मानस का हंस : तुलसी के जीवन की अनकही कहानी | Manas ka Hans

उपन्यासकार अमृतलाल नागर का जन्म 17 अगस्त सन 1916 को गोकुल पुरा आगरा में हुआ। पिता का नाम राजाराम नागर और पितामह (बाबा) का नाम पंडित शिवराम नागर था। बाबा शिवराम जी सन 1895 में लखनऊ आकर स्थाई निवासी बन गए। आपकी बाल्यावस्था में ही पिता का निधन हो गया, जिसकी वजह से घर की जिम्मेदारी आप पर आ गई थी। हाई स्कूल तक की स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी, उसके बाद घर पर ही अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत का अध्ययन किया।

प्रमुख रचनाएँ

अमृतलाल नागर जी के प्रमुख उपन्यास- बूँद और समुद्र, शतरंज के मोहरे, सुहाग के नूपुर, मानस का हंस, करवट, सात घुंघट वाला मुखड़ा आदि हैं।
अमृतलाल नागर की प्रमुख कहानियाँ- वाटिका, अवशेष, तुला राम शास्त्री, एटम बम, पीतल की परी, भारत पुत्र नारंगी लाल, सिकंदर हार गया आदि हैं।
नागर जी के प्रमुख नाटक- युगावतार, बात की बात, चंदन वन, चढ़त न दूजा रंग आदि हैं। साहित्य के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले अमृतलाल नागर जी की मृत्यु ‘किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ’ में 23 फरवरी सन 1990 ई० को हुई थी।

प्रस्तुत है मानस का हंस उपन्यास की संक्षिप्त समीक्षा, जिसके लेखक अमृत लाल नागर जी हैं। इस उपन्यास को नागर जी ने रामनवमी 23 मार्च 1972 ई० को पूर्ण किया था।

“श्री राम का जीवन दर्शन, समन्वयवादी विचारधारा, विश्व की हर मुश्किल का हल खोजना हो तो तुलसीदास कृत महाकाव्य श्री रामचरित मानस पढ़ना चाहिए। तुलसीदास का शूलों भरा सम्पूर्ण जीवन, प्रभु श्री राम में आस्था, प्रेम, विरक्ति, समर्पण, त्याग, नारी प्रेम में अत्यधिक आसक्ति से विरक्ति आदि को जानना हो, तो अमृतलाल नागर कृत मानस का हंस पढ़ना श्रेयस्कर होगा। अमृतलाल नागर जी महान साहित्यकार हैं, साहित्य जगत में मील का पत्थर हैं। आपकी साहित्यिक यात्रा का एक अंश मात्र अथवा ‘मानस का हंस’ उपन्यास की समीक्षा करना मेरे वश में नहीं है, फिर भी लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।”अशोक कुमार गौतम

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‘मानस का हंस’ उपन्यास की कथावस्तु को नागर जी ने 31 अंकों में विभाजित किया गया है। कथावस्तु का प्रारंभ संपूर्ण देश में मुगलों द्वारा की जा रही लूटपाट का प्रतीक विकरमपुर (विक्रम पुर) जनपद बांदा से होता है। उसी गाँव में रामबोला (तुलसीदास) का जन्म सम्वत 1589 वि० (सन 1532 ई०) में हुआ था। जन्म के समय मुख में 32 दांत और जन्म लेते ही मुख से ‘राम’ शब्द निकला था, इसलिए ‘रामबोला’ नाम रखा गया था। गाँव में ही माताजी का मन्दिर है, उसी मन्दिर में बच्चे खेलने के लिए और बृद्धजन पूजा करने के लिए एकत्रित होते हैं। एक वृद्धा कहती है-

“हमें तो आत्मा की बहुरिया ने अटकाए लिया, नहीं तो अपनी बिटिया बहुरियन के साथ हम भी जमुनापार हुई जाती अब तलक।”

रामबोला के पिता का नाम पंडित आत्माराम दुबे, जो प्रसिद्ध ज्योतिषी और विद्वान थे। माता का नाम हुलसी था। रामबोला का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ था। वह नक्षत्र माता-पिता के लिए काल के समान था। ठीक वैसे ही बालक राम बोला को जन्म देते ही माता हुलसी स्वर्गवासी हो गई। रामबोला के पिता आत्माराम प्रसिद्ध विद्वान और ज्योतिषी थे, उनके कहने से ही दासी मुनिया रामबोला को लेकर जमुनापार अपनी सास के पास छोड़ आई थी। रामबोला का पालन-पोषण करने वाली मुनिया की सास को रामबोला पार्वती अम्मा कहते थे। बालक वहीं पर वह पढ़ता और भीख माँगता था। रामबोला की 5 वर्ष की उम्र में पार्वती अम्मा का भी स्वर्गवास हो गया। भिक्षुक राम बोला एक द्वार पर गा रहा था-

