पति के देहांत को छः महीने से भी ज्यादा हो गये थे, बेटी बार-बार बुला रही थी। हॉस्टल की वार्डन भी कई बार कह चुकी थी कि ‘बच्ची पिता को लेकर बहुत भावुक है, एक बार आप आकर उसे मिल जाइए थोड़ा-सा हौसला होगा उसे।’ घर से निकलने की उसे हिम्मत ही नहीं हो रही थी, फिर भी वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक थी। पिता के न रहने पर माँ के बढ़े हुए दायित्व से भली भान्ति परिचित थी, अतः शिमला जाने का मन बना ही लिया। बैग उठाकर बाहर ही निकली थी कि विवाहित बेटे ने टोक दिया, ‘‘यह क्या पहन लिया आपने? कुछ समाज की भी चिन्ता है या नहीं?’’ करुणा ने चौंककर अपने आप को देख, उसने गहरे हरे रंग का पुराना-सा प्रिंट सूट पहन रखा था, ‘‘इस सूट में क्या हो गया?’’ ‘‘आपको पगड़ी पर कितनी सारी सफेद साड़ियाँ मिली थीं? उनका क्या करेंगी आप?? अब आपको घर से बाहर जाते समय उन्हें पहनना जरूरी है। हमारे समाज का यही नियम है।’’ बेटे की आवाज़ सपाट थी। ‘‘बस के सफर में सफेद कपड़ा जल्दी गंदा हो जाता है। मिला पहुँचकर बदल लूँगी।’’ करुणा नीचे सड़क पर उतर गई थी। बस आने वाली थी, बहस का समय नहीं था।
अन्य पढ़े : निदा फाज़ली के साथ/आशा शैली शाम तक वह अपनी मित्र उषा के घर में थी, उषा से भी इस हादसे के बाद वह पहली बार मिल रही थी, वातावरण बोझिल ही रहा। सुबह करुणा को सफेद साड़ी में शृंगार विहीन देखकर वह बिलख उठी, परन्तु करुणा अनदेखा करके बाहर निकल गई। प्रिंसिपल ने लड़की को बुलावा भेजा, पर यह क्या, बेटी तो माँ को देखते ही दरवाजे से उल्टे पैर भागती हुई प्रांगण के बड़े पेड़ से सिर मार-मार कर रोने लगी। जो अध्यापिकाएँ करुणा से मिलने आई थीं वे भी लड़की के इस अप्रत्याशित व्यवहार से भौंचक्की खड़ी थीं, तभी वार्डन ने आगे बढ़कर बच्ची को प्यार से सहलाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ मैना? क्यों रो रही हो?? तुमने ही तो उनको मिलने के लिए बुलाया था।’’ ‘‘मैम!….उसने सुबकते हुए कहा, ‘‘वो, सफेद साड़ी…..वो मुझे याद दिलाती है….पापा मर गये…नहीं हैं अब मेरे पापा’’ वह फिर हिचकियाँ लेने लगी। ‘‘सॉरी बेटा, अब ऐसा नहीं होगा। विश्वास रखो।’’ करुणा ने बेटी को गले लगा लिया। अब उसने उषा की दी हुई कत्थई शॉल ओढ़ ली।
लघुकथा अम्मा उतो | Short Story Amma Uto| पुष्पा श्रीवास्तव ‘शैली’
माँ आँगन में सोयी थी! माँ पर धूप पड़ रही है फिर भी माँ सोयी है! ऐसे खुले आँगन में माँ को सोते कभी नहीं देखा था! माँ आज इतनी देर तक क्यों सो रही है? मेरे अबोध मन बार बार स्वयं से प्रश्न करता रहा!
थोड़ी देर में माँ को सर से पैर तक फूलों से ढका जा चुका था! पिता मुझे गोद में ले कर माँ के पास आये. मुझे तो माँ को जगाना था! “अम्मा उतो! अम्मा अम्मा उतो (उठो)!!” मेरे इतना कहते ही पिता और भी तीव्रता से फफक पड़े! पिता को रोते देख मैंने माँ को उठने के लिए फिर कभी नहीं कहा और पिता के कंधे से चिपक गयी!
मेरे बाल मन में हज़ार प्रश्न उठ खड़े हुए! जब कोई देर तक सोता है तो उसकी पूजा क्यूँ की जाती है? और फूलों से पूजा की जाती है तोह सब रोते क्यों हैं? मैं सवालों के बीच उलझ कर सो गयी! और जब जागी तो सब शांत था! मैं आश्वस्त हुई की चलो माँ उठ गयी! दौड़ी दौड़ी माँ के कमरे में गयी तो माँ वहां नहीं थी! “माँ उठी, तो फिर गयी कहाँ??”
