सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम
सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम
भारत प्राचीन काल से तार्किक, आध्यात्मिक, दार्शनिक व बौद्धिक शिक्षा का केंद्र रहा है। हमारे देश को अपनी सभ्यता, संस्कृति, विरासत और परंपराओं का पोषक तथा रक्षक कहा जाता है, वहीं भारत को पुरुष प्रधान देश की संज्ञा जाती है। स्त्री को देवी लक्ष्मी, आदिशक्ति, मां अन्नपूर्णा, सरस्वती आदि कहा जाता है, परंतु स्त्री का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक शोषण किया जाता है और उसी को दोयम दर्जे की समझा जाता है। उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। यहाँ तक, कोई महिला ग्राम पंचायत स्तर से संसद सदस्य के रूप में जन-प्रतिनिधि चुनी तो जाती है, किंतु उसके संवैधानिक तथा नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन पति या पुत्र करता है। उसके बाद भी नारी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुई है।
स्त्रियों को कलम और कृपाण चलाना बखूबी आता है, जरूरत है सिर्फ उसे मार्गदर्शन की। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-
“लोगों को जगाने के लिए महिलाओं का जागृत होना जरूरी है।”
नारी प्रकृति की शक्ति है तो पुरुष शक्तिमान। शक्ति के बिना शक्तिमान का कोई अस्तित्व नहीं है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण में भी नारी की प्रधानता रही है। सावित्रीबाई फुले, रजिया सुल्तान, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स आदि ने न सिर्फ अपने हाथों में कलम उठाई, आवश्यकता पड़ने पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तलवार भी उठाई है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। हमारे विचार बहुत श्रेष्ठतम होने चाहिए किंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया है। दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, अशिक्षा, अधिकारों का शोषण आदि करने में पुरुष वर्ग आज भी पीछे नहीं है। अफसोस है कि यह अक्षम्य अपराध करने वाले अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्र के न होकर, नगरों के उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवार से होते हैं।
घर की लक्ष्मी या यूँ कहें कि प्राइवेट बैंक है नारी। कोरोना काल में जब लोगों के रोजगार छिन गए थे, व्यापार ठप हो गया था। तब घर की लक्ष्मी रूपी नारी ने ही पूर्व में पाई-पाई जोड़ा गया धन से संकट के समय अपने परिवार की जीविका चलाई थी। नारी सृष्टि की निर्मात्री है। हम भूल जाते हैं कि जब संसार बेटियाँ नहीं होंगी तो हम बहू कहाँ से लाएंगे? सही मायने में बेटियां ही मौत के मुँह में जाकर भी संतानों को जन्म देकर वंश चलाती हैं, पुरुष नहीं।
कोई भी देश तरक्की के शिखर में तब तक नहीं पहुँच सकता, जब तक उस देश की महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर न चल सके। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की उपज एक मजदूर आंदोलन से मानी जाती है, जिसकी नींव सन 1908 ई० में पड़ गई थी, किंतु उस समय स्त्री की आवाज पुरुष प्रधान देश में दबकर रह गई थी, उसके बाद आधिकारिक रूप 08 मार्च सन 1975 को पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था। हृदय से स्त्री का सम्मान करते हुए प्रतिदिन महिला दिवस मनाना चाहिए।
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली
मो० 9415951459