“हम भक्तन के भक्त हमारे, सुन अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे। टरत न टारे… टरत न टारे.. टारे..रे..रे।” (पृष्ठ 18)

रामबोला भटकते हुए सूकरखेत (गोंडा) पहुँच गए, वहाँ पावन सरयू और घाघरा नदी के मध्य हनुमान जी का मंदिर था, वहीं पर रहने लगे। अन्य भक्तगण मंदिर के चबूतरे पर लाई, चना, गुड़ आदि बंदरों के लिए डाल जाया करते थे, वही रामबोला खा लेते थे, कभी-कभी बन्दरों से संघर्ष भी करना पड़ता था। कुछ दिन बाद रामबोला की बन्दरों से दोस्ती भी हो गयी थी। हनुमान जी की मूर्ति के सामने रामबोला कहते थे- “हे हनुमान स्वामी, देखो अब तुम्हारा चबूतरा कितना साफ सुथरा रहता है। राम जी के दरबार में हमारी अरदास पहुँचा दो। दूसरे लड़कों की तरह हम भी अ-आ-इ-ई पढ़ें और हमको दुइ रोटी का सहारा होइ जाय।” उसी मंदिर में एक साधु बाबा नरहरि दास प्रतिदिन पूजा करने आते थे। अक्सर नरहरि दास उस अबोध बालक मंदिर में देखा करते थे। एक दिन नरहरि दास ने रामबोला से परिचय पूछा, फिर बालक को अपने घर लिवा ले गए। रामबोला का मुंडन और उपनयन संस्कार करवाया। बाबा नरहरि दास ने रामबोला को श्री राम की मूर्ति को प्रणाम करने के लिए भेजा, जैसे ही रामबोला में अपना मस्तक झुकाया, तुलसी नामक पौधे की पत्ती बालक के सिर पर गिर पड़ी। नरहरि दास ने कहा- ‘बालक तेरा कल्याण हो गया। आज से तुम्हारा नाम तुलसीदास रखा जाता है।’

तुलसीदास पढ़ने-लिखने लगे। कुछ समय बाद नरहरि दास ने तुलसीदास को उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए काशी के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य ‘शेष सनातन’ के पास भेज दिया। तुलसीदास ‘शेष सनातन’ के पास रहकर भृत्य (सेवक, दास) का कार्य करते थे, और वहीं एक छोटी-सी कोठरी में रहते थे। रात में डर लगने पर भीषण सर्दी में भी तुलसी के माथे पर पसीना आने लगता था। हनुमान जी का नाम लेकर मिट्टी की दवात और सरकंडे की कलम से लिखना शुरू किया-

“जै हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जै कपीस तिहुँ लोक उजागर।” (पृष्ठ 46)

मध्यरात्रि तक तुलसीदास ने हनुमान चालीसा की रचना पूरी की। शेष सनातन का साला ‘जगत’ अपनी बहन ‘माया’ का विवाह तुलसीदास से कराने की बात सोच रहा था। एक दिन ब्रह्मयोग में मेघा भगत से तुलसीदास की मुलाकात हुई। मेघा भगत तुलसीदास को वाल्मीकि रामायण पढ़ने की प्रेरणा देते हैं। अब तक तुलसीदास स्वयं शास्त्री बन चुके थे, उम्र भी लगभग 24 वर्ष हो गयी थी। एक दिन तुलसीदास के सहपाठी कैलाश नाथ ने तुलसी से कहा कि ‘मेघा भगत अयोध्या गए थे, लौट आए हैं, आपको बुला रहे हैं।’ वहाँ पहुँच कर देखा कि सेठ जैराम साहू अकेले थे और तुलसी की प्रशंसा अन्य भक्तों से कर रहे थे। तुलसी के विवाह की बात कई जगह चली, तो तुलसीदास ने कहा- “मेरी जन्म कुंडली में साधु होने का योग लिखा है, आई। विवाह करूँगा तो भी मुझे सुख नहीं मिलेगा।”

तुलसीदास अब भजन गायकी में प्रसिद्ध हो गए थे, बाबा नरहरि दास की मृत्यु की खबर पाकर रोते बिलखते हुए मन में बाबा स्व० नरहरि दास की छवि बनाकर संत रविदास जी का भजन गाने लगे-

