे पूछा यह क्या कर रहे हैं तब उन्होंने बताया कि आपके आने की खुशी से यह ऐसा कर रहे हैं फिर हम पांचों लोग एक साथ कुछ फोटो उन तोतों के साथ भी खिंचवाई जो मेरे लिए यह पहला और सुखद अनुभव था वैसे तो बहुत घरों में तोते देखे हैं, लेकिन समय से उनकी ऐसी दिनचर्या जो डॉ. वर्मा जी की थी उनके परिवार की थी वैसे ही सुबह से रात्रि 9-10 बजे तक की दिनचर्या कभी नहीं देखी ।
प्रातः चाय नाश्ता फिर भोजन फिर खेलना, झूले में झूलना, टी.वी. 2 घंटे पक्षियों का ही (सीरियल) देख कर सबसे स्पष्ट बातचीत करना और फिर रात्रि भोजन के बाद विश्राम करना उनका बहुत अद्भुत और प्रशंसनीय था।
वर्मा जी के घर में मेहमान नवाजी में दोनों का प्यार पाकर मैं अपने को धन्य समझता हूं वह मेरे कंधों में बैठकर अपनी चोंच से मेरे गाल भी चूमकर अपना प्यार प्रदर्शित किया । मैं गदगद् हो गया वापस आने पर वह चित्र रायबरेली में हिंदी रचनाकार के माध्यम से तोते के साथ मेरा चित्र प्रकाशित भी किया गया था।
28 जनवरी 2021 को प्रातः डॉक्टर वर्मा जी के सुपुत्र मयंक जी ने मुझे अपनी कार से अपने घर से कन्हैया साहू अमित जी के घर ले गए ।क्यों कि उनके घर जाने का मेरा वादा शेष था कुछ ही देर वहां रुकने के बाद तीनों लोगों ने उनके आवास में फोटो खिंचवाया तथा मुझे रायपुर के लिए भाटापारा से ढेर सारी मीठी- मीठी यादें लेकर विदा कर दिया।
मैं नहीं जानता था कि यह मेरा परम मित्र विद्वान आदरणीय डॉ. नरेश कुमार वर्मा से मिलने का अंतिम अवसर ही था… जिनकी अब स्मृति के कुछ मात्र चित्र ही शेष हैं…

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साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

साक्षात्कार: साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा का

  • डॉ कल्पना पांडेय ने पूछे जीवन से संबद्ध कुछ अनिवार्य प्रश्न साहित्यकार श्रीमती सविता चड्ढा से और उनके उत्तर सार्थक और सारगर्भित…..

डॉ कल्पना पांडेय द्वारा साक्षात्कार

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डॉ. कल्पना पाण्डेय

प्रश्न 1.कभी-कभी जीवन में सब कुछ होते हुए भी व्यक्ति तन्हा क्यों महसूस करता है?

उत्तर: इस जीवन में किसी भी व्यक्ति को, उसके चाहे अनुसार सब कुछ नहीं मिल जाता । कहीं ना कहीं उसके जीवन में कोई अभाव अवश्य खटकता है। उसे प्राप्त विविध प्रकार के सुखों में ही कई प्रकार के कष्ट छिपे होते हैं। हम सबको केवल सुख है अच्छे लगते हैंऔर जरा सा दुख भी हमें अवसाद की तलहटी में ले जाता है और यही अवसाद हमारे एकाकीपन का कारण बन जाता है। किसी के भी अंतर्मन को बिना उसके कहे पढ़ने की क्षमता का नितांत अभाव रहता है। इसलिए मैं हमेशा कहती हूं हमें संवाद करते रहना चाहिए जब कोई जान ही नहीं पाएगा हमारे भीतर क्या चल रहा है तो उस कष्ट का निवारण भी नहीं हो सकता। अपने मन की व्यथा को किसी बहुत ही अपने और समझदार के सामने वर्णित कर देना ही इस प्रश्न का हल है।

प्रश्न 2.उंगलियों की तरह घरों के दास्तान उलझे सवालों की तरह क्यों है?

उत्तर: कल्पना जी आपके प्रश्न सचमुच बहुत ही अद्भुत हैं और अनिवार्य भी। उंगलियां अपने आप कभी नहीं उलझती, यदि हाथों को सीधे रखा जाए तो उंगलियां भी सीधे ही रहती हैं । जब भी दो हाथ मिल जाते हैं तो इन में उलझने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं । जैसे ही ये दो हाथ अलग हो जाते हैं तो उलझने भी दूर हो जाती हैं।
परिवारों के बीच उलझने पैदा होने के परिस्थितियों के अनुसार अलग-अलग कारण हो सकते हैं। किसी परिवार में शिक्षा का अभाव कई उलझे सवालों को पैदा कर देता है और कहीं कहीं आर्थिक अभाव इसका प्रमुख कारण बन जाता है। इन उलझे सवालों का हल भी बहुत ही जरूरी है सहज जीवन के लिए और इसके लिए आपसी संवाद नितांत अनिवार्य है।

प्रश्न 3. बेबसी क्या है ? सभी की ज़िंदगी में कहीं न कहीं घर कर बैठी है। क्या इसे दूर किया जा सकता है?

