हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

हिमाचल के लोक साहित्य का प्रलेखन एक अनिवार्य आवश्यकता | Himachal lok sahitya

किसी भी देश-प्रदेश की संस्कृति सभ्यता, समृद्ध और इतिहास का मूल्याँकन यदि समग्रता में करना हो तो उस देश-प्रदेश के लोक साहित्य का गहराई से अध्ययन करना अपेक्षित होता है। माना जाता है कि प्रत्येक क्षेत्र की अपनी प्रचलित, श्रुति आधरित लोककथाओं की जड़ें कहीं न कहीं वहाँ के इतिहास से अवश्य ही जुड़ी रहती हैं। हिमाचल प्रदेश की हरी-भरी घाटियों व निकट-दूर क्षेत्रों में अपार जल सम्पदा और वन सम्पदा के अतुल भण्डारों के साथ ही साथ लोक साहित्य भी यहाँ की साँस्कृतिक निधि् के रूप में बिखरा पड़ा है। साहित्य रूपी सम्पदा का महत्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है कि उसमें जनमानस की सोच, साँस्कृतिक मान्यताएँ तथा सामाजिक दायित्वों का अध्ययन करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

ऋगवेद में लोक शब्द का प्रयोग ‘जन’ के लिए तथा स्थान के लिए हुआ है-

‘‘य इमे रोदसी उमे अहमिन्दमतुष्टवं।
विश्वासमत्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं।।
तथा
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो व्यौ समवर्तत।
पदभ्यां भूमिर्द्दिशः श्रोत्रातथा लोकां अकल्पयत्।।’’

लोक साहित्य के सफल चितेरे डॉ. वंशीराम शर्मा के अनुसारः-

‘‘उपनिषदों में ‘अयं बहुतौ लोकः’ कह कर विस्तार को लक्षित किया गया है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में लोक तथा ‘सर्वलोक’ शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनसे ‘लौकिक’ तथा ‘सार्वलौकिक’ शब्द जुड़े हुए उल्लिखित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनी ने वेद से पृथक् लोकसत्ता को स्वीकार किया था। वररूचि व पतंजलि ने भी लोकप्रचलित शब्दों के उद्धरण दिए हैं। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी तथा नाट्यधर्मी परम्पराओं का अलग-अलग रूप से उल्लेख करके लोक परम्पराओं को स्पष्ट रूप से अलग स्थान दिया है। ‘लोक’ शब्द का प्रयोग महाभारत में भी हुआ है और वहाँ इसे ‘सामान्य-जन’ के अर्थ में ही व्यवहृत किया गया है। ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः’ अर्थात् जो व्यक्ति ‘लोक’ को अपने चक्षुओं से देखता है वही सर्वदर्शी अर्थात् उसे पूर्णरूप से जानने वाला ही कहा जा सकता है।’ उक्ति महाभारत में वर्णित है।’’

इससे यह भली भान्ति प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य, (लोक अर्थात् साधारण जन और साहित्य) दो शब्दों से मिल कर बना है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा कतिपय विद्वान ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘ग्राम्य’ या ‘जनपद’ नहीं मानते बल्कि गाँवों में फैली हुई उस जनता से लगाते हैं जिसका ज्ञान व्यावहारिक तथा मौखिक है। पहाड़ी तथा डोगरी भाषा-भाषी क्षेत्रों में लोक शब्द का अर्थ सामान्य जनता से ही लिया जाता है। यहाँ मैं पुनः डॉ. वंशी राम शर्मा को उद्धृत करूँगी जिनके अनुसार ‘‘लोक शब्द को कुछ विद्वानों ने अपने शब्दजाल में बाँधकर अभिजात्य वर्ग से दूर कर दिया तथा परम्परागत ढंग से अपेक्षाकृत आदिम अवस्था में निवास करने वाले लोगों को ही ‘लोक’ कहने के लिए सामान्य पाठकों को प्रेरित करने की चेष्ठा की, किन्तु यह परिभाषा अधूरी है। ‘लोक’ का अर्थ ‘समाज’ के पर्याय के रूप में होना चाहिए क्योंकि समाज अपनी मान्यताओं व परम्पराओं से अलग अस्तित्व वाला नहीं होता और ‘लोक’ का आकार भले ही समाज से अपेक्षाकृत छोटा हो परन्तु वह भी किसी बड़े समाज का सक्रिय अंग होता है। समाज का लिखित इतिहास हो सकता है और अब यही बात ‘लोक’ के लिए भी समझी जा सकती है।’’

अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं।

लोक साहित्य का सम्बंध लोक संस्कृति के साथ है। यहाँ संस्कृति को ‘शिष्ट’ तथा ‘लोक’ दो भागों में बाँटा गया है। शिष्ट संस्कृति का सीधा सम्बंध अभिजात्य वर्ग से है और उसकी परम्पराओं व ज्ञान का आधार लिखित साहित्य होता है जबकि सामान्य जन लोक विश्वासों व लोक परम्पराओं में अधिक विश्वास करता है और उसकी मान्यताएँ अलिखित होती हैं। वेद, शास्त्रों तथा पुराण आदि के द्वारा दर्शाया गया मार्ग अपेक्षाकृत परिष्कृत तथा विज्ञान सम्मत है अतः उसे शिष्ट संस्कृति के अंतर्गत रखा जा सकता है। वैसे देखा जाए तो शिष्ट साहित्य भी सामाजिक परिवेश को आधार मान कर लिखा जाता है और इस प्रकार लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायिका होती है। अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं। इसका पहला शब्द ‘लोक’ सामान्यतः अपढ़ गंवार, ग्रामीण, शिक्षा, विकास आदि प्रभावों से अलग-थलग समझा जाने वाला वर्ग होता है। परम्परा एवं रूढ़ियों को ढोने वाला-समझ कर इस साहित्य को शिष्ट साहित्य के समकक्ष नहीं रख जाता, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि कुल साहित्य की ठोस आधारशिला यही लोकसाहित्य होता है। लोक साहित्य के गम्भीरता पूर्वक अध्ययन, मनन एवं चिन्तन अथवा अनुसंधान से यह स्वयं प्रमाणित हो जाता है कि लोक साहित्य ही समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, भाषा शास्त्र, इतिहास, नृविज्ञान, शिष्ट साहित्य आदि से उपयोगी साहित्य होता है।

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हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु

हिमाचल भारतीय पुराण गाथाओं का केन्द्र बिन्दु होने के कारण वर्णनातीत रूप से परत-दर-परत खुलते रोमांचक रहस्यों का इतिहास है। इस हिमक्षेत्र के प्रथम प्राचीनतम प्रागैतिहासिक राजा युकुन्तरस से लेकर आज तक के विकास और विभिन्न योजनाओं के विभिन्न चरणों का परिचय प्रचलित लोककथाओं, लोक आख्यानों अथवा लोकगीतों से चलता है। हिमाचल में चूंकि लोकगीतों का विषय ही लोककथाएँ हैं अतः लोककथाओं को लोकगीतों से अलग कर पाना असम्भव है, बल्कि यहाँ लोकसाहित्य में लोकगाथाएँ ही प्रचलित हैं। फिर भी इन सब साहित्यक प्रक्रियाओं से गुजरता हमारा लोकजीवन कभी लोकगीतों में मुखर हो उठता है कभी लोककथाओं, आख्यानों और लोकनाट्यों द्वारा प्रतिबिम्बित होता है। बस यदि अन्तर है तो केवल इतना ही कि शिष्ट साहित्य जहाँ कागज़ के पन्नों पर उतर कर पुस्तकों में अंकित हो जाता है वहाँ लोकसाहित्य सरिता मुख-दर-मुख प्रवाहमान रहती है। इसके रचनाकार कम ही जाने जाते हैं और अधिकतर अज्ञात ही रह जाते हैं।