“प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी।
जाकी अंग-अंग बास समानी।।” (पृष्ठ 63)

तुलसीदास एक दिन शेष सनातन की आज्ञा पाकर कैलाश पर्वत, मथुरा, ब्रज मंडल आदि की ओर भ्रमण हेतु निकल पड़े। कुछ दिन अपने सहपाठी कृष्ण भक्त कवि नंददास के यहाँ सोरों में व्यतीत किया। अपनी जन्म भूमि की याद आने पर विकरम पुर (विक्रमपुर) गाँव पहुँचे। वहाँ तुलसीदास की मुलाकात ‘राजा भगत’ हुई। राजा भगत उन्हें अपनी कुटिया में ले गया। वहाँ पर रामभक्त राजा भगत ने तुलसीदास से उनका परिचय पूछा। तुलसीदास ने अपना जन्म स्थान यही विक्रम पुर, पिता आत्माराम और माता का नाम हुलसी बताया। राजा भगत चौक कर बोला आप ही अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्मे थे। हमारे बड़े भैया हो हमसे एक दिन बड़े हो। हम अहीर हैं, नाम है राजा। बकरीदी आप से 4 दिन बड़े हैं, वह जुलाहे हैं। सब ब्राम्हण परिवार बिखर गए। मन करता है यह बस्ती फिर बस जाए। तुलसीदास ने कहा- आज से इस गाँव का नाम राजापुर होगा, क्योंकि तुम्हीं मुझे गाँव की आत्मा (आत्मा+आत्माराम) के रूप में मिले हो। सबकी पक्की यारी हो गयी। राजा भरत बीच-बीच में तुलसीदास से विवाह की बात करता रहता था, किंतु तुलसी विवाह के इच्छुक नहीं थे। तुलसीदास अब गाँव में कथा कहने लगे थे। जो आमदनी होती थी, उसका हिसाब-किताब राजा भगत रखते थे। तुलसीदास के इस पावन कृत्य, बढ़ती लोकप्रियता के कारण राजापुर और आसपास के गाँवों के ब्राम्हण नाराज होने लगे थे, शायद उनका रोजगार छीन लिया हो। कई बार लोगों ने श्रीराम-हनुमान भक्त तुलसीदास की जीवनलीला समाप्त कर देने की योजना बनाई, किंतु सब असफल रहे। तुलसीदास से प्रभावित होकर सच्चे विद्वान, चम्मो सहुवाइन जैसी सेठानियाँ, राजकुँवरी जैसी रानियाँ डोरे डालने लगी थी, लेकिन तुलसीदास सुरक्षित रहें। तुलसीदास और राजा भगत के प्रयत्नों से हनुमान जी की मूर्ति प्रतिष्ठा का आयोजन किया गया। उसमें हवन के लिए पंडित दीनबंधु पाठक को बुलाया गया। पाठक जी ने तुलसीदास से गाँव में वाल्मीकि रामायण पढ़ने का आग्रह किया, तो उन्होंने स्वीकार कर लिया। जितने दिन कथा चली तुलसीदास दीनबंधु पाठक के घर में ही रुके रहे। पाठक जी की युवा सुशील सुकन्या रत्नावली को तुलसीदास पहली बार देखते ही दीवाने हो गए। मन में स्नेह के लड्डू फूटने लगे। राजा भगत के प्रयत्नों से तुलसीदास का विवाह रत्नावली से विधि-विधान के साथ संपन्न हो गया।

कल का रामबोला जो अनाथ था, आज कथावाचक, ज्योतिषाचार्य, कवि बन गया। उनके पास मुगल शासक और पठान अपनी ग्रह चाल जानने आते थे। तुलसीदास और अकबर समकालीन हैं। तुलसीदास की प्रसिद्धि और समृध्दि से उन्हीं का चचेरा साला गंगेश्वर जलने लगा था। वह बीच-बीच में अपमान भी कर देता था, तुलसीदास और साला गंगेश्वर में अक्सर तना-तनी बनी रहती थी। रत्नावली होशियारी से समझौता करा दिया करती थी। तुलसीदास यह सोच कर संतोष कर लेते थे कि “पत्नी को उसके पीहर का कुत्ता भी प्यारा लगता है, फिर गंगेश्वर तो रत्ना का भाई है।”

एक दिन रत्नावली की बातों से तुलसीदास को आभास हुआ कि उसकी पत्नी माँ बनने वाली है। तुलसी ने पूछा तो रत्नावली शर्माकर अपने पति तुलसी के सीने से लिपट गयी। फिर एक शिशु को जन्म दिया, जिसका नाम रखा- ‘तारापति।’ (पृष्ठ 109)

