अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

अंतर | Short Story in Hindi | आशा शैली

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आशा शैली

अंतर

पति के देहांत को छः महीने से भी ज्यादा हो गये थे, बेटी बार-बार बुला रही थी। हॉस्टल की वार्डन भी कई बार कह चुकी थी कि ‘बच्ची पिता को लेकर बहुत भावुक है, एक बार आप आकर उसे मिल जाइए थोड़ा-सा हौसला होगा उसे।’
घर से निकलने की उसे हिम्मत ही नहीं हो रही थी, फिर भी वह अपने दायित्व के प्रति जागरूक थी। पिता के न रहने पर माँ के बढ़े हुए दायित्व से भली भान्ति परिचित थी, अतः शिमला जाने का मन बना ही लिया।
बैग उठाकर बाहर ही निकली थी कि विवाहित बेटे ने टोक दिया, ‘‘यह क्या पहन लिया आपने? कुछ समाज की भी चिन्ता है या नहीं?’’
करुणा ने चौंककर अपने आप को देख, उसने गहरे हरे रंग का पुराना-सा प्रिंट सूट पहन रखा था, ‘‘इस सूट में क्या हो गया?’’
‘‘आपको पगड़ी पर कितनी सारी सफेद साड़ियाँ मिली थीं? उनका क्या करेंगी आप?? अब आपको घर से बाहर जाते समय उन्हें पहनना जरूरी है। हमारे समाज का यही नियम है।’’ बेटे की आवाज़ सपाट थी।
‘‘बस के सफर में सफेद कपड़ा जल्दी गंदा हो जाता है। मिला पहुँचकर बदल लूँगी।’’ करुणा नीचे सड़क पर उतर गई थी। बस आने वाली थी, बहस का समय नहीं था।

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शाम तक वह अपनी मित्र उषा के घर में थी, उषा से भी इस हादसे के बाद वह पहली बार मिल रही थी, वातावरण बोझिल ही रहा। सुबह करुणा को सफेद साड़ी में शृंगार विहीन देखकर वह बिलख उठी, परन्तु करुणा अनदेखा करके बाहर निकल गई।
प्रिंसिपल ने लड़की को बुलावा भेजा, पर यह क्या, बेटी तो माँ को देखते ही दरवाजे से उल्टे पैर भागती हुई प्रांगण के बड़े पेड़ से सिर मार-मार कर रोने लगी। जो अध्यापिकाएँ करुणा से मिलने आई थीं वे भी लड़की के इस अप्रत्याशित व्यवहार से भौंचक्की खड़ी थीं, तभी वार्डन ने आगे बढ़कर बच्ची को प्यार से सहलाते हुए पूछा,
‘‘क्या हुआ मैना? क्यों रो रही हो?? तुमने ही तो उनको मिलने के लिए बुलाया था।’’
‘‘मैम!….उसने सुबकते हुए कहा, ‘‘वो, सफेद साड़ी…..वो मुझे याद दिलाती है….पापा मर गये…नहीं हैं अब मेरे पापा’’ वह फिर हिचकियाँ लेने लगी।
‘‘सॉरी बेटा, अब ऐसा नहीं होगा। विश्वास रखो।’’ करुणा ने बेटी को गले लगा लिया। अब उसने उषा की दी हुई कत्थई शॉल ओढ़ ली।

Patthar dil laghukatha-डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र

 पत्थर दिल – लघुकथा

(Patthar dil laghukatha)

बहुत खुश थी सुहानी। आज उसे केन्द्र सरकार के एक प्रतिष्ठित विभाग में नौकरी मिल गई। खुशी का ठिकाना नहीं था। उसकी प्रसन्नता उसके चेहरे से साफ़ दिखाई पड़ रही थी। इधर कई वर्षों से सिविल सेवा की तैयारी में जी जान से लगी थी। सुहानी आज सत्ताइस साल की पूरी हो गई। घर में अपाहिज़ पिता जो पिछले दस वर्षों से ज़िंदगी और मौत से जूझ रहे हैं। उनके दवा की जिम्मेदारी से लेकर छोटे भाई के पढ़ाने का खर्च और बूढ़ी मां के कैंसर जैसे जानलेवा बीमारी जिसमें रोगी का अटेंडेंट बिल्कुल टूट जाता है, यह सब कुछ वह एक छोटी सी प्राइवेट नौकरी और वहां से छूटने पर कुछ छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर किसी तरह से घर को चला रही थी। जिस शहर में सुहानी रहती है उसी शहर में उसके मुंहबोले एक मामा भी रहते हैं। शुरूआती दौर में वह अक्सर भांजी के यहां आया करते थे जब उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी थी। पिता को पच्चीस हजार का पगार मिल जाता था, लेकिन दुर्भाग्यवश उस घटना में फ़ालिज मार देने के कारण कुछ दिन तो मालिक ने आधा वेतन दिया, बाद में वह भी बंद कर दिया। मुफ़लिसी में खुले दरवाजे भी बंद हो जाते हैं। जो अच्छे समय पर डींगे हांकते थें चौबीस घंटे वहां डटे रहते थे उन्होंने भी किनारा कर लिया। मुंहबोले मामा से सुहानी ने सिर्फ़ दो हजार रुपए मांगे थे, मुसीबत में अपनों का ही सहारा होता है यह समझकर उसने मामा से मदद मांगी थी लेकिन मामा ने स्पष्ट मना कर दिया कहा कि मुझे अपनी बच्ची की फीस जमा करनी है और बेटे सोनू को ट्यूशन जाने के लिए एक नई साइकिल खरीदनी है कहकर पलड़ा झाड़ लिया। कहा गया है कि जब विपत्ति आती है तो कुछ अनिष्ट भी कर जाती है। कैंसर से जूझ रही मां के कीमों थेरेपी के लिए अपने पिता के आफिस गई। कंपनी के मालिक से अपनी हालत बयां कर डाली, लेकिन मालिक ने कहा तुम्हारे पिता के इलाज के लिए पहले से ही बहुत पैसा मैंने दे दिया है अब मैं नहीं दे सकता। सुहानी ने कहा कि मुझे कुछ पैसे और दे दीजिए मैं पाई-पाई आपका चुका दूंगी। थोड़ा सा वक्त दे दीजिए, समय एक जैसा नहीं रहता है। यह कहते- कहते उसकी आंखों से आंसू चू पड़े, लेकिन मालिक का पत्थर दिल नहीं पसीजा। निराश होकर जब घर पहुंची तो देखा दरवाजे पर भीड़ लगी हुई थी। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। उसकी मां इलाज़ के अभाव में इस नश्वर संसार से अपने सारे संबंध तोड़कर देवलोक के लिए महाप्रस्थान कर चुकी थी।

Patthar- dil- laghukatha
डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र
फूलपुर प्रयागराज
7458994874

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