लोक साहित्य मानव जीवन के विकास और मनोविज्ञान का सशक्त ऐतिहासिक दस्तावेज होते हैं। मौखिक क्रम में उपलब्ध श्रुति आधारित लोकहित, सभ्यता के प्रभाव से अलग रहने वाली निरक्षर जनता के सुख-दुख की कहानी है। इसका रचनाकार युग-पीड़ा एवं सामाजिक दबाव को निरन्तर महसूस करता है। इस साहित्य को रचयिता के मस्तिष्क की उर्वरता का प्रमाण-पत्र माना जाता जा सकता है। ग्रामीण और निरक्षर ही नहीं फूहड़ समझे जाने वाले लोगों के मस्तिष्क भी कैसे-कैसे मधुर, सरस, कोमल और हृदयस्पर्शी साहित्य की रचना कर सकते हैं, यह आश्चर्य एवं कौतुहल का विषय है।

लोक साहित्य को कई भागों में बाँटा जा सकता है जैसे लोकगीत, लोक कथाएँ, लोकगाथाएँ, लोक नाट्य एवं कहावतें आदि। इन ग्राम्य गीतों अथवा कथा नाटकों द्वारा जाति विशेष के व्यावहारिक जीवन के प्रतिबिम्ब, उनके जीवन के विषय में, सभ्यताओं के बारे में सोचने, समझने और अन्दर तक झाँकने का अवसर सहज उपलब्ध होता है। पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ, राजकुमारों व राजकुमारियों की कहानियों के माध्यम से अनेक शिक्षाप्रद प्रसंग प्राप्त होते हैं। यही लोक साहित्य की सार्थकता है यही उपलब्धि भी है।

हिमाचल प्रदेश का हर लोकगीत अपने आप में एक लोककथा है। कुंजू-चंचलो, दक्खनू सुनारी, मोहणा-मांण, रानी सुई आदि अनगिनत लोक कथाएँ यहाँ लोकगीतों में मिलती है। भारत के अन्य भागों की भाँति सर्दियों की लम्बी रातों में लोककथा कहने का रिवाज हिमाचल में भी रहा है। लोककथा, कहानी कहते आग के पास बैठे हिमाचलवासी किसी समय ढेरों ऊन काता करते थे।

लोक साहित्य का मौखिक होना भी उस युग की कहानी कहता है। इस साहित्य का मौखिक होना कोई परम्परा नहीं थी। उस युग की विवशता भी थी और आवश्यकता भी।

स्वतन्त्रता पूर्व के हिमाचल में छोटी-बड़ी अनेक रियासतें थीं। उस समय इन रियासतों का क्षेत्रफल 10,600 वर्गमील में फैला हुआ था। इन रियायसतों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रोचक भी है और रोमांचक भी। पौराणिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों के अनुसार कोल, किरात, यक्ष, किन्नर, गर्न्धव और नाग आदि जातियाँ इसी हिमाचलीय उपत्यका की निवासी कही जाती हैं। राजा दिवोदास के आर्यों के विरुद्ध अनेक युद्धों का विवरण पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों द्वारा प्रमाणित होता है।

हिमाचल को एक साथ देवभूमि और असुर भूमि दोनों ही कहा जाता है। स्पष्टतया इसका आधार हमारी लोककथाओं में सुरक्षित है। हिमाचल के मंदिर इस क्षेत्र में नाग जाति के वर्चस्व की कथा कहते हैं। नौ नागों की लोककथा और अधिकतर मंदिरों में काष्ठ के नाग होना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इतिहास साक्षी है कि भारत में नाग जाति किसी समय बहुत शक्तिशाली रही है। किन्नर जाति आज भी ऊँचे पर्वतीय क्षेत्रों की निवासी है। स्थान-स्थान पर जाख (यक्ष) को देवता मान कर मंदिर में स्थापित किया जाना यक्षों के शक्तिशाली हिमाचल निवासी होने का प्रमाण देते हैं। किन्नर जाति आज भी उत्कर्ष की सीमाओं पर खड़ी है। कोल आज की कोली जाति प्रतीत होती है।

