Short Story Manzil Ki Aur | मंजिल की ओर/ रूबी शर्मा

Short Story Manzil Ki Aur- मंजिल की ओर-रूबी शर्मा

मंजिल की ओर

रूबी शर्मा

अनेक संघर्षों का सामना करते हुए आज मुझे मेरी मंजिल मिल गई हैं। आज मैं सुपरस्टार हूं। पूरा शहर मुझसे परिचित है। अधिकांश तो मेरे प्रशंसक हैं। यह तो मुझ पर परमपिता परमेश्वर की असीम अनुकंपा है कि उसने मुझे बहुत ही सुंदर बनाया, मेरे रंग के अनुरूप काया भी सुडौल बनाई है । इतना ही नहीं उसने मुझे कोयल जैसी मीठी आवाज एवं स्वर दिया । यही कारण है कि आज मेरे दर्शक मुझ से बहुत प्रभावित हैं । मेरी कई फिल्में सुपर हिट हो चुकी है।

आज मेरे पास पैसों की कमी नहीं है। ऐश्वर्य हमारे कदमों में बिखरा हुआ है । तीन चार नौकरों का घर भी मेरी वजह से प्रसन्नता पूर्वक चल रहा है ।

यह सब अपनी दोस्त श्रेया को बताते बताते अचानक आयुषी के चेहरे पर उदासी छा गई ,वह शांत हो गई ।आयुषी की यह दशा देखकर श्रेया को बहुत आश्चर्य हुआ । उसने कहा,” अभी तो तुम ठीक ठीक बात कर रही थी किंतु बात करते-करते तुम्हें यह क्या हो गया। श्रेया के पूछने पर उसने कहा कि बहन शायद तुम्हें पता नहीं कि यह सब पाने के लिए, अपनी स्टार बनने की इच्छा की पूर्ति के लिए मैंने क्या-क्या खोया है ।कितने कष्ट सहे हैं । आज मेरे मम्मी- पापा ,भाई ,सास-ससुर एवं पति सतीश सभी मुझसे दूर हो गए हैं ।”

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इतने पर श्रेया बोली,” क्या वे सभी लोग तुम्हें स्टार नहीं बनाना चाहते थे ? क्या उन्हें इस क्षेत्र में कैरियर बनाना पसंद नहीं था? क्या वे सब तुम्हें कुछ और बनाना चाहते थे?”      

आयुषी ने दुख भरी आवाज में कहा ,”हां !वे सभी मुझे स्टार नहीं बनाना चाहते थे। मेरे मम्मी-पापा तो मुझे डॉक्टर बनाना चाहते थे, ताकि मैं समाज की सेवा कर सकूं ।बीमार व्यक्तियों की चिकित्सा करके उनका कष्ट दूर कर सकूं ।उनका यह भी कहना था कि मैं गरीब असहाय लोगों की चिकित्सा करके उन्हें निरोग बनाऊं परंतु मैं यह नहीं चाहती थी।मुझे अभिनय कला एवम् संगीत से बेहद रूचि थी ।मैं अपनी इस कला को निखरना चाहती थी ।

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, कालेज के प्रत्येक सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेती थी । गीत संगीत एवं नाटक में बहुत अच्छा प्रदर्शन करती थी जिसके कारण मैं पूरे कालेज में जानी पहचानी जाती थी ।मेरे अध्यापक भी मुझसे बहुत स्नेह करते थे ।वह सभी मेरी प्रतिभा का सम्मान करते थे।

मेरी प्रतिभा को देखकर मेरी संगीत की अध्यापिका मैडम दीपांशी मेरी बहुत प्रशंसा करती थी । अक्सर मुझे और अच्छा गाने या अभिनय करने के लिए प्रेरित करती थी । उनका कहना था कि यदि मैं थोड़ी सी मेहनत संगीत एवं अभिनय के प्रति कर दूं तो मैं इस क्षेत्र की ऊंची से ऊंची मंजिल प्राप्त कर सकती हूं। मैडम दीपांशी की बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थी क्योंकि मेरी रुचि जो इस क्षेत्र में थी। धीरे-धीरे मेरे कालेज की पढ़ाई समाप्त हो गई। मैं स्नातक अच्छे अंको से उत्तीर्ण हो गई ।

अब मैं मुंबई जाकर एक्टिंग का कार्य सीखना चाहती थी। मैंने अपनी इच्छा अपने पापा के सम्मुख रखा उनसे विनती के स्वर में कहा,” पापा! मेरी इच्छा स्टार बनने की है इसलिए मैं एक्टिंग का कार्य सीखना चाहती हूं।अतः आप मेरा ऐसे ही किसी कॉलेज में एडमिशन करवा दीजिए जिससे मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकूं ।”