बहुत दूर तक वह मेरा पीछा करती रही शायद आवाज भी लगा रही थी मैं सहेलियों के साथ गपशप करने में व्यस्त इसलिए ध्यान नहीं दिया । तभी मेरे फोन की घंटी बजी फोन उठाया। हां मां बस यही सहेलियों के साथ हूं आती हूं, और सहसा पीछे मुड़ी तो देखा दादी अम्मा एक लाठी के सहारे खड़ी हुई कमर झुकी शरीर शिथिल बस जीभ सजीव और सक्रिय थी। उन्होंने कांपते हाथों से मुझे एक पर्ची पकड़ाई।ये क्या दादी अम्मा? मैंने पूछा! बिटिया यहिमा हमरे बेटवा केर फोन नंबर है बहुत दिन होइगे बात नहीं भय । पहिले पड़ोस मा फोन करिके हाल चाल पूछ लेत रहय आजकल नहीं,और दादी अम्मा की निस्तेज आंखों से जल की बूंदे छलक पड़ी।
अच्छा दादी अम्मा आपका बेटा कहां गया है? मैंने पूछा!अरे!का बताई बिटिया चार साल पहिले बुढऊ मरे ।अउर एक लरिका रहय वह छोड़िए के विदेश चलागवा बहुत समझायेन कि बच्चा छोडिके न जाव लेकिन नहीं माना।हुवय जाइके बियाह करि लिहिस । तब से आपका बेटा आया नहीं और आप अकेले रहती है दादी अम्मा मैंने पूछा! हां बिटिया। मैंने अपने मोबाइल से अम्मा के बेटे को फोन लगाया । कई बार घंटी गई लेकिन उधर से किसी ने फोन नहीं उठाया अम्मा भी कोई उठा नहीं रहा है। अच्छा बिटिया अम्मा ने छोटा सा उत्तर दिया और चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद अम्मा से रहा नहीं गया(मां जो ठहरी) बिटिया एक बार फिर फोन लगा दियव । अच्छा करती हूं। मैंने दोबारा से फोन लगाया इस बार किसी ने फोन उठाया(शायद उनका बेटा ही होगा) हेलो- हेलो! कौन बोल रहा है? उधर से आवाज आई तब तक मैंने अम्मा को फोन पकड़ा दिया। हलव बच्चा हमार बिटवा हमार लाल ठीक है।येतने दिन से बात काहे नहीं करेव पूत एक बार चले आव न बच्चा तुमका देखें बहुत दिन होई गयी।जब समय मिलेगा तो आ जाऊंगा हमारा भी परिवार है और बहुत काम है बाद में बात करूंगा । हां एक बात और तुम बार -बार फोन मत करना आफिस में होता हूं जब समय मिलेगा तो खुद कर लूंगा।इतने में ही फोन कट चुका था अम्मा इधर से बोले जा रही थी बच्चा तनिक देर तो बात करि लियव ।
मैंने अम्मा को कहा कि आपके बेटे ने कहा है कि वह जल्द ही घर आयेगा और आकर खूब सारी बातें करेगा । अच्छा कुछू अंग्रेजी मा कहत रहा हम समझेन नहीं पाएन। बेटे की आने की बात मेरी मुंह से सुनकर अम्मा तो खुशी के मारे झूम गई अच्छा बिटिया हम जाइत है ।कुछ तैयारी कर लेई कब आ जाये पता नहीं, और वे जैसे ही घर की तरफ चली तो उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि उनकी कमर सीधी हो गई अब उन्हें उस लाठी कि भी जरूरत नहीं।जिसे वो इतने दिनों से सहारा बनाती आयी हैं। अम्मा तो चली गई लेकिन मेरे पैर नहीं बढ़ रहे मैं सोचने लगी कि अगर अम्मा का बेटा ——। क्या वे हमेशा इतनी खुश रह पायेगी ?वे कब तक आपने बेटे का इंतजार करेंगी या फिर —–। मेरे ऊपर भी गुस्सा होगी पता नहीं मुझे माफ़ कर पायेगी या —-। अनेकों सवाल थे। अम्मा का तो अब पता नहीं लेकिन सवालों के जवाब अभी भी नहीं मिले हैं उनका अभी भी —–।
रत्ना सिंह की लघुकथा | लघुकथा | short story in hindi
इन्सानियत_रशमी को रह रहकर बहुत दर्द था उसके घर में नया मेहमान जो आने वाला है ।घर की बहू जो ठहरी ,घर के सारे काम काज निपटाने में लगी थी। पांच साल की जानवी भरसक घर के कामकाज में मां का हाथ बंटाती। लेकिन उतनी मदद नहीं कर पाती जितनी मां को ज़रुरत होती। फिर भी उसे लगता कि वह क्या न कर दे, अपनी मां के लिए कूड़ा फेंक आती,कपड़े तहाकर रखती,छोटा सा डोलू ले फुदक-फुदकर नल से पानी ले आती।दो कमरे वाले बंद -बंद से घर में अमित का परिवार रहता था। उसके साथ उसकी पत्नी बेटी के अलावा विधवा मां भी रहती थी।