साहित्य और चिकित्सा क्षेत्र का अनमोल रत्न : भगिनी रत्ना सिंह

गाँव के नाम से तो लगता है कि नदी, झील, पहाड़, पर्वत, झरनें आदि की अति विशिष्टता हिमालयी प्राकृति की गोद में रची बसी होगी, क्योंकि नाम ही ऐसा है- पहाड़पुर।
वास्तविकता को देखा जाय, तो इक्कीसवीं सदी में भी उस गाँव की समतल भूमि पर सामान्य यातायात की व्यवस्था व सुविधा नहीं है। व्यक्तिगत संसाधन ही आवागमन का सहारा हैं। सरकारी सुविधाओं से तो पहाड़पुर गाँव का दूर-दूर तक नाता नहीं है।

न जाने कितनी निरीह लड़कियों की पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया। क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में पुराने खयालात के लोगों की मानसिकता वैसे भी लड़कियों की पढ़ाई एवं रोजगार को लेकर सकारात्मक नहीं रही है।
घर की दहलीज से कदम निकाल कर जब रत्ना ने गाँव की सरहदें लाँघकर लगभग 1 मील पैदल चलकर राष्ट्रीय राजमार्ग 24B पर आती थी, तब ऑटो टैक्सी का यातायात के रूप में उपयोग करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहर की ओर रुख किया , तो न जाने गाँव वालों के कितने हास्य-व्यंग्य सहने पड़े। तत्कालीन परिस्थितियों में निश्चित रूप से रत्ना सिंह के अंदर संघर्ष वाहिनी के रूप में सिंह वाहिनी विराजमान हो गयी होंगी, क्योंकि उनके माता-पिता का सहयोग हर कदम पर मिलता रहा और आज भी मिल रहा है। उनका नाम रत्ना सिंह किसी रत्न से कम नहीं है।


डॉ० संतलाल, भाषा सलाहकार, पर्यावरण सचेतक रायबरेली कई बार मुझसे वरिष्ठ साहित्यकारों की चर्चा करते समय बताया करते हैं कि रत्ना सिंह कम उम्र में ही मन्नू भंडारी जी वरिष्ठ कथा लेखिका के सानिध्य में 4 वर्ष रही हैं। आदरणीया मन्नू भंडारी और रत्ना सिंह का साथ में कुछ छायाचित्र देखकर ऐसा लगता है मानो, दोनों माँ बेटी हैं। परन्तु दुर्भाग्य से मन्नू जी इस नश्वर संसार से विदा होकर अनंत में लीन हो गयी हैं।


रत्ना सिंह सशक्त लघुकथा लेखिका बन चुकी हैं। हो भी क्यों न..। अंतरराष्ट्रीय लेखिकाओं के साथ रहने वाला कोई भी आम मानव नहीं हो सकता। हर स्तर, हर कदम पर साहित्य की कल्पनाशीलता बनाने व लिखने की अद्भुत शक्ति माँ वीणावादिनी ने रत्ना सिंह को दी है।


एक दिन रत्ना द्वारा लिखित लघुकथा hindirachnakar.com के माध्यम से प्रकाशित हुई थी, जिसे मैंने फेसबुक पर पढ़कर कुछ पल के लिए आत्ममंथन और आत्मचिंतन किया। मुझ बेसबरे से रहा न गया, उसी लघुकथा को पुनः मैंने पढ़ा। उसके बाद मैंने टिप्पणी लिखा कि बहन रत्ना सिंह, उम्र में भले ही कम हो, किंतु आपका लेखन और शब्द चयन देखकर मुझे लगा रहा है, वास्तव में आप मन्नू भंडारी, ममता कालिया जैसी विदुषी साहित्यकारों के पदचिन्हों पर चल रही हो। बहुत आगे तक जाओगी। उनका भी उत्तर उस पावन रिश्तों की कड़ी को मजबूत करते हुए आया। उस दिन से दो अजनबियों को नया रिश्ता मिल गया। जो अखिल विश्व का सबसे पावन रिश्ता है- भइया बहन।


प्रकृति परिवर्तन कहें या दूषित खानपान या अनियमित दिनचर्या। मैं बीमार हो गया। बुखार भी थर्मामीटर में 102 ℃, तब रत्ना सिंह (स्टॉफ नर्स) अपोलो अस्पताल इंद्रप्रस्थ, नई दिल्ली से ही मोबाइल द्वारा मुझे औषधियों और कई जाँचों के विषय मे व्हाट्सएप के माध्यम से बताती रही। कुछ दिनों में ही मैं स्वस्थ हो गया। मुझे ऐसा लग रहा था कि वो सिर्फ नर्स ही नहीं, मानो वरिष्ठ चिकित्सक भी हैं।

बातों-बातों में रत्ना ने बताया कि नौकरी के साथ मेडिकल नर्सिंग की पढ़ाई कर रही हूँ, भविष्य में अपने विभाग से अनुमति लेकर पीएचडी भी करूँगी। तब एक पल के लिए मेरे मन मस्तिष्क में वो ग्रामीण परिवेश में पली बढ़ी लडक़ी और अंतरराष्ट्रीय स्तर के चिकित्सालय में नौकरी, निरन्तर शिक्षा ग्रहण करना, साथ ही ये उच्च स्तरीय विचारधारा। गर्व के साथ कह सकता हूँ कि आप महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत और पथप्रदर्शक के रूप में मील का पत्थर हो।


डॉ० संतलाल गुरुदेव ने कई बार मुझे बताया कि हंस पत्रिका में रत्ना के कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं। इससे ही सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि हंस पत्रिका में छोटे मोटे साहित्यकारों के लेख प्रकाशित नहीं होते हैं।


एक दिवस मैंने कुछ चिकित्सीय कार्य हेतु रत्ना सिंह को कॉल लगाया, तो एक पल के लिए मुझे लगा कि ये 10-11 वर्षीय लड़की की पतली सी प्यारी आवाज क्यों आ रही है। शायद रांग नम्बर लग गया। कुछ देर तो अचंभित रहा, उसके बाद वार्ता करते-करते मेरी समझ मे आया कि पक्का ये ही रत्ना सिंह हैं। अब मैं तो खुले मंच से कह सकता हूँ कि रत्ना, आवाज से नन्हीं बालिका, उम्र में युवा उत्साह, अनुभवों व विचारों में अति वरिष्ठता की श्रेणी में स्थापित हो चुकी हैं।


अब तक उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हुई थी। होती भी क्यों ? लगभग 600 किलोमीटर का जो फाँसला। पर कहावत है कि जहाँ चाह, वहाँ राह…
परम् पिता परमेश्वर की कृपा और सन्तलाल जी के आशीर्वाद से उनसे मुलाकात साहित्यिक कार्यक्रम के दौरान हो गई। प्रथम मुलाकात में मुझे लग रहा है कि रत्ना सिंह के लिए सुंदर, सुशील, शालीन, धीर, वीर, गम्भीर, चिकित्सा और साहित्य पथ में परिपक्व … जैसे विशेषण भी कम पड़ जाएँगे। साहित्य तो सागर से भी गहरा है।
ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आप अनेक बाधाओं को पार करते हुए निरन्तर प्रगतिपथ पर बढ़ती रहो। आपका भविष्य उज्ज्वल रहे, दीर्घायु हों। चिकित्सा विभाग में भी रहकर समाजसेवा करती रहो।
हर कदम पर आपके साथ, आपका भ्राता…

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली यूपी
मो० 9415951459

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बैसवारा के प्रमुख साहित्यकार और उनकी रचनाएँ

बैसवारा की स्थापना महाराजा अभमचन्द्र बैस ने सन् 1230 ई. में किया था। बैसवारा क्षेत्र रायबरेली, उन्नाव लखनऊ के कुछ हिस्सों में फैला हुआ है। बैसवारा का केंद्रबिंदु लालगंज है। बैसवारा को कलम, कृपाण और कौपीन से समृद्ध क्षेत्र कहा जाता है, जिसने अनेक क्रान्तिकारियों और साहित्यकारों को जन्म दिया है।
प्रस्तुत हैं प्रमुख साहित्यकारों के नाम, जन्मस्थान, जीवनकाल (सन में) और उनकी रचनाओं का संक्षिप्त विवरण-

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01- मुल्ला दाऊद

  • जन्मस्थान – डलमऊ (रायबरेली )
  • जीवनकाल – 1323 – 1418
  • रचनाएँ– चंद्रायन (फिरोजशाह तुगलक के शासन काल में )

02- मलिक मोहम्मद जायसी

  • जन्मस्थान -जायस
  • जीवनकाल : 1467 – 1542
  • रचनाएँ- प‌द्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, चित्ररेखा, कहरनामा

03- प्रताप नारायण मिश्र

  • जन्मस्थान -बैजेगाँव अचलगंज
  • जीवनकाल : 24/09/1856 – 06/07/1894
  • रचनाएँ– मन की लहर, पंचामृत, जुआरी खुआरी

04- महावीर प्रसाद द्विवेदी

  • जन्मस्थान– दौलतपुर, सरेनी
  • जीवनकाल- 15/05/1864 – 21/12/1938
  • रचनाएँ– हिन्दी भाषा की उत्पत्ति, नाट्यशास्त्र, सरस्वती पत्रिका का संपादन

05- गयाप्रसाद शुक्ल

  • जन्मस्थान– सनेही हड़हा, अचलगंज
  • जीवनकाल-16/08/1883 – 20/05/1972
  • रचनाएँ- प्रेम पच्चीसी, कुसुमांजलि, राष्ट्रीय वीणा, राष्ट्रीय क्रंदन

06- सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

  • जन्मस्थान : मेदिनापुर बंगाल, (मूल निवास – गढ़ाकोला बीघापुर उन्नाव)
  • मृत्यु : प्रयागराज
  • जीवनकाल : 21/02/1896 – 15/10/1961
  • रचनाएँ- अनामिका, अपरा, आराधना, कुकुरमुत्ता, जागो फिर एक बार, तुलसीदास, तोड़ती पत्थर, परिमल, राम की शक्ति पूजा, सरोज स्मृति, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, बंगभाषा का उच्चारण

07- तोरन देवी शुक्ल ‘लली’

  • जन्मस्थान : दिपवल उन्नाव , ससुराल हमीरगांव सरेनी
  • जीवनकाल : 12/08/1896 – 1960
  • रचनाएँ- रसिक मित्र, साहित्य सरोवर, स्त्री दर्पण, जागृति

08- रघुनन्दन शर्मा

  • जन्मस्थान : छोटी खेड़ा, सरेनी
  • जीवनकाल : (02/11/1898 – 08/06/1973)
  • रचनाएँ- अक्षर विज्ञान, वैदिक सम्प्रप्ति

09- द्वारिका प्रसाद मिश्र (MP के मुख्यमंत्री)

  • जन्मस्थान : पड़री उन्नाव
  • जीवनकाल : 05/08/1901 – 05/05/1988
  • रचनाएँ- कृष्णायन, शारदा, सारथी, लिविंग एण्ड एरा (आत्मकथा)

10- भगवती चरण वर्मा

  • जन्मस्थान : सफीपुर, उन्नाव
  • जीवनकाल : 30/08/1903 – 05/10/1998
  • रचनाएँ- चित्रलेखा, पतन, टेढ़े मेढे रास्ते, भैसा गाड़ी

11- प्रो. नन्द दुलारे वाजपेयी

  • जन्मस्थान : मागरायर बीघापुर
  • जीवनकाल : 04/09/1906 – 21/08/1967
  • रचनाएँ- भुलक्कड़ों का देश, छायावाद (निबन्ध), नया साहित्य नए प्रश्न,

12- प्रो. राम विलास शर्मा

  • जन्मस्थान : ऊँचगाँव सानी
  • जीवनकाल : 10/10/1912 – 03/05/2000
  • रचनाएँ : गाँधी, अग्बेडकर, निराला की साहित्य साधना, पश्चिम एशिया और ऋग्वेद।अज्ञेय के प्रथम तार सप्तक में शामिल

