मुंशीगंज गोलीकांड : रायबरेली में दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड

बहुत ही सच्ची घटनाएं इतिहास के पन्नों में आज भी दफन है। यदि इनका सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो निश्चित रूप से भारत वर्ष सोने की चिड़िया नजर आएगा, परंतु भौतिकवादी युग में ऐतिहासिक धरोहरों से इंसान का सरोकार निरंतर घटता ही जा रहा है। रायबरेली के दक्षिण छोर में सई नदी के तट पर स्थित शहीद स्मारक सीमेंट और कंक्रीट का स्तंभ मात्र नहीं है, वरन बहुत सी माताओं, बहनों, वीर नारियों का सुहाग इस स्मारक के कण-कण में रचा बसा है। मुंशीगंज के इस गोलीकांड में किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, किसी का पिता अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए कुर्बान हो गया है। जब इस शहीद स्मारक की तरफ देखता हूँ तो वक्षस्थल गर्व से चौड़ा हो जाता है कि इन अमर वीर सपूतों की बदौलत हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं, किंतु इस पर्यटक स्थल की बदहाली देख कर मन व्यथित हो जाता है। इस शहीद स्मारक में सुरक्षा के इंतजाम नाकाफी होने के कारण यह पूज्यनीय धरोहर रूपी स्थल वास्तव में युगल जोड़ों का संगम स्थल बनकर रह गया है।

इस पावन भूमि पर प्रति वर्ष 7 जनवरी को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, कवि सम्मेलन आदि होते हैं। मेला जैसा हर्ष-उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

भारतीय इतिहास में दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड रायबरेली के मुंशीगंज गोलीकांड को कहा जाता है।

रायबरेली शहर को दक्षिणी क्षेत्रों से जोड़ने के लिए मुंशीगंज के निकट सई नदी पर पुल बना हुआ था जो रायबरेली नगर और मुंशीगंज को जोड़ता था। अंग्रेजों को अधिक कर टैक्स देने और उनकी गुलामी के विरोध में हजारों किसान इसी पुल के दूसरी छोर पर एकत्रित हुए थे। इस आंदोलन में हिस्सा लेने पं.जवाहरलाल नेहरू जी पंजाब मेल से रायबरेली रेलवे स्टेशन पर उतर कर पैदल ही सई नदी के तट पर पहुँच गए थे, जबकि पहले मोतीलाल नेहरू को रायबरेली आना था। किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन को समाप्त करने और अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अंग्रेजों ने 07 जनवरी 1921 को निहत्थे किसानों पर धावा बोल अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दिया, मजबूत कंक्रीट का बना पुल को भी तोड़ दिया गया था। इस पुल के अवशेष रूप में दीवालें आज भी खड़ी हैं, जिस पर वर्तमान समय में लगभग 4 फ़ीट चौड़ा लोहे की रॉड और चद्दर से बना अस्थायी पुल आज भी प्रतिदिन सैकड़ों पैदल और साइकिल यात्रियों को नदी पार कराते हुए थकता नहीं है, बल्कि अपनी गौरवशाली अतीत की याद तरो-ताजा कर देता है। इस स्मारक स्थल को आज भी टूटा पुल के नाम से पुकारा जाता है। इस हत्याकांड में लगभग 700 से अधिक भारतीय किसानों की हत्या की गयी थी और 1200 से ऊपर किसान घायल हुए थे। घायलों में काफी लोगों ने बाद में दम तोड़ दिया था। तब क्रूर अंग्रेजों ने अपने दस्तावेजों में मृतकों की संख्या मात्र तीन ही लिखी थी। इतनी अधिक मौतों के कारण इसे किसान आंदोलन और दूसरा जलियांवाला बाग हत्याकांड कहा जाता है।

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आंदोलनकारियों ने चंदनिया में 5 जनवरी 1921 किसान सभा का आयोजन किया

ताल्लुकेदारों और जमींदारों का नया हथकंडा था कि दुकानों और घरों में लूटपाट करने के झूठे आरोपों में भोलीभाली और निरीह जनता को फंसा दो। इस अत्याचार से परेशान होकर किसानों और आंदोलनकारियों ने चंदनिया में 5 जनवरी 1921 किसान सभा का आयोजन किया। पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार 7 जनवरी 1921 को सूर्य की लालिमा के साथ ही हजारों किसान बैलगाड़ियों से आकर मुंशीगंज में एकत्रित होने लगे थे। इस बीच जनता को जवाहरलाल नेहरू के आने की खबर मिल चुकी थी। आम लोगों को उम्मीद हो गयी थी कि नेहरू जे के आते ही मेरे दोनों नेताओं के दर्शन हो जाएंगे। क्योंकि अतिउत्साही जनता अपने नेताओं ‘बाबा जानकी दास और अमोल शर्मा, का दर्शन करना चाहती थी, जिन्हें अंग्रेजों ने 5 जनवरी 1921 को गिरफ्तार करके लखनऊ जेल भेज दिया था। जनता नारे लगा रही थी- जानकीदास, अमोल शर्मा, जिंदाबाद जिंदाबाद.., ‘हरी बेगारी बंद हो।’

शिव बालक अहिंसात्मक आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे

सभी राष्ट्रीय चेतनावादी समाचार पत्रों में मुंशीगंज गोली कांड का मुख्य आरोपी खुरहटी के ताल्लुकेदार सरदार वीरपाल सिंह को ठहराया, क्योंकि तत्कालीन जिला कलेक्टर ए.जी. शेरिफ से वीरपाल की अच्छी खासी दोस्ती थी। वीरपाल सिंह ने कलेक्टर शेरिफ को पं जवाहरलाल नेहरू, रायबरेली जिला कॉंग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पं0 मार्तण्डदत्त वैद्य आदि के खिलाफ भड़काया था कि आम जनता नेहरू से मिलने न पाए, वरना नेहरू के भाषण सुनकर जनता उग्र हो जाएगी, जबकि जनता का उद्देश्य ऐसा कुछ भी नहीं था। खुरहटी निवासी शिवबालक ने सरदार वीरपाल सिंह के खिलाफ आवाज उठाई। शिव बालक अहिंसात्मक आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे। आम जनता पंडित जवाहरलाल नेहरू के दर्शन पाना चाहती थी। इसी समय नदी के तट पर अवसर देखकर वीरपाल सिंह ने कलेक्टर की शह पर शिवबालक से बदला लेने के लिए गोली चला दी, जिसमें शिवबालक की मृत्यु हो गई। गोलियों की आवाज सुनकर ब्रिटिश सिपाहियों ने भी निहत्थे जनता पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।

क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी ने 13 जनवरी 1921 को प्रकाशित अंक में इस गोलीकांड को प्रमुखता से प्रकाशित किया था

कानपुर के प्रसिद्ध पत्रकार, सप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ के संपादक, क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी ने 13 जनवरी 1921 को प्रकाशित अंक में इस गोलीकांड को प्रमुखता से प्रकाशित किया था। प्रकाशित अंक ‘प्रताप’ में विद्यार्थी जी ने लिखा कि “डायर ने जो कुछ किया था उससे रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने क्या कम किया है। निहत्थे और निर्दोषों पर उसने गोलियां चलवाई, यही काम यहां रायबरेली में किया गया। वहाँ मशीनगन थीं, यहाँ बंदूकें थीं। वहाँ घिरा हुआ बाग था तो यहाँ नदी का किनारा। परंतु निर्दयता और पशुता की मात्रा में कोई कमी न थी। मरने वालों के लिए मुंशीगंज की गोलियां वैसे ही कातिल थी, जैसी जलियांवाला बाग की गोलियां।” पुनः गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस गोलीकांड को 19 जनवरी सन 1921 को अपने अखबार ‘प्रताप’ में प्रकाशित किया था।

अंग्रेजों ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर मानहानि का केस चलाया

ये खबरें पढ़कर अंग्रेजों ने गणेश शंकर विद्यार्थी पर मानहानि का केस चलाया। गणेश जी के आलेख का समर्थन पंडित जवाहरलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, सी.एस. रंगाअय्यर आदि ने किया। श्रीमती जनकिया, बुधिया, बसंता आदि 65 लोगों ने गणेश शंकर विद्यार्थी के पक्ष में गवाही दी। पाँच मास लंबी बहस के बाद 30 जुलाई 1921 को मानहानि केस निर्णय के तहत न्यायाधीश मकसूद अली खान ने गणेश शंकर विद्यार्थी को विभिन्न धाराओं में छः माह की जेल और ₹ 1000 जुर्माना की सजा सुनाई। 100 वर्ष पहले के ₹ 1000 की कीमत का आज के समय में अनुमान लगा पाना आसान नहीं है। गणेश शंकर विद्यार्थी की जुर्माना राशि सेठ कंधई लाल अग्रवाल ने भर दिया था। अंग्रेजों का यह निर्दयी कृत्य सिद्ध करता था कि ‘अंग्रेज हैं मनुष्य, परंतु यथार्थ में पशु।’

रायबरेली विकास प्राधिकरण द्वारा शहीद स्मारक को पर्यटक स्थल (पिकनिक स्पॉट) के रूप में स्थापित किया गया था।

इस पवित्र स्थल पर शहीद स्मारक, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी द्वारा रोपित कदम्ब वृक्ष, बच्चों के लिए झूले, नवग्रह वाटिका, शहीदों की सांकेतिक मूर्तियां, जिराफ़, मगरमच्छ, कछुआ जैसे कुछ जलीय जीव सीमेंट और चीनी मिट्टी से बनाये गए, और रंग-विरंगे फूल पौधे रोपे गए थे। छोटा सा टीन शेड बना था।

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अफसोस! शासन-प्रशासन की बदइंतजामी के कारण अराजक तत्वों ने लगभग सब कुछ तोड़-फोड़ दिया है। अराजकतत्वों पर वैधानिक कार्यवाही होनी चाहिए।

इस गोलीकांड के एक सौ वर्ष पूर्ण हो गए हैं, किंतु शहीदों की याद में बना यह पार्क आज भी बदहाली के आँसू रो रहा है। इसी स्थान पर भारत माता का विशालकाय भव्य मंदिर भी बना हुआ है। दुर्भाग्य है कि इस मंदिर में कबूतर, कुत्ते घूम-घूमकर मल मूत्र त्याग कर गंदगी फैलाते हैं। सोंचो! यह सब देखकर शहीदों की आत्मा क्या कहती होगी?

कहा जाता है जब किसानों की हत्याएं हो रही थीं, अंग्रेजी हुक़ूमत की अंधाधुंध गोलियां निहत्थी जनता पर चल रही थीं, तब सई नदी का पानी लाल हो गया था। अब इंतजार है भारत माता का कोई लाल आगे आये और इस पवित्र स्थल का जीर्णोद्धार करा सके.. वन्देमातरम

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर (दूरभाष नगर) रायबरेली
मो. 9415951459
रानी रूदाबाई का इतिहास | Rani Rudabai ( Rupba ) History in Hindi

रानी रूदाबाई का इतिहास | Rani Rudabai ( Rupba ) History in Hindi

१५वीं शताब्दी ईसवीं सन् १४६०-१४९८ पाटन राज्य गुजरात से कर्णावती (वर्तमान अहमदाबाद) के राजा थे राणा वीर सिंह वाघेला, यह वाघेला राजपूत राजा की एक बहुत सुन्दर रानी थी जिनका नाम था रुदाबाई (उर्फ़ रूपबा)। इनकी सुंदरता के चर्चे चारों ओर फैले हुए थे। जितनी ही रूप वान थी उतनी ही दृढ़ संकल्प और साहसी महिला।

रानी रुदाबाई परिवार (Rani Rudabai Family) –

क्रमांकजीवन परिचय बिंदुरुदाबाई जीवन परिचय
1.       पूरा नामरुदाबाई (उर्फ़ रूपबा)
2.       राज्य गुजरात से कर्णावती (वर्तमान अहमदाबाद)
3.       विशेष रानी रुदाबाई की पच्चीस सौ धनुर्धारी वीरांगनाओं ने सुल्तान बेघारा के दस हजार सैनिकों को मार डाला था
4.       प्रसिद्धि का कारण सुल्तान बेघारा को मार कर रानी रुदाबाई ने सीना फाड़ कर दिल निकाल कर कर्णावती शहर के बीच में टांग दिया था
5.       पति का नामराजा वीर सिंह वाघेला
6.       मृत्युजल समाधि

कट्टरपंथी का सीना फाड़ शहर के बीच टांगने वाली रूदाबाई

पाटन राज्य बहुत ही वैभवशाली राज्य था इस राज्य ने कई तुर्क हमले झेले थे, पर कामयाबी किसी को नहीं मिली , सन् १४९७ पाटन राज्य पे हमला किया राणा वीर सिंह वाघेला के पराक्रम के सामने सुल्तान बेघारा की चार लाख से अधिक संख्या की फ़ौज २ घंटे से ज्यादा टिक नहीं पाई थी।

राणा वीर सिंह वाघेला की फ़ौज छब्बीस सौ से अठ्ठाइस सौ की तादात में थी क्योंकि कर्णावती और पाटन बहुत ही छोटे छोटे दो राज्य थे। इनमें ज्यादा फ़ौज की आवश्यकता उतनी नहीं होती थी । राणा जी के रणनीति ने चार लाख की जिहादी लूटेरों की फ़ौज को खदेड दिया था।

इतिहास गवाह है कि कुछ हमारे ही भेदी इस तरह के हुए हैं जो दुश्मनों से जाकर अक्सर मिल जाया करते थे कुछ लालच और लोभ में , इसी तरह द्वितीय युद्ध में राणा जी के साथ रहने वाले निकटवर्ती मित्र धन्नू साहूकार ने राणा वीर सिंह को धोखा दिया । धन्नू साहूकार जा मिला सुल्तान बेघारा से और सारी गुप्त जानकारी उसे प्रदान कर दी, जिस जानकारी से राणा वीर सिंह को परास्त कर रानी रुदाबाई एवं पाटन की गद्दी को हड़पा जा सकता था । सुल्तान बेघारा ने धन्नू साहूकार के साथ मिल कर राणा वीरसिंह वाघेला को मार कर उनकी स्त्री एवं धन लूटने की योजना बनाई ।