घर के पास छोटा सा आंगन उसमें शौचालय भी, दोनों तरफ बड़े बड़े कूड़ेदान रखे थे, जिसमें आस-पास के सभी लोग कूड़ा बच्चों के सूसू पोटी के हगीज डालते।अगर एक दिन भी मेहतर न आए तो भयंकर बदबू आने लगती।जानवी सुबह उठकर ज्यों ही पानी लेने गयी तो देखा उसकी दादी (पिता की मां)बाहर कह रही थी कि ये कद्दूभर की छोरी पता नहीं कितना काम करवाती है मैं तो सोचती हूं कि ये न करे तो इसकी मां को पता चले। जानवी को सबसे ज्यादा बुरा तो उस बात का लगा जब दादी कह रही थी कि मुझे तो यही डर है कि फिर न बेटी ही पैदाकर दे। फिर भी जानवी ने यह बात अपनी मां रश्मि को नहीं बताई।वह अंदर ही अंदर इस बात को ढकेलती रही और यही सोचती रही कि कभी उसका समय आयेगा तो वह जवाब जरूर देगी। जब वह पानी लेकर चलने लगी तभी दादी ने आवाज लगाई ये छोरी (जानवी)तेरा बाप कहां है?सुबह से दिखा नहीं वरना वो तो पांच बजे से ही घुड-घुड़ करने लगता है।
जानवी ने डबडबाई आंखों से कहा,”दादी जी पापा गये है दाईं को बुलाने , दादी प्लीज़ आप भी चलकर एक बार मां को देख लीजिए वह दर्द से कराहते हुए काम निपटा रही है। मैं नहीं जाऊंगी जब तेरा बाप गया ही है दाईं को बुलाने तो वह खुद ही आकर देख लेगी ।जा तू भी उसी की साड़ी में घुस जा । पता नहीं तेरी मां———। और मुंह बिचकाते हुए चली गई। जानवी घर आकर देखा कि उसकी मां का दर्द और बढ़ गया वह जाकर बिस्तर पर लेट गई,इतने में दाईं भी आ गई। रश्मि ने सारी चीजों का प्रबन्ध पहले से ही कर (तोलिया , कपड़े गर्म पानी )रखा था। थोड़ी हीदेर में रश्मि ने एक सुंदर सी कन्या को जन्म दिया । अमित और जानवी ने उसे बहुत प्यार किया जानवी तो उससे चिपक कर बैठ गई दादी से रहा नहीं गया वह पूछने आई (महज ये जानने की आखिर सिर तो बेटी नहीं.(महज ये जानने कि आखिर फिर तो बेटी नहीं हुई) क्या हुआ? अमित के बोलने से पहले ही जानवी बोल पडी मेरे एक और बहन हुई है, और पता है दादी मुझसे भी ज्यादा सुंदर अब हम दोनों बड़े होकर खूब काम करेंगे। जानवी बोले ही जा रही थी लेकिन दादी को कोई भी बात पसंद नहीं आई अंदर ही अंदर जलकर राख का ढेर बने जा रही थी जानवी कह भी तो इसलिए रही थी कि दादी को बुरा लगे।
क्योंकि उसे पता है कि दादी को अच्छा नहीं लगेगा और उसने उस दिन सुना भी तो——। बेटी पैदा करने के सिवा और कर ही क्या सकती है पता नहीं हमारे घर कहां से आ गई वही रीता को देखो उसके दो- दो बेटे हैं दादी उसी दिन से रश्मि की जिठानी रीता के बेटों को लेकर रश्मि को ताने सुनाने लगी। दिन सरकते गए और रश्मि की बेटियां बड़ी हो गई एक तो पढ़ लिखकर कलेक्टर बन गई, दूसरी इनकम टैक्स विभाग में काम करने लगी। इधर रीता के दोनों बेटे भी बड़े हो चुके लेकिन वे सिर्फ उम्र से बड़े ,काम से नहीं। एक तो दवाई की दुकान में काम करने लगा दूसरे को शराब और चोरी की लत लग गई एक दिन उसने किसी बैंक की एटीएम पर हाथ मार दिया लेकिन वो पकड़ा नहीं गया कई दिनों तक पुलिस तलाश करती रही। करीब दो-तीन दिन के बाद पता चला कि पड़ोस के गांव में किसी जमीदार के यहां चोरी हुई सामान तो सब ले गए ही लेकिन उनके घर में तीन लोगों की हत्या भी हो गई। पुलिस मौके पर पहुंची तहकीकात हुई उसमे रीता के बेटे (रश्मि की जेठानी का बेटा)का भी हाथ था। रश्मि की कलेक्टर बेटी उसी एरिया में तैनात थी आरोपी पकड़े गए रीता उसके पति आदित्य अपने बेटे को छुड़ाने के लिए वकील के पास गए वकील ने कहा पहले दस हजार जमा कर दीजिए फिर अपना काम शुरू करेंगे दोनों वापस घर आ गए और सोचने लगे पैसे तो है नहीं अब कैसे क्या हो? सुबह अखबार वाला आया तो उसने कहा अपने अमित की बेटी कलेक्टर बन गई है। अब दोनों सोचने लगे तभी आदित्य ने कहा मां को भेजना ही ठीक होगा मां आप अमित के घर चली जाओ तभी काम बन जाएगा। सुबह-सुबह जाना तभी जानवी (कलेक्टर)मिलेगी । मैं नहीं जाऊंगी किस मुंह से जाऊं जिंदगी भर तो उसकी बेटियों का तिरस्कार किया है कभी गोद में लेकर खिलाया भी नहीं।