13- चन्द्रभूषण त्रिवेदी “रमई काका”

  • जन्मस्थान : रावतपुर टिकौली
  • जीवनकाल : 02/02/1915 – 18/04/1986
  • रचनाएँ- बौछार, गुलछरै, फुहार, नेता जी

14- शिवमंगल सिंह ”सिंह”

  • जन्मस्थान : झगरपुर, बारा
  • जीवनकाल : 05/08/1915 – 27/11/2002
  • रचनाएँ- हिल्लोल, जीवन के राग, प्रलय सृजन

15- श्रीलाल शुक्ल

  • जन्मस्थान : अतरौली मोहनलाल गंज
  • जीवनकाल : 31/12/1925 – 28/10/2011
  • रचनाएँ- राग दरबारी, विश्रामपुर का संत, अज्ञातवास

16- प्रो. शिव वहादुर सिंह भदौरिया

  • जन्मस्थान : धन्नीपुर, लालगंज
  • जीवनकाल : 15/07/1927 – 07/08/2013
  • रचनाएँ- पुरवा डोल गई, सुजन और प्रक्रिया, मानस चंदन

17- अमर बहादुर सिंह ‘अमरेश”

  • जन्मस्थान : कदरावाँ, ऊँचाहार
  • जीवनकाल : 01/03/1929 – 02/06/1979
  • रचनाएँ- राज कलश, देवता मेरे देश का

18- रघुवीर सहाय

  • जन्मस्थान : लखनऊ
  • जीवनकाल : 09/12/1929 – 30/12/1990
  • रचनाएँ- हँसो हँसो जल्दी हँसो, सीढ़ियों पर धूप में, आत्महत्या के विरुद्ध।अज्ञेय के द्वितीय तार सप्तक में शामिल

19- देवीशंकर अवस्थी

  • जन्मस्थान : सथनी बाला, टेढ़ा
  • जीवनकाल : 05/03/1930 – 13/01/1966
  • रचनाएँ- ऋगुवेद, सामवेद और अथर्ववेद का हिन्दी अनुवाद, बैसवारी लोकरीति, कालिदास के सभी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद

20- मधुकर खरे

  • जन्मस्थान : ऊसरू, भोजपुर
  • जीवनकाल : 11/1935 – 10/01/1990
  • रचनाएँ- ये मेरा बैसवारा, सामने बैठ तुम हार गूथा करो

21- श्री स्वयम्बर सिंह गुरु जी

  • जन्मस्थान : रायपुर मझिगवां
  • जन्मतिथि : 01/07/1936
  • रचनाएँ- तृष्णा, तृप्ति, तेरह तरंग, तुष्टि

22 प्रो. श्री सूर्य प्रसाद दीक्षित

  • जन्मस्थान : बन्नावा, बछरावां
  • जन्मतिथि : 05/07/1938
  • रचनाएँ- उत्कर्ष, ज्ञानशिक्षा, कुल संदेश, प्रभास

23- श्री हरेन्द्र बहादुर सिंह

  • जन्मस्थान : चाँदा लालगंज
  • जन्मतिथि : 25.12.1939
  • रचनाएँ- पथ के गीत, कादम्बरी, गोशाला, गलियारा गाँव

24- श्री अशोक बाजपेयी

  • जन्मस्थान : रायबरेली
  • जन्मतिथि : 16/01/1941
  • रचनाएँ- सीढ़िया शुरू हो रही हैं, कविता का गल्प, अभी कुछ और

25- श्रीमती चित्रा मुद्‌गल

  • जन्मस्थान : निहाली खेड़ा धनीखेड़ा
  • जन्मतिथि : 10/12/1944
  • रचनाएँ- एक जमीन, बेईमान, अढ़ाई गज की ओढ़नी, आवां, द हाइना एण्ड अदर स्टोरी

26- दिनेश सिंह

  • जन्मस्थान : गौरा रुपई, लालगंज
  • जीवनकाल : 14/09/1947 – 02/07/2012
  • रचनाएँ- नये पुराने, नवनीत दशक

27 प्रो. श्री ओम प्रकाश सिंह

  • जन्मस्थान : उतरागौरी, लालगंज
  • जन्मतिथि : 08.12.1950
  • रचनाएँ- राना बेनी माधव (नाटक), सर्जना के पंख, इतिहास के पन्ने, ये समय के गीत हैं, एक चिंगारी और, नवगीत (8 खण्ड)

28- प्रो. श्रीमती चम्पा श्रीवास्तव

  • जन्मस्थान : आनंद नगर सदर, रायबरेली
  • जन्मतिथि : 13/07/1951
  • रचनाएँ : अंजुरी भर अभिव्यक्ति, विन्यास, इन्द्रधनुषी धड़कन
  • निष्कम्प दीपशिखा : डॉ० चंपा श्रीवास्तव (आस्थाग्रंथ) संपादक- प्रो० अशोक कुमार रायबरेली

29- आचार्य श्री सूर्यप्रसाद शर्मा ‘निशिहर’

  • जन्मस्थान : मानपुर, खीरों
  • जन्मतिथि : 12/09/1954
  • रचनाएँ- टुकवा, राना बेनी माधव, हार न माने, लाल पतंग पहिला खुद का सुधारौ, समय के शब्द, हाइकू

30- रामसनेही विनय

  • जन्मस्थान : पूरे भैरोमिश्र, लालगंज
  • जन्मतिथि : 10/01/1958
  • रचनाएँ- लोक सेवक, हजारिका, आग का दरिया, टुकड़े टुकड़े दुख, ठहरे हुए पानी में

31- डॉ० प्रो० संजय कुमार सिंह

  • जन्मस्थान : डीह
  • जन्मतिथि : 01/01/1968
  • रचना- आओ मन की बीन बजाएँ

32- डॉ० अशोक कुमार अज्ञानी

  • जन्मस्थान : रामपाल खेड़ा, कुर्री सुदौली
  • जन्मतिथि : 01/08/1967
  • रचनाएं : खुनखुनिया, माहे-परसू, धिरवा, विखर जाने दो, चिरइया कहाँ रहैं

33- श्री अवधेश सिंह (अध्यक्ष जिला पंचायत रायबरेली)

  • वर्तमान पता : पंचवटी नेबाज गंज
  • जन्मतिथि : 30/08/1970
  • रचना- स्मृति कलश

34- डॉ० आजेन्द्र प्रताप सिंह

  • जन्मतिथि : 01/03/1978
  • वर्तमान पता : कृष्णा नगर रायबरेली
  • रचनाएँ- बैसवाड़े का समृद्ध कथा साहित्य, शौर्य की सरजमीं बैसवारा, जायस और मलिक मोहम्मद जायसी समग्र, बैसवारा और पं० सूर्यकांत त्रिपाठी निराला समग्र

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लेखक/संकलनकर्ता –

सरयू-भगवती कुंज,
अशोक कुमार गौतम,
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ०प्र०)
मो० 9415951459

राजा रावराम बख़्श सिंह (डौडियाखेड़ा) : सत्तावनी क्रांति के अमर नायक

राजा रावराम बख़्श सिंह (डौडियाखेड़ा) : सत्तावनी क्रांति के अमर नायक

जला अस्थियां बारी-बारी, फैलाई जिसने चिंगारी’
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर, लिए बिन गर्दन की मोल।
कलम आज उनकी जय बोल..।

(रामधारी सिंह दिनकर)

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भारत के अनेक राजा, महाराजा, ताल्लुकेदारों ने खुलकर हिस्सा लिया और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इसी श्रंखला में अवध के राजाओं और ताल्लुकेदारों के नाम अत्यंत आदरणीय हैं। अवध क्षेत्र के अंतर्गत बैसवारा स्थित डौडिया खेड़ा जनपद उन्नाव के राजा राव रामबख्श सिंह का नाम सर्वोपरि है। अंग्रेजों के विरोध में लड़ते हुए इन्होंने अपनी वीरता से अंग्रेजों को भारी क्षति पहुंचाई थी। कुछ देशीय गद्दारों की निशानदेही पर रावराम बख़्श सिंह को बनारस में अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और इन्हें अंग्रेज सिपाहियों, अंग्रेजों की महिलाओं तथा उनके बच्चों के कत्ल के अपराध में बक्सर स्थित बरगद के पेड़ पर सरेआम फांसी दे दी गई। राजा राव राम बख़्श सिंह हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से एक हैं, जिन्होंने फांसी का फंदा स्वयं अपने गले में पहना। इस नर नाहर की शौर्य गाथाएं स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं जिससे आने वाली पीढ़ी अमर सपूत पर सदैव गर्व करेगी। इनकी वीरता की कहानियां युगों-युगों तक सुनी जाएंगी।

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राजा राव राम बख़्श सिंह बैसवारा के ऐसे रणबांकुरे हैं, जिन्होंने अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए खागा-फतेहपुर रियासत के राजा दरियाव सिंह और शंकरपुर-रायबरेली रियासत के राजा राणा बेनीमाधव सिंह से हाँथ मिलाया था। कहा जाता है कि राव राम बख्श सिंह का जो वर्तमान किला गंगा नदी किनारे स्थित है, उसको छठी शताब्दी में चंद्रगुप्त ने बनवाया था। बाद में इस किले पर बाहुबली “भरों’ का शासन हो गया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद पर हमला किया

सन 1194 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कन्नौज के राजा जयचंद पर हमला किया था। उस हमले में जयचंद के सेनापति केशव राय मारे गए थे। केशव राय के दो बेटे अभय चंद और निर्भय चंद थे। सन 1215 ईस्वी में यह दोनों भाई डौडिया खेड़ा उन्नाव आ गए थे। इससे पहले डौडिया खेड़ा को संग्रामपुर के नाम से रिकॉर्ड में जाना जाता था। अभय चंद और निर्भय चंद ने वंशज के रूप में अपने वंश की वीरता का मान सदैव बनाए रखा था।

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अभय चंद के पोते सेढू राय ने भरों का किला जीता

यहां पर “भर” जाति के लोग राज्य कर रहे थे। अभय चंद के पोते सेढू राय ने भरों का किला जीता। अभयचन्द बैस ने सन 1230 ई० में अपना साम्राज्य “बैसवारा” नाम से बसाया था। इसका उल्लेख अंग्रेज कलेक्टर इलियट की पुस्तक CRONICALS OF UNNAO में मिलता है। अभय चंद के वंशज महाराजा त्रिलोकचंद प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने ही बैसवारा का विस्तार किया। त्रिलोकचंद मैनपुरी के राजा सुमेरशाह चौहान और बहलोल लोदी से जुड़े हुए थे।

सेढूराय ने किले के अंदर भी दो अभेद किलों का निर्माण कराया था। त्रिलोक चंद के 24वें वंशज राजा राव राम बख्श सिंह थे, जिन्होंने मात्र 8 वर्ष तक शासन किया और वीरगति को प्राप्त हुए।

डौड़िया खेड़ा का पूर्व नाम द्रोणमुख है

राजा रावराम बख़्श सिंह ने किले के अंदर ऐतिहासिक शिव मंदिर बनवाया साथ ही एक कुएं का निर्माण कराया था। आज भी यह मंदिर माँ सुरसरि के उत्तरी तट पर सुशोभित हो रहा है। वास्तव में डौड़िया खेड़ा का पूर्व नाम द्रोणमुख है। चंद्रगुप्त के शासन काल में 500 गांव का क्षेत्र होता था। जिसे द्रोणमुख कहते थे और उस क्षेत्र को द्रोण क्षेत्र कहते थे। डौडिया खेड़ा इसी का बिगड़ा हुआ रूप है। शाब्दिक दृष्टि से डौडिया खेड़ा का अर्थ होता है- डौड़ी (डुग्गी) पीटने वालों का गांव।