सुल्तान बेघारा ने साहूकार को बताया अगर युद्ध में जीत गए तो जो मांगोगे दूंगा, तब साहूकार की दृष्टि राणा वाघेला की सम्पत्ति पर थी और सुल्तान बेघारा की नज़र रानी रुदाबाई को अपने हरम में रखने की एवं पाटन राज्य की राजगद्दी पर आसीन होकर राज करने की थी ।

सन् १४९८ ईसवीं (संवत् १५५५) दो बार युद्ध में परास्त होने के बाद सुल्तान बेघारा ने तीसरी बार फिर से साहूकार से मिली जानकारी के बल पर दुगनी सैन्यबल के साथ आक्रमण किया, राणा वीर सिंह की सेना ने अपने से दुगनी सैन्यबल देख कर भी रणभूमि नहीं त्यागी और असीम पराक्रम और शौर्य के साथ लड़ाई लड़ी, जब राणा जी सुल्तान बेघारा के सेना को खदेड़ कर सुल्तान बेघारा की और बढ़ रहे थे तब उनके भरोसेमंद साथी धन्नू साहूकार ने पीछे से वार कर दिया, जिससे राणा जी की रणभूमि में मृत्यु हो गयी ।

साहूकार ने जब सुल्तान बेघारा को उसके वचन अनुसार राणा जी की धन को लूट कर उनको देने का वचन याद दिलाया तब सुल्तान बेघारा ने कहा …”एक गद्दार पर कोई ऐतबार नहीं करता हैं ,गद्दार कभी भी किसी से भी गद्दारी कर सकता हैं .।” सुल्तान बेघारा ने साहूकार को हाथी के पैरों के तले फेंक कर कुचल डालने का आदेश दिया और साहूकार की पत्नी एवं साहूकार की कन्या को अपने सिपाहियों के हरम में भेज दिया।

रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई

सुल्तान बेघारा रानी रुदाबाई को अपनी वासना का शिकार बनाने हेतु राणा जी के महल की ओर दस हजार से अधिक लश्कर लेकर पँहुचा, रानी रुदाबाई के पास शाह ने अपने दूत के जरिये निकाह प्रस्ताव रखा, रानी रुदाबाई ने महल के ऊपर छावणी बनाई थी जिसमे पच्चीस सौ धनुर्धारी वीरंगनायें थी, जो रानी रुदाबाई के इशारा पाते ही लश्कर पर हमला करने को तैयार थी। रानी रुदाबाई न केवल सौंदर्य की धनी ही नहीं थी बल्कि शौर्य और बुद्धि की भी धनी थी , उन्होंने सुल्तान बेघारा को महल द्वार के अन्दर आने को कहा, सुल्तान बेघारा रानी को पाने के लालच में अंधा होकर वैसा ही किया जैसा रुदाबाई ने कहा, और रुदाबाई ने समय न गंवाते हुए सुल्तान बेघारा के सीने में खंजर उतार दिया और उधर छावनी से तीरों की वर्षा होने लगी जिससे शाह का लश्कर बचकर वापस नहीं जा पाया।

सुल्तान बेघारा को मार कर रानी रुदाबाई ने सीना फाड़ कर दिल निकाल कर कर्णावती शहर के बीच में टांग दिया था , और उसके सर को धड़ से अलग करके पाटन राज्य के बीच टंगवा दिया, साथ ही यह चेतावनी भी दी गई कि कोई भी आततायी भारतवर्ष पर, या हिन्दू नारी पर बुरी नज़र डालेगा तो उसका यही हाल होगा ।
रानी रुदाबाई की पच्चीस सौ धनुर्धारी वीरांगनाओं ने सुल्तान बेघारा के दस हजार सैनिकों को मार डाला था।
रानी रुदाबाई इस युद्ध के बाद जल समाधी ले ली ताकि उन्हें कोई और आक्रमणकारी अपवित्र न कर पाएं ।

भारतवर्ष में ही ऐसी वीरांगनाओं की कथाएँ मिलेंगी जिन्होंने अपने राज्य और देश की सेवा में अपना सर्वस्व निछावर किया और इतिहास लिखकर कुछ कर गई। अब हम पर है कि हम उनको, उनकी शहादत को किस तरह सम्मान देते हैं।

अंजना छलोत्रे

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गलत संगत

बेटे कुंदन की मौत के 50 वर्ष बाद अब उसके पिता की हाल ही में मृत्यु हुई है । इन 50 वर्षों में कुंदन के पिता हर रोज सोचते रहे कि मैं अपने बेटे को क्यों नहीं समझा पाया कि वह बुरी संगत छोड़ दें और अपनी पढ़ाई में ध्यान दें। दो चार गलत मित्रों की संगत में वह ऐसा फंसा कि उसने अपने सोने जैसी जिंदगी को एक दिन ईट कंक्रीट से बनी, रेगिस्तान सी गर्म सड़क पर तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया।

उसकी लाश भी कई दिन के बाद मां-बाप को मिली थी।

कुंदन की मां तो आज भी जीवित है और वह चीख चीख कर हर रोज सबको कहती फिरती है कि अपने माता पिता के कहे में रहो । जब उम्र पढ़ने की हो तो सिर्फ पढ़ो, गलत संगत में मत पड़ो।

वह जानती है उसका कुंदन वापस नहीं आएगा, फिर भी वह हर बेटे में अपना कुंदन देखती है और भगवान के आगे भी यही बड़बड़ाती है और रोती है।

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रिश्ते

राखी का दिन था। मां की मौत के बाद बहन मानसी भाई के दरवाजे पर खड़ी थी। उसने तीन चार बार डोर बेल बजाई लेकिन दरवाजा नहीं खुला। वह दरवाजे के बाहर बने चबूतरे पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला और भाई ने दरवाजे पर बहन को बैठा देख कहा “ये टाईम है आने का, मुझे दुकान पर जाना है और तेरी भाभी वैसे ही बीमार है।” कहते हुए भाई ने सकुटर स्टार्ट किया और बोला” कोई जरुरत नहीं है राखी की।”

बहन समझ गई थी, मां रही नहीं अब कैसे त्योहार और कैसे रिश्ते। मानसी ने साथ लाया मिठाई का डिब्बा दरवाजे पर रखा और भरी आंखों से वापस लौट गई, शायद कभी न आने के लिए।

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Short Story Manzil Ki Aur | मंजिल की ओर/ रूबी शर्मा

Short Story Manzil Ki Aur- मंजिल की ओर-रूबी शर्मा

मंजिल की ओर

रूबी शर्मा

अनेक संघर्षों का सामना करते हुए आज मुझे मेरी मंजिल मिल गई हैं। आज मैं सुपरस्टार हूं। पूरा शहर मुझसे परिचित है। अधिकांश तो मेरे प्रशंसक हैं। यह तो मुझ पर परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा है कि उसने मुझे बहुत ही सुंदर बनाया, मेरे रंग के अनुरूप काया भी सुडौल बनाई है । इतना ही नहीं उसने मुझे कोयल जैसी मीठी आवाज एवं स्वर दिया । यही कारण है कि आज मेरे दर्शक मुझ से बहुत प्रभावित हैं । मेरी कई फिल्में सुपर हिट हो चुकी है।

आज मेरे पास पैसों की कमी नहीं है। ऐश्वर्य हमारे कदमों में बिखरा हुआ है । तीन चार नौकरों का घर भी मेरी वजह से प्रसन्नता पूर्वक चल रहा है ।

यह सब अपनी दोस्त श्रेया को बताते बताते अचानक आयुषी के चेहरे पर उदासी छा गई ,वह शांत हो गई ।आयुषी की यह दशा देखकर श्रेया को बहुत आश्चर्य हुआ । उसने कहा,” अभी तो तुम ठीक ठीक बात कर रही थी किंतु बात करते-करते तुम्हें यह क्या हो गया। श्रेया के पूछने पर उसने कहा कि बहन शायद तुम्हें पता नहीं कि यह सब पाने के लिए, अपनी स्टार बनने की इच्छा की पूर्ति के लिए मैंने क्या-क्या खोया है ।कितने कष्ट सहे हैं । आज मेरे मम्मी- पापा ,भाई ,सास-ससुर एवं पति सतीश सभी मुझसे दूर हो गए हैं ।”

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इतने पर श्रेया बोली,” क्या वे सभी लोग तुम्हें स्टार नहीं बनाना चाहते थे ? क्या उन्हें इस क्षेत्र में कैरियर बनाना पसंद नहीं था? क्या वे सब तुम्हें कुछ और बनाना चाहते थे?”      

आयुषी ने दुख भरी आवाज में कहा ,”हां !वे सभी मुझे स्टार नहीं बनाना चाहते थे। मेरे मम्मी-पापा तो मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, ताकि मैं समाज की सेवा कर सकूं ।बीमार व्यक्तियों की चिकित्सा करके उनका कष्ट दूर कर सकूं ।उनका यह भी कहना था कि मैं गरीब असहाय लोगों की चिकित्सा करके उन्हें निरोग बनाऊं परंतु मैं यह नहीं चाहती थी।मुझे अभिनय कला एवम् संगीत से बेहद रूचि थी ।मैं अपनी इस कला को निखरना चाहती थी ।

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, कालेज के प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेती थी । गीत संगीत एवं नाटक में बहुत अच्छा प्रदर्शन करती थी जिसके कारण मैं पूरे कालेज में जानी पहचानी जाती थी ।मेरे अध्यापक भी मुझसे बहुत स्नेह करते थे ।वह सभी मेरी प्रतिभा का सम्मान करते थे।

मेरी प्रतिभा को देखकर मेरी संगीत की अध्यापिका मैडम दीपांशी मेरी बहुत प्रशंसा करती थी । अक्सर मुझे और अच्छा गाने या अभिनय करने के लिए प्रेरित करती थी । उनका कहना था कि यदि मैं थोड़ी सी मेहनत संगीत एवं अभिनय के प्रति कर दूं तो मैं इस क्षेत्र की ऊंची से ऊंची मंजिल प्राप्त कर सकती हूं। मैडम दीपांशी की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि मेरी रुचि जो इस क्षेत्र में थी। धीरे-धीरे मेरे कालेज की पढ़ाई समाप्त हो गई। मैं स्नातक अच्छे अंको से उत्तीर्ण हो गई ।

अब मैं मुंबई जाकर एक्टिंग का कार्य सीखना चाहती थी। मैंने अपनी इच्छा अपने पापा के सम्मुख रखा उनसे विनती के स्वर में कहा,” पापा! मेरी इच्छा स्टार बनने की है इसलिए मैं एक्टिंग का कार्य सीखना चाहती हूं।अतः आप मेरा ऐसे ही किसी कॉलेज में एडमिशन करवा दीजिए जिससे मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकूं ।”

मेरे पिताजी मुझे इस क्षेत्र में नहीं भेजना चाहते थे । उन्होंने कहा ,”तुम्हें आगे डॉक्टर बनना है ।अतः तुम डॉक्टरी की पढ़ाई करो ।इस समय सिटी विश्वविद्यालय में फार्म आ चुके हैं ।एक-दो दिन में तुम ऑनलाइन फॉर्म देना।”

पापा की इन बातों को सुनकर मेरे हृदय को बहुत आघात पहुंचा लेकिन मैं कर ही क्या सकती थी। फिर मैंने सोचा एक बार और प्रयास करूं ,शायद पापा मान ही जाएं ।वह मुझे मुंबई भेज दे ।

शाम को जब पापा टहलने के लिए बाहर गए तब मैंने मम्मी से पूरी बात कही। उनसे प्रार्थना किया कि वे पापा को किसी भी तरह से तैयार कर लें ।मम्मी ने सांत्वना देते हुए कहा, “ठीक है बेटी मैं तुम्हें तुम्हारे पापा से बात करूंगी ।शायद वह मान जाए।”

बाद में मम्मी ने पापा से इस विषय में बात की लेकिन फिर भी पापा तैयार नहीं हुए । इसी बीच मेरे फूफा जी घर आए । दो-तीन दिन रुके थे। उन्होंने गाजीपुर में रहने वाले दयाराम के बेटे सतीश से मेरी शादी करने के लिए पापा से कहा। पापा ने लड़का देखा। सुंदर और होनहार लड़का देखकर आनन-फानन में ही शादी कर दी । मैं सोच रही थी कि मैं अपनी इच्छा सतीश के सामने प्रकट करुं, शायद वह मेरा साथ दे ।

एक दिन मैंने साहस करके सतीश से अपनी बात कही लेकिन सतीश की भी प्रतिक्रिया सहयोगात्मक न थी ।उसने भी मना कर दिया ।बोला – तुम बी.एड., बी.पी.एड.,नेट,पी- एच.डी. कर लो।नौकरी करके सम्मान की जिंदगी जियो ।उनका यह परामर्श मुझे अच्छा नहीं लगा ।

ससुराल में एक वर्ष ही बीता था कि सहसा मेरे मन में घर द्वार ,नाते- रिश्ते छोड़कर अपने लक्ष्य को पाने का विचार आया।मैं अपना कुछ आवश्यक सामान ,पैसे एवं कुछ जेवर एक बैग में रख कर घर से भाग गई। वहां से मैं रेलवे स्टेशन पहुंची । मुंबई के लिए टिकट लेकर गाड़ी में बैठ गई।कुछ घंटों के सफर के बाद मैं मुंबई पहुंच गई ।मुंबई में कहां जाना था ,मुझे स्वयं ही नहीं पता था ,लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी । खोजते -खोजते एक कमरा किराए पर ले लिया ।वहां रहने लगी।मैं काम की खोज में घर से बाहर निकली लेकिन काफी समय तक मुझे काम नहीं मिला। धीरे-धीरे पैसे भी समाप्त हो गए थे ।एक-एक करके मैंने जेवर बेचना शुरू किया ।

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बाद में मुझे गाना गाने के लिए एक छोटे से थिएटर में नौकरी मिल गई। मैं इससे संतुष्ट नहीं थी क्योंकि घर द्वार छोड़कर मैं थिएटर में गाना गाने नहीं आई थी ।मैं करती भी तो क्या ,मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था। इस अनजान शहर में मैं बिना पैसे के कैसे जीवन व्यतीत करती ।कभी- कभी मेरे मन में घर लौटने का विचार आता था लेकिन मैं सोचती शायद मेरे घर वाले मुझसे नाराज होंगे । अब वह मुझे घर में नहीं रहने देंगे ।यह सोचकर मैं सहम उठती और घर न जाने का विचार मन में दृढ़ कर लेती। काफी दिनों तक मैं थिएटर में ही गाना गाती रही तथा लोगों का मनोरंजन करती रही।