मेरे पिताजी मुझे इस क्षेत्र में नहीं भेजना चाहते थे । उन्होंने कहा ,”तुम्हें आगे डॉक्टर बनना है ।अतः तुम डॉक्टरी की पढ़ाई करो ।इस समय सिटी विश्वविद्यालय में फार्म आ चुके हैं ।एक-दो दिन में तुम ऑनलाइन फॉर्म देना।”

पापा की इन बातों को सुनकर मेरे हृदय को बहुत आघात पहुंचा लेकिन मैं कर ही क्या सकती थी। फिर मैंने सोचा एक बार और प्रयास करूं ,शायद पापा मान ही जाएं ।वह मुझे मुंबई भेज दे ।

शाम को जब पापा टहलने के लिए बाहर गए तब मैंने मम्मी से पूरी बात कही। उनसे प्रार्थना किया कि वे पापा को किसी भी तरह से तैयार कर लें ।मम्मी ने सांत्वना देते हुए कहा, “ठीक है बेटी मैं तुम्हें तुम्हारे पापा से बात करूंगी ।शायद वह मान जाए।”

बाद में मम्मी ने पापा से इस विषय में बात की लेकिन फिर भी पापा तैयार नहीं हुए । इसी बीच मेरे फूफा जी घर आए । दो-तीन दिन रुके थे। उन्होंने गाजीपुर में रहने वाले दयाराम के बेटे सतीश से मेरी शादी करने के लिए पापा से कहा। पापा ने लड़का देखा। सुंदर और होनहार लड़का देखकर आनन-फानन में ही शादी कर दी । मैं सोच रही थी कि मैं अपनी इच्छा सतीश के सामने प्रकट करुं, शायद वह मेरा साथ दे ।

एक दिन मैंने साहस करके सतीश से अपनी बात कही लेकिन सतीश की भी प्रतिक्रिया सहयोगात्मक न थी ।उसने भी मना कर दिया ।बोला – तुम बी.एड., बी.पी.एड.,नेट,पी- एच.डी. कर लो।नौकरी करके सम्मान की जिंदगी जियो ।उनका यह परामर्श मुझे अच्छा नहीं लगा ।

ससुराल में एक वर्ष ही बीता था कि सहसा मेरे मन में घर द्वार ,नाते- रिश्ते छोड़कर अपने लक्ष्य को पाने का विचार आया।मैं अपना कुछ आवश्यक सामान ,पैसे एवं कुछ जेवर एक बैग में रख कर घर से भाग गई। वहां से मैं रेलवे स्टेशन पहुंची । मुंबई के लिए टिकट लेकर गाड़ी में बैठ गई।कुछ घंटों के सफर के बाद मैं मुंबई पहुंच गई ।मुंबई में कहां जाना था ,मुझे स्वयं ही नहीं पता था ,लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी । खोजते -खोजते एक कमरा किराए पर ले लिया ।वहां रहने लगी।मैं काम की खोज में घर से बाहर निकली लेकिन काफी समय तक मुझे काम नहीं मिला। धीरे-धीरे पैसे भी समाप्त हो गए थे ।एक-एक करके मैंने जेवर बेचना शुरू किया ।

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बाद में मुझे गाना गाने के लिए एक छोटे से थिएटर में नौकरी मिल गई। मैं इससे संतुष्ट नहीं थी क्योंकि घर द्वार छोड़कर मैं थिएटर में गाना गाने नहीं आई थी ।मैं करती भी तो क्या ,मेरे सामने कोई रास्ता नहीं था। इस अनजान शहर में मैं बिना पैसे के कैसे जीवन व्यतीत करती ।कभी- कभी मेरे मन में घर लौटने का विचार आता था लेकिन मैं सोचती शायद मेरे घर वाले मुझसे नाराज होंगे । अब वह मुझे घर में नहीं रहने देंगे ।यह सोचकर मैं सहम उठती और घर न जाने का विचार मन में दृढ़ कर लेती। काफी दिनों तक मैं थिएटर में ही गाना गाती रही तथा लोगों का मनोरंजन करती रही।

एक बार भाग्य ने मुझे मौका दिया ।अचानक एक दिन सौभाग्य से थिएटर में ही फिल्म निर्देशक संजीव सक्सेना आए ।वह मेरे गाने को सुनकर मेरी आवाज पर प्रसन्न हो गए तभी उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। फिल्मों में गाना गाने की बात कही।उनकी बात को मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं तो यही चाहती थी। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए घर -द्वार, नाते -रिश्ते तोड़ कर मुंबई आई थी।दूसरे दिन से ही मैं थिएटर छोड़कर फिल्म इंडस्ट्री जाने लगी ।