राजा रावराम बक्श सिंह के अभेद किले की भौगोलिक स्थिति की बात करें तो किला जिला मुख्यालय उन्नाव से 38 किलोमीटर दूर बक्सर के समीप डौडिया खेड़ा स्थित है। यह किला 50 फीट ऊँचे टीले पर बना हुआ है। किले के दक्षिण-पश्चिम दिशा को स्पर्श करते हुए अविरल गंगा नदी बहती रहती है। इस किले का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की तरफ था। किले का संपूर्ण क्षेत्रफल 192500 वर्गफीट तक फैला है। किले के ठीक सामने 500 मीटर दूर पूर्व दिशा की ओर रानी महल बना हुआ था, जिसका मुख्य द्वार आज भी अपने शौर्य गाथा लिए हुए खंडहर के रूप में खड़ा हुआ बदहाली के ऑंसू बहा रहा है।

सन 1857 में हर तरफ क्रांति की मशालें जल रही थी। अंग्रेजों के अत्याचार के कारण हर तरफ त्राहि-त्राहि मची हुई थी। पेशवा के राजा नाना साहब (घोघू पंत) गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे। फिर भी परेशान रहते थे, क्योंकि उनका खजाना अंग्रेज लूटना चाहते थे। नाना साहब ने इस खबर की भनक लगते ही रातों-रात अपने खजाने को गंगा नदी के रास्ते डौडिया खेड़ा भेजवा दिया था। इससे राव राम बक्श सिंह की रियासत और अधिक समृद्ध तथा शक्तिशाली हो गई थी।

उन्नाव गजेटियर के अनुसार यह क्षेत्र हमेशा से सर्वाधिक लगान देने वाला रहा है 18 वीं शताब्दी में डौडिया खेड़ा अपने रियासत से 200 पाउंड लगा देता था, जो भारत के लिए एक मिसाल था। नाना साहब स्वयं राजा राव राम बक्श सिंह को अपना दाहिना हाथ और राजा दरियाव सिंह को बायाँ हाथ मानते थे।

सन 1857 की ग़दर के बाद राजा राव राम बक्श सिंह बनारस चले गए थे। इसी दौरान अवसर पाकर अंग्रेजों ने पहली बार जून 1857, दूसरी बार नवंबर 1857 में किला पर आक्रमण कर तहस-नहस कर दिया था, फिर भी अंग्रेज खजाना नहीं पा सके।

राजा रावराम बक्श सिंह की दो रानियां थी और दोनों के कोई पुत्र नहीं था। बड़ी रानी कालाकांकर प्रतापगढ़ रियासत की और छोटी रानी रायबरेली-प्रतापगढ़ के मध्य में स्थित नायन रियासत की रहने वाली थी। गदर की शुरुआत के बाद दोनों अपने-अपने मायके चली गई थी। वहीं दोनों रानियों की मृत्यु हो गई।

राव रामबख्श सिंह बनारस में सन्यासी हो गए थे। अंग्रेजों ने अवसर का लाभ उठाते हुए रियासत के दो टुकड़े कर दिया था। पहला हिस्सा मुरारमऊ के राजा दिग्विजय सिंह को और दूसरा हिस्सा मौरावां के खत्रियों को दे दिया था। इसी लालच में आकर इन दोनों राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया और राजा राव साहब के साथ कुछ गद्दारी की थी।

सन 1857 की क्रांति के तहत 2 जून को डिलेश्वर मंदिर में 12 अंग्रेजों को राजा रावराम बख़्श सिंह ने जिंदा जला दिया था। इसमें अंग्रेज अधिकारी डीलाफौस भी जलकर मर गए थे। राजा राव राम बक्श सिंह गंगा की गोद में विराजमान शक्तिपीठ माँ चंद्रिका देवी के अनन्य भक्त थे। राव साहब चंद्रिका देवी के दर्शन के पश्चात गले में गेंदा की माला पहनते थे और उसके बाद ही सिंहासन पर बैठते थे। अंग्रेजों को जिंदा जलाने के जुर्म में राव साहब को फांसी की सजा सुनाई गई थी तत्पश्चात उन्हें पुराने बक्सर में गंगा तट पर स्थित वटवृक्ष पर 3 बार लटकाया गया, किंतु राजा राव साहब के प्राण नहीं निकले। राव साहब ने अपने गले में पड़ी माला को पवित्र गंगा की गोद में विसर्जित करके माँ गंगा से अपने को आगोश में लेने की प्रार्थना की, उसके बाद अंग्रेजों ने पुनः बरगद के पेड़ पर लटकाकर मृत्यु दंड दिया। राव साहब 28 दिसंबर 1859 को मृत्युदंड पाते हुए फांसी पर लटक कर शहीद हो गए थे। 28 दिसंबर 1859 बैसवारा का यह सूर्य हमेशा हमेशा के लिए अस्त हो गया।

जनश्रुतियों में यह भी प्रचलित है कि राव साहब शालिग्राम की सिद्ध गुटिका मुँह में रख लेते थे। इससे फांसी ठीक प्रकार से न लगने के कारण उनके प्राण बच जाते थे। ऐसा दो बार हुआ किंतु मुरारमऊ के राजा दिग्विजय सिंह को यह रहस्य मालूम था। उन्होंने अंग्रेजों को गुटिका के बारे में बताया तो, राव साहब ने गुटिका को गंगा नदी में सम्मान पूर्वक फेंक दिया। जिसे अंग्रेजों ने बहुत खोजा को गुटिका नहीं मिली। तत्पश्चात अंग्रेजों ने राव साहब को फांसी दी थी। क्षेत्रीय जनता में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश था, इसलिए जनमानस ने वट वृक्ष में आस्था प्रकट करते हुए उस पेड़ की पूजा करनी शुरू कर दी थी। तब अंग्रेजों ने डरकर उस पेड़ को ही कटवा दिया था कि कहीं जनता में बदले की आग भड़क उठे। पेड़ की पहचान बनाए रखने के लिए दूसरा बरगद का पेड़ लगाया गया है। उसी गंगा तट पर सुंदर पार्क बनवाया गया, जिसका नाम अमर शहीद राजा राव राम बक्श सिंह पार्क रखा गया है पार्क में राव साहब की विशाल मूर्ति लगाई गई है। पार्क में गुलाब वाटिका बहुत सुंदर और मनोहारी है।

राव साहब को फांसी देने के बाद अंग्रेज कोई भी निशानी डौडिया खेड़ा में नहीं छोड़ना चाहते थे, इसलिए डौडिया खेड़ा का किला गिरवाना शुरू किया, किंतु किले की छोटी सी दीवार तक मजदूर न गिरा सके, तत्पश्चात अंग्रेजों ने तोप के गोलों से किले को धराशाई कर दिया था। आज सिर्फ किला के अवशेष मात्र ही दिखाई पड़ते हैं। किले के बगल में भव्य शिव मंदिर विराजमान है, जिसको राव साहब ने बनवाया था। आक्रोश में अंग्रेजों ने अपनी बंदूक की गोलियों से मंदिर की बाहरी दीवारों पर नक्काशीदार प्रत्येक मूर्ति को कुछ न कुछ पहुंचाई थी। मंदिर के बाहर बने विशाल नंदी बैल के कान और मुँह भी अंग्रेजों ने तोड़ दिया था। यह सब आज भी जीवंत देखा जा सकता है। बैसवारा के महानायक अमर शहीद राजा राव राम बक्श सिंह का नाम सम्मान पूर्व सदियों तक सभी लोगों द्वारा लिया जाता रहेगा। राव साहब की वीरता और उनके स्मृतियों को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 28 दिसंबर को डौडिया खेड़ा में विशाल मेला और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
तब जगदंबिका पाल मिश्र ‘हितैषी‘ द्वारा सन 1916 में लिखी गयी काव्य-पंक्तियां सार्थक हो जाती है –

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा।।

सरयू-भगवती कुंज
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, साहित्यकार)
शिवा जी नगर (वार्ड नं 10) – रायबरेली (उ०प्र०)
मो० 9415951459

भारत में आपातकाल के सिंघम : लोकबंधु राजनारायण

भारत में आपातकाल के सिंघम : लोकबंधु राजनारायण

भारत अनेकता एकता की भावना को हृदय में सम्मानित करने वाला देश है। त्रेता युग, द्वापर युग, मौर्य वंश, मुगल काल, ब्रिटिश काल आदि के समय में राजनीति व कूटनीति किसी न किसी रूप में विद्यमान थी, यही नीति आज भी अखिल विश्व में गतिमान है। राजनीतिक दुर्व्यवस्था का दुष्परिणाम उस देश के जनमानस को भुगतना पड़ता है। जब सहनशक्ति अपरिमित या यूं कहें कि पराकाष्ठा को पार कर जाती है, तो आपातकालीन द्वार खोलना पड़ता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात केंद्र व प्रदेशों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ण बहुमत की सरकार रहती थी। इस सरकार ने तत्कालीन परिस्थितियों को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक लघु-कुटीर उद्योग, मिल, उच्च शिक्षण संस्थान आदि की स्थापना की। जिससे आमजन को शिक्षा, स्वास्थ्य रोजगार मिलता रहे। किंतु सत्ता सुख और अहंकार में लिया गया एक विवेकपूर्ण निर्णय और उसकी सजा को संपूर्ण भारतवासियों ने भुगता। वह निर्णय था-1975 में लगाया गया आपातकाल

राज नारायण का जन्म 23 नवम्बर सन 1917 को मोतीकोट, वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम स्व० अनन्त प्रसाद सिंह, भूमिहार ब्राह्मण थे। मार्कतूली ने राज नारायण को “भारत का जिमीकार्टर” कहा था। काशी में मोक्षदायिनी माँ गंगा के पावन तट पर रामनगर का किला है, जिसकी रोशनी और आभा संपूर्ण काशी को देदीप्यमान कर रही है। इसी काशी के मोती कोट नामक स्थान पर राज नारायण का जन्म 23 नवंबर सन 1917 को हुआ था। पिता अनंत प्रसाद सिंह भूमिहार ब्राह्मण थे, जो इसी राजमहल में रहते थे। चंदापुर कोठी रायबरेली के छोटे राजा श्री हर्षेन्द्र सिंह ने संस्मरण रूप में बताया कि राज नारायण जी सन 1971 में रायबरेली आ गए थे और चंदापुर कोठी में रहने लगे थे। राजसी ठाठ-बाट त्यागकर साधारण जीवन व्यतीत करने लगे थे। उनके हृदय में जनता के प्रति संवेदना थी। सन 1971 के लोकसभा चुनाव में राज नारायण जी इंदिरा गांधी के खिलाफ मैदान में उतरे, किंतु हार का सामना करना पड़ा था।

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इंदिरा गांधी सरकार ने सन 1974 में नागरिकों के संवैधानिक अधिकार समाप्त कर दिए थे। CRP (Code of Criminal Procedure) को भंग कर दिया गया था। इसी के साथ 1974 में ही MISA Act (Maintenance of Internal Security Act) भारत सुरक्षा अधिनियम लागू कर दिया गया था। इस अधिनियम के अंतर्गत व्यक्ति को कभी भी गिरफ्तार करके जेल भेजा जा सकता था। उस व्यक्ति को माननीय न्यायालय में पेश करने की आवश्यकता भी नहीं होती थी, न ही जमानत होती थी। यह अधिनियम लागू होते ही मानो न्यायालय पंगु हो गया था। यह अधिनियम 21 माह तक देश में लागू हो रहा MISA Act के तहत इंदिरा गांधी सरकार की यातना सहने वालों और जेल जाने वालों को उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री माननीय अखिलेश यादव (कार्यकाल 2012-17) ने लोकतंत्र सेनानी उपाधि देते हुए समय-समय पर संशोधन करते हुए रुपये 20000/माह शुरू की थी।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व० श्रीमती इंदिरा गांधी ने 25 जून सन 1975 को आपातकाल लागू कर दिया था। इंदिरा गांधी ने एक नारा दिया था- हम दो हमारे दो। जिसके लिए उन्होंने परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाया गया, जो भारत में सबसे बड़ा विरोध का कारण था। जिनके दो संताने थी, उन्हें नसबंदी कराने होगी। सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों पर दबाव था कि कम से कम 3 केस दीजिए, तब वेतन निर्गत होगा इसलिए उन्होंने विवाहित पुरुषों को भी जबरन नसबंदी करवाना शुरू कर दिया था। इसका विरोध सर्वप्रथम पटना विश्वविद्यालय में शुरू हुआ। उस समय श्री लालू यादव (पूर्व रेल मंत्री भारत सरकार, पूर्व मुख्यमंत्री बिहार) पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के अध्यक्ष थे, जिन्होंने जबरन नसबंदी के विरोध में अनशन किया था। श्री लालू यादव का विचार था कि यह आंदोलन विश्वविद्यालय परिसर में ही सीमित रहेगा। किंतु इंदिरा गांधी और आपातकाल का विरोध की चिंगारी संपूर्ण भारत में भड़क चुकी थी। उसी समय लालू जी की धर्मपत्नी श्रीमती राबड़ी देवी ने एक सुकन्या को जन्म दिया था, जिसका नाम मीसा भारती रखा था।