एक बार भाग्य ने मुझे मौका दिया ।अचानक एक दिन सौभाग्य से थिएटर में ही फिल्म निर्देशक संजीव सक्सेना आए ।वह मेरे गाने को सुनकर मेरी आवाज पर प्रसन्न हो गए तभी उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। फिल्मों में गाना गाने की बात कही।उनकी बात को मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं तो यही चाहती थी। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए घर -द्वार, नाते -रिश्ते तोड़ कर मुंबई आई थी।दूसरे दिन से ही मैं थिएटर छोड़कर फिल्म इंडस्ट्री जाने लगी ।

सभी मेरी तारीफ करते थे । कुछ समय पश्चात अपने अभिनय कौशल को भी उन लोगों के सामने प्रकट करने की आज्ञा मांगी और मुझे अभिनय करने की आज्ञा मिल गई।मेरे अभिनय एवं स्वर से फिल्म निर्देशक संजीव सक्सेना जी अति प्रभावित हुए। उन्होंने मुझे फिल्मों में नायिका के लिए सिलेक्ट कर लिया। अब क्या था मैं अपनी मंजिल पर पहुंच चुकी थी ।अब मैं अच्छा से अच्छा प्रदर्शन करने की सोचती थी।

मेरी पहली फिल्म जब रिलीज़ हुई तो हिट हो गई ।मेरे पास प्रशंसकों के प्रशंसा भरे पत्र आने लगे ।यह सब देख कर मैं बहुत प्रसन्न हुई ।आज तक मैंने बहुत सी फिल्मों में काम किया ।उनमें कई फिल्में सुपरहिट साबित हुई।

अब अपने वर्तमान में आते हुए आयुषी कहती है कि मुझे दुख तो बस इस बात का है कि आज शहर में सभी मेरे प्रशंसक हैं परंतु मेरे परिवार वाले मुझसे नाराज हैं ।इतने दिनों तक मैं उनके वियोग में जीती रही ।अब उनसे मिलने की इच्छा होती है ।यह कहकर आयुषी फूट-फूट कर रोने लगी।

श्रेया ने उसे समझाया । बोली- आयुषी धैर्य रखो ।यदि ईश्वर कही है और वह सब की इच्छा की पूर्ति करता है तो वह तुम्हारी इच्छा की पूर्ति भी अवश्य करेगा।यह न जाने कितने बिछड़े लोगों को मिलाता तथा कितनों को भी वियोग की भंवर में फंसा कर बेहाल करता है ।मुझे ऐसा आभास होता है कि तुम्हारे घर के लोग भी तुम्हें जल्दी ही मिलेंगे।

इधर आयुषी के मम्मी पापा सतीश व अन्य सभी लोग टेलीविजन व समाचार पत्रों के माध्यम से जान चुके थे कि अब आयुषी बहुत ऊंची ऊंचाइयों को छू चुकी है ।वे सभी बहुत प्रसन्न हुए ।आयुषी से मिलने के विचार से मुंबई चल दिए ।बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए वे आयुषी का पता लगा पाए ।उसके यहां पहुंचकर नौकर ने उसके विषय में जानकारी ली उनसे मिलने की वजह कहीं ।

अगले दिन आयुषी सुबह का नाश्ता कर रही थी कि एक नौकर ने आकर बताया । कुछ लोग उनसे मिलने गांव से आए हैं ।क्या उन्हें अंदर ले आऊं।आयुषी ने सोचा कि यहां गांव से कौन आया होगा ।यहां गांव से मेरा कोई रिश्ता तो है नहीं फिर कौन आया है ,हो न हो कोई प्रशंसा ही आया होगा ।यह सोचकर उसने गेस्ट रूम में लाने की आज्ञा दे दी।

वे सभी अंदर आए ।अपने परिवारी जनों को देखकर आयुषी स्तंभित रह गई ।उसकी आंखों से प्रसन्नता के आंसू बहने लगे ।उसने सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार किया।सब का यथोचित स्वागत सत्कार किया तथा घर से भागने के लिए क्षमा याचना करते हुए कहा ” मैं आप सब लोगों की इच्छा के विरुद्ध यह कार्य किया किंतु मैं करती ही क्या ईश्वर की यही इच्छा थी। अतः विवश होकर मुझे ऐसा करना पड़ा ।आप लोग मुझे इसके लिए क्षमा करें।”

सतीश ने कहा,” क्षमा तो हम लोगों को तुम से मांगना चाहिए। हमने तुम्हारी प्रतिभा को पहचाना नहीं, उसको निखारने में तुम्हारा सहयोग नहीं दिया ।अतः तुम हम सभी को क्षमा कर दो ।आयुषी के माता पिता उसके कार्य की प्रशंसा करने लगे और कहने लगे हम सभी पुराने विचारों के हैं ।हमें क्या पता कि संगीत और अभिनय में भी इतनी उन्नति की जा सकती है ।हम तो इस कार्य को निकृष्ट ही समझते रहे। तुम ने यह सिद्ध कर दिया कि किसी भी क्षेत्र में ऊंचाइयों को प्राप्त कर नाम कमाया जा सकता है ।

इस प्रकार से अपनी लगन और परिश्रम से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। ईश्वर की कृपा से उसके बिछड़े हुए परिजन भी मिल गये।

जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व

जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व

कवि जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक परिचय

मूलतः कवि, कहानी, नाटक, निबंध, उपन्यास जैसी विधाओं को अपनी प्रतिभा से विभूषित करने वाले कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ। साहित्य और राष्ट्र की सेवा करते हुए 15 नवंबर सन 1937 को चिर निंद्रा में लीन हो गए। जयशंकर प्रसाद ने अपनी काव्य यात्रा वाराणसी में ब्रजभाषा से शुरू की, किंतु समय की माँग को देखते हुए खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। बाद में छायावादी युग के प्रवर्तक के रूप में स्थापित हुए, जिसे आपके ही नाम पर ‘प्रसाद युग’ की संज्ञा दी गई है। इस अवधि में भारत में स्वतंत्रता की क्रांति चरम पर थी। ऐसे कठिन समय में प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय जनमानस में ऊर्जा का संचार किया है। छायावादी युगीन नाटकों की प्रमुख विशेषताएं ‘ध्रुवस्वामिनी’ एवं ‘चंद्रगुप्त’ में विद्यमान हैं-

  1. नाटकों के गीतों में कवि की कोमल भावनाओं की मधुर अभिव्यक्ति है।
  2. नाटकों के समस्त गीत सामाजिकों के अंतःकरण को अनुरंजित करने में पूर्ण समर्थ हैं।
  3. नाटकों के गीतों में गेयता और माधुर्य की प्रधानता है।
  4. नाटकों में गीत प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर बड़े ही सुंदर ढंग से समाहित किए गए हैं।
  5. दोनों नाटकों के गीत राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत हैं।
  6. नाटकों के गीत सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं।

नाटक चंद्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी का मूल उद्देश्य

भारत में पितृसत्तात्मक समाज है। इस पितृ सत्तात्मक समाज में धर्म, वर्ग, जाति, लिंग के आधार पर स्त्री को दोयम दर्जे की प्राणी समझा जाता रहा है। वर्तमान में भी स्त्री स्थिति कुछ हद तक वही है। स्त्री अपनी शिक्षा, इच्छा, अधिकारों और सम्मान के प्रति सजग होने के बावजूद सदैव समझौता वादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर थी। इन समस्याओं को जयशंकर प्रसाद ने अपने हृदय में महसूस किया और नाटक चंद्रगुप्त (1931) तथा ध्रुवस्वामिनी (1933) लिखकर प्रकाशित किया। इन नाटकों का मूल उद्देश्य नारी स्वातंत्रय की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान कराना है। जयशंकर प्रसाद ने रंगमंच पर अभिनय के समय प्रगीतों का विशेष ध्यान आकर्षण किया है। प्रसाद जी ने नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ को 3 अंकों में विभक्त किया है। लेखक ने अपनी बात को राष्ट्र प्रेमी की तरह ही स्त्री वेदना को मंदाकिनी के माध्यम से मुखरित किया है। मंदाकिनी कहती है कि जो राजा राष्ट्र रक्षा करने में असमर्थ है, उस राजा की भी रक्षा नहीं करनी चाहिए। चंद्रगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी राष्ट्र तथा स्त्री की रक्षा के लिए शकराज के दुर्ग जाते हैं, तब मंदाकिनी की करुणा छलक पड़ती है-

"यह कसक अरे आँसू सह जा,
बनकर विनम्र अभिमान मुझे,
मेरा अस्तित्व बता, रह जा।
बन प्रेम छल कोने-कोने,
अपनी नीरव गाथा कह जा।"(1)

नाटक दृश्य काव्य है। अतः नाटक प्रेमियों की मनोभावनाओं को दृष्टि में रखते हुए नाटककार ने यत्र-तत्र प्रगीतों का प्रयोग किया है। ध्रुवस्वामिनी आत्मसम्मान और कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त और सामंतों के साथ शकराज के शिविर में जा रही है। मंदाकिनी अग्र लिखित गीत को प्रयाण गीत (Marching Song) के रूप में गाते हुए आगे-आगे चल रही है। यह गीत कर्म और विजय रथ पर विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है-

"पैरों के नीचे जल धर हों, बिजली से उनका खेल चले।
संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें।
विचलित हो अंचल न मौन रहे, निष्ठुर श्रृंगार उतरता हो,
क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो।।"(2)

शकराज को ध्रुवस्वामिनी के आने का संकेत मिल चुका है। इस पर मानो वह विजय उत्सव मना रहा है। मदिरा का दौर चल रहा है। सांध्यकालीन प्रकृति मादकतापूर्ण बिंब की उपस्थिति का एहसास करा रही है। जय शंकर प्रसाद के गीतों का साहित्यिक महत्व तो है ही, साथ ही संक्षिप्तता, परिस्थिति की अनुकूलता और हृदय की अभिव्यक्ति की छटा दिखाई देती है। शकराज के महल में यह अंतिम गीत नर्तकियों द्वारा गाया गया है-

"अस्तांचल पर युवती संध्या की, खुली अलक घुँघराली है।
लो मानिक मदिरा की धारा, अब बहने लगी निराली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर, आकाश लगा देखा झुकने,
सब झूम रहे अपने सुख में, तूने क्यों बाधा डाली है।"(3)

जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है। चंद्रगुप्त नाटक का आरंभ तक्षशिला के गुरुकुल से होता है। इस नाटक में मुख्य पात्र चंद्रगुप्त और चाणक्य महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। ग्रीक दार्शनिक सेल्यूलस की पुत्री कार्नेलिया सिंध नदी के तट पर प्राकृतिक मनोहारी वातावरण में डूब सी जाती है। वह भारतीय संगीत में गीत गाती है-

"अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरु सिखा मनोहर।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।"(4)

गुप्त काल में युद्ध प्रायः साम्राज्य विस्तार के लिए होते थे। इसलिए युद्ध में प्रस्थान से पहले सैनिकों का मनोबल और उत्साह बढ़ाने के लिए तक्षशिला की राजकुमारी ‘अलका’ अपने देशवासियों से विजय उत्सव मनाने आह्वान करती है। आज संपूर्ण देश में जातिवाद, प्रांतीयवाद आदि अनेकानेक समस्याएं पनप रही हैं। इस संदर्भ में नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में जय शंकर प्रसाद ने नारी पात्रों के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को आर्य संस्कृति की ठोस जमीन प्रस्तुत की है। नारी अलका समवेत स्वर में गायन करती है-

"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती-
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती-
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है- बढ़े चलो, बढ़े चलो।"(5)

भाषा को सुसज्जित एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए छायावादी कवि, लेखक जयशंकर प्रसाद ने यत्र-तत्र समुचित अलंकारों का प्रयोग किया है। ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के गीतों में उपमा, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का समावेश मिलता है। अलंकारों के प्रयोग से गीतों का सौंदर्य बढ़ जाता है क्योंकि अलंकार काव्य का वाह्य सौंदर्य होता है-

"सुधा सीकर से नहला दो।
रूप शशि इस व्यथित हृदय-सागर को बहला दो।
अंधकार उजला हो जाए,
हँसी हंसमाला मंडराये।"(6)

छायावादी काव्य की एक अनुपम विशेषता है- उसकी चित्रमयता अथवा चित्रात्मक भाषा। छायावादी काव्य हिंदी वांग्मय में अपना सर्वस्व समाहित कर देता है। चंद्रगुप्त नाटक के गीतों में भी कुछ ऐसे ही गीत हैं जिन्हें पढ़ने से पहले ही नया चित्र मन में उभर आता है-

"पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार,
जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर।
सँभाले चल रही है कितनी दूर,
प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर।"(7)

छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषता प्रतीकात्मकता होती है। प्रतीकों के माध्यम से कवि बहुत कुछ कह जाता है। जिसका संबंध सीधा-सीधा मानव जीवन से जुड़ा होता है। ऐसे ही प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने चंद्रगुप्त नाटक में किया है। नाटक में नारी मल्लिका, सरोजिनी, अलि (चंद्रगुप्त) प्रतीकों के माध्यम से प्रकृति से जोड़ा गया है, जिसमें मानवीकरण भी परिलक्षित होता है-

"हो मल्लिका, सरोजिनी
या यूथी का पुंज।
अलि को केवल चाहिए,
सुखमय क्रीड़ा कुंज।
मधुप कब एक कली का है।"(8)

जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ तथा ‘चंद्रगुप्त’ के गीत सरल सरस और रंगमंच के अनुकूल हैं। सम्पूर्ण नाटक में गद्य की अविरल धारा परिस्थिति के अनुकूल संगीत सरसता उत्पन्न करती है। नाटककार जयशंकर प्रसाद जी प्रस्तुत नाटक के पात्रों को मनोदशा तथा उनके हृदय की गतिविधि को गीतों के माध्यम से प्रकट करते हैं। इससे स्पष्टतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद जी कविता लिखते-लिखते नाटक तथा नाटक लिखते-लिखते कविता लिख देते हैं। यही उनकी साहित्य साधना का सार है।

अशोक कुमार गौतम
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवा जी नगर, रायबरेली (उ0प्र)
मो0 9415951459

संदर्भ ग्रंथ सूची-

  1. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 13, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  2. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 22, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  3. ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 25, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
  4. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 67, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  5. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 126, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  6. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 114, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  7. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 44, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
  8. चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 120, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014