आदित्य के बहुत कहने पर दादी गई पीछे -पीछे रीताऔर आदित्य भी। आओ -आओ मां (ये दोनों बाहर ही खड़े थे )। जानवी कहां है? जानवी बेटा देखो तो कौन आया है? पापा अभी समय नहीं है काम कर रही हूं जो भी है उसको इंतजार करने बोलो। बेटा आओ तो सही कहते हुए अमित जानवी के पास गया बेटा तुम्हारी दादी—। अच्छा वही दादी जो——। नहीं बेटा ऐसे नहीं बोलते चलो पापा आती हूं लेकिन हैं दया दिखाने नहीं इंसानियत के रिश्ते से। जानवी बाहर आई नमस्ते दादी कैसी हैं आप?अरे! तू इतनी बड़ी हो गई और ऊपर से नीचे तक देखने लगी।(जब से जानवी कलेक्टर बनी तो उसका परिवार गांव छोड़कर शहर आ गया)। अच्छा जानवी मेरी बच्ची तेरे ताऊ जी का बेटा जेल में बंद है । उसकी थोड़ी मदद कर देना और दादी की आंखों में आंसू आ गए थोड़ी देर चुप रही फिर बोली मेरी बच्ची तेरे ताउजी -ताईजी के पास पैसे नहीं है मेरे पास भी कहां से—। तू चाहेगी तो सब कर सकती है, दादी मैं सजा कम नहीं करवा सकती उसने गलत किया है सजा तो मिलेगी उसे। हां बस पैसे दे सकती हूं और अगर आप सब का मन हो तो मेरे यहां रह सकते हो आप सबको कोई तकलीफ नहीं होने दूंगी। दादी ने जानवी को सीने से लगाकर फफक- फफक कर रो पड़ी ,माफ कर दे मेरी बच्ची। नहीं दादी शायद आप बचपन में ऐसा नहीं करती तो हम लोग भी ताऊजी -ताई जी के बच्चों——। थोड़ी देर के लिए सब शांत थे दादी जानवी को गले से ऐसी चिपकाए हुए थी जैसे उन्हें कई वर्षों से सुकून न मिला हो और अब सुकून पाना चाह रही हो।
ये क्या / रत्ना सिंह | Short Story Ye kya in hindi
ये क्या– रोज की तरह आज भी फोन की घंटी बजी बिना उठा ही मैंने समझ लिया कि सतीश ही होगा। वही फोन करता है इतनी सुबह वरना तो कोई उसे इतनी सुबह पूछता ही नहीं। मैंने लपक के फोन उठाया और फुसफुस करके बतियाने लगी। इतने धीरे-धीरे क्यों बोल रही हो, मैंने कहा अरे !पागल किचन में मां है कहीं सुन लेगी तो मेरी खटिया खड़ी हो जाएगी। तब तक मां की आवाज आई बेटा इधर आओ मैं तो यहां कोई और ही चीज में व्यस्त थी ।आई मां झट से फोन काट कर उठ गई। सुनो बेटा आज डॉक्टर के यहां चलना है तुमको मां ने कहा। ठीक है मां! और मैं जल्दी-जल्दी नहा कर हम दोनों डॉक्टर के यहां गए मां ने डॉक्टर को सारी बात बताई जो लक्षण थे हमें शरीर का सूखना खाना ना खाना बाल का झड़ना आदि। मां की बात सुनकर डॉक्टर ने कहा ठीक है आप इनका टेस्ट करवा लीजिए।
जी ठीक है! कहकर हम दोनों टेस्ट करवाने चले गए रिपोर्ट शाम तक आना था इसलिए घर वापस आ गए। मैं फोन को घर पर ही छोड़ गई आकर देखा तो सतीश की हजारों मिस्ड कॉल पड़ी मिली। मैंने उसे फोन किया फोन उठाते ही उसका चिल्लाना शुरु इतनी देर से कहां थी? किससे मिलने गई कितने आशिक बना रखे हैं ना जाने कितनी बातें सुनाने लगा, और फोन काट दिया मैं वहीं जमीन पर बैठ कर रोने लगी रोते-रोते कब सो गई पता ही नहीं चला? शाम के करीब 5:00 बज गए मैंने सतीश को महज अपनी रिपोर्ट के बारे में बताने के लिए फोन लगाया उसका फोन व्यस्त देखकर मेरा माथा ठनका (यह तो मुझे बिना मतलब में क्या-क्या सुना सुना रहा था और खुद—-)। मैं कॉल पर कॉल करती गई करीब 1 घंटे के बाद कॉल रिसीव करके बोला मेरे घर पर मेहमान आए हैं बाद में बात करूंगा मैंने दोबारा कॉल लगाया तो नंबर बंद। मैंने न आव देखा न ताव सीधी सतीश के घर जा धमकी वहां पहुंचकर जो देखा उसे देखने का सामर्थ्य मुझ में नहीं था मेरा शरीर गुस्से से कांपअपने लगा गुस्सा भी सातवें आसमान पर पहुंच गया मैंने खींचकर सतीश के गाल पर थप्पड़ जड़ दिया ,और उसके दोनों कंधे झकझोर कर पूछा अब बताओ तुम्हारे कितने आशिक या मेरे?