जनता पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी आदि ने मिलकर निर्णय लिया कि इंदिरा गांधी के खिलाफ सन 1977 के लोकसभा चुनाव में सशक्त उम्मीदवार उतारा जाए। भारत में तीखे तेवर वाले और सत्य का पक्ष लेने वाले राजनेताओं की कमी नहीं है। हमारे देश में ऐसे अनेक नेता हुए हैं, जिनके विद्रोही तेवर ने नई पहचान दी है। इन्हीं नेताओं में से एक राजनारायण भी थे। जिनके बारे में डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने कहा था- जब तक राजनारायण जीवित है तब तक लोकतंत्र मर नहीं सकता है। डॉ राम मनोहर लोहिया के इस कथन के आलोक में यह सिद्ध होता है कि लोकतंत्रात्मक संरक्षा के लिए सपाट बयानबाजी वाले राजनेताओं की सदैव जरूरत पड़ती है। भारतीय संसदीय परंपरा को आदर्शात्मक ऊंचाई प्रदान करने वाले राज नारायण जी सन 1966 से 1972 और 1974 से 1977 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। लोकसभा में दो बार निर्वाचित हुए।

जब राजनारायण के व्यक्तित्व की बात आती है, तो उनका विद्रोही तेवर सर्वप्रथम हमारे सामने आता है। ब्रिटिश सरकार की चूले हिलाने वाले राज नारायण कभी भी सत्ता के मोह में नहीं फंसे। वह जमीन से जुड़े नेता थे और इसी कारण जनता ने उन्हें “लोकबंधु” की उपाधि दी थी। आजादी के पहले हो अथवा बाद में, उन्होंने लोकहित से जुड़े हुए लगभग 700 आंदोलन किए और 75 से अधिक बार जेल यात्रा की। खास बात यह है कि आपातकाल के पश्चात जब सन 1977 में केंद्र सरकार में मोरार जी देसाई के मंत्रिमंडल में राज नारायण जी स्वास्थ्य मंत्री बने तो, अपनी ही सरकार का विरोध करने लगे थे। उनका कहना था कि चाहे सरकार में रहे, अथवा सरकार से बाहर। सरकार की जनविरोधी नीतियों और गलत बातों का हमेशा विरोध करेंगे। रायबरेली से उनकी तमाम स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। उन्होंने अपने जीवन के कई वसंत इस जनपद में बिताए हैं। इस दौरान अपने फक्कड़पन के कारण रायबरेली के लोगों के बीच अति प्रिय बन गए। न कोई दिखावा, न कोई तड़क-भड़क बल्कि,एक सामान्य व्यक्ति की भाँति जनता के बीच घुल-मिल जाना उनका स्वभाव था। संघर्ष के प्रति ऐसी निर्भीक आस्था अन्यत्र दुर्लभ है। इनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि विरोधियों ने जनता के बीच में नाटकीय अंदाज में राज नारायण को राजनीति का जोकर तक कहा। फिर भी रायबरेली की जनता ने इंदिरा गांधी के लिए रंच मात्र भी हमदर्दी नहीं दिखाई।

राजनारायण जैसा नेता कहाँ मिलेगा, जिसकी पूरी जिंदगी फक्कड़पन में गुजर गई हो और अपने परिवार के लिए कोई संपत्ति अर्थात फूटी कौड़ी तक न छोड़ी हो। उनके संघर्षपूर्ण जीवन का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव हार गए तो, माननीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और इंदिरा गांधी को खुद न्यायालय में उपस्थित होना पड़ा था। राज नारायण ने सन 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पर चुनावी कदाचार का केस इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर किया था। न्यायमूर्ति श्री जगमोहन सिन्हा ने 12 जून 1975 को केस पर निर्णय दिया कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग और प्रधानमंत्री पद की गरिमा गिराई है, इसलिए 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई जाती है।

संपूर्ण भारत में इंदिरा गांधी के नाम का डंका बज रहा था। उनके खिलाफ बिगुल फूँकना आसान न था। राज नारायण के आंदोलन से रायबरेली की जनता उत्साह से लबरेज थी। उत्साहित युवा वर्ग रायबरेली के लोकसभा चुनाव 1977 में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा था। सबके मन में सत्ता परिवर्तन की लहर दौड़ रही थी। मानो भावी सांसद राज नारायण के रूप में स्वयं ईश्वर रायबरेली की धरा पर उतर आया हो। इंदिरा गांधी ने सभी समाचार पत्रों पर प्रतिबंध लगा दिया था। बीबीसी लंदन और ऑल इंडिया रेडियो प्रमाणिक समाचार जनता तक पहुंचा रहे थे। जो राजनारायण के जनांदोलन में मील का पत्थर साबित हो रहे थे।

जहां-जहां राजनारायण चुनावी सभाएँ करते थे। जनता को आकर्षित करने के लिए गांधी की सभा भी वहीं पर लगा दी जाती थी। इंदिरा गांधी के पास सरकारी मशीनरी और कई गाड़ियां थी तो राजनारायण के पास सिर्फ एक जीप। भीड़ का उत्साह किसान, मजदूर, व्यापारी, विद्यार्थी आदि राजनारायण के साथ था। इंदिरा गांधी को हार का डर पूरी तरह से सताने लगा था। राज नारायण ने MA, LLB की उपाधि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, काशी से प्राप्त की थी। अंग्रेजी और भोजपुरी के अच्छे ज्ञाता व जानकर थे। फिर भी उन्होंने हिंदी का समर्थन सड़क से संसद तक किया। यद्यपि रायबरेली में कई वर्षों से रहने के कारण अवधी भी बढ़िया बोलते थे। उस समय ग्रामीण मतदाताओं की शैक्षिक योग्यता न के बराबर थी। इसलिए राजनारायण जी चुनावी सभाओं में ग्रामीणों से जन-संवाद में बैसवारी भाषा का प्रयोग करते थे। राजनारायण जी सिर पर हर कपड़ा बाँधकर क्षेत्र में निकलते थे, जो समाजवाद की एकता का प्रतीक था।

सन 1977 में लोकसभा चुनाव में विश्व प्रसिद्ध आयरन लेडी श्रीमती इंदिरा गांधी के खिलाफ राज नारायण प्रत्याशी अवश्य थे, किंतु रायबरेली की गलियों की सड़कों पर ऐसा अपार जनसमूह उमड़ रहा था, मानो लोकसभा आम चुनाव राज नारायण नहीं, अपितु यहाँ की जनता चुनाव लड़ रही है। रायबरेली निवासी श्री कृष्णानंद अदीब सन 1977 के लोकसभा चुनाव के मतगणना के मुख्य एजेंट थे। अदीब ने बताया कि इंदिरा गांधी कार्यवाहक प्रधानमंत्री होने के कारण सरकारी अमला उनके साथ था, किंतु यही अमला अंतर्मन से निडर नेता राजनारायण के साथ। रायबरेली जनपद के जिस बूथ की पेटी खुलती थी, उस बूथ की मतगणना शुरू होने से पहले ही मानो राज नारायण की झोली मतों से भर जाती थी। लोकसभा चुनाव 1977 का परिणाम आया तो, पूर्वानुमान के अनुसार राज नारायण विजय घोषित हुए। उसके बाद इंदिरा गांधी इतनी शर्मिंदा हुई कि उन्होंने रायबरेली से दुबारा लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा।

राज नारायण हमेशा सत्ता और शोषण के खिलाफ रहते थे, इसलिए उनका राजनीतिक प्रयोग दीर्घायु न हो सका। उन्होंने आजीवन समाजवादी सिद्धांतों की राजनीति की और अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। स्वर्गीय इंदिरा गांधी को धूल चटाने वाला कोई मामूली आदमी नहीं हो सकता है। राज नारायण के विषय में कहा जाता है कि- अगर राजनेता न होते तो पहलवान होते। वे समाजवाद के क्रांतिकारी नेता थे, जिन्होंने गैर कॉंग्रेस को परिपुष्ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। फक्कड़ स्वभाव वाले राज नारायण जी सरेनी, भोजपुर, दौलतपुर, ऊँचाहार, फुरसतगंज, बछरावां, करहिया बाजार आदि क्षेत्रों के पगडंडियों व खेतों-मेड़ों आदि में अकेले ही चल पड़ते थे। देखते ही देखते कुछ पल में उनके पीछे कारवां निकल पड़ता था। आपने समय का ख्याल और पालन करना, मानो महात्मा गांधी सीखा हो। राज नारायण की अनेक खूबियों के कारण कलम और कृपाण की सरजमी रायबरेली की जनता उन्हें सर-आंखों पर बैठाती थी। आज भी रायबरेली के गाँवों में सन 1971 और सन 1977 के संस्मरण लोगों के जवाबी याद हैं और लोग उन्हें चटकारे ले-लेकर सुनाते हैं। अपनी स्पष्टवादिता के कारण राजनारायण जी जन-सामान्य में लोकप्रिय थे। भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री भैरों सिंह शेखावत ने 21 मार्च सन 2007 को राज नारायण के नाम पर डाक टिकट भी जारी किया था। महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन जैसे अनेक आंदोलनों में राज नारायण जी ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था, इसलिए कहा जाता है कि राज नारायण का एक पैर रेल में, दूसरा पैर जेल में रहता था। समाजवादी विचारक, मस्तमौला, विधायक, सांसद (लोकसभा, राज्यसभा) ने दिल्ली के राम मनोहर लोहिया चिकित्सालय में 31 दिसंबर सन 1986 को अंतिम सांस ली और दुर्भाग्यवश सुबह-ए-बनारस का राजनारायण रूपी सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया। मृत्यु के समय आपके बैंक खाता में मात्र 4500 रुपए थे। आपने अपनी जमीन का बड़ा भूभाग दलितों-पिछड़ों को दान कर दिया था। ऐसे महापुरुष को शत शत नमन…।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर,
अध्यक्ष- हिंदी विभाग श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय रायबरेली (उ०प्र०)
मो० 9415951459
संचार क्रांति और भाषिक उदासीनता | हिंदी दिवस विशेष

“संस्कृत माँ, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है।” ◆डॉ फादर कामिल बुल्के।

विभिन्न मामलों में प्रगति के विविध सोपानों को तय करता हुआ हमारा देश भारत समृद्धि के पथ पर अग्रसर है। सूचना-क्रांति के इस युग में आज भौतिकता की दृष्टि से जितना समृद्ध हम आज हैं, उतना पहले कभी न थे। हम आध्यात्मिक दृष्टि से भले ही पिछड़ गए हैं, लेकिन कला, कर्म और कौशल को विकसित करके हमने स्वयं को सुखी बनाने का हर संभव प्रयास किया है। भौतिकता की दौड़ में जो सबसे खतरनाक है, वह है हमारी भाषिक उदासीनता।