रत्नावली को अपने वृद्ध पिता दीनबंधु पाठक की चिंता सताने लगी थी। तुलसी यह देखकर कि रत्नावली अपने पिता की सेवा कर रही है, इसलिए कोई व्यवधान न हो। तुलसीदास काशी जाने का निश्चय कर लेते हैं और वही कमाई करने लगते हैं। काशी के असी घाट पर रहना दूभर हो गया था, कुछ दुष्ट तुलसीदास को काशी से भगाने में अपनी महानता समझते थे। हर बार असत्य पर सत्य की विजय हुई।

एक बार भादो की काली रात में (अस्थिपंजर.. साँप..के माध्यम से..) तुलसीदास बिन बुलाए ससुराल चले गए थे, वहाँ रत्नावली एवं साला गंगेश्वर ने बहुत फटकारा था, फिर भी रात में तुलसीदास अपनी अर्धांगिनी रत्नावली से मिले थे। उसी रात तुलसी ने घर छोड़ने का निश्चय किया और जाते-जाते वादा भी किया था कि एक बार मिलने अवश्य आऊँगा, क्योंकि रत्नावली ने फटकार ते हुए कहा था-

“लाज न आवत आपको दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौ मैं नाथ।।
अस्थि चर्ममय देह मय, जासौं ऐसी प्रीति।
वैसी जो श्री राम महा, होति न तौ भयभीत।।”

भटकत-भटकते तुलसीदास चित्रकूट आ गए और राम भजन में लग गए थे। एक दिन राजा भगत वहाँ पहुँच गया और तुलसीदास से घर चलने का आग्रह करने लगा, साथ ही राजा भगत ने बताया कि तुम्हारा बेटा तारापति को ‘बड़ी माता’ निकल आने के कारण उसकी मृत्यु हो गई है। फिर भी तुलसीदास घर नहीं गए और कहने लगे मैं विरक्त हूँ। मेरा न कोई बेटा है, न पत्नी, न ही नाते-गोतिये-


“एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
रामरूप स्वाती जलद, चातक तुलसीदास।।” (पृष्ठ 134)

चित्रकूट में ही स्वप्न में सीता माँ के दर्शन करके तुलसीदास ने कहा- मेरा मार्ग मुझे दिखाओ अम्ब। सीता माँ ने उत्तर दिया- अयोध्या जाओ, तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। फिर उन्हें हनुमान जी गंगा तट पर दिखाई पड़े। उन्होंने कहा कि रामायण की रचना करो। इसी में तुम्हारा कल्याण होगा। लेखक अमृतलाल नागर जी ने मार्मिकता के साथ लिखा- “तुलसीदास अब मुक्त थे। निरंतर राम नाम जपना, माँग कर खाना, रात में राम जन्मभूमि के ऊपर बनी मस्जिद के द्वार पर फकीरों के बीच में पड़े रहना, यही अब उनका जीवन क्रम बन गया।” तुलसीदास ने राम नवमी को श्री रामचरित मानस की रचना प्रारंभ कर दी, जिसके संबंध में स्वयं तुलसीदास ने लिखा है-

“संबत सोरह सै इकतीसा। करहुँ कथा हरि पद धरि सीसा।।” (बालकाण्ड 02/34)

(सम्वत 1631 वि० = सन 1574 ई०)

तुलसीदास की बढ़ती लोकप्रियता से द्वेषवश अयोध्या के पंडित वैदेही वल्लभ और अन्य ब्राम्हण उन्हें परेशान करने लगे थे। इससे कुंठित तुलसीदास अयोध्या त्यागकर काशी आ गए। वहाँ अपने मित्र गंगाराम के घर में रहने लगे। वहीं काशी में टोडर नामक धर्मनिष्ठ व्यक्ति से तुलसीदास की मुलाकात हुई। तुलसी के रहने की स्थाई व्यवस्था कर दी, वह स्थान था- हनुमान फाटक। वहीं रहकर तुलसीदास रामचरित मानस लिखा करते थे। तुलसीदास द्वारा पत्नी को त्याग देने पर अन्य गृहस्थ गोस्वामियों ने विरोध किया। एक गोस्वामी बालक ने तुलसीदास से कहा- “कथा तुम्हारे बाप दादा नहीं सुना सकते, हमारे जीते जी काशी में यह अनाचार नहीं होगा। अपनी रामायण को गंगा में डूबा दो।”