वह फिर भी लड़की की बाहों में बाहें डाल कर खड़ा रहा रोज फोन करके दुनिया भर की बातें सुनाने वाले सतीश साहब बताइए कि तुम्हारे साथ क्या बर्ताव करूं? तुम जो कहोगे वही बर्ताव करूंगी। लेकिन हां मुझे कमजोर मत समझना मैं लड़की हूं ना इसलिए तुम पर रहम करूंगी, और एक बात यह भी सुन लो मैंने तुमको इसलिए फोन किया था कि मेरी रिपोर्ट आ गई और मुझे कैंसर है मैं तो तुमको खुद अपने से अलग करके किसी दूसरी लड़की के साथ दुनिया बसाने के लिए कहने वाली थी। लेकिन चलो कोई नहीं तुमने तो—–। बस इतना ही कहूंगी की यह सब किसी और—-। लड़की हूं इसलिए ।सतीश की नजरें नीचे झुक गई और थोड़ी देर के लिए सन्नाटा छा गया।
कार्तिक माह का आगमन हो चुका था..आरती मन ही मन बहुत परेशान थी, दो दिन बाद ही करवा चौथ का व्रत होगा..पहली बार अकेले सबकुछ करने की सोच से ही वो उदास थी.. चौबीस वर्ष वो संयुक्त परिवार के स्नेहिल माहौल में रही थी, पर इस वर्ष कुछ ऐसा घटित हुआ कि पतिदेव ने घर छोड़ देने का फैसला किया..वो धक से रह गई.. असंभव लगा उसको आगे जी पाना.. सबसे इतना प्रेम था उसको कि मायका भी भूल गई थी वो..उसको नये घर में शिफ्ट हुए दस माह हो चुके थे, पर पुराने झगड़े जस के तस दिमाग पर कब्जा किये थे.. उसने दिमाग को झटका और तैयारी करने लगी..याद कर-कर के सामान जुटाने लगी.. फिर अचानक फूट-फूट कर रो पड़ी.. “हे भगवान! ये क्या हो गया.. मैं कैसे जी पाऊंगी बिना अम्मा लोगों के..” ये सोच कर वो फिर तनावग्रस्त हो गई..तब तक प्रवेश आ गया..”अरे! तुम फिर रोने लगी? कहकर उसको गले लगा लिया” उसकी ऑंख भी भरी थी, पर छलकने नहीं दिया उसने..”चलो, बाजार हो आते हैं” कहकर वो गाड़ी निकालने लगा..मन से वो भी बहुत अशांत था, पर आरती के सम्मान के लिए उसको ये बड़ा निर्णय लेना पड़ा..उन दोनों के कोई बच्चा नहीं था..पर उनको छोटे भाई के बच्चे अपने ही लगते थे.. उसके दिमाग में उस दिन की वो कड़वी बात फिर उलझ गई.. किचकिच होना तो आम बात थी, पर छोटे भाई का ये कहना कि “मेरे बच्चों को अपना समझना छोड़ क्यों नहीं देते ये लोग..जब इनके अपने बच्चे नहीं हैं तो नहीं हैं, फिर काहे हर समय बड़ी मम्मी बनी फिरती है ये बाॅंझ”.. भाई ने अपनी पत्नी से कहा था..जीने उतरते समय प्रवेश ने जैसे ही ये शब्द सुने धक से रह गया वो! उसको यकीन नहीं हुआ..जो उसके कानों ने सुना..आरती का निश्छल प्रेम.. समर्पण सब व्यर्थ? छि: ..इतनी गिरी हुई सोच थी छोटे की, सहसा उसको घिन आई अपने रिश्ते पर, और तो और माॅं-बाबूजी भी चुप थे.. उसने तुरंत निर्णय ले लिया और .. ..तब तक आरती ने उसका हाथ दबाया.. “क्या सोचने लग गए आप, चलिए ना..” “ओह! चलो -चलो” कहकर उसने गाड़ी निकाली.. आज करवा चौथ था.. सजी-धजी आरती उसको बहुत प्यारी लग रही थी.. प्रवेश ने प्यार से उससे पूछा “क्या क्या बनेगा आज , सब मैं बनाऊंगा ..तुम बस बता देना” तभी कालबेल बजी..”मैं देखता हूॅं..”कहकर प्रवेश दरवाजा खोलने बढ़ा.. प्रवेश की “सुनो” की आवाज सुनकर आरती बाहर आई.. “अरे अम्मा..”खुशी से आरती की आवाज थरथरा गई.. सामने अम्मा-पापा खड़े थे! आरती दौड़ कर अम्मा के गले लग गई और फूट-फूट कर रो पड़ी.. “रोते नहीं है आरती, इतने सालों से तुमने बिन कुछ कहे अपनी सारी जि़म्मेदारी निभाई है, तुम्हारे वहाॅं से आने के बाद हम दोनों ने बहुत विचार किया और फिर तुमको अपने घर वापस ले चलने के लिए आ गये..” “नहीं अम्मा, अब वहाॅं नहीं जाएंगे हम, आप छोटे के साथ ही रहिए वहां.. “प्रवेश ने बहुत खिन्नता से कहा.. “बेटा.. छोटे को दस दिन पहले ही हम लोगों ने घर से निकाल दिया है, तुम लोगों के जाने के बाद से वो बहुत बदल गया था, शराब पीकर ऊटपटांग बोलता था, एक दिन आरती के लिए कुछ ऐसा कहा कि तुम्हारे पापा अपना आपा खो बैठे और उसको घर से निकल जाने को कह दिया..”बताते बताते अम्मा हाॅंफ सी गईं और उन्होंने आरती का हाथ कस के पकड़ लिया..”आप अंदर चलिए अम्मा..सारी बातें दरवाजे पर ही कर लेंगी क्या?” कहते हुए आरती ने दोनों के पैर छुए और दोनों को अंदर लेकर चल दी.. दस महीने बाद अपने घर में पूजा करने बैठी आरती ने अम्मा के साथ चंद्रमा का दर्शन किया और प्रवेश को साज-श्रंगार किये हुए अम्मा के साथ, हॅंसते खिलखिलाते देखकर सहसा भावुक हो गई.. “कितने दिन बाद प्रवेश इतना खुश दिख रहा है”, सोचते हुए आरती.. अपनी अम्मा के साथ करवा चौथ की पूजा संपन्न करने बैठ गई।