भाषिक का अर्थ विशेष संदर्भ में भाषाओं के संबंध में है, लेकिन क्योंकि हम भारत में रहते हैं इसलिए यहां भाषा का अर्थ हिंदी भाषा के सन्दर्भ में ग्रहण किया जाना चाहिए। अपने 1000 वर्षों के इतिहास में क्रमशः संस्कृत – पालि – प्राकृत और अपभ्रंश से निकली हुई हिंदी स्वतंत्रता के पूर्व तक अपने मार्ग को प्रशस्त कर रही थी। परन्तु पता नहीं, कैसी वैमनस्य की हवा चली कि आजादी के बाद जो देश की संवैधानिक स्थितियां बनी, उसमें हमारे वरिष्ठ-कनिष्ठ नेताओं का हिंदी के प्रति मोह भंग होता गया। जबकि आजादी की लड़ाई में हिंदी का योगदान अविस्मरणीय है।

अंग्रेजी के अल्पज्ञान ने हिंदी को पंगु बना दिया।”अशोक कुमार गौतम।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में 14 सितंबर सन 1949 ई० को संविधान सभा की लंबी चर्चा हुई, तब उसी दिन शाम को राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकृति प्रदान की गई। इसलिए प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। संविधान का अनुच्छेद 343 (1) के तहत भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी, लिपि देवनागरी और गणितीय अंक अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार 0 1 2 3 4 5 6 7 8 9 मान्य होंगे। भाषा संबंधी उपबंध संविधान के अनुच्छेद 349 से 351 तक वर्णित है। महात्मा गांधी ने हिंदी के रूप में हिंदुस्तानी को अपनाने की बात कहकर प्रकारांतर से हिंदी पर बड़ा उपकार किया है।

“वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है, जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके।” ◆पीर मुहम्मद मूनिस।

हिंदी भाषियों ने भी हिंदी को बढ़ाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हिंदी का हतभाग्य यह रहा कि आजादी के बाद अभिजात्य वर्ग का अंग्रेजी के प्रति मोह बना रहा और अंग्रेजी का यह व्यापक मोह अभिजात वर्ग से नीचे की ओर अर्थात जनसामान्य में उतरता चला गया। आज स्थिति यह हो गई है कि हिंदी के प्रदेशों में भी कोई भी व्यक्ति अपने बच्चों को न तो हिंदी माध्यम से शिक्षा देना चाहता है और न ही हिंदी पढ़ाना चाहता है। रही-सही कसर संचार व्यवस्थाओं ने तोड़ कर दी है। दुःख इस बात का है कि हम आज तक इंजीनियरिंग और मेडिकल के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम हिंदी माध्यम से तैयार नहीं कर पाए हैं। विद्यार्थियों में मेडिकल और यांत्रिकी की पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती। मन में भ्रम समाया हुआ है कि विज्ञान की सम्पूर्ण पढ़ाई हिंदी में नहीं हो सकती अर्थात देशी भाषाएं इस कार्य के लिए नकारा है, जबकि ऐसा नहीं है।

संसार में बहुत से ऐसे देश हैं जो चिकित्सा, तकनीक, यांत्रिक और यहां तक मानविकी विषयों की पढ़ाई अपनी भाषा में करते हैं और आज संसार की दौड़ में सबसे आगे हैं। हम उपरोक्त विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी में करके भी पीछे हैं। इससे सिद्ध होता है कि उन्नति और प्रगति के लिए अंग्रेजी अनिवार्य नहीं है, लेकिन संकल्प की अनिवार्यता अवश्य होनी चाहिए। अंग्रेजी व्यापारिक भाषा है तो, हिंदी दिलों से दिलों को जोड़ने वाली स्नेहमयी भाषा है।

“राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी ही जोड़ सकती है।” ◆बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’।

भारत वासियों का एक बड़ा हिस्सा हिंदी बोलता है, एक छोटा हिस्सा अंग्रेजी प्रभाव वाला है, जो ऊँचे-ऊँचे पदों पर अथवा सरकार में बैठा और शासन करता है। इन्हीं नीति नियंताओं के कारण हिंदी की उपेक्षा कहीं न कहीं हो रही है। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने घोषणापत्र में भाषा की बात नहीं करती है। कारण कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि शासक और शोषितों की भाषा हमेशा अलग अलग रहती है। अब तो आत्मचिंतन करने पर महसूस होता है कि हिंदी गरीबों की भाषा और अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगों की भाषा बन गई है। हिंदी की प्रगति इसका रोजगार से न जुड़ना भी एक बाधा है। यह भी देखा गया है कि हिंदी का झंडा उठाने वाले घरों का वातावरण अंग्रेजीमय है। ऐसी स्थिति में हिंदी के प्रति न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

अशोक कुमार गौतम,

असि० प्रोफ़ेसर, साहित्यकार

शिवा जी नगर, दूरभाष नगर रायबरेली

मो० 9415951459

पूर्वजों का स्मृतिकाल पितृपक्ष

अश्विन (क्वांर) मास की कृष्ण पक्ष की प्रथमा तिथि से अमावस्या तक पितृपक्ष मनाया जाता है। पितृपक्ष का शाब्दिक अर्थ है- पिता का पक्ष, अर्थात पूर्वजों का पखवाड़ा। “श्रद्धया इदं श्राद्धम”, अर्थात जो कार्य श्रद्धा से किया जाए, वही श्राद्ध है। इसी अन्तःमंन भावना से पूर्वजों (पितरों) को जल देकर स्मरण किया जाता है, उनसे परिवार की खुशहाली के लिए आशीर्वाद लिया जाता है। माता-पिता और पूर्वज ही असली परमात्मा और प्रथम गुरु हैं। इनका अनादर करने वाली संतानों को कभी मानसिक और आध्यात्मिक संतुष्टि नहीं मिलती है। हिंदू धर्म में मान्यता है कि श्राद्ध पक्ष में पूर्वज आशीर्वाद देने आते हैं, जिनके लिए हम विधि-विधान से उनकी पुण्यतिथि को पूजा अर्चन करके स्मरण करते हैं।

जीवनशैली साधारण हो जाती, नई सामग्री कपड़े आदि नहीं खरीदते हैं जो कहीं न कहीं फिजूलखर्ची को रोकता है। प्रातःकाल सूर्य की तरफ़ देखकर पूर्वजों को जल देते हैं, यह समय सूर्य से विटामिन डी लेने का संकेत भी है, जो यह सिद्ध करता है कि शरद ऋतु का आगमन हो चुका है। वहीं अगर विज्ञान और आत्मज्ञान को केंद्र में रखकर चिंतन करें, तो हम पाएंगे कि आत्मा नहीं मरती बल्कि शरीर नश्वर है। इसलिए कोई पूर्वज मृत्युपरांत भोजन जल आदि ग्रहण करने नहीं आता है, फिर भी जिन्होंने हमें जन्म दिया, सजाया, सँवारा, खून पसीना एक करके हमें काबिल इंसान बनाया है। उनकी स्मृतियों को संजोये रखने के लिए पितृपक्ष मनाया जाता है।

ऐसे महान पूर्वजों को हम न भूल पायेंगे और न ही उनका कर्ज उतार पाएंगे। इसलिए पितृपक्ष में उन्हें स्मरण करके अपनी दिनचर्या शुरू करना ही वास्तविक श्रद्धा है। फिर भी आस्था विज्ञान पर सदैव भारी रही है। अश्विन मास में मौसम में अनेक बदलाव आने लगते हैं। यह पखवाड़ा ग्रीष्म ऋतु का समापन और शरद ऋतु का आगमन का संकर काल है, जो स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं है। मौसम प्रतिकूल रहता है। इसी मास में खरीफ की फसलें जैसे ककड़ी, चावल, ज्वार, उड़द, मूंग का आदि पकना और कटना शुरू हो जाता है, जो हमें सात्विक भोजन करने के लिए प्रेरित करता है। पितृपक्ष में तामसी भोजन (मांसाहारी) निषिद्ध है, कबीरदास ने भी मांसाहारी भोजन और पशुबलि का विरोध किया है। हमें अपने पूर्वजों की स्मृतियों को चिरस्थाई बनाये रखने के लिए उनकी यादों और उनके सत्कर्मो से भी स्नेह बनाये रखना चाहिए।

डॉ० सोनिका, अम्बाला छावनी, हरियाणा।

अशोक कुमार गौतम असि०प्रोफेसर, रायबरेली

मो० 9415951459

सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम

सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम

अशोक कुमार गौतम असिस्टेंट प्रोफेसर, अध्यक्ष- हिंदी विभाग श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय रायबरेली (उ०प्र०) मो० 9415951459

भारत प्राचीन काल से तार्किक, आध्यात्मिक, दार्शनिक व बौद्धिक शिक्षा का केंद्र रहा है। हमारे देश को अपनी सभ्यता, संस्कृति, विरासत और परंपराओं का पोषक तथा रक्षक कहा जाता है, वहीं भारत को पुरुष प्रधान देश की संज्ञा जाती है। स्त्री को देवी लक्ष्मी, आदिशक्ति, मां अन्नपूर्णा, सरस्वती आदि कहा जाता है, परंतु स्त्री का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक शोषण किया जाता है और उसी को दोयम दर्जे की समझा जाता है। उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। यहाँ तक, कोई महिला ग्राम पंचायत स्तर से संसद सदस्य के रूप में जन-प्रतिनिधि चुनी तो जाती है, किंतु उसके संवैधानिक तथा नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन पति या पुत्र करता है। उसके बाद भी नारी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुई है।

स्त्रियों को कलम और कृपाण चलाना बखूबी आता है, जरूरत है सिर्फ उसे मार्गदर्शन की। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-

“लोगों को जगाने के लिए महिलाओं का जागृत होना जरूरी है।”

नारी प्रकृति की शक्ति है तो पुरुष शक्तिमान। शक्ति के बिना शक्तिमान का कोई अस्तित्व नहीं है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण में भी नारी की प्रधानता रही है। सावित्रीबाई फुले, रजिया सुल्तान, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स आदि ने न सिर्फ अपने हाथों में कलम उठाई, आवश्यकता पड़ने पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तलवार भी उठाई है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। हमारे विचार बहुत श्रेष्ठतम होने चाहिए किंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया है। दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, अशिक्षा, अधिकारों का शोषण आदि करने में पुरुष वर्ग आज भी पीछे नहीं है। अफसोस है कि यह अक्षम्य अपराध करने वाले अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्र के न होकर, नगरों के उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवार से होते हैं।

घर की लक्ष्मी या यूँ कहें कि प्राइवेट बैंक है नारी। कोरोना काल में जब लोगों के रोजगार छिन गए थे, व्यापार ठप हो गया था। तब घर की लक्ष्मी रूपी नारी ने ही पूर्व में पाई-पाई जोड़ा गया धन से संकट के समय अपने परिवार की जीविका चलाई थी। नारी सृष्टि की निर्मात्री है। हम भूल जाते हैं कि जब संसार बेटियाँ नहीं होंगी तो हम बहू कहाँ से लाएंगे? सही मायने में बेटियां ही मौत के मुँह में जाकर भी संतानों को जन्म देकर वंश चलाती हैं, पुरुष नहीं।

कोई भी देश तरक्की के शिखर में तब तक नहीं पहुँच सकता, जब तक उस देश की महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर न चल सके। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की उपज एक मजदूर आंदोलन से मानी जाती है, जिसकी नींव सन 1908 ई० में पड़ गई थी, किंतु उस समय स्त्री की आवाज पुरुष प्रधान देश में दबकर रह गई थी, उसके बाद आधिकारिक रूप 08 मार्च सन 1975 को पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था। हृदय से स्त्री का सम्मान करते हुए प्रतिदिन महिला दिवस मनाना चाहिए।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली
मो० 9415951459