अन्य पढ़े :

Ans-1 नाटक चंद्रगुप्त (1931) में कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है।

Ans .2 ध्रुवस्वामिनी (1933) नाटक साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचना है।

Ans.3 जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है।

Ans .4 कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ

सुंदरी | Emotional Motivational Story in Hindi

सुंदरी – Emotional Motivational Story in Hindi

अबुल हसन तो था पाँचवक्ती नमाजी पर उठना-बैठना था हिंदुओं के साथ। उसके रग-रग में भारतीय सभ्यता और संस्कृति रची-बसी थी। भारतीय संस्कृति के चार आधार ‘ गंगा , गीता, गायत्री और गौ ’ जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानता था। वह यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को हिंदू समझता क्योंकि उसके अनुसार हिंदू-हिंदुत्व कोई धर्म नहीं वरन् एक जीवन-पद्धति ,एक व्यापक विचार-धारा है जो मानवता से भी आगे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की अवधारणा से अनुप्राणित है।

बचपन में ही माँ की ममता से वंचित हो जाने वाले अबुल हसन के पिता मक़बूल हसन दर्जी का काम करते थे। वह बचपन से ही पढ़ाई में होशियार था। वह मैट्रिक की परीक्षा में पूरे जिले में अव्वल आया था लेकिन आगे पढ़ने की इच्छा आर्थिक तंगी के कारण परवान न चढ़ सकी। बड़ा भाई माजिद हसन कलकत्ता के किसी चटकल फैक्ट्री में काम करता था। भारत विभाजन के बाद पटसन उत्पादन का अधिकांश क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान ( बांग्लादेश) में चला गया और कलकत्ता की चटकल मिलें धीरें-धीरें बंद होने लगी तो वह गाँव आ गया। घर गृहस्थी से उसका कोई लेना- देना ना था केवल गाँव के आवारा युवकों के साथ ताश खेलना और शाम को गाजा –चिलम का दम लगाना ही अब उसका काम रह गया था।

पिता के इंतकाल हो जाने के बाद अपने चार बेटियों और दो बेटों वाले परिवार के पालन-पोषण के लिए उसने गाय खरीदने का मन बनाया क्योंकि खेती-किसानी से बढ़ता परिवार पालना मुश्किल हो रहा था। बड़े भाई से कोई आशा न थी क्योंकि वह मस्त-मलंगा बना घूमता रहता था। उसे परिवार से कुछ लेना-देना ही नहीं था। उसके खुद के परिवार में मात्र एक बेटी थी फातिमा ,जिसे उसकी बीवी बीस साल पहले ही छोड़कर भाग गई थी। अबुल हसन फातिमा को अपने बेटी से भी ज्यादा प्यार करता था क्योंकि वह उस घर की पहली संतान थी।

पा लागी पंडीजी ! ” अबुल ने गाँव के पोस्ट मास्टर नागेद्र पाठक को आते देख दूर से ही कहा।
“खुश रह – खुश रह— ” पाठकजी ने हाथ से आशीर्वाद की मुद्रा बनाते हुए कहा।
“अबुल ! तुम्हारे पिताजी ने डाकघर में बचत खाता खोला था। उसमें हर माह कुछ रुपये डाला करते थे। पासबुक लेकर आना मृत्यु प्रमाण-पत्र के साथ। नोमिनी ने तुम्हारा ही नाम है।”
“ठीक है, पंडीजी ! पैसे की बड़ी दरकार थी । एक गैया खरीदने को सोच रहा था ” अबुल ने सुकून भरे स्वर में कहा।

कपिला गाय जिसका नाम अबुल ने सुंदरी रखा है, के आने बाद उसके दुआर की रौनक ही कुछ अलग हो गई है। गाय के लिए सीमेंट का नाद तो बछड़े के लिए लोहे की और उनके आराम करने के लिए एसबेस्टस का ओसारा भी। उसके गले की घण्टी की आवाज वह दूर से ही पहचान लेता है। ओसारा में बैठकर जब सुंदरी पागुर करती है तो उसे वह बड़े प्यार से निहारता है। ऐसा लगता है कि सुंदरी गाय नहीं उसकी माँ है जो गाय के रूप में उसके पास आई है।

सुबह चार किलो और शाम को चार किलो दूध निकलता है चारों थनों से । अबुल का कहना है कि सुंदरी के लिए दोनों बेटे यानी वह और बछड़ा ,जिसका नाम उसने कृष्णा रखा है, बराबर है। इसलिए दो थनों का दूध कृष्णा का और दो थनों का मेरा। दूध निकालने का काम भी वही करता है। दूध निकालने के बाद दूध की बाल्टी जमीन पर रखने से पहले अपने माथे लगाता है मानों सुंदरी ने उसे प्रसाद दिया है जिसे वह स्वीकार कर रहा हो। सुबह का दूध घर के लिए काम आता और शाम का दूध मोहल्ले के उन बच्चों के लिए जिनकी माएँ प्रसवकाल में ही चल बसी थीं।

एक दिन खेत में पानी देते समय, समय भान ही नहीं रहा। आया तो देखता है कि दूध पत्नी ने निकाल लिया है। दूध मात्रा में ज्यादा दिख रहा था।
“रफीक की अम्मी ! दूध निकालने में दिक्कत तो नहीं हुई।”
“नहीं , इतनी सीधी गाय है कि कोई बच्चा भी दूध निकाल ले।‘’
“लेकिन दूध ज्यादा लग रहा है।‘’ ‘
“मैंने थोड़ा पानी मिला दिया।‘’

यह तुमने क्या किया ? क्या कोई अपने माँ के प्रसाद में पानी मिलाता है ? ‘’ स्वर में क्रोध मिश्रित पीड़ा का भाव था। पाँच मिनट तक बाल्टी में रखे दूध को वह देखता रहा। फिर बाल्टी का सारा दूध धीरे से पागुर कर रहे कृष्णा के सामने रखे लोहे के नाद में डाल दिया।

उसने भतीजी फातिमा और अपनी दो बेटियों समीना और अमीना के हाथ पीले कर दिए थे। बड़े बेटे रफीक ने पड़ोस के गाँव में खुले प्राईवेट कॉलेज में आई. एस. सी. में दाखिला लिया है। पढ़ने में वह होशियार है। विज्ञान में उसकी विशेष रुचि है। छोटा हकीक गाँव के प्राथमिक पाठशाला में तीसरी जमात में है।

दूसरी बेटी अमीना के देवर के निकाह का न्योता आया है। 24 अप्रैल को निकाह है । अमीना का निकाह गाँव से चालीस किलो मीटर दूर एक कस्बे में हुआ है। उसके ससुर का अपना मोटर गैरेज है जिसको अमीना का पति संभालता है। अबुल ने 24 अप्रैल के सुबह दूध निकाला। दूध को स्टील के डिब्बे में भरने के बाद कपड़े में लपेट कर झोले में रख लिया। खाना खाकर 1 बजे निकला लेकिन अमीना के यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई।

अमीना ने उसे अपने कमरे में बुलवाया तो कुशल-क्षेम के बाद उसने झोले में रखे सब सामान दिखाना शुरु किया । फिर दूध का डिब्बा बड़े प्यार से निकाल कर देते हुए कहा “ ये लो बेटी ! यह है सुन्दरी मइया की तरफ से ।‘’ अमीना ने डिब्बे को हाथ में ले अपने सीने से सटा लिया। निकाह के अगले दिन वह अपने घर आ गया।

“ अबुल भाई! अपनी सुंदरी को जरा बचा के रखना। हो सके तो अपने ओसारे में फाटक लगवा लो। कल रात रघुवीर यादव की भैस चोर चुरा ले गए। ज़माना बड़ा खराब आ गया है।‘’ सुदामा साहू ने अपनी लम्बी गरदन हिलाते हुए कहा।

“ ठीक ही कह रहे हो सुदामा भाई ! पंद्रह दिन पहले ही सुधाकर तेवारी की गैया भी चोरी हो गई थी। क्या करोगे भाई , जमाना ही चोर-उच्चकों का आ गया है। उन्ही की बढ़ंती है।‘’ ठंढ़ी साँस भरते हुए अबुल ने कहा।

आज रात अबुल को नींद नहीं आ रही है। बार-बार वह बिछावन से उठकर ओसारा में जाता और सुंदरी के पीठ पर हाथ फेरता । उसके माथे को सहलाता , फिर बिछावन पर आ आँखें बंद कर सोने का प्रयास करता।

सुबह उठते ही पत्नी ने कहा “ यह तुम्हे हो क्या गया है? न सोते हो न सोने देते हो। इतनी प्यारी है तुम्हे गैया तो वहीं क्यों नहीं सोते।‘’
“ ठीक ही कह रही हो, रफीक की अम्मी ! आज से मेरा बिछावन ओसारे में ही होगा।‘’ अबुल के स्वर में इत्मीनान झलक रहा था।

सुंदरी को आए दो साल पूरे होने को हैं। तीन बार का प्रयास असफल होने के बाद चौथे प्रयास में वह गर्भवती हुई है। छठा महीना चल रहा है । सुंदरी का बढ़ा पेट स्पष्ट दिखने लगा है।
“अबुल! अब कृष्णा को क्यों नहीं बेच देते। आज के समय में बछड़े को पालने का क्या फायदा? अब न तो बैल वाली खेती रही ना बैलगाड़ी। फिर इसको नाहक ही गले का ढोल बनाये हुए हो।‘’ बड़े भाई माज़िद ने उसका मन टटोलते हुए कहा।
“क्या बात करते हो भैया ! क्या कोई अपने भाई को बेचता है? अरे कृष्णा अपना भाई है भाई।‘’
“हुह—भाई— !’’ कहते हुए माज़िद अपने तेज कदमों से चिलम के अड्डे की तरफ निकल पड़ा।

फातिमा के ससुर को कल रात हार्ट अटैक आया थ। डॉक्टर के पास ले जाए इसके पहले ही प्राण निकल गए। बहुत ही बुरी खबर थी। अबुल ने रुपये-पैसे का इंतजाम कर जाने का निर्णय लिया क्योंकि मस्त-मलंगा माज़िद को तो गांजा-चिलम की दुनिया से फुरसत ही नहीं। जाते वक्त बड़े बेटे रफीक से कहा “सुंदरी का ध्यान रखना। दाना-पानी समय से देना । मैं तीसरे दिन आ ही जाऊगा। ‘’
“ठीक है अब्बा ! आप काहे चिंता करते हैं ? आप जाइए।‘’

तीसरे दिन अबुल को घर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। आते ही सुंदरी के पास गया। सुंदरी के आँखों से आँसू बह रहे थे। वह उसके गले से लिपट गया। बेचैनी की हालत में उसके आँसू पोछने लगा। उसका ध्यान लोहे की नाद की तरफ गया जो खाली पड़ा था।
“रफीक– रफीक —! कहाँ हो तुम यहाँ आओ। जल्दी— — जल्दी — –।‘’ स्वर में व्याकुलता थी।

“ बताओ—बताओ – बेटा ! कृष्णा—- कृष्णा — मेरा कृष्णा – कहाँ — -कहाँ है ——– ।‘’ पागलों की तरह ऊँची-ऊँची आवाज में वह रफीक को झकझोर- झकझोर कर पूछने लगा।


रफीक ने सहमते हुए कहा “ अब्बा — अब्बा ! बड़े अब्बा कल दो आदमी को लाए थे। वही लोग कृष्णा को ले गए।‘’


“ क्या ? ‘’ अबुल के सामने अंधेरा-सा छाने लगा। वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया।


एकाएक उठा और उस तरफ तेज कदमों से चलने लगा जिधर माज़िद का गांजा-चिलम का अड्डा है। अभी थोड़ी दूर ही गया था कि माज़िद उधर से लाल-लाल आँखें किए हुए चिलम के नशे में आता दिखाई दिया।


“भैया! कृष्णा को कहाँ बेचा ? किसे बेचा?—किसे बेचा ? — बताओ— बताओ ।‘’ वह माज़िद के दोनों बाँहों को पकड़ कर जोर-जोर से हिलाने लगा।


“क्या—क्या बकवास कर रहे हो– कृष्णा – कृष्णा –। उसे जहाँ होना चाहिए वहाँ भेज दिया मैंने। अच्छा रोकड़ा मिला है — — ओ भी नकद — चलो छोड़ो ऐ सब बातें।‘’ कहते हुए लड़खड़ाते कदमों से वह घर की ओर बढ़ गया।


अबुल उसके पीछे-पीछे चिंता और दु:ख से निमग्न बोझिल कदमों से चल रहा था।

दरवाजे पर रखी बेंच पर धम्म से बैठते ही माज़िद ने आवाज लगाई “ रफीक ! एक लोटा पानी लाना।‘’


“भैया! आखिर कृष्णा ने क्या बिगाड़ा था आपका जो आपने उसे बेच दिया — वह भी हम लोगों की तरह ही —अपनी माँ का लाडला है।‘’ उसके स्वर में मनुहार था।


“हुह—‘’ कहकर माज़िद ने अपना मुँह दूसरी ओर फेर लिया।

“देखो—देखो भैया ! सुंदरी की आँखों से बह रहे आँसूओं को देखो भैया — वह रो रही है — — भैया — वह अपने बेटे के लिए रो रही है —– रो रही है वह— — ।‘’ कहने के साथ ही वह माज़िद के पैरों के पास बैठ गया।


“बता दो भैया ! बता दो तुम्हे खुदा की कसम – बता दो — मैं उन्हें रुपये वापस कर अपने कृष्णा को लाऊँगा — वापस लाऊँगा — अपनी गैया के आँखों में आँसू नहीं देख सकता– भैया –भैया –।‘’ कहते हुए वह माज़िद के पैरों पर लोट गया।

पानी पीने के बाद माज़िद को थोड़ा चेत हुआ। अबुल को उठाते हुए बोला “अब कुछ नहीं होगा भाई ! अफज़ल भाई के आदमी कल ही लेकर चले गए कृष्णा को। आज ट्रक में लोड कर लखनऊ भेज देगा।‘’


अरे वही, इब्राहिमपुर वाला अफज़ल कुरैशी न ? ‘’ अबुल ने छटपटाहट भरे स्वर में कहा।

“हाँ— हाँ वही कुरैशी।‘’


“चलो भैया ! अभी चलो। इसी समय हम छुड़ा लायेंगे अपने कृष्णा को। उस कसाई कुरैशी से । चलो भैया — चलो –।‘’