सभी मेरी तारीफ करते थे । कुछ समय पश्चात अपने अभिनय कौशल को भी उन लोगों के सामने प्रकट करने की आज्ञा मांगी और मुझे अभिनय करने की आज्ञा मिल गई।मेरे अभिनय एवं स्वर से फिल्म निर्देशक संजीव सक्सेना जी अति प्रभावित हुए। उन्होंने मुझे फिल्मों में नायिका के लिए सिलेक्ट कर लिया। अब क्या था मैं अपनी मंजिल पर पहुंच चुकी थी ।अब मैं अच्छा से अच्छा प्रदर्शन करने की सोचती थी।

मेरी पहली फिल्म जब रिलीज़ हुई तो हिट हो गई ।मेरे पास प्रशंसकों के प्रशंसा भरे पत्र आने लगे ।यह सब देख कर मैं बहुत प्रसन्न हुई ।आज तक मैंने बहुत सी फिल्मों में काम किया ।उनमें कई फिल्में सुपरहिट साबित हुई।

अब अपने वर्तमान में आते हुए आयुषी कहती है कि मुझे दुख तो बस इस बात का है कि आज शहर में सभी मेरे प्रशंसक हैं परंतु मेरे परिवार वाले मुझसे नाराज हैं ।इतने दिनों तक मैं उनके वियोग में जीती रही ।अब उनसे मिलने की इच्छा होती है ।यह कहकर आयुषी फूट-फूट कर रोने लगी।

श्रेया ने उसे समझाया । बोली- आयुषी धैर्य रखो ।यदि ईश्वर कही है और वह सब की इच्छा की पूर्ति करता है तो वह तुम्हारी इच्छा की पूर्ति भी अवश्य करेगा।यह न जाने कितने बिछड़े लोगों को मिलाता तथा कितनों को भी वियोग की भंवर में फंसा कर बेहाल करता है ।मुझे ऐसा आभास होता है कि तुम्हारे घर के लोग भी तुम्हें जल्दी ही मिलेंगे।

इधर आयुषी के मम्मी पापा सतीश व अन्य सभी लोग टेलीविजन व समाचार पत्रों के माध्यम से जान चुके थे कि अब आयुषी बहुत ऊंची ऊंचाइयों को छू चुकी है ।वे सभी बहुत प्रसन्न हुए ।आयुषी से मिलने के विचार से मुंबई चल दिए ।बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए वे आयुषी का पता लगा पाए ।उसके यहां पहुंचकर नौकर ने उसके विषय में जानकारी ली उनसे मिलने की वजह कहीं ।

अगले दिन आयुषी सुबह का नाश्ता कर रही थी कि एक नौकर ने आकर बताया । कुछ लोग उनसे मिलने गांव से आए हैं ।क्या उन्हें अंदर ले आऊं।आयुषी ने सोचा कि यहां गांव से कौन आया होगा ।यहां गांव से मेरा कोई रिश्ता तो है नहीं फिर कौन आया है ,हो न हो कोई प्रशंसा ही आया होगा ।यह सोचकर उसने गेस्ट रूम में लाने की आज्ञा दे दी।

वे सभी अंदर आए ।अपने परिवारी जनों को देखकर आयुषी स्तंभित रह गई ।उसकी आंखों से प्रसन्नता के आंसू बहने लगे ।उसने सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार किया।सब का यथोचित स्वागत सत्कार किया तथा घर से भागने के लिए क्षमा याचना करते हुए कहा ” मैं आप सब लोगों की इच्छा के विरुद्ध यह कार्य किया किंतु मैं करती ही क्या ईश्वर की यही इच्छा थी। अतः विवश होकर मुझे ऐसा करना पड़ा ।आप लोग मुझे इसके लिए क्षमा करें।”

सतीश ने कहा,” क्षमा तो हम लोगों को तुम से मांगना चाहिए। हमने तुम्हारी प्रतिभा को पहचाना नहीं, उसको निखारने में तुम्हारा सहयोग नहीं दिया ।अतः तुम हम सभी को क्षमा कर दो ।आयुषी के माता पिता उसके कार्य की प्रशंसा करने लगे और कहने लगे हम सभी पुराने विचारों के हैं ।हमें क्या पता कि संगीत और अभिनय में भी इतनी उन्नति की जा सकती है ।हम तो इस कार्य को निकृष्ट ही समझते रहे। तुम ने यह सिद्ध कर दिया कि किसी भी क्षेत्र में ऊंचाइयों को प्राप्त कर नाम कमाया जा सकता है ।

इस प्रकार से अपनी लगन और परिश्रम से अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया। ईश्वर की कृपा से उसके बिछड़े हुए परिजन भी मिल गये।