रामधारी सिंह दिनकर : राष्ट्र के सजग प्रहरी

‘मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है’ ◆ रामधारी सिंह दिनकर

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर सन 1908 को बिहार राज्य में बेगूसंराय जनपद के सिमरिया ग्राम में हुआ था। दिनकर की कविताएँ छायावादोत्तर युग (प्रसादोत्तर युग) के प्रगतिवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। दिनकर ने हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू का अध्ययन किया है। दिनकर जी अनवरत प्रगतिपथ पर बढ़ते हुए प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक, बिहार सरकार की सेवा में प्रचार-प्रसार विभाग में उपनिदेशक, मुजफ्फरपुर में हिंदी विषय में प्रोफेसर, फिर सत्यनिष्ठा के साथ बुलंदियों की ओर बढ़ते हुए भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे हैं। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर की योग्यताओं और राष्ट्रप्रेम को परखते हुए दोनों साहित्यकारों को सन 1952 में राज्यसभा सदस्य मनोनीत था।

संत कबीरदास, पं० सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नागार्जुन को साहित्य जगत में ‘विद्रोही कवि’ की संज्ञा दी गई है, जिन्होंने निडरता के साथ सत्य को सत्य और गलत को गलत कहा है। उसी परिपाटी पर दिनकर जी भी खरे उतरते हैं। दिनकर जी प्रशासनिक कार्यों में दक्ष, मृदुभाषी, बेबाक लेखन करने वाले, निडर, व्यक्तित्व के धनी और देश की बात आने पर विद्रोही भावना के पोषक थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया था, फिर भी देश हित की बात आने पर पंडित नेहरू पर भी टिप्पणी करने से दिनकर जी पीछे नहीं हटे-

“देखने में देवता सदृश्य लगता है,
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा हो,
समझो उसी ने हमें मारा है।”

दिनकर जी की प्रमुख रचनाएँ-

काव्य– कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, धूप और धुआँ, कोयला और कवित्व, द्वंद्व गीत, उर्वशी, हुंकार, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार, विपथगा आदि।
निबंध– मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, रेती के फूल, प्रसाद और मैथिलीशरण, शुद्ध कविता की खोज आदि।
संस्कृति प्रधान ग्रंथ– संस्कृति के चार अध्याय, हमारी सांस्कृतिक एकता, भारतीय एकता आदि।
यात्रा वृत्तांत– देश विदेश, लोकदेव नेहरू।
संस्मरण– दिनकर की डायरी।
लघुकथा– उजली आग।

रामधारी सिंह दिनकर को सन 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, सन 1959 में पद्म विभूषण पुरस्कार और सन 1972 में और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘कुरुक्षेत्र’ प्रबन्धकाव्य के माध्यम से त्रेता युग, द्वापर युग से आधुनिक युग में समन्वय स्थापित करने वाले, इंसान के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाले आधुनिक काल के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी वृद्धावस्था में काशी में रहते थे और वहीं काशी में ही 24 अप्रैल सन 1974 को चिर निंद्रा में लीन हो गए।

‘राष्ट्रप्रेम/राष्ट्रीय भावना’ शब्द पर गहराई से चिन्तन किया जाए, तो इसका बहुआयामी अर्थ सागर जैसा विशालकाय दिखाई पड़ेगा, जिसे किसी संकुचित परिधि में बाँधा नहीं जा सकता। राष्ट्रप्रेम से आशय भारतीय संस्कृति, संविधान, प्रकृति, जीव जंतु, मानव आदि से आत्मीय प्रेम और इन सबसे ऊपर मानवता पर आधारित है।

रामधारी सिंह दिनकर प्रगतिवादी कवि और राष्ट्रवाद के पोषक हैं। दिनकर का नाम पढ़ते ही मन में ओज, महाभारत के युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी, भीम जैसा बल और अन्य पात्रों का कर्म-धर्म तथा भारत के प्रति स्नेह उमड़ने लगता है। शोषित वंचित की दयनीय स्थिति, शोषकों के प्रति घृणा, धर्म और ईश्वर के प्रति अनास्था दिनकर जी का प्रमुख विषय रहा है।

हिंदी काव्य में प्रगतिवाद का उद्भव सन 1936 में हुआ। उस समय “कृपाण और कलम” आजादी पाने की दीवानी थी। प्रगतिवाद मार्क्सवाद से प्रभावित था। दिनकर जी के प्रगतिवाद का केंद्र बिंदु शोषित, कृषकों, मजदूरों और पीड़ितों मनोदशा है, जिसको सहानुभूति के साथ वर्णित करते हुए ‘विपथगा’ (1939) कविता में लिखा था-

“श्वानों को मिलता दूध, वस्त्र,
भूखे बालक को अकुलाते हैं।
माँ की छाती से चिपक, ठिठुर,
जाड़े की रात बिताते हैं।”

स्त्रियों के प्रति सहानुभूति, पीड़ा, अशिक्षा, त्याग, ममता, लज्जा, सम्मान आदि को मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे कवियों ने अपना का प्रमुख विषय बनाया है, तो देश के सजग प्रहरी दिनकर ने भी इसी दृष्टिकोण पर केंद्रित विषय का चयन किया। स्त्री की अस्मिता को झकझोरने वाले स्वस्वार्थी शोषकों को खरी-खोटी सुनाते हुए दिनकर जी ने “विपथगा” कविता (1939) में लिखा है-

“युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा दृव्य बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण..”

सहृदयी रामधारी सिंह दिनकर ने तत्कालीन घटनाओं, यातनाओं, विषमताओं को बहुत बारीकी से देखा है। प्रगतिवादी कवियों ने शासकों को छलिया, कपटी, निर्मोही की संज्ञा दी है। पूँजीवादी चाहते थे कि उद्योगधंधे, जमींदारी, शिक्षा, व्यापार चंद लोगों की मुट्ठी में हो, तभी शोषितों, वंचितों पर शासन और अत्याचार किया जा सकता है। शोषक वर्ग का विरोध करते हुए दिनकर जी ने लिखा है-

“हो यह समाज चीथड़े चीथड़े,
शोषण पर जिस के नींव पड़ी।”

प्रगतिवादी काव्य में धर्म और ईश्वर का कोई स्थान नहीं है, अपितु इन्हें शोषण का हथियार माना जाता है। दिनकर ने इस सत्य को स्वीकारते हुए कर्म को प्रधान मान करके महाभारत के निर्णायक युद्ध और संघर्ष आधारित कविता ‘कुरुक्षेत्र’ (1946) में लिखा है-

“भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का।
जिससे रखता दबा एक जन, भाग दूसरे जन का।।”

रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में त्याग, तपस्या, करुणा, क्षमा के साथ उग्र चेतना का भी प्रादुर्भाव मिलता है। जब हिंसक पशु भोले-भाले इंसान को घेर लेते हैं तो बल बुद्धि दोनों का प्रयोग करना पड़ता है। दिनकर जी ने प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में उक्त संदर्भ का विवेचन करते हुए लिखा है-

“हिंस्त्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर।”

न्याय की आस में शोषित वर्ग एक उम्मीद की लौ मन में जलाए रखता है। ‘कुरुक्षेत्र’ में युद्ध और शांति दोनों समस्या को उठाया गया है। जब तक शोषित उदारता दिखाता है, तब तक शासकों द्वारा उसे और अधिक सताया दबाया जाता है। जिस दिन दलित इंसान भागते-भागते अचानक उग्र स्वभाव के साथ दुश्मनों पर झपट्टा मारने को रुक जाता है, तब दिनकर जी की लेखनी निरीह इंसानों में ओज तत्व भरती है। जब न्यायोचित अधिकार माँगने से नहीं मिलता है, तो तेजस्वी व्यक्ति युद्ध से प्राप्त करना चाहता है या मृत्यु को प्राप्त होना बेहतर समझता है-

“न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिले तो लड़ के।
तेजस्वी छीनते समर में जीत या कि खुद मर के।।”

‘विज्ञान’ को वरदान है अथवा अभिशाप?


इस तथ्य पर आज भी बहस जारी है। विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार व्याख्या की है। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व विज्ञान और वैज्ञानिक उप्लब्धियाँ न के बराबर थी। दिनकर दूरदृष्टा थे, जिन्होंने एक तरफ विज्ञान का समर्थन करते हुए कहा था कि विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण इंसान दूसरे ग्रहों में घर बसाना चाहता है, या यूँ कहें, अखिल विश्व मुट्ठी में समाहित है। यहाँ तक, वर्षा, विद्युत, भाप, तापमान आदि इंसान के इशारों पर घटते-बढ़ते हैं-

“आज की दुनिया विचित्र, नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप,
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।”

दूसरी तरफ, दिनकर जी को राष्ट्र की चिंता भी है। भौतिकवादी सुख-साधन के लिए जिस गति से विज्ञान प्रगति कर रही है वह पर्यावरण, मानव और मानवता का ह्रास जल्दी ही करेगी। वह भविष्यवाणी आज चरितार्थ हो रही है। दिनकर ने मार्मिकतापूर्ण विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि विज्ञान तलवार के समान है, जरा भी लापरवाही बरतने पर शारीरिक, मानसिक, आर्थिक छति हो सकती है-

“सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान,
फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान।
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी धार।”

सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कविकर्म निभाते हुए निडर होकर दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ कविता लिखी थी। इस कविता में देश की अस्मिता की रक्षा करने के लिए सत्ताधारियों और विपक्ष के नेताओं के अंदर हुँकार और पौरुष भरने के लिए सिंह गर्जना करते हुए लिखा था-

“वैराग्य छोड़ बाहों की विभा संभालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो।
है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो।

रामधारी सिंह दिनकर ने ‘कलम, आज उनकी जय बोल’ कविता ही नहीं लिखा, अपितु हर भारतीय की मार्मिक पीड़ा लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है। भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र कराने के लिए जो वीर सपूत हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गए थे, उन वीरों के शौर्य का वर्णन करके अमर शहीदों के श्री चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दिनकर ने लिखा है-

जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अशोक कुमार गौतम (असिस्टेंट प्रोफेसर)
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459

मानस का हंस : तुलसी के जीवन की अनकही कहानी | Manas ka Hans

उपन्यासकार अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त सन 1916 को गोकुल पुरा आगरा में हुआ। पिता का नाम राजाराम नागर और पितामह (बाबा) का नाम पंडित शिवराम नागर था। बाबा शिवराम जी सन 1895 में लखनऊ आकर स्थाई निवासी बन गए। आपकी बाल्यावस्था में ही पिता का निधन हो गया, जिसकी वजह से घर की जिम्मेदारी आप पर आ गई थी। हाई स्कूल तक की स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी, उसके बाद घर पर ही अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत का अध्ययन किया।

प्रमुख रचनाएँ

अमृतलाल नागर जी के प्रमुख उपन्यास- बूँद और समुद्र, शतरंज के मोहरे, सुहाग के नूपुर, मानस का हंस, करवट, सात घुंघट वाला मुखड़ा आदि हैं।
अमृतलाल नागर की प्रमुख कहानियाँ- वाटिका, अवशेष, तुला राम शास्त्री, एटम बम, पीतल की परी, भारत पुत्र नारंगी लाल, सिकंदर हार गया आदि हैं।
नागर जी के प्रमुख नाटक- युगावतार, बात की बात, चंदन वन, चढ़त न दूजा रंग आदि हैं। साहित्य के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले अमृतलाल नागर जी की मृत्यु ‘किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ’ में 23 फरवरी सन 1990 ई० को हुई थी।

प्रस्तुत है मानस का हंस उपन्यास की संक्षिप्त समीक्षा, जिसके लेखक अमृत लाल नागर जी हैं। इस उपन्यास को नागर जी ने रामनवमी 23 मार्च 1972 ई० को पूर्ण किया था।

