सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम

सृष्टि की निर्मात्री और संवेदना की प्रतिमूर्ति है नारी : अशोक कुमार गौतम

अशोक कुमार गौतम असिस्टेंट प्रोफेसर, अध्यक्ष- हिंदी विभाग श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय रायबरेली (उ०प्र०) मो० 9415951459

भारत प्राचीन काल से तार्किक, आध्यात्मिक, दार्शनिक व बौद्धिक शिक्षा का केंद्र रहा है। हमारे देश को अपनी सभ्यता, संस्कृति, विरासत और परंपराओं का पोषक तथा रक्षक कहा जाता है, वहीं भारत को पुरुष प्रधान देश की संज्ञा जाती है। स्त्री को देवी लक्ष्मी, आदिशक्ति, मां अन्नपूर्णा, सरस्वती आदि कहा जाता है, परंतु स्त्री का शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक शोषण किया जाता है और उसी को दोयम दर्जे की समझा जाता है। उसे उसके अधिकारों से वंचित रखा जाता है। यहाँ तक, कोई महिला ग्राम पंचायत स्तर से संसद सदस्य के रूप में जन-प्रतिनिधि चुनी तो जाती है, किंतु उसके संवैधानिक तथा नैतिक कर्तव्यों का निर्वहन पति या पुत्र करता है। उसके बाद भी नारी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुई है।

स्त्रियों को कलम और कृपाण चलाना बखूबी आता है, जरूरत है सिर्फ उसे मार्गदर्शन की। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-

“लोगों को जगाने के लिए महिलाओं का जागृत होना जरूरी है।”

नारी प्रकृति की शक्ति है तो पुरुष शक्तिमान। शक्ति के बिना शक्तिमान का कोई अस्तित्व नहीं है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आकर्षण-विकर्षण में भी नारी की प्रधानता रही है। सावित्रीबाई फुले, रजिया सुल्तान, लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स आदि ने न सिर्फ अपने हाथों में कलम उठाई, आवश्यकता पड़ने पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तलवार भी उठाई है। हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। हमारे विचार बहुत श्रेष्ठतम होने चाहिए किंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया है। दहेज प्रथा, भ्रूण हत्या, अशिक्षा, अधिकारों का शोषण आदि करने में पुरुष वर्ग आज भी पीछे नहीं है। अफसोस है कि यह अक्षम्य अपराध करने वाले अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्र के न होकर, नगरों के उच्च शिक्षित धनाढ्य परिवार से होते हैं।

घर की लक्ष्मी या यूँ कहें कि प्राइवेट बैंक है नारी। कोरोना काल में जब लोगों के रोजगार छिन गए थे, व्यापार ठप हो गया था। तब घर की लक्ष्मी रूपी नारी ने ही पूर्व में पाई-पाई जोड़ा गया धन से संकट के समय अपने परिवार की जीविका चलाई थी। नारी सृष्टि की निर्मात्री है। हम भूल जाते हैं कि जब संसार बेटियाँ नहीं होंगी तो हम बहू कहाँ से लाएंगे? सही मायने में बेटियां ही मौत के मुँह में जाकर भी संतानों को जन्म देकर वंश चलाती हैं, पुरुष नहीं।

कोई भी देश तरक्की के शिखर में तब तक नहीं पहुँच सकता, जब तक उस देश की महिलाएँ कंधे से कंधा मिलाकर न चल सके। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की उपज एक मजदूर आंदोलन से मानी जाती है, जिसकी नींव सन 1908 ई० में पड़ गई थी, किंतु उस समय स्त्री की आवाज पुरुष प्रधान देश में दबकर रह गई थी, उसके बाद आधिकारिक रूप 08 मार्च सन 1975 को पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था। हृदय से स्त्री का सम्मान करते हुए प्रतिदिन महिला दिवस मनाना चाहिए।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर, रायबरेली
मो० 9415951459