“चलो चलते है —। ‘’ माज़िद ने अनमने स्वर में कहा।


“देखो हम दोनो भाई जा रहे हैं अपने कृष्णा को लाने। मत रोओ — मत रोओ — – हम लायेंगे अपने कृष्णा को लायेंगे।‘’ वह सुंदरी के माथे को सहला-सहला कर कह रहा था मानो उसे सांत्वना दे रहा हो।


अफज़ल कुरैशी इब्राहिमपुर का सबसे बड़ा मांस व्यापारी है। पूरे कस्बे में उसका दबदबा है । पुलिस से उसकी साँठ-गाँठ है। बाज़ार मे उसकी दो दुकाने हैं । जिसमें हलाल बकरे का मीट और चिकेन बिकता है ।दोनों दुकानें खूब चलती हैं । यह तो दिन का और बाहरी व्यापार है । असली कारोबार तो उसका रात में होता है ,पशु तश्करी का। अच्छी-खासी मोटी कमाई हो जाती है पुलिस को खिलाने-पिलाने के बाद भी। रात को नौ बजने वाले थे। कुरैशी अपने गद्दी पर बैठा रुपये गिन रहा था।

मोटर साईकिल से उतरते ही अबुल ने अफज़ल के पैरों को पकड़ लिया। “ अफज़ल भाई ! ये लो अपने सात हजार और मेरा कृष्णा मुझे वापस कर दो। ‘’
“कौन कृष्णा ?‘’ अफज़ल ने नजर उठाते हुए कहा।


“ वही बछड़ा जो आपके आदमी रघुनाथपुर से खरीद कर लाए है।‘’ माज़िद ने कुरैशी की ओर देखते हुए कहा।
“ अच्छा तो वह बछड़ा ही कृष्णा है।‘’ अफज़ल ने निर्विकार भाव से कहा।

“ हाँ—हाँ– वही है हमारा कृष्णा – अफज़ल भाई।‘’ विनती का भाव अबुल के स्वर में साफ झलक रहा था।


“लेकिन वह ट्रक तो लखनऊ के लिए रवाना होने ही वाला है। ठीक नौ बजे ट्रक खुल जायेगा मेरे दूसरे दुकान से।‘’


“ अफज़ल भाई ! खुदा के लिए ऐसा मत कहो – कुछ रहम करो – रहम करो ।‘’ अबुल गिड़गिड़ाने लगा।


“ठीक है जल्दी जाओ यदि ट्रक नहीं गया होगा तो तुम्हारा कृष्णा तुम्हे मिल जायेगा।‘’


मोटर साईकिल को तेज गति देते हुए अबुल ने अल्लाह को याद किया। तब तक अफज़ल कुरैशी का फोन ड्राइवर को आ चुका था। मोटर साईकिल दुकान पर पहुँचे-पहुँचे तब तक ढेर सारा धुँआ छोड़ता हुआ ट्रक लखनऊ के लिए रवाना हो गया।
“लखनऊ जाने वाला ट्रक कहाँ है?’’ मोटर साईकिल पर बैठे –बैठे ही अबुल ने व्यग्रता से दुकान की गद्दी पर बैठे अफज़ल के बेटे से पूछा।


“वह तो अभी-अभी खुली है —वो देखिए – निकल गई।


अबुल मोटर साईकिल को ट्रक की दिशा में पूरी रफ्तार से बढ़ा रहा था, लेकिन ट्रक भी काफी तीव्र गति से अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहा था। ट्रक लगभग 800 मीटर की दूरी पर था। मोटर साईकिल का स्पीड इंडीकेटर —80— – -90 —- – 100 —— 110 — को छूने लगा। ऐसा लग़ रहा था कि अबुल को ट्रक में लदा कृष्णा ही दिखाई दे रहा बाकी कुछ नहीं। एकाएक स्पीड- ब्रेकर पर मोटर साईकिल लगभग 2 फीट ऊपर उछला और दोनों सड़क पर गिरते ही बेहोश हो गए।


पीछे से आ रहे कार वाले ने दोनों को उठाया। माज़िद को पानी के छींटे मारने पर होश आ गया। उसे कंधे और घुटने में चोट लगी थी। अबुल के सिर पर गहरी चोट लगी थी। सिर के पीछे का हिस्सा उभर आया था। दो व्यक्ति लगातार पंखा झल रहे थे। बेटा रफीक बार-बार चेहरे पर पानी के छींटे दे रहा था। लगभग बीस मिनट बाद धीरे-धीरे उसने आँखें खोली। आँखें खोलते ही उसने अपने दोनों हाथों को जमीन पर टिका दिया मानो कोई चौपाया जानवर हो।


अबुल के घर सब रात भर जागते रहे। माज़िद अब होशो‌-हवाश में था। लेकिन अबुल होश में होते हुए भी ऐसे कर रहा था मानो वह अबुल नहीं ,कोई चौपाया जानवर हो। पड़ोस के डॉक्टर ताहिर हुसैन ने दोनों भाइयों को दर्द-निवारक इंजेक्शन लगा दिया। अबुल की स्थिति ज्यादा खराब थी अत: उसे नींद का इंजेक्शन भी लगाना पड़ा।


अबुल की पत्नी नज़मा की नींद मा—मा— की आवाज से एकाएक खुल गई।अरे मा—मा– की आवाज कौन कर रहा है? वह यह समझने का प्रयास कर ही रही थी कि एक बार फिर मा— मा—की आवाज से उसका सारा भ्रम दूर हो गया। वह अपना माथा पकड़ कर बैठ गई।

रात को चौथा पहर खत्म होने वाला था। पौ फटने को था। नींद के इंजेक्शन का असर कम होते ही अबुल बछड़े की तरह उछलने-कूदने लगा। कूदते-कूदते वह सुंदरी के पास पहुँच और उसके पैरों को चाटने लगा ठीक वैसे ही जैसे कृष्णा चाटता था। सुंदरी भी उसे प्यार से चाटने लगी।

धीरे-धीरे पूरे गाँव में यह बात फैल गई। लोग आते और अबुल का बछड़ा रूप देख दु:खमिश्रित आश्चर्य से भर उठते।


नज़मा,माज़िद ,रफीक, हकीक किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? हफ्ता गुजर गया,अबुल का कृष्णा रूप ज्यों का त्यों था। डॉक्टर ताहिर हुसैन और गाँव के मुखिया नवल किशोर राय ने मनोचिकित्सक से दिखलाने की सलाह दी। सकीना भी यह खबर सुन अपने पति आफताब के साथ आई थी। आफताब ने कहा “उसके गाँव में एक डॉक्टर है जो पागलों का इलाज करते हैं। कितने ही मनोरोगियों को ठीक किया है उन्होंने।‘’

“ठीक है, मेहमान कल ले चलते है आपके गाँव।‘’ नज़मा ने टीस को दबाते हुए कहा।


सुबह जब रफीक और आफताब ने अबुल को चलने के लिए कहा तो उसने ना में गरदन हिलाते हुए मा— मा— कर सुंदरी के माथे को चाटने लगा। रफीक साथ ले चलने के लिए उसे बार-बार पकड़ने की कोशिश करता लेकिन हर बार वह कृष्णा की तरह कुँलाचे भरता और सुंदरी के चारो ओर चक्कर काटने लगता।


एक हफ्ता और इसी तरह गुजर गया। गाँव के लोगो ने कहा कि इसके दोनों हाथों को पीछे करके बाँध दो और कमर में रस्सी डाल कर ले जाओ।


अजीब दृश्य बन गया जब चार नौजवानों ने मिलकर अबुल के हाथ पीछे बाँध दिए और कमर में रस्सी डाल दी। उस समय भी वह बछड़े की तरह उछल रहा था और बार-बार मा— मा— की आवाज लगा सुंदरी की तरफ भागने का प्रयास कर रहा था। उधर सुंदरी भी रम्भाकर अपने दु:ख और छटपटाहट व्यक्त कर रही थी। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे।


अबुल के चिकित्सा का आज सातवाँ दिन था। थोड़ा-सा सुधार दिख रहा था। जीभ बाहर निकाल कर खाने और बार-बार जीभ से जमीन या दीवाल चाटना कम हुआ था। छठे दिन उसे नींद भी आई थी। इलाज कर रहे डॉक्टर महेंद्र भटनागर ने आफताब से कहा “ यह डिसोसिएटिव एमनेसिआ* की बीमारी है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा। आज इसके हाथ और कमर की रस्सी खोल दो। चिकित्सीय परीक्षण कर वे दवाइयाँ लिख रहे थे। सब कुछ शांत वातावरण में चल रहा था।


सामने सड़क पर एक व्यक्ति अपनी गाय को लिए जा रहा था। उसका बछड़ा थोड़ी दूरी पर पीछे-पीछे आ रहा था। बछड़े ने मा—- मा— की आवाज लगाई तो गाय भी मा—मा— कर रम्भाने लगी।
देखते ही देखते अबुल एकाएक बछड़े की तरह कुँलाचे भर कूद पड़ा और अपने घर की तरफ कुँचाले भरता हुआ सरपट दौड़ा। लोग देखे- समझे तब तक वह आँखों से ओझल हो चुका था।


इधर, अबुल की चिंता में पूरा घर दु;खी-परेशान था। किसी को भी सुंदरी की चिंता न थी। अबुल के जाने बाद वह चुपचाप पड़ी रहती , न कुछ खाती ,न रम्भाती ; मानो पुत्रशोक मना रही हो। सात दिनों तक दाना-पानी न मिलने से उसका शरीर मृतप्राय हो चुका था। शरीर में कोई गति न थी। आँखों से कीचड़ निकल रहे थे और आसुओं की धार से आँखों के दोनों तरफ लकीर-सी बन गई थी। अपने सिर धरती पर रख बिल्कुल निस्पंद पड़ी हुई थी मानो मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हो। उसके चारो तरफ मक्खियाँ भिनभिना रही थी। ऐसा लगता था कि उसके प्राण अब निकले तब निकले। लेकिन किसी की प्रतीक्षा में उसके प्राण रुके हुए थे।

अबुल के पीछे-पीछे आफताब और रफीक दौड़ने लगे । लगभग पाँच किलो मीटर की दूरी थी दोनों गाँवों के बीच। खेत- खलिहान ,सड़क, नदी-नालों को पार कर अबुल कुँलाचे भरता हुआ सुंदरी के पास पहुँच गया। रास्ते में कई जगह गिरा-पड़ा था।शरीर पर जहाँ-तहाँ चोट के निशान स्पष्ट दिख रहे थे। आते ही पहले उसने सुंदरी के पिछले पैर को चाटना शुरु किया। फिर पीठ को चाटने लगा। कोई हरकत नहीं देख वह उसके माथे को जोर-जोर से चाटने लगा। न कोई गति ना कोई प्रेम प्रदर्शन। न प्यार से वह पूँछ हिला रही है और न ही उसे चाट रही है। वह अपनी जीभ से उसकी आँखों को चाटने लगा मानो उसे सहला रहा हो। फिर चारो तरफ उछल-कूँद मचाने लगा जैसे कृष्णा करता था। उसकी आँखों में आँसू आने लगे थे। वह मा—मा— कर सुंदरी के चारो ओर बार-बार चक्कर काटने लगा। वह व्याकुल हो कभी पैरों को , कभी थन को , कभी पीठ तो कभी माथे को चाटता। शायद उसे सुंदरी के अंतिम अवस्था का एहसास होने लगा था। वह अंत में उसके माथे को जोर-जोर से चाटने लगा। एकाएक सुंदरी ने अपना सिर उठाया और जीभ को निकाल कर अबुल के माथे को छुआ। फिर उसका सिर धम्म से धरती पर गिर पड़ा।


तब तक रफीक और आफताब भी आ चुके थे। सामने घटित दृश्य को देख दोनों पत्थर की मूर्ति की भाँति जड़वत हो गए। अबुल अपने दोनों बाहों में सुंदरी को लिये हुए था और उसका जीभ बाहर निकला हुआ था जो सुंदरी के माथे को स्पर्श कर रहा था ।


कुछ देर बाद जब उन्हें चेत हुआ तो आगे बढ़कर रफीक ने अबुल के कंधों को पकड़ उठाने का प्रयास किया लेकिन छूते ही उसका सिर एक तरफ लुढ़क गया। सुंदरी और अबुल दोनों का शरीर ठंढा पड़ चुका था।

कहानी की सीख

विघटनशील स्मृतिलोप ( Dissociative Amnesia) विघटनशील मनोविकार का एक अंग है, जिसमें व्यक्ति आमतौर पर किसी तनावपूर्ण घटना के बाद व्यक्तिगत सूचना को याद करने में असमर्थ हो जाता है। विघटन की स्थिति में व्यक्ति अपने नये अस्तित्व को मह्सूस करता है।

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आदित्य अभिनव उर्फ डॉ. सी. पी. श्रीवास्तव

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Hindi Short Story Kanoon | कानून (एक लघु कथा)

Hindi Short Story Kanoon | कानून (एक लघु कथा)

कानून

महादेवा की ओर से बहुत तेज दो युवक अपनी बाइक की चलाते हुए आ रहे थे ।सामने एक अधेड़ सड़क पार कर रहा था। टक्कर लग गई। बूढ़ा गिर पड़ा। उसके सिर में चोट आई ,घुटने में कुछ चोट आई ।वह बेहोश हो गया। लड़के भाग गए।
भीड़ जमा हो गई। कई लोगों ने यह कहा इसे जल्दी से उठा कर अस्पताल ले चला जाए। थोड़ी दूर पर एक पुलिस वाला खड़ा था। उसने कहा–” यह पुलिस केस है। आप इसे छू नहीं सकते,जब तक कि पुलिस इसे अनुमति नहीं देती।” बूढ़ा तड़पता रहा ।लोग तमाशा देखते रहे ।अंत में एक नवयुवक हिम्मत करके सामने आया। उसने कहा–” कानून को जो करना हो, मुझे कर ले। मैं इस बाबा को लेकर अस्पताल जाऊंगा”। उसने एक ऑटो रिक्शा बुलाया। बाबा को में बैठाया और अस्पताल लेकर चला गया।
क्षेत्रीय विधायक को पता चला।। उसने युवक को पता लगाकर उसे पुरस्कृत करने की बात कहा। युवक के घर गया भी। युवक ने कहा –“आप मुझे पुरस्कृत करने की बजाय ,अच्छा होता यह कानून बनवा देते कि यदि कोई घायल होता है, तो उसकी सहायता करने वाले से कोई पूछताछ पुलिस न करें। बल्कि अस्पताल में जाकर पीड़ित से उसका बयान ले और जो करना हो कार्यवाही वह करें।” अगले सत्र में मुख्यमंत्री से मिलकर इस तरह का कानून पास करवाया। लोगों को पता चला तो, लोग युवक की जय-जयकार करने लगे।

