जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व
जयशंकर प्रसाद कृत नाटकों के प्रगीतों में छायावादी तत्व
कवि जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक परिचय
मूलतः कवि, कहानी, नाटक, निबंध, उपन्यास जैसी विधाओं को अपनी प्रतिभा से विभूषित करने वाले कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ। साहित्य और राष्ट्र की सेवा करते हुए 15 नवंबर सन 1937 को चिर निंद्रा में लीन हो गए। जयशंकर प्रसाद ने अपनी काव्य यात्रा वाराणसी में ब्रजभाषा से शुरू की, किंतु समय की माँग को देखते हुए खड़ी बोली में काव्य सृजन किया। बाद में छायावादी युग के प्रवर्तक के रूप में स्थापित हुए, जिसे आपके ही नाम पर ‘प्रसाद युग’ की संज्ञा दी गई है। इस अवधि में भारत में स्वतंत्रता की क्रांति चरम पर थी। ऐसे कठिन समय में प्रसाद ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय जनमानस में ऊर्जा का संचार किया है। छायावादी युगीन नाटकों की प्रमुख विशेषताएं ‘ध्रुवस्वामिनी’ एवं ‘चंद्रगुप्त’ में विद्यमान हैं-
- नाटकों के गीतों में कवि की कोमल भावनाओं की मधुर अभिव्यक्ति है।
- नाटकों के समस्त गीत सामाजिकों के अंतःकरण को अनुरंजित करने में पूर्ण समर्थ हैं।
- नाटकों के गीतों में गेयता और माधुर्य की प्रधानता है।
- नाटकों में गीत प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर बड़े ही सुंदर ढंग से समाहित किए गए हैं।
- दोनों नाटकों के गीत राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत हैं।
- नाटकों के गीत सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं।
नाटक चंद्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी का मूल उद्देश्य
भारत में पितृसत्तात्मक समाज है। इस पितृ सत्तात्मक समाज में धर्म, वर्ग, जाति, लिंग के आधार पर स्त्री को दोयम दर्जे की प्राणी समझा जाता रहा है। वर्तमान में भी स्त्री स्थिति कुछ हद तक वही है। स्त्री अपनी शिक्षा, इच्छा, अधिकारों और सम्मान के प्रति सजग होने के बावजूद सदैव समझौता वादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए मजबूर थी। इन समस्याओं को जयशंकर प्रसाद ने अपने हृदय में महसूस किया और नाटक चंद्रगुप्त (1931) तथा ध्रुवस्वामिनी (1933) लिखकर प्रकाशित किया। इन नाटकों का मूल उद्देश्य नारी स्वातंत्रय की चेतना को अभिव्यक्ति प्रदान कराना है। जयशंकर प्रसाद ने रंगमंच पर अभिनय के समय प्रगीतों का विशेष ध्यान आकर्षण किया है। प्रसाद जी ने नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ को 3 अंकों में विभक्त किया है। लेखक ने अपनी बात को राष्ट्र प्रेमी की तरह ही स्त्री वेदना को मंदाकिनी के माध्यम से मुखरित किया है। मंदाकिनी कहती है कि जो राजा राष्ट्र रक्षा करने में असमर्थ है, उस राजा की भी रक्षा नहीं करनी चाहिए। चंद्रगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी राष्ट्र तथा स्त्री की रक्षा के लिए शकराज के दुर्ग जाते हैं, तब मंदाकिनी की करुणा छलक पड़ती है-
"यह कसक अरे आँसू सह जा, बनकर विनम्र अभिमान मुझे, मेरा अस्तित्व बता, रह जा। बन प्रेम छल कोने-कोने, अपनी नीरव गाथा कह जा।"(1)
नाटक दृश्य काव्य है। अतः नाटक प्रेमियों की मनोभावनाओं को दृष्टि में रखते हुए नाटककार ने यत्र-तत्र प्रगीतों का प्रयोग किया है। ध्रुवस्वामिनी आत्मसम्मान और कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए चंद्रगुप्त और सामंतों के साथ शकराज के शिविर में जा रही है। मंदाकिनी अग्र लिखित गीत को प्रयाण गीत (Marching Song) के रूप में गाते हुए आगे-आगे चल रही है। यह गीत कर्म और विजय रथ पर विपरीत परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है-
"पैरों के नीचे जल धर हों, बिजली से उनका खेल चले। संकीर्ण कगारों के नीचे, शत-शत झरने बेमेल चलें। विचलित हो अंचल न मौन रहे, निष्ठुर श्रृंगार उतरता हो, क्रंदन कंपन न पुकार बने, निज साहस पर निर्भरता हो।।"(2)
शकराज को ध्रुवस्वामिनी के आने का संकेत मिल चुका है। इस पर मानो वह विजय उत्सव मना रहा है। मदिरा का दौर चल रहा है। सांध्यकालीन प्रकृति मादकतापूर्ण बिंब की उपस्थिति का एहसास करा रही है। जय शंकर प्रसाद के गीतों का साहित्यिक महत्व तो है ही, साथ ही संक्षिप्तता, परिस्थिति की अनुकूलता और हृदय की अभिव्यक्ति की छटा दिखाई देती है। शकराज के महल में यह अंतिम गीत नर्तकियों द्वारा गाया गया है-
"अस्तांचल पर युवती संध्या की, खुली अलक घुँघराली है।
लो मानिक मदिरा की धारा, अब बहने लगी निराली है।
वसुधा मदमाती हुई उधर, आकाश लगा देखा झुकने,
सब झूम रहे अपने सुख में, तूने क्यों बाधा डाली है।"(3)
जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है। चंद्रगुप्त नाटक का आरंभ तक्षशिला के गुरुकुल से होता है। इस नाटक में मुख्य पात्र चंद्रगुप्त और चाणक्य महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। ग्रीक दार्शनिक सेल्यूलस की पुत्री कार्नेलिया सिंध नदी के तट पर प्राकृतिक मनोहारी वातावरण में डूब सी जाती है। वह भारतीय संगीत में गीत गाती है-
"अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरु सिखा मनोहर।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।"(4)
गुप्त काल में युद्ध प्रायः साम्राज्य विस्तार के लिए होते थे। इसलिए युद्ध में प्रस्थान से पहले सैनिकों का मनोबल और उत्साह बढ़ाने के लिए तक्षशिला की राजकुमारी ‘अलका’ अपने देशवासियों से विजय उत्सव मनाने आह्वान करती है। आज संपूर्ण देश में जातिवाद, प्रांतीयवाद आदि अनेकानेक समस्याएं पनप रही हैं। इस संदर्भ में नाटक ‘चंद्रगुप्त’ में जय शंकर प्रसाद ने नारी पात्रों के माध्यम से राष्ट्रीय भावना को आर्य संस्कृति की ठोस जमीन प्रस्तुत की है। नारी अलका समवेत स्वर में गायन करती है-
"हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती-
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती-
अमर्त्य वीरपुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ है- बढ़े चलो, बढ़े चलो।"(5)
भाषा को सुसज्जित एवं प्रभावपूर्ण बनाने के लिए छायावादी कवि, लेखक जयशंकर प्रसाद ने यत्र-तत्र समुचित अलंकारों का प्रयोग किया है। ‘चंद्रगुप्त’ नाटक के गीतों में उपमा, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का समावेश मिलता है। अलंकारों के प्रयोग से गीतों का सौंदर्य बढ़ जाता है क्योंकि अलंकार काव्य का वाह्य सौंदर्य होता है-
"सुधा सीकर से नहला दो।
रूप शशि इस व्यथित हृदय-सागर को बहला दो।
अंधकार उजला हो जाए,
हँसी हंसमाला मंडराये।"(6)
छायावादी काव्य की एक अनुपम विशेषता है- उसकी चित्रमयता अथवा चित्रात्मक भाषा। छायावादी काव्य हिंदी वांग्मय में अपना सर्वस्व समाहित कर देता है। चंद्रगुप्त नाटक के गीतों में भी कुछ ऐसे ही गीत हैं जिन्हें पढ़ने से पहले ही नया चित्र मन में उभर आता है-
"पड़ रहे पावन प्रेम-फुहार,
जलन कुछ-कुछ है मीठी पीर।
सँभाले चल रही है कितनी दूर,
प्रलय तक व्याकुल हो न अधीर।"(7)
छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषता प्रतीकात्मकता होती है। प्रतीकों के माध्यम से कवि बहुत कुछ कह जाता है। जिसका संबंध सीधा-सीधा मानव जीवन से जुड़ा होता है। ऐसे ही प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग जयशंकर प्रसाद ने चंद्रगुप्त नाटक में किया है। नाटक में नारी मल्लिका, सरोजिनी, अलि (चंद्रगुप्त) प्रतीकों के माध्यम से प्रकृति से जोड़ा गया है, जिसमें मानवीकरण भी परिलक्षित होता है-
"हो मल्लिका, सरोजिनी या यूथी का पुंज। अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीड़ा कुंज। मधुप कब एक कली का है।"(8)
जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ तथा ‘चंद्रगुप्त’ के गीत सरल सरस और रंगमंच के अनुकूल हैं। सम्पूर्ण नाटक में गद्य की अविरल धारा परिस्थिति के अनुकूल संगीत सरसता उत्पन्न करती है। नाटककार जयशंकर प्रसाद जी प्रस्तुत नाटक के पात्रों को मनोदशा तथा उनके हृदय की गतिविधि को गीतों के माध्यम से प्रकट करते हैं। इससे स्पष्टतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद जी कविता लिखते-लिखते नाटक तथा नाटक लिखते-लिखते कविता लिख देते हैं। यही उनकी साहित्य साधना का सार है।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
- ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 13, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
- ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 22, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
- ध्रुवस्वामिनी- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 25, प्रकाशन- साहित्य रत्नालय कानपुर, प्रकाशन वर्ष 2008
- चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 67, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
- चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 126, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
- चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 114, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
- चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 44, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
- चंद्रगुप्त- जयशंकर प्रसाद पृष्ठ संख्या 120, प्रकाशन- प्रकाशक संस्थान दरियागंज नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष 2014
अन्य पढ़े :
Ans-1 नाटक चंद्रगुप्त (1931) में कविवर जयशंकर प्रसाद की रचना है।
Ans .2 ध्रुवस्वामिनी (1933) नाटक साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की रचना है।
Ans.3 जयशंकर प्रसाद कृत नाटक ‘चंद्रगुप्त’ 4 अंको में विभक्त है। संपूर्ण नाटक में यथा स्थान 11 गीतों का समावेश किया गया है।
Ans .4 कविवर जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी में 30 जनवरी सन 1890 को हुआ