अशोक कुमार गौतम की लघुकथा विघटन | Laghukatha Vighatan

अशोक कुमार गौतम की लघुकथा विघटन | Laghukatha Vighatan

यमुना नदी की गोद में बसा देवकली गाँव इटावा जनपद में स्थित है। रमणीय और प्राकृतिक वातावरण, हरे-भरे पेड़ पौधे, कहीं पठार तो कहीं छोटी-छोटी घाटियां हर इंसान को अपनी ओर अनायास ही मोहित कर लेते हैं। इस क्षेत्र में कई दशकों से समय-असमय गोलियों की गड़गड़ाहट भी सुनाई देती रहती थी। यहाँ की राजनीति की धमक आज भी दिल्ली तक सुनाई देती है। देवकली गाँव में गिरजा शंकर चौधरी अपनी पत्नी प्रिया और अन्य तीन भाइयों के साथ रहते थे, जो मध्यमवर्गीय परिवार में गिने जाते थे। कभी-कभी गाँव की राजनीति और जंगल से आने वाली धमकियों का भी शिकार हो जाया करते थे। किंतु किसी के सामने सिर नहीं झुकाया। किसी भी प्रकार का बाहरी विवाद होने पर चारों भाई एकजुट होकर मुकाबला करते थे। गिरजा शंकर चौधरी के अन्य भाई गाँव से पलायन करने की बात सोचते थे, परंतु परिवार की एकता और खून के रिश्ते ने कभी किसी भाई को एक-दूसरे से अलग नहीं होने दिया।

गिरजा शंकर के तीन पुत्र मयंक, अंकित, दिलीप और एक पुत्री जिसका नाम सोनिका था। सभी देखने में सुंदर और हाव-भाव से कुशाग्र बुद्धि वाले लगते थे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हुए, सब का दाखिला भी सरकारी स्कूलों में करा दिया जाता था। जीवन के 57 वसन्त देख चुके गिरजा शंकर और उसकी पत्नी प्रिया को कभी-कभी भरपेट भोजन भी नहीं मिलता था। वह गृहस्थी चलाने और संतानों की पढ़ाई के लिए मजदूरी करता था, तो कभी कानपुर में आढ़तियों का कार्य करता था। गिरजा शंकर शहरी आब-ओ-हवा से अच्छी तरफ वाकिफ़ हो चुका था। इसलिये उसे डर सताया करता था कि मेरा घना वृक्ष रूपी परिवार की कोई डाली टूट कर अलग न हो जाये।