शिक्षा – इस लघुकथा में हमे शिक्षा मिलती है कि हमें इंसानियत को नहीं भूलना चाहिए , युवक ने आगे आकर वृद्ध आदमी की सहायता की उसने पुलिस का इंतज़ार नही किया मानवता का धर्म ये कहानी हमको सिखाती है।

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डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव का जीवन परिचय | Dr. Chumman Prasad Srivastava Biography in hindi

आदित्य अभिनव उर्फ़ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव का जीवन परिचय | Dr. Chumman Prasad Srivastava Biography in Hindi

हिंदी साहित्य का वो नाम जो किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। वर्तमान हिन्दी के उन्नयन की कहानी में प्रभावशाली योगदान का संकल्प मुखरित हुआ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव के द्वारा। किसी के व्यक्तित्व पर लिखना एक उलझन पूर्ण और चुनौती भरा कार्य है। वह व्यक्ति विशेष यदि रचनाकार हो तो मुश्किलें और बढ़ जाती है क्योकि उसके बाहर -भीतर की अपेक्षा एक समानान्तर संसार की हलचल सदैव उपस्थित रहती है। उसी से वह भाव ग्रहण करता है और उसी पृष्ठभूमि से अनुभूति ग्रहण कर अपनी लेखनी से कुछ समाज के जिन पड़ावों मोड़ो से होकर गुज़रता है वही उसके सौन्दर्य की निरन्तरता बन जाती है। बाह्य और अन्तस के समानुपात में वह सादगी और सौम्यता के लिए संदेश देकर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से सचेतन रचनाकार की श्रेणी में पहुँच जाता है। साहित्य में डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव एकांत भाव में स्वान्तः सुखाय सर्जन करने वाले रचनाकार है।

आदित्य अभिनव उर्फ़ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव का जीवन परिचय Dr. Chumman Prasad Srivastava Biography in hindi )

क्रमांकजीवन परिचय बिंदुडॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव जीवन परिचय
1.       पूरा नामडॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
2.       अन्य नामआदित्य अभिनव
3.       जन्म30 जून 1970
4.       जन्म स्थानभटगाई, प्रखण्ड – तरैया, जिला- छपरा ( सारण) बिहार – 841424
5.       माता-पिताश्रीमती कांती देवी – स्व0 पांडेय कमलेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव
6.       शिक्षाएम. ए. (हिंदी) , पी. एच . डी.
7.       रचनाएँ- शोध प्रबंध प्रपत्तिपरक गीतों की परम्परा और निराला के प्रपत्तिपरक गीत ‘’ ( 2012)
प्रमुख कविताएँ – अमर शहीद , चमक , रावण- दहन , सूरज का गाँव , मरी हुई मछली की बू , तय है, भारतीय प्रजातंत्र, किन्नर, रजनी , राष्ट्रभाषा हिंदी , गण और तंत्र , विकास , रोटी, पिता के आँसू आदि
काव्य संग्रह – “ सृजन संगी ‘’ ( साँझा काव्य संकलन ) ( प्रकाशन वर्ष 2006) , “ सृजन के गीत ’’ ( प्रकाशन वर्ष 2018 ),
“ हाँ ! मैं मज़दूर हूँ ‘’ ( साझा काव्य संग्रह) ( प्रकाशन वर्ष 2020 )
प्रमुख कहानियाँ – “ ताज़िया ” , “ सुंदरी ” , “ मानुष तन “ , “ मज़बूर’’ , “ एहसान’’ , “अंतिम सम्बोधन ‘’, “ ऐसा तो होना ही था ‘’ , “बँधी प्रीत की डोर ‘’ , “ रुका न पंछी पिंजरे में ‘’ , “ फरिश्ते ‘’ “दंश’’ “कोख ‘’ , “ क्षितिज के पार ‘’, “माँ ‘’, “ स्वप्नजाल’’, “ कवने घाट पर सौनन भईली’’ आदि
8.       समीक्षा “ वैदिक एवं उपनिषद् साहित्य और निराला’’ (2013) , “ विशिष्टाद्वैत और निराला ‘’ (2013) “ निराला के भक्ति पर तुलसी का प्रभाव ‘’ (2014) “ प्रपत्ति : अर्थ और स्वरूप ‘’ (2014) , “ शांकर वेदांत और निराला ‘’ (2014) , “ शमशेर की कविता : अतियथार्थवादी रूप में’’ (2015) , “ निराला के प्रपत्तिपरक गीतों के दार्शनिक आधार ‘’(2015) , “ पारसी थियेटर का भारत में नया स्वरूप ‘’ (2015) , “ भूमण्डलीकरण , भारतीय किसान और हिंदी साहित्य ‘’ (2015) , “ उसने कहा था : एक कालजयी कहानी ‘’ (2016) , “ सूर साहित्य में लोक गीत और लोक नृत्य ‘’ (2018) , “ दिनकर के काव्य में क्रांति और विद्रोह का स्वर ‘’ (2019) ,” दिनकर के काव्य में सर्प बिम्ब ‘’ (2020) , “ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और निराला ‘’ आदि
9.       विशेष आकाशवाणी – बीकानेर , जोधपुर और गोरखपुर से कविता का प्रसारण
दूरदर्शन – मारवाड़ समाचार , जोधपुर से कविता का प्रसारण
सम्पादन सहयोग – “ मानव को शांति कहाँ ‘’ (मासिक पत्रिका) (2004- 2008 तक उप संपादक )
आयोजन सचिव – “ महामारी ,आपदा और साहित्य ‘’ पर एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय वेविनार
( 13 जून 2020)( आयोजक – भवंस मेह्ता महाविद्यालय, भरवारी,यूपी)
व्याख्यान – “ सिनेमा और साँझी विरासत ‘’ (14 जुलाई 2020 ) वाड़.मय पत्रिका ,अलीगढ़ और विकास प्रकाशन ,कानपुर के संयुक्त तत्वाधान में ।
सम्मान – साहित्योदय सम्मान (2020) , लक्ष्यभेद श्रम सेवी सम्मान(2020)
10.   धर्महिन्दू
11 .पता आदित्य अभिनव उर्फ डॉ. चुम्मन प्रसाद श्रीवास्तव
सहायक आचार्य (हिंदी)
भवंस मेह्ता महाविद्यालय , भरवारी
कौशाम्बी (उ. प्र. )
पिन – 212201
12 .नागरिकता भारतीय
13 .संपर्क सूत्र मोबाइल 7767041429 , 7972465770
ई –मेल chummanp2@gmail.com

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Baisavaara Ka Sarenee Vikaas Khand | बैसवारा का सरेनी विकास खण्ड : इतिहास, भूगोल और संस्कृति

Baisavaara Ka Sarenee Vikaas Khandबैसवारा का सरेनी विकास खण्ड : इतिहास, भूगोल और संस्कृति

रायबरेली जनपद के बैसवारा क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र अथवा राजधानी भले ही लालगंज रहा हो लेकिन सांस्कृतिक राजधानी के रूप में सरेनी ही प्रसिद्ध है। रायबरेली जनपद में 18 विकास खंड (ब्लॉक) हैं, जिसमें प्रमुख विकासखंड सरेनी में 71 ग्राम पंचायतें हैं। सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी। गुप्त काल के पूर्व से इस क्षेत्र का अस्तित्व माना जाता है। प्रमाण स्वरूप सरेनी गांव के उत्तर पूर्व में प्रसिद्ध सिद्धेश्वर मंदिर में गुप्तकालीन मूर्तियाँ विद्यमान हैं। सरेनी की बाजार रायबरेली के पुराने बाजारों में गिनी जाती है। यहाँ पर उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली के व्यापारी खरीद-फरोख्त करने आते हैं।

ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास

ब्रिटिश काल के स्वाधीनता संग्राम में 18 अगस्त 1942 का ‘सरेनी गोलीकांड’ जिले का गौरवशाली इतिहास प्रतिबिंबित करता है। देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने को हजारों की संख्या में सरेनी विकासखंड निवासी देशभक्त तिरंगा फहराने के लिए थाने की ओर बढ़ने लगे। ब्रिटिश पुलिस की गोलियां इन वीरों के कदमों को न रोक सकी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार सरेनी क्षेत्र के चौकीदारों ने रामपुर कला निवासी ठाकुर गुप्तार सिंह के नेतृत्व में 11 अगस्त 1942 को सरेनी बाजार में बैठक की और निर्णय लिया गया कि सरेनी थाने में तिरंगा फहराया जाएगा। 15 अगस्त 1942 को हैबतपुर में विशाल जनसभा में गुप्तार सिंह ने आंदोलन को अंतिम रूप देते हुए तिरंगा फहराने की तिथि 30 अगस्त 1942 निर्धारित की। कुछ वसंती चोले वाले वीर युवकों ने 30 अगस्त के बजाय 18 अगस्त को ही तिरंगा फहराने की ठान ली। युवाओं के आह्वाहन पर हजारों की संख्या में भीड़ सरेनी बाजार में एकत्रित हुई। तत्कालीन थानेदार बहादुर सिंह ने भीड़ को आतंकित करने के लिए नवयुवक सूरज प्रसाद त्रिपाठी को गिरफ्तार कर लिया। यह खबर आग की तरह फैलते ही आजादी के दीवानों ने थाने पर हमला कर दिया। थानेदार और सिपाहियों ने थाने की छत पर चढ़कर निहत्थे जनता पर गोलियां चलाना शुरू कर दी। इस गोलीकांड में भारत माँ के 5 सपूत टिर्री सिंह (सुरजी पुर), सुक्खू सिंह (सरेनी), औदान सिंह (गौतमन खेड़ा), राम शंकर त्रिवेदी (मानपुर), चौधरी महादेव (हमीर गांव) शहीद हो गए। रणबाकुरों ने अपनी शहादत स्वीकार की। ब्रिटिश हुकूमत के आगे न डरे, न झुके। देश के लिए प्राणों की आहुति देने वाले पाँच शहीदों की याद में थाने के ठीक सामने शहीद स्मारक का निर्माण कराया गया। इसके ठीक बगल में शहीद जूनियर हाई स्कूल परिसर में छोटा शहीद स्मारक का भी निर्माण कराया गया। शहीद स्मारक पर सन 1997 से प्रतिवर्ष 18 अगस्त को विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। मेला जैसा हर्ष उल्लास का वातावरण रहता है। तब जगदंबिका प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ की काव्य पंक्तियाँ सार्थक हो जाती हैं-

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगा अपना ही आसमां होगा।”

सरेनी विकासखण्ड और जनपद रायबरेली की अपराधियों से सुरक्षा की दृष्टि से थाना सरेनी परिक्षेत्र में दो पुलिस चौकियाँ स्थापित की गई हैं। थाना सरेनी की एक पुलिस चौकी सरेनी से उन्नाव तरफ जाने पर भोजपुर में, दूसरी पुलिस चौकी सरेनी, रायबरेली से फतेहपुर जाने पर गेगासो में स्थापित की गई है। इन दोनों चौकियों से काफी हद तक अपराध में नियंत्रण रहता है।
सरेनी विकासखंड के उत्तर-पश्चिम दिशा का विस्तृत भूभाग की सीमा उन्नाव जनपद को या यूँ कहें उन्नाव जनपद के दो थाना, बारा-सरवर और बिहार थाना को स्पर्श करती है। दक्षिण में भारत की सबसे बड़ी नदी माँ गंगा का एक छोर सरेनी क्षेत्र को स्पर्श करता है तो दूसरा छोर फतेहपुर जिला की सीमा को स्पर्श करता है।

सरेनी विकासखंड की जमीन अत्यंत उपजाऊ है। इस क्षेत्र में दोमट, चिकनी, बलुई मिट्टी पाई जाती है। इस क्षेत्र में रबी, खरीफ और जायद की फसलें खूब होती हैं। इस विकासखंड के दक्षिण में भारत की सबसे लंबी नदी सदानीरा माँ गंगा अनवरत बहती हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हुई गंगा नदी रालपुर के निकट स्वतः ही सर्पिणी की तरह लहरें लेते हुए उत्तर दिशा की ओर मुड़ जाती है। इसलिए इस क्षेत्र को उत्तरवाहिनी गंगा क्षेत्र कहा जाता है। यहाँ का प्राकृतिक वातावरण हरे भरे वृक्षों से आच्छादित होने के कारण मनोरम हैं।

प्रपत्रों में भी सरेनी क्षेत्र को डार्क जोन घोषित किया जा चुका है

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में सन 1980 में उन्नाव जिले के अमर शहीद राजा रावराम बख्श सिंह की रियासत डौडिया खेड़ा में गंगा नदी से निकलने वाली डलमऊ बी गंग नहर की नींव रखी गई थी। जो लगभग 5 वर्ष में बनकर तैयार हुई। इस गंग नहर से अनेक छोटी-छोटी नहरें/अल्पिकाएँ निकाली गई। इससे उन्नाव एवं रायबरेली के सीमावर्ती भागों की सिंचाई होती थी और जल स्तर भी ऊपर रहता था। दुर्भाग्य है! कि शासन-प्रशासन की उदासीनता के कारण सरेनी विकास खण्ड की भूमि बंजर होने के कगार पर है। इस नहर में 7 पंप लगे हैं, जिसमें 5 पंप प्रतिदिन चलने का प्रावधान है। प्रपत्रों में भी सरेनी क्षेत्र को डार्क जोन घोषित किया जा चुका है, फिर भी धरातल पर कोई ठोस उपाय नहीं किए गए हैं।

इस विकास खण्ड के उत्तर में समरई नाला और उन्नाव जिला के पुरवा के पास की झील से निकलने वाली लोन नदी बहती हैं। इन दोनों पर बनाये बाँधों में जल भंडारण से लगभग 7 से 8 माह तक यहाँ के खेतों की सिंचाई हो जाती है। बाद में समरई नाला लोन नदी में समाहित हो जाता, तत्पश्चात लोन नदी शौर्य और पौराणिक स्थली डलमऊ के निकट माँ गंगा में पुण्य प्राप्त करते हुए विलीन हो जाती है।