Laghukatha Pareshani | लघुकथा परेशानी / रत्ना सिंह
परेशानी– एक कार्यक्रम में जाने के लिए नेताजी घर से निकले ही थे कि पार्टी का एक कार्यकर्ता दौड़कर पास आया और उनके कान में फुसफुसाते हुए कहने लगा कि अभी अभी सूचना मिली है कि आप के चुनावी क्षेत्र में एक लड़की का रेप हो गया है। आखिर जिस बात का डर था वही हुआ अब उस कार्यक्रम को स्थगित करना पड़ेगा, और ड्राइवर से कहा कि जल्दी से गाड़ी निकालो हमारा वहां पहुंचना बहुत जरूरी है। सब सत्यानाश हो गया! लेकिन वहां का माहौल अभी बहुत खराब है अभी आप वहां मत जाइए कार्यकर्ता ने अपनापन दिखाते हुए कहा। बाद में अगर चुनाव नतीजे हमारे पक्ष में नहीं आए तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? आखिर पार्टी हमें अपना काम ठीक से ना करने का नोटिस थमा कर बाहर कर देगी। इसलिए अभी हमारा वहां पहुंचना बहुत जरूरी है कि आखिर यह हुआ कैसे जिसको भी ऐसा करना था वह चुनाव—? नेताजी को परेशानी में देखकर कार्यकर्ता कहने लगा कि वहां जिस लड़की के साथ दुष्कर्म हुआ वह दुष्कर्म करने वाला कोई और नहीं हमारी ही पार्टी का कार्यकर्ता है, और वहां का माहौल बिल्कुल भी ठीक नहीं है। “क्या कहा तूने? अपनी ही पार्टी का कार्यकर्ता था? तो फिर यह तो आजकल आम बात है —–न इसमें हमारी क्या गलती? बिना मतलब मैं डरा दिया कमबखत ने—-। तुझे पता नहीं अभी पिछले ही दिनों एक मामला ऐसे ही रफा-दफा हुआ है वैसे यह भी हो जाएगा इसमें क्या? नेता जी ने यह कहते हुए एक लंबी सांस छोड़ी उनके चेहरे पर अब तनिक भी परेशानी नहीं झलक रही थी।
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Short Story of Savita Chaddha- लघुकथा / सविता चड्ढा
गलत संगत
बेटे कुंदन की मौत के 50 वर्ष बाद अब उसके पिता की हाल ही में मृत्यु हुई है । इन 50 वर्षों में कुंदन के पिता हर रोज सोचते रहे कि मैं अपने बेटे को क्यों नहीं समझा पाया कि वह बुरी संगत छोड़ दें और अपनी पढ़ाई में ध्यान दें। दो चार गलत मित्रों की संगत में वह ऐसा फंसा कि उसने अपने सोने जैसी जिंदगी को एक दिन ईट कंक्रीट से बनी, रेगिस्तान सी गर्म सड़क पर तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया।
उसकी लाश भी कई दिन के बाद मां-बाप को मिली थी।
कुंदन की मां तो आज भी जीवित है और वह चीख चीख कर हर रोज सबको कहती फिरती है कि अपने माता पिता के कहे में रहो । जब उम्र पढ़ने की हो तो सिर्फ पढ़ो, गलत संगत में मत पड़ो।
वह जानती है उसका कुंदन वापस नहीं आएगा, फिर भी वह हर बेटे में अपना कुंदन देखती है और भगवान के आगे भी यही बड़बड़ाती है और रोती है।
राखी का दिन था। मां की मौत के बाद बहन मानसी भाई के दरवाजे पर खड़ी थी। उसने तीन चार बार डोर बेल बजाई लेकिन दरवाजा नहीं खुला। वह दरवाजे के बाहर बने चबूतरे पर बैठ गई। थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला और भाई ने दरवाजे पर बहन को बैठा देख कहा “ये टाईम है आने का, मुझे दुकान पर जाना है और तेरी भाभी वैसे ही बीमार है।” कहते हुए भाई ने सकुटर स्टार्ट किया और बोला” कोई जरुरत नहीं है राखी की।”
बहन समझ गई थी, मां रही नहीं अब कैसे त्योहार और कैसे रिश्ते। मानसी ने साथ लाया मिठाई का डिब्बा दरवाजे पर रखा और भरी आंखों से वापस लौट गई, शायद कभी न आने के लिए।