उत्तर: अपनी इच्छा के अनुसार कुछ ना कर पाने को हम बेबसी कहते हैं।इस बेबसी के मैंने कई रूप देखे हैं मैं आपको एक उदाहरण देती हूं हमारे ही परिवार में एक लड़की की शादी विदेश में कर दी गई थी यह सोचा गया था कि विदेश में यह लड़की बहुत सुख से रहेगी और समय आने पर परिवार के लोगों को विदेश में भुला सकेगी। शादी के कुछ समय के पश्चात ही वह लड़की बेबसी का शिकार हो गई वह इतनी बेबस हो गई कि अपने घर परिवार के साथ बात करना भी उसके लिए मुश्किल हो गया विदेश में उसके ससुराल के लोग उसे घर में बंद करके सुबह निकल जाते और उसके खाने के लिए कभी-कभी एक आलू उबला हुआ और पानी उसके पास रख दिया जाता। बेबसी ने उसको घेर लिया था और उसके पास ऐसा कोई साधन भी नहीं था जिससे वह अपने परिवार से संपर्क कर सके। एक दिन उसके घर के लोग उसके कमरे की खिड़की खुली छोड़ गए । जिसमें से उसने राह से जाते एक व्यक्ति को एक कागज पर अपने भारतीय परिवार का फोन नंबर लिख कर फेंक दिया था। उस अंजान ने बस नई ब्याहता लड़की की सहायता की । बाद में उस लड़की को वहां से बचाया गया और अपने देश में ले आया गया । ये एक लंबी प्रक्रिया थी लेकिन मैं कभी याद करती हूं उस लड़की की बेबसी तो मुझे बहुत दुख होता है। हम जीवन में कभी कभी जब बुरे लोगों में घिर जाते हैं और हमारी तमाम अच्छाइयां उन्हें बदल नहीं सकती तो हम बेबस हो जाने को बेबस हो जाते हैं। मुझे लगता है बेबसी कितनी भी हो कोई ना कोई अनजान, कोई ना कोई सहारा कभी ना कभी अवश्य आता है । मैं मानती हूं हर कठिनाई का हाल ,हर बेबसी का हल मिल ही जाता है।

प्रश्न 4.क्या पैसा सोच को, चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। अगर हांँ ,तो क्यों ?

उत्तर: यदि मैं अपनी बात करूं तो मैं इस बात से सहमत नहीं होती कि पैसा सोच को या चरित्र को दोहरे मानदंड में खड़ा कर देता है। लेकिन हम जिस युग में रहते हैं वहां पर भांति भांति के लोग, भांति भांति के चरित्र विद्यमान है । कुछ लोगों में पैसे की भूख रोटी की भूख से अधिक होती है। ऐसे लोग धन कमाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं । ऐसे लोगों के लिए दोहरे मानदंड बनाना और चरित्र में बदलाव लाना कोई बड़ी बात नहीं होती। देश में ही ऐसे लोगों के बहुत उदाहरण देखे जा सकते हैं।
आपने पूछा है क्यों ? तो इसके उत्तर में मैं इतना ही कह सकती हूं कि पैसे की भूख बिल्कुल वैसी ही है जैसे किसी गरीब आदमी को रोटी की भूख लगती है और जब उसको कुछ भी खाने को नहीं मिलता तो वह विध्वंसक भी हो जाता है। बस रोटी की भूख में और पैसे की भूख में इतना ही अंतर है कि पहली भूख रोटी खाने के बाद शांत हो जाती है लेकिन पैसे की भूख कभी शांत नहीं होती। यदि मन पर नियंत्रण कर लिया जाए तो व्यक्ति सब कुछ त्याग कर सकता है और यदि मन पर नियंत्रण ना हो पाए , तो मन बेलगाम घोड़े की तरह जीवन भर भागता ही रहता है।

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प्रश्न 5.सामंजस्य- तालमेल कभी-कभी उदारता, विनम्रता की कमज़ोरी समझी जाती है। लोग सीधे -सरल रास्तों को क्यों उलझनों से भरने की कोशिश करते हैं?