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सरेनी क्षेत्र मुरारमऊ के राजा दिग्विजय सिंह की रियासत में आता था, जिसे अंग्रेजों ने सौंपा था। इस विकासखंड में सैकड़ों वर्ष पुराने भव्य मंदिर विद्यमान हैं। शिहोलेश्वर, दरियाश्वर, गहिरेश्वर, नर्मदेश्वर, मंगलेश्वर, अंबिका देवी मंदिर, दशा रानी मंदिर, संकटा देवी मंदिर (गर्ग ऋषि आश्रम) महामाई मंदिर, शीतला मंदिर, ठाकुर वीर बाबा मंदिर, मनकामेश्वर मंदिर आदि प्रमुख हैं। ध्यातव्य है कि ग्राम सरेनी में ही पूर्वी छोर में पवनसुत हनुमानजी के भक्त ठाकुर वीर बाबा की समाधि स्थित है। जिस पर अनेक प्रयासों के बावजूद कोई मंदिर या चहारदीवार नहीं बन सकी है, क्योंकि बाबा की अंतिम मुँखवाणी थी कि मेरी समाधि इसी स्थान पर बनेगी किंतु भविष्य में इस पर कोई निर्माण कार्य नहीं हो सकेगा। इस समाधि रूपी मंदिर में मार्गशीर्ष (अगहन) माह में पड़ने वाले सभी मंगलवार को आस पास के ही नहीं, दूर दराज के जनपदों से दर्शनार्थी अपनी मनौती माँगने आते हैं। इस स्थल पर चढ़ावा/प्रसाद रूप में मिट्टी के कलश हजारों की संख्या में चढ़ाए जाते हैं, जिनकी कीमत वर्तमान समय में 40 से 50 रुपये के मध्य होती है। खास बात यह है कि अगले दिन सुबह सभी कलश टूटे-बिखरे मिलते हैं। मान्यता है कि नव-दंपत्ति ठाकुर वीर बाबा की समाधि स्थल पर आकर अपनी मनौती माँगते हैं, तो उनकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है।

गर्ग पीठ के 11वें अधिष्ठाता, भगवान श्री कृष्ण का नामकरण संस्कार करने वाले महर्षि गर्ग की तपोस्थली को कालांतर में गर्गाश्रम कहा जाता था, जिसका नाम धीरे-धीरे गेगासो पड़ गया है। जो गंगा नदी के पावन तट पर स्थित है। मंदिर के स्थापना के विषय में कहा जाता है कि 12 वीं शताब्दी में भार शिव शासकों का पराभव और बैस क्षत्रियों के उन्नयन का समय चल रहा था। बैसवारा के क्षत्रिय राजा त्रिलोकचंद निःसंतान थे, उन्हें अनेक मनौतियों से संतानोत्पत्ति के पश्चात इस तपोभूमि पर मंदिर स्थापित किया गया था। माँ भगवती के 32 शक्तिपीठों में 16 वां शक्तिपीठ माता संकटा देवी मंदिर है। जनश्रुति है कि बक्सर जिला उन्नाव स्थित माँ चंद्रिका देवी और यहां गेगासो स्थित माँ संकटा देवी बहन हैं।

सरेनी विकासखंड के ग्राम सभा गोविंदपुर में शिहोलेश्वर मंदिर है

यह मंदिर लगभग 1000 वर्ष पूर्व का बताया जाता है। इस स्थान पर इतना विशाल वट वृक्ष है जिसके नीचे मंदिर, ऋषि मुनियों की कुटिया, महाशिवरात्रि और श्रावण मास में लगने वाला संपूर्ण मेला समाहित हो जाता है। इतना विशालकाय वट वृक्ष रायबरेली जनपद में मिल पाना मुश्किल है। मुरारमऊ में माँ अंबिका देवी मंदिर है जिसके पृष्ठ भाग में विशाल तालाब बना हुआ है जिसमें ब्रिटिशकाल में राजा दिग्विजय सिंह और राजा भगवती बक्स सिंह की रानी और उनकी दासियाँ स्नान करने आती थी। मान्यता है कि इस तालाब में एक बार स्नान करने से खाज-खुजली ठीक हो जाती है। पुनः यह रोग नहीं होता है।

सरेनी विकासखंड की भूमि समतल है जिससे आवागमन के साधन एवं सड़कें सर्व सुलभ हैं फिर भी स्वतंत्रता के बाद से अद्यतन यह विकास खंड रेलवे लाइन से पूर्णतः अछूता है। समतल भूमि होने के कारण आम, महुआ, नीम, पाकर, वट, पीपल, जामुन, अमरुद, बबूल आदि वृक्ष बहुतायत पाए जाते हैं। प्राचीन काल से ही भाईचारे का प्रत्येक मेले का महत्व रहा है। श्रेणी विकासखंड के अंतर्गत तेजगाँव, मलकेगाँव, गोविंदपुर, मुरारमऊ में महीनों मेले (हटिया) लगे रहते हैं, जिसमें अन्य प्रांतों के भी व्यापारी व्यापार करने के लिए आते हैं। जिन्हें मेला मंडल की तरफ से हर संभव सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।

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अध्यापक श्री कलदार सिंह

इस क्षेत्र में लोकगीतों और लोक परम्परा की बात की जाये तो सोहर, कजरी, सावन गीत, विवाह में गारी, नकटा, नौटंकी, रामलीला, फाग, वीर रस से ओत-प्रोत आल्हा आदि प्रसिद्ध हैं। आल्हा गायन लुप्तप्राय हो रहा था जिसे पुनः जीवंत करने के लिए समाज के चितेरे, अध्यापक श्री कलदार सिंह ने अपना गुरु महरूम महबूब खां को माना। उनसे सीखकर श्री कलदार सिंह आज भी अवधी आल्हा गाते हैं। इस गुरु-शिष्य परम्परा को भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के रूप में देखा जा सकता है।

सरेनी विकास खंड में हिंदू-मुस्लिम धर्म के सभी जातियों के लोग आपस में मिल जुल कर रहते हैं। इस क्षेत्र में खड़ी बोली हिंदी उर्दू, अवधी बोलियां बोली जाती हैं। सरेनी गाँव का ही वैशाख माह की अमावस्या को सालाना उर्स तथा शारदीय नवरात्रि की दुर्गा पूजा हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है। मस्जिद के ठीक सामने हिन्दू व्यक्ति की भूमि पर जून माह में सालाना उर्स संपन्न होता है, तो वहीं मस्जिद के ठीक बगल में स्वर्गीय हरिशंकर सिंह (सेवानिवृत्त शिक्षक) की भूमि पर दुर्गा पूजा पंडाल सजता है, जिसमें 1 सप्ताह तक पूजा होती है। दोनों धर्म के लोग एक दूसरे धर्म के कार्यक्रमों में यथासंभव चंदा देते और बढ़ चढ़कर हिस्सा भी लेते हैं। तब सुगंधित वातावरण में अजान और आरती एक साथ होती हैं।

सर्वप्रथम जनता विद्यालय इंटर कॉलेज पूरेपांडेय की स्थापना

देश को स्वतंत्रता मिलने के उपरांत सरेनी विकासखंड में माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के लिए कोई विद्यालय और महाविद्यालय नहीं था, तब क्षेत्र में सर्वप्रथम जनता विद्यालय इंटर कॉलेज पूरेपांडेय की स्थापना सन 1953 में हुई थी। श्री स्वयंबर सिंह का जन्म जुलाई 1936 में रायपुर मझिगवां सरेनी में हुआ। आप क्षेत्र के सबसे पुराने जनता विद्यालय इंटर कॉलेज पूरेपांडेय के संस्थापक सदस्य अध्यक्ष, शिक्षक तथा प्रधानाचार्य होने के साथ-साथ वरिष्ठ साहित्यकार और शिव भक्त हैं। 87 वर्ष की उम्र में भी साहित्य से आपका रिश्ता जुड़ा हुआ है। आप की काव्य कृति तृष्णा, तृप्ति प्रकाशित हो चुकी हैं। जिसमें जन्म से लेकर मोक्ष प्राप्ति तक का मार्ग प्रशस्त किया गया है। ‘तृष्णा’ काव्य कृति में आपने सत्य का मार्ग दिखाते हुए लिखा है-

बताया था बहुत पहले, कि मैं हूँ एक परदेसी।
चला जब छोड़ दुनिया को, शिकायत फिर कैसी?

तत्पश्चात विकासखंड के चतुर्दिक विकास के लिए अंबिका इंटर कॉलेज मुरारमऊ, श्री गोविंद सिंह इंटर कॉलेज रौतापुर, नर्मदेश्वर इंटरमीडिएट कॉलेज रामबाग, शिव भजन लाल जनहित इंटर कॉलेज रायपुर मझिगवां की स्थापना की गई। सभी कालेजों का उद्देश्य निस्वार्थ भाव से शिक्षा प्रदान करना था। आज तो भौतिकवादी युग में सैकड़ों विद्यालय स्थापित हो चुके हैं। उच्च शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति के लिए शिवभक्त, शिक्षानुरागी और दानवीर स्वर्गीय रतनपाल सिंह ने सन 1973 में कमला नेहरू डिग्री कॉलेज, तेजगाँव की स्थापना की, जिससे ग्रामीण क्षेत्र के बालक बालिकाओं व पड़ोसी जनपदों के छात्रों को उच्च शिक्षा से वंचित नहीं होना पड़ा। इस महाविद्यालय का अनुशासन, अध्ययन और अध्यापन का शैक्षिक स्तर लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ (पूर्ववर्ती – छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर) में आज भी अग्रणी स्थान रखता है। वर्तमान समय में दानवीर ठाकुर रतनपाल सिंह के सपुत्र तेजगांव निवासी श्री सुरेंद्र बहादुर सिंह (पूर्व विधायक) निःस्वार्थ भाव से आवश्यकतानुसार लाखों रुपए का दान करते रहते हैं। इस विकासखंड में इस समय लगभग 9 महाविद्यालय स्थापित होकर उच्च शिक्षा प्रदान कर रहे हैं।

सरेनी विकासखंड के अंतर्गत दौलतपुर में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (सन 1864-1938) का जन्म हुआ। द्विवेदी जी जीविकोपार्जन के लिए रेलवे में नौकरी करते थे, किंतु रुचि साहित्य में थी। आपने सन 1900 में द्विवेदी युग की स्थापना की और पुनर्जागरण काल को नई दिशा दी। साहित्य लेखन और देश प्रेम के लिए रेलवे की नौकरी छोड़ दी। तत्पश्चात सन 1903 में सरस्वती पत्रिका का संपादन किया। द्विवेदी जी ने हिंदी भाषा की उत्पत्ति, मेघदूत, नाट्यशास्त्र, संपत्तिशास्त्र गद्य ग्रंथ और देवी स्तुति, काव्य मंजूषा, कविता विलाप आदि पद्य ग्रंथ लिखे हैं। उसुरू निवासी मधुकर खरे ने ‘ये मेरा बैसवारा, सामने बैठ तुम हार गूँथा करो’ काव्यग्रथों की रचना की। आप की निम्न काव्य पंक्तियां बैसवारा क्षेत्र को अर्श पर पहुँचा देती हैं-

हमारी मातृभाषा बहुत है, नाम है प्यारा।
ये मेरी बैसवारी, यह है मेरा बैसवारा।।

सरेनी विकासखंड के अंतर्गत छींटी ग्राम निवासी रघुनंदन शर्मा ने विश्व विख्यात ग्रंथ ‘मटेरीना डिवाइना, अक्षर विज्ञान, वैदिक संपत्ति’ लिखे हैं। रीतिकाल के प्रमुख कवि सुखदेव मिश्र जैसे महान साहित्यकारों को जन्म देकर इस क्षेत्र की मिट्टी वंदनीय हो गई है।
केंद्र या प्रदेश की राजनीति में विकास खंड सरेनी और विधानसभा क्षेत्र सरेनी का दखल स्वतंत्रता प्राप्ति से निरंतर चला आ रहा है। सत्ता पक्ष या विपक्ष के शीर्ष नेता और जनप्रतिनिधि इस क्षेत्र में निरंतर अपनी-अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते हैं। इस क्षेत्र में धर्म, वंश, लिंग, जाति आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। तब अजमल सुल्तानपुरी की गजल- मुसलमां और हिंदू की जान, कहाँ है मेरा हिंदुस्तान, मैं उसको ढूंढ रहा हूँ, सार्थक हो जाती है।
कलम-कृपाण और अध्यात्म की नगरी विकासखंड सरेनी निरंतर बुलंदियों की ओर बढ़ती रहे। मैं इस पावन भूमि और स्वयं मेरी जन्म भूमि को शत-शत नमन करता हूँ।

अशोक कुमार गौतम,
असिस्टेंट प्रोफेसर
शिवाजी नगर (दूरभाष नगर) रायबरेली
सम्पर्क- 9415 9514 59

FAQ (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

Ans :1 . रायबरेली जनपद में 18 विकास खंड (ब्लॉक) हैं

Ans : 2 . सरेनी में थाना की स्थापना सन 1891 में हुई थी।

Ans : 3 सरेनी विकासखंड में शिहोलेश्वर, दरियाश्वर, गहिरेश्वर, नर्मदेश्वर, मंगलेश्वर, अंबिका देवी मंदिर, दशा रानी मंदिर, संकटा देवी मंदिर (गर्ग ऋषि आश्रम) महामाई मंदिर, शीतला मंदिर, ठाकुर वीर बाबा मंदिर, मनकामेश्वर मंदिर आदि प्रमुख हैं।

हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

किसी भी देश-प्रदेश की संस्कृति सभ्यता, समृद्ध और इतिहास का मूल्याँकन यदि समग्रता में करना हो तो उस देश-प्रदेश के लोक साहित्य का गहराई से अध्ययन करना अपेक्षित होता है। माना जाता है कि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी प्रचलित, श्रुति आधरित लोककथाओं की जड़ें कहीं न कहीं वहाँ के इतिहास से अवश्य ही जुड़ी रहती हैं। हिमाचल प्रदेश की हरी-भरी घाटियों व निकट-दूर क्षेत्रों में अपार जल सम्पदा और वन सम्पदा के अतुल भण्डारों के साथ ही साथ लोक साहित्य भी यहाँ की साँस्कृतिक निधि् के रूप में बिखरा पड़ा है। साहित्य रूपी सम्पदा का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि उसमें जनमानस की सोच, साँस्कृतिक मान्यताएँ तथा सामाजिक दायित्वों का अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

