रामधारी सिंह दिनकर : राष्ट्र के सजग प्रहरी
‘मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है’ ◆ रामधारी सिंह दिनकर
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर सन 1908 को बिहार राज्य में बेगूसंराय जनपद के सिमरिया ग्राम में हुआ था। दिनकर की कविताएँ छायावादोत्तर युग (प्रसादोत्तर युग) के प्रगतिवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। दिनकर ने हिंदी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू का अध्ययन किया है। दिनकर जी अनवरत प्रगतिपथ पर बढ़ते हुए प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक, बिहार सरकार की सेवा में प्रचार-प्रसार विभाग में उपनिदेशक, मुजफ्फरपुर में हिंदी विषय में प्रोफेसर, फिर सत्यनिष्ठा के साथ बुलंदियों की ओर बढ़ते हुए भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे हैं। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर की योग्यताओं और राष्ट्रप्रेम को परखते हुए दोनों साहित्यकारों को सन 1952 में राज्यसभा सदस्य मनोनीत था।
संत कबीरदास, पं० सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नागार्जुन को साहित्य जगत में ‘विद्रोही कवि’ की संज्ञा दी गई है, जिन्होंने निडरता के साथ सत्य को सत्य और गलत को गलत कहा है। उसी परिपाटी पर दिनकर जी भी खरे उतरते हैं। दिनकर जी प्रशासनिक कार्यों में दक्ष, मृदुभाषी, बेबाक लेखन करने वाले, निडर, व्यक्तित्व के धनी और देश की बात आने पर विद्रोही भावना के पोषक थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया था, फिर भी देश हित की बात आने पर पंडित नेहरू पर भी टिप्पणी करने से दिनकर जी पीछे नहीं हटे-
“देखने में देवता सदृश्य लगता है,
बंद कमरे में बैठकर गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा हो,
समझो उसी ने हमें मारा है।”
दिनकर जी की प्रमुख रचनाएँ-
काव्य– कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, धूप और धुआँ, कोयला और कवित्व, द्वंद्व गीत, उर्वशी, हुंकार, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार, विपथगा आदि।
निबंध– मिट्टी की ओर, अर्धनारीश्वर, रेती के फूल, प्रसाद और मैथिलीशरण, शुद्ध कविता की खोज आदि।
संस्कृति प्रधान ग्रंथ– संस्कृति के चार अध्याय, हमारी सांस्कृतिक एकता, भारतीय एकता आदि।
यात्रा वृत्तांत– देश विदेश, लोकदेव नेहरू।
संस्मरण– दिनकर की डायरी।
लघुकथा– उजली आग।
रामधारी सिंह दिनकर को सन 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, सन 1959 में पद्म विभूषण पुरस्कार और सन 1972 में और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘कुरुक्षेत्र’ प्रबन्धकाव्य के माध्यम से त्रेता युग, द्वापर युग से आधुनिक युग में समन्वय स्थापित करने वाले, इंसान के अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाले आधुनिक काल के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी वृद्धावस्था में काशी में रहते थे और वहीं काशी में ही 24 अप्रैल सन 1974 को चिर निंद्रा में लीन हो गए।
‘राष्ट्रप्रेम/राष्ट्रीय भावना’ शब्द पर गहराई से चिन्तन किया जाए, तो इसका बहुआयामी अर्थ सागर जैसा विशालकाय दिखाई पड़ेगा, जिसे किसी संकुचित परिधि में बाँधा नहीं जा सकता। राष्ट्रप्रेम से आशय भारतीय संस्कृति, संविधान, प्रकृति, जीव जंतु, मानव आदि से आत्मीय प्रेम और इन सबसे ऊपर मानवता पर आधारित है।
रामधारी सिंह दिनकर प्रगतिवादी कवि और राष्ट्रवाद के पोषक हैं। दिनकर का नाम पढ़ते ही मन में ओज, महाभारत के युधिष्ठिर जैसे सत्यवादी, भीम जैसा बल और अन्य पात्रों का कर्म-धर्म तथा भारत के प्रति स्नेह उमड़ने लगता है। शोषित वंचित की दयनीय स्थिति, शोषकों के प्रति घृणा, धर्म और ईश्वर के प्रति अनास्था दिनकर जी का प्रमुख विषय रहा है।
हिंदी काव्य में प्रगतिवाद का उद्भव सन 1936 में हुआ। उस समय “कृपाण और कलम” आजादी पाने की दीवानी थी। प्रगतिवाद मार्क्सवाद से प्रभावित था। दिनकर जी के प्रगतिवाद का केंद्र बिंदु शोषित, कृषकों, मजदूरों और पीड़ितों मनोदशा है, जिसको सहानुभूति के साथ वर्णित करते हुए ‘विपथगा’ (1939) कविता में लिखा था-
“श्वानों को मिलता दूध, वस्त्र,
भूखे बालक को अकुलाते हैं।
माँ की छाती से चिपक, ठिठुर,
जाड़े की रात बिताते हैं।”
स्त्रियों के प्रति सहानुभूति, पीड़ा, अशिक्षा, त्याग, ममता, लज्जा, सम्मान आदि को मैथिलीशरण गुप्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जैसे कवियों ने अपना का प्रमुख विषय बनाया है, तो देश के सजग प्रहरी दिनकर ने भी इसी दृष्टिकोण पर केंद्रित विषय का चयन किया। स्त्री की अस्मिता को झकझोरने वाले स्वस्वार्थी शोषकों को खरी-खोटी सुनाते हुए दिनकर जी ने “विपथगा” कविता (1939) में लिखा है-
“युवती के लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा दृव्य बहाते हैं।
पापी महलों का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण..”