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महादेवा की ओर से बहुत तेज दो युवक अपनी बाइक की चलाते हुए आ रहे थे ।सामने एक अधेड़ सड़क पार कर रहा था। टक्कर लग गई। बूढ़ा गिर पड़ा। उसके सिर में चोट आई ,घुटने में कुछ चोट आई ।वह बेहोश हो गया। लड़के भाग गए। भीड़ जमा हो गई। कई लोगों ने यह कहा इसे जल्दी से उठा कर अस्पताल ले चला जाए। थोड़ी दूर पर एक पुलिस वाला खड़ा था। उसने कहा–” यह पुलिस केस है। आप इसे छू नहीं सकते,जब तक कि पुलिस इसे अनुमति नहीं देती।” बूढ़ा तड़पता रहा ।लोग तमाशा देखते रहे ।अंत में एक नवयुवक हिम्मत करके सामने आया। उसने कहा–” कानून को जो करना हो, मुझे कर ले। मैं इस बाबा को लेकर अस्पताल जाऊंगा”। उसने एक ऑटो रिक्शा बुलाया। बाबा को में बैठाया और अस्पताल लेकर चला गया। क्षेत्रीय विधायक को पता चला।। उसने युवक को पता लगाकर उसे पुरस्कृत करने की बात कहा। युवक के घर गया भी। युवक ने कहा –“आप मुझे पुरस्कृत करने की बजाय ,अच्छा होता यह कानून बनवा देते कि यदि कोई घायल होता है, तो उसकी सहायता करने वाले से कोई पूछताछ पुलिस न करें। बल्कि अस्पताल में जाकर पीड़ित से उसका बयान ले और जो करना हो कार्यवाही वह करें।” अगले सत्र में मुख्यमंत्री से मिलकर इस तरह का कानून पास करवाया। लोगों को पता चला तो, लोग युवक की जय-जयकार करने लगे।
शिक्षा – इस लघुकथा में हमे शिक्षा मिलती है कि हमें इंसानियत को नहीं भूलना चाहिए , युवक ने आगे आकर वृद्ध आदमी की सहायता की उसने पुलिस का इंतज़ार नही किया मानवता का धर्म ये कहानी हमको सिखाती है।
आपको Hindi Short Story Kanoon | कानून (एक लघु कथा) / डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेद्वी शैलेश वाराणसी द्वारा रचित लघुकथा कैसी लगी , अपने सुझाव कमेन्ट बॉक्स मे अवश्य बताए अच्छी लगे तो फ़ेसबुक, ट्विटर, आदि सामाजिक मंचो पर शेयर करें इससे हमारी टीम का उत्साह बढ़ता है। आपकी रचनात्मकता को हिंदीरचनाकार देगा नया मुक़ाम, रचना भेजने के लिए help@hindirachnakar.in सम्पर्क कर सकते है| whatsapp के माद्यम से रचना भेजने के लिए 91 94540 02444, संपर्क कर कर सकते है।
अशोक कुमार गौतम की लघुकथा विघटन | Laghukatha Vighatan
यमुना नदी की गोद में बसा देवकली गाँव इटावा जनपद में स्थित है। रमणीय और प्राकृतिक वातावरण, हरे-भरे पेड़ पौधे, कहीं पठार तो कहीं छोटी-छोटी घाटियां हर इंसान को अपनी ओर अनायास ही मोहित कर लेते हैं। इस क्षेत्र में कई दशकों से समय-असमय गोलियों की गड़गड़ाहट भी सुनाई देती रहती थी। यहाँ की राजनीति की धमक आज भी दिल्ली तक सुनाई देती है। देवकली गाँव में गिरजा शंकर चौधरी अपनी पत्नी प्रिया और अन्य तीन भाइयों के साथ रहते थे, जो मध्यमवर्गीय परिवार में गिने जाते थे। कभी-कभी गाँव की राजनीति और जंगल से आने वाली धमकियों का भी शिकार हो जाया करते थे। किंतु किसी के सामने सिर नहीं झुकाया। किसी भी प्रकार का बाहरी विवाद होने पर चारों भाई एकजुट होकर मुकाबला करते थे। गिरजा शंकर चौधरी के अन्य भाई गाँव से पलायन करने की बात सोचते थे, परंतु परिवार की एकता और खून के रिश्ते ने कभी किसी भाई को एक-दूसरे से अलग नहीं होने दिया।
गिरजा शंकर के तीन पुत्र मयंक, अंकित, दिलीप और एक पुत्री जिसका नाम सोनिका था। सभी देखने में सुंदर और हाव-भाव से कुशाग्र बुद्धि वाले लगते थे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हुए, सब का दाखिला भी सरकारी स्कूलों में करा दिया जाता था। जीवन के 57 वसन्त देख चुके गिरजा शंकर और उसकी पत्नी प्रिया को कभी-कभी भरपेट भोजन भी नहीं मिलता था। वह गृहस्थी चलाने और संतानों की पढ़ाई के लिए मजदूरी करता था, तो कभी कानपुर में आढ़तियों का कार्य करता था। गिरजा शंकर शहरी आब-ओ-हवा से अच्छी तरफ वाकिफ़ हो चुका था। इसलिये उसे डर सताया करता था कि मेरा घना वृक्ष रूपी परिवार की कोई डाली टूट कर अलग न हो जाये।