ऋगवेद में लोक शब्द का प्रयोग ‘जन’ के लिए तथा स्थान के लिए हुआ है-

‘‘य इमे रोदसी उमे अहमिन्दमतुष्टवं।
विश्वासमत्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं।।
तथा
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो व्यौ समवर्तत।
पदभ्यां भूमिर्द्दिशः श्रोत्रातथा लोकां अकल्पयत्।।’’

लोक साहित्य के सफल चितेरे डॉ. वंशीराम शर्मा के अनुसारः-

‘‘उपनिषदों में ‘अयं बहुतौ लोकः’ कह कर विस्तार को लक्षित किया गया है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में लोक तथा ‘सर्वलोक’ शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनसे ‘लौकिक’ तथा ‘सार्वलौकिक’ शब्द जुड़े हुए उल्लिखित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनी ने वेद से पृथक् लोकसत्ता को स्वीकार किया था। वररूचि व पतंजलि ने भी लोकप्रचलित शब्दों के उद्धरण दिए हैं। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी तथा नाट्यधर्मी परम्पराओं का अलग-अलग रूप से उल्लेख करके लोक परम्पराओं को स्पष्ट रूप से अलग स्थान दिया है। ‘लोक’ शब्द का प्रयोग महाभारत में भी हुआ है और वहाँ इसे ‘सामान्य-जन’ के अर्थ में ही व्यवहृत किया गया है। ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः’ अर्थात् जो व्यक्ति ‘लोक’ को अपने चक्षुओं से देखता है वही सर्वदर्शी अर्थात् उसे पूर्णरूप से जानने वाला ही कहा जा सकता है।’ उक्ति महाभारत में वर्णित है।’’

इससे यह भली भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य, (लोक अर्थात् साधारण जन और साहित्य) दो शब्दों से मिल कर बना है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा कतिपय विद्वान ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘ग्राम्य’ या ‘जनपद’ नहीं मानते बल्कि गाँवों में फैली हुई उस जनता से लगाते हैं जिसका ज्ञान व्यावहारिक तथा मौखिक है। पहाड़ी तथा डोगरी भाषा-भाषी क्षेत्रों में लोक शब्द का अर्थ सामान्य जनता से ही लिया जाता है। यहाँ मैं पुनः डॉ. वंशी राम शर्मा को उद्धृत करूँगी जिनके अनुसार ‘‘लोक शब्द को कुछ विद्वानों ने अपने शब्दजाल में बाँधकर अभिजात्य वर्ग से दूर कर दिया तथा परम्परागत ढंग से अपेक्षाकृत आदिम अवस्था में निवास करने वाले लोगों को ही ‘लोक’ कहने के लिए सामान्य पाठकों को प्रेरित करने की चेष्ठा की, किन्तु यह परिभाषा अधूरी है। ‘लोक’ का अर्थ ‘समाज’ के पर्याय के रूप में होना चाहिए क्योंकि समाज अपनी मान्यताओं व परम्पराओं से अलग अस्तित्व वाला नहीं होता और ‘लोक’ का आकार भले ही समाज से अपेक्षाकृत छोटा हो परन्तु वह भी किसी बड़े समाज का सक्रिय अंग होता है। समाज का लिखित इतिहास हो सकता है और अब यही बात ‘लोक’ के लिए भी समझी जा सकती है।’’

अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं।

लोक साहित्य का सम्बंध लोक संस्कृति के साथ है। यहाँ संस्कृति को ‘शिष्ट’ तथा ‘लोक’ दो भागों में बाँटा गया है। शिष्ट संस्कृति का सीधा सम्बंध अभिजात्य वर्ग से है और उसकी परम्पराओं व ज्ञान का आधार लिखित साहित्य होता है जबकि सामान्य जन लोक विश्वासों व लोक परम्पराओं में अधिक विश्वास करता है और उसकी मान्यताएँ अलिखित होती हैं। वेद, शास्त्रों तथा पुराण आदि के द्वारा दर्शाया गया मार्ग अपेक्षाकृत परिष्कृत तथा विज्ञान सम्मत है अतः उसे शिष्ट संस्कृति के अंतर्गत रखा जा सकता है। वैसे देखा जाए तो शिष्ट साहित्य भी सामाजिक परिवेश को आधार मान कर लिखा जाता है और इस प्रकार लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायिका होती है। अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं। इसका पहला शब्द ‘लोक’ सामान्यतः अपढ़ गंवार, ग्रामीण, शिक्षा, विकास आदि प्रभावों से अलग-थलग समझा जाने वाला वर्ग होता है। परम्परा एवं रूढ़ियों को ढोने वाला-समझ कर इस साहित्य को शिष्ट साहित्य के समकक्ष नहीं रख जाता, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि कुल साहित्य की ठोस आधारशिला यही लोकसाहित्य होता है। लोक साहित्य के गम्भीरता पूर्वक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन अथवा अनुसंधान से यह स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य ही समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, भाषा शास्त्र, इतिहास, नृविज्ञान, शिष्ट साहित्य आदि से उपयोगी साहित्य होता है।

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हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु

हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु होने के कारण वर्णनातीत रूप से परत-दर-परत खुलते रोमांचक रहस्यों का इतिहास है। इस हिमक्षेत्र के प्रथम प्राचीनतम प्रागैतिहासिक राजा युकुन्तरस से लेकर आज तक के विकास और विभिन्न योजनाओं के विभिन्न चरणों का परिचय प्रचलित लोककथाओं, लोक आख्यानों अथवा लोकगीतों से चलता है। हिमाचल में चूंकि लोकगीतों का विषय ही लोककथाएँ हैं अतः लोककथाओं को लोकगीतों से अलग कर पाना असम्भव है, बल्कि यहाँ लोकसाहित्य में लोकगाथाएँ ही प्रचलित हैं। फिर भी इन सब साहित्यक प्रक्रियाओं से गुजरता हमारा लोकजीवन कभी लोकगीतों में मुखर हो उठता है कभी लोककथाओं, आख्यानों और लोकनाट्यों द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। बस यदि अन्तर है तो केवल इतना ही कि शिष्ट साहित्य जहाँ कागज़ के पन्नों पर उतर कर पुस्तकों में अंकित हो जाता है वहाँ लोकसाहित्य सरिता मुख-दर-मुख प्रवाहमान रहती है। इसके रचनाकार कम ही जाने जाते हैं और अधिकतर अज्ञात ही रह जाते हैं।

लोक साहित्य मानव जीवन के विकास और मनोविज्ञान का सशक्त ऐतिहासिक दस्तावेज होते हैं। मौखिक क्रम में उपलब्ध श्रुति आधारित लोकहित, सभ्यता के प्रभाव से अलग रहने वाली निरक्षर जनता के सुख-दुख की कहानी है। इसका रचनाकार युग-पीड़ा एवं सामाजिक दबाव को निरन्तर महसूस करता है। इस साहित्य को रचयिता के मस्तिष्क की उर्वरता का प्रमाण-पत्र माना जाता जा सकता है। ग्रामीण और निरक्षर ही नहीं फूहड़ समझे जाने वाले लोगों के मस्तिष्क भी कैसे-कैसे मधुर, सरस, कोमल और हृदयस्पर्शी साहित्य की रचना कर सकते हैं, यह आश्चर्य एवं कौतुहल का विषय है।

लोक साहित्य को कई भागों में बाँटा जा सकता है जैसे लोकगीत, लोक कथाएँ, लोकगाथाएँ, लोक नाट्य एवं कहावतें आदि। इन ग्राम्य गीतों अथवा कथा नाटकों द्वारा जाति विशेष के व्यावहारिक जीवन के प्रतिबिम्ब, उनके जीवन के विषय में, सभ्यताओं के बारे में सोचने, समझने और अन्दर तक झाँकने का अवसर सहज उपलब्ध होता है। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ, राजकुमारों व राजकुमारियों की कहानियों के माध्यम से अनेक शिक्षाप्रद प्रसंग प्राप्त होते हैं। यही लोक साहित्य की सार्थकता है यही उपलब्धि भी है।

हिमाचल प्रदेश का हर लोकगीत अपने आप में एक लोककथा है। कुंजू-चंचलो, दक्खनू सुनारी, मोहणा-मांण, रानी सुई आदि अनगिनत लोक कथाएँ यहाँ लोकगीतों में मिलती है। भारत के अन्य भागों की भाँति सर्दियों की लम्बी रातों में लोककथा कहने का रिवाज हिमाचल में भी रहा है। लोककथा, कहानी कहते आग के पास बैठे हिमाचलवासी किसी समय ढेरों ऊन काता करते थे।

लोक साहित्य का मौखिक होना भी उस युग की कहानी कहता है। इस साहित्य का मौखिक होना कोई परम्परा नहीं थी। उस युग की विवशता भी थी और आवश्यकता भी।

स्वतन्त्रता पूर्व के हिमाचल में छोटी-बड़ी अनेक रियासतें थीं। उस समय इन रियासतों का क्षेत्रफल 10,600 वर्गमील में फैला हुआ था। इन रियायसतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रोचक भी है और रोमांचक भी। पौराणिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार कोल, किरात, यक्ष, किन्नर, गर्न्धव और नाग आदि जातियाँ इसी हिमाचलीय उपत्यका की निवासी कही जाती हैं। राजा दिवोदास के आर्यों के विरुद्ध अनेक युद्धों का विवरण पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों द्वारा प्रमाणित होता है।

हिमाचल को एक साथ देवभूमि और असुर भूमि दोनों ही कहा जाता है। स्पष्टतया इसका आधार हमारी लोककथाओं में सुरक्षित है। हिमाचल के मंदिर इस क्षेत्र में नाग जाति के वर्चस्व की कथा कहते हैं। नौ नागों की लोककथा और अधिकतर मंदिरों में काष्ठ के नाग होना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इतिहास साक्षी है कि भारत में नाग जाति किसी समय बहुत शक्तिशाली रही है। किन्नर जाति आज भी ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों की निवासी है। स्थान-स्थान पर जाख (यक्ष) को देवता मान कर मंदिर में स्थापित किया जाना यक्षों के शक्तिशाली हिमाचल निवासी होने का प्रमाण देते हैं। किन्नर जाति आज भी उत्कर्ष की सीमाओं पर खड़ी है। कोल आज की कोली जाति प्रतीत होती है।

विश्व के महान देशों के लोकसाहित्य के क्षेत्र में भारी उपलब्धियों को देख कर आश्चर्य होता है। यूरोप और एशिया के बड़े राष्ट्रों का तमाम प्राचीन लोकसाहित्य प्रकाशित हो चुका है। इस दिशा में इन राष्ट्रों ने किसी भी विधा को नहीं छोड़ा। भारत में इस क्षेत्र में अभी बहुत कार्य शेष है।

हिमाचली लेखकों ने लोक साहित्य के क्षेत्र में अथक परिश्रम करके लोक साहित्य सागर में गहरी डुबकियाँ लगा कर बहुत से अमूल्य मोती खोज निकाले हैं। इनमें से कुछ चर्चित पुस्तकें इस सन्दर्भ में प्राप्त है। ‘‘हिमाचली लोककथाएँ’’ में इक्कीस लोकप्रिय लोकथाओं को अनुवाद सहित प्रकाशित किया गया है। ‘‘भर्तृहरि लोक गाथा’’ में जुब्बल, कोटखाई, राजगढ़, सिरमौर, कांगड़ा आदि क्षेत्रों में प्रचलित भर्तृहरि गाथा के विभिन्न रूपों को सम्पादित किया गया है।

हिमाचल की लोककथाएँ, पहाड़ाँ दे अत्थरु (पहाड़ी में) कागज़ का हंस, राजकुमारी और तोता, नौ-लखिया हार, फोक टेल्ज़ आफ हिमाचल, स्हेड़ेयो फुल्ल (संजोए हुए फूल-पहाड़ी), मीठी यादें, पलो खट्टे-मिट्टे (पहाड़ी), कथा-सरवरी दो भागों में (अकादमी द्वारा) प्रकाशित हैं। इन संग्रहों में अनुमानतः साढ़े तीन सौ लोक कथाएँ सम्पादित हैं। इसके अतिरिक्त हिमाचल भाषा विभाग के सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप हजारों लोक कथाएँ विभाग को प्राप्त हुई हैं। हिमभारती, हिमप्रस्थ में भी बहुत सी लोककथाएँ अनेक जनपदीय बोलियों में उपलब्ध् हुई हैं।

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लोक कथाओं के अनुसार जम्मू के भद्रवाह से टिहरी गढ़वाल तक यह पर्वतीय क्षेत्र एक सशक्त सांस्कृतिक इकाई रहा है। वैदिक काल में हिमाचल के इस क्षेत्र को वैराज्य नाम से पुकारा जाता था।

हालांकि हिमाचल प्रदेश की अधिकतर लोक कथाएँ यहाँ के देवताओं और मंदिरों से जुड़ी हैं, फिर भी हम इनकी विश्वासनीयता विदेशी साहित्य में खोजते हुए गर्व का अनुभव करते हैं। हमें आभारी होना चाहिए इन खोजी विदेशियों का जिन्होंने हिमाचल के इन दुर्गम और दुरूह दूर-दराज क्षेत्रों में बिना यातायात की सुविधाओं के लोककथाओं और किंवदंतियों के आधार पर पैदल घूम कर हमारी अमूल्य पुरातन सँस्कृति की धरोहर को खोज निकाला और लोककथाओं और पुरातन अवशेषों में तालमेल बैठाकर सत्य की खोज कर इतिहास लेखन का मार्ग प्रशस्त किया।

प्राचीन अवशेषों और लोक कथाओं का चोली-दामन का साथ होता है। ये प्राचीन अवशेष हमें हमारी सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराते हैं। स्थानीय देवी-देवता और इनसे जुड़ी लोककथाएँ भले ही शहरी सभ्यता को अंधविश्वास प्रतीत होती हों किन्तु ग्रामीण जनमानस इन्हीं दंतकथाओं में विश्वास करके आज भी देवताओं के निर्णय की अवज्ञा का साहस नहीं कर सकता। इससे समाज को एक स्वच्छ अनुशासन प्राप्त होता है, यही है लोक साहित्य की उपयोगिता और सार्थकता भी।

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