उत्तर: मुझे लगता है मनुष्य का स्वभाव प्रकृति की देन होता है । ईश्वर ने हमें हमारा स्वभाव सौगात के रूप में दिया है । हमारा स्वभाव ही हमारा वर्तमान और भविष्य निर्धारण करता है। ऐसे में जो व्यक्ति समाज के तालमेल को समझ नहीं पाता , वही व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सज्जनता को उसका भय समझता है या उसका स्वार्थ । बुरे स्वभाव के निकृष्ट व्यक्ति के साथ आप कितना भी अच्छा करते रहें, उसे लगता है इसमें अच्छा करने वाले का कोई ना कोई स्वार्थ छिपा होगा ।
बचपन से हम लोग यह सुनते और पढ़ते आए हैं कि चंदन कभी सुगंध नहीं छोड़ता और फूल कभी महक नहीं छोड़ते, इसी प्रकार अच्छे लोगों को भी सदा ही सज्जनता को अपनाए रहना चाहिए। दूसरे लोग जो भी सोचें इसकी परवाह किए बिना सज्जनता को छोड़ना नहीं चाहिए । अच्छाई करने वाले को इसी से संसार का सुख , संतुष्टि मिल जाती है।

प्रश्न 6.क्या जीवन में व्यवहारिकता के साथ नित्य प्रति थोड़ा समय आध्यात्मिक चिंतन – मनन को भी देना चाहिए?

उत्तर: जी बिल्कुल । मुझे लगता है नित्य प्रति, यदि दिन का प्रारंभ ईश्वर को याद करते हुए, प्रकृति की पूजा करते हुए, प्रकृति के साथ कुछ पल बिताते हुए, अध्यात्म के साथ जोड़ लिया जाए तो पूरा दिन और फिर पूरा जीवन सुखद और शांत रहता है ।आध्यात्मिक चिंतन हमारे मन को भी मजबूती देता है और जीवन में आने वाली आपदाओं से बचने, उभरने और उनसे पार निकल जाने की राह भी दिखाता है ।इसमें मैं अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का आग्रह भी करना चाहती हूं । हमारे देश में ऐसे बहुत सारे ग्रंथ हैं जो हमें प्रकाशित करते हैं, अच्छा जीवन जीने के लिए प्रोत्साहित करते हैं लेकिन इसमें पठन-पाठन के साथ साथ जीवन में उन्हें कार्यान्वित करना बहुत आवश्यक है।

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प्रश्न 7.आपके जीवन में मुलाकातें अहम भूमिका रखती हैं। ऐसी कुछ मुलाकातें जिन्होंने आपके जीवन को नई दिशा दी हो।

उत्तर: जी बिल्कुल सही कहा आपने। मुझे सबसे पहले जब 1984 में प्रधानमंत्री निवास में श्रीमती इंदिरा गांधी जी से मुलाकात करने का अवसर मिला था तो वह मेरे लिए बहुत ही गौरव के पल थे । मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि ऐसा हो सकता है और यह सब संभव हुआ मेरे लेखन के कारण। उन दिनों मैं वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्य कर रही थी और मेरा पहला कहानी संग्रह “आज का ज़हर” प्रकाशित हुआ था । स्कूल टाइम में मैंने नेहरू जी के पत्र इंदिरा जी के लिए जो लिखे गए थे वे सब पढ़े थे । पता नहीं क्यों, मुझे उन सब पत्रों में लिखा हुआ अपने लिए भी लगने लगा था।
जीवन में मैं आदरणीय इंदिरा गांधी जी से बहुत प्रभावित रही हूं। एक बार मैंने पढ़ा था कि वे अपने जीवन में 18 घंटे काम करतु हैं और बहुत कम विश्राम करती हैं । मैंने उनका यह नियम अपना लिया था । मुझे लगता था कि मुझे भी कम से कम 18 घंटे तक पढ़ना है ,लिखना है और काम करने हैं। बस उनका यह मंत्र जो था पूरे जीवन भर मुझे शिक्षा देता रहा और फिर जब इस पुस्तक को उन्हें भेंट करने के लिए हमारे वित्त मंत्रालय के मित्र श्री बाल आनंद ने उन्हें पत्र लिखा और मुझे समय मिल गया प्रधानमंत्री निवास जाकर उनसे मिलने का। किसी बड़े व्यक्ति से मिलने की यह पहली मुलाकात थी जिसे मैं कभी नहीं भूलती । आज भी 18 घंटे काम करने और बहुत कम नींद लेने के नियम का पालन कर रही हूं।

प्रश्न 8. साहित्यिक जीवन कई बार ऐसे पड़ाव आए होंगे, जब आपको लगा हो कि पारिवारिक जिम्मेदारियांँ उपेक्षित हो रही हैं ।आपने उसका समाधान कैसे किया?