“श्री राम का जीवन दर्शन, समन्वयवादी विचारधारा, विश्व की हर मुश्किल का हल खोजना हो तो तुलसीदास कृत महाकाव्य श्री रामचरित मानस पढ़ना चाहिए। तुलसीदास का शूलों भरा सम्पूर्ण जीवन, प्रभु श्री राम में आस्था, प्रेम, विरक्ति, समर्पण, त्याग, नारी प्रेम में अत्यधिक आसक्ति से विरक्ति आदि को जानना हो, तो अमृतलाल नागर कृत मानस का हंस पढ़ना श्रेयस्कर होगा। अमृतलाल नागर जी महान साहित्यकार हैं, साहित्य जगत में मील का पत्थर हैं। आपकी साहित्यिक यात्रा का एक अंश मात्र अथवा ‘मानस का हंस’ उपन्यास की समीक्षा करना मेरे वश में नहीं है, फिर भी लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।”अशोक कुमार गौतम

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‘मानस का हंस’ उपन्यास की कथावस्तु को नागर जी ने 31 अंकों में विभाजित किया गया है। कथावस्तु का प्रारंभ संपूर्ण देश में मुगलों द्वारा की जा रही लूटपाट का प्रतीक विकरमपुर (विक्रम पुर) जनपद बांदा से होता है। उसी गाँव में रामबोला (तुलसीदास) का जन्म सम्वत 1589 वि० (सन 1532 ई०) में हुआ था। जन्म के समय मुख में 32 दांत और जन्म लेते ही मुख से ‘राम’ शब्द निकला था, इसलिए ‘रामबोला’ नाम रखा गया था। गाँव में ही माताजी का मन्दिर है, उसी मन्दिर में बच्चे खेलने के लिए और बृद्धजन पूजा करने के लिए एकत्रित होते हैं। एक वृद्धा कहती है-

“हमें तो आत्मा की बहुरिया ने अटकाए लिया, नहीं तो अपनी बिटिया बहुरियन के साथ हम भी जमुनापार हुई जाती अब तलक।”

रामबोला के पिता का नाम पंडित आत्माराम दुबे, जो प्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान थे। माता का नाम हुलसी था। रामबोला का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। वह नक्षत्र माता-पिता के लिए काल के समान था। ठीक वैसे ही बालक राम बोला को जन्म देते ही माता हुलसी स्वर्गवासी हो गई। रामबोला के पिता आत्माराम प्रसिद्ध विद्वान और ज्योतिषी थे, उनके कहने से ही दासी मुनिया रामबोला को लेकर जमुनापार अपनी सास के पास छोड़ आई थी। रामबोला का पालन-पोषण करने वाली मुनिया की सास को रामबोला पार्वती अम्मा कहते थे। बालक वहीं पर वह पढ़ता और भीख माँगता था। रामबोला की 5 वर्ष की उम्र में पार्वती अम्मा का भी स्वर्गवास हो गया। भिक्षुक राम बोला एक द्वार पर गा रहा था-

“हम भक्तन के भक्त हमारे, सुन अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे। टरत न टारे… टरत न टारे.. टारे..रे..रे।” (पृष्ठ 18)

रामबोला भटकते हुए सूकरखेत (गोंडा) पहुँच गए, वहाँ पावन सरयू और घाघरा नदी के मध्य हनुमान जी का मंदिर था, वहीं पर रहने लगे। अन्य भक्तगण मंदिर के चबूतरे पर लाई, चना, गुड़ आदि बंदरों के लिए डाल जाया करते थे, वही रामबोला खा लेते थे, कभी-कभी बन्दरों से संघर्ष भी करना पड़ता था। कुछ दिन बाद रामबोला की बन्दरों से दोस्ती भी हो गयी थी। हनुमान जी की मूर्ति के सामने रामबोला कहते थे- “हे हनुमान स्वामी, देखो अब तुम्हारा चबूतरा कितना साफ सुथरा रहता है। राम जी के दरबार में हमारी अरदास पहुँचा दो। दूसरे लड़कों की तरह हम भी अ-आ-इ-ई पढ़ें और हमको दुइ रोटी का सहारा होइ जाय।” उसी मंदिर में एक साधु बाबा नरहरि दास प्रतिदिन पूजा करने आते थे। अक्सर नरहरि दास उस अबोध बालक मंदिर में देखा करते थे। एक दिन नरहरि दास ने रामबोला से परिचय पूछा, फिर बालक को अपने घर लिवा ले गए। रामबोला का मुंडन और उपनयन संस्कार करवाया। बाबा नरहरि दास ने रामबोला को श्री राम की मूर्ति को प्रणाम करने के लिए भेजा, जैसे ही रामबोला में अपना मस्तक झुकाया, तुलसी नामक पौधे की पत्ती बालक के सिर पर गिर पड़ी। नरहरि दास ने कहा- ‘बालक तेरा कल्याण हो गया। आज से तुम्हारा नाम तुलसीदास रखा जाता है।’

तुलसीदास पढ़ने-लिखने लगे। कुछ समय बाद नरहरि दास ने तुलसीदास को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए काशी के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य ‘शेष सनातन’ के पास भेज दिया। तुलसीदास ‘शेष सनातन’ के पास रहकर भृत्य (सेवक, दास) का कार्य करते थे, और वहीं एक छोटी-सी कोठरी में रहते थे। रात में डर लगने पर भीषण सर्दी में भी तुलसी के माथे पर पसीना आने लगता था। हनुमान जी का नाम लेकर मिट्टी की दवात और सरकंडे की कलम से लिखना शुरू किया-

“जै हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जै कपीस तिहुँ लोक उजागर।” (पृष्ठ 46)

मध्यरात्रि तक तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना पूरी की। शेष सनातन का साला ‘जगत’ अपनी बहन ‘माया’ का विवाह तुलसीदास से कराने की बात सोच रहा था। एक दिन ब्रह्मयोग में मेघा भगत से तुलसीदास की मुलाकात हुई। मेघा भगत तुलसीदास को वाल्मीकि रामायण पढ़ने की प्रेरणा देते हैं। अब तक तुलसीदास स्वयं शास्त्री बन चुके थे, उम्र भी लगभग 24 वर्ष हो गयी थी। एक दिन तुलसीदास के सहपाठी कैलाश नाथ ने तुलसी से कहा कि ‘मेघा भगत अयोध्या गए थे, लौट आए हैं, आपको बुला रहे हैं।’ वहाँ पहुँच कर देखा कि सेठ जैराम साहू अकेले थे और तुलसी की प्रशंसा अन्य भक्तों से कर रहे थे। तुलसी के विवाह की बात कई जगह चली, तो तुलसीदास ने कहा- “मेरी जन्म कुंडली में साधु होने का योग लिखा है, आई। विवाह करूँगा तो भी मुझे सुख नहीं मिलेगा।”

तुलसीदास अब भजन गायकी में प्रसिद्ध हो गए थे, बाबा नरहरि दास की मृत्यु की खबर पाकर रोते बिलखते हुए मन में बाबा स्व० नरहरि दास की छवि बनाकर संत रविदास जी का भजन गाने लगे-

“प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी।
जाकी अंग-अंग बास समानी।।” (पृष्ठ 63)

तुलसीदास एक दिन शेष सनातन की आज्ञा पाकर कैलाश पर्वत, मथुरा, ब्रज मंडल आदि की ओर भ्रमण हेतु निकल पड़े। कुछ दिन अपने सहपाठी कृष्ण भक्त कवि नंददास के यहाँ सोरों में व्यतीत किया। अपनी जन्म भूमि की याद आने पर विकरम पुर (विक्रमपुर) गाँव पहुँचे। वहाँ तुलसीदास की मुलाकात ‘राजा भगत’ हुई। राजा भगत उन्हें अपनी कुटिया में ले गया। वहाँ पर रामभक्त राजा भगत ने तुलसीदास से उनका परिचय पूछा। तुलसीदास ने अपना जन्म स्थान यही विक्रम पुर, पिता आत्माराम और माता का नाम हुलसी बताया। राजा भगत चौक कर बोला आप ही अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्मे थे। हमारे बड़े भैया हो हमसे एक दिन बड़े हो। हम अहीर हैं, नाम है राजा। बकरीदी आप से 4 दिन बड़े हैं, वह जुलाहे हैं। सब ब्राम्हण परिवार बिखर गए। मन करता है यह बस्ती फिर बस जाए। तुलसीदास ने कहा- आज से इस गाँव का नाम राजापुर होगा, क्योंकि तुम्हीं मुझे गाँव की आत्मा (आत्मा+आत्माराम) के रूप में मिले हो। सबकी पक्की यारी हो गयी। राजा भरत बीच-बीच में तुलसीदास से विवाह की बात करता रहता था, किंतु तुलसी विवाह के इच्छुक नहीं थे। तुलसीदास अब गाँव में कथा कहने लगे थे। जो आमदनी होती थी, उसका हिसाब-किताब राजा भगत रखते थे। तुलसीदास के इस पावन कृत्य, बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजापुर और आसपास के गाँवों के ब्राम्हण नाराज होने लगे थे, शायद उनका रोजगार छीन लिया हो। कई बार लोगों ने श्रीराम-हनुमान भक्त तुलसीदास की जीवनलीला समाप्त कर देने की योजना बनाई, किंतु सब असफल रहे। तुलसीदास से प्रभावित होकर सच्चे विद्वान, चम्मो सहुवाइन जैसी सेठानियाँ, राजकुँवरी जैसी रानियाँ डोरे डालने लगी थी, लेकिन तुलसीदास सुरक्षित रहें। तुलसीदास और राजा भगत के प्रयत्नों से हनुमान जी की मूर्ति प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया। उसमें हवन के लिए पंडित दीनबंधु पाठक को बुलाया गया। पाठक जी ने तुलसीदास से गाँव में वाल्मीकि रामायण पढ़ने का आग्रह किया, तो उन्होंने स्वीकार कर लिया। जितने दिन कथा चली तुलसीदास दीनबंधु पाठक के घर में ही रुके रहे। पाठक जी की युवा सुशील सुकन्या रत्नावली को तुलसीदास पहली बार देखते ही दीवाने हो गए। मन में स्नेह के लड्डू फूटने लगे। राजा भगत के प्रयत्नों से तुलसीदास का विवाह रत्नावली से विधि-विधान के साथ संपन्न हो गया।

कल का रामबोला जो अनाथ था, आज कथावाचक, ज्योतिषाचार्य, कवि बन गया। उनके पास मुगल शासक और पठान अपनी ग्रह चाल जानने आते थे। तुलसीदास और अकबर समकालीन हैं। तुलसीदास की प्रसिद्धि और समृध्दि से उन्हीं का चचेरा साला गंगेश्वर जलने लगा था। वह बीच-बीच में अपमान भी कर देता था, तुलसीदास और साला गंगेश्वर में अक्सर तना-तनी बनी रहती थी। रत्नावली होशियारी से समझौता करा दिया करती थी। तुलसीदास यह सोच कर संतोष कर लेते थे कि “पत्नी को उसके पीहर का कुत्ता भी प्यारा लगता है, फिर गंगेश्वर तो रत्ना का भाई है।”

एक दिन रत्नावली की बातों से तुलसीदास को आभास हुआ कि उसकी पत्नी माँ बनने वाली है। तुलसी ने पूछा तो रत्नावली शर्माकर अपने पति तुलसी के सीने से लिपट गयी। फिर एक शिशु को जन्म दिया, जिसका नाम रखा- ‘तारापति।’ (पृष्ठ 109)

रत्नावली को अपने वृद्ध पिता दीनबंधु पाठक की चिंता सताने लगी थी। तुलसी यह देखकर कि रत्नावली अपने पिता की सेवा कर रही है, इसलिए कोई व्यवधान न हो। तुलसीदास काशी जाने का निश्चय कर लेते हैं और वही कमाई करने लगते हैं। काशी के असी घाट पर रहना दूभर हो गया था, कुछ दुष्ट तुलसीदास को काशी से भगाने में अपनी महानता समझते थे। हर बार असत्य पर सत्य की विजय हुई।