सहृदयी रामधारी सिंह दिनकर ने तत्कालीन घटनाओं, यातनाओं, विषमताओं को बहुत बारीकी से देखा है। प्रगतिवादी कवियों ने शासकों को छलिया, कपटी, निर्मोही की संज्ञा दी है। पूँजीवादी चाहते थे कि उद्योगधंधे, जमींदारी, शिक्षा, व्यापार चंद लोगों की मुट्ठी में हो, तभी शोषितों, वंचितों पर शासन और अत्याचार किया जा सकता है। शोषक वर्ग का विरोध करते हुए दिनकर जी ने लिखा है-
“हो यह समाज चीथड़े चीथड़े,
शोषण पर जिस के नींव पड़ी।”
प्रगतिवादी काव्य में धर्म और ईश्वर का कोई स्थान नहीं है, अपितु इन्हें शोषण का हथियार माना जाता है। दिनकर ने इस सत्य को स्वीकारते हुए कर्म को प्रधान मान करके महाभारत के निर्णायक युद्ध और संघर्ष आधारित कविता ‘कुरुक्षेत्र’ (1946) में लिखा है-
“भाग्यवाद आवरण पाप का और शस्त्र शोषण का।
जिससे रखता दबा एक जन, भाग दूसरे जन का।।”
रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में त्याग, तपस्या, करुणा, क्षमा के साथ उग्र चेतना का भी प्रादुर्भाव मिलता है। जब हिंसक पशु भोले-भाले इंसान को घेर लेते हैं तो बल बुद्धि दोनों का प्रयोग करना पड़ता है। दिनकर जी ने प्रबंध काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में उक्त संदर्भ का विवेचन करते हुए लिखा है-
“हिंस्त्र पशु जब घेर लेते हैं उसे,
काम आता है बलिष्ठ शरीर।”
न्याय की आस में शोषित वर्ग एक उम्मीद की लौ मन में जलाए रखता है। ‘कुरुक्षेत्र’ में युद्ध और शांति दोनों समस्या को उठाया गया है। जब तक शोषित उदारता दिखाता है, तब तक शासकों द्वारा उसे और अधिक सताया दबाया जाता है। जिस दिन दलित इंसान भागते-भागते अचानक उग्र स्वभाव के साथ दुश्मनों पर झपट्टा मारने को रुक जाता है, तब दिनकर जी की लेखनी निरीह इंसानों में ओज तत्व भरती है। जब न्यायोचित अधिकार माँगने से नहीं मिलता है, तो तेजस्वी व्यक्ति युद्ध से प्राप्त करना चाहता है या मृत्यु को प्राप्त होना बेहतर समझता है-
“न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिले तो लड़ के।
तेजस्वी छीनते समर में जीत या कि खुद मर के।।”
‘विज्ञान’ को वरदान है अथवा अभिशाप?
इस तथ्य पर आज भी बहस जारी है। विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार व्याख्या की है। भारत की स्वतंत्रता से पूर्व विज्ञान और वैज्ञानिक उप्लब्धियाँ न के बराबर थी। दिनकर दूरदृष्टा थे, जिन्होंने एक तरफ विज्ञान का समर्थन करते हुए कहा था कि विज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधानों के कारण इंसान दूसरे ग्रहों में घर बसाना चाहता है, या यूँ कहें, अखिल विश्व मुट्ठी में समाहित है। यहाँ तक, वर्षा, विद्युत, भाप, तापमान आदि इंसान के इशारों पर घटते-बढ़ते हैं-
“आज की दुनिया विचित्र, नवीन,
प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।
हैं बंधे नर के करों में वारि, विद्युत, भाप,
हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।”
दूसरी तरफ, दिनकर जी को राष्ट्र की चिंता भी है। भौतिकवादी सुख-साधन के लिए जिस गति से विज्ञान प्रगति कर रही है वह पर्यावरण, मानव और मानवता का ह्रास जल्दी ही करेगी। वह भविष्यवाणी आज चरितार्थ हो रही है। दिनकर ने मार्मिकतापूर्ण विचार व्यक्त करते हुए कहा है कि विज्ञान तलवार के समान है, जरा भी लापरवाही बरतने पर शारीरिक, मानसिक, आर्थिक छति हो सकती है-
“सावधान, मनुष्य! यदि विज्ञान है तलवार,
तो इसे दे फेंक, तज कर मोह, स्मृति के पार।
हो चुका है सिद्ध, है तू शिशु अभी नादान,
फूल-काँटों की तुझे कुछ भी नहीं पहचान।
खेल सकता तू नहीं ले हाथ में तलवार,
काट लेगा अंग, तीखी है बड़ी धार।”
सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कविकर्म निभाते हुए निडर होकर दिनकर ने ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ कविता लिखी थी। इस कविता में देश की अस्मिता की रक्षा करने के लिए सत्ताधारियों और विपक्ष के नेताओं के अंदर हुँकार और पौरुष भरने के लिए सिंह गर्जना करते हुए लिखा था-
“वैराग्य छोड़ बाहों की विभा संभालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो।
है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं को पकड़ निचोड़ो।
रामधारी सिंह दिनकर ने ‘कलम, आज उनकी जय बोल’ कविता ही नहीं लिखा, अपितु हर भारतीय की मार्मिक पीड़ा लेखनी के माध्यम से व्यक्त किया है। भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र कराने के लिए जो वीर सपूत हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गए थे, उन वीरों के शौर्य का वर्णन करके अमर शहीदों के श्री चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए दिनकर ने लिखा है-
जला अस्थियाँ बारी-बारी,
चटकाई जिनमें चिंगारी।
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।
अशोक कुमार गौतम (असिस्टेंट प्रोफेसर)
श्री महावीर सिंह स्नातकोत्तर महाविद्यालय
रायबरेली, उ०प्र०
मो० 9415951459