उत्तर: जीवन के प्रारंभ में कई बार हुआ मुझे लगा कि कुछ छूट रहा है । मैंने फौरन उन बाधाओं को समस्याओं को दूर कर दिया। मुझे लगता है जैसे ही कोई कठिनाई जीवन में आती है उसे ,उसी पल दूर कर दिया जाना चाहिए नहीं तो वह बहुत मुश्किलों से हल होती है।
मैंने परिवार और साहित्य दोनों को एक साथ रखा है ।न तो मैंने साहित्य को परिवार से अधिक तरजीह दी
न ही परिवार को साहित्य से बड़ा माना है । मेरे लिए ये दोनों हैं मेरे दो नेत्रों के समान रहे हैं जो सदा ही मेरे साथ रहे ,मेरे सहायक रहे । जब मेरे परिवार के सदस्य प्रधानमंत्री निवास में मेरे साथ इंदिरा जी को मिले थे तब उन्होंने स्वीकार कर लिया था कि साहित्य और लेखन का सम्मान पूरी दुनिया करती है और फिर मेरे परिवार ने मुझे पूरा सहयोग दिया कि मैं साहित्य के प्रति अधिक समर्पित रहकर अपना लेखन कार्य करती रहूं। इसमें मुझे मेरे पति सुभाष चडढा जी का बहुत सहयोग रहा जिसके लिए मैं उनका सदैव आभार प्रकट करती रहती हूं।
पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में मेरे पति, मेरे नानी जी और मेरे माता-पिता का भी बहुत योगदान रहा । मुझे जब-जब आवश्यकता हुई उन्होंने मुझे समय दिया, मेरा मार्गदर्शन किया और मुझे कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।

प्रश्न 9. सम्मान और पुरस्कारों की जैसे बहार आ गई है । क्या यह साहित्यिक मूल्यों को पतन की ओर ले जा रहा है या उन प्रतिभाओं को संबल प्रदान कर रहा है, जिनके अंदर सर्जना शक्ति का संचार हो रहा है ।

उत्तर: सम्मान और पुरस्कार साहित्य के उत्थान के लिए अनिवार्य नहीं है । साहित्यकार कभी भी पुरस्कारों के लिए या सम्मान प्राप्त करने के लिए नहीं लिखता दूसरी ओर यह भी सत्य है कि जब उसके लेखन को, उसके कार्य को पुरस्कार और सम्मान के माध्यम से सराहा जाता है तो वह साहित्य साधना के प्रति अधिक समर्पित होकर काम करने के लिए प्रेरित होता है।
आपने साहित्यिक पतन की जो बात की है वह भी कुछ हद तक सही है । आज साहित्य को नहीं बल्कि व्यक्ति को सम्मानित किया जा रहा है । होना यह चाहिए की लिखित साहित्य के माध्यम से व्यक्ति का सम्मान किया जाए परंतु आज व्यक्ति का सम्मान अधिक हो रहा है। तभी साहित्यिक मूल्यों का पतन धीरे-धीरे होने लगा है। लेकिन हर जगह साहित्यिक मूल्यों का पतन नहीं हो रहा। हमारे देश की कई संस्थाएं लेखक के लेखन को ही महत्व दे रही हैं और प्रकाशित पुस्तकों के आधार पर उन्हें सम्मान मिल रहे हैं । इसलिए हमें निराश होने की आवश्यकता कदापि नहीं है और जैसा कि मैंने पहले भी कहा हर लेखक सम्मानों के लिए नहीं लिखता । यह संस्थाओं का दायित्व है कि वह प्रकाशित साहित्य को देखें, परखे और उसी के अनुसार निर्णय लिए जाएं। यह भी देखने में आ रहा है कुछ लोग शोर-शराबा करके , झगड़ा करके अपने को सम्मानों की सूची में लाने के प्रयास में लगे रहते हैं और वे कामयाब भी हो जाते हैं ।मुझे लगता है यह साहित्यिक मूल्यों की गिरावट है। यदि वह व्यक्ति पहले ही योग्य था तो उसे पुरस्कार दे दिया जाना चाहिए था, उसके कहने पर, उसके भय से जब उस को सम्मान दिया जाता है तो यह भी विचारणीय हो जाता है।

प्रश्न 10.व्यावसायिकता के इस दौर में हमें कहांँ तक साहित्य में समझौते करने चाहिए ?

उत्तर: साहित्य में समझौतों की आवश्यकता नहीं होती। हम जो भी लिखना चाहें, जैसा भी साहित्य अपने पाठकों को देना चाहते हैं , वह हमारी अपनी सोच , हमारा अपना निर्णय होता है। अपने लिखित साहित्य को प्रकाशित करने , पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए कभी-कभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं। व्यावसायिकता के आज के दौर में पुस्तकों के प्रकाशन को लेकर काफी चिंता है । लेखक को अपने पैसे देकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने की जो प्रक्रिया हमारे देश में है इसका निदान होना अनिवार्य है। मैं सरकार से अनुरोध करना चाहूंगी कि वे लेखक की समाजोपयोगी सामग्री के प्रकाशन के लिए अनुदान प्रदान करने की नई योजना बनाए।


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