तुलसी ने कहा- “मेरी रामायण जन-जन के हृदय गंगा में तटिनी बन कर तैरेगी। राम कृपा से यह कथा अवश्य पूर्ण होगी। शंकर भोलेनाथ भी यह कथा सुनेंगे। अथक प्रयास और तमाम मानवी झंझावात तूफानों के उतार-चढ़ाव के बाद 2 वर्ष 7 माह 26 दिन में श्री रामचरित मानस की कथा पूर्ण हुई।
अंत में संतों की महफ़िल सजी, सब ध्यानमग्न हुए कथा प्रारम्भ हुई। तुलसीदास विजय घोषित किए गए। तुलसी के विरोधी बटेश्वर ने हर तरह से प्रताड़ित किया। उन दिनों तुलसीदास अस्वस्थ रहने लगे थे। तुलसीदास के प्रिय मित्र टोडर, गंगाराम, कैलास, जैराम साहू आदि उनके पास बैठे थे। तभी एक सरकारी व्यक्ति आया और हुजूर आला का संदेश दिया कि आपका स्वास्थ्य कैसा है? अगले दिन मित्र अब्दुल रहीम खानखाना (रहीम दास) ने तुलसीदास से राजाश्रय ग्रहण करने का आग्रह किया। तुलसीदास ने मुस्कुराते हुए बोले- ‘आपकी बड़ी कृपा है खानखाना साहब, परन्तु….

‘हम चाकर रघुवीर के, पटो लिखो दरबार।
तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।।” (पृष्ठ 235)

उपन्यास का 31वाँ अंक पीड़ा भरा है, या यूँ कह सकते हैं कि उपन्यास का अंतिम अंक अश्रुपूरित है। तुलसी की उम्र काफी हो चुकी थी। उनके बाह में गिल्टी पड़ गई, फिर सारे शरीर में फुंसियाँ निकल आई। मवाद बहने के कारण कोठरी में पड़े रहते थे। उन्हें वात रोग भी सताने लगा था। तुलसीदास कराहते हुए कहते थे कि सुख से दुख भला, जो राम को याद करा देता है। (पृष्ठ 243)
तुलसीदास के जीवन का अंत निकट आ गया था। वो सपना देख रहे थे कि गणेश, सूर्य, शिव, पार्वती, गंगा, यमुना, काशी, चित्रकूट की झांकियाँ सामने आ रही हैं। तुलसीदास यह सब स्वप्न में देखकर हनुमान जी को विनय पत्रिका देते हुए कहते हैं कि इसे श्रीराम के पास पहुँचा देना, इसी के साथ रुँधे गले से तुलसीदास ने सांस खींचकर दोहा पढ़ा-


“राम नाम जस बरनि कै, भयो चहत अब मौन।
तुलसी के मुख दीजिए, अबहीं तुलसी सोन।।” (पृष्ठ 246)

बादलों की गड़गड़ाहट के बीच श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की तीज के दिन तुलसीदास के आदेश से उनके प्रिय शिष्य रामू ने उन्हें सहारा देकर बैठाया, शिष्य बेनीमाधव तलवे सहलाने लगे। कैलास ने नाड़ी पकड़ कर रोते हुए कहा- ‘इन्हें धरती पर लो भगत जी, मेरा यार चला।’ अंत समय में रामभक्त तुलसीदास ने एक दृष्टि में अपने मित्रों एवं शिष्यों को देखा, तत्क्षण दीवाल पर अंकित हनुमान जी और सियाराम के चित्रों को देखा, देखते ही रहे, देखते ही रहे… देखते ही रह गए…। गोस्वामी तुलसीदास जी अंत में 91 वर्ष की उम्र में संवत 1680 वि० (सन 1623 ई०) में सदा-सदा के लिए श्री राम के पावन चरणों में विलीन हो जाते हैं। उपन्यासकार अमृतलाल नागर जी ने तुलसी के जन्म से लेकर मृत्यु तक की संघर्ष भरी मार्मिक और प्रेरक जीवनी का वर्णन मानो सजीव चित्रण किया है, जो हृदयस्पर्शी होने के साथ- साथ जीवन के अंतिम सत्य को बयां करती हैं।

तुलसीदास की मृत्यु के संदर्भ में निम्नवत दोहा प्रसिद्ध है-
“संवत सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो शरीर।।”

साभार 'मानस का हंस - संस्करण 2007, अमृतलाल नागर।
  • प्रकाशक- राजपाल एंड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हरचंदपुर – रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459