गिरजा शंकर की पढ़ाई तो न के बराबर थी पर राजनीतिक और साहित्यिक मंचों पर भाषण तथा रेडियो पर प्रसारित वार्ताओं में विभिन्न महापुरुषों के विषय में सुना करता था, जिसमें एक सुना था कि डॉ0 भीमराव अंबेडकर कहते थे- “शिक्षा उस शेरनी का दूध है, जो पियेगा दहाड़ेगा।” यही मूल मंत्र गिरजा शंकर के मन-मस्तिष्क में बसा हुआ था। बेटी सोनिका भी पढ़ने में तेज थी। गिरजा शंकर चौधरी अपनी पुत्री सोनिका का दहेज रहित विवाह अपने से श्रेष्ठ परिवार में कर देता है। सोनिका के ससुराल वाले भी उसे बेहद प्यार और सम्मान करते थे। सोनिका अपनी ससुराल में बहुत खुश थी, साथ ही मायके के भी सुख-दुःख में साथ खड़ी रहती थी। ससुराल वालों ने भी उसकी पढ़ाई में बाधा नहीं उत्पन्न की, जिससे वह राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज में नौकरी पा जाती है। गिरजा शंकर अपने तीनों पुत्रों को कानपुर शहर में पढ़ने के लिए भेज देता है, वे सरकारी हॉस्टल में रहने लगते हैं। कोचिंग में पढाने के लिए गिरिजा शंकर के पास रुपए ना थे, इसलिए तीनों पुत्र कानपुर के फूलबाग स्थित राजकीय पार्षद पुस्तकालय में जाकर पढ़ाई करते थे। सभी बेटे बेहद संस्कारवान और पढ़ाई में अव्वल हो गए थे। कुछ समय बाद मँझला बेटा अंकित बुरी संगत में फंस गया, जिसके कारण उसका मन पढ़ाई से हटकर कुमार्ग पर चलने लगा था। अन्य दोनों भाइयों ने खूब समझाया पर वह नहीं माना। मयंक को केंद्रीय विद्यालय में प्रवक्ता की नौकरी मिल गई और पहली नियुक्ति अम्बाला में हुई। अब गिरजा शंकर के सिर पर कुछ भार कम पड़ गया। फिर भी वह अपनी मेहनत में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता था। छोटा पुत्र दिलीप कद-काठी में लंबा चौड़ा और पढ़ने में अव्वल तो पहले से ही था, इसलिए उसे दारोगा की नौकरी मिल गई। इस परिवार को कभी पद-प्रतिष्ठा पर घमंड न था। मंझला बेटा वापस अपने गाँव देवकली आकर छोटी मोटी दलाली करने लगा था। बारी बारी से तीनों लड़कों का विवाह भी योग्य और सुशील कन्याओं से हो गया। गिरजा शंकर की तीनों बहुओं में आपसी लगाव, स्नेह और संस्कारों की चर्चा पूरे गाँव में होती थी। सोनिका, मयंक और दिलीप मिलकर तन-मन-धन से अपने भाई अंकित की हरसंभव मदद करते थे। अब तो गिरजा शंकर को आसमान में उड़ना चाहिए था, किंतु गिरजा शंकर और उसके तीनों पुत्रों ने जमीन से नाता नहीं छोड़ा.. अर्थात किसी में भी रंच मात्र का अहंकार न था। संयुक्त परिवार होने के कारण कोई विरोधी भी फटकने नहीं पाता था, न ही बाहरी व्यक्ति किसी प्रकार की हानि पहुँचा पाता था। अब तो गाँव वालों की आँखों में गिरजा शंकर और उसका परिवार खटकने लगा था।
ग्रामीणों ने षड्यंत्र के तहत अंकित को गाँव की राजनीति में उतरने के लिए खूब भड़काया और वोट तथा सत्ता सुख का लालच दिया। विभिन्न सुख-दुःख को सहन करते हुए जो परिवार सागर की तरह शांत रहता था आज उस परिवार में अंकित राहु बनकर खड़ा हो गया। दोनों भाइयों से चुनाव लड़ने के लिए धन एवं प्रचार हेतु समय माँगने लगा, जो कि संभव न था। मयंक, दिलीप और सोनिका ने समझाते हुए कहा कि चुनाव लड़ना मानो ओखल में सिर डालने जैसा है। इसलिए परिवार में शांत रहकर जीवन यापन करो। बहन-भाइयों की यह संस्कारी बातें अंकित के हृदय में भाला की नोक की तरह चुभ रही थीं। ग्रामीणों की मंशानुरूप अब अंकित के मन में परिवार के प्रति विद्रोह की भावना जागृत हो गई। उसने परिवार से विघटन करने तक की सोच लिया। गिरजा शंकर औऱ प्रिया ने आँखों में आँसू लिए अंकित को खूब समझाया कि परिवार के साथ मिलकर चलोगे तो किसी के सामने हाँथ नहीं फैलाना पड़ेगा।
ईर्ष्यालु अंकित के जीवन में गाँव वालों ने जो आग लगाई थी वह जाग्रत ज्वालामुखी की तरह भड़क रही थी। आखिर में अंकित वट वृक्ष रूपी परिवार से अलग हो गया और गाँव में हर तरफ अपने ही परिवार की बुराई करने लगा। धीरे-धीरे हंसते-खेलते परिवार में विघटन हो गया। आँगन में नफरत की दीवाल खड़ी हो गई और दो चूल्हे जलने लगे। गिरजा शंकर चौधरी इस असहनीय दुःख को बर्दास्त न कर पाने के कारण कुंठाग्रस्त जीवन व्यतीत करने लगा था।