विश्व के महान देशों के लोकसाहित्य के क्षेत्र में भारी उपलब्धियों को देख कर आश्चर्य होता है। यूरोप और एशिया के बड़े राष्ट्रों का तमाम प्राचीन लोकसाहित्य प्रकाशित हो चुका है। इस दिशा में इन राष्ट्रों ने किसी भी विधा को नहीं छोड़ा। भारत में इस क्षेत्र में अभी बहुत कार्य शेष है।

हिमाचली लेखकों ने लोक साहित्य के क्षेत्र में अथक परिश्रम करके लोक साहित्य सागर में गहरी डुबकियाँ लगा कर बहुत से अमूल्य मोती खोज निकाले हैं। इनमें से कुछ चर्चित पुस्तकें इस सन्दर्भ में प्राप्त है। ‘‘हिमाचली लोककथाएँ’’ में इक्कीस लोकप्रिय लोकथाओं को अनुवाद सहित प्रकाशित किया गया है। ‘‘भर्तृहरि लोक गाथा’’ में जुब्बल, कोटखाई, राजगढ़, सिरमौर, कांगड़ा आदि क्षेत्रों में प्रचलित भर्तृहरि गाथा के विभिन्न रूपों को सम्पादित किया गया है।

हिमाचल की लोककथाएँ, पहाड़ाँ दे अत्थरु (पहाड़ी में) कागज़ का हंस, राजकुमारी और तोता, नौ-लखिया हार, फोक टेल्ज़ आफ हिमाचल, स्हेड़ेयो फुल्ल (संजोए हुए फूल-पहाड़ी), मीठी यादें, पलो खट्टे-मिट्टे (पहाड़ी), कथा-सरवरी दो भागों में (अकादमी द्वारा) प्रकाशित हैं। इन संग्रहों में अनुमानतः साढ़े तीन सौ लोक कथाएँ सम्पादित हैं। इसके अतिरिक्त हिमाचल भाषा विभाग के सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप हजारों लोक कथाएँ विभाग को प्राप्त हुई हैं। हिमभारती, हिमप्रस्थ में भी बहुत सी लोककथाएँ अनेक जनपदीय बोलियों में उपलब्ध् हुई हैं।

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लोक कथाओं के अनुसार जम्मू के भद्रवाह से टिहरी गढ़वाल तक यह पर्वतीय क्षेत्र एक सशक्त सांस्कृतिक इकाई रहा है। वैदिक काल में हिमाचल के इस क्षेत्र को वैराज्य नाम से पुकारा जाता था।

हालांकि हिमाचल प्रदेश की अधिकतर लोक कथाएँ यहाँ के देवताओं और मंदिरों से जुड़ी हैं, फिर भी हम इनकी विश्वासनीयता विदेशी साहित्य में खोजते हुए गर्व का अनुभव करते हैं। हमें आभारी होना चाहिए इन खोजी विदेशियों का जिन्होंने हिमाचल के इन दुर्गम और दुरूह दूर-दराज क्षेत्रों में बिना यातायात की सुविधाओं के लोककथाओं और किंवदंतियों के आधार पर पैदल घूम कर हमारी अमूल्य पुरातन सँस्कृति की धरोहर को खोज निकाला और लोककथाओं और पुरातन अवशेषों में तालमेल बैठाकर सत्य की खोज कर इतिहास लेखन का मार्ग प्रशस्त किया।

प्राचीन अवशेषों और लोक कथाओं का चोली-दामन का साथ होता है। ये प्राचीन अवशेष हमें हमारी सभ्यता और संस्कृति से परिचित कराते हैं। स्थानीय देवी-देवता और इनसे जुड़ी लोककथाएँ भले ही शहरी सभ्यता को अंधविश्वास प्रतीत होती हों किन्तु ग्रामीण जनमानस इन्हीं दंतकथाओं में विश्वास करके आज भी देवताओं के निर्णय की अवज्ञा का साहस नहीं कर सकता। इससे समाज को एक स्वच्छ अनुशासन प्राप्त होता है, यही है लोक साहित्य की उपयोगिता और सार्थकता भी।

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