गिरजा शंकर की पढ़ाई तो न के बराबर थी पर राजनीतिक और साहित्यिक मंचों पर भाषण तथा रेडियो पर प्रसारित वार्ताओं में विभिन्न महापुरुषों के विषय में सुना करता था, जिसमें एक सुना था कि डॉ0 भीमराव अंबेडकर कहते थे- “शिक्षा उस शेरनी का दूध है, जो पियेगा दहाड़ेगा।” यही मूल मंत्र गिरजा शंकर के मन-मस्तिष्क में बसा हुआ था। बेटी सोनिका भी पढ़ने में तेज थी। गिरजा शंकर चौधरी अपनी पुत्री सोनिका का दहेज रहित विवाह अपने से श्रेष्ठ परिवार में कर देता है। सोनिका के ससुराल वाले भी उसे बेहद प्यार और सम्मान करते थे। सोनिका अपनी ससुराल में बहुत खुश थी, साथ ही मायके के भी सुख-दुःख में साथ खड़ी रहती थी। ससुराल वालों ने भी उसकी पढ़ाई में बाधा नहीं उत्पन्न की, जिससे वह राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज में नौकरी पा जाती है। गिरजा शंकर अपने तीनों पुत्रों को कानपुर शहर में पढ़ने के लिए भेज देता है, वे सरकारी हॉस्टल में रहने लगते हैं। कोचिंग में पढाने के लिए गिरिजा शंकर के पास रुपए ना थे, इसलिए तीनों पुत्र कानपुर के फूलबाग स्थित राजकीय पार्षद पुस्तकालय में जाकर पढ़ाई करते थे। सभी बेटे बेहद संस्कारवान और पढ़ाई में अव्वल हो गए थे। कुछ समय बाद मँझला बेटा अंकित बुरी संगत में फंस गया, जिसके कारण उसका मन पढ़ाई से हटकर कुमार्ग पर चलने लगा था। अन्य दोनों भाइयों ने खूब समझाया पर वह नहीं माना। मयंक को केंद्रीय विद्यालय में प्रवक्ता की नौकरी मिल गई और पहली नियुक्ति अम्बाला में हुई। अब गिरजा शंकर के सिर पर कुछ भार कम पड़ गया। फिर भी वह अपनी मेहनत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता था। छोटा पुत्र दिलीप कद-काठी में लंबा चौड़ा और पढ़ने में अव्वल तो पहले से ही था, इसलिए उसे दारोगा की नौकरी मिल गई। इस परिवार को कभी पद-प्रतिष्ठा पर घमंड न था। मंझला बेटा वापस अपने गाँव देवकली आकर छोटी मोटी दलाली करने लगा था। बारी बारी से तीनों लड़कों का विवाह भी योग्य और सुशील कन्याओं से हो गया। गिरजा शंकर की तीनों बहुओं में आपसी लगाव, स्नेह और संस्कारों की चर्चा पूरे गाँव में होती थी। सोनिका, मयंक और दिलीप मिलकर तन-मन-धन से अपने भाई अंकित की हरसंभव मदद करते थे। अब तो गिरजा शंकर को आसमान में उड़ना चाहिए था, किंतु गिरजा शंकर और उसके तीनों पुत्रों ने जमीन से नाता नहीं छोड़ा.. अर्थात किसी में भी रंच मात्र का अहंकार न था। संयुक्त परिवार होने के कारण कोई विरोधी भी फटकने नहीं पाता था, न ही बाहरी व्यक्ति किसी प्रकार की हानि पहुँचा पाता था। अब तो गाँव वालों की आँखों में गिरजा शंकर और उसका परिवार खटकने लगा था।

ग्रामीणों ने षड्यंत्र के तहत अंकित को गाँव की राजनीति में उतरने के लिए खूब भड़काया और वोट तथा सत्ता सुख का लालच दिया। विभिन्न सुख-दुःख को सहन करते हुए जो परिवार सागर की तरह शांत रहता था आज उस परिवार में अंकित राहु बनकर खड़ा हो गया। दोनों भाइयों से चुनाव लड़ने के लिए धन एवं प्रचार हेतु समय माँगने लगा, जो कि संभव न था। मयंक, दिलीप और सोनिका ने समझाते हुए कहा कि चुनाव लड़ना मानो ओखल में सिर डालने जैसा है। इसलिए परिवार में शांत रहकर जीवन यापन करो। बहन-भाइयों की यह संस्कारी बातें अंकित के हृदय में भाला की नोक की तरह चुभ रही थीं। ग्रामीणों की मंशानुरूप अब अंकित के मन में परिवार के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हो गई। उसने परिवार से विघटन करने तक की सोच लिया। गिरजा शंकर औऱ प्रिया ने आँखों में आँसू लिए अंकित को खूब समझाया कि परिवार के साथ मिलकर चलोगे तो किसी के सामने हाँथ नहीं फैलाना पड़ेगा।

ईर्ष्यालु अंकित के जीवन में गाँव वालों ने जो आग लगाई थी वह जाग्रत ज्वालामुखी की तरह भड़क रही थी। आखिर में अंकित वट वृक्ष रूपी परिवार से अलग हो गया और गाँव में हर तरफ अपने ही परिवार की बुराई करने लगा। धीरे-धीरे हंसते-खेलते परिवार में विघटन हो गया। आँगन में नफरत की दीवाल खड़ी हो गई और दो चूल्हे जलने लगे। गिरजा शंकर चौधरी इस असहनीय दुःख को बर्दास्त न कर पाने के कारण कुंठाग्रस्त जीवन व्यतीत करने लगा था।

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