एक बार भादो की काली रात में (अस्थिपंजर.. साँप..के माध्यम से..) तुलसीदास बिन बुलाए ससुराल चले गए थे, वहाँ रत्नावली एवं साला गंगेश्वर ने बहुत फटकारा था, फिर भी रात में तुलसीदास अपनी अर्धांगिनी रत्नावली से मिले थे। उसी रात तुलसी ने घर छोड़ने का निश्चय किया और जाते-जाते वादा भी किया था कि एक बार मिलने अवश्य आऊँगा, क्योंकि रत्नावली ने फटकार ते हुए कहा था-

“लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मय, जासौं ऐसी प्रीति।
वैसी जो श्री राम महा, होति न तौ भयभीत।।”

भटकत-भटकते तुलसीदास चित्रकूट आ गए और राम भजन में लग गए थे। एक दिन राजा भगत वहाँ पहुँच गया और तुलसीदास से घर चलने का आग्रह करने लगा, साथ ही राजा भगत ने बताया कि तुम्हारा बेटा तारापति को ‘बड़ी माता’ निकल आने के कारण उसकी मृत्यु हो गई है। फिर भी तुलसीदास घर नहीं गए और कहने लगे मैं विरक्त हूँ। मेरा न कोई बेटा है, न पत्नी, न ही नाते-गोतिये-


“एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
रामरूप स्वाती जलद, चातक तुलसीदास।।” (पृष्ठ 134)

चित्रकूट में ही स्वप्न में सीता माँ के दर्शन करके तुलसीदास ने कहा- मेरा मार्ग मुझे दिखाओ अम्ब। सीता माँ ने उत्तर दिया- अयोध्या जाओ, तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। फिर उन्हें हनुमान जी गंगा तट पर दिखाई पड़े। उन्होंने कहा कि रामायण की रचना करो। इसी में तुम्हारा कल्याण होगा। लेखक अमृतलाल नागर जी ने मार्मिकता के साथ लिखा- “तुलसीदास अब मुक्त थे। निरंतर राम नाम जपना, माँग कर खाना, रात में राम जन्मभूमि के ऊपर बनी मस्जिद के द्वार पर फकीरों के बीच में पड़े रहना, यही अब उनका जीवन क्रम बन गया।” तुलसीदास ने राम नवमी को श्री रामचरित मानस की रचना प्रारंभ कर दी, जिसके संबंध में स्वयं तुलसीदास ने लिखा है-

“संबत सोरह सै इकतीसा। करहुँ कथा हरि पद धरि सीसा।।” (बालकाण्ड 02/34)

(सम्वत 1631 वि० = सन 1574 ई०)

तुलसीदास की बढ़ती लोकप्रियता से द्वेषवश अयोध्या के पंडित वैदेही वल्लभ और अन्य ब्राम्हण उन्हें परेशान करने लगे थे। इससे कुंठित तुलसीदास अयोध्या त्यागकर काशी आ गए। वहाँ अपने मित्र गंगाराम के घर में रहने लगे। वहीं काशी में टोडर नामक धर्मनिष्ठ व्यक्ति से तुलसीदास की मुलाकात हुई। तुलसी के रहने की स्थाई व्यवस्था कर दी, वह स्थान था- हनुमान फाटक। वहीं रहकर तुलसीदास रामचरित मानस लिखा करते थे। तुलसीदास द्वारा पत्नी को त्याग देने पर अन्य गृहस्थ गोस्वामियों ने विरोध किया। एक गोस्वामी बालक ने तुलसीदास से कहा- “कथा तुम्हारे बाप दादा नहीं सुना सकते, हमारे जीते जी काशी में यह अनाचार नहीं होगा। अपनी रामायण को गंगा में डूबा दो।”

तुलसी ने कहा- “मेरी रामायण जन-जन के हृदय गंगा में तटिनी बन कर तैरेगी। राम कृपा से यह कथा अवश्य पूर्ण होगी। शंकर भोलेनाथ भी यह कथा सुनेंगे। अथक प्रयास और तमाम मानवी झंझावात तूफानों के उतार-चढ़ाव के बाद 2 वर्ष 7 माह 26 दिन में श्री रामचरित मानस की कथा पूर्ण हुई।
अंत में संतों की महफ़िल सजी, सब ध्यानमग्न हुए कथा प्रारम्भ हुई। तुलसीदास विजय घोषित किए गए। तुलसी के विरोधी बटेश्वर ने हर तरह से प्रताड़ित किया। उन दिनों तुलसीदास अस्वस्थ रहने लगे थे। तुलसीदास के प्रिय मित्र टोडर, गंगाराम, कैलास, जैराम साहू आदि उनके पास बैठे थे। तभी एक सरकारी व्यक्ति आया और हुजूर आला का संदेश दिया कि आपका स्वास्थ्य कैसा है? अगले दिन मित्र अब्दुल रहीम खानखाना (रहीम दास) ने तुलसीदास से राजाश्रय ग्रहण करने का आग्रह किया। तुलसीदास ने मुस्कुराते हुए बोले- ‘आपकी बड़ी कृपा है खानखाना साहब, परन्तु….

‘हम चाकर रघुवीर के, पटो लिखो दरबार।
तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।।” (पृष्ठ 235)

उपन्यास का 31वाँ अंक पीड़ा भरा है, या यूँ कह सकते हैं कि उपन्यास का अंतिम अंक अश्रुपूरित है। तुलसी की उम्र काफी हो चुकी थी। उनके बाह में गिल्टी पड़ गई, फिर सारे शरीर में फुंसियाँ निकल आई। मवाद बहने के कारण कोठरी में पड़े रहते थे। उन्हें वात रोग भी सताने लगा था। तुलसीदास कराहते हुए कहते थे कि सुख से दुख भला, जो राम को याद करा देता है। (पृष्ठ 243)
तुलसीदास के जीवन का अंत निकट आ गया था। वो सपना देख रहे थे कि गणेश, सूर्य, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट की झांकियाँ सामने आ रही हैं। तुलसीदास यह सब स्वप्न में देखकर हनुमान जी को विनय पत्रिका देते हुए कहते हैं कि इसे श्रीराम के पास पहुँचा देना, इसी के साथ रुँधे गले से तुलसीदास ने सांस खींचकर दोहा पढ़ा-


“राम नाम जस बरनि कै, भयो चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिए, अबहीं तुलसी सोन।।” (पृष्ठ 246)

बादलों की गड़गड़ाहट के बीच श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की तीज के दिन तुलसीदास के आदेश से उनके प्रिय शिष्य रामू ने उन्हें सहारा देकर बैठाया, शिष्य बेनीमाधव तलवे सहलाने लगे। कैलास ने नाड़ी पकड़ कर रोते हुए कहा- ‘इन्हें धरती पर लो भगत जी, मेरा यार चला।’ अंत समय में रामभक्त तुलसीदास ने एक दृष्टि में अपने मित्रों एवं शिष्यों को देखा, तत्क्षण दीवाल पर अंकित हनुमान जी और सियाराम के चित्रों को देखा, देखते ही रहे, देखते ही रहे… देखते ही रह गए…। गोस्वामी तुलसीदास जी अंत में 91 वर्ष की उम्र में संवत 1680 वि० (सन 1623 ई०) में सदा-सदा के लिए श्री राम के पावन चरणों में विलीन हो जाते हैं। उपन्यासकार अमृतलाल नागर जी ने तुलसी के जन्म से लेकर मृत्यु तक की संघर्ष भरी मार्मिक और प्रेरक जीवनी का वर्णन मानो सजीव चित्रण किया है, जो हृदयस्पर्शी होने के साथ- साथ जीवन के अंतिम सत्य को बयां करती हैं।

तुलसीदास की मृत्यु के संदर्भ में निम्नवत दोहा प्रसिद्ध है-
“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।”

साभार 'मानस का हंस - संस्करण 2007, अमृतलाल नागर।
  • प्रकाशक- राजपाल एंड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हरचंदपुर – रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459
प्रेमलता शर्मा
आधुनिकीकरण | Modernization | Modernization Meaning in Hindi

आधुनिकीकरण | Modernization | Modernization Meaning in Hindi

आधुनिकता का अर्थ क्या है?

आधुनिकता (Modernization Meaning in Hindi ) का अर्थ होता है प्रगति, उन्नति, विकास यह नहीं होता कि आधुनिक बनने की होड़ में अपनी पहचान खोदे हमारे देश की पहचान है उस की संस्कृति उसके संस्कार और इसीलिए ही हमारे देश की विश्व में अपनी अलग छवि है हमारा एक इतिहास है हम किसी भी क्षेत्र में किसी भी देश से ना पीछे थे और ना ही पीछे रहेंगे।अन्य देशो ने हमारी ही चीजो को ग्रहण कर उनपर शोध कर आगे बढे है।लेकिन हम अभागे भारतीय अपने धरोहर की कद्र नहीं कर सके आज अपने संस्कार अपनी संस्कृति को भुलाकर पश्चिमी सभ्यता की और दौड़ रहे हैं उनकी रहन-सहन तौर तरीकों को अपना पर खुद को आधुनिक और शिक्षित समझ रही है आज समाज किस ओर जा रहा है जहां जन्मदाता अपना घर छोड़कर वृद्धाश्रम में शरण लेने के लिए मजबूर हो रहे है जिस घर की एक एक ईट उनके प्यार और तपस्या की कहानी कहती है उससे उन्हें बेघर कर दिया जा रहा है जिस कारण आज हमारे भारतवर्ष में पाश्चात्य देशों की तरह वृद्धाश्रम बनाने पड़ रहे है बच्चों के बड़े होने पर उस इधर में माता पिता को रहने के लिए जिधर कम पड़ रही है शायद शायद यही आधुनिकीकरण है ?पश्चिम की देन जिसे हम आधुनिक होना समझते है वस्त्रों के लिए होती है ।

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जिस घर की एक-एक ईट उनके त्याग और तपस्या की कहानी कहती है उसी घर से उन्हें बेघर कर दिया जा रहा है जिस कारण आज हमारे भारतवर्ष में पाश्चात्य देशों की तरह वृद्धाश्रम बनाने पढ़ रहे हैं पुत्र जैसे ही गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करते हैं माता पिता को वृद्धाश्रम जाना पड़ता है उसी घर में उन्हें रहने के लिए जगह कम पड़ जाती है शायद यही आधुनिकीकरण है ?पश्चिम की देन जिसे हम आधुनिक होना समझते हैं वस्त्रों की उपयोगिता तन धडकने के लिए होती है ।

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उन पर शोध कर नए नए ढंग से तन प्रदर्शन कर लिए नहीं मैं सारे समाज को नहीं कह रही हूं समाज का कुछ वर्ग है जहां ऐसा हो रहा है आज जो भारतीय परिधान सलवार कमीज या साड़ी पहनती है उनहे बहन जी जैसे शब्दों से संबोधित किया जाता है या फिर बहुत पिछड़ा हुआ समझा जाता है आज वस्त्र अंग ढकने के लिए नहीं अगं प्रदर्शन के साधन बन गए हैं शायद यही आधुनिकीकरण है?

आधुनिक होना बुरा नहीं है लेकिन आधुनिकता अगर नग्नता का रुप ले ले तो यह हमारी संस्कृति और सभ्यता के लिए प्रश्न चिन्ह है आधुनिक होना यानी आगे बढना विकास होना समाज को बदलो देश को बदलो लेकिन अपनी संस्कृति अपनी परंपराओं को साथ लेकर उन्हे भूल कर नहीं हमें ग्रहण करने के लिए हमें हमारे देश में बहुत कुछ दिया है ।

हम दूसरों के नक्शे कदम पर क्यों चले हमारी जो पहचान है उसे ही आगे बढ़ाए उसे ही आधुनिक बनाएं उस धरोहर को खोने ना दें जिन्हें हमारे पूर्वजों ने बहुत ही तपस्या से अर्जित की है ऐसी आधुनिकता से तो यही अच्छा है कि हम यहीं ठहर जाए देश को आधुनिक बनाओ खुद की संस्कृति और संस्कार को नहीं धन्यवाद – प्रेमलता